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४.१४.१३]
हिन्दी अनुवाद
जिसने मुट्ठी बांध ली है तथा बाणोंका सन्धान कर लिया है, और जिसे रोमांच हो आया है, ऐसा कामदेव विलसित है। अफसोस है कि पूर्वके भावको जानते हुए रतिने रागभावको क्यों प्रकट किया ? हे वसन्त, तुम भी निवारित कर दिये गये थे। हां, हे वसन्त, तुम क्यों प्रेरित हो रहे हो । क्यों उत्पात मचाते हो और ईश्वरके पीछे लगते हो? कभी भी तुम तपकी ज्वालामें पड़ सकते हो। मानो गरजती हुई दुन्दुभि यह कहती है कि हे देवाधिदेव, क्या तुम्हारा भी शत्रु हो सकता है ? नागों, सुरों और मनुष्योंके द्वारा किये गये उत्सव और बजते हुए तूर्यके जय-जय शब्दके साथ जिनकुमार ऋषभनाथ विवाह करनेके लिए चले। आते हुए उन्हें दरवाजेपर रोक लिया गया मानो संसारसे उन्हें मना कर दिया गया हो, कि हे चरम-शरीरी तुम क्यों विवाह करते हो ? वहां नेग (निबन्ध ) देकर और सुन्दर बात कर भुवनश्रेष्ठ वह भवनके भीतर प्रविष्ट हुए। उन्होंने मुखपट खोला, मानो मेघपटल उघाड़ दिया हो, उन्होंने मुंह देखा मानो पूर्णचन्द्र देखा हो । नव वरके भयसे कुमारियाँ कांप गयीं। स्नेहके ऋणके कारण उन्होंने उनका हाथ पकड़ लिया, कच्छके राजाने शृंगार लेकर और यह कहकर कि धवल आँखोंवाली इनका पालन करना।
घत्ता-जो उनके हाथपर पानी छोड़ा उसने विविध आशाओंरूपी शाखाओंसे सहित, और मनरूपी क्यारीमें स्थित मोहमहावृक्षको सींच दिया ॥१३॥
उसने कहा-'लक्ष्मीसे सेवित यशोवती देवी और अनिन्द्य सुनन्दा देवीका वरण करो।' उनके नेत्रोंसे तिरछे नेत्र इस प्रकार लग गये मानो जैसे मत्स्योंसे मत्स्य प्रतिस्खलित हो गये हों, प्रियके स्नेहसे भरी हुई उनकी आँखें इस प्रकार फैलती हैं जैसे कानोंके विवरोंमें प्रवेश करना चाहती हैं। चित्तोंसे चित्त इस प्रकार मिल गये जैसे गजवरसे गजवर और नदियोंके जल, पानी (समुद्र ) में मिल गये हों। सुन्दर स्त्रियोंमें जिसका स्नेह निबद्ध है ऐसे प्रियके देहमें उन्होंने अपना रूप प्रतिबिम्बित देखा। शत्रुपक्षकी आशंका रखनेवाली प्रियाओंने बड़ी कठिनाईसे उसे समझा। उन्होंने एक हाथसे एक तरुणीको उठा लिया, और दूसरेसे दूसरी तरुणीको। दोनोंको लेकर स्वामी निकले, मानो लताओंसे सहित कल्पवृक्ष हो। सैकड़ों आशीर्वादोंसे संस्तुत, विश्वके एकमात्र सूर्य, वह उत्पन्न कामरससे परिपूर्ण वधुओंके साथ बैठ गये।
पत्ता-दूसरे ग्रहोंके साथ अग्नि जिनके चरणोंपर गिरता है और धरतीपर लौटता है, वही वर कुलकी शान्ति करनेवाला है होम करनेसे तो केवल धुआं उत्पन्न होता है ॥१४॥
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