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हिन्दी अनुवाद के कुछ संशोधन
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पृष्ट पंक्ति
२६-४-१० सम्मत्त वियक्खडु-सम्यक्त्व से विचक्षण ( सम्पन्न )। २२९-९-१५ आहारक शरीर किन्हीं विशेष मुनियों के होता है। २३१-११-५ ये पर्याप्तक अपर्याप्तक तथा सूक्ष्म और स्थावर होते हैं."साधारण प्रकार के वनस्पति
जीवोंका श्वासोच्छ्वास और आहार साधारण होता है और प्रत्येक जीवोंका अलग
अलग होता है। २३३-१३ जम्बूद्वीप, धातकीखण्ड, पुष्करवरद्वीप, वारुणीद्वीप, क्षीरवरद्वीप, घृतवरद्वीप, मधुइवर
द्वीप, नन्दीश्वरद्वीप, अरुणवरद्वीप, अरुणाभास, कुण्डलद्वीप, शंखवरद्वीप, रुचकवरद्वीप, भुजगवरद्वीप, कुशगवरद्वीप, क्रौंचवरद्वीप"साधिक एक हजार योजनका विस्तारवाला पद्म (कमल) है। दो इन्द्रिय (शंख) बारह योजन लम्बा देखा गया है। तीन इन्द्रिय
(चिऊँटी) तीन कोसका है। चार इन्द्रिय (भौंरा) एक योजन प्रमाणवाला है। २३५-१४ गंगा आदि नदियोंके प्रवेश मखमें नौ योजनके होते हैं. तथा कालोद समुद्रमें नदी
प्रवेश मुखमें १८ योजन और मध्य समुद्रमें छत्तीस योजन लम्बे होते हैं ।"""" २३५-१४ जिनेन्द्र भगवान के द्वारा कही गई अवगाहना एक वालिस्त की होती है।"अंगुलके
असंख्यातवें भाग होती है। २३७- मनुष्य और तियंचोंके छहों संस्थान होते हैं।
मन्थर गमन करनेवाली चन्द्रमुखी स्त्री रत्नोंके शंखावर्तक योनि होती है। २३९-३ दक्षिण भरतका विस्तार पांच सौ छब्बीस योजन है, उत्तरमें इतना ही विस्तार
ऐरावत क्षेत्रका है।
धत्ता क्षेत्रसे चौगुना क्षेत्र और पर्वतसे चौगुना पर्वत है । २४१-५ उसके ऊपर पा सरोवरसे तीन रूपसे गणा महापद्म नामका सरोवर है अर्थात् उसकी
लम्बाई-चौड़ाई-गहराई पद्मसे दुगुनी है । २४३-४ रुचकगिरि और इष्वाकारगिरि है।
२४३-७ घत्ता-वहाँ कोई एकऊरु धारी है। २४३-८-६ मरकर भवनवासी और व्यन्तर होते हैं। २४३-८-१२ कल्पवासी देवोंमें उत्पन्न होते हैं। २४५-१०-७ भार धारण करनेवाले अभव्य उपरिम ग्रेवेयकमें देव होते हैं । २४७-११-४ मच्छ और मनुष्य सातवें नरक तक जाते हैं । २४७-११-७ मनुष्य और तिर्यच"शलाका पुरुष नहीं हो सकते। २४९-१३-७ वहाँ मिथ्यादृष्टियोंका विभंगज्ञान होता है और जो जिनमतमें दक्ष सम्यग्दृष्टि होते हैं
उन्हें सम्यक् अवधिज्ञान स्वभावसे होता है।
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