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________________ १२.७.६ ] हिन्दी अनुवाद २८१ पतिने दण्डरत्नसे पहाड़ों को विदीर्ण किया तथा मार्गोका निर्माण किया । चक्रका अनुगमन करते हुए सन्तोष से परिपूर्ण सैन्य अपने मार्गसे दूर तक जाता है, नेत्रोंके लिए सुन्दर ग्राम - सीमाओं, विषम निम्नोन्नत भूमियों, विन्ध्याके उपकण्ठों, कृषकोंके निवासभूत देशों को लांघता हुआ, घरोंमें प्रवेश करता हुआ, नागों को विरुद्ध करता हुआ, तथा जिसने अपने शत्रुका नाश कर दिया है ऐसा सैन्य गंगा नदीपर पहुँचा । घत्ता-सफेद गंगानदीको आगत राजाने इस प्रकार देखा मानो वह किन्नरोंके स्वरसुखसे भ्रान्त धरतीपर फैली हुई हिमवन्त की साड़ी ( धोती ) हो ॥५॥ ६ मानो वह पहाड़के घरपर चढ़नेको नसैनी हो, मानो ऋषभनाथके यशरूपी रत्नोंकी खदान हो, मानो जिननाथ की पवित्र वाणी हो; मानो मकरोंसे अंकित कामदेवकी पताका हो; मानो राहु विषम भय से पीड़ित चन्द्रमाको कान्ति धरतीतलपर व्याप्त हो, मानो स्निग्ध निर्मल चांदी गली ( पगडण्डी ) हो; मानो कीर्तिकी छोटी बहन हो, हिमालयके शिखर जिसके स्तन हैं, ऐसी वसुधारूपी अंगनाकी मानो वह हारावली हो; प्रगलित विवरों और घाटियों में गिरती हुई स्वच्छ वह (गंगा) ऐसी मालूम होती है, मानो पहाड़रूपी करीन्द्रको कच्छा हो । सफेद और कुटिल वह मानो उसकी भूतिरेखा हो, मानो चक्रवर्तीकी विजयलेखा हो, मानो आकाशसे आयी हुई प्रिय धरती की चिर प्रतीक्षित सखी हो। वह स्खलित होती है, मुड़ती है, परिभ्रमण करती है, स्थित होती है, जैसे मानो अपने स्थानसे भ्रष्ट होनेकी चिन्ता उसे हो। वह मानो सफेद नागिन के समान, पर्वतकी वाल्मीकि (बिल) से वेगपूर्वक निकली है, और विष ( जल / जहर ) से प्रचुर है । जिसे हंसावलियोंके वलय शोभा प्रदान कर रहे हैं, ऐसी वह मानो उत्तर दिशारूपी नारीकी बाँह हो । घत्ता - जो अनेक रत्नोंका विधान है और अत्यन्त सुन्दर है, ऐसे गम्भीर समुद्ररूपी पति से, धवल, पवित्र और मन्थर चालवाली गंगानदी स्वयं जाकर मिल गयी || ६ || जहाँ मत्स्योंकी पूँछोंसे आहत, सीपियोंके सम्पुटोंसे उछले हुए मोती, प्याससे सूखे कण्ठवाले चातकों के द्वारा जलबिन्दु समझकर ग्रहण कर लिये जाते हैं, जलकाकों द्वारा सफेद जल दिया जाता है मानो अन्धकारोंके समूहोंके द्वारा चन्द्रमाका प्रकाश पिया जा रहा हो । फिर वही (जल) लाल कमलों दलोंको कान्तिसे ऐसा शोभित होता है, मानो सन्ध्यारागकी कान्तिसे शोभित हो । जहाँ क्रीड़ारत की रकुल ऐसे जान पड़ते हैं, मानो स्फटिक मणियोंकी भूमिपर मरकत मणि हों । जिसकी लहरें कंकहार और नीहारको कान्तिवाली हैं, उनमें हंस पक्षी भी ज्ञात नहीं होते । ३६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002722
Book TitleMahapurana Part 1
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1979
Total Pages560
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size11 MB
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