SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 435
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५. २२.१०] हिन्दी अनुवाद ३४९ जहां वृक्षोंकी शाखाओंपर किन्नरोंके द्वारा विस्तृत सैकड़ों हार दिखाई देते हैं, जहां भ्रमर झंकारोंसे अपना गान नहीं छोड़ता, जहाँ भीलका बच्चा सुखसे सोता है, जहां अप्सराओंके द्वारा बिना किसी ईर्ष्याभावके शबरियोंके रूपकी सराहना की जाती है, जहां मणिभित्तियोंमें अपने ही प्रिय ( स्वजन ) को देखकर पट्टरानियोंके द्वारा सापल्यभाव धारण किया जाता है। जहाँ मरकतमणिके पृष्ठ (खण्ड ) को दुबका समूह मानकर तरुण हरिण दौड़ता है, जहां सांप चन्दनवृक्षको छोड़कर सोती हुई विद्याधर वधूको ( चन्दनवृक्ष ) जानकर उसके मुखके श्वासवासको पीता है दूसरे भुजंगको भी यही बुद्धि हो रही है। पत्ता-जहां यममहिषको देखकर यक्षिणीका सिंह क्रोध नहीं करता, जिन भगवान्के माहात्म्यसे प्रतिपक्ष और पक्षमें क्षमाभाव दिखाई देता है ॥२०॥ २१ जहाँ इन्द्रनील मणिको कान्तिसे रंजित मयूरको मार्जार नहीं जान सका । जहाँ शीलधनवाले संयमी मुनिको भी यह शंका होती है कि यह मोती है या हिमकण । जहाँ औषधिरूपी दीप प्रज्वलित है, और रात्रिमें शबरसमूह सुखसे चलता है। जहाँ मुनियोंके संगसे शुक समूह गुणगणसे मण्डित और पण्डित हो गया है। जहाँ जिननाथने जीवदया घोषित कर दी है, जहां पशु भी और किरात भी धर्ममें रत हैं। जिसके तटकी सेवा देवहथिनी करती है, जहां चक्रेश्वरीका गरुड़ भ्रमण करता है । पद्मावतीका हंस कटाक्ष मारता है। जहां वरुणका मगर देखा जाता है, जिसके तीरपर पवनका मृग और मयूर मेंढेके साथ क्रीड़ानिरत हैं। जहां बारह कोठोंसे अधिष्ठित स्वयं समवसरण स्थित है। पत्ता-उस कैलास गिरिवरके नीचे धरणीशने अपना शिविर ठहरा दिया मानो मन्दराचलके चारों ओर तारागण स्थित हों॥२॥ २२ तब शुद्धमति राजा भरत मणि, मुकुट, पट्ट और भूषण धारण करनेवाले ऐरावतकी सूड़के समान दीर्घ बाहुवाले, कण्ठमें मुक्तामालाएं धारण किये हुए, नव कुसुमोंकी अंजलियोंको उठाये हुए, अपने शरीरके तेजसे वनस्थलीको उजला बनाते हुए, शान्त और कलहका शमन करते हुए कुछ राजाओंके साथ कैलास पर्वतके शिखरपर आरोहण ( चढ़ाई ) करता है। निझरोंकी जलधाराओंसे जिसकी घाटी भरी हुई है, ऐसा वह पर्वत आते हुए राजाके लिए सिंहासन, चमरी, चामर, सुन्दर छायाद्रुमरूपी छत्र, मदनिर्भर गरजते वर गज, गंडक (गेड़ें )-गवय आदि वनचररूपी किंकरोंको उपहाररूपमें आगे-आगे स्थापित करता है, मानो कोयल कलरवमें आलाप करती है। पत्ता-वृक्षवाले गिरिने मानो फल-फूल और पत्ते उसे दे दिये मानो महीधर (राजा) महीधर (पर्वत ) की स्वीकृतिका अवश्य पालन करता है ।।२२।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002722
Book TitleMahapurana Part 1
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1979
Total Pages560
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy