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७. १४.४ ]
हिन्दी अनुवाद
१४१
मज्जा और मांस की कीचड़से लिपटा हुआ, रक्तसे रंगे हुए नौ द्वारवाला, प्रस्वेद शुक्र और अस्थियोंसे दुर्गन्धित, शिराओंके कृमिजालसे संरुद्ध, विपरीत ढंगसे क्षरणशील कृमिकुलके मलका पोटला, विगलित रस और चर्बीसे युक्त अपवित्र यह शरीर है । भीतर इसे किसने देखा ? बाहर यह चर्मपटलसे आच्छादित है । नित्य ही मूत्र - लाररूपी जलसे चिपचिपा, रोगी, दुर्गन्धित और अत्यन्त सन्तापदायक । वात-कफ और पित्तके दोषोंका आकर, पृथ्वी आदि चार महाभूतोंके समूहका घर ही शरीर है । रमणीके रमणरागके हर्षसे आनन्दित यह जीव अपवित्रतासे उत्पन्न चीजों को खाता है।
घत्ता - हाथियों और मगरोंके द्वारा मान्य गंगाके पानी में नहा - नहाकर मोहको प्राप्त होता है । मद, काम, क्रोध, माया, मोहसे अपवित्र यह शरीर शुद्ध नहीं होता ॥ १२ ॥
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यदि वह दो प्रकारके तपमें अपनेको लीन करता है, तो यह अपवित्र मनुष्यत्व पवित्र होता है । पाँच इन्द्रियोंके सुखोंमें मनको प्रेरित करते हुए, और तप नहीं करते हुए जीवके कर्मका आस्रव होता है । ज्ञानावरणी पाँच प्रकारका है, जो वस्त्रके समान आवरण ( आच्छादन ) दिखाने वाला है; गुणोंका निवारण करनेवाला दर्शनावरणी नौ प्रकारका है; जो निर्जित और निषेध करनेवाले प्रतिहारीके समान है । रोगयुक्त शयनके समान वेदनीय दो प्रकारका है, जो मधुर सहित और मधुर रहित तलवारकी धारको चाटनेके समान सुखद और दुःखद है। मोहनीय कर्म मदिरा समान मुग्ध करता है, जिन भगवान् उसके अट्ठाईस भेद बताते हैं । चार प्रकारका आयुकम चार गतियों में जानेवालोंके द्वारा पहुँचता है और खोटकके समान वहीं अवरुद्ध होकर रह जाता है । नामकर्म बयालीस प्रकृतियोंका होता है और वह चित्रके रंगोंकी परिणति के समान परिणामोंसे युक्त होता है । कुम्हारके बर्तनोंके समान छोटे-बड़े आकारवाला गोत्रकर्म दो प्रकारका होता है - मलिन और समुज्ज्वल, ( उच्चगोत्र और नीच गोत्र ) । अन्तराय कर्म चार और एकपांच प्रकारका है जो करनेवालेको दानका निवारण करनेवाला होता है। तथा प्रकृति स्थिति अनुभाग प्रदेशवाले बन्ध विशेषोंसे बलपूर्वक जकड़ लेता है ।
घत्ता - गुणवान्, अनादि सूक्ष्म विवेकी, दो शरीरोंसे निबद्ध ( तैजस और कामण ) त्रिगतिवाला यह जीव कर्ता और भोक्ता उत्पन्न शरीर मात्र ऊर्ध्वगामी और स्वयं सिद्ध है ||१३||
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आते हुए पापका जो पूर्णं संवर नहीं करते, उनके ऊपर सिरपर बिजलीकी तरह असह्य वज्रपात होगा । ध्यानके विस्तार और धरतीपर सोनेसे स्पर्शविलासी चित्त रुक जाता है, पशुके पिण्डके समान आहार ग्रहण करनेसे रसना इन्द्रिय रुक जाती है, और वह दृष्टि विकारभावसे कुछ
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