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________________ १७.७.७] हिन्दी अनुवाद ३८७ मानो मेघने विद्युदण्डका प्रदर्शन किया हो। कोई योद्धा कहता है आज मैं शत्रुको मारूँगा और स्वामीको निष्कण्टक राज्य दूंगा। स्वामी तुच्छ है और शत्रु प्रवर है, तो मैं भी धीर हूँ, हे सुन्दरी, क्या विचार करना? जल्दी अपना हाथ दो और आलिंगन करो; कौन जानता है फिर संयोग कहाँ हो? मैंने अपने जिन हाथोंसे प्रभुका प्रसाद लिया है आज मैं उन्हीं हाथोंसे युद्ध करूंगा? घत्ता-कोई महासुभट कहता है कि हे कान्ते छोड़ो-छोड़ो मैं कुछ भी सुन्दर नहीं करूँगा। बाहर निकलकर मैं अपने शिरके दानसे राजाके ऋणका शोधन करूंगा ।।५।। कोई सुभट कहता है कि जिनके मुख में घाव कर दिये गये हैं, ऐसे गज(डोंसे यदि मेरे उरतलका भेदन कर दिया जाता है, यदि राक्षसोंके द्वारा मेरा आमिष खा लिया जाता है, यदि कौओंके द्वारा रक्त पी लिया जाता है, यदि गीध आंतोंको लेकर चले जाते हैं तो मेरे मरणका मनोरथ पूरा हो जाता है। कोई सुभट कहता है कि लो मैं हाथ देता हूँ, मैं गजदांतोंके मूसल निकालकर लाऊंगा। योद्धा समूह और हाथियोंको चूर-चूर कर मैं अयशरूपी भूसाकी धूल उड़ाऊंगा? कोई सुभट कहता है हे सुन्दरी, आकाशरूपी आँगनमें लम्बमान ( लम्बा फैला हुआ) जिसने शत्रुको नहीं छोड़ा है, और तलवारका प्रदर्शन किया है, ऐसे मेरे हाथको, टुकड़े-टुकड़े होनेपर तुम पक्षीके मुखमें देखोगी ? अथवा शत्रुके द्वारा विभक्त, धरतीपर पड़े हुए तुम्हारे मंगलाश्रुओं और काजलसे लिप्त, अत्यधिक रुधिरसे आद्रं, छोड़े गये लम्बे-लम्बे तीरोंसे विदीर्ण यदि तुम मेरे वक्षःस्थलको देखो तो उसे ले लेना और अपने केशर सहित हाथकी पहचान देना। हे श्यामलांगी, यदि तुम मेरे खिले हुए चेहरे और रक्तनेत्रोंवाले घत्ता-मेरे सिरको गिरा हुआ देखो, तो तुम उसे अपने चित्तरूपी तराजूपर तौलकर पहचान लेना और स्वयं देख लेना कि वह राजाका परिपालन करनेवालेके सदृश है-या सदृश नहीं है ? ॥६॥ शीघ्र ही संग्रामभेरी बज उठी मानो मारी त्रिभुवनको निगलनेके लिए भूखी हो उठो हो। स्वाभिमानी बाहुबलि शीघ्र ही निकल पड़ा। शीघ्र ही इस ओर चक्रवर्ती आ गया। शीघ्र ही कालने अपनी लम्बी जीभ प्रेरित की और मनुष्योंके मांसको खानेकी इच्छासे उसे फैला लिया। जीवनसे निरीह होकर लोकपाल स्थित हो गये। पवंत हिल उठे और जंगलमें सिंह दहाड़ उठे। शीघ्र ही योद्धाओंकी मारसे धरती डगमगा गयी। शीघ्र ही अस्त्रोंकी प्रभासे सूर्यका उपहास किया जाने लगा। शीघ्र ही प्रचण्ड सेनाएं देखी गयीं, शीघ्र उभयबल दौड़ने लगे। ईर्ष्यासे भरे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002722
Book TitleMahapurana Part 1
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1979
Total Pages560
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size11 MB
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