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________________ प्रस्तावना बाहुबलिका दो-टूक उत्तर है “संघट्टमि लुट्टमि गयघडहु दलमि सुइउ रणमग्गि। पहु आवउ रावउ महाबलु महु बाहुबलिहि अग्गइ ॥" "मैं युद्ध करूंगा। महागजघटाको लोट-पोट करूँगा और युद्ध के मार्गमें सुभटका संहार करूंगा।" दूत लौटकर भरतसे कहता है :"विसमुदेउ बाहुबलि गरेसरु णेह ण संघ संधइ गुणि सरु कज्जु ण बंधइ बंधइ परियरु संधि ण इच्छद इच्छइ संगरु पई ण पेच्छइ पेच्छइ भुयबलु आण ण पालइ पालइ णिय छलु । माणु ण छंडइ छंडइ भयरसु दयवु ण चितइ चितइ पोरुसु संति ण मण्णइ मण्णइ कुलकलि पुहइ ण देव देइ वाणावलि।" 26/21. "हे देव ! बाहुबलि विषम राजा है, वह आपसे स्नेह नहीं जोड़ता, डोरीपर तीर जोड़ता है, वह काम नहीं साधता परिकर साधता है, सन्धि नहीं चाहता, युद्ध चाहता है, आपको नहीं देखता, अपने बाहुबलको देखता है, वह तुम्हारी आज्ञा नहीं पालता, अपना छल पालता है। वह मान नहीं छोड़ता भयरस छोड़ देता है, वह देवकी चिन्ता नहीं करता, पौरुषकी चिन्ता करता है, वह शान्तिको नहीं मानता, कुलकलहको मानता है।" दूतके इस प्रतिवेदनमें बाहुबलिके चरित्रके साथ पुष्पदन्तकी भाषाका चरित्र भी मुखरित है। अपने हाथों अपने भाईकी पराजय देखकर बाहबलि आत्मग्लानिसे भर उठता है, अपनेको कोसता हुआ वह कहता है : "चक्कवट्टि णियगोत्तहु सामिउ जेण महंत भाइ ओहामिउ हा कि किज्जइ भुयबलु मेरउ जं जायउ सुहिदुण्णयगारउ महि पुण्णालि व केण ण भुत्ती रज्जहु पडउ वज्जु समसुत्ती रज्जहु कारणि पिउ मारिज्जइ बंधवहुं मि विसु संचारिज्जइ" जिसने अपने गोत्रके स्वामी अपने बड़े भाईको पराजित किया ( ऐसा मैं नीच है ) हा! क्या किया जाये जो मेरा बाहुबल सज्जनके प्रति अन्यायकारी हुआ। इस धरतीरूपी वेश्याका भोग किसने नहीं किया, राजपर गाज गिरे, यह कहावत बिलकुल ठीक है, राज्यके लिए पिताको मार दिया जाता है, और भाइयोंको विष दे दिया जाता है, राज्यसत्ताके लिए पिता और भाइयोंकी हत्या केवल सामन्तवादकी ही विशेषता नहीं थी। वह प्रजातन्त्रमें भी है और रूप बदलकर चरित्र हत्याके रूपमें जीवित है। बाहुबलिका दीक्षा-ग्रहण करना उनकी व्यक्तिगत समस्याका हल है, राष्ट्रीय समस्याका नहीं। भरत और बाहुबलिका द्वन्द्व उनका घरेलू मामला था। जबतक समाज और राष्ट्र है, तबतक राज्यका होना जरूरी है। क्योंकि अराजक जनपदमें मत्स्य न्यायका बोलबाला होता है। फिर भी बाहुबलिका दीक्षा-ग्रहण इस तथ्यका प्रतीकात्मक संकेत है कि राजनीतिक मूल्योंसे मानवीय मूल्योंका महत्त्व अधिक है। राज्यका उद्देश्य ऐसी व्यवस्था उत्पन्न करना है कि जिससे समाजमें मानवी मूल्योंकी प्रतिष्ठा हो। यहां एक प्रश्न यह उठता है कि अपने पिता ऋषभके जीवित रहते हुए भरतका सत्ता-विस्तारके लिए दिग्विजय करना, दूसरोंका राज्य हड़पना कहां तक उचित था ? भरत, ब्राह्मणवर्णकी स्थापना करनेके बाद जब ऋषभजिनसे यह पूछता है कि उसने यह उचित किया या अनुचित, तो ऋषभ उसके इस कार्यको बुरा बताते हैं, वे ब्राह्मणवर्णकी स्थापनाको नैतिक मूल्योके हितमें नहीं मानते। परन्तु वे भरतसे साम्राज्य विस्तारके लिए कुछ नहीं कहते। लेकिन जब 'बाहुबलि' [८] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002722
Book TitleMahapurana Part 1
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1979
Total Pages560
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size11 MB
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