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________________ २. २१. १५ ] हिन्दी अनुवाद ४५ है, और शब्द करनेसे नूपुरको पहचानती है । प्रियके द्वारा धवलशिलापर लाये गये हंसको वह कलरवसे जान पाती है, धवल वस्त्र जहाँ गिर जाता है वह वहाँ ही पड़ा रहता है, आदमी वहाँ इतना भोला है कि रखे हुए वस्त्रको नहीं पहचान पाता । स्फटिक मणिके घरमें स्थित वरवधूको किवाड़ लगे रहनेपर भी देख लिया जाता है । पद्मराग मणियोंके मण्डपमें बैठी हुई एक रमणी केशर पिण्ड नहीं देख पड़नेके कारण दुःखी हो उठती है । सौन्दयमें स्वगं भी, जिसकी पूर्ति नहीं कर सकता। जहां रास्ते चन्दनकी कीचड़से आर्द्र हैं, और कपूरकी धूल आकाशमें नहीं उड़ती । घत्ता - जहाँपर न कलागम है और न अक्षर, न गुरु है और न दासता बनायी गयी है । कुबेरके द्वारा एक-एक जोड़ा ( युगल ) लाकर और मानकर रख दिया गया है ||२०|| २१ घर-घर में शीघ्र ही रत्नोंसे विस्फुरित तोरणोंको, गाये गये मंगलगीत समूहों और देवोंके द्वारा आहत पह्निनादोंके साथ बाँध दिया गया । घरमें संचरित होनेवाले कलश भी दिखाई दिए जो शरद मेघों के समान ऐसे लगते थे कि चन्द्रमा प्रविष्ट हुए हों । जिसमें नित्य देवताओंके लिए उत्पन्न किया जाता है, और जो पोंछे गये दर्पणतलकी तरह है ऐसी भूमिमें प्रतिबिम्बित आकाशरूपी आंगन ( जो चन्द्रमा, तारावलि और दिनकरका आंगन है ) ऐसा शोभित होता है, मानो अत्यन्त लम्बे समय तक स्थित रहनेके डरसे प्रवंचित होकर जैसे पाताललोकमें पड़ा हुआ है | जहां प्रासादोंके शिखरोंपर चढ़े हुए मोरने यह मानकर कि यह हमारा नेत्रप्यारा इष्ट दिखाई दिया है, नवजलधर ( नवमेघ ) को चूम लिया । वहाँ न चोरकुल था, न विरोधी राजकुल था । और न त्रिशूलभिन्न देवकुल दिखाई देता था । जहाँ न ब्राह्मण था और न वणिकवर । न हल था और न किसान । न सम्प्रदाय था और न कापालिक । जहाँ क्षत्रिय धर्मं नहीं था और न जिनेश्वरके द्वारा भाषित धर्मं, न व्याधाके द्वारा किया गया और वेदोंके द्वारा घोषित पशुवध था । न वेश्या थी और न वेश्याको युक्ति थी । समस्त नारियाँ और कुलपुत्रियाँ सीधी थीं । जहाँ न महाव्रत थे और न अणुव्रत । और न बुरा करनेवाली शिल्पजीवी प्रजा थी । ; घत्ता - समस्त मनुष्य सामान्य थे, वहाँ एक भी आदमी विशेष नहीं था । श्वेतपुष्पके समान दांतोंवाला वह नाभिराजा था, जो भरत (क्षेत्र, भरतभव्य मन्त्री) से विभूषित था ॥२१॥ इस प्रकार महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचित और महाभव्य भरत द्वारा अनुमत ( त्रिषष्टि महापुरुष गुणालंकारवाले महापुराणके अन्तर्गत ) महाकाव्यमें अयोध्यानगरी - वर्णन नामका दूसरा परिच्छेद समाप्त हुआ || २ || Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002722
Book TitleMahapurana Part 1
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1979
Total Pages560
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size11 MB
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