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कृतज्ञता-ज्ञापन
महाकवि पुष्पदन्त भारतके उन इने-गिने कवियों में से एक हैं जिन्होंने अपने सृजनमें मानवी मूल्योंकी गरिमाको धूमिल नहीं होने दिया । वाणी, जिनके हृदयका दर्पण है। उनकी कुल तीन रचनाएं उपलब्ध हैं। उनमें से 'जसहरचरिउ' का सम्पादन १९३१ में डॉक्टर पी. एल. वैद्यने किया था। दूसरी रचना 'णायकुमार चरिउ' का सम्पादन १९३३ में स्वर्गीय डॉक्टर हीरालाल जैनने किया। ये दोनों रचनाएँ, दुबारा सम्पादित होकर हिन्दी अनुवाद सहित, हाल हीमें प्रकाशित हई हैं, इनके पुनः सम्पादनका श्रेय स्वर्गीय डॉक्टर हीरालाल जैनको है। ये भारतीय ज्ञानपीठसे प्रकाशित हैं। महापुराण महाकविका मूल और मुख्य काव्य है जिसे हम अपभ्रंश साहित्यका आकर ग्रन्थ कह सकते हैं। इसकी रचनामें कविको लगभग छह वर्ष लगे, जबकि सम्पादनमें डॉक्टर पी. एल. वैद्यको (१९३१ से ४२ तक) दस वर्ष । उनके सतत अध्यवसाय और अपभ्रंशके प्रति समर्पित भावनासे महापुराण, तीन जिल्दोंमें १९३९ से १९४२ के बीच प्रकाशित हुआ। लेकिन खेद है कि ३८ वर्षकी लम्बी अवधिमें भी, किसी भी भारतीय आर्यभाषामें इसका अनुवाद नहीं हुआ। १९५० के बाद भारतीय विश्वविद्यालयोंमें अपभ्रंशके अध्यापनका जितना विस्तार हुआ, अपभ्रंश भाषा और साहित्यके वस्तुनिष्ठ अनुसन्धानका उतना ही संकोच हुआ।
'नाभेयचरित' महापुराणका एक भाग है जो आचार्य जिनसेनके आदिपुराणके समकक्ष है, शेष भागको हम उत्तरपुराण कह सकते हैं। इस प्रकार अपभ्रंशमें जैनोंके समस्त शलाका-पुरुषोंके चरित्रोंका काव्यात्मक भाषामें वर्णन कर पुष्पदन्तने बहुत बड़ा काम किया। उन्होंने सिद्ध कर दिया कि कवि अपनी प्रतिभा और विराट संवेदनाके बलपर किसी भी भाषामें महान चरित्रोंकी अवतारणा कर सकता है। १९३७ के आस-पास उत्तरपुराणके एक खण्ड (८१ से ९२वीं सन्धि तक) हरिवंशपुराणका सम्पादन, जर्मन विद्वान् लुडविग आल्सडोर्फने किया था, (देवनागरी लिपि संस्करण, अंगरेजी भूमिकाके साथ) परन्तु वह भारतमें नहीं छप सका। महाकवि स्वयम्भूके पउमचरिउके हिन्दी अनुवाद (जो भारतीय ज्ञानपीठसे प्रकाशित है) के बाद मैंने अनुभव किया कि हिन्दी अनुवादके बिना न केवल महापुराणका, प्रत्युत समूचे अपभ्रंश साहित्यका वस्तुपरक मूल्यांकन नहीं हो सकता। अपभ्रंश भाषाके स्वरूप, प्रकृति, रचनाप्रक्रिया, देशी शब्द प्रयोग आदिके विषयमें सही विश्लेषणके लिए पुष्पदन्तका महापुराण ऐतिहासिक पृष्ठभूमि प्रस्तुत करता है। सही और प्रामाणिक अनुवादके अभावमें एक हिन्दी विद्वान्ने 'समीरइ' का अर्थ किया है, हवा में। (कृष्ण हवामें बछड़ेको उछालते हैं ?) पूरा प्रसंग है
"महिस सिलंवउ हरिणा प्रियउ ण करणिबन्धणाउ णीसरिउ दोइउ दोहणत्थु समीरह
- मुइ मुइ माहव्व कीलिउं पूरइ" कृष्णकी बाललीलाका चित्रण है कि "भैसके बच्चेको हरिने पकड़ लिया, वह उनके हाथकी पकड़से नहीं छूट सका, दोहन जिसके हाथमें है ऐसा दुहनेवाला (ग्वाल) कृष्णको प्रेरित करता है कि हे माधव ! छोड़ोछोड़ो, खेल हो चुका ।" यहाँ समीर क्रिया है, वर्तमानकाल अन्य पुरुष का एक वचन । समीरका अधिकरणका एक वचन नहीं।
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