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हिन्दी अनुवाद
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चैत्र माह के कृष्णपक्ष में रविवारको स्पष्ट नवमीके दिन, उत्तराषाढ़ नक्षत्र में बहुसुखद ब्रह्मयोगमें देवोंके आलापों में ध्वनित ( प्रशंसित ) पुत्रको मरुदेवीने जन्म दिया । तपाये हुए सोनेके समान वर्णवाले वह ऐसे लगते थे मानो पूर्वदिशा में बालरवि हो, मानो अरणियों ( लकड़ी विशेष, जिसके घर्षणसे अग्नि पैदा होती है ) से ज्वाला निकल रही हो, मानो धरतीने अपनी निधि दिखायी हो, मानो सिद्ध श्रेणीने जीवका स्वभाव दिखाया हो, मानो महाकवि द्वारा रचित कथाने अपना अर्थ दिखाया हो, मानो वह अमृत कणोंसे निर्मित हो, मानो गुणगणको इकट्ठा करके रख दिया गया हो, जब नरकमें गिरता हुआ विश्व नहीं सध सका, तो इसलिए मानो धर्मने पुरुषरूप ग्रहण कर लिया हो ।
३. ९.२० ]
घत्ता -जनोंके तमका नाशक, लोकको प्रकाशित करनेवाला, कीर्तिरूपी बेलका अंकुर, मृगलांछन से रहित कुमुदोंके लिए इष्ट जिनराजरूपी चन्द्र उदित हुआ है ||८||
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निश्चय ही अपने तीन ज्ञानों, तथा लक्षणों ( शंख, कुलिश आदि ) तथा व्यंजनों (तिलक, मसा आदि ) से युक्त शरीरके साथ, जिननाथके जन्म लेनेपर इन्द्रका आहृतदर्पं आसन काँप उठा । कल्पवासियोंने अपने स्वभावसे जान लिया । घण्टोंकी टंकार-ध्वनि होने लगी । ज्योतिषदेवोंके भवनों में दिग्गजोंको नष्ट कर देनेवाले निनाद हुए, व्यन्तरदेवोंके आवासों और शिविरोंमें पटह गरज उठे। भवनवासी देवोंके विमानोंमें शंखध्वनि होने लगी, विश्वमें क्षोभ फैल गया । ज्ञानसे इन्द्रने जान लिया कि भूलोकमें निष्पाप देवका जन्म हुआ है । उसके चित्तमें धर्मानन्द बढ़ गया । इन्द्र चला, सूर्य चला और चन्द्र चला। तब ऐरावत नामका मतवाला हाथी, जो वैक्रियिक शरीरके परिमाणवाला था, जो झरते हुए गण्डस्थलके मदजलसे गीला था, जो रुनझुन बजती हुई घण्टियों से ध्वनित था, जो वरत्रारूपी नक्षत्रमालासे स्फुरित शरीरवाला था, जो कानोंके चामरोंसे भ्रमराafont उड़ा रहा था, जो मन्दराचलके समान था, आ पहुँचा । लीलामोंसे पूर्ण बहुविध दांतोंवाला। उसके प्रत्येक दाँतपर, अपनी कान्तिसे आकाशके सूर्योको आलोकित करनेवाले सरोवर के कमल | पत्र-पत्रपर स्थूल स्तनोंवाली देवनारियाँ नृत्य कर रही थीं। इस प्रकार अलंघनीय उस ऐरावतको देखकर सौधर्म स्वर्गका इन्द्र उसपर शीघ्र चढ़ गया । सर्वत्र ध्वज छत्रोंसे सुन्दर था, सर्वत्र चमरोंसे आच्छादित था । सर्वत्र नाना यान जा रहे थे, सर्वत्र विमान दौड़ रहे थे, सर्वत्र मण्डप फैले हुए थे, सर्वत्र जयदुन्दुभिका शब्द हो रहा था, सर्वत्र स्वर और गीतोंकी मिठास थी । सर्वत्र उठी हुई मालाएँ थीं । तरुओंसे पल्लवित और कल्पवृक्षोंसे व्याप्त आकाश सर्वत्र सोह
रहा था ।
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