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भूमिका
कवि पुष्पदन्तकी तीन रचनाओंमें-से, जसहरचरिउका मैंने 1931 में सम्पादन किया था जिसका दसरा संस्करण, स्व. डॉ. हीरालाल जैन द्वारा कृत हिन्दी अनुवादके साथ, हाल ही में प्रकाशित हुआ है। दूसरी रचना 'णायकूमारचरिउ' का सम्पादन स्व. डॉ. हीरालाल जैनने किया जो हिन्दी अनवादके साथ 1933 में प्रकाशित हुआ। तीसरी रचना 'महापुराण' सबसे बड़ी है जिसका मैंने तीन जिल्दोंमें सम्पादन किया, 1937 से लेकर 1941 तक। इसकी तैयारीमें मुझे 1932 से 1941 तक, कुल दस वर्षका समय लगा। यह दुसरा संस्करण है, जो डॉ. देवेन्द्रकुमार जैनके हिन्दी अनुवादके साथ, भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित है। मैं विशेष रूपसे प्रसन्न हैं कि उक्त संस्थाने इसका प्रकाशन किया और इस प्रकार विद्वानोंको उक्त ग्रन्थ उपलब्ध कराया। अपभ्रंश साहित्यके प्रेमी भारतीय ज्ञानपीठके अत्यन्त कृतज्ञ हैं।
मैंने आशा व्यक्त को थी कि अपभ्रंशके कुछ युवा अनुसन्धायक आगे आयेंगे और इस युगान्तरकारी रचनाका अध्ययन करेंगे । 1964 में मेरे मित्र और शिष्य स्व. डॉ. ए. एन. उपाध्येने एक युवतीसे मेरा परिचय कराया था कि जिसने महापुराणके देशी शब्दोंपर पी-एच. डी. डिग्री प्राप्त की थी। मझे खेद है कि उसके नाम
और जीवनके बारेमें मुझे कुछ भी स्मरण नहीं है । अब भी एक विषय है, जिसका मैं सुझाव देता हूँ, जो कवि द्वारा प्रयुक्त छन्दोंके विश्लेषणसे सम्बन्धित है। यह भी एक आवश्यकता है। मुझे आशा करना चाहिए कि कतिपय युवा अनुसन्धायक आगे-आगे आकर इस समस्यापर काम करेंगे।
पाठक देखेंगे कि कवि पुष्पदन्त जैनों के दिगम्बर सम्प्रदायसे सम्बद्ध थे जबकि उसका सम्पादक न दिगम्बर है और न श्वेताम्बर । अतः सम्भव है कि दार्शनिक सिद्धान्तोंकी व्याख्या में उससे कुछ गलतियां हो गयी हों, क्योंकि मेरा जैनधर्म सम्बन्धी ज्ञान किताबी है। इसलिए मैं अपने पाठकोंको सम्पादककी गलतियोंको ठीक करनेकी अनुमति देता हूँ यदि टिप्पणियोंमें गलतियां हों तो।
पुणे 11 मई 1974
-पी. एल. वैद्य
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