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________________ ११. ३०. १०] हिन्दी अनुवाद २६५ २९ जीव चपल और स्थिर स्वभाववाले योगसे छह प्रकारका, तीन प्रकारके योगों और वेदों (पुल्लिग आदि) से तीन प्रकारका और कषायोंसे चार प्रकारका होता है। ज्ञानसे उसके आठ भेद हैं। संयम और दर्शनसे तीन और चार भेद हैं, लेश्याओंके परिणामसे भी छह प्रकार हैं। भव्यत्व और सम्यक्त्वके विचारसे दो-दो भेद हैं (भव्य-अभव्य, सम्यकदृष्टि-असम्यग्दृष्टि), संज्ञासे संज्ञी और असंज्ञो दो भेद हैं । जो-जो शरीरसे आहार ग्रहण करनेवाले हैं, वे चारों गतियोंमें प्रतिष्ठित हैं। समुद्घात' करनेवाले और विग्रहगतिमें जानेवाले अहंन्त, अयोगी सिद्ध, परमात्मा होते हैं, वे आहार ग्रहण नहीं करते। शेष जीवोंको आहारिक समझना चाहिए। मार्गणा और गणस्थानोंसे भी जीवके चौदह भेद होते हैं। अब इन गुणस्थानोंको सुनिए-इनमें मिथ्यादृष्टि पहला गाया जाता है। सासन-सासादन दूसरा, मिश्र तीसरा, अविरत ( असंयत) सम्यक् दृष्टि चौथा, देशसंयत पांचवां । प्रमत्त संयम धारण करनेवाला छठा। गुणोंसे सुन्दर अप्रमत्त सातवां, अपूर्वअपूर्वकरण आठवां, गर्वरहित अनिवृत्तिकरण नौवा, सूक्ष्म-साम्परायको दसवां समझना चाहिए, उपशान्त कषाय ग्यारहवां कहा जाता है । परिक्षीणकषाय बारहवां कहा जाता है, तेरहवां संयोगकेवली कहा जाता है, तीन प्रकारके शरीरभारसे रहित (औदारिक, तैजस और कार्मण) सबसे ऊपर अयोगकेवली परम सिद्ध होता है। पत्ता-चार प्रकारके नारकीय होते हैं, और देव भी चार प्रकारके । तिर्यंच पांचवें गुणस्थानों तक चढ़ सकते हैं। मनुष्य समस्त गुणस्थानोंमें चढ़ सकता है ।।२९|| कर्मोसे आहत होकर संसारी जीव, शाश्वत परिणामोंमें उद्यत होते हुए भी विपरीत आचरणवाला हो जाता है। इस प्रकार दर्शन, ज्ञान और स्वभावसे प्रमृष्ट जीव उत्कृष्ट और निकृष्ट दो प्रकारके होते हैं। और इससे जो उनकी सम-विषम चेष्टाएँ होती हैं जीव उस प्रकारके भावोंको ग्रहण करनेमें सक्षम होता है। ( तरह-तरहके कर्मपरिणामोंको ग्रहण करता है )। जिस प्रकार तेल, आग और उसकी ज्वालाओंके अनुसार परिणमन करता है, उसी प्रकार कर्म पुद्गल भी भावोंके अनुरूप परिणमन करते हैं। इस प्रकार तीन कषायोंके रसोंसे प्रमत्त जीवनको यह जीव धारण करता है, जिस प्रकार ईंधन अग्निभावको प्राप्त होता है, उसी प्रकार कर्मसे कर्मका बन्धन होता है। अशुभकमसे अशुभकर्मका और शुभकर्मसे शुभकर्मको सन्धि होती है परन्तु सिद्ध भट्टारक कुछ भी बन्धन नहीं करते । जिननाथके द्वारा अभव्यजीव भी चाहे ( सम्बोधित किये ) जाते हैं, वे एक नहीं, अनेक देखे जाते हैं। मति श्रुति अवधि मनःपर्यय तथा केवलज्ञानावरण । केवलज्ञान जो अत्यन्त निष्कल और नाना आवरणोंसे मुक्त है। निद्रा, अनिद्रा, प्रचला १. दण्ड-कपाट-प्रतर-पूरणके द्वारा जब केवली त्रैलोक्यका भरण करते हैं उस समय वह अनाहारक होते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002722
Book TitleMahapurana Part 1
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1979
Total Pages560
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size11 MB
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