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________________ १२. ९,३ ] हिन्दी अनुवाद २८३ जहां, जो अप्सरा पानीसे सफेद अपने बहते हुए दुपट्टेको नहीं देख पाती, उसके द्वारा परिधान अपने हाथ से पकड़ लिया जाता है और कहती है- "हे मां, यहां स्नान हो चुका ।" जिसमें मातंगों ( गजों और चाण्डालों ) को दानका स्नेह (चिकनापन और राग ) बहता है, और जिसमें तपस्वी भी अपने शरीरको डालते । जड़ ( मूर्ख और जल ) के साथ विद्वान् भी मूर्ख हो जाता है, जहाँ लक्ष्मीके आवासमें साँप शयन करते हैं। जो साँप और धनवान् सविष तथा बहुप्रिय ( वधुओंके प्रिय या अनेकके प्रिय ) हैं, उन्हें भी वह धनकी आशासे धारण करती है । जिन भगवान् के जन्माभिषेक के समय दिव्यांगनाके घन स्तनयुगलसे निकली हुई जो जिनेन्द्र भगवान् के स्नानाभिषेकके प्रारम्भिक दिनसे बह रही है, जिसमें प्रचुर शीतल हिमकण उछल रहे हैं, ऐसी वह मानो क्षीरसमुद्री क्षोरधारा के समान जान पड़ती है । घत्ता - सरागी समुद्र और हिमालय दोनोंने मानो मिलकर चन्द्रकान्त मणियोंकी प्रभासे उज्ज्वल इसे (गंगाको ) पकड़कर विश्वको जन्म देनेवाली इस धरतीरूपी नारीसे मेखलाके रूपमें बांध दिया है ||७|| ८ नदीको देखकर धरती के परमेश्वर भरतेश्वरने सारथिसे पूछा, "मत्स्योंके नेत्रवाली, जलाaant नाभि गम्भीर, नवकुसुमोंसे मिले हुए भ्रमरोंके केशोंवाली, डूबते हुए गजोंके कुम्भोंके स्तनोंवाली, शैवालके नीले नेत्रांचलोंसे अंचित, किनारोंके वृक्षोंसे विगलित मधुकेशरसे पीली, चंचल जलोंकी भृंगावलीसे मुड़ी हुई तरंगोंवाली, सफेद और फैले हुए फेनके वस्त्रोंवाली, हवासे हिलते हुए स्वच्छ हिमकणोंके हारवाली, विस्तृत सुन्दर पुलिनोंसे सुन्दर, यह नदी मन्द चलनेवाली विलासिनी के समान जान पड़ती है, यह श्वेत कोमलांगी कौन है ? बताओ। यह विहंगी (पक्षिणी) की तरह विहंगोंसे प्रेम करती हैं।" यह सुनकर सारथि बोला - " हे सुन्दर कामिनियोंके लिए कामदेव समान, राजाओंके मुकुटमणियोंकी किरणोंसे शोभित, कान्तिसे रंजित प्रथम चक्रवर्ती राजन्, दारिद्रयरूपी कीचड़के शोषण के लिए दिनेश्वर, अपने भुजबलसे त्रिभुवन ईशको कंपाने वाले, प्रणयिनी स्त्रियोंसे परम प्रणय करनेवाले हे नाभेयतनय राजन्, सुनिए- क्या आप नहीं जानते कि यह गंगा नामकी नदी है, मन्त्रीकी महार्थवाली मतिकी तरह जो पृथ्वीके धरणीन्द्रों ( राजाओं - पर्वतों ) का भेदन करने में समर्थ है; गम्भीर, प्रसन्न और सुलक्षणोंवाली जो मानो सुकविकी काव्यलीलाके समान है ? और रथश्रीकी तरह रथांग ( चक्रवाक और चक्र ) को दिखानेवाली है ? हिमवन्त सरोवरसे निकलनेवाली जो मानो धरतीरूपी वधूके चलनेको भंगिमा है । घत्ता - यह पर्वत, आकाश, धरणीतलों और समुद्रके विवरोंकी शोभा धारण करती है । तोनों लोकों में परिभ्रमण करनेवाली जनमनोंके लिए सुन्दर यह चन्द्रमाकी दीप्तिवाली तुम्हारी कीर्ति के समान है ||८|| ९ जिसमें यक्षिणियों और यक्षोंका क्रीड़ाविकार है ऐसे उस वनमें, गंगानदीके सुन्दर तटपर राजसेनाध्यक्षकी आज्ञासे सैन्य ठहर गया । वह सैन्य दौड़ते हुए महागजोंके मदजलसे गन्धयुक्त था, उड़ती हुईं तथा बाँसमें लगी हुईं पताकाओंसे सहित था, जो बैलों और यशसे अंकित था । उसकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002722
Book TitleMahapurana Part 1
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1979
Total Pages560
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size11 MB
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