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९.७.११] हिन्दी अनुवाद
१९१ करनेवाला उत्तम आहारदान दिया था और जिसमें इन्द्र आया था, उसके मनमें यह बात स्थित हो गयी। उसने फिर कहा, "अहो, निश्चय ही मुझे ज्ञान हो गया है और मैंने प्राचीन वृत्तान्त जान लिया है। अजन्मा, अरागी, अप्रमेय, अमादी, अमानी, अमोही, अक्रोधी, अलोभी, अच्छेद्य, अभेद्य, अनेक होकर भी एक, अन्धकारसे विमुक्त, कामदेवके विध्वंसक, पवित्र, महान्, अनन्त, अरहन्त, असंग, अभंग, दिगम्बर, बुधोंके विधाता, सुखोंके साधन, पापोंके नाशक, तेजोंके निवास, क्रोधादि भावोंसे शून्य, पीड़ाहीन, यह देवदेव हैं । कृतार्थ, विवस्त्र, समथं और प्रशस्त सदा वन्दनीय यह पूज्यनीय हैं । श्रेष्ठ मोक्षगामी यह मेरे स्वामी हैं। देवेन्द्र और अहीन्दके द्वारा पूज्य यह पात्रभूत (योग्य पात्र ) हैं।
पत्ता-विश्वगुरु, गुरुजनोंके पूज्य, मौनव्रती, दिशारूपी वस्त्र धारण करनेवाले, यतिमार्गको प्रकाशित करनेवाले यह आहारके निमित्त घूम रहे हैं ।।६।।
लोग उन्हें वस्त्र, मणि और स्वर्णका दान देते हैं, परन्तु कामभोगोंसे मुक्त ये उन्हें नहीं लेते ॥१॥ जो कामसे ग्रस्त है वह कन्या लेता है, भूमि वह लेता है कि जो लोभसे ग्रस्त है, भवन सहित खाट और शय्यातल वह ग्रहण करता है जो रतिक्रीडाको मानता है। गाय दो-दो, ऐसा वह कहता है, जो घोसे अपनेको पोषित करता है । धन वह लेता है, जो इन्द्रियोंकी पूजा करता है। मांस वह खाता है जो अपनी चर्बी बढ़ाना चाहता है। ब्राह्मण और तपस्वी अपने व्यसनोंसे ही नष्ट हो गये और पापकर्मा वे संसारमें फंस गये । दुधर जीभ और उपस्थसे पाखण्डी स्वयंको और दूसरोंको नष्ट कर दण्डित हुए। पापोंके भारको वृद्धिसे क्षीण अज्ञानी जन्ममुख ( संसार ) में पड़ते हैं। जो लेते हैं वे विट और जो देते हैं वे विट । हम नहीं जानते, वे किन गुणोंसे महान् हैं। पत्थरकी नाव पत्थरको नहीं तार सकती, अवश्य ही कुपात्र संसारसमुद्रमें मारेगा।
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