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सन्धि १२
शत्रुवरोंके निर्दलन, क्षात्रधर्मके उद्धार, विकलित जनोंके सहारा देने, ढाढस और धरती के लिए भरतने त्रिलोक लक्ष्मी और विजयका प्राप्त करानेवाला प्रस्थान किया || १ ||
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शीघ्र ही शरद ऋतु आगमनपर धुल गये हैं सूर्य-चन्द्र जिसमें ऐसा आकाश अप्रमाण ( सीमाहीन ) हो उठा, जो ऐसा दिखाई देता है मानो शरद्के मेघरूपी दही खण्डके लिए ब्रह्मा के द्वारा झुका दिया गया हो । मानो विश्वरूपी घरमें तारारूपी मोतियोंके गुच्छोंसे स्निग्ध नील चन्दोवा दिया गया हो, दशों दिशाएँ रजसे इस प्रकार अत्यन्त शून्य हो गयीं, ( निर्मल हो गयीं ); मानो सज्जनोंके निर्मल चरित्र हों । मानो वे चन्द्ररूपी घड़ेसे प्रगलित ज्योत्स्नारूपी निर्मल जलसे प्रक्षालित कर दी गयी हों । शरमें शशांक - चन्द्रमा कमलको जलाता है, इसीलिए उसका
कमलका ) शरीर-पंक उसीको ( चन्द्रमाको ) लग गया । वह ( सूर्य ) आज भी मल विरुद्ध दिखायी देता है, अपने बच्चे के पराभवसे कौन क्रुद्ध नहीं होता ? क्या इसी क्रोधसे सूर्य तीव्र तपता है, और कमलबन्धु (सूर्य) कीचड़को सुखाता है, कीचड़के सूखनेसे कमलोंके नाल ( मृणाल ) सूख जाते हैं, अत्यन्त उग्रता बन्धुओंके लिए भी काल सिद्ध होती है ? जिसने अपने बन्धुओंके प्राणोंके लिए सुन्दर छायाका भाव किया है, ऐसा चन्द्रमा राजाकी तरह कुवलय ( कुमुदों और पृथ्वीरूपी मण्डल ) के लिए भाग्यकारक होता है । कुसुमोंके आमोदसे वृक्ष महक रहे हैं । परागसे पीले जल वनमें बह रहे हैं । पापके समान रंगवाले अर्थात् काले रंगके भ्रमर गुनगुना रहे हैं, मानो मधुसे मत्त मद्यप गा रहे हों ।
घत्ता - अपनी कान्तिसे जनोंको रंजित करनेवाला शरद्का चन्द्रमा, यदि मृगके लांछन से मैला नहीं होता, तो मैं ( कवि पुष्पदन्त ) उसकी शान्तिका विधान करनेवाले जिन भगवान् के
यशरूपी चन्द्रमासे उपमा देता ॥१॥
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सिद्धों को प्रणाम कर और शेष तिल (निर्माल्य ) लेकर समस्त देशोंपर बलपूर्वक आक्रमण कर, उन्हें स्थापित कर और शत्रुमण्डलके द्वारा छोड़े गये अस्त्रोंके लिए दुर्ग्राह्य अयोध्या में प्रवेश कर, मनको लगाकर, पुत्रका मुख देखकर और चक्ररत्नकी परिक्रमा और अर्चना कर प्रवासियों परदेशियों और कन्यापुत्रोंका भयंकर दारिद्र्य, स्वर्णदान के द्वारा समाप्त कर, अभंग पंचांग मन्त्रकी मन्त्रणा कर कौन शत्रु है, कौन मित्र है, और कौन विरक्त ( मध्यस्थ ) है ? यह जानकर वृद्ध मन्त्रियोंके आचारको मानकर और विचारकर राज्य भार देकर ( वह चला ) बताओ, उसने
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