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१५. १५.५]
हिन्दी अनुवाद
१३ जहाँपर निर्गम प्रवेश कहा जाता है, कुछ दिनोंमें राजा वहां पहुंचा। विजयाधं पर्वतकी दुर्गम पश्चिम दिशामें जहाँ तिमीस गुहा थी। मृगोंके मार्गमें लगे हुए हैं व्याघ्र जिसमें ऐसी पूर्वकी कंडय गुहाके निकट सैन्य इस प्रकार ठहर गया, मानो जैसे गिरिकुहरकी ऊष्मा हो। निधियोंके स्वामीने सेनापतिसे कहा-'लो तुम्हारे योग्य आदेश दे रहा हूँ, दण्डरत्नसे किवाड़को फिर इस प्रकार आहत करो जिससे वह खुलकर रह जाय । तुरग सेनाके साथ शीघ्र जाओ और इस प्रत्यन्त देशको सिद्ध कर शीघ्र आओ। मैं यहां छह माह रहूँगा और तुम्हारे लौटनेपर जाऊँगा।" तब असिधाराके जलसे अपने यशरूपी वस्त्रको धोनेवाले सेनाप्रमुख महायोद्धाने
पत्ता-पूर्व क्रमके अनुसार अश्वरत्नपर चढ़कर और क्रुद्ध होकर वज्रदण्डसे गिरिगुहाके किवाड़को आहत किया ॥१३॥
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जिस प्रकार जिन भगवान्के दर्शनसे पापपटल, जिस प्रकार सूर्यके उद्गमसे अन्धकार-मल, जिस प्रकार शुद्ध स्वभावसे काम, जिस प्रकार दुष्टतासे स्नेहभार दूषित होता है, जिस प्रकार
के समागमसे कुकवि विघटित हो जाता है, उसी प्रकार शीघ्र वह किवाड़ विघटित हो गया। वहां जो भयंकर शब्द हुआ उसके भयसे कौन नहीं थर्रा उठा? वहीं शिखरस्थल पर श्रीनृत्यमाल नामका देव अपना घर बनाकर रहता था। प्रतिहारने उसे राजाको दिखाया, वह चरणकमलोंको देखकर प्रसन्न हो गया। सेनापतिने म्लेच्छ धरती सिद्ध कर ली और उसे विजयलक्ष्मीकी सहेली सिद्ध हो गयी। आकर उसने प्रभुके चरणोंमें नमस्कार किया। वहाँ रहते हुए भरतके छह माह बीत गये।
पत्ता-लेकिन वह गुहाकुहर राजाके जानेके योग्य नहीं हो सका। उसे सब कुछ शीतल दिखाई दिया, जैसे पराया कार्य हो ॥१४॥
तब मन्त्रियोंने राजासे कुछ भी छिपाकर नहीं रखा और परमात्मा (ऋषभ ) के पुत्र (भरत ) से कहा, "तुम्हारी मन्थरगतिवाली माता यशोवतीके वे दो भाई हैं, कुमारवर, नामसे नमि और विनमि, धीर-वीर और युद्धभार उठानेमें समर्थ वेइस अविचल गिरिमेखला ( पर्वत
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