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________________ २. २१. १५ ] हिन्दी अनुवाद ६५ हो । नभमें नभचरों, धरतीपर मनुष्यों और पातालमें विषधरोंने गिरते, दौड़ते, ठहरते, विगलित होते चंचल, सर्वज्ञके स्नानजलको वन्दना की । धत्ता - गुरुको सेवाकी इच्छा रखनेवाले चार प्रकारके देव हर्षसे कहीं भी जलका नमस्कार करते हैं । उठते-पड़ते सामने नाचते हुए वे बार-बार प्रणाम करते हैं ॥ १७ ॥ १८ किसीने बाजा बजाया, किसीने श्रुतिमधुर गाना गाया, किसीने प्रचुर पुण्यका संचय किया । किसीने भावपूर्ण नृत्य किया । किसीने विलेपन भेंट दिया। किसीने आभूषण दिये, किसीने स्तोत्र शुरू किये, किसीने तोरण बांधे । कोई दण्डधारी प्रतिहारी बन गया । कोई हाथमें तलवार लेकर पास खड़ा हो गया । धर्मानुरागसे युक्त कोई सुन्दर पढ़ने लगा । किसीने माला ऊँची कर ली । किसीकी वीणा स्निग्धतर हो उठी । जहाँ-जहाँ वह स्पर्श करता है वहीं मन हो जाता है । स्वर और अँगुलियोंसे ताड़ित वह रुनझुन करती है, निर्जीव होते हुए भी, जिनवरके गुणोंकी स्तुति करती है। उस अवसरपर सहस्रनयन इन्द्र अपने नाना मुख बनाकर गुरुकी स्तुति करता है, “आकाश आकाशके समान है, तुम्हारा उपमान कोई भी मनुष्य नहीं हो सकता । हे जिनवर, जब आप आपके ही समान कहे जाते हैं तो हे परमेश्वर, में आपको क्या स्तुति करूँ ? घत्ता - हे जिनवर, जो स्वनिर्मित काव्यसे तुम्हारी गुणराशिका कथन करता है वह मूर्ख अत्यन्त छोटे हाथरूपी करछलसे जलराशिको मापना चाहता है || १८ || १९ हे जिनवर, तुम्हारे स्तवन के आचरणमें में अपना नवीन चित्त देता हूँ । हे ईश, मैं धृष्टता से ही तुम्हारी वन्दना करता हूँ । जो धनलाभके लालची, संगृहीतका संग्रह करनेवाले, परस्त्रियोंकी हिंसा और अपहरणसे आनन्दित होनेवाले, पशुमांस और मद्यकी जलधारा में लुब्ध होनेवाले, कुल जाति और विज्ञानके गर्वसे अवरुद्ध, मदसे घूमती हुई आँखोंवाले, मिथ्यात्वपर चढ़े हुए और महामूढ़ हैं, उनके द्वारा वह कैसे देखा जा सकता है। असिपत्रोंसे दुर्गंम अन्तरालमें घटित होते हुए, महान्धकारमय नरकमें पड़ते हुए, यमके पाशसे अत्यन्त पीड़ित और सब प्रकारसे होन शरीरधारियोंके लिए है जिन, कौन हाथका सहारा देता है ? मेरे इस जगजन्मवासको नष्ट कर, तुम्हें छोड़कर कौन मुझे परमपदमें ले जा सकता है ? कालरूपी कालाग्निकी ज्वालावली के लिए मेघतुल्य तुम्हारी जय हो । इन्द्रों और नागेन्द्रोंकी लक्ष्मीरूपी लताके अंकुर आपकी जय हो । संसारके घोर कान्तारसे निस्तार दिलानेवाले आपकी जय हो; द्रव्यों और पर्यायोंकी सम्भावनाओंके सार, आपकी जय हो; कामके श्रृंगारके भारका भेदन करनेवाले आपकी जय हो; दीर्घं दारिद्रय और दुर्भाग्यका छेदन करनेवाले आपकी जय हो । दुर्विनीत हृदयवालोंके लिए अज्ञेय आपकी जय हो, वीतराग शल्यहीन हे नाभेयनाथ, आपकी जय हो । सिंहासनपर स्थित हे देव, आपकी जय । दुष्टचित्तों और भक्तोंमें मध्यस्थ चित्त, आपकी जय । ९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002722
Book TitleMahapurana Part 1
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1979
Total Pages560
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size11 MB
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