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________________ ८.९.९] हिन्दी अनुवाद १७१ नियन्त्रित करनेवाले, व्रतोंका प्रवर्तन करनेवाले, भविष्यको जीतनेवाले, अपने शरीरको सन्तप्त करनेवाले, विषादको नष्ट करनेवाले, विरागको संचित करनेवाले, केश लोंच करनेवाले, दुराग्रहसे दूर रहनेवाले, गतिके मार्गको संकुचित करनेवाले, यशका पथ अंकित करनेवाले, लक्ष्मीको क्षुब्ध करनेवाले, आपत्तियोंको रोकनेवाले, कुसंगतिको छोड़नेवाले, कामको खण्डित करनेवाले, अपनी इन्द्रियोंको दण्डित करनेवाले, पण्डितोंके द्वारा वन्दनीय, तपश्चरणके परिग्रहवाले, यमको भय उत्पन्न करनेवाले, उपशमके घर, संसार तरणके पोत ( जहाज ), सच्चे ज्ञानमें अग्रणी, सिद्ध चिन्तामणि, सम्पदासे असंगम करनेवाले, धर्मके कल्पवृक्ष, भव (संसार) का नाश करनेवाले भव, शिवको प्रकाशित करनेवाले शिव, चित्तके तम-समूहको नष्ट करनेवाले सूर्य, दोषोंके विजेता जिन, पापका हरण करनेवाले हर और श्रेष्ठोंमें श्रेष्ठ हे देवदेव, आप मुझ दीनका त्राण करें। मैं निर्गुण, निर्धन, दुर्मति, निधिन, दूसरेके घरमें वास करनेवाला, दूसरोंके घरका कोर खानेवाला मैं मानव, म्लेच्छ, मत्स्य और रीछ हुआ हूँ, भव-भवमें। और रौरव नरकमें नारकी हुआ हूँ। हे जिन, बीते समयमें तुमसे जो मैंने प्रतिकूलता की थी, उसे मैंने क्रमसे भोगा है। पत्ता-इस प्रकार जिनकी वन्दना कर और अपनी निन्दा कर, नागने अपना तम ( पापतम ) धो लिया। और फिर विनमि है सहायक जिसका, ऐसे नमि महाराजका मुखरूपी चन्द्रबिम्ब देखा ||८|| उन्होंने कहा, "हे सदा सुखकर सपंराज, धरतो फाड़कर आप वनमें आये। हे सुशील, तुम हमारे सम्मुख क्यों हो और अपलक नेत्रोंसे मुख किस लिए देख रहे हो?" तब समस्त अमित नरेन्द्रोंको सन्त्रस्त करनेवाला फणीन्द्र यह सुनकर बोला, "मैं भुवनमें प्रसिद्ध नागराज हूँ, इन्द्रके द्वारा प्रणम्य त्रिजगत्तात, लोकोत्तम, कामदेवका अन्त करनेवाले यह हमारे स्वामी श्रेष्ठ हैं। जब यह राज्य छोड़कर विरक्त हुए तब इन्होंने मुझसे एक काम कहा था कि विकल और जड़ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002722
Book TitleMahapurana Part 1
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1979
Total Pages560
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size11 MB
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