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________________ सन्धि १३ आक्रमण करने में विषम मागधराजको सिद्धकर तथा प्रसिद्ध सिद्धिके नेता जिन भगवानको प्रणामकर, सिंहके समान गर्जनाकर, राजा भरतने दक्षिण द्वारके वरदामा तीर्थके लिए प्रस्थान किया। राजा चलता है । गरुड़ध्वज फहराता है। सेनाएं तेज गतिसे चलती हैं, धूल आकाशमें छाती है। सुरलक्ष्मीके घरका अतिक्रमण करती हैं। वह घोड़ोंके मुखोंकी लारों, हाथियोंकी मदजल-रेखाओंसे प्रतिबल सेनाओंको शान्त करती हैं। लोगोंको शंका उत्पन्न करनेवाले पानों (ताम्वूलों) की कीचड़से पैर लथपथ हो जाते हैं, हारोंमें उलझ जाते हैं। अत्यन्त भारी भारसे तथा सामन्तोंके चलनेसे दसों दिशापथ घूमने लगते हैं, पृथ्वीतल झुक जाता है। नागिनें रमण नहीं करती, विषको ज्वाला उगलने लगती हैं। किसी प्रकार भार सहन करती हैं, मद छोड़ देती हैं, कहीं भी जाना चाहती हैं। नागराज त्रस्त होता है। लवणसमुद्र गरजता है। रण-विजय-श्री राजाके हाथमें निवास करती है और हँसती है। शत्रु-राजाओंके सैन्यको ग्रस्त करती है, विषमस्थलोंको चूर-चूर करती है; श्रेष्ठ सेना चलती है, दुर्गमें प्रवेश करती है, जलदुर्गको पार करती है, तरुदुर्गोंका अपहरण करती है। गिरिदुर्गमोंको शान्त करती है। गगनांगनका अतिक्रमण करती है। भटघटाओं, घोड़ों, रथों, गजों, देवों, विद्याधरों, शत्रुवर्गके विद्याधरोंके द्वारा छह प्रकारकी सेना संक्रमण करती है और शत्रुराजाका दमन करती है, राजाको वशमें लाती है। जो सेना वशमें नहीं होती वह प्राणोंसे वियुक्त होती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002722
Book TitleMahapurana Part 1
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1979
Total Pages560
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size11 MB
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