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________________ ४.१६.१४] हिन्दी अनुवाद यद्यपि वह विघ्नोंको नष्ट करनेवाले और जगको रक्षा करनेवाले थे, फिर भी उन्होंने सीमित (मर्यादित ) आचरण किया। देवों और असुरों द्वारा जिनके गीत गाये जा रहे हैं, जिनपर चंचल चमर ढोरे जा रहे हैं ऐसे वे रमणियोंके साथ तबतक बैठे कि जबतक सूर्य अस्ताचल पहुँच गया। लाल-लाल वह ऐसा दिखाई देता है, मानो रतिका घर हो, मानो पश्चिम-दिशारूपी वधूका केशरका तिलक हो, मानो स्वर्गकी लक्ष्मीका माणिक्य गिर गया हो, मानो आकाशके सरोवरसे लाल कमल गिर गया हो, मानो जिनवरमें मुग्ध कामदेवने अपने-आप रागसमूह छोड़ दिया हो, समुद्रके जलमें प्रविष्ट सूर्यका आधा बिम्ब ऐसा मालूम हुआ है मानो दिग्गजका कुम्भस्थल हो, मानो अपने सौन्दर्यसे समुद्रके जलको रंजित करनेवाला, दिनलक्ष्मीका गर्भ च्युत हो गया हो, मानो विश्वमें घूमकर भी आवास नहीं पानेके कारण रत्न ( सूर्यरूपी रत्न) समुद्र में चला गया, मानो याद करती हुई लक्ष्मीका स्वर्ण वर्णका कलश छूटकर जलमें निमग्न हो गया हो, मानो समुद्रकी लहरोंकी लक्ष्मीके द्वारा लुप्त विश्वभवनरूपी दीप शान्त हो गया हो। पत्ता-फिर सन्ध्यादेवताके समान धरती रागसे रंजित होकर इस प्रकार चमक उठी, .. मानो अपनी लाल साड़ी पहनकर वह स्वामीके विवाहमें आयी हो ॥१५॥ तब काजलकी तरह श्याम, नक्षत्ररूपी दांतोंसे उज्ज्वल भयंकर तमरूपी निशाचर प्राप्त हुआ। जिसने चौथे प्रहरको छोड़ दिया है, ऐसे विगलित होते हुए सन्ध्यारागरूपी रुधिरको उसी प्रकार पी लिया जिस प्रकार अलिकुलके समान काले आते हुए मेघके द्वारा धरतीरूपी कमलका पराग पी लिया जाता है। फिर अन्धकारसे आच्छन्न विश्व इस प्रकार शोभित है, जैसे सूर्यके विरहसे वह काला हो गया हो, और मानो वह अपना पीला वस्त्र छोड़कर तथा काला वस्त्र ( नीलाम्बर ) पहनकर स्थित हो । इतने में चन्द्रमाका उदय हुआ, मानो पूर्व दिशाने निशाके लिए लक्ष्मी कलशका प्रवेश कराया हो, कि जो (निशा ) ताराओंरूपी दांतोंसे हंसती हुई स्वयं (विश्वरूपी ) भवनमें प्रवेश कर रही हो । वह चन्द्र ऐसा मालूम होता है मानो लक्ष्मीके करतलसे छूटा कमल हो, मानो त्रिभुवनकी सौन्दर्य लक्ष्मीका घर हो, मानो सुरत क्रीड़ासे उत्पन्न विषम श्रमको दूर करनेवाला युवतीजनोंके स्तनतलपर हिलता हुआ स्वेदरूपी हार हो, मानो अमृतबिन्दुओंका सुन्दर समूह हो, मानो यशरूपी लताका अंकुर हो। मानो मणि तारारूपी कमलका स्पर्श हो, मानो आकाशरूपी नदीमें सोया हुआ राजहंस हो, मानो आकाशके रंगमंचपर अपने स्वभावसे युक्त कामदेवका अभिषेकपीठ हो। मानो इन्द्रके लिए रखा गया धवलछत्र हो, मानो उसकी देवी ( इन्द्राणी) के द्वारा धारण किया गया दर्पण हो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002722
Book TitleMahapurana Part 1
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1979
Total Pages560
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size11 MB
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