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सन्धि
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सिन्धु नदीको छोड़कर और ऋषभ जिनेन्द्रको प्रणाम कर राजा भरत अमरेन्द्रोंको भयरस उत्पन्न करता हुआ चला ।
सेना और सेनापतिसे घिरा हुआ हिमवन्तको अपने अधीन कर वह चल पड़ा। जिसमें कुरुवंशके स्वामी राजा प्रमुख हैं ऐसी सेना पूर्वकी ओर मुख किये हुए शोभित है। शैलके स्थलमें कानन इस प्रकार दिखाई देता है, मानो महिषीके दूधके समान साहाघन ( शाखाओं और दुग्धधारासे सघन ) है, कहींपर नाना वृक्षोंके फलरसको चखनेवाले वानर किलकारियां भर रहे हैं, कहीं सारस रतिमें रक्त हैं, कहीं तपस्वी तपसे सन्तप्त हैं, कहीं निर्झर झर-झर बह रहे हैं, कहीं गुफाएँ जलसे भरी हुई हैं, कहीं झुके हुए बेलफल हैं जो भीलोंके द्वारा भग्न होते हुए दिखाई देते हैं, कहीं हरिण चौकड़ी भर रहे हैं, फिर गौरीके गीतसे मुड़ते हैं, कहींपर सिंहके नखोंसे उखाड़े गये मोती हाथियोंके गण्डस्थलोंसे उछल रहे हैं। कहीं पर यक्षणियोंकी ध्वनिलहरी सुनाई देती है, कहींपर विद्याधरीके हाथोंकी वीणा रुनझुन कर रही है। कहींपर भ्रमरकुलोंके द्वारा गुंजन किया जा रहा है, और कहींपर शुक 'किं किं' बोल रहा है।
____घत्ता-कहींपर किन्नरियोंके द्वारा कानोंको प्रिय लगनेवाला नाग, नर और सुरलोकमें श्रेष्ठ ऋषभनाथ चरित गाया जा रहा है ॥१॥
जहां सुर-असुरोंकी रति शृंखलाएँ निक्षिप्त हैं ऐसे हिमवन्तके कूटतलके धरातलपर नवचम्पक कुसुमोंसे सुवासित छह अंगोंवाले सैन्यको ठहरा दिया गया। बहुत-सी रस्सियोंसे तम्बू ठोक दिये गये, हजारों युद्धपटह बजा दिये गये। गजशाला और नाट्यशालागृह और प्रवरशाला
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