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१८. ९.३]
हिन्दी अनुवाद
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न तो उनके पास जूते हैं, न शयन और आसन । उन्होंने अशेष आभूषण और छत्र भी छोड़ दिये । वह दंशमशक, शीत और उष्णता सहन करते हैं। क्षुधा, लोगोंके दुर्वचन ( क्रोध ) और तृष्णा सहन करते हैं । चर्या, निषद्या, शय्या, स्त्री, अरति, लोगोंके चले जाने और वनमें रहनेपर, वधबन्धन, सिंह-शरभ और तृणके शरीरसे लगनेपर भी वह निवारण नहीं करते, मुनि याचनामें भी अपने चित्तको नहीं लगाता, सूखे पसीने और मलसमूहसे लिप्त होनेपर भी वह स्थित रहते हैं, व्रतसत्कार वह कुछ भी नहीं चाहते। अशुभ और शुभमें वह समता भाव धारण करते हैं, विविध आतंक और रोगोंकी अवहेलना करते हैं, लोगोंके द्वारा लगाये गये दोषोंसे भी वह मूच्छित नहीं होते। मुनियोंमें श्रेष्ठ अदर्शन और अलाभ (परीषह ) प्रज्ञा परीषह भी वह आदरणीय सहन करते हैं। व्रत-समिति और इन्द्रियोंका निरोध, केशलोंच अचेलकत्व वासयोग, स्नानका त्याग, धरतीपर शयन, दाँत नहीं धोना और मर्यादाके अनुसार भोजन करना।
धत्ता-वनमें निवास करते हैं, सैकड़ों दुःख उठाते हैं, सहते हैं, बोलते नहीं, थोड़ा खाते हैं । सीमित नींद लेते हैं, मनको जीतते हैं, वैराग्यकी भावना करते हैं ॥७॥
इस प्रकार कठोर चरितका आचरण करते हुए धरतीपर वह विहार करते हुए वनके भीतर प्रविष्ट हुए। वहां वह एक वर्षपर हाथ लम्बे करके स्थित रहे। मानो लताओंके वेष्टनोंसे वृक्षको घेर लिया हो। उनके अंगपर पैरोंसे सींग घिसते हुए हरिणोंका खाज खुजलाना होता है। उनके वक्षपर नागमणि विराजित है, और बहुत-से विषधरोंसे हारकी तरह आचरण कर रहा ( हार-जैसा लग रहा है )। उनका शरीर हाथियोंकी मदजलोंसे स्नान करनेवाली सूंड़ोंके खुजानेका साधन हो गया। उनके चरणोंके अंगूठोंके नखपर तीरफलक रखे जाते हैं और वनचर मनुष्यों द्वारा पैने किये जाते हैं। सुरबालाएं और नभचर तरुणियाँ उनके देहपर चढ़ जाती हैं
और लताओंको तोड़ती हैं। उनकी शरीरको कान्तिसे.निष्प्रभ होकर हंस भी हरे रंगके हो गये हैं। उसकी रक्त कन्दशयके समान एड़ी है जिससे सूअर अपनी नाक रगड़ता है।
पत्ता-उस मुनीश्वरके तपके प्रभावसे शान्त पास बैठे हुए सिंह और गज, नागकुल और नकुल साथ-साथ रमण करते हैं और घूमते हैं ॥८॥
एक दिन पुत्र भरत अपनी पत्नीके साथ उन बाहुबलिकी वन्दना-भक्तिके लिए गया। पैरोंमें पड़कर राजा उसकी स्तुति करता है-"आपको छोड़कर जगमें दूसरा अच्छा नहीं है, आपने कामदेव होकर भी अकामसाधना प्रारम्भ की है। स्वयं राजा होकर भी अराग (विराग ) से
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