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________________ सन्धि २ प्रणाम कर प्रसन्न मन, भक्तिराग और हर्षसे उछलता हुआ वह राजा अपने परिजनके साथ जिनेन्द्र भगवानके पास चला। आनन्दकी भेरी बजाकर सेना चली। नगरका नारी-समूह हर्षसे प्रेरित हो उठा। देवके गुणोंकी भावना करनेवाली कोई भामिनी हाथमें कमल लेकर इस प्रकार चली, मानो लक्ष्मी हो । चन्दन सहित कोई महासती ऐसी शोभित होती है मानो मलयपर्वतके ढालकी वनस्पति हो। कोई यशस्विनी कुवलय ( नीलकमल ) को लेती है, वह ऐसी मालूम होती है, मानो शत्रुका विदारण करनेवाली श्रेष्ठ राजाकी वृत्ति हो। कोई केशरसे युक्त चांदीका थाल लेती है जो सन्ध्यारागसे युक्त चन्द्रबिम्बके समान लगता है । श्रेष्ठ काली गन्ध ( कालागुरु ) के समूहसे सहित वह ( थाल ) ऐसा प्रतीत होता है मानो राहुसे ग्रस्त नवसूर्य बिम्ब हो। किसीने स्वर्णपात्र अपने हाथमें ले लिया, इन्द्रनील मणियोंवाला और मोतियोंसे भरा हुआ जो नक्षत्रोंसे विस्फुरित आकाशके समान जान पड़ता है। किसीने गुरुके चरण-कमलोंका स्मरण किया। शंखसे युक्त कोई समुद्रकी सखीके समान जान पड़ती है । कलशसे सहित कोई खजानेको भूमिके समान है। कोई वेश्यावृत्तिके समान दर्पण सहित है। कोई कविकी काव्य-उक्तिके समान सरस है। कोई जिनेन्द्रको भक्तिके प्रभारके कारण भरतमुनिके संगीतके विस्तारके साथ नृत्य करती है। किसीका खुला हुआ स्तनस्थल कामदेवरूपी महागजके कुम्भ-स्थलकी तरह दिखाई दे रहा है। मदनांकुश ( नखों) के घावोंकी रेखासे लाल होनेपर भी उस (स्तन-स्थल ) पर उपशमभावसे युक्त प्रियने कुछ भी ध्यान नहीं दिया। किसीका मणिमण्डित हार ऐसा प्रतीत होता था, मानो कामदेवने अपना पाश मण्डित कर लिया हो। बजते हुए हजारों झल्लरी, पटह और मृदंग आदि वाद्यों तथा जय-जय शब्दोंके साथ घत्ता-मदजलके कारण मंडराते हुए चंचल भ्रमरोंसे युक्त मत्तगजपर राजा ऐसा सवार हो गया, मानो पवनसे आन्दोलित तमालवनवाले पहाड़पर तीव्र नखवाला सिंह आरूढ़ हो गया हो ॥१॥ महावतने पैरोंके संचालनसे हाथीको प्रेरित किया। गण्डस्थलमें लीन भ्रमरोंकी झंकार तथा चमरोंसे चपल, तथा छत्रोंकी छायावाले अपने परिवारके साथ जाता हुआ राजा वहां पहुंचा और उसे देवोंसे रमणीय विस्तृत समवसरण दिखाई दिया। जिसे सोधयं स्वर्गके इन्द्रने स्वयं निर्मित किया था और जो एक योजन प्रमाण क्षेत्र में स्थित था। जो मानस्तम्भों और मणियोंके वन्दनवारों, कल्पित कल्पवृक्षोंके उद्यानों, जलपरिखाओं और धूलिप्राकारों, चैत्यगृहों, नाना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002722
Book TitleMahapurana Part 1
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1979
Total Pages560
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size11 MB
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