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________________ ९.२६.९] हिन्दी अनुवाद २१३ जिन्होंने कामको नष्ट कर दिया है, और जो पापरहित हैं। सन्ध्याके समान स्वर्णकान्तिसे निर्मित, फिर भी चार द्वारवाली वनदेवियां हैं। फिर दिशा-दिशामें देवताओंसे संस्तुत, आकाशको छूती हुई, हवासे उड़ती हुई दस ध्वजाएँ स्थित हैं। माला, वस्त्र, मोर, कमलों, हंस, गरुड, हरि, वृषभ, गज और चक्रोंसे भूषित पटध्वजोंकी प्रभासे प्रचुर एक-एकपर एक सौ आठ ध्वज हैं। __ घत्ता-आकाशमें उड़ती हुई कुसुममाला ध्वजा त्रिलोकमें क्या किसी दूसरेके लिए सोह सकती है, केवल उसके लिए सोह सकती है कि जिसने कामदेवको जीत लिया है ।।२४।। २५ मानो वह ध्वज किकिणियोंके आन्दोलित घोषसे कहता है कि मैं वहाँ कुसुम सहित होकर भी कसमबाण (कामदेव ) नहीं हैं। हे देवदेव, मुझपर क्रोध मत कीजिए। कुसुमोसे कराल मुझपर करुणा करें, जो अम्बर ( वस्त्र ) तपश्चरणमें अच्छा नहीं लगता, उसके लिए निश्चित रूपसे वस्त्रध्वज आता है; जो स्त्रीवेषको कभी भी नहीं चाहते वह मयूरपताका अवश्य देखता है। जो राजारूपी कमलसे पराङ्मुख है उसके सम्मुख निश्चय ही कमलध्वज हैं। जो सच्चे परमहंस समझे जाते हैं ध्वज में उनका हंससे कैसे विरोध हो सकता है। जो अमृत ब्रह्मपद दिखाता है, वह गरुडध्वज पाता है, सिंहके ही समान जिसने वनकी सेवा की है सिंहध्वज उन्हें क्यों अच्छा नहीं लगता। जिन्होंने अपने मार्गमें पशुका आघात नहीं किया उनके लिए ध्वजके अग्रभागमें बेल स्थित है । वही आदरणीय पशुपति कहे जाते हैं, क्या और कोई दूसरा दुष्ट अपनेको क्यों शिव समझता है ? जो दुर्दम पांच इन्द्रियोंको पीड़ित करता है, गज उनके ध्वजपटका अनुशीलन करता है। जिसने मोहचक्रको चाँपकर चूर-चूर कर दिया, बिना किसी प्रतिवादके चक्र उसका चिह्न होगा। धत्ताफिर चार द्वारोंवाला प्रशस्त और विचित्र परकोटा था। जहां पंन्नोंके दण्ड हाथमें लिये हुए नागकुमार देव खड़े हुए थे ॥२५॥ २६ फिर जिसमें धूपके दो घट हैं, ऐसी विशाल नाट्यशाला है। नवरसाला (नौ रसोंवाली) वह, अभिनव भावोंसे अत्यन्त शोभित है। जहाँ इन्द्रकी उर्वशी, रम्भा, तिलोत्तमा नामक नर्तकियां नृत्य करती हैं। फिर लम्बे दस कल्पवृक्ष हैं, श्रेष्ठ भोगोंको प्रदान करनेवाले अत्यन्त अनुपम । फिर स्वर्णकी वेदिका है जो प्रिय कान्ताके समान सुख देनेवाली है। फिर बहुमंगल द्रव्योंको बतानेवाले द्वार हैं। जिनमें नित्य देवसमूह कोड़ा करता है और भंभा, भेरि और नगाड़ोंका निनाद हो रहा है ऐसे हारों और तारोंके समान स्वच्छ प्रासादोंको पंक्ति और प्रतोली लांघकर मणियोंके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002722
Book TitleMahapurana Part 1
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1979
Total Pages560
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size11 MB
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