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________________ ११. १४.८ ] हिन्दी अनुवाद २४९ खर और पंकभाग ( रत्नप्रभा नरक) का हजार अधिक एक लाख योजन पिण्डत्व ( विस्तार ) है । प्रत्येक भूमिका असंख्य आयाम है, जिसे देवने संक्षेप में कहा है । रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमःप्रभा और भी अन्तिम तमतमः प्रभा है जिसमें नित्य नारकीयों का वध किया जाता है । इस प्रकार ये अत्यन्त सघन तमजालसे निबद्ध सात नरकभूमियां प्रसिद्ध हैं । घत्ता - इन भूमियोंके बिल स्वभावसे भयंकर होते हैं, सघन अन्धकारोंके घर अगणित योजनोंके विस्तारवाले होते हैं ॥ १२ ॥ १३ फिर दस लाख, 1 इनके क्रमश:, तीस और फिर पच्चीस लाख और फिर दुःख देनेवाले पन्द्रह लाख, 1 तीन लाख, फिर पाँच कम एक लाख अर्थात् निन्यानबे हजार नौ सौ पंचानबे, और अन्तिम नरकके पाँच बिल होते हैं । इनमें नारकीय जीव भस्त्राकारके होते हैं, सिंहों और हाथियोंके रूपोंका विदारण दिखाते हुए । जहाँ राजाओंके मुख सब ओरसे बन्द हैं, अधोमुख लटके हुए शरीरवाले । लोहेकी कीलों और कांटोंसे भयंकर । दुर्गन्धित और दुर्गम अन्धकारसे भरे हुए । इनमें अत्यन्त कृष्ण लेश्या के कारण मनुष्य या तियंच उत्पन्न होते हैं। सहसा एक मुहूर्तमें शरीर धारण करते हैं, जो हुंडक आकार वैक्रियक शरीर होता है । वहाँ अवधिज्ञानके स्वभावसे जिनमतका उच्छेद करनेवाले म्लेच्छों का विभंगज्ञान होता है । काले अंगारोंके समूहके समान काले, दाँतों को प्रगट करनेवाले और ओठोंको चबानेवाले, अपनी भौंहें भयंकर करनेवाले और क्रोधसे उद्धत, कपिल बालोंवाले और दूसरोंको मारनेमें कठोर। जिस प्रकार वे अपने बारेमें सोचते हैं, उस प्रकार वह स्थान उनके लिए उत्पन्न हो जाता है । दाढ़ोंसे भयंकर अपना मुँह फाड़ते हैं, अथवा पाप किसका क्या घात नहीं करता । घत्ता - अधोमुख होकर वे शीघ्र असिपत्रपर गिर पड़ते हैं । स्वयंको मारते हैं, दूसरेको मारते हैं और युद्ध में दूसरेके द्वारा मारे जाते हैं ||१३|| १४ उनका कोई मध्यस्थ या उपकार करनेवाला मित्र नहीं होता । जो-जो दिखाई देता है वह दुश्मन होता है। वहाँके क्षेत्रस्वभावको क्या कहा जाय ? जो श्रुतकेवलीके समान है, उसके द्वारा भी वर्णन नहीं किया जा सकता । सुईके समान तृण हैं और चलनेमें कठिन धरती । उष्ण शीत और प्रचण्ड पवन | जिसे हाथमें लेने मात्रसे जीव मर जाता है, वैतरणी नदीका ऐसा वह जल, विष है, उसे क्या पिया जा सकता है। जहाँ वृक्षोंके पत्ते हाथ पैर मुख और शरीरको खण्डित कर देनेवाले तलवारके समान हैं। जिनके फल वज्रकी मूठकी तरह कठोर हैं । शरीरको चूर-चूर कर देनेवाले वे ऊपर गिरते हैं। पहाड़ोंकी गुफाओं में से तमतमाते हुए मुखवाले विक्रियासे निर्मित सिंह खा जाते हैं । जहाँके मार्ग अग्निज्वालाओंसे प्रज्वलित हैं, वह जहां जाता है, उसे दुष्ट ३२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002722
Book TitleMahapurana Part 1
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1979
Total Pages560
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size11 MB
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