SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 269
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सन्धि ९ तब स्वामीने अपने स्नेहहीन मन प्रसारका ध्यान किया, और उसे जीत लिया। छठा माह परा होनेपर स्वामीने अपना कायोत्सर्ग समाप्त कर लिया। महिमाकी अन्तिम सीमापर पहुंचे हुए शुद्ध बुद्धि, पापोंका नाश करनेवाले महान् जिन सोचते हैं जिस प्रकार तेलसे दीपक और नीरसे वृक्ष जीवित रहता है, उसी प्रकार आहारसे मनुष्य शरीर जीवित रहता है। आहार भी वही जो दूसरेके निमित्त बना हो, सिद्ध हो और समयपर मिल जाये, जो आहार कर्मके उद्देश्योंसे रहित हो, पहले और बाद, स्तुतिको भाषासे शून्य हो, अधिक जल और चावलोंके मिश्रणसे रहित हो, विगलित धर्म देवचरुओं, लिंगी, दरिद्री मनुष्योंके दरिद्रतापूर्ण उद्गारों, चौदह प्रकारके मलोंके विस्तार-विकारों, जीवोंके वधादिके असंयमोंके मिश्रणों, दूसरेके भयसे उठाये हुए ग्रासों, इस प्रकार गणधरोंके द्वारा कहे गये छयालीस और दूसरे बहुदोषोंसे रहित हो, और जिसे सरस-नीरस कुछ भी न कहा जाये, रसमें स्वाद देनेवाली जीभको रोका जाये, रूप-तेज-बलकी चिन्तासे मुक्त, भोजन-संयमकी यात्राके लिए ही किया जाये। रूखा-सूखा कांजीका बघारा हुआ, मन-वचन और काय, तथा कृत-कारित और अनुमोदन ( नवकोटि विशुद्ध ) से शुद्ध, अच्छी तरह परीक्षित, भोजन मैं पाणिरूपी पात्रसे खाऊं एवं चर्याका आचरण संसारको बताऊँ। घत्ता-यदि मैं किसी प्रकार इसी तरह रहता हूँ और भोजन नहीं करता हूँ तो जिस प्रकार ये लोग नष्ट हो गये, उसी प्रकार दूसरा मुनिसमूह भी नष्ट हो जायेगा ॥१॥ आहारसे व्रत होता है, व्रतसे तप होता है और तपके द्वारा इन्द्रियां जीती जाती हैं। इन्द्रियोंकी विजयसे सम होता है और समसे मोक्ष। अपने मनमें यह स्वीकार कर और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002722
Book TitleMahapurana Part 1
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1979
Total Pages560
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy