SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 125
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २. १६.७] हिन्दी अनुवाद होनेपर अच्छी छायावाले ये कर्मभूमिके वृक्ष उत्पन्न हुए हैं। जो कडुवा-विषैला और नीरस फल है उससे बचना चाहिए, और जो मधुर तथा सुस्वादु है उसे खाना चाहिए।" क्षत्रियरूपी वंशस्थलके प्रथम अंकुर नाभिराजाने, यह कहकर नष्ट होती हुई प्रजाका उद्धार किया। हाथीके कुम्भस्थलके समान उन्होंने मिट्टीका घड़ा बनाया। पत्ता-( उन्होंने ) दानोंका फटकना, आगको धौंकना आदि और भोजन बनानेके विधानोंको उत्पन्न किया । तथा कपाससे सूत खींचना और कपड़ा बुननेका कर्म बताया ॥१४॥ आदरणीया मरुदेवी उनकी गृहिणी थीं जिनकी रूपश्री गौरवको बढ़ानेवाली थी। जिसके नूपुरोंने जैसे यह की कि आकाशसे आयी हुई देवपंक्तिने चरणतलों (तलुओं) के राग (लालिमा) में क्या पाया कि जो उसने हमारी उपेक्षा की। एडीके निचले हिस्सोंने अपना अनुरक्त चित्त बता दिया। अंगुलियोंने अपनी सरलता प्रकाशित कर दी। अंगूठोंकी उन्नतिके कारण गूढ़ गांठे हैं, जो दुष्ट और कठोर हैं, रोमविहीन, शिरारहित, गोल, चिकनी, सुन्दर और उजलो जाँचें क्रमिकहीनतासे नीचे-नीचे अपकर्षको प्राप्त होती हुईं, दुष्ट मित्रोंकी क्रियाको प्रकट करती हैं। जो राजाओंकी मन्त्रणाकी भाषाकी तरह गूढ़ हैं, जो व्याकरणकी तरह समास ( समास और मांस) से रचित हैं, मानो वे सघन सन्धिबन्धोंसे युक्त काव्य हैं। देवीके घुटने अत्यन्त भव्य हैं, जिसके जाँघोंरूपी खम्भे राजाओंके दमनके लिए थे अथवा रतिके भवनके लिए तोरण खम्भोंके समान थे। जिसने देवों और मनुष्यों सहित त्रिभुवनको जीत लिया है, जिसे देवों द्वारा कामतत्त्व कहा जाता है, मानो उसने इस देवीके कटि-बिम्बको 'स्थिरता प्रदान की है, उसके नितम्बोंकी गुरुताका वर्णन मैं क्या करूं? घत्ता-उसकी गम्भीर नाभि, दुबले मध्यभाग और तुच्छ ( छोटे ) उदरको मैंने देखा है संसर्गके कारण किसीमें कोई गुण नहीं आता, यदि वह गुण जन्मसे उसमें स्वयं पैदा नहीं होता ॥ १५ ॥ १६ त्रिबलियोंकी सीढ़ियोंसे चढ़कर, रोमावलीरूपी मार्ग पार कर, कामदेव स्तनरूपी गिरीन्द्रपर चढ़नेके लिए डोरस्वरूप मुक्ताहारसे जा लगा। प्रियका वशीकरण मन्त्र, जिसके भुजमूलमें निवास करता है, और पवित्र सौभाग्य हथेलीमें। स्नेहबन्ध, जिसके मणिबन्ध ( प्रकोष्ठ) में स्थित है, लावण्यमें समुद्र जिसके सम्मुख नहीं ठहरता, वह जिसके लिए है, उसीके लिए मधुर है, दूसरेके लिए विकार ( रोग ) जनक और खारा है। उसकी कण्ठरेखाको शंख नहीं पा सकता, दूसरोंके श्वासोंसे आपूरित होकर वह क्यों जीवित रहता है ? चन्द्रमाकी कान्तिको जीतनेवाली Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002722
Book TitleMahapurana Part 1
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1979
Total Pages560
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy