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________________ ५. १९.९] हिन्दी अनुवाद १११ तरह दुर्बल हो गया। उसके पयोधर (स्तन) सघन मेघोंको लुण्ठित कर देनेवाले हैं, उसकी मोतियोंकी चंचल हारावली जलकणोंके समान है। उनके (मोतीरूपी जलकणों) द्वारा सींची गयी रोमराजि, नयी लताके समान दिखाई देती है, ऐसा मेरे द्वारा कहा जाता है। इस रूपसे विश्वनारियोंमें सुन्दर मानकर पिताने उसका नाम सुन्दरी रख दिया। पत्ता-इस प्रकार युद्ध में दुर्धर अनूपम रूपवाले एक सौ एक पुत्र और दो कन्याएँ सृष्टिके विधाता परमेष्ठी ऋषभनाथके उत्पन्न हुए ॥१७|| महाशत्रुओंके समूहका मदन करनेवाले सभी पुत्र विश्वपति पिताके चरणोंके मूलमें, अनेक शास्त्रसमूहके धारण ( अभ्यास ) से परिणत बुद्धिवाले हो गये। भावपूर्वक सिद्धोंको नमस्कार कर दायें और बायें हाथसे लिखकर अक्षरोंकी गणना उन्होंने निर्मल स्वर्ण वर्णकी कन्याओंको बता दी। अर्थसे और शब्दसे भी शोभित गद्य और अगद्य, दो प्रकारका काव्य, संस्कृत, प्राकृत और फिर अपभ्रंश, प्रशंसनीय उत्पाद्य वृत्त, शास्त्र और कलाओंसे आश्रित सर्गबद्ध काव्य ( प्रबन्ध काव्य ), नाटक और कथासे समृद्ध आख्यायिका, अनिबद्ध गाथादि, मुक्तक काव्य कहा। गेय और वाद्योंके भी लक्षणोंको देखा। आदिनाथने स्वयं जिस रूप में व्याख्या की. दोनों कमारियोंने उसे उस रूप ग्रहण कर लिया। अनेक शास्त्रों, बहुभेदवाले ज्ञान-विज्ञानोंकी व्याख्या करते हुए महान् और आदरणीय आदिनाथ जब इस प्रकार रह रहे थे कि तभी प्रजा दुष्कालसे भग्न हो गयी। पत्ता नहीं जानते हुए वह ( उनके ) घर आकर कहती है कि 'हे प्रभु, अवसर्पिणीने दस प्रकारके कल्पवृक्ष खा लिये हैं।' जिनेन्द्रने इसे देखा ॥१८॥ इन्द्रके विकट मुकुटतटके मणिगणोंसे झरते हुए पवित्र जलसे धोये गये हैं चरणकमलयुगल जिनके, ऐसे हे परमेश्वर, महान् शत्रुओंका निवारण करनेवाले आपने भी, कल्पवृक्षोंके नष्ट होनेपर, प्रलय और भूखरूपी मारीसे हमारी रक्षा नहीं की । वस्त्र मलसे मैले और जीणं हो चुके हैं, समयके साथ आभरण नष्ट हो चुके हैं, शरीरका लावण्य और वर्ण चला गया है, पेटकी आगसे खून भी सूख गया है। इस समय हमारा आधारस्तम्भ कौन है ? हम आपकी शरणमें आये हैं । अशन, वसन, भूषण और सम्पत्तियोंवाली समस्त वृत्तियोंसे हमें निश्चिन्त करिए। यह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002722
Book TitleMahapurana Part 1
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1979
Total Pages560
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size11 MB
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