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महापुराण
कहता है कि कुछ बलवान् उचक्के जनसुरक्षाके नामपर व्यूह बनाते हैं और एकको नेता बनाकर राष्ट्रका शोषण शुरू कर देते हैं तो प्रश्न उठता है, बाहुबलि अपने भाईसे यह कह रहा है या 'पुष्पदन्त' अपने समयकी राजनीतिक लूट-खसोटकी आलोचना कर रहे हैं ? भरत जब हिमवान् पर्वतको 'वृषभ' चोटीपर जाता है, तो उसपर वह अनेक राजाओंके नाम खुदे हुए देखता है।
मनुष्योंके द्वारा लिखित अक्षरों और दिवंगत राजाओंके हजारों नामोंसे वह वृषभ पर्वत चारों ओरसे आच्छादित था। भरत जहाँ देखता है, वहाँ वह पर्वत शिखरको नाम सहित पाता है। भरत सोचता है कि मैं अपना नाम कहाँ लिखू ?
"अण्णण्णहिं रायहिं भुत्तियइ इह एयइ वसुमइ धुत्तियइ वोलाविय के के णउ णिवइ भोइंधहु मुज्झइ तो वि मइ
धण्णु परमेसरु एक्कु पर जो हुउ पव्वइयउ मुएवि धर" ॥ 15/6 एकके बाद एक राजाके द्वारा भोगी गयी इस धूर्त धरतीके द्वारा कौन-कौन राजा अतिक्रान्त नहीं हए, फिर भी मोहसे अन्धे व्यक्तिको मति भ्रमित होती है, लेकिन एक परमेश्वर ऋषभ धन्य है कि जिसने धरतीका त्याग कर संन्यास ग्रहण किया। पुरोहित भरतसे कहता है :
"परु फेडवि जिह घेप्पइ पुहइ तिह णामु वि फेडिज्जइ णिवई" ॥ 15 हे राजन् ! जिस प्रकार दूसरेको नष्ट कर धरती ग्रहण की जाती है, उसी प्रकार नाम भी नष्ट कर (अपना नाम लिखा जाता है) भरत और पुरोहितका यह संवाद विश्वके राजनीतिक इतिहासका प्रतीक विश्लेषण है। भारतीय सन्दर्भ में देखा जाये तो हिमालय पर्वतके वृषभ पर्वतपर अंकित नामाक्षरोंसे लेकर दो साल पूर्व लाल किले में गाड़े गये कालपात्र तक एक ही प्रवृत्ति सक्रिय दिखाई देती है-सत्ता और नामकी भूख । जैन पौराणिक दृष्टिसे ऋषभ और भरतके बीच राजाओंके होनेका प्रश्न नहीं उठता। हाँ, पुष्पदन्तके समय तक भारतीय इतिहासमें कई राजवंशोंका उत्थान-पतन हो चुका था। अतः भरतके उक्त उद्गारोंको वस्तुतः पुष्पदन्तके समकालीन राजनीतिक और सामाजिक परिवेशमें देखा जाना चाहिए।
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