Book Title: Anekant 1955 Book 13 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust
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Page #1 --------------------------------------------------------------------------  Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ ने कान्त मई-जून, १९५५ ) RECE IM 0ur प्पादक-मण्डल किशोर मुख्तार विषय - सूची नाल जैन १ भगवान आदीश्वरकी ध्यान-मुद्रा (कविता) जयभगवान जैन एडवोकेट -कविवर दौलतराम - 'नन्द शास्त्री २ धर्म पंचविंशतिका-[ब्रह्म जिनदास ३ श्री हीराचन्द्रजी बोहराका नम्र निवेदन और कुछ शंकाएँ (शंकाओं का समाधान)-[जुगलकिशोर मुख्तार ४ चन्द्रगुप्तमार्य और विशाखाचार्य-[परमानन्द शास्त्री : ५ भ० श्रुनकोति और उनकी रचनाएँ-परमानन्द शास्त्री २७६ ६ धारा और धाराक जैन विद्वान-[परमानन्द जैन शास्त्री ७ जनसमाजके सामने एक प्रस्ताव-[श्री दौलतराम मित्र' । अहिसाकी युगवाणी-[डा. वासुदेवशरण अग्रवाल १८ क्या ग्रन्थसूचियों आदि परसे जैन साहित्यके इतिहासका निर्माण सम्भव है ? - [परमानन्द शास्त्री १५ श्री कुन्दकुन्द और समन्तभद्रका तुलनात्मक अध्ययन वालब्रह्मचारिणी श्रीविद्युल्लता शहा बी. ए. बी. टी. १२ वीरसंवामन्दिरम श्रुतपंचमी महोत्सव-[परमानन्द जैन कान्त वर्ष १३ । १३ १३ चीरसेवान्दिर मोसाइटीकी मीटिंग १५ वीरसेवामन्दिरकी कार्यकारिणीके दो प्र ताव करण ११-१२ १५ चिट्टा हिमाब अनकान्त वर्ष १३ का- परमानन्द जैन १६ अपनी आलाचना और भावना (कविता)-[युगवीर ३१ १७ श्रीराजकली मुख्तार ट्रस्टको ओरस सात छात्रवृत्तियों १८ सम्पादकीय-जुगलकिशोर मुख्तार ३१६ १६ वीरशासनजयन्तीमहोत्सव-[परमानन्द जैन टाइटिल पृष्ट द्वितीय । २६१ ६१८ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीरशासन जयन्ती महोत्सव आज ता. ५ जुलाई बुधवारके दिन 'वीरशासन करोड़ों व्यकि अहिंयाका तन-मन-धनमे प्रचार करते है जयन्ती का महोत्सव वीरसेवा-मन्दिरको प्रोग्से लाल- परन्तु खेद है कि हम उसके अनुयायी होकर भी उपके मन्दिर जीके विशाल हालमें सोल्माह मनाया गया। पांशिक रूपको भी यदि अपने जीवन में नहीं उतारते । सुमेरचन्दजीके मंगलगानके पश्चात प्रातःकालका कार्य महावीरके गुणोंका अपने जीवनमें अनुवर्तन करना ही सच्ची मुनि श्री देशभूषणजीकी उपस्थिति में सम्पन्न हुआ। इस भाक है । आदश मागका अनुका भक्रि है। आदर्श मार्गका अनुकरण होने पर ही आत्मउन्सवको सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि जिस मृत्लागमका कल्याण संभव है। अनन्तर ६० अजितकुमारजी शास्त्रीने भगवान महावीरकी वाणीसे साक्षान सम्बन्ध है उपका वीरशासनके ध्येयका विवेचन करते हुए उसकी महत्ता पर मन पाठ पंडित हीरालालजी सिद्धान्तशास्त्रीने सम्पन्न प्रकाश डाला और पं० दरबारीलालजी न्यायाचार्यने अपने किया। शास्त्रीजीने मुलागमके विषयका परिचय कराने हए भाषणमें बीरशासन और भाषणमें वीरशासन और अपने कर्तव्यकी ओर निर्देश बनलाया कि कर्मवन्धनका मूल कारण कपाय है और करते हुए कहा कि वीरसेवामन्दिर जैन समाजकी मान्य कषाय मुकि हो मोक्ष है। बाद में 40 जुगलकिशोरजी और संस्था है। वीरसेवामन्दिरने जैन साहित्य और इतिबाबू, छोटेलालजीने उस पर अच्छा प्राश डाला और हासकी महत्वपूर्ण शोध (खाज) की है । जिन प्राचार्योका मुनिजीने अपने भाषण में वीर शासनकी महना बतलाई। हम नाम तक भी नहीं जानते थे, उपके प्रयत्नसे उन्हें भी शामको ८ बजेसे शाम्त्र सभाकं बाद उत्सवका कार्य हम जानने लगे हैं । वीर शासन जयन्तीको उसके मंस्थापक ला. रघुवीरसिंहजी जैनावाचकी अध्यक्षतामें सम्पन्न मुग्य्तार साहबने ढढ निकाला और उसका उत्सव सबसे हुधा । सबसे पहले मैंने वीरशासन जयन्तीका इनिहाम प्रथम प्रथम वीरसेवामन्दिरने ही मनाया । अत: हमारा कर्तव्य है बतलाते हुए उसकी महत्ता पर जोर दिया। अनन्तर कि हम वारसेवा मान्दरक पु मुग्तार पाहबने वीर शापनकी महानता और गम्भीरताका अर्थकी सहायता द्वारा उसे दृढ बनायें। अनन्तर पं० विवेचन करते हुए क्रिमार्गके आदर्शका विवेचन किया हीरालालजीने वीरशामनकी महत्ताका प्रतिपादन करते हुए और बतलाया कि देवके बाद हमें शाम्बकी भकि करनी धारके सिद्धान्तों पर अमल करनेकी पारणा की। चाहिये। अाज हमें शात्र ही मद्ज्ञान प्राप्त कराते हैं । पश्चात् अध्यक्ष महोदयने ५० जुगलकिशोरजी मुख्तार परन्तु हम शास्त्रोंको केवल दृग्से हाथ जोड़ देते हैं, परन्तु और बाबू छोटेलालजीकी प्रशंसा करते हुए उनका श्राभार पच्ची भक्रि नहीं करते, और न उनके उद्धार एवं प्रचारका व्यक्त किया । और कहा कि बाबू छोटेलालजीने ही प्रयत्न करते हैं । इस तरह भक्विक प्रादर्श मार्गसे हम वीर सेवामन्दिर के लिये चालीस हजारकी जमीन खरीद दूर हैं। अत: हमारा कर्तव्य है कि हम उनका अध्ययन कर कर दी और अब ॥ महोन से वे दिल्ली में ठहर कर सेवासदज्ञान प्राप्त करें। इसके बाद बाबू छोटेलाल जी कलकत्ताने कार्य कर रहे हैं, उनकी यह ममाज-सेवा समाज लिये अपने भाषण में शास्त्रज्ञानकी महत्ता पर प्रकाश डालते हए अनुकरणीय है। भकिका आदर्श मार्ग बनलाया और कहा कि विदेशोंमें -~-परमानन्द जैन । स्वास्थ्य कामना वीरसेवामन्दिरके अध्यक्ष श्रीमान् बाबू छोटेलालजी कलकत्ता श्रवण बेल्गोलकी मीटिंगसे बैंगलोर होते हुए वापिस मद्रास कार्यवश गए । वहाँ पर परिश्रमादिके कारण आप ज्वारादि रोगमे पीड़ित हो गए हैं। मेरी भगवान महावीर से प्रार्थना है कि बाबू छोटेलालजी शीघ्र ही आरोग्य लाभकर दीर्घायु प्राप्त करें। -परमानन्द Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • अहम तुतत्त्व-संध श्वतत्व-प्रकाशक - / VI वाषिक मन्य ) एक किरण का मूल्य १) ABAR 453 Singer 22 नीतिविरोधध्वंसी लोकव्यवहारवर्तकः सम्यक् ।। परमागमस्य दीज भुवनैकगुरुर्जयत्यनेकान्त D वर्ष १३ । किरण ११, १२ । वीरसेवामन्दिर, C/० दि० जैन लालमन्दिर, चाँदनी चौक, देहली मई, जून वैशाख ज्येष्ठ, वीरनिर्वाण-संवत २४८१, विक्रम संवत २०१२ । १६५५ %3 भगवान् आदीश्वरको ध्यान-मुद्रा देखो जी आदीश्वर स्वामी, कैसा ध्यान लगाया है। कर ऊपर कर सुभग विराजै, आसन थिर ठहराया है ॥१॥ जगत-विभूति भूत सम तजकर, निजानन्द पद ध्याया है । सुरभितस्वांसा, आसा-वासा नासा-दृष्टि सुहाया है ॥ कंचन वरन चलै मन रंच न, सुरगिर ज्यों थिर थाया है। जास पास अहि-मोर मृगी-हरि, जाति-विरोध नसाया है। शुधउपयोग हुतासनमें जिन, वसुविधि समिध जलाया है। श्यामलि अलकावलि सिरसोहै, मानो धुमाँ उड़ाया है। जीवन-मरन अलाभ-लाम जिन तन-मनिको सम भाया है। सुर-नर-नाग नमहिं पद, जाके 'दौल' तास जस गाया है ॥ -कविवर दौलतराम Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमजिनदास-विरचिता धर्म-पंचविंशतिका [यह ग्रन्थ, मार्च सन् १९५० में अयपुरके शास्त्रमण्डारोंका अवलोकन करते हुए, मुझे बलदेवजी बाकलीवालके त्यासय-स्थित शास्त्रमंडारके गुटका नं. १५ से उपलब्ध हुपा है, जिसकी मार्चको प्रतिलिपि कराई गई थी। यह प्राकृतमें धर्म-विषयको २५ गाथाओंको लिये हुए है, इसीसे इसका एक नाम धर्म-पंचविंशतिका है। २५वीं गाथामें कविने अपना नाम जिनदास दिया है, अपनेको ब्रह्मचारी बतलाया है और ग्रन्थका नाम 'धर्मविलास' भी सूचित किया है। अन्तिम पुष्पिका-वाक्यमें जिमदासको त्रैविध नेमिचन्द सैद्धान्तिक प्राचार्यका प्रियशिष्य लिखा है जिनका 'चक्रवर्ती विशेषण कुछ अतिरिक एवं प्रतिलिपि लेखककी कृति जान पड़ता है। नेमिचन्द्र और जिनदास नामके अनेक विद्वान् हो गये हैंथे जिनदास कौनसे हैं यह अभी गवेषणीय है। -जुगलकिशोर मुख्तार ] धर्मपंचविंशतिका भव्वकमलमार्य सिद्ध जिण तिहुवणिंद-सद-पुज्जं। कमलासहाव चवला जोव्वरण-लावण-रूव-जरगहिया । नेमिससि गुरुवीरं पणमिय तियसुद्धिभवं महणं ॥११॥ पिय पुत्त-सज्जणाणं संजोश्रोणावजह मणिो ॥१५॥ संसारमजिक जीवो हिंडइ मिच्छत्त-विसय-संचित्तो। य जाणि चित्तमज्मे धम्मं आयरहि भावसुद्धय । अलहंतो जिणधम्म बहुविहपज्जाई गिरहेई ॥२॥ जह भावा तह धम्मा तहविह गइ कम्भ भुजंता ॥१६॥ . चमाइ-दुह-संतत्तोचउरासीलक्खजोणि अइखिएणो। जे मूढ मंदबुद्धी जिणपडिमा-धम्म-मणिहि-पडिकूला। कम्मफलं भुजंतो जिणधम्मविवज्जिो जीवो ||३|| विसयामिसत्थ-लुद्धा थावर ते होहिं वयहीणा ॥१७॥ अइदुलहं मणुयत्तं नवं नीरोय-देह-कुल-लच्छी। जे णिचअहमदा कोहाइचउक्क-मच्छरहिजुत्ता। बइ धम्मंण वियाणइपुणरवि ए य हवइणरजम्मं ॥४॥णियवइरठिया ते णरए णिवडनि हय-धम्मा ॥१८॥ धम्मत्थकामसाहणविणा मणुम्साउ पसुजहा बियला। आलस्सा मंदधिया मुद्धा लद्धा पचंचट्ठिचित्ता। धम्म भणंति पवरं तं विणु अत्थं ण कामं च ॥५॥ कामी माणी परगुण]च्छायणसीला य ते तिरिया॥१६॥ पढमं किज्जइ धम्म विग्घहरं सिद्धि हुंति सयलाई। जे सरला दयजत्ता कज्जाकज्ज वियारगुणवंता। लच्छी तहागिहि आवे मुहसंगमु इच्छए तस्स ॥६॥ माया-कवड-विहीणा भत्तिजदा ते हवहिं मणुसा ॥२०॥ णिगुणभवम्मि भमिहिसि जोव जरामरणजम्मवसिरोसि तिन्हाकया विनकया जिणवयण-रसायणे पाणं जा जिणधम्मवयारत्ता जिणअच्चा-पत्तदाण संजुता। अविरद-विसय-विरत्ता सुट्ठतवा होहिं वरदेवा ॥२१॥ जो को वि मूढबुद्धी जिणधम्मत्थंमि विसय अणुहवइ । लहिऊण चम्मदेहं जिणसुत्तं सुणिव भोयनिविण्णा। सो श्रमियरसं मुचिवि गिबहाइ हलाहलं पवरं ॥८॥ गिहिद-महव्वय-भारा भाटिया मुतिपुरि-पत्ता ॥२२॥ मिच्छ-दुरगह-गहिया धम्म छंडवि बिसय जे लग्गा। ते कप्पविक्खखंडाव कणयतरुवखणं कुहि ॥६॥ धम्मेण य सयनसुहं पावेण य पवरदुक्ख-विविहाई । इंदिबला अवलादय भणंति णिय इट्ठा आयरहिं ॥२३॥ णरजम्मं वर जाणिवि छंडिवि विसयाई धम्मु आयरहि । जिणधम्म मोक्खटुं अण्णाण हवेहिं हिसगायरणं । इंदाइसहं भुजवि ते तिहुवरण पुज्जिया हवहि ॥१०॥ इय जाणि भब्वजीवा जिणअक्खियधम्मु आयरहि ॥२४ चंदविहरणी रयणी कविवज्जिद हवेइ वर तरुणी। सहायणकरि दंतह विणु धम्मिणरभवो तह ॥११॥ हिम्मल-दसण-भत्ती-वय-अणुपेहा य भावणा चरए । पवरदल चिंधचामर-मायंग तुरंग-रह-बरा सुहडा। अंते सल्लेहण करि जइ इच्छहि मुत्तिवररमणी ॥२५॥ णरवा-विहीण जेहा णरजम्मं धम्मविणु तेहा ॥१२॥ मेहाकुमुणिचंदं भवदुह-सायरई जाण पत्तमिणं । जह निम्गंधं कुसुमं नीरविहूणं सरोवरं पवरं। धम्मविलासं सहदं णिदं जिणदास-बह्मण ॥२६॥ लच्छिविहणं गेहं तहा नरो धम्मविणु कहियो ॥१३॥ इति त्रैविद्य-सैद्धांतिक-चक्रवाचार्य (1) श्रीनेमिबाराहंति जिदं गुरुचरणं सयलजीवदयजुत्तं । चंद्रस्य प्रिय-शिष्य-ब्रह्मश्रीजिनदास-विरचितं धर्मधम्मि सणेहं दाणं कुपति जे ते नरा सहला ॥१४॥ पंचविंशतिकानाम शास्त्रं समान । Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीहीराचन्द्रजी बोहराका नम्र निवेदन और कुछ शंकाएँ [गत किरण से आगे शंका और समाधान इसी बात को श्रीवीरसेनाचार्यने, अपनी जयधवला बकीबोराजोतीकोनताको संख्या टोकामें, और भी स्पष्ट करके बतलाया है। वे सरागसंयममें ११ हैं। शंकाओंके समथनमें प्रस्तुत किये गये प्रमाणोंका मुनियोंकी प्रवृत्तिको युक्रयुक्त बतलाते हुए लिखते हैं कि उपर निरसन एवं कर्थन हो जानेपर जब वे प्रमाण-कटिमें उससे बन्धकी अपेक्षा असंख्यातगुणी निर्जरा (कर्मोंसे मुक्कि) स्थिर नहीं रह सके-परीक्षाके द्वारा प्रमाणाभास करार दे होती है । साथ ही यह भी लिखते हैं कि भावपूर्वक परंहतदिये गये-तब उनके बलपर प्रतिष्ठित होनेवाली शंकाओं में नमस्कार भी-जो कि भक्रिभाव रूप सराग चारित्रका ही यद्यपि कोई खास सत्व या दम नहीं रहता. विज्ञ पाठकों- एक अंग है-बन्धकी अपेक्षा असंख्यात गुणा कर्मचयका द्वारा उपरके विवेचनी रंशन में उनका महज ही समाधान कारण है, उसमें भी मुनियोंकी प्रवृत्ति होती है:हो जाता है, फिर भी कि श्रीबोहराजीका अनुरोध है कि “सरागसजमो गुणसेढिणिज्जराए कारणं,तेण बंधादो मैं उनकी शंकाओं का समाधान करके उसे भी अनेकान्तमें मोक्खो असंखेज्जगुणो त्ति सरागसंजमे मुणीणं बट्टणं प्रकाशित कर दू और तदनुसार मैंने अपने इस उत्तर लेखक जुन्मदि ण पच्चवट्टाणं कायव्यं । अरहंतणमोकारो प्रारम्भमें (पृ. १४. पर ) यह सूचित भी किया था कि सपहिय बंधादो असखेज्जगुणकम्मक्खयकारओत्ति तत्थ "उनकी शकाओंका समाधान आगे चलकर किया जायगा, यहाँ विमुणीणं पत्तिप्पसंगादो। उत्तंचपहले उनके प्रमाणोंपर एक दृष्टि डाल लेना और यह अरहंतणमोकारं भावेण जो करेदि पयडमदी । मालूम करना उचित जान पड़ता है कि वे कहाँ तक उनके सो सव्वदुरखमोक्खं पावइ अचिरेण कालेण ।” अभिमतविषयके समर्थक होकर प्रमाणकोटि में ग्रहण किये इसके सिवाय, मूलाचारके समयसाराधिकारमें यत्नाचारसे 'जा सकते हैं।" अतः यहाँ बोहराजीकी प्रत्येक शंकाको चलनेवाले दयाप्रधान साधुके विषयमें यह साफ लिखा है कि क्रमशः उद्धत करते हुए उसका यथावश्यक संक्षेपमें ही उसके नये कर्मका बन्ध नहीं होता और पुराने बैंधे कर्म समाधान नीचे प्रस्तुत किया जाता है : झड़ जाते हैं अर्थात् यत्नाचारसे पाले गये महावतादिक १ शंका-दान, पूजा. भक्रि, शील, संयम, महावत, मंवर और निर्जराके कारण होते हैंअणुव्रत प्रादिके परिणामों कर्मोका प्रास्रव बन्ध होता है जदं तु चरमाणस्स दयापेहुस्स भिक्खुणो। या संवर निर्जरा! एवं ण बज्झदे कम्मं पोराणं च विधूयदि ॥२३॥ समाधान -इन दान, पूजा और व्रतादिकके परि- यत्नाचारके विषयमें महावती मुनियों और अणुवती णामोंका स्वामी जब सम्यग्दृष्टि होता है, जो कि मेरे लेखमें श्रावकोंकी स्थिति प्रायः समान है, और इसलिये यत्नाचारसे सर्वत्रविवक्षित रहा है, तब वे शुभ परिणाम अधिकांशमें पाले गये अणुव्रतादिक भी श्रावकोंके लिये संवर-निर्जराके संवर-निर्जराके हेतु होते हैं, प्रास्त्रवपूर्वक बन्धके हेतु कम कारण हैं ऐसा समझना चाहिये। पड़ते हैं। क्योंकि उस स्थितिमें वे सराग सम्यक्चारित्रके अंग यहां पर मैं इतना और भी स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि कहलाते हैं । सम्यक् चारित्रके साथ जितने अंशोंमें रागभाव सम्यक्चारित्रके अनुष्ठानमें, चाहे वह महावतादिकके रूपमें रहता है उतने अंशों में ही कर्मका बन्ध होता है, शेष सब हो या अणुप्रतादिकके रूपमें, जो भी उद्यम किया जाता चारित्रोंके अंशांसे कर्मबन्धन नहीं होता-वे कर्मनिर्जरादिके या उपयोग लगाया जाता है वह सब 'तप' है, जैसा कि कारण बनते हैं। जैसा कि श्रीअमृतचंद्राचार्यके निम्न वाक्यसे भगवती आराधनाकी निम्न गाथासे प्रकट हैजाना जाता है चरयाम्मि तम्मि जो उज्जमो य पाउंबायो बजो हो । येनांशेन चरित्रं तेनांशेनाऽस्य बन्धनं नास्ति । सो चेव जिणेहिं तवो भणियं असलं परंतस्स men येनांशेन तु रागस्तेनांशेनाऽस्य बन्धनं भवति ॥(पु.सि.) इसी तरह इच्छाके निरोधका नाम भी 'तप' है जैसाकि Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७०] अनेकान्त • [वर्ष १३ चारित्रसारके 'स्नत्रयाविर्भावार्थमिच्छानिरोधस्तपः' इस रहित प्रात्माके निज परिणाम) की प्राप्तिका भी अवसर होय वाक्यसे जाना जाता है। मुनियों तथा श्रावकोंके अपने-अपने है।" (भावपाहुड-टीका) बतोंके अनुष्ठान एवं पालनमें कितना ही इच्छाका निरोध "शुभोपयोग भए शुद्धोपयोगका यत्न करतो (शुद्धोपयोग) करना पड़ता है और इस दृष्टिसे भी उनका व्रताचरण होय जाय ।" (मोक्षमार्गप्रकाशक प्र.) तपश्चरणको लिये हुए है और 'तपसा निर्जरा च' इस यहाँपर मैं इतना और भी प्रकट कर देना चाहता हूँ कि सूत्रवाक्य के अनुसार तपसे संवर और निर्जरा दोनों होते हैं, मुनियों और श्रावकोंके शुद्धोपयोगका क्या स्वरूप होता है, यह सुप्रसिद्ध है। इस विषयमें अपराजितसूरिने भगवती-आराधनाकी गाथा नं. ऐसी स्थितिमें यह नहीं कहा जा सकता कि सम्यग्दृष्टिके १८३४ को टीकामें कुछ पुरातन पद्योंको उद्धृत करते हुए उक्त शुभभाव एकान्ततः बन्धक कारण हैं। बल्कि यह स्पष्ट जो प्रकाश डाला है वह भी इस अवसर पर जान लेनेके जाता है कि वे अधिकांशमें कर्मोंके संवर तथा निर्जराके योग्य है। होरालालजी शास्त्रीने उसे गत अनेकान्त कारण हैं। किरण ८ में 'मुनियों और श्रावकोंका शुद्धोपयोग' शीर्षकके २शंका-यदि इन शुभ भावोंसे कर्मोकी संवर निर्जरा साथ प्रकट किया है। यहाँ उसके अनुवाद रूपमें प्रस्तुत होती है तो शुद्धभाव (वीतरागभाव) क्या कार्यकारी रहे? किये गये कुछ अंशोंको ही उद्धृत किया जाता है :यदि कार्यकारी नहीं तो उनका महत्व शास्त्रों में कसे वणित जीवोंको नहीं मारूंगा. असत्य नहीं बोलू गा, । चोरी नहीं करूंगा, भागोंको नहीं भोगूंगा, धनको नहीं समाधान-शुभ भावोंसे कर्मोका संवर तथा निर्जरा ग्रहण करूंगा, शरीरको अतिशय कष्ट होने पर भी रातमें होनेपर शुद्ध भावोंकी कार्यकारितामें कोई बाधा नहीं पड़ती, नहीं खाऊँगा, मैं पवित्र जिनदीक्षाको धारण करके क्रोध, वे संवर-निर्जराके कार्यको सविशेषरूपसं सम्पन्न करने में मान, माया और लोभके वश बहुदुख देने वाले प्रारम्भसमर्थ होते हैं । शुभ और शुद्ध दोनों प्रकारके भाव कर्मक्षयक परिग्रहसे अपनेको युक्त नहीं करूंगा। इस प्रकार प्रारंभहेतु हैं। यदि ऐसा नहीं माना जायगा तो कर्मोका क्षय हो परिग्रहादिसे विरत होकर शुभकर्मक चिन्तनमें अपने चित्तको नहीं बन सकेगा; जैसा कि श्रीवीरसेनाचार्यके जयधवला-गत लगाना मिद्ध अहन्त, प्राचार्य, उपाध्याय, जिनचैत्य, संघ निम्न वाक्यसे प्रकट हैसुह-सुद्ध-परिणामेहि कम्मक्खयाभावे तक्खयाणुव और जिनशासनकी भक्ति करना और इनके गुणोंमें बत्तीदो। (पृष्ठ ६) अनुरागी होना तथा विषयास विरत रहना, यह मुनियोंका शुद्धोपयोग है। इसके अनन्तर प्राचार्य वीरसेनने एक पुरातन गाथाको उद्धत किया है जिसमें “उवसम-खय-मिस्सया य 'विनीतभाव रखना, संयम धारण करना, अप्रमत्तभाव मोक्खयरा" वाक्यके द्वारा यह प्रतिपादन किया गया है रखना, मृदुता, क्षमा, प्रार्जव और सन्तोष रखना; श्राहार कि औपशमिक, सायिक और मिश्र (क्षायोपशमिक) भाव भय मैथुन परिग्रह इन चार संज्ञाओंको, माया मिथ्यात्व कर्मक्षयके कारण हैं। इससे प्रस्तुत शंकाके समाधान के साथ और निदान इन तीन शल्योंको तथा रस ऋद्धि और सात पहली शंकाके समाधानपर और भी अधिक प्रकाश पड़ता गौरवोंको जीतना, उपसर्ग और परीषदोंपर विजय प्राप्त है और यह दिनकर प्रकाशकी तरह स्पष्ट हो जाता है कि करना, सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान तथा सरागसंयम धारण करना, शमभाव भी कर्मक्षयके कारण हैं। शुद्धभावोंका तो दश प्रकारके धर्मोका चिन्तवन करना, जिनेन्द्र-पूजन प्रादुर्भाव भी शुभभावोंका आश्रय लिये बिना होता नहीं। करना, पूजा करनेका उपदेश देना, नि:शंकिवादि इस बात को पं. जयचन्दजी और पं० टोडरमलजीने भी पाठ गुणोंको धारण करना, प्रशस्तरागसे युक्र तपकी भावना अपने निम्न वाक्योंके द्वारा व्यक्त किया है, जिनके अन्य रखना, पाँच समितियोंका पालना, तीन गुप्तियोंका धारण वाक्योंको बोहराजीने प्रमाणमें उद्धत किया है और इन करना, इत्यादि यह सब मुनियोका शुद्धोययोग है। वाक्योंका उद्धरण छोड़ दिया है। मूल वाक्योंके लिये उक्त टीका ग्रंथ या अनेकान्तकी "भर शुभ परिणाम होय तब या धर्म (मोह-शोभसे उक आठवीं (फरवरी १९५५ को) किरण देम्वनी चाहिए। Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष १३] श्रीहीराचन्द्रजी बोहराका नम्र निवेदन [२७१ 'ग्रहण किये हुए व्रतोंके धारण और पालनकी इच्छा समाधानमें पा गया है । सम्यग्दष्टिके शुभ परिणाम जब रखना, एक क्षणके लिए भी बतभंगको अनिष्टकारक सर्वथा बन्धके कारण नहीं तब शंकाके तृतीय अंशके लिये कोई समझना, निरन्तर साधुओंकी संगति करना, श्रद्धा-भक्ति स्थान ही नहीं रहता । धर्मको प्रकट के भीतर जो प्रादिके साथ विधिपूर्वक उन्हें प्राहारादि दान देना, श्रम या 'मुनिका देने वाला' बतलाया है वैसा एकान्त भी जिनथकान दूर करनेके लिए भोगोंको भोग कर भी उनके परि- शासनमें नहीं है। जिनशासनमें धर्म उसे प्रतिपादित किया त्याग करनेमें अपनी असामयकी निन्दा करना, मदा है जिससे अभ्यदय तथा निःश्रेयसकी सिद्धि होती है, जैसा घरवारके त्याग करनेकी वांछा रखना, धर्मश्रवण करनेपर कि सोमदेवसरिके निम्न वाक्यसे प्रकट है जो स्वामी समंतअपने मनमें अति पानन्दित होना, भकिसे पंचपरमेष्ठियोंको भद्रके निःश्रेयसमभ्यदयं इत्यादि कारिकाके वचनको लक्ष्यमें स्तुति-प्रणाम द्वारा पूजा करना, अन्य लोगोंको भी स्वधममें लेकर लिखा गया है:स्थित करना, उनके गुणांको बढ़ाना, और दोषोंका उपगृहन 'यतोऽभ्युदयनिःश्रेयससिद्धिः स धर्मः (नीतिवाक्यामृत) करना, साधर्मियोंपर वात्सल्य रखना, जिनेद्रदेवके भक्तोंका ४ शंका-उत्कृष्ट द्रालगी मुनि शुभोपयोगरूप उपकार करना, जिनेन्द्रशास्त्रोंका आदर-सत्कार-पूर्वक पठन- उच्चतम निदोष क्रियानोंका परिपालन करते हुए भी। पाठन करना, और जिनशासनको प्रभावना करना, इत्यादि (यहाँ तक कि अनंतवार मुनिव्रत धारण करके भी) गृहस्थों का शुद्धोपयोग है। मिथ्यात्व गुणस्थानमें ही क्यों पड़ा रह जाता है ? आपके इस सब कथनसे स्पष्ट जाना जाता है कि जिन दान, लेखानुमार तो वह शुद्धत्वके निकट ( मुक्रिके निकट ) पूजा, भकि, शील, संयम और व्रतादिके भावोंको हमने होना चाहिए । फिर शास्त्रकारोंने उसे असंयमी सम्यग्दृष्टिसे केवल शुभ परिणाम समझ रक्खा है उनके भीतर कितने ही भी हीन क्यों माना हैं ? शुद्ध भावोंका समावेश रहता है, जिन पर हमारी दृष्टि ही समाधान-द्रयलिंगी मुनि चाहे वह उत्कृष्ट नहीं है-हमने शुद्ध भावोंकी एकान्ततः कुछ विचित्र ही द्रव्यलिंगी हो या जघन्य, सम्यग्दृष्टि नहीं होता और इस कल्पना मनमें करली है-यहाँ तो अहिंसादि शुभकर्मोके लिए उसकी क्रियाएँ सम्यक्चारित्रकी दृटिसे उच्चतम चित्तमें चिन्तनको भी शुद्धोपयोगमें शामिल किया है। तथा निदोष नहीं कही जा सकती। निर्दोष क्रियाएँ वही ३शका-जिन शुभभावोंसे कोका श्राव होकर होती हैं जो सम्यग्ज्ञानपूर्वक होती हैं । सम्यग्ज्ञानपूर्वक न बंध होता है. क्या इन्हीं शुभभावोस मुक्रि भी हो सकी होनेवाली क्रियाएँ मिथ्याचारित्रमें परिगणन है, चाहे वे है ? क्या एक हा परिणाम जो बंधक भी कारण है, वे ही बाहरसे देखनेमें कितनी हा सुन्दर तथा मंचकर क्यों न मुनिका कारण भी हो सकते है। यदि ये परिणाम बंधक मालूम दती हो, उन्हें मतक्रियाभाम कहा जायगा और व ही कारण हैं तो इन्हें धर्म (जो मुक्रिका देने वाला) कैस सम्थकचारित्रके फलको नहीं फज सकगी, जब तक उस माना जाय ? द्रालगा मुनिक प्रान्माको सम्यग्दर्शनको प्राप्ति नहीं होगी समाधान-सम्यग्दृष्टिक वे कौनसे शुभ भाव है तब तक वह मिथ्यात्व गुणस्थानने हा चला जा+गा। जिनस कवल कर्मो का प्राव होकर बन्ध ही होता है, मुझे मेरे उस लेखमें कहीं भी द्रव्यलिगी मुनियों की क्रियाए उनका पता नहीं । शंकाकारको उन्हें बतलाना चाहिए था। विवक्षित नहीं है-शुभभावरूप जो भी क्रियाएँ विवक्षित ह पहली-दूसरी शंकाओंफै समाधानसे तो यह जाना जाता है व सब सम्यग्दृष्टिको विवक्षित है चाहे वह मुनि हो या कि सम्यग्दृष्टिके पूजा-दान-व्रतादि रूप शुभभाव अधिकांशमें श्रावक अतः मेरे लेखानुपार वह व्यलिंगी मुनि शुद्धत्तके कार्यक्षय अथवा कर्मोकी निर्जराके कारण हैं और इसलिए निकट होना चाहिए ऐसा लिखना मेरे लेख तथा उसकी मुक्रिमें सहायक हैं। मिश्रभावकी अवस्थामें ऐसा होना दृष्टि को न समझनेका ही परिणाम कहा जा सकता है। साभव है कि एक परिणामके कुछ अंश बन्धक कारण हो ५शंका-यदि शुभभावों में अटक रहनेस इग्नका और शेष अंश बन्धके कारण न होकर कर्मोकी निर्जरा कोई बात नहीं है तो संमागे जीवको अभी तक मुकि क्यों अथवा मुक्तिके कारण हो। सराग सम्यक् चारित्रकी अवस्था नहीं मिली? अनादिकालसं जीवका परिभ्रमण क्यों हो प्राय: ऐसा ही होता है और इसका खुलामा पहली शंकाके रहा है ? क्या वह अनादिकालस पापभाव ही करता पाया Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - २७२ ] अनेकान्त [ वर्ष १३ है? यदि नहीं तो उसके भवभ्रमणमें पापके ही समान प्राय हो तो कृपया शास्त्रीय प्रमाण द्वारा इसे और स्पष्ट पुण्य भी कारण है या नहीं? यदि पुण्यभाव भी बन्धभाव का देनेको कृपा करें। होनेसे भवभ्रमणमें कारण है तो उसमें भटके रहनेसे हानि समाधान-गुद्धस्वकी प्राप्तिका जय रखते हुए जब हुई या नाम? किसीको परिस्थितियोंके वश शुभमें अटकना पड़ता है तो समाधान-शुद्धत्वका लषय रखते हुए म्य-क्षेत्र-काल- उसके लिये शुद्धत्वके पुरुषार्थकी पावश्यकता कैसे नहीं भावादिकी परिस्थितियोंके अनुसार शुभमें अटके रहनेसे रहती ? आवश्यकता तो उपको नहीं रहती जो शुद्धत्वका सम्यग्दृष्टिको सचमुच उरनेकी कोई बात नहीं है-वह कोई लक्ष्य ही नहीं रखता और एकमात्र शुभभावोंको ही यथेष्ट साधन-सामग्रीकी प्राप्ति पर एक दिन अवश्य मुनिको सर्वथा उपादय समझ बैठा है, ऐसा जीव मिथ्यादृष्टि होता प्राप्त होगा। असंख्य संसारी जीवोंको अब तक है। सम्यग्दृष्टि जीवकी स्थिति दूसरी है. उसका लक्ष्य राख ऐसा करके ही मुकि मिली है। अनादिकालसे जिनका होते हुए परिस्थितियोंके वश कुछ समय शुभमें भटके रहनेसे कोई परिभ्रमण हो रहा था वेही सम्यग्दर्शनको प्राप्त कर शुद्धत्वका का विशेष हानि नहीं होती । यदि वह शुभका आश्रय न ले तो लषय रखत हुए शुभभावोंका प्राश्रय लेकर-उनमें उसे अशुभराग द्वेषादिके वश पढ़ना पड़े और अधिक हानिकुछ समय तक अटक रह कर-भवभ्रमणसे छटे हैं। और का शिकार बनना पड़े। शुभका आश्रय लिये बिना कोई इसलिये यह कहना कि संपारी जीवको अभी तक मुक्ति क्यों शुद्धत्वको प्राप्त भी नहीं होता, यह बात पहले भी प्रकट की नहीं मिली वह कोरा भ्रम है। संसारी जीवोंमसे जिनको जा चुकी है । अतः मेरे लिखनेका जो तात्पर्य निकाला गया है अभी तक मुक्निकी प्राप्ति नहीं हुई उनके विषयमें समझना वह लेख तथा उसकी दृष्टिको न समझनेका ही परिणाम है। चाहिये कि उन्हें सम्यग्दर्शनादिकी प्राप्तिके साथ दूसरी लेखमें "शुद्धत्व यदि माध्य है तो शुभभाव उसकी प्राप्ति योग्य साधन-सामग्रीकी अभी तक उपलब्धि नहीं हुई है। का मार्ग है-साधन है। साधनके विना साध्यकी प्राप्ति सम्यग्दर्शनसे विहीन कोरे शुभभाव मुनिके साधन नहीं और नहीं होती, फिर साधनकी अवहेलना कैसी?" इत्यादि न कोरा पुण्यबन्ध हो मुनिका कारण होता है, वह नो वाक्योंके द्वारा लेखकी दृष्टिको भले प्रकार समझा जा सकता कषायोंकी मन्दतादिमें मिथ्याष्टिक भी हुआ करता है। वह है। जिसका लक्ष्य शुद्धत्व है ऐसे सम्यग्दृष्टि जीवको लक्ष्य पुण्यभाव अपने लेख में विवक्षित नहीं रहा है। ऐसी स्थितिमें करके ही यह कहा गया है कि उसे शुभमें अटकनेसे डरनेकी शंकाके शेष अशके लिये कोई स्थान नहीं रहता। सम्यग्दृष्टि भी ऐसी कोई बात नहीं है, ऐसा जीव ही यदि शुभमें अटका और मिथ्याष्टिके पुण्यभाव तथा उनमें अटके रहनेकी दृष्टिमें रहेगा तो शुद्धत्वके निकट रहेगा। बहुत बड़ा अन्तर है-एक उसे मर्वथा उपादेय मानता है ७ शंका-यदि पुण्य और धर्म एक ही वस्तु हैं तो तो दूसरा उसे कथंचिन उपादेय मानता हुआ हेय समझता शास्त्रकारोंने पुण्यको भिन्न संज्ञा क्यों दी? है, और इसलिए दोनों की मान्यतानुसार उनके हानि-लाभमं समधान-यह शंका कुछ विचित्रमी जान पड़ती है ! मैंने अन्तर पड जाता है। पुण्यबन्ध सर्वथा हा हानिकारक तथा ऐसा कहीं लिखा नहीं कि 'पुण्य और धर्म एक ही वस्तु है।' भवभ्रमणका कारण हो, ऐसी कोई बात भी नहीं है। तीर्थकर जो कुछ लिखा है उसका रूप यह है कि "धर्म दो प्रकारका प्रकृति और पर्वार्थसिद्धि में गमन कराने वाले पुण्यकर्मका बंध होता है-एक वह जो शुभभावोंके द्वारा पुण्यका प्रम धक जल्दी ही मुक्रिको निकट लानेव ला होता है। है, और दूसरा वह जो शुद्धभावके द्वारा किसी भी प्रकारके ६शंका-यदि शुभमें अटके रहने में कोई हानि नहीं (बन्धकारक) कर्मावका कारण नहीं होता। इससे यह है तो फिर शुद्धस्वके लिये पुरुषार्थ करनेकी श्रावश्यकता ही माफ फलित होता है कि धर्मका विषय बड़ा है-वह व्यापक क्या रह जाती है ? क्योंकि आपके लेखानुसार जब इनसे है पुण्यका विषय उसके अन्तर्गत पा जाता है। इसलिये वह हानि नहीं तो जीव इन्हें छोड़नेका उद्यम ही क्यों करे। व्याप्य । व्याप्य है। इस दृष्टिसे दोनोंको एक ही नहीं कहा जा क्या प्रापके लिखनेका यह तात्पर्य नहीं हुआ कि इसमें अटके सकता, धमका एक प्रकार हानस पुरुषका भी धर्म कहा रहनेसे कभी न कभी तो संसार परिभ्रमण रुक जावेगा। जाता ना जाता है । इसके सिवाय, एक ही वस्तुकी दृष्टिविशेषसे शुभाकया करते २ मुक्ति मिल जावेगी, ऐसा आपका अभि- देखो अनेकान्त वर्ष १३ किरण १, पृ०,५। Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष १३ श्रीहीराचन्द्रजी बोहराका नम्र निवेदन [२७३ यदि अनेक संज्ञाएँ हों तो उसमें बाधाकी कौन सी बात है? भाव सम्यक्चारित्रका अंग होनेसे धर्ममें परिगणित हैं। . एक-एक वस्तुकी भनेक अनेक संज्ञाघोंसे तो अन्य भरे पड़े जबकि मिथ्याइष्टिके वे भाव मिथ्याचारित्रका अंग होनेसे है, फिर धर्मको पुण्य संज्ञा देनेपर आपत्ति क्यों ? श्री- धर्ममें परिगणित नहीं है। यही दोनों में मोटे रूपसे अन्तर कुन्दकुन्दाचार्यने जब स्वयं पूजा-दान-बतादिको एक जगह कहा जा सकता है। जो जैनी सम्यग्दृष्टि न होकर मिथ्या'धर्म' लिखा है और दूसरी जगह 'पुण्य' रूपमें उल्लेखित दृष्टि हैं उनको क्रियाएँ भी प्राय: उसी कोटिमें शामिल हैं। किया है तब उससे यह स्पष्ट जाना जाता है कि १०शंका-धर्म दो प्रकारका है-ऐसा जो आपने धर्मके एक प्रकारका उल्लेख करनेकी दृष्टिसे ही उन्होंने लिखा है तो उसका तात्पर्य तो यह हुआ कि यदि कोई पुषप्रसाधक धर्मको 'पुण्य' संज्ञा दी है। अतः दृष्टिविशेषके जीव दोनोंमेंसे किसी एकका भी प्राचरण करे तो वह वश एकको अनेक संज्ञाएँ दिये जाने पर शंका प्रयवा प्राश्चर्य मुक्रिका पात्र हो जाना चाहिए, क्योंकि धर्मका लक्षण की कोई बात नहीं। प्राचार्य समन्तभद्रस्वामीने यही किया है कि जो उत्तम शंका-यदि पुण्य भी धर्म है तो सम्यग्दृष्टि श्रद्धा- अविनाशी सुखका अविनाशी सुखको प्राप्त करावे वही धर्म है। तो फिर द्रव्यमें पुण्यको दण्डवत् क्यों मानता है? लिंगी मुनि मुक्तिका पात्र क्यों नहीं हुआ ? उसे मिथ्यात्व गुण स्थान ही कैसे रहा ? अापके लेखानुसार तो उसे मुक्रिकी समाधान-यदि सम्यग्दृष्टि श्रद्धा पुरयको दण्डवत् मानता है तो यह उसका शुद्धत्वको और बढ़ा हुप्रा रष्टि प्राप्ति हो जानी चाहिये थी? विशेषका परिणाम हो सकता है-व्यवहारमें वह पुण्यको समाधान-यह शंका भी कुछ बड़ी ही विचित्र जान अपनाता ही है और पुण्यको सर्वथा अधर्म तो वह कभी भी पढ़ती है। मैंने धर्मको जिस दृष्टिसे दो प्रकारका बतलाया नहीं समझता | यदि पुण्यको सर्वथा अधर्म समझे तो यह है उसका उल्लेख शंका के समाधान में भा गया है और उसके दृष्टिविकारका सूचक होगा क्योंकि पुण्यकर्म किसी उससे वैसा कोई तात्पर्य फलित नहीं होता। दयलिंगीकी उच्चतम भावनाकी रष्टिसे हेय होते हुए भी सर्वथा हेय कोई क्रियाएँ मेरे लेख में विवक्षित ही नहीं हैं। शंका के समाधानानुसार जब द्रव्यलिंगी मुनि ऊँचे दर्जेकी क्रियाएँ शंका-यदि शुभभाव जैनधर्म है तो अन्यमती करता हुआ भी शुद्धत्वके निकट नहीं तब वह मुनिका पात्र कैसे जो दान, पूजा, भक्ति आदिको धर्म मानकर उसीका उपदेश हो सकता है ? मुक्तिका पात्र सम्यग्दृष्टि होता है, मिथ्याष्टि देते हैं, क्या वे भी जैनधर्म समान हैं उनमें और जैन नहीं। मेरे लेखानुसार 'व्यलिंगी मुनिको मुक्तिकी प्राप्ति धर्ममें क्या अन्तर रहा? हो जानी चाहिये थी, ऐसा समझना बुद्धिका कोरा विपर्याय है। क्योंकि मेरे लेखमें सम्यग्दृष्टिके ही शुभ भाव विवक्षित समाधान-जैनधर्म और अन्यमत-सम्मत दान, मत दान, हैं-मिथ्यादृष्टि या द्रव्यलिंगी मुनिके नहीं । शंकाकारने पूजा, भकि आदिकी जो क्रियाएँ है वे रष्टिभेदको लिये हुए धर्मका जो लपण स्वामी समन्तभद्रकृत बतलाया है हैं और इसलिए बाह्यमें प्रायः समान होते हुए भी दृष्टिभेद- " हाष्टमद वह भी भ्रमपूर्ण है। स्वामी समन्तभद्रने धर्मका यह लक्षण . के कारण उन्हें सर्वथा समान नहीं कहा जा सकता । टिका । नहा कहा जा सकता । राष्टका नहीं किया कि 'जो उत्तम अविनाशीसुखको प्राप्त करावे वही सबसे बड़ा भेद सम्यक् तथा मिथ्या होता है। वस्तुतत्त्वको धर्म है।' उन्होंने तो 'सदृष्टिज्ञानवृत्तानि धर्म धर्मेश्वरा यथार्थं श्रद्धाको लिये हुए जो दृष्टि है वह सम्यग्दृष्टि है, जिसमें मम बिदुः, इस वाक्यके द्वारा सम्यग्दर्शन, सम्यज्ञान और सम्यक् कारणविपर्यय स्वरूपविपर्यय तथा भेदाभेदविपर्ययके लिए चारित्रको धर्मका लक्षण प्रतिपादन किया है-उत्तम प्रविकोई स्थान नहीं होता और वह दृष्टि अनेकान्तात्मक होनी है, नाशी सखको प्राप्त करना तो उस धर्मका एक फलविशेष प्रत्युत हमके जो दृष्टि वस्तस्वकी यथाथ श्रद्धाको लिए हुए नहीं होती, वह सब मिथ्यादृष्टि कहलाती है, उसके माथ कारण- निःश्रेय प्रमभ्युदयं इत्यादि कारिका (१३.) में सूचित विपर्ययादि लगे रहते हैं और वह एकान्तदृष्टि किया गया है, जो उत्तम होत हए भी अविनाशी नहीं कही जाती है। सम्यग्दृष्टिके दान-पूजादिकके शुभ होता और जिसका स्वरूप 'पूजार्थाऽऽरवयवस' इत्यादि ® देखो, अनेकान्त वर्ष १३ किरण १ पृ.५ कारिका (१३१) में दिया हुआ है, जिसे मैंने अपने लेखमें Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४] अनेकान्त [.वर्ण १३ उद्धत भी किया था, फिर भी ऐसी शंकाका किया जाना युक्त हुआ बल, परिजन, काम तथा भोगोंकी प्रचुरताके कोई अर्थ नहीं रखता। साथ लोकमें अतीव उत्कृष्ट चौर आश्चर्यकारी बतलाया है। ११ शंका- धर्म मोक्षमार्ग है या संसारमार्ग? यदि और इसलिए वह धर्म संसारके उत्कृष्ट सुखका भी मार्ग है, शुभभाव भी मोक्षमार्ग है तो क्या मोक्षमार्ग दो हैं? यह समझना चाहिए। ऐसी स्थितिमें सम्यग्दृष्टिके शुभ समाधान-धर्म मोक्षमार्ग है या संसारमार्ग, यह भावों को मोक्षमार्ग कहना म्याय-प्राप्त है और मंचमार्ग धर्मकी जाति अथवा प्रकृतिकी स्थिति पर अवलम्बित है। अवश्य ही दो भागों में विभक है-एकको निश्चयमोक्षमार्ग सामान्यत: धर्ममात्रको सर्वथा मोक्षमार्ग या संसारमार्ग नहीं और दूसरेको व्यवहारमोक्षमार्ग कहते हैं। निश्चयमोक्ष. कहा जा सकता । धर्म लौकिक भी होता है और पारलौकिक मार्ग साध्यरूपमें स्थित है तो व्यवहारमोक्षमार्ग उसके अर्थात् पारमार्थिक भी । गृहस्थोंके लिये दो प्रकारके धर्मका साधन रूपमें स्थित है। जैसा कि रामसेनाचार्य-कृत तस्वानुनिर्देश मिलता है-एक लौकिक और दूसरा पारलौकिकशासनके निम्न वाक्यसे भी प्रकट हैजिसमें लौकिक धर्म लोकाश्रित-लोककी रीति-नीतिके अनुसार मोक्षहेतुः पुनद्वैधा निश्चय-व्यवहारतः। प्रवृत्त-और पारलौकिक धर्म पागमाश्रित-पागमशास्त्रकी तत्राधः साध्यरूपः स्याद् द्वितीयस्तस्य साधनम् ॥२८॥ विधि-व्यवस्थाके अनुरूप प्रवृत्त होता है, जैसा कि प्राचार्य माध्यकी सिद्धि होने तक साधनको साध्यसे अलग मोमदेवके निम्न वाक्यसे प्रकट है नहीं किया जा सकता और न यही कहा जा सकता है कि द्वो हि धर्मो गृहस्थानां लौकिकः पारलौकिकः । साध्य तो जिनशासन है किन्तु उसका साधन जिनशासनका लाकाश्रयो वेदाद्यः परः स्यादागमाश्रयः।। (यशस्तिलक) कोई अंश नहीं है। सच पूछा जाय तो साधनरूप मार्ग ही लौकिकधर्म प्रायः संसारमार्ग है और पारलौकिक जैनतीथंकरोंका तीर्थ है-धर्म है, और उस मार्गका निर्माण (पारमार्थिक ) धर्म प्रायः मोक्षमार्ग । धर्म सुखका हेतु है व्यवहारनय करता है। शुभभावोंके प्रभावमें अथवा उस इसमें किसीको विवाद नहीं ( धर्मः सुखस्य हेतुः ), चाहे मार्गके कट जाने पर कोई शुद्धत्वको प्राप्त ही नहीं होता। वह मोक्षमार्गके रूपमें हो या संपारमार्गके रूपमें और इस शुभभावरूप मार्गका उत्थापन सचमुचमें जैनशासनका लिये मोक्षमार्गका आशय है मोक्षसुखकी प्राप्तिका उपाय उत्थापन है-भले ही वह कैसी भी भूल, ग़लती, अजान और संसारमार्गका अर्थ है संसारसुखकी प्राप्तिका उपाय। कारी या नासमझीका परिणाम क्यों न हो, इस बातको जो पारमार्थिक धर्म मोक्षमार्गके रूपमें स्थित है वह साक्षात् मैं अपने उस लेखमें पहले प्रकट कर चुका हूँ। यहाँऔर परम्पराके मेदसे दो भागोंमें विभाजित है, साक्षात्में पर मैं सिर्फ इतना ही कहना चाहता हूँ कि अणुव्रत, गुणउन परम विशुद्ध भावोंका प्रहण है जो यथाख्यातचारित्रके व्रत, शिक्षावत, सल्लेग्वना अथवा एकादश प्रतिमादिक रूपमें रूपमें स्थित होते हैं, और परम्परामें सम्यकदृष्टिके वे मय जो श्रावकाचार समीचीनधर्मशास्त्र (रत्नकरण्ड) आदिमें शुभ तथा शुद्ध भाव लिये जाते हैं जो मामायिक, छेदोपस्था- वर्णित है और पंचमहाव्रत, चमिनि, त्रिगुप्त, पंचेन्द्रियरांध, पनादि दूसरे मम्यक्चारित्रोंके रूपमें स्थित होते हैं और पंचाचार, षडावश्यक, दशलक्षण, परीषहजय अथवा अट्ठाईस जिनमें सद्दान-पूजा-भक्रि तथा बनादिके अथवा माग- मूलगुणों आदिके रूपमें जो मुनियोंका पाच.र मूलाचार, चारित्रके शुभ-शुद्ध भाव शामिल हैं। जो धर्म परम्पग रूपमें चारित्तपाहुड और भगवती पाराधना आदिमें वर्णित है, मोक्षसुखका मार्ग है वह अपनी मध्यकी स्थितिमें अक्पर वह सब प्रायः व्यवहारमोक्षमार्ग है और उस धर्मेश्वर ऊँचेसे ऊँचे दर्जेके मंपारसुग्वका भी हेतु बनता है। इसीसे श्री वीरसेनाचार्यन जयधवलामें लिखा है कि 'व्यवहारस्वामी समन्तभदने अपने समीचीन-धर्मशास्त्रमें ऐसे समी- नय 'बहुजीवानुग्रहकारी' है और वही प्राश्य किये चीन धर्मके दो फलोंका निर्देश किया है-एक नि:श्रेयम- जानेके योग्य है, ऐमा मनमें अवधारण करके ही गोतम सुखरूप और दूसरा अभ्युदयसुख-स्वरूप (१३०)। निः- गणधरने महाकम्मपयडीपाहुडकी आदिमें मगलाचरण श्रेयस सुखको सर्व प्रकारके दुःखोंसे रहित, मदा स्थिर रहने- किया है :वाले शुद्ध सुखके रूपमें उल्लेखित किया है, और अभ्युदय- "जो बहुजीवाणुग्गाहकारी बवहारणो सो चेव समस्सिसुखको पूजा, धन तथा प्राज्ञाके ऐश्वर्य (स्वामित्व) से दम्बो त्ति मणावधारिय गोदमथेरेण मंगलं तत्थ कदं ॥", Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ % 3E पंचा पचयादि किरप.११११२] श्रीहीराचन्द्रजी बोहराका नम्र निवेदन तो कर फेवली अथवा जिन देखने 'धर्म' या संचारित्र' कहा वाक्य पत्यपादाचार्यकैः । निमेंसे में उन्होंने यह जैसा कि कुछ निम्न वाक्योंसे भी जाना जाता है। सूचित किया है कि मुनियोंके दृशा प्रकास धर्मकी और गृहस्यों के १.धर्मधर्मेश्वराविद्गअभ्युदर्यफलतिसर्मः(रत्नकरगड) ग्यारह मारधर्मकी देशना करते हुए कीवीरजियने तीस वर्ष २. असुहादो विणिवित्ती सुहे पवित्तीय जाण चारितं। बुक विहार किया है, और दूसरे में यह प्रतिपादित किया वद-समिदि-गुत्तिरूवं ववहारण्या इजिणभरिणयं (दुव्यसं०) है कि तीन गुधियों, पाँच ममिनियों और पंजत्रों के रूषों को शएवं सावधम्म सनमचरणं, उद्वेसियं सयल। तेरह प्रकारका चारित्र ..(धर्म) है नुह बीरजिनेन्द्र के द्वारक सुद्धसंजमचरणं जइधम्म णिक्कलं वोच्छे ।। (चारित्तपा०) निर्दिष्ट हुआ है। . . ४. दाएं पूजामुक्खं सावयधम्मोण सावगो तेण विणा- उपसंहार माणज्मयणं मुक्खं जइधम्मं तं विणा सोगिरियणसार) ५. एयारसदाय, म मन भाषियं हमारे निकाय चल मगर नामक प्राचीनतम पाठमें सागारणगाणं उत्तमसुहसपजुत्तहि ॥ (बारसाणुपे०) 'केवलि-पएणत्तो धम्मो मंगले 'केवलिपएणत्तो धम्मो णिच्छयणएण जीवो सागारणगारधम्मदो भिएगी।" लौगुत्तमो' और 'केवलिपएणतं धम्म सरणं पव्वज्जामि' ६. दशविधमनगाराणमेकादशधोत्तर तथा धर्म । हन अक्योंके द्वास, फेवलि दिन-प्रणोताधर्मको मंगलभूत देशयमानी व्यहरंतूत्रिंशद्वर्षाएयूथ जिनेन्द्रः (निर्वाणभकि) और लोकोतम मानने हुए. उमा शरण में प्राप्त होने की तिनः संत्तमगुप्तयस्तनमनोभाषानिमित्तोदयाः जित्य भाव की जाती । मामला पह कैदा होता है कि यपि ।। 3 श्री कुन्दकुन्दसौर स्वामी समन्तभदादि। महाम् प्रत्याकि चारित्रोपहितं त्रयोदशतयं पूर्व न द्रिष्दं परै शाचीन ग्रन्थों में, श्रावकों तथा मुनियों के जिस धर्मकी देशनारोचारंपरिमेष्ठिनोजिनपतवार नमामो वयम (चारित्रभः) प्ररूपणा की गई है और जिसका स्वाट साभाल कपर उद्धत 1. इससे पहले,नं-केको काम स्वामी समन्तभदके हैं बालयोंसे होता है वह केवलि-जिनम्नशीत हवा कि नहीं जिनमें यह सूचित किया गया है कि स्नकसाबमें, निसर्म- यदि है तो वह धर्म जिनशमनकामना मासे जिनशासनले का वर्णन है बह-अमेवा (वीर-सद माननीकर) के द्वारा बाम से किया जा सकता है और से कानजीस्वामीके कहा गया है और साई, प्रसोचीगार्म अभ्युदय ससाकोसी से कयनको संगत कराया जा सकता है: मो. सम्यग्दृष्टिके कला है। दूसरे काय मिजम्माचार्यका है, जिसमें पूजा-दान-सत्पदिक सभभाको अधर्म हवाही बतलाता. अशमसे निवृति और सभसे, प्रवृत्तिको सच्चारित्र बतलामा प्रत्युव इसके जिनसामानमें बगहें धर्मससे प्रतिपादनकासी है और लिखा है कि वह समिति तथा अप्तिक रूपमें है निषेध करता है। और फलतः बन प्राचीन भाचार्यों पर और उसस्यबहारनायकी रहिस लिनेन्द्रले प्रतिपादन किया अन्यथा कथनका. दोषारोपण भी करता है जो उसे जिनोपदिष्ट है। तीसरे, चौथे और पाँचवें नम्बरके वाक्य श्रीकुन्दकुन्दा- धर्म बतला रहे हैं?.और यदि कानजी, स्वामीको इष्टिमें ग्रह खार्य-प्रणीत प्रन्थोंके है जिनमें पात्रतादि तथा एकादश सब,धर्म कवलिजिन-प्रशीत नहीं है, सब बहन को मंगाप्रतिमाओंके रूपमें प्राचारको प्रावधर्म, और महानवादि भूत है न बोकोचमा है और हमें इसकी शरणमें ही स्था दशलक्षणादिरूपाचारको मुनिधर्मके रूपमें निर्दिष्ट जाना चाहिए या इसे अपनाना चाहिए, ऐसी जानजी स्वामीकिया है। माथ ही, यह भी निर्दिष्ट किया है कि दान पूजा की यदि धारणा है और इसीस ने उसका सिमेध करके उसे श्रावकका मुख्य धर्म है-उसके बिना को श्रावक नहीं होता, गृहस्थों तथा मुनियोंसे छुड़ाना, हते है तो फिर, और ध्यान तथा अध्ययन यतिका मुख्य धर्म है.उसके क्विा सखादायका जन्म-देस चाहते हैं. ऐसी-यदि कोई कल्पना कोई यति-मुनि नहीं होता। इसके मित्राय, बारसमणुपेक्खामें करे हो उसमें प्राचार्यकी कौलसी बात है जिससे कोइराज़ी यह भी प्रतिपादन किया गया है कि निस्त्वयनमसे जीव कुछ शुन्ध होकर. विरोधमें प्रवृत्त हुए.जान पड़ते है. वासकर सागार (गृहस्थ), अनगार, (मुनि)के धर्मसे भिन्न है ऐसी हालत में जब कि कानजीस्वामी अपना वक्तव्य वेकर सर्थात् गृहस्थ और मुनिका धर्म निश्चयजयका विषय नहीं कोई स्पष्टीकरण भी करना नहीं चाहते.? अन्योंकि जैनियों के है-बहु सब व्यवहारनयका हो विषय है । छठे-मातवें नंबरके हलमान तीनों सम्प्रदाय प्राचीन अन्धोंमें : निर्दिष्ट Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ अनेकान्त [वर्ष १३ मुनियों तथा श्रापकों के प्राचारको फेवलिजिन-प्रणीत धर्म आशा है मेरे इस समग्र विवेचन परसे श्रीबोहराजीको मानते हैं और इसीसे उसकी हरण प्राप्त करना समुचित समाधान प्राप्त होगा और वे श्रीकानजीस्वामीकी तथा उसे अपनाना अपना कर्तव्य समझते हैं। अपने-अपने अनुचित वकालतके सम्बन्धमें अपनी भूलको महसूप महान् प्राचार्योंके इस कथनकी प्रामाणिकता पर उन्हें करेंगे। अविश्वास नहीं है, जबकि कानजी स्वामीको बाहर-भीतर- जैन लालमन्दिर, दिल्ली । जुगलकिशोर मुख्तार की स्थिति कुछ दूसरी ही प्रतिमासित होती है। जेष्ठ सुदि २,सं. २०१२ चन्द्रगुप्त मौर्य और विशाखाचार्य परमानन्द शास्त्री भगवान महावीरके निर्वाणके पश्चात् १६२ वर्ष तक सम्राट चन्द्रगुप्तमौर्य भी उज्जयनीमें ठहरा हुआ था। जैनसंघकी परम्परा अविचित्र रही, अर्थात् १५२ वर्षके चन्द्रगुप्त भद्रबाहुश्रुतकेवलीको वहाँ आया हुआ जान कर अन्दर इन्मभूति, सुधर्माचार्य, जम्बूस्वामी ये तीन केवली उनकी बन्दनाके लिये गया । चन्द्रगुप्तने भद्रबाहुकी वन्दना और पाचश्रुतकेवलियो-विष्णुकुमार, नन्दीमित्र, अपरा- की और धर्मोपदेश श्रवण किया। चन्द्रगुप्त भद्रबाहुके जित, गोवर्दन और भद्रबाहु इन पाँच श्रुतधरों-तक संघ व्यक्तित्वसे इतना प्रभावित हुआ कि वह सम्यग्दर्शनसे संम्पन्न परम्पराका भले प्रकार निर्वाह होता रहा है। भद्रबाहुके महान् श्रावक हो गया । भद्रबाहुका व्यक्तित्व असाधारण बाद संघ परम्पराका बहन १३ वर्ष तक विशाखाचार्य था। उनकी तपश्चर्या, आत्म-साधना और सघ संचालनकी प्रादि ग्यारह प्राचार्य क्रमशः करते रहे । यहाँ यह जानना अपूर्व गुरुता देखकर ऐसा कौन ब्यक्रि होगा, जो उनसे मावश्यक है कि भद्रबाहुने अपना संधभार जिन विशाखा- प्रभावित हुए बिना रहा हो । भद्रबाहुके निर्मल एवं प्रशान्त चार्यको सोंपा था, जिसका प्राचार्यकाल प्राकृत पावलीमें जीवन और अपूर्व तत्वज्ञानके चमत्कारसे चन्द्रगुप्तका अन्त: दस वर्ष बतलाया गया है। और जिन्हें दश पूर्वधरों में प्रथम करण अत्यन्त प्रभावित ही नहीं हुआ था किन्तु उसकी उल्लेखित किया गया है। और जिन्होंने संघकी बागडोर प्रान्तरिक इच्छा उन जैसा अपरिग्रही संयमी साधु जीवनके ऐसे भीषण समयमें सम्हाली, जब द्वादश वर्षीयदर्भिपके बितानेकी हो रही थी, भद्रबाहु निःशल्य और मानापमानमें कारण समस्त संघको दषियकी भोर जाना पड़ा था। समदर्शी थे और उनका बाह्यवेष भी साक्षात् मोक्षम र्गका विशाखाचार्य कौन थे और उनका जीवन-परिचय तथा गुरु निदर्शक था । चन्द्रगुप्त स्वयं राज्य-काका संचालन करना परम्परा क्या है ? इसी पर प्रकाश डालना ही इस लेखका था और विधिवत श्रावकवतोंक अनुष्ठान द्वारा अपने जीवन में प्रमुख विषय है। जहाँ तक मैं समझता है अब तक किसी पात्मिक-शान्ति लाने के लिए प्रयत्नशील था । जैन-धर्मसे भी विद्वानने वह लिखनेकी कृपा नहीं की, कि प्रस्तुत विशा- उसे विशेष प्रेम था, वह उपकी महत्ता एवं प्रभावसे भी खाचार्य कौन थे और उनके सम्बन्धमें क्या कुछ बातें जैन- परिचित था। ग्रन्थों में पाई जाती है। प्रस्तु, वह चन्द्रगुप्तमौर्य उच्च कुलका क्षत्रिय पुत्र था। वह विशाखाचार्य गोवद्धनाचार्यक प्रशिध्य और अन्तिम बड़ा ही वीर और पराक्रमी था। उसने मेल्यूकस Seleश्रुतधर भद्रबाहश्रुत केवलीके शिष्य थे। भद्रबाहुके गुरु uns) जैसे विजयी सेनापतियोंको भी पराजित किया गोवद्ध नाचार्य के दिवंगत हो जानेके बाद वे अपने संघके था । उसकी शासन-व्यवस्था बड़ी ही सुन्दर और जनहितसाथ विहार करते हुए अवन्तिदेशमें स्थित उज्जयनी नगरीमें 8 तकालेतत्पुरि श्रीमांश्चन्द्रगुप्तो नराधिपः । माये। और उस नगरीके समीपमें स्थित सिमानामक नदीक सम्यग्दर्शन सम्पयो बभूव श्रावको महान् । किनारे उपवनमें ठहरे। उस समय उस नगरका शासक -हरिपेणकयाकोष Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७७ किरण ११-१२] चन्द्रगुप्त मौर्य और विशाखाचार्य कारी थी। वह उदार, न्यायी और कर्तव्य पालनमें निह मउडधरेमचरिमो जिण दिख घरदि चंदगुत्तोय । था । राजनीतिमें दस अत्यन्त साहसो और अपनी धुनका तत्तो मउडधरा दुप्पवज्जणं णेव गेण्इंति ।। ४-४८१ एक ही व्यक्ति था। उसने अपने बाहुबबसे विशाल राज्य ब्रह्म हेमचन्द्रने भी अपने भुतावतारमें दीपाका उल्लेख कायम किया था, और वह उसका एक अभिषिक्त सम्राट् करते हुए लिखा कि मुकुट धारी नरपपि चन्द्रगुप्तने पंच महाथा। उसके शासनकालमें विदेशियोंने जो मुंह की खाई थी व्रतोंको ग्रहण किया । जैसा कि उनकी निम्न गाथासे स्पष्ट है:इसीसे किसी विदेशी राजाओंकी हिम्मत भारत पर पुनः चरिमो मउड धरीसो गरवाणा चंदगुत्तणामाए । आक्रमण करनेकी नहीं हुई थी। उसका चाणिक्य जैसा पंच महव्वय गहिया अरि रिक्खाय प्रोच्छिण्णा राजनीतिका विद्वान मन्त्री था। उसके राज्यसंचालनकी -श्रुतस्कन्ध, ७० व्यवस्थाका बाज भी लोकमें समादर है। और सभी दीक्षा लेनेके बाद चन्द्रगुप्तने साधु-चर्याका विधिवत ऐतिहासिक व्यक्तियोंने चन्द्रगुप्तकी राजनीति और शासन- अनुष्ठान करते हुए अपने जीवनको आदर्श और महान् व्यवस्थाको प्रशंसा की है। साधुके रूपमें परिणत कर लिया। और अभीषया ज्ञानोपयोग तथा आत्मसाधना द्वारा भद्रबाहुके प्रमादसे दशपूर्वका परिएक समय भद्रबाहुस्वामी चर्याके लिये नगरमें गये। ज्ञानी हो गया । और तब भद्रबाहु स्वामीने मुनिचन्द्र गुप्तउन्होंने चर्या के लिए जिस घरमें प्रवेश किया उसमें उस ममय को सब तरहसे योग्य जानकर उन्हें संघाधिप तथा विशाखा कोई व्यक्ति नहीं था, किंतु पालनेमें एक छोटा सा शिशु मूल चार्य नामक संज्ञासे विभूषित किया, जैसा कि हरिषेण कथा रहा था। उसने भद्रबाहुको देख कर कहा कि हे मुने ! तुम कोषके निम्नपद्यसे प्रकट है :यहाँ से शीघ्र चले जाओ। भद्रबाहु अन्तराय समझ कर चर्यासे वपिस लौट आये, और उन्होंने अपने चन्द्र गुप्ति मुनिः शोघ्र प्रथमो दशपूर्विणाम । निमित्तज्ञानसे विचार किया, तब मालूम हुआ कि यहाँ सर्व संघाधिपो जातो विशाखाचार्य संज्ञकः ॥३६॥ द्वादशवर्षीय घोर दुर्भिक्ष पड़ेगा। अतः यहांसे साधु-संघको अस्त. विशाखाचार्यने उस मूल साध्वाचारके यथार्थ सुभिक्ष स्थानमें अर्थात् दक्षिण देशकी ओर ले जाना रूपको भीषणतम दुर्भिक्षके समय में भी अपने मूल रूपमें चाहिये। इधर सम्राट चन्द्रगुप्तको रानिमें सोते हुए जो संरक्षित रखनेका प्रयन्न किया था। स्वप्न दिखाई दिये थे वह उनका फल पूछनेके लिये भद्र- यहां पर यह विचारणीय है कि चन्द्रगुप्त मौर्यका दीक्षा बाहुके पास आया और उसने भद्रबाहुकी बंदना कर उनसे नाम कुछ भी क्यों न रहा हो। परन्तु उन्हें लोकमें विशाखाअपने स्वप्नोंका फल छा । तदनन्तर चन्द्रगुप्तको जब यह चार्यकै नामसे उल्लेखित किया जाता था इसीसे हरिसेणाज्ञात हुआ कि इस देशमें १२ वर्षका घोर दुर्भिक्ष पड़ेगा। चायनेभी अपने कथा कोशमें उनको विशाखाचार्य नामक संज्ञा और स्वयं देखते हुए स्वप्नोंका फल भी अनिष्टकारी जान- से उल्लेम्वित किया है। उनका विशाखाचार्य यह नाम किसी कर चन्द्रगुप्तकी मनः परिणति विरक्रिकी ओर अग्रसर होने शाखा-विशेषके कारण प्रसिद्ध हुआ हो, यह नहीं कहा जासकता लगी। उसे दह-भोग और विषय निस्सार ज्ञात होने लगे। क्योंकि दक्षिणको भोर जो संघ इनकी देख-रेख अथवा संरक्षण राज्य भव और परिग्रहकी अपार तृष्णा दुःखकर, अशान्त में गया था वह जैन साधु सम्प्रदायका मूल रूप था । शाखा और विनश्वर जान पडी। फलतः उसने २४ वर्ष राज्य विशेषके कारण उक्त नामकी प्रसिद्धि तो तब हो सकती थी करनेके अनन्तर अपने पुत्र बिन्दुसारको राज्य भार सोंप कर जब कि द्वादश वर्षीय.घोर दुर्भिक्ष पड़नेके बाद यदि उनका भद्रबाहुस्वामीसे दीक्षा देनेकी प्रार्थना की । भद्रबाहुने नाम करण किया जाता, तब उक नामकी सम्भावना की जा चन्द्रगुप्तको अपने संघमें दीक्षित कर लिया ! चुनांचे सम्राट सकती थी। परन्तु उनका 'विशाखाचार्य' यह नाम दश पूर्वचन्द्रगुप्त मौर्य की जैन दीपाका उल्लेख प्राचीन जैनग्रन्थों, धारी हो जाने के बाद प्रथित हुश्रा जान पड़ता है। हां, यह श्रतावतारों और शिलालेखादिमें समादरके साथ पाया जाता हो सकता है कि विशाखाचार्यके नेतृत्व में जो संघ दक्षिण है। विक्रम की चौथी पांचवीं शताब्दोके प्राचार्य यतिवृषभने देशकी मोर गया था वह दुर्भिक्ष समाप्तिके बाद जब लौटअपनी तिलोयपण्यातीमें उसका निम्न प्रकार उल्लेख कर वहां पाया, तब जो साधु संघ यहां स्थित रह गया था। किया है। उसे दुर्भिक्ष की विषम परिस्थिति वश चर्या की सीमा का Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - विगुत्थी घादसणा विजया खिल्ल गगदवा 1b2HP 1 : PREPA तो को to भी प.प्रदानकी थी। इनम सपने मनपरी था, "तथा रहन-सहन साहगंगारामुपायपुबाईपां. दुसवाल धोरे शिविताको जीवन में अपनाना का था, और कठोर सचक्लास-पासाबाय-किलियाक्सिान-नोसजिंदुसार वाकी छोडको ड मिों के 'सहरी सुकोमले प्राचार को पालनी या था, मध्यम मार्ग के हामी" हो चुके पुण्यागोगदेखाएं व प्यास्त्र सादापुरतुद्ध थे, मतः उपसर्ग और रोषहीकी तीवेदनाको साइनमें संताणे पोहिलणे सियो जयसैणी णगसेही वे सर्वथा समर्थ । अत: उन स्थानीय साधुनोंकी हदि से वह व विशिष्र्ट' ही था."योंकि उसने साध्वाचारक धम्मसेणा लिए एकारजा दशपुबह बहार यथार्थ रूपको भीषणतम दुर्भिक्षके समय में भी अपने मूल .. ..... जयधवला भग १०५ लपमें सुरक्षित रखने का प्रयत्न किया था। हो सकता है कि इससे विशाखालार्य के आदी होने मौक, शेकापी बदके प्राचार्यानि विशाखाचार्यका अर्थ यदि विशिष्ट शाखा एक देशधारक होना उनके महान् हिरवको मूश्चित करना है। प्राचार्य रूप में स्वीकृत कर लिया हो, हरिषेण कथाकोषके अनुसार चन्द्रगुप्त मौर्य ही विशाखाबात नहीं है। .. . "'"'.. " चाय थे यह स्पष्ट है, क्योंकि उन्होंने भद्रबाहु स्वामीके हलो कारण भरिक शुभचन्द्र ने अपने पाण्डव पुराणकी पादमूल में दौसा धारणकर पूर्वका अध्ययन किया था। प्रशस्तिमें निम्न पंच दिया है जिसमें बतलाया गया है कि मेरे इतने सुयोग्य विद्वान हो गए थे कि 'भद्रबाहुने विशाखाचार्य शुद्ध वैशोभूत हैं, उनकी प्रसिद्ध शाखा मुझे उन्हें स्वयं संघधिपको उपाधिसे अलंकृत किया था और संरक्षित करे, क्योंकि संसारके सभी लोगोंने इनकी बाजति उन्हें विशाखाचायला होकर स्तुति कीजी: बातोंसे चन्द्रगुप्तके माधु जीवनको महानताकी दिग्दर्शन हो विशाखो।विश्रुषा शाखा सुशाखो यस्य पासु'मा । नहीं होता किन्तु विशाखाचार्यकै माथ चन्द्रगुप्तके, एकत्वा भूतले मिझन्मौलि हस्तभूलोक मंस्तुतः।।१३ भी समर्थन होता है । भद्रबाहुने इन्हीं विशाखाचार्य सहक - इससे विशाखाचार्य के जीवनको महत्तापर विशेष प्रकाश मुनि चन्द्रगुप्तके नेतृत्वमें समस्त संघको दक्षिणको और जानेका आदेश दिया था, जैसा कि हरिषेण, कथाकोषके " । दिगम्बर पहावलियों और श्रृंतवतारों में विशाखाचार्य निम्न वाक्यसे प्रकार है: की दश पूर्वधर बतलाया गया है। जयवनाकारा " उपरके इस सबविवचनसपट ग त म वीरसेनने विखाचार्यको दशपूर्वधरोंमें प्रथम उद्घोषित हा हो विशाखाचार्य है। मद्रवाह और चन्द्रगुप्तका जो समय करते हुए लिखा है कि विशाम्बाचाय वाचारादि ग्यारह अंगौ र है वही मुनि शिवाचार्य है। विशाखाञ्चायने अपने और उत्पाद पूर्व भादि दशपोंक धारक तथा प्रत्याख्यान, - संघकी 'मार श्राचार्य प्रालि 'प्राणकाय, क्रिया विश और लोक बिन्दुसार हुन चार. अनेन सहसंघीऽपि समस्तो गुरु वाक्यतः । । पूर्वोक एक देश धारक हुए है । और शेष दश प्राचार्य दक्षिणापथ देशस्थ पुबाद विषय यी ॥५०.. अविछिन सन्तान रूपसे दर्शपूर्वके धारी हुए है-जैसाकिं . जा द्वादश वर्ष भिम समाप्त हो गया, जब भाडु अनके निम्नवाक्योंसे सष्ट है। गुरुके रिप्यविराखाचार्य सर्व संबा सहित दहियापार । वरि, विसाहारियो तक्काले बायारादीणमेका- मध्यदेशको प्राप्त हु%xt_rrts ... " ' नन्दिसंघको प्राकृत पहावली और , काटासंघकी Ex सति संजा अर्थसंत समय गुर्वावलीमें भी विशाखाचार्यादि एकादश प्राचार्योको छापूर्व-रोमरिन समाप्रपाmar - . : सववाहपुरोशिमो मायाम । -देखो, जैन सिद्धांत भास्कर भा० कि०३-१,पू.1, 2 मध्य संपाम सियादेशात ७६ [. prjins har R' HIT: H it DITEES - httvAFFAARIFPU1F FE म ह . . . नाम".. 1 .P. .. + 15 ये सति सं असम घर प्राचार्यादि एकादश प्राचारों को Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स श्रुतकीर्ति और उनकी रचना की । Brint , til F ( माका काकी | Irism भहारक श्रुतकीति नदीसंघ बजारकारगण और सरस्वती TRIP FIRMIRE इतिहापसे प्रकट है कि.मक मालवाके गच्छके विद्वान थे । यह देवन्धकीतिक प्रशिष्य और सूबेदार दिलावरखों को इसके विप त्रिभुवनकीर्तिके शिष्यों थे। अन्यकर्ताने भ० देवेन्द्रकीर्तिको मार डाला था, और माल गो, स्वतन्त्र पोषित मृदुभाषी और अपने गुरु त्रिभुवनकोतिर्की अमृतवाणरूप स्वयं राजा बन बैठा था । उसकी जपति शिको सद्गुणोंक चारिक बतलाया है। श्रुतकीतिन अपनी 'लधुता इसने मांडवर्गदको खुब मजबूत बनाने की अपनी व्यास करते हुए अपनी अल्पबुद्धि' बतलाया है। इनकी राजधानी बनाई थी। उसीके, वंशमें शाद इयासहीन हुआ. पाया रचनाओं के अवलोकन करनेसे ज्ञात होता है । जिसने मांडवगदसे मालवाका राज्य EMATRIME श्राप अपभ्रशभाषाकि विद्वान थे ।" आपकी उपलब्ध सभी अर्थात् सन् १६९ से RARE क्रिया पवनाएँ अपनश भाषाके पदंडिया छन्दमें ही रची गई है। पुत्रका नाम नसीरशाद था। मदारक वनकोतिन जराटनगर इस समय तक आपी चार कृतियाँ उपलब्ध हो चुकी है। के नेमिनाथ चैत्यालयमें, जहाँ बह रह रहे थे सपना हरि: जिनमें धर्मपरीक्षा आदि और अम्तके कई पत्र खण्डित • पुराण, विक्रम संवत् १५५३. मात्र मा प्रचमी सोमवारक -फापत्र मात्र मलब्धा । और परमेष्ठिप्रकारासारके दिन हस्तनक्षत्रके समय पूर्ण किया था सा TiF श्री सादिक होतीन पनहीं हैं भाकी चारों कृतियाक 'संवत विक्कमसेण-जरेसर साहिण्यासावभसेसई। नाम...इस प्रकार है:-... Fr. .. णयरजेरहटजिणहरुचंगन, योमिमाजिबिबुअभगउ। ...हरिवंशपुराण २..अपूरी फराकारमार गंथसउण्णु तत्त्थइहजायन, चविसंघसंमणिअणुरायउ और ४ योगसार, ये.चारों ही कृतियों उन्होंने मांडवगड़ माकिण्डपंचमिससिवारई, हुत्थणखतसमत्तुगुणालई। (मांड)के राजा गयासुद्दीन और उसके पुत्र नसीरुपा के राज्य में " गंथु सउण्गुंजाउसुपविउ, कम्मक्खुउणिमित्त जंउत्तउ ।' कालमें सम्वत् १५५२-५३ में बना कर समान की थीं। " दूसरी रचना 'धर्मपरीक्षा है । इसकी एकमात्र अपूर्ण , . आपकी सबसे पहली कृति 'हरिवंशपुराण' है. जिसमें ७ संधियों द्वारा जैनियों के २२वें तीर्थकर भ. नेमिनाथके जिसका परिचय उन्होंने अनेकान्त वर्ष प्रति डा. हीरालाल जो एम० ए० नागपूरके पास है। किरण २ में जीवनपरिचयको अंकित किया गया है। प्रसंगवश उसमें दिया है। जिससे स्पष्ट हैं कि उन धर्मपरीक्षा ११ कडवक श्रीकृष्ण आदि यदुवंशियोंका संक्षिप्त चरित्र भी दिया । है। हरिषेणकी धर्मपरीक्षा सम्बन्धमें डा. ए. एन. उपाध्ये हुआ है। इस प्रन्यकी, दो प्रतियों अब तक उपलब्ध , एम. ए. कोल्हापुरने (Harishenas Dharma paहुई हैं । एक प्रति आरा जैन सिद्धान्त भवन में है और दूसरी riksha.in.ApabhraPRA),जिसका परिचय उक आमेरके महेन्द्रकीतिक-भण्डारमें मौजूद है, जो संवन्, १६. शीर्षक लेम्बमें दिया है जो सका १६१२.में भाण्डारकर ०७ की लिखी हुई है। इसकी लिषिप्रशस्ति भी अपभ्रंश भाषामें लिखी गई है। पाराकी वह प्रति स० ११५३ की रिसर्चइन्स्टीट्यूट पूजाके सिलबर जुबली के एनाल्समें लिखी हुई है, जा मंडपाचलदुर्गके सुलतान ग्यासुहानक वर्षको प्रथम किरणहमें मकाशित हो चुका है। उसमें इस प्रकाशित हुआ है। राज्यकालमें दमोवादशके जोरहट नगरके महाखान और भोजवानके ममय लिवो गई हैं। ये म 'धर्मपराक्षा' का कोई उल्लेख नहीं है। क्योंकि वह उप PREFERE. जैरहटनगरके सूबेदार जान पड़ते हैं। वर्तमान में जेरहटनामका क प्रकाश में नहीं पाई.सी . ntri एक मगर दमोहके अन्तर्गत है, यह माह पहले जिला रहा क्योंकि इसके रचे जानेका अबहेला कविले. प्रासने दूसरे ग्रन्थ इस ग्रन्थको भी कविने संवत २५५२ में बनाया है। चुका है। सम्भव है यह देमाह उस समय मालव-राज्यमें शामिल हो। और यह भी हो सकता है कि मांडवगढ़के के परमेष्ठिपकाशसार में किया है.r re स्मीम ही कोई जेरहट नाममा सानिमामी भRIE , तीसरी रचना परमेष्ठिपकाशसार है। इस ग्रन्थकी र भी अभी तक एक ही प्रति आमेर-भंडारमें उपलब्ध हुई वना कम हो जान पड़ती है। क्योंकि उस प्रशस्तिमें। 'दमोवादेश' स्पष्ट रूपसे उल्लिखित है। *Cambridge shorter History of India.P. 309 जसका-अनुवाद अनेकान्तके ८वें नाजवानकममय लिम्वा गडहै। ये महाखान भीजम्यान Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - २००] [वर्ष १३ है, जिसके मादिके दो पत्र और अन्तिम पच नहीं हैं। इसकी तेहि लिहाबइ णाणा गन्थई, पनसंख्या ५८८ है । जिसको रत्तोकसंख्या ३००० इय हरिवंस पमुह सुपसत्थई, बतखाई गई है। इस प्रन्यमें परिच्छेद या अध्याय हैं। विरइय पढम लिहहि वित्थारिय, इम ग्रंथकी रचना भी, विक्रम संवत् १५५३ को श्रावण गुरु धम्म परिक्खपमुह मणहारिय। पंचमीके, दिन मांडवगढ़के दुर्ग और जेरहट नगरके नेमीश्वर चौथी कृति 'योगसार' है। जिसकी पत्र संख्या है, जिनालयमें हुई है । उस समय ग्यासुद्दीनका राज्य था और यह अन्य दो परिच्छेदों या सन्धियों में विभा है। जिनमें उसका पुत्र राम्पकार्यमें अनुराग रखता था, पुनराज नामके गृहस्थोपयोगी सैद्धान्तिक बातों पर प्रकाश डाला गया है। एक वयिक उस समय नपीरशाहके मन्त्री थे । और ईसर सायमें कुछ मुनिचर्या प्राविका भी उल्लेख किया गया है। दास नामक सासन उस समय प्रसिद्ध थे, जिनके पास यह ग्रन्थ सम्बत् १९५२ में मंगसिर महीनेके शुक्लपक्षमें विदेशोंसे भी वस्त्राभूषण पाते थे (?) और जयसिंधु संघवी रखा गया है। प्रत्यकी यह प्रति भी सम्बत् १५५२ की शंकर तथा सषपति नेमिदास उक ग्रंबके अर्थक ज्ञायक थे, लिखी हुई है. जिसमें प्रशस्तिका अंतिम भाग कुछ खराब हो अन्य साधर्मी भाइयोंने भी इस प्रन्यकी अनुमोदना की थी। जानेसे पढ़ा नहीं जाता। प्रशस्ति में प्रायः वही उक्लेख दिये और हरिवंशपुराणादि प्रन्थोंकी प्रतिलिपियां कराई गई । जिनका उल्लेख परमेष्ठिपकाशसारमें किया जा चुका है। थी। इससे उस समय जेरहट नगरके सम्पन होनेकी सूचना ग्रंथके अन्तिम भागमें भगवान महावीरके बाद के कुछ मिलती है। जैसा कि प्रशस्तिके निम्न अंशसे प्रकट है: प्राचार्योंकी गुरुपरम्पराके उलेखके साथ, कुछ अन्यकारोंकी दहपणसयतेवण गयवासई, रचनाओंका भी उल्लेख किया गया है । और उससे यह पुरण विकर्माणव-संवच्छरह । जान पड़ता है कि भहारक श्रुतकीर्ति इतिहाससे प्रायः मनतह सावण मासहु गुरपंचमि, भिज्ञ थे और उसके जाननेका भो उन्हें कोई साधन उपलब्ध पहु गंथु पुण्णु तय सहन तहें।। नहीं था जितना कि आज उपलब्ध है। इसमें श्वेताम्बरमालवदेस दुग्गडव चदु. दिगम्बर घमेदके माथ, आपुलीय (यापनीय संघ) पिलवट्ट साहिगयासु महाबलु। और निःपिच्छिक मघका भा नामोल्लेख करा गया है। साहि णमोकणाम नह णंदणु, और उज्जैनीमें भद्रबाहुसे चन्द्रगुप्त का दीक्षा ले का उल्लेग्य राय धम्म अणुरायउ बहुगुणु। भोया हुया है । प्रबकारकी रष्टिय अनुदारता कूट-कूटपुज्जराज वारणमात पहाणई, कर भरी हुई थी। वे जैन-धर्म की उम प्रौढा परिणतिस ईमरदास गयदई पाणई। प्राय घनाभज्ञ थे जिस महावारने जगतक सामने रखा था। वत्थाह ण देसु बहु पावइ, आपने अपन प्रन्धक ६५वें पत्रमें लिखा है कि जो भाचार्य अह-णि स धम्महु भावण भावइ । शूद्र,त्र, दामी और नौकर बरहके लिये क्त देता है वह तह जेहटणयर सुपसिद्धा, निगातम जाता है और वहा अनन्त काल तक दुम्ब जिणचेईहर मुरण सुपबुद्धई। भोगता है। णेमोसर जिणहराणवसंतई, इन चारों ग्रन्थों अतिरिक्त आपकी अन्य क्या रचनाएँ विरयहु एहु गंथु हरिसंतई। जयसिन्धु तह संघवह पसत्थई, है यह कुछ ज्ञात नहीं हो सका। वे सभी रचनाएं माधारण संकरू नेमिदास बुह तत्स्थई। है। भाषा माहिन्यकी दृष्टिसं उन्हें पुष्पदन्तादि महाकवियोंके प्रन्थों जैसा गौरव प्राप्त नहीं है । फिर भी उनमें हिन्दी तह गंयत्यभेद परियाणिउ, भाषाके विकासका रूप परिलक्षित होता ही है। एउ पसत्थु गन्थु सुहु माणि । अवरमंघवइ मणि अणुराइय, मह जो सूरि देइ वर शिस्त्रह,णीच-सूर सुय-दासी-भिवई गन्थ अत्य सुरिण भावण भाइय । जाह शिगोय असुह मण्डजई,अमियकाल तई घोर-दुइ भुम्जा Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धारा और धारा के जैन विद्वान (परमानन्द जैन शास्त्री) भारतीय इतिहास में 'धारा' नामको नगरी बहुत प्रसिद्ध प्राप्त की है। और कई प्राचाय तो तत्कालीन राजाघोंसे रही है। उसे कब और किसने बसाया, इसके प्रामाणिक पूजित तथा उनके नव रत्नोंमें प्रथित रहे हैं। वहां अनेक उल्लेख अभी अन्वेषणीय है। एपि प्राफिया इण्डिका जिल्द संघों और गण-गच्छोंके प्राचार्य रहते थे। और उनके भाग के निम्न पद्यसे ज्ञात होता है कि धारा नगरी को सांनिध्यमें अनेक शिष्य दर्शन, सिद्धान्त, काव्य और व्यापवार या परमारवंशी राजा वैरिसिहने अपनी तलवारकी करणादिका पठन-पाठन करते थे, और विद्याध्ययनके द्वारा धारसे शत्रुकुलको मार कर धारा नगरीको बसाया था। अपने जीवनको प्रादर्श बनानेका प्रयत्न करते थे । राजाकी यथा पोरसे भी अनेक विद्यालय और पाठशालाएं चलती थीं "जातस्तस्माद् वैरिसिंहोऽत्र नाम्ना, जिनमें सैकड़ों छात्र शिक्षा प्राप्त करते थे। इन सब कार्योंसे लोको व ते वजट स्वामिनं यम् । उस समय की धारा नगरीकी विशालता, महानता और श्री शत्रोवर्ग धारयासे निहत्य, सम्पन्न होनेका उल्लेख मिलता है। धारामें यवनोंका अधिकार हो जाने पर उन्होंने धार्मिक भीमद्धारा सूचिता येन राज्ञा ॥" विष वश हिन्दुओंके ऐतिहासिक स्थानों और देव मन्दिरोंकहा जाता है कि वैरिसिंहने धाराको बसाने १ के साथ जैनियोंके भी अनेक देवस्थान तोड़ दिये गए, उनके यह कार्य सन् हासे ११ ईस्वी, (वि.सं. १७१ से पाषाणोंसे उन्हीं स्थानोंमें मस्जिदोंका निर्माण कराया गया, २६८) तकके मध्यवर्ती समयमें किया था । दर्शनसारके मूर्तियोंका तोड़ा या स्खण्डित किया गया । और उनके कर्ता देवसेनने अपना दर्शनसार वि० सं० १. में धारामें साहित्यको नष्ट भ्रष्ट कर दिया गया। अनेक बहुमूल्य हस्तनिवास करते हुए वहांके पाश्वनाथ चैत्यालयमें माघ सुदी लिखित ग्रंथोंको पानी गर्म करनेके लिये हम्मामोंमें जला दशमीके दिन बनाकर समाप्त किया था । इस ग्रन्थमें दिया गया । इसीसे आजकल उज्जैन, धारा, काठमांडू और एकांतादि प्रधान पंच मिथ्यामतों, एवं द्रविड, यापनीय, मालव देशमें यत्र-तत्र खण्डहरों और जंगलोंमें अनेक जैन काष्ठा, माथुर और भिल-संघोंकी उत्पत्ति भादिका इतिहास मूर्तियाँ खण्डित अखण्ति दशामें उपलब्ध होती हैं। जो उनके कुछ सैद्धान्तिक उल्लेखोंके साथ किया है। जिससे यह वहां जैन-धर्मके अस्तित्व और प्रतिष्ठाकी घोतक है। अन्य ऐतिहासिक विद्वानोंके बड़े कामकी चीज है । दर्शनसार आज इस छोटेसे लेख द्वारा धारा और उसके समीपके इस उल्लेख परसे यह स्पष्ट हो जाता है कि धारा नगरी वर्ती स्थानोमें जो जैन साधु विहार करते थे और उन्होंने वि० सं० ११० से पूर्व बसी हुई थी। कितने पूर्व वसी या उस समय में जो ग्रन्थ रचनाएं वहां की उन्हींके कुछ समुबसाई गई थी यह अभी विचारणीय है। यह हो सकता है ल्लेख इस लेख में देनेका विचार है जिससे १०वीं शताब्दीसे कि देवसेनने जब धारा नगरीके पार्श्वनाथ मन्दिरमें दशन १३वीं शताब्दीक समयमें जैनियों के इतिवृत्तका कुछ सही सार बनाया तब वहां राजा वैरिसिंहका राज्य रहा हो। पता चल सके। धारा नगरी और उसके आस-पास इलाकों में जैनियोंकी वस्ती, मन्दिर-मठ और साधु-सन्त यत्र तत्र विचरण धाराके कतिपय ग्रन्थकतो विद्वान् और उनके ग्रन्थ करते थे। १०वीं शताब्दीसे लेकर विक्रमको १३वीं शताब्दी (1) संवत् ११.की देवसनकी 'दर्शनसार' नामक रचनातक वहां जैनाचार्यों और विद्वानोंने निवास किया है और का उपर उल्लेख किया जा चुका है। इसके सिवाय इन्हीं उनके द्वारा वहां ग्रन्थ रचना करने कराने आदि के अनेक देवसेनकी 'मालाप पद्धति, नयचक्र, तत्वसार, आराधमासार समुल्लेख पाये जाते हैं । धारा मांडू और मालवा तथा आदि कृतियां कही जाती हैं। ये सभी कृतियां धारामें रची उज्जैन जैनधर्मक प्रचार केन्द्र रहे हैं । अनेक प्रथित एवं गई, या अन्यत्र, यह कृतियों परसे कुछ भी ज्ञात नहीं प्रभावशाली ग्रन्थकारोंने अपने अस्तित्वसे धाराको अलंकृत होता। किया है। और राज दरबारों में होने वाले शास्त्रार्थों में विजय (२) प्राचार्य महासेमने अपना 'प्रय म्न चरित' विक्रम Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रनकान्तु . in. २८२] वर्ष १३ + T की ११वीं शताब्दीक मध्य भागम बनाकर समाप्त किया है। सूरिक शिष्य और नमिणक प्रशिध्यानामत गति मुजकी आचार्य महासेन बाड बागडसंघके पूर्णचन्द्र, प्राचार्य स्वामसेन । के शिष्य और गुणाकर सेनरिके शिष्य थे।.संभव है अमितगतिनं अपना पंचसंग्रह..वि० सं० २०७३ में Pris F 5 .15 MER # 1 FRIR FER F95, THIEF TO HIF I CITE महासेनाचार्य गुरुजनोंक विहारसे भी धारा-नगरी पूत हुई मसूतिकापुर (वर्तमान मसूद विलीदा) में जो धाराक समीप TERTAITRIFLEEEEEE TENSIBI.पा हमहासन सिद्धान्तावादी, वारमी कवि और.शब्द है, बनाया था। इन सब उल्लेखसिधर्मितगति धारा नगरीक TRAFFIT- THI जाREpiatimATorrey iPHERE ब्रह्मकेचित्र धामथे। यशस्वियों द्वारा संमान्य, सज्जना निवासी थे। उन्होंने प्रायः अपनी सभी रचनाएं धारामें नमोFEELERatin+TAFEIndLIEr.plthy अप्पणी और पाप रहिताय परमार वंशी राजा मुञ्ज या उनके समीपवंती नगरोम बनाई है। बहुत संभव है कि 1975 EFTER DETTE. 75+ F5.132_ 116FPN. ZIETEIS P EP हमा पूजित थे। सम्यग्दशन ज्ञान, चारित्र.रि तप्का वाचायें अमितगतिक गुरुजन भी धारार्या उसके समीपवती TFIED IFFEAFRIASISATESUPSUPEThes INTRinTHRITHVANI...IFROFIपर सामास्वरूप प्ररि भव्यरूपी कमलाक विकसित करने स्थानाम रहा। अमितगतिनस468से 1 A PUS IR Pornst ENTIS FI . बारवान्धव थे-सूयथ-तथा मिन्धुराज महामात्यं श्री २३ वषोंमें अनेक ग्रंथोंकी रचना वहां की है। FFFFEMAITRIFTESHEET IF AJEFERIFIE पटकारा जिनके चरण कमल पूजे जाते थे और उन्हींक ) मुनि श्रीचन्द्रने जी लालबागसंघ और बलाTRIP IFFI SHIJIFIETEFFE IFERENESEART अनुरोध वश उन ग्रन्थको रचना हुई है। स्कारगणके प्राचार्य श्रीनदीक शिष्य महासेन सूरिका समय विक्रमी । वो 'शतीब्दीकी वि० सं० १०८०में की संवसायिहरविषेणके समाधिकिामदादा - वि० पनचरितकी टोकाकोली महोंनेविसंक में धारा माम और साक्षांक प्राप्त हुए है। नगरी में रहा मोजलेलो राज्यों जाकर सास किया आंचा प्रतिगाम इन्ही नदेयक दाव्यकालमावि तीसरी कृति महाकवि पुष्पदन्तके इत्तरपुयणका दिपाया APHY भाषाशुली धमाके दिन "भुमाफ्ति एम जिसे उन्होंने, सागरसेन नामके सैकान्त्रिक विद्वानसे महा; सन्दाहकी है। जैसा पाउस अन्य के अन्तिम प्रशस्ति पय असा विषम पदों का विवरण, जानकर और मूल दिपणा REP aip ! HATE TRE HEr. FF IFF स्वलोकून, कर, वि० सं राजाभाजद्वक HEETTEशवमति विना FIm पालकालमें चासोथी, कृति 'शिवकोटिको भावती सहस्त्रे वारण प्रभवति हि दिशाधिक (१४) सो असाधना का सा-टिया है जिसका उल्लेख - In समाप्त पञ्चम्या भवति धरिणी मज्जपता, PIR सिंत पापाष बुध हित मिद शास्त्रमनधम् ३२ टीका करते हुए किया है। मुनि श्रीचंद्रकी ने बीचमा इससे हराया PF ,तक तो धार की रची गई हैं। इन्होंने सागरसेन और प्रवचनसेन सुनिश्चित हो और कितने समय तक हमिह निश्चित नामके दो, विद्वानों का उल्लेख किया है ... runt नहाकहाँजोमकती पर यहाहाता है कलपदेयमे 18) दर्शनाखातलदृष्टा., महाविद्वान आचार्य 'या'. मध्यवर्ती किमी समय में मुजका माणिक्युनन्दी ब्रैलोक्यनन्दीके शिष्य थे....नयनन्दीने, थों। चूकि महामने मुज द्वारा पुनित श्रे, श्रीर अपहे. समाजविधिविधान' नामक काव्यमें, महापहिड्द त: akt हो निवास करते थे। श्रतएवं यह प्रन्थ भी बतलान, के..माथ साथ, . उन्हें प्रत्यक्ष-परोक्षरूप प्रमाण उन्हींक गज्य कालमें रचा गया है। . . जलसे-भरे और नयरूप... चंचलतरंगसमूहसे गम्भीर, नाकं माथुरामवावाबार्य समितगतिमाहोमासनः सतम सातभंगरूप कल्लोलमालासे भूषिता जिनशासन सरियो विदिनाखिलोरुसमायोवादीच काही कविः। रूप निर्मल सरोवरले युक्त मौर. दिवोंका, चूडामणि प्रकट शयाविधिप्रयास यशो मान्यां सता. मपणी: 1:। किला है, ५. उन्होंने न्यायशास्त्रका, दोहन करके परीक्षा श्रामीत्श्रीमहोणसूहिनघाली मुनार्चित:, . . . . मुख' नामका सूत्रप्रस्थ बनाया था, जिसे न्याय विद्यामृत सीमादर्शनयोधवृदयसम्भवाब्जनी बांधवः .. . कहा जाता है। जिसपर उनके शिष्य प्राचन्द्र जैसे, तार्किक श्री सिन्धुसजस्वमालनपटेवाचित : पादपदमः ।.. विद्वान द्वारा प्रमेयकमनामातंर्ड' नामका टीका-अंथ लिखा चकार नेनाभि हितः प्रबंध स पावनं निPिठन मङ्गजस्य गया है, तथा लघुः अन्तवीर की 'प्रमेयरत्नमाला' नामको .. - 'FTF FAIR 1.1 -HARमचरित प्रशस्ति एक टीका मी उपलब्ध है और एक टिप्पण भी अज्ञातकर्तृक Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष १३] धारा और धाराके जैन विद्वान [२८३ - रचा गया है, जो वर्तमान में नहीं मिलता है। इस टिप्पण पड़ते हैं। आपका 'सुदंशणचरित' नामका अपभ्रंश भाषाका की उत्थानिकामें दिए गए निम्नवाक्य स्वास तौरसे उल्ले- खण्ड काव्य महाकाव्यकी श्रेणी में रखने योग्य हैं। जहाँ खनीय है:-'धारानगरीवासनिवासिनः श्रीमाणिक्यनन्दि उसका चरित भाग रोचक और आकर्षक है पहो वह भट्टारकदेवाः परीक्षामुख्याख्यप्रकरणमारचयाम्बभूव. सालंकार-काव्य-कलाकी रष्टिसे भी उच्च कोटिका है। कविने __ माणिक्यनन्दी दर्शनशास्त्रोंके मर्मज्ञ विद्वान थे। उनके उसे सर उसे सरस बनानेका पूरा प्रयत्न किया है। उन्होंने स्वयं अनेक शिष्य थे, जो उनके पास अध्ययन करते थे। उनमें लिखा है कि रामायणमें राम और सीताके वियोग और प्रभाचन्द्र और नयनन्दीका नाम प्रमुख रूपसे उल्लिखित शोक-जन्य व्याकुलताके दर्शन होते हैं और महाभारतमें मिलता है। इनका समय भी विक्रमकी ११वीं शताब्दी है। पांडव और पृतराष्ट्रादि कौरवोंके परस्पर कलह और मारकाटके माणिक्यनन्दीके प्रथम विद्याशिष्य नयनन्दीने अपने दृश्य अङ्कित मिलते हैं। तथा लोकशास्त्र में भी कौलिक, चोर 'सुदर्शनचरित' में अपनी गुरुपरम्पराका उल्लेख करते हुए व्याचे प्रादिकी कहानियां सुननेमें आती हैं। किन्तु इस सुदनिम्न विद्वानोंका उल्लेख किया है। पवनन्दी, विष्णुनन्दी शनचरित्रमें ऐसा एक भी दोष नहीं है । जैसा कि उसके विश्वनन्दी, वृषभनन्दी, रामनन्दी और त्रैलोक्यनन्दी ये सब निम्न पद्यसे प्रकट है। उक्त माणिक्यनन्दीसे पूर्ववर्ती विद्वान हैं। संभवतः इन "रामो सीय-विभोय-सोय बिहुरं संपत्त रामायणे। नन्यन्त नामवाले प्राचार्योंकी यह परम्परा धारा या धाराके जादं पाण्डव-धायर सददं गोतं कली-भा-रहे। समीपवर्ती स्थानों पर रही हो। क्योंकि माणिक्यनन्दी और डेडा कोलिय चोर रन्जु गिरदा आहासिदा सुहये, प्रभाचन्द्र तो धाराके ही निवासी थे। अत: माणिक्यनन्दीके णो एक्कं पि सुदंसस्स चरिदे दोसं समुन्भासिदं । गुरु-प्रगुरु भी धाराके ही निवासी रहे हों तो इसमें पाश्चर्य- साथ ही उन्होंने काव्यकी श्रादर्शताको बार-बार व्यक्त की कोई बात नहीं है। करते हुए लिखा है कि रस और अलंकारसे युक्त कविकी (6) नयनंदी और प्रभाचन्द्र चूंकि समसामयिक विद्वान कवितामें जो रस मिलता है वह न तरुणिजनोंके विद्रम हैं और दोनों ही माणिक्यनन्दीके शिष्य थे। चूंकि नयनंदीने समान रक्त अधरोंमें, न आम्र फलमें, न ईखमें, न अमृतमें, अपने को उनका प्रथम विद्या शिष्य लिखा है इस लिए प्रभा- नविषमें, न चन्दनमें, और न चन्द्रमामें ही मिलता है। चन्द्रसे पहले उनका परिचय दिया जाता है। जैसा कि ग्रंथके निम्न पद्यसे स्पष्ट है :मुंजके बाद जब धारामें राजाभोजका राज्य हया, तब "णो संजादं तरुणि अहरे विद्रमा रक्त सोहे. उसके राज्यशासनके समय धाराका उत्कर्ष अपनी चरम णो साहारे भमिय भमरेणेव पुडिच्छ डंडे । सीमातक पहुंच गया था। चूंकि भोजविद्याज्यसनी वीर और णो पीयूसे, हले खिहिणे चन्दणे णेव चन्दे, प्रतापी राजा था । इस लिए उस समय धाराका सरस्वती- सालंकारे सुकइ भणिदे जं रसं होदि कव्वे ।" सदन खूब प्रसिद्ध हो रहा था। अनेक देशविदेशोंके विद्यार्थी नयनन्दीका प्रस्तुत ग्रंथ अपभ्रंश भाषामें लिखा गया उसमें शिक्षा प्राप्त करते थे। अनेक विद्वान और कवि वहां है, जो स्वभावतः मधुर है । फिर भी उसमें सदर्शनके रहते थे। निष्कलङ्क चरितकी गरिमाने उसे और भी पावन एवं पठप्रस्तुत नयनन्दी राजा भोजके ही राज्यकालमें हुए हैं, नीय बना दिया है । ग्रन्थमें १२ सन्धियां हैं जिनमें सुदर्शनऔर उन्होंने वहीं पर विद्याध्ययन कर ग्रन्थ रचना की है। के जीवन-परिचयको अङ्कित किया गया है । परन्तु इस महाइन्होंने सकलविधि विधान कान्यमें अपनेको निर्मलसम्यक्त्वी. काव्य ग्रन्थमें, कविको कथनशैली, रस और अलंकारोंकी पंचपरमेष्ठीका भक, धर्म, अर्थ और कामरूप पुरुषार्थसे युक्र, पुट, सरसकविता, शान्ति और वैराग्यरस तथा प्रसवश तथा शंकादिक मलसे रहित स्वर्गापवर्गरूप-सुखरसका प्रका कलाका अभिव्यंजन, नायिकाके भेद ऋतुनोंका वर्णन और शक लिखा है। उनके वेष भूषा आदिका चित्रण, विविध छन्दोंकी भरमार, इससे नयनन्दो प्रतिभासम्पन एक विद्वान् कवि जान लोकोपयोगी सुभाषित और यथास्थान धर्मोपदेश आदिका मार्मिक विवेचन इस काम्यग्रंथकी अपनी विशेषताके निर्देशक देखो, अनेकान्त वर्ष १० किरण :१-१२ है और कविको आन्तरिक भद्रताके घोतक हैं। Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ ] अनेकान्त [वर्षे १३ - ककिने इस ग्रंथकी रचना अवंती देशस्थित धारा नगरीके अन्तर नहीं पाया। 'जिनवर' बिहारमें राजा भोजदेवके राज्यकालमें की है इसके दो कारण जान पड़ते है, एक तो यह कि लिपिइनकी दूसरी कृति 'सयल-विहि-विहाणु' नामका जो कर्ता को उक्त संधियोंसे विहीन वाटतप्रति मिला हा भार महाकाव्य प्रन्थ है वह ५८ सन्धियोंमें समाप्त हुआ है। उसने उसीके अनुसार प्रतिलिपि करदी हो । दूसरे यह कि शुरूकी दो तीन सन्धियोंमें ग्रन्थके अवतरण, आदि पर लिपिकर्ताको स्वयं अपने सम्प्रदायके व्यामोहकी कड़ा भालोप्रकाश डालते हुए श्वों से वी सन्धि तक मिथ्यात्वके चना, मान्यताकी असंगति और कथन क्रमादिके काखमिथ्यात्व और लोकमिथ्यात्व मादि अनेक मिथ्यात्वों-बेढंगेपनका प्रदर्शन सह्य न हुआ हो-वह उन्हें रूढीवश का स्वरूप निर्देश करते हुए क्रियावादि और प्रक्रियावादि उसी तरह से मान रहा हो । और इस कारण उन सन्धिय प्रादि भेदोंका विस्तृत विवेचन किया है। परन्तु खेद है कि को प्रतिलिपि न की गई हो। अथवा अन्य कोई कारण १५वीं सन्धिके पश्चात् ३२वीं सन्धि तक १६ सन्धियां इस हुआ हो, कुछ भी हुआ हो, पर ग्रन्थ की अपूर्णता अवश्य प्रतिमें गायब हैं। १५वीं संधिके बाद ३२वीं संधि मा गई हैं. खटकती है आशा है विद्वज्जन अन्य पूर्णप्रतिका अन्वेषण जिससे अन्य खण्डित हो गया है, परन्तु पत्र संख्यामें कोई करनेका प्रयत्न करेंगे, जिससे वह नवशिक्षितोंका धर्म विषयक गुमराहपन ___ जांच समितिकी आवश्यकताजैन समाजके सामने एक प्रस्ताव । (श्री दौलतराम 'मित्र') (२) कहा कुछ भी जाय किंतु देखा यही जा रहा है कि गुमराहके कारण जांचके वक्त मामने पावेंगे ही फिर भी अधिकांश नव शिक्षित धर्मके विषयमें गुमराह होते जा रहे कुछ कारणोंपर यहां प्रकाश डाला जाता हैहैं । जैसे-जिनदर्शन नहीं करना, जिनवाणीके पठन-पाठन (१) शिक्षा पद्धतिके दोषका प्रभाव तथा खानपान सम्बन्धी प्रारोग्यप्रद प्रतिबन्धोंका "अाज कलकी शिक्षापद्धतिमें बड़ा दोष यही है कि वह भी न मानना, इत्यादि। प्रात्माकी वस्तु नहीं रही।" गुमराह क्यों होते जा रहे हैं? - सर्वपल्ली राधाकृष्णन बस इसी बातकी तो जांच करना है। "जिस शिक्षाका विकाश मनुष्यने इसलिए किया था एक जांच समिति कायम की जाय जो या तो जगह- कि वह मनुष्यको उसके विचारों-भावों-को प्रगट करने में जगह घूमकर नव शिक्षितोंसे मिले या उनका किसी एक सहायक हो। वही शिक्षा जब मनुष्यके भावोंको छिपानेके जगह जमाव करके जांच करे और जांचमें जो कारण नजर काम पाने लगी तो क्या वह चादर और गौरवकी वस्तु रह प्रा समाजको चाहिये कि उन्हें दूर करनेका प्रयत्न करे। जाती है?" -विनोबा कार्य अत्यन्त प्रावश्यक है। दिन पर दिन मामला बिगड़ता (२) शंका-समाधानको कमीजा रहा है। चिंताका विषय बन रहा है। क्योंकि-धर्मों "मनुष्य पर जब उसको श्रद्धा (धर्म शास्त्रकी बातों) धार्मिकै विना। के विरोध प्रारंप पाते हैं तब सामने दो ही स्थिति रहती Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ११-१२] जैन समाजके सामने एक प्रस्ताव [२८५ हैं या तो वह उन आक्षेपोंका उत्तर दे या उनका होकर रहे।' खाली अदब कायदों में ही नहीं किंतु रुचि, वेष, विन्यास -६० लालबहादुर जैन और जीवनकी छोटी-छोटी बातों में भी वे उसके पीछे चलें। वर्तमानका वैज्ञानिक मानव धर्मकी तरफ इस दृष्टिले भागे हों न बराबरीमें किन्तु एक हम पीछे । फौजी अनुदेखना चाहता है कि उसकी शंकाएं और कठिनताएं मिट शाशनकी तरह एक सीधी कतारमें और सावधान रहे कि जाय । यदि धर्मको अपना स्थान बनाए रखना है तो नाना जिधर उसका पैर मुद्दे उनका भी उधर मुदे और जिधर प्रकारके उत्तम सुफल धर्मसे प्राप्त होते हैं यह बात उसे उसकी जितनी गर्दन मुके वे भी उधर उतनी ही गर्दन आरिमक-वैज्ञानिक ढंगसे समझना होगा । 'वर्तमानका मुकावें ।-कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकरकी एक कहानीसे वैज्ञानिक मानव हर एक बातको जांच करके मानना चाहता "युवक गण खुशामद नहीं चाहते परन्तु निखालसत्ता है यदि वह धर्मको पालना चाहेगा तो वह पूछेगा कि इससे चाहते हैं। अपनी भूलें छिपानेकी उन्हें कभी जरूरत नहीं उसे इस संसारमें क्या क्या लाभ मिलेंगे। केवल निर्वाणके मालूम होती। उनकी उम्र ही भूलें करके प्रक्वमन्दी भरोसे पर ही उसे कौन पालेगा। -लार्ड लेथियन सीखनेकी होती है। भूल करनेसे और उसे सुधारनेमें उन्हें 'माज हम अपने धर्मके विकाशको केवल परलोक एकसा अानन्द मिलता है। युवकोंको इस बातका ज्ञान सुधारनेका साधन समझ रहे हैं। जहां हमारे प्राचार्योंने होता है कि वे स्खलनशील हैं। इसीलिए तो वे विश्वासइने आत्मोन्नतिके साथ साथ इहलोक और परलोक सफल पूर्वक बड़ोंका अंकुश स्वीकार करते हैं । परन्तु जब यह बनानेका साधन बतलाया है।' -40 देवकीनन्दन जैन अंकुश दवावका रूप ग्रहण करता है तब वे उसका सामना बड़े-बूढ़ोंकी धर्म ठेकेदारी करते है। परन्तु दबाव निकल जाने पर वे फौरन ही अपने जिस प्रकार पुरुष वर्ग स्त्रियोंको साथमें न रखनेसे स्वभावके अनुसार अंकुश हूँढते हुए नजर पाते हैं।' सभात्रोंमें पाप किए गये समाजसुधारक प्रस्तावोंका अमल 'बहते हुए प्रवाहके समान बालक चालाक और कोमल नहीं करा सका, उसी प्रकार बड़े-बूढ़ोंने धर्मको ठेकेदारी होते हैं, यह बात भूलकर हम लोग, बदी अवस्था पाले खुद लेली, नव शिक्षितोंके माथे धार्मिक (मंदिर व्यवस्था प्रादमियोंकी कसौटीसे बालकोंके भले बुरे व्यवहारकी परीक्षा आदि) जवाबदारियों नहीं मदी। करते हैं। पर यह भ्रम है और इसलिए बालचरित्रमें कुछ (४) पिताओंका अनादर्श जीवन कमी होनेपर आकाश-पाताल एक करनेकी कोई जरूरत नहीं मंदिरों में लड़ाई मारपीट खून खच्चर तक करना। है। प्रवाहका जोर ही सुधारका-दोष दूर करनेका उत्कृष्ठ पंच पांपोंमें लग्नता। माधन बन जाता है। जब प्रवाह बंध होकर पानीके छोटे २ पर्व (स्याग) के दिनोंमें त्योहार (भोग) सरीरखा जीवन डबके बन जाते हैं तब वास्तवमें बहुत अड़चन पड़ती।' बिताना। -रवीन्द्रनाथ ठाकुर सत्त्वेषु मैत्री आदि चार भावनाओंका अभाव । (५) पिताओंका अनुचित दबाव-ज्यादती आजकलका पिता अपने परिवारका संरक्षक और पूज्य इस प्रकार गुमराह होनेके कारणोंपर न कुछ प्रकाश अभिभावक बनने मानसे संतुष्ट नहीं है। वह तो जेलर डाला गया है। असल में कारण अनेक हैं। जो जांच के वक्र होना चाहता है। उसकी खुशी इससे नहीं है कि परिवारके नवशिक्षितोंके द्वारा सामने पायेंगे। लोग अपने-अपने ढंग पर फले फूले, बल्कि इससे है कि आशा है, जैन समाज इस निवेदन पर-प्रस्ताव-पर वे उसके उठाये उठे, बैठाये बैठें। यदि वह धार्मिक है तो वे ध्यान देकर नवशिक्षित किंतु धार्मिक पांच सज्जनोंकी एक भी धार्मिक हों और वह नास्तिक है तो वे भी नास्तिक हों। समिति शीघ्र ही कायम करेगी। Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा की युगवाणी __ (डा. वासुदेव शरण अग्रवाल) . महावीर जयन्ती ऐसा शुभपर्व है, जो हमारी तिधिक्रम- मार्ग अहिंसाका ही है। हिंसाकी व्यापक ज्वालामोंने दो में आकर उच्चतर चिन्तनके लिए बलात् हमारा उद्बोधन बार संसारको दो विश्व युद्धोंके रूपमें इस शतीमें भस्म किया करता है। इस समय मनुष्य-जाति ऐसी कठिन स्थितिमें पद है। भागेको ज्वाला पहिलेसे कहीं अधिक भयंकर थी। गई है कि यदि उससे उसका शीघ्र निस्तार न हुभा, तो हिंसाकी वे विकरात लपटें अब भी मानवको भस्म करनेके भविष्य में क्या दशा होगी, कहना कठिन है। मनुष्यने अपनी लिए पास आती दिखाई पड़ती हैं। वास्तविक युद्ध न ही मस्तिष्ककी शकिसे सब कुछ प्राप्त किया, शायद उसने इतना होकर भी युद्ध जैसी स्थिति बनी हुई है। यद्यपि शरीरका अधिक प्राप्त कर लिया है, जितनेकी उसमें पात्रता नहीं स्थूल नाश होता नहीं दिखाई देता, पर हिंसाकी इन है। उसकी वह उपलब्धि ही उसके लिए भयानक हो गई ज्वालामों में मनका नाश तो हो ही रहा है। इस समय जो है। विज्ञानकी नई शक्ति मानवको मिली है, किन्तु उस व्यक्ति अपना सन्तुलन रख कर सत्य और शान्तिकी बात शक्रिका संयम वह नहीं सीख पाया है। शक्ति प्रासुरी भी सोचते और कहते हैं, मानव जातिके सबसे बड़े सेवक हो सकती है, देवी भी। यदि वह भयका संचार करती है. और हितैषी हैं। तो भासुरी है । जहाँ भय रहता है, वहाँ उच्च अध्यात्म इस समय सब राष्ट्रोंके लिए यही एक कल्याणका तत्व किसी प्रकार पनप नहीं सकता। भयकी सनिधिमें मार्ग है कि वे सामूहिक रीतिसे अहिंसाकी बात सोचे। शान्तिका प्रभाव हो जाता है। भय भात्मविश्वासका विनाश अहिंसा और प्रविरोधके नये मार्ग पर चलनेका निभय करें। करता है। वह शंका और सन्देहको जन्म देता है। समस्त हिंसात्मक विचारोंको त्याग कर हिंसाके साधनोंका भी परिमानवजाति भय और सन्देहकी तिथिमें पड़ जाय तो इससे स्याग करें। जो शक्तिशाली राष्ट्र हैं, उनके ऊपर तो इस बढ़ कर शोक और क्या हो सकता है। कुछ ऐसी ही दायित्वका भार सबसे अधिक है। उन-उन राष्ट्रोंके कर्णअभव्य स्थितिमें भाज हम सब अपनेको पा रहे हैं। कोई धारोंको इस बातका भी विशेष ज्ञान है कि इस बारके भी राष्ट्र भयमुक्त नहीं है। हिंसात्म युद्धका परिणाम कितना विनाशकारी होगा। ऐसी विचारकर देखा जाय तो भयका मूल कारण हिंसा है। स्थितिमें अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिको इस प्रकारसे मोड़ना होगा शक्तिका हिंसात्मक प्रयोग-यही विश्वमें भयका हेतु है। कि वह अहिंसाको अपना ध्रुव -बिन्दु बनाये। अहिंसाके इस भयको अभी तक कोई जीत नहीं पा रहा है, और न द्वारा पारस्परिक प्रीति और न्यायका माश्रय लें। कोई ऐसी युक्ति ही निकाली जा सकी है, जिससे विश्वके मन भगवान महावीरकी जयन्ती प्रतिवर्ष भाने वाली एक पर छाई हुई यह काली घटा दूर हो । यदि हिंसाके इस नग्न तिथि है। वह पाती है और चली जाती है। किन्तु उसका ताण्डवसे वास्तविक युद्ध न भी हुधा और कुछ वर्षों तक महत्त्व मानव जातिके लिए वर्तमान क्षणमें असाधारण है। ऐसी ही भयदायी स्थितिमें मानवको रहना पड़ा, तो भी यह तिथि अहिमाके ध्रुव-बिन्दुकी ओर निश्चित संकेत मानवके मनका भारी नाश हो जायगा । स्वतन्त्र विचार, करती है, और यह बताती है कि मानव कल्याणका मार्ग प्रात्म-विश्वास, उच्च प्रानन्द इन सबसे मनुष्यका मन किस ओर है। महावीर आजसे लगभग ढाई सहस्र वर्ष पूर्व विकास प्राप्त करता है। यही वह अमर ज्योति है, जिससे हुए। अपने समयकी समस्याओं पर उन्होंने विचार किया मानव जातिका ज्ञान अधिक-प्रधिक विकसित होता है। और उसने समकालीन व्यक्रियोंके जीवन पर प्रभाव डाला, इस समय की जो स्थिति है, उसके समाधानका यदि किन्तु अहिंसाकी जिस दृढ़ भूमि पर उन्होंने अपने दर्शनका कोई उपाय है तो वह एक ही है। हिसाके स्थानमें अहिंसा- निर्माण किया, उसका मूल्य देश और कालमें अनन्त है। को लाना होगा । हिंसाको बात छोड़कर अहिंसाको जीवनका आज भी उसका सन्देश उनके लिए सुबम है, जो उस सिद्धान्त बनाना होगा । शायद नियतिने ही मानव जातिको वाणीको सुननेका प्रयत्न करेंगे अहिंसाकी वाणी आज भी विकासकी उस स्थितिमें लाकर खड़ा कर दिया है. जहाँ सोच युगवाणी है। विचार कर भागेका मार्ग चुन लेना होगा । यह ध्रुव (श्रमण से) Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्या ग्रंथ-सूचियों आदि परसे जैनसाहित्यके इतिहासका निर्माण सम्भव है ? (परमानन्द शास्त्री) कुछ विद्वानोंका खयाल है कि भारतीय जैनवा मयके भकिसे जिनवाणीका उद्धार हो सकता है। प्राज यदि जिनसाहित्यका इतिहास उन साहित्यिक ऐतिहासिक अनेकान्तादि वाणी न होती तो हमें जिन मूर्तियोंकी पूजा, महत्ता और पत्रों ग्रन्थ सूचियों और प्रशस्तिसंग्रह आदि परसे संकलित सांसारिक दुखोंसे छूटनेका उपाय, एवं प्रारम-बोधि प्राप्त किया जा सकता है। जो समय-समय पर उनमें विद्वानोंके करनेके मार्गका संदर्शन मिलना दुर्लभ था । जो मच्चे गुरु द्वारा लिखे गये अन्वेषणात्मक लेखोंमें निबद्ध हुश्रा पाया जनोंके अभाव में भी जिनवायी हमारे उत्थान और पतनका जाता है। उस परसे ऐतिहासिक परिचय लिखनेमें बहुत और स्वाधीनता प्राप्त करनेका उपदेश देती है। ऐसी पवित्र कुछ सहायता मिल सकती है। इसके लिये ग्रन्थ भण्डारोंको जिनवाणीकी आज हम उपेक्षा कर रहे हैं। यह कितने खेद देखने तथा सूची निर्माण करने एवं श्रावश्यक नोटोंके तय्यार का विषय है। हजारों लाखों ग्रन्थ ग्रंथ भण्डारोंमें पड़े-पडे करने में समय और शकिको खर्च करनेकी आवश्यकता नहीं है। विनष्ट हो रहे हैं दीमक और चूहोंके भषय बन रहे हैं और और न इसकी वजहसे काममें शिथिलता लानेकी जरूरत है। बनते जा रहे हैं । कुछ हमारो लापर्वाहीसे भी विनष्ट हुए यह सब कार्य उन व्यक्तियों, संस्थाओं तथा नेताओंका है जो हैं। और कितनोंकी हम रक्षा करनेमें असमर्थ रहे हैं। कुछ इस ओर अपनी दिलचस्पी रखते हैं। और जो अपने प्रयत्न राज्य विप्लवोंमें विनष्ट हुए हैं। परतु जो शेष किसी तरह द्वारा भंडारोंसे खोजबीन करके महत्वपूर्ण ग्रन्थोंको उपलब्ध बच गए हैं। उनके संरक्षणकी ओर भी हमारा ध्यान कर उनका परिचय विद्वानों और जनताके लिये प्रकट करते नहीं है। रहते हैं। क्योंकि शास्त्रभंडारोंका अवलोकन करना बहु यदि करोड़ों अरबोंकी सम्पत्ति दैवयोगसे विनष्ट हो जाय श्रम साध्य होनेके साथ साथ आर्थिक असुविधाओंके कारण तो वह पुनः प्राप्त की जा सकती है। परन्तु जिन प्राचार्योंके अब तक सम्पन्न नहीं हो सका है । समाजका इस ओर कुछ बहुमूल्य परिश्रम और अध्यवसायसे जो ग्रन्थ लिखा गया भी ध्यान नहीं है । समाजका अधिकांश प्रर्य मन्दिरोंके है उसके विनष्ट हो जाने पर या खंडित हो जाने पर प्रायः फर्श, पूजा, प्रतिष्ठा, मेला और स्थोत्सवादि जैसे कार्यों में कोई भी विद्वान उसे उसके निर्दिष्ट रूपमें पुन: बना कर व्यय किया जाता है। समाजका ध्यानभी प्रायः इन्हीं सब तैयार नहीं कर सकता। ऐसी स्थितिमें समाजके धनिकों कार्योंकी ओर अधिक रहता है। मूर्ति-मंदिर निर्माणको ही और विद्वानोंका आवश्यक कर्त्तव्य हो जाता है कि वे जिनधनी लोग धर्मका खाम अझ मानते हैं । जनताकी केवल वाणीके समुद्धारका पूरा प्रयत्न करें। अर्थाभावके कारण भक्रि पाषाण-मूर्तियों में रह गई हैं। किंतु जिस जिनेंद्र उसके समुद्धारमें जो रुकावटें हो रही हैं-विघ्न-बाधाएँ वाणीके द्वारा जगत्का कल्याण हुश्रा है भूले हुए एवं पथ- पा रही हैं-उन्हें दूर कर उसके उद्धारका प्रयत्न करना, भ्रष्ट पथिकोंक लिये सन्मार्गका बोध जिससे मिला है। और उसे हृदयमें अवधारण कर अन्तः कषाय-शत्रुओं पर कर्म बंधनको अनादि परतंत्रता निसके द्वारा काटी जाती है। विजय प्राप्त करना ही जिनवाणीको सच्ची भक्रि है, देव और गुरुके अभावमें भी जो वस्तु-स्थितिकी निदर्शक हैं उपासना है। अस्तुः उस भगवती वाणीकी ओर जनताका कोई ध्यान नहीं है। वर्तमानमें जो ग्रन्थ-सूचियों प्रकाशित हुई हैं उनमें भगगन महावीर कैसे जिन बनें, उन्होंने दोषों और कषायों अनेक ऐमी स्थूल भूलें रह गई हैं जिनसे केवल इतिहासमें को कैसे जीता। कठोर उपसर्ग परीषह जन्य वेदनाओं पर ही गल्ती नहीं होगी, किन्तु उस लेखककी कृतिका भी किस तरह विजय पाकर स्वारमोपलब्धिके स्वामी हुए हैं। यथार्थ परिज्ञान न हो सकेगा, उससे ऐतिहासिक ज्ञान पूरा न खेद है कि आज हम लोग उस जिनवाणीकी महत्ताके होनेके साथ अन्य द्वारा नहीं रची गई कृतियोंका भी मूल्यको भूल चुके हैं, यही कारण है कि हम उसके उद्धार असत्य बोध होगा। जो यथार्थतः सत्यसे बहुत दूर है मैं तककी चिंता नहीं करते। हम उसे केवल हाथ जोड़नेकी यहाँ ऐसी एक दो कुछ भूलोंका दिग्दर्शन मात्र कराऊँगा, वस्तु मात्र समझते हैं । और अर्ध चढ़ा देते हैं । इतनी मात्र जिससे पाठक और अन्वेषक विद्वान यह सहज ही निश्चय Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८] अनेकान्त [ वर्ष १३ कर सकेंगे कि समग्र जैनसाहित्यका इतिहास लिखनेसे पूर्व श्रीमते वर्द्धमानाय केवलज्ञानचक्षुषे। ग्रंथभण्डारोंका देखना कितना जरूरी और भावश्यक है। संसारश्रमनःशाय नमोस्तु गुणशालिने ॥३॥ जिसकी भोर कुछ विद्वानोंका ध्यान नहीं है। उससे अन्वे- गौतमादीन्मुनीन्नत्त्वा ज्ञानसाम्राज्यनायकान् । षक विद्वान सहज हीमें यह जान सकेंगे कि मौजूदा ग्रन्थ वक्ष्येऽनतव्रतस्योच्चैः विधानं सिद्धि लब्धये ॥४ सूचियोंको बिना जांचे हुए यदि हम उस परसे साहित्यके अन्त भाग:इतिहासका निर्माण करेंगे, तो वह कितना स्खलित, और पट्टोदयादिशिरसि प्रकटे प्रभेद्रोः श्रुटिपूर्ण तथा अपूर्ण रहेगा। यह उसके संकलित हो जाने श्रीपद्मनंदितचित परमोदयं यः। पर मंथ-भंडारोंके अन्वेषण द्वारा जांच करनेसे स्वयं फलित तेन प्रकाशितमनंतकथा सरोज हो जायगा। भव्यालयोऽत्र मकरंद-रसं पिबन्तु । जयपुरसे प्रकाशित ग्रन्थ-सूची द्वितीय भागके पृष्ठ इति भट्रारक पद्मनन्दि विरचिता अनन्तकथा सम्पूर्णा २४०पर १३०८०पर लब्धिविधान कथा दी हुई है जो १२ इति ॥८शा झत ॥८ ॥ पत्रात्मक तथा पं. अभ्र.व कृत संस्कृतकी रचना बतलाई इसमें २२ कथाएँ भ. पद्मनन्दिके शिप्य भट्टारक गई है। मैंने इस कथाके जानने और उसके आदि अंत भागमें सकलकीतिको हैं:-जिनके नाम पद्यादि संख्या सहित पाए जाने वाले ऐतिहासिक भागको जाननेकी दृष्टिसे नोट किया था। जब जयपुर जाकर उस प्रथको निकलवा कर उसका निम्न प्रकार हैं:- एकावलीयत कथा, पद्य ५८, २ चादि-अंत भाग देखा, तब उसके अंत: रहस्यका पता चला और द्विकावली कथा ७६, ३ रत्नावलीवत कथा, १५, ४ नंदि श्वरपंक्ति विधान कथा, ११,५शीलकल्याणक विधि, ७१, तब यह मालूम हुआ कि यह ग्रंथ अकेला एक ही नहीं है किंतु इसके साथ कई अन्य कवियोंकी क्थाएँ और भी ६ नक्षत्रमाला विधान, २८, ७ विमानपंक्रि विधि, ४१,८ संग्रहीत हैं। जिनका नामोल्लेख तक ग्रंथ-सूचीमें कहीं नहीं मेरुपंक्रि विधि, ३६, श्रुतज्ञानकथा, ७७, १० सुग्वसम्पत्तिउपलब्ध होता; किन्तु उसमें पंडित अभ्रदेवकी भी चार और वत फल कथा, ४३, ११ श्रुतस्कंधविधान ५६, १२ दशकथाएँ शामिल हैं । जिससे ग्रंथकी कुन्त कथा संख्या इकत्तीस लाक्षणिक कथा ७५, १३ कनकावली ४६, १४ वृहदमुक्राहो गई है। और इस कथा संग्रहके लेखक मुनि ज्ञानभूषण वली २५, १५ भावनापंचविंशतिव्रतकथा ३४, १६ सर्वतोबतलाए गए हैं । अब मैं ऐतिहासिक दृष्टिसे उनका संक्षिप्त भद्रतप कथा, ३७, १७ जिनपुरंदर विधि, ८६, १८ मुक्कापरिचय देना उचित समझता हूँ जिससे पाठक उनके नामादि वली कथा, ८१.१६ अक्षयनिधि विधान कथा, ४८, २० से परिचित हो सकें। सुगन्धदशमीकथा, ११४, २१ जिनमुखावलोकनकाथा २५, इस कथा संग्रहमें अनन्तव्रतकी एक कथा भ. प्रभाचंद्र के २२ मुकुट सप्तमी कथा ५५ र शिष्य पानन्दी की है जो विक्रमकी श्वी ५वीं शताब्दीक कथा संग्रहमें दो कथाएँ-रुक्मणि विधान और प्रारम्भिक विद्वान थे और जिनकी अन्य कई कृतियों प्रकाशमें चन्दनषष्ठी-ये दो कृतियां कवि छत्रसेनकी हैं जिनका धादि मा चुकी हैं जिसकी श्लोक संख्या ८५ है जिसका श्रादि अंत भाग इस प्रकार है: रुक्मणि विधान कथाअंत भाग इस प्रकार है आदि भागआदिभागश्रीमते भुवनांभोज भास्वते परमेष्ठिने । जिनं प्रणम्यनेमीशं संसारार्णवतारकम् । सर्वज्ञाय जिनेन्द्राय वृषभस्वामिने नमः ॥ १॥ रुक्मणिचरितं वक्ष्ये भव्यसंबोधकारणम् ॥ १ अन्त भागधर्मोपदेश पीयूषैर्भव्याराम मनेकधा। यो भव्यः कुरुते विधान ममलं स्वर्गापवर्गप्रदं । यः पुपोष नमस्तस्मै भक्त्त्याऽनंताय तायिने ॥ २॥ योऽन्यं कारयते करोति भविनां व्याख्याय संबोधन ® देखो वीरसेवामंदिरसे प्रकाशित जैनमध प्रशस्ति संग्रह भुक्त्वाऽसौ नरदेवयोवरसुखं सच्छत्रसेनहतं, प्रस्तावना पृ. आख्याती जिननायकेन महतीं प्राप्नोति जैनीश्रियं ।६१ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष १३ क्या ग्रंथ सूचियों आदि परसे जैनसाहित्यके इतिहासका निर्माण सम्भव है। [२t इति छत्रसेनाचार्य विरचित रुक्मणिकथानकं समाप्तम् देखे और बिना किमी जांच पड़तालके परिचय लिखना तो चन्द्रषष्ठी कथा इतिहासका उपहास होगा, अथवा उसकी प्रामाणिकता आदि भाग संदिग्ध हो जावेगी। क्योंकि सभी सूचियां प्रामाणिक जिन प्रणम्य चन्द्राभं कर्मोषध्वान्तभास्करम्। जांचके साथ बनाई गई हों, इसमें मुझे संदेह है । विधानं चन्दनषष्ठाद्या भव्यानां कथायाम्यहम् ।। ऐसी स्थितिमें उन ऐतिहामिक विद्वानोंको विचार अन्त भाग ऊपरकी कथाके प्रायः समान है। एकादि करना आवश्यक है । अत: इतिहास लेखक विद्वानोंको पदमें कुछ पाठ भेद हैं । मेघमालावत कथाकी एक कथा .. प्रन्थ भण्डारोंको देखना आवश्यक है, देखते समय उन्हें श्लोकात्मक इसमें कवि ननुदासकी है जो इस प्रकार है:- और भी कई ऐतिहासिक उपयोगी बातें मिल सकती हैं। आदि मंगल इस दृष्टिसे ग्रंथ भंडार देखकर ही इतिहासका सङ्कलन होना श्रीवर्द्धमानंत्रिदशेश्वरैनुतनत्वाधुनावच्मिसुधर्मभूषितम्। चाहिये। पापापहंधविवर्द्धनं च मुक्तिप्रदंचांबदमालिकावतमा उक सूचीमें और भी बहुत सी अशुद्धियाँ हैं, जिनका यत्पुरा मुनिभिः प्रोक्त बहुर्बुद्धचा सविस्तरम् । परिमार्जन करना इतिहास लेखक विद्वानोंका कर्तव्य है। जैसे तत्संक्षिप्य मया मंदमेधासात्र प्रकाश्यते ॥ २४ अमित गतिका प्रवचनमार । इस ग्रंथका नाम मैंने जांच करने अन्त भाग के लिये नोट किया था कि यह अमितगतिका नया ग्रन्थ है। इति भव्यजनस्य वल्लभा कथिता या मुनिभिः प्रदर्शिता। परन्तु जब भंडारमें से ग्रन्थको निकलवाकर देखा गया तब इह सा जिनवार शासिनो ननुदासेन वृषाभिवाछया । मालूम हुथा कि यह तो विक्रमकी १०वीं शताब्दीके प्राचार्य इस संग्रहमें ५ कथाएँ चन्द्रभूषणके शिष्य पंडित अन- अमृतचंद्रको प्रवचनपारकी 'तस्व दीपिका' नामकी टीका है। देवकी हैं । पण्डित अनदेवने श्रवण द्वादशी कथाक सम्बंध जिसे भूलसे अमृतचन्द्रकी जगह अमितगति छप गया है। में लिखा है कि मैंने उसे प्राकृतसूत्रसे संस्कृतमें बनाया है। इसी तरहकी अन्य अनेक अशुद्धियाँ हैं जिन पर अन्वेषक आकाश पंचमी कथाको भी पूर्वसूत्रानुसार रचनेका उल्लेख और इतिहास लेखक विद्वानोंका ध्यान जाना चावश्यक है। किया है। इन्होंने लब्धि विधानकथाको ब्रह्म हर्षके उपरोधस इसी तरह प्रथम ग्रन्थ-सूची और प्रशस्तिसंग्रहकी बनाया है। इन कथाओंके अध्ययनसे पता चलता है कि ये ऐतिहासिक स्थल त्रुटियों के लिये भामेर का प्रशस्ति संग्रह' मब कथाएँ अभ्रदक्की अपभ्रंशकी कथाओंसे अनूदित है। नामका मेरा लेख अनेकांत वर्ष ११ कि ३ पृ. २६३ पर पर वे किनकी कथाओं परसे अनूदित की गई हैं, यह अन्वे- देखना चाहिये। पणीय है । इनको कथाओं के नाम इस प्रकार हैं: ऐलक पन्नालाल दि. जैन सरस्वती भवन बम्बई से षोडशकारण कथा श्लोक ७३, २ लब्धिविधानकथा जो रिपोर्टोक रूपमें ग्रन्थ-सूची और कुछ प्रशस्तियोंका मग्रह श्लोक २०६, ३ आकाशपञ्चमी कथा श्लोक ७ ४ श्रवण- प्रकाशित हुअा था उसमें भी अनेक शुद्धियों थीं। जो ऐतिद्वादशीकथा श्लोक ८०,५ त्रिकालचउवासीकथा श्लोक ७६ । हासिक विद्वानोंसे छिपी हुई नहीं हैं। जैसे धक्कड़ वंशीय ___ इस तरह यह कथा संग्रह ३१ कथायोंके समूहको लिये कविवर धनपालकी 'भविष्यदत्त पंचमी कहा' को बिना किसी हए है । अब यदि इतिहास लेखक विद्वान उक्र सूची प्रमाणक श्वेताम्बरीय ग्रन्थ-सूची में शामिल कर लिया है परसे अभ्रदेवका इतिहास लिखता है जिसमें उसके गुरु जब कि वह सुनिश्चित दिगम्बर ग्रन्थ है । इसी तरह भट्ठा आदिका भी उल्लेख नहीं है। और न पूरी कृतियोंका ही रक मकलकार्तिका १४४४ समय भी पद्रहवीं शताब्दी नहीं उल्लेख है । और जो अन्य विद्वानोंकी कथाओं का है। चूंकि मेरी नोट बुक यही सामने नहीं है इसलिये उन उल्लेख किया गया है। उनका तो भला इतिहाममें नाम पर फिर किसी समय अवकाश मिलने पर प्रकाश डाला कैसे उल्लिखित हो सकता है । यह उन विद्वानोंके लिये जायगा। विचारणीय है । जो उपलक सूची श्रादि ग्रन्थों परसे जैन मारा जैन सिद्धांत भवनसे प्रकाशित प्रशस्ति संग्रहमें साहित्यके इतिहासकी सृष्टि करना चाहते हैं । इतिहास लेखक भी अनेक अशुद्धियां साहित्य इतिहास सम्बंधी रष्टिगत के लिये पूर्वापर ग्रंथोंको देखना अत्यंत आवश्यक है। विना होती है। जिनका परिमार्जन आज तक न तो सम्पादक Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६.1 अनेकान्त वर्ष १३ महोदयने किया और न अन्य किसी विद्वानने उन पर उपरके इस विवेचनसे यह स्पष्ट जान पड़ता है कि प्रकाश डालने या परिमार्जन करनेका यत्न किया है ऐसी ऐतिहासिक विद्वानको इतिहास लिखनेके लिये इस तरहके स्थितिमें उन पर विचार करना भी प्रावश्यक है। यहाँ उपयोगी संशोधनों, नोटों और ग्रंथ-भण्डारोंके सावधानीसे बतौर उदाहरणके एक दो अशुद्धियोंको दिखाकर ही लेख अन्वेषण करनेकी कितनी प्रावश्यकता है। बिना ऐसा किए समाप्त किया जाता है। दूसरे ग्रंथांतरोंके सम्बंधसे होनेवाली अशुद्धियोंका परिमार्जन उक्र प्रशस्ति संग्रहमें पू. १०पर 'हरिवंश पुराण' को नहीं हो सकेगा। अन्वेषण कार्य और जांचका कार्य सम्पन प्रशस्ति दी हुई है, जिसके कर्ता भ. श्रुतकीर्ति है। प्रश. हो जाने पर उक्र सूचियों वगैरहसे जो साहाय्य मिल सकता स्तिमें भ. श्रुतकीर्तिकी गुरु परम्परा दी जाने पर भी उनका है फिर उससे भी लाभ उठाया जा सकता है। कोई परिचय नहीं दिया गया। किंतु उनके स्थानमें यशःकोर्ति ऐसी स्थितिमें सूचियों आदि परसे समस्त जैन साहियके का परिचय दिया गया है । जिनका इस प्रशस्तिसे कोई इतिहासका निर्माण जैसे महान कार्यका तयार करना उचित सम्बन्ध नहीं था | प्रशस्ति-गत पाठकी अशुद्धियों पर ध्यान मालूम नहीं देता। और न वह क तपय उपलब्ध ग्रंथोंके न देते हुए भी यशः कोर्तिके सम्बन्धमें वहां विचार करना इतिवृत्तसे जिनका परिचय अनेकांतादि पत्रों या ग्रंथ प्रस्ताऔर श्रुतकीर्तिका नामोल्लेख तक नहीं करना किसी भूलके वनादि द्वारा हो चुका है, उतने मात्रसे भी उसकी पूर्ति नहीं परिणामको सूचित करता है। हो सकती। और इतिहास जैसे गम्भीर और महत्वके कार्यमें बढ़ी सावधानी और सतर्कताकी जरूरत है । ऐतिहासिकके ८वीं प्रशस्ति षड् दर्शन प्रमाण-प्रमेयानु प्रवेश' नामक लिये निष्पक्ष और असम्प्रदायी होना जरूरी है। क्योंकि प्रथकी है जिसके कर्ता भ. शुभचंद्र हैं | जिसमें ग्रंथ कर्ताकी पक्षपात और साम्प्रदायिकतासे कार्य करना उसकी महत्ताको अंतिम प्रशस्ति पत्र पर कोई बच्य न देते हुए पाण्डवपुराण कम करना और प्रामाणिकताको खो देना है। इसके लिए आदि ग्रंथों के कर्ता भ. शुभचंद्रके सम्बंधों के विचार किया निष्पक्ष दृष्टिसे सभी साहित्यका यथास्थान प्रयोग होना गया है। परंतु मूलप्रशस्ति पथमें उल्लिखित कण्डूरगणके आवश्यक है। शुभचद्रका कोई उल्लेख नही किया गया। यदि उस पर प्राशा है इतिहास लेखक विद्वान्गण अपने दृष्टिकोणको कर लिया जाता तो उक्त शुभचदका स्थित अन्य बदलनेका प्रयत्न करेंगे। और विशाल उदार दृष्टिकोणके शुभचंद्रोंसे स्वतः ही भित्र सिद्ध हो जाती । उसके लिए सक लिए साथ यथेष्ट परिश्रम द्वारा पहलेसे प्रन्थ-सूचियों वगैरहकी र पाण्डवपुराणादिके कर्ता भ० शुभचंद्रके परिचय ससमय जाँचके साथ नूतन साहित्य-परिचयको प्रथ भण्डारोंसे लेकर ग्रन्थोल्लेख आदिकी कोई आवश्यकता नहीं थी। क्योंकि इतिहासका निर्माण करेंगे। ऐसा करने पर उसमें त्रुटियोंको उनका गणगर छादिक भिन्न होनेसे पाण्डवपुराणके कर्तासे वे कम स्थान मिलेगा। और इतिहास प्रामाणिक कहलायगा, स्वतः भिन्न सिद्ध होते हैं। अन्यथा वह सदा ही मालोचनाका विषय होनेके साथ-साथ इसी तरह अन्य प्रशस्तियोंके सम्बंध में जानना चाहिए। अनेक भूल-भ्रांतियोंके प्रसारमें सहायक बनेगा। 'अनेकान्त' की पुरानी फाइलें 'अनेकान्त' की कुछ पुरानी फाइलें वर्ष ४ से १२ वें वर्षतक की अवशिष्ट हैं जिनमें समाजके लब्ध प्रतिष्ठ विद्वानों द्वारा इतिहास, पुरातत्व, दर्शन और साहित्यके सम्बन्धमें खोजपूर्ण लेख लिखे गये हैं और अनेक नई खोजों द्वारा ऐतिहासिक गुत्थियोंको सुलझानेका प्रयत्न किया गया है । लेखोंकी भाषा संयत सम्बद्ध और सरल है। लेख पठनीय एवं संग्रहणीय हैं। फाइलें थोड़ी ही शेष रह गई हैं। अतः मंगानेमें शीघ्रता करें । प्रचारकी दृष्टिसे फाइलोंको लागत मूल्य पर दिया जायेगा। पोस्टेज खर्च अलग होगा। मैनेजर-'अनेकान्त', वीरसेवामंदिर, दिल्ली Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री कुन्दकुन्द और समन्तभद्रका तुलनात्मक अध्ययन. [बालब्रह्मचारिणी श्रीविद्युल्लता शहा बी० ए०, बी० टी०, शोलापुर ] कुछ समयसे मेरा विचार श्रीकुदकदाचार्य और खण्ड नाम दिलानेवाला तद्भव मोचगामी जीव था। स्वामी समन्तभद्र के ग्रंथोंका खाश तौरसे अभ्यास करनेका बाहुबली प्रथम कामदेव होकर भी स्यागमूर्ति थे। आज चल रहा था, जिससे मैं उन्हें ठीक तौर पर समझ सक, बीसवीं सदी तक आपको शिला-मूर्तियाँ सारे क्योंकि उन्हें समझे बिना वीरशासन अथवा जैनधर्मको दक्षिण में ठौर-ठीर अमर कला-कृतियाँ बन चुकी हैं। ठीक तौर पर नहीं समझा जा सकता-दोनोंका शामन ही, आप इस युगक प्रथम मुाजद्वार खालन वाल थ। श्रयास सच पूछा जाय तो, उपलब्ध वीरशासन है। अपने उस तो प्रादि-जिनको इरसका अक्षयदान देकर अक्षयसुख विचारके अनुसार मैं इस वर्ष उस अभ्यासमें प्रवृत्त होना ही र पाया । पाया है। और मरीचिका ३७ भवों तक अखण्ड, चाहती थी कि इतने में अनेकान्त की किरण १-१ अटूट उत्साह, प्रचण्डशक्रि साक्षात् महावीरका ही स्वरूप में मुख्तार श्रीजुगलकिशोरजीको एक विज्ञप्ति पढ़नेको थी। भ• महावीरका सारा कथाएं बहा राचक, अनाखा मिली, जिसमें उन्होंने कुछ विषयों पर निबन्धों के लिये और सत्य होकर भो प्राज पोथी-पुराणकी बनी हुई है। अपनी ओरसे ५००) रु. के पाँच पुरुस्कारों की घोषणा परन्तु भ. महावीरका भारतके इतिहापो म्वतन्त्र स्थान है। की थी। उनमें एक विषय 'श्री कदीर समंतभद्रका इतिहासकार उन्हें एक स्वतन्त्रदशेन-धर्म-संस्कृतिके प्रवर्तकतुलनात्मक अध्ययन भी था। इस विषयको पढकर प्रसारक मानते हैं। उन्होंका शासन 'सर्वोदय-तीर्थ है, ऐसा मुझे बहुत ही प्रसन्नता हुई तथा मेरे विचारों को बड़ी ही स्वामी समन्तभद्रने बतलाया है। प्रगति मिली और इस निमित्तको पाकर मैं दोनों महान् वीर-शामनको धुराको श्रीगुणधर-धरसेन-भूतबस्त्री-पुष्पदन्त प्राचार्योंके ग्रन्थोंका गहरा एवं ठोस अभ्यास करने में शीघ्र आदि अनेक प्राचार्य-महोदयोंने अरमे कन्धों पर लिया था। ही प्रवृत्त हो गई। मर्यादित समयके भीतर जो कुछ इन प्राचार्योंकी परम्पराका काल एक तरहका संधिकाल ही अध्ययन बन सका है उसीके फलस्वरूप यह निबन्ध प्रस्तुत है। तीर्थकर सूर्यका अस्त होनेके बाद कितने ही प्राचार्योंका किया जा रहा है। दोनों ही चोटीके महान प्राचार्यों का ज्ञान- उदय इसी तपोभूमिमें हुमा है। इन प्राचार्योने वीर-शासनभंडार अतीव विशाल एवं गहन-गम्भीर समद्रके समान के ज्ञानका,-श्रु तका-प्रवाह माज तक आगे बढ़ाया है, है और इसलिए मेरे मी अज्ञ बालिका का यह प्रयत्न भुजा श्रुत पञ्चमी पर्वकी स्थापना इसीका एक प्रतीक है। फैला कर समुद्रको मॉपने जैसा ही समझा जायगा: फिर भी कुन्दकुन्द और समन्तभद्र (चन्द्र और सूर्य) मुझे सन्तोष है कि मैं इस बहाने अपने दो प्रादर्श वीर शासनकी धुराको आगे चलाने वाले इसी भूमिमें प्राचार्योक विषयमें कुछ जानकारी प्राप्त कर सकी हूँ। श्री कुन्दकुन्द और समन्तभद्र नामके दो महान प्राचार्य चंद्रपूर्वकालिक कुछ इतिहास सूर्यके समान हुए हैं । कुन्दकुन्दने भारतकी सारी दक्षिणभूमिदिन-रातके समान उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी कालचक्र पर ज्ञानामृत सिंचन किया था। इससे इनकी जड़ इतनी प्रवर्तित हैं । भोगभूमिके अनन्तर कर्मभूमिका निर्माण हो गहरी पैठ गई कि इनका एक स्वतन्त्र अन्वय (वंश) स्थापित गया था। चौदह कुजकर (मनु इसके निर्माता कहे जाते हो गया। कितने ही उत्तरवर्तीप्राचार्योंने खुदको कुन्दकुन्दान्वयी हैं। असि-मसि-कृषि-सेवा-शिल्प-वाणिज्य क्रियाओंकी शिक्षा या 'कुन्दकुन्द-मुनिवंश-सरोज-हंस' कहकर गौरवका स्थान इन्हीं कुजकरोंके द्वारा मिली थी । भोगभूमिमें कर्मभूमि धर्म समझा है । कसद कवि पंप तो खुदको 'कुन्दकुन्द-नन्दनवनऔर संस्कृतिके लिये स्थान नहीं था। कर्मभूमिमें प्रथम तीर्थंकर शुक' कहकर पाठकवृन्दसे स्तुतिके मीठे मीठे फल चखता है। आदिनाथ अर्थात् वृषभ-जिन हुए | भ. वृषभसे श्री महावीर भ. ऋषभ देवके समयमें ही अन्य दर्शनोंका प्रादुर्भाव जिन तक यह भूमि तीर्थकर-भूमि बन गई। इन तीर्थकरोंकी प्रारम्भ हो गया था । खास भ. महावीरका समकालीन म. पुण्यभूमिमें भरत, बाहुबली, श्रेयांस तथा मरीचिकी कथाएँ ® इस निबन्ध पर लेखिकाको मुख्तार श्री जुगलकिशोर बड़ी रोचक है, अधिकांश जैन इतिहासउन्हींसे घिरा है। भरत जीकी बोरसे वोरसेवामन्दिरकी मार्फत १००) का 'युगराजा भोगको योगमें परिवर्तन करनेवाला, इस भूमिको भरत- वीर-पुरस्कार दिया गया है। Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२) अनेकान्त [ वर्षे १० बुद्ध एक स्वतन्त्र बौद्धदर्शनका निर्माता कहा जाता है। वह संक्षेपसे जो कहा है, उसीका विस्तार इन सार ग्रन्थों में है। वैदिक-औपनिषद् शानके प्रभावका काल था । सांख्य- ३. पञ्चस्तिकाय-(वत्थुमहावोधम्मो' की प्रतीति) न्याय-बौद्ध-चार्वाक-वैशेषिक दर्शन अपने-अपने समाजमें कहा जाता है कि इस ग्रन्थकी रचना श्रीकुन्दकुन्दके फलते,फूलते थे। हर एकने धर्मका स्वरूप उलट-पलट कर विदेहक्षेत्रसे प्राने के बाद हुई है। टीकाकार जयसेनाचार्यके वस्तुके यथार्थ स्वरूपकी काया पलट कर दी थी। अनुमार शिवकुमार महाराजके प्रबोधके लिए इस प्रन्यकी श्री. कुन्दकुन्दको इन विरोधी दर्शनोंका मन्थन करके रचना हुई है, अन्तस्तस्त्र तथा बहिस्तत्त्वकी गौण-मुख्य जिनशासन-स्याद्वादका नवनीत (मक्खन) निकालना प्रतिपत्तिके लिए यह ग्रन्थ लिखा गया है। श्रान्माके था। उन्होंने सबसे पहले श्रद्धाको नीव जनताके हृदय पर सम्पर्कमें रहनेवाले जड पदार्थोंका विश्लेषण इसमें है। डाली। भारतमें जैनदर्शनानुयायी जनताकी संख्या कम पाँच द्रन्य जीवके साथ रहते हुए भी जीवसे सर्वथा भिन्न हैं। होने पर भी उसके दर्शनको मौलिकता सबसे अधिक थी। प्रत्येक द्रव्य स्वतन्त्र है, धर्म-अधर्म-अाकाश तथा काल ये राजाश्रय और विशिष्ट परिस्थिति प्राप्त होने पर तो समंत- द्रव्य नित्य शुद्ध हैं। जीव और पुद्गलका सम्बन्ध भद्र जैसे कितने ही प्राचार्यो द्वारा यह मौलिकता सवशेष- संयोगी है, 'पुद्गलनभधर्म-अधर्मकाल, इनसे न्यारी है रूपसे सिद्ध हो चुकी है । समन्तभद्ने स्थान-स्थान पर जीवचाल.' इस वाक्यमें उसीका पुरस्कार किया गया है। अपनी प्रकाव्य युक्रियोंसे परमतोंका खण्डन करके स्याद्वाद- जीव-पुद्गल एक दुसरेके निमित्तसे अशुद्ध बन रहे हैं। का डंका बजाया है। संयोग दूर हटनेसे ही जीव द्रव्य शुद्ध परमात्मा हो जाता कुन्दकुन्दकृत पाज जो ग्रन्थ उपलब्ध हैं उन्हींका पहले है। पंचास्तिकाय तथा कालका अस्तित्व इस ग्रन्थमें सप्तविचार करना जरूरी है। भंगीसे सिद्ध किया गया है। यह ग्रंथ निश्चयसम्यग्दर्शनके कुन्दकुन्द-कृत ग्रंथ तथा विषय परिचय- स्वरूपको स्पष्ट रूपसे प्रगट करता है। धर्म वस्तुस्वभावके १. मूलाचार-यह ग्रन्थ आज कुछ विद्वानोंकी रायमें बिना और कोई चीज नहीं है। प्रान्माकी शुद्धावस्था पहवट्टकर-कृत समझा जाता है परन्तु अधिकांश विद्वानोंकी चानना ही सम्यग्दर्शन है। इस ग्रन्थमें वैज्ञानिक दृष्टिकोणसं रायमें कुन्दकुन्दकृत ही है। कर्नाटक साहित्यम कुन्दकुन्दका शुद्धद्रव्यवर्णन पाया जाता है। नाम मूलाचारके लिये स्पष्ट या जाता है। और मूलाचार ४. प्रवचनसार-कुन्दकुन्दका प्रवचनमार ग्रन्थ सम्यकी कितनो ही गाथाएँ कुन्दकुन्दके अन्य ग्रन्थोंमें अनुद्धतरूप- ज्ञानको प्रधानतासे मारे अध्यात्मग्रन्थों में बेजोड़ है। इसमें से पाई जाती हैं। स्पष्ट कहा है कि ज्ञान ही प्रान्मा है। प्रात्माके बिना ज्ञान २. रयणसार-इस नामका जो ग्रंथ उपलब्ध है वह हो ही नहीं सकता । जैसे कि निम्न गाथासं प्रकट हैकुन्दकुन्दके अन्य ग्रन्थोंसे कुछ अलगमा दिखता है । यह 'णाणं अप्प त्ति मदं वदि णाणं विणा ण अप्पाणं । एक सार ग्रन्थ होकर अधूरा तथा बिखरा हुआ ज्ञात होता तम्हा गाणं अप्पा अप्पा गाणं व अण्णं वा ॥२७॥ है। मुनिचारित्र तथा श्रावकधर्मका वर्णन इसमें है। इस ग्रन्थके जो तीन अधिकार हैं वे मानों तीन श्रुतपञ्चास्तिकाय, प्रवचनसार, समयमार तथा नियम- स्कंध ही हैं। पहला श्रुतम्कंध ज्ञानतत्व-प्रज्ञापन है । अनासार ये चार सार प्रन्थ हैं । इनसे पहले तीन ग्रन्थ प्राभृत- दिकालमे पर सन्मुख-जीवने 'मैं ज्ञानस्वभावी हैं, मेरा सुख त्रय या नाटकायके नामसे भी प्रसिद्ध हैं। इनके सिवाय आत्मासे अलग नहीं; इस तरहकी श्रद्धा ही नहीं की। बारह अणुवैक्खा, दशभक्ति तथा अष्टपाहुड नामके ग्रन्थ इस ग्रन्थमें कुन्दकुन्दने मानो जीवनके ज्ञानानन्द-स्वभावका भी कुन्दकुन्द कृत सुप्रसिद्ध हैं। अमृत ही बरसाया है। केवलीका ज्ञान और उन्हींका सुग्व पसास्तिकाय, प्रवचनसार, समयसार इन तीनों उपादेय है । क्षायिक ज्ञान ही उपादेय है, क्षायोपमिक ग्रन्थों द्वारा साक्षात् निश्चयरत्नत्रयके रूपमें मोक्षमार्गको ज्ञानधारी केवल कर्मभार सहनेका ही अधिकारी है। प्रत्यक्षसाधकके लिये साफ सुथरा करके रखा है। तीनों ग्रन्थोंमें ज्ञान ही सुख है, परोक्षज्ञान प्राकुलतारूप है, इत्यादि मात्माको मध्यबिन्दु-केन्द्रस्थान बनाया है। कमद कवि बातों पर जिन्हें श्रद्धान नहीं उन्हें मिथ्याष्टि कहा है। इस भरतेशधैभवकार रत्नाकरने कहा है कि प्राभृतपाहुडोंमें तरह इस में केवलज्ञान तथा प्रतीन्द्रिय सुखकी ओर जीवक Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ११-१२) श्री कुन्दकुन्द पार समन्तमद्रका तुलनात्मक अध्ययन २६३ बड़ी ढ़ता के साथ आगे बढ़ाया है। श्रमणोंसे वर्तन प्रादि श्रमण-मुनिके, चारित्रकी छोटास लेकर दूसरा शेयतत्व-प्रज्ञापन अधिकार तो अनेकान्तकी जब बड़ी बातें कुन्दकुन्दने समझाई हैं। निश्चय-म्यवहारको है कुन्दकुन्दके पहले तीन ही मूल भा प्रचलित थे। दृप्टिसे यह अध्यात्मका निरूपण है। सारे ग्रन्थमें प्रात्माकी कुन्दकुन्दने तीनोंसे ही सातभंग करके दिखलाये। अनादि- प्रधानता होनेसे सारा वाणी-प्रवाह शान्तधाराके समान बहता कालसे परिभ्रमण करनेवाले जीवने स्व-पर-भेदविज्ञानका हुअा अध्यात्म-गीत सुना रहा है। रसास्वाद कभी नहीं पाया। बंधमार्गके समान मोक्षमार्गमें ५. समयसार-(ज्ञानी-संतके गलेका हार) भी जीव अकेला कर्ता-कर्म-करण और कर्मफल बन जाता समय नाम प्रात्माका है। 'आत्मा ज्ञानमात्र है। इस है-इनके साथ वास्तविक कुछ सम्बन्ध नहीं। इस तरहकी तरह प्रवचनसाग्में समझाने के बाद 'स्थितिरत्र तु चारित्रम्' सानुभव श्रद्धा कभी भी नहीं हुई। इस कारण सैकड़ों अर्थात् प्रास्मामें स्थिर होना ही चारित्र है ऐसा निर्देश है। उपाय करके भी यह जीव दुःखोंसे मुक्ति नहीं पा रहा है- कुन्दकुन्दके शब्दों में ही 'सव्वणय-पक्ख-रहिदो भणिदो जो इन दुःखोंसे मुक्रिका रामबाण उपाय भेद-विज्ञान बताया सो समयसारा' यह समयसारका रूप है। नव पदार्थोंका कथन शुद्धनयकी प्रधानतासे किया है। श्री कुन्दकुन्द ग्रन्थके ___ संसारमें कोई भी सत् पदार्थ या द्रव्य उत्पाद-व्यय- प्रारम्भमें ही एकत्व-माधनको दुर्लभता दिख जाते हैं। वे ध्रौव्यके या गुण-पर्यायके विना नहीं होता। मत् कहो या स्वयं कह रहे हैंद्रव्य कहो, या उत्पाद-व्यय-ध्रीव्य कहो, या गुण-पर्याय- 'सुदपरिचिदाणुभूदा सव्वस्स वि काम-भोग-बंधकहा । पिण्ड कहो, ये सब एक ही हैं। यही वीतराग-विज्ञान है। एयत्तस्सुवलंभोगवरिण सुलहो विहत्तस्स ॥३॥ द्रव्य-निरूपण तो स्वयं अध्ययन किये बिना ठाक समझा 'कामभोगकी कथाएँ सबने सुनी हैं, परिचयमें आई हैं हो नहीं जा सकता । द्रव्य-सामान्य-निरूपणके साथ द्रव्य- और अनुभव की गई है; परन्तु परसे जुदे एकत्व-अभेदकी विशेषका निरूपण अनिवार्य है । इस तरह जैनसिद्धान्तका प्राप्ति दुलभ है। बाकीके मारे दर्शनकार सर्वथा भेद या नत्त्व इसमें कूट-कूट कर भरा हुआ है। द्रव्यके सर्वथा सर्यथा अभेदका एकान्त निरूपण करते हैं। पर कुन्दकुन्दकी प्रभावका निषेध, द्रव्यकी सिद्धि मन्-अमन्, एक-अनेक, विशेषता यह है कि भेदमेंसे अभेद पाना। इसी बातको पृथक् अपृथक् , तद्-अतद्, नित्य-अनित्य आदि रूपमें युक्रि ागम-परम्परा तथा अनुभूति द्वारा समझानेको वार २ अनेकान्तस की गई है। वस्तु स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भावकी चेष्टा की गई है। प्रान्माके बिना जिनशासन कुछ भी अपेक्षा अस्तिरूप है और पर-द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावकी नहीं हैअपेक्षा नास्तिरूप है। इस प्रकार म्बमत सिद्धि के समय जो पस्सदि अप्पाणं अबद्धपुट्ट अणएणमविसेसं। बौद्धादि अन्य मतोंका निराकरण सहज ही हो गया है। अपदेससंतमझ पस्सदि जिणशासणं सव्वं ।। जीव देहादिका कर्ता नहीं, अन्योंसे जीवकी भिन्नता, जीव समय. १५ पुद्गल पिण्डका भी कर्ता नहीं, निश्चय बन्धका स्वरूप, 'जो आत्माको प्रबद्धस्पृष्ट, अनन्य, नियत, भविशेष चनना-लक्षण आदि विषयों पर स्पष्ट प्रकाश डाला गया है। तथा असंयुक्र देखते हैं वे समग्र जिनशासनको देखते हैं, वीर-शासनका मौलिकतत्व सिद्धान्त अवाधयुक्तिसे- इस तरहका जब तक स्वयं जीव अनुभव नहीं करता तब म्याद्ववादसे—सिद्ध किया गया है । यह अधिकार वीर-जिन तक वह मोक्षमार्गी नहीं है। ऐसे जीवके भाव अज्ञानमय शासनका प्रकाशस्तम्भ ही है। होते हैं-उसने भले ही व्रत-समिति-गुप्ति प्रादि सबका प्रवचनसारका तीसरा अधिकार चरणानुयोग सूचक. पालन किया हो, सारे पागम मुखाम किए हों। शुद्ध प्रात्माचूलिका या चारित्र-प्रज्ञापन-तत्त्व है । इसमें शुभोपयोगी मुनि की अनुभूति जहों है वहीं सम्यग्दर्शन है। रागादिक उदयसे श्रमणकी अन्तरंगदशाका यथार्थ चित्र खींचा गया है। सम्यग्दृष्टि जीव कभी एकाकाररूप परिणमता नहीं, किन्तु दीक्षाविधि, अन्तरंग सहजदशानुरूप, बहिरंग यथाजातरूप, ऐसा समझता है कि यह पुद्गल-कर्मरूप रागका विपाक २८ मूलगुण, अन्तर्बाह्य छेद, उपधिनिषेध, उत्सर्ग-अप- उदय है, यह भाव मेरा नहीं, मैं तो एक शुद्ध शायक स्वभाव वाद, युनाहार-विहार, एकाग्रतारूप मोक्षमार्ग, श्रमणका अन्य- हं। इस तरह प्रतिपादन करते समय प्राचार्य श्री स्वयं ही Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ अनेकान्त [ वर्ष १० बुद्ध एक स्वतन्त्र बौद्धदर्शनका निर्माता कहा जाता है। वह संक्षेपसे जो कहा है, उसीका विस्तार इन सार ग्रन्थों में है। वैदिक-औपनिषद् शानके प्रभावका काल था । सांख्य- ३. पश्चस्तिकाय-(वत्थुमहाबोधग्मो' की प्रतीति) न्याय-बौद्ध-चार्वाक-वैशेषिक दर्शन अपने-अपने समाजमें कहा जाता है कि इस प्रन्थकी रचना श्रीकुन्दकुन्दके फलते,फूलते थे। हर एकने धर्मका स्वरूप उलट-पलट कर विदेहक्षेत्रसे आनेके बाद हुई है। टीकाकार जयसेनाचार्य के वस्तुके यथार्थ स्वरूपको काया पलट कर दी थी। अनुसार शिवकुमार महाराजके प्रबोधके लिए इस ग्रन्थको श्री. कुन्दकुन्दको इन विरोधी दर्शनोंका मन्थन करके रचना हुई है, अन्तस्तत्व तथा बहिस्तत्वकी गौण-मुख्य । जिनशासन-स्याद्वादका नवनीत (मक्खन) निकालना प्रतिपत्तिके लिए यह ग्रन्थ लिखा गया है। प्रारम के था। उन्होंने सबसे पहले श्रद्धाकी नीव जनताके हृदय पर सम्पर्कमें रहनेवाले जड पदार्थोंका विश्लेषण इसमें है। डाली। भारतमें जैनदर्शनानुयायी जनताकी संख्या कम पाँच द्वन्य जीवके माथ रहते हुए भी जीवसे सर्वथा भिन्न हैं। होने पर भी उसके दर्शनको मौलिकता सबसे अधिक थी। प्रत्येक द्रव्य स्वतन्त्र है, धर्म-अधर्म-आकाश तथा काल ये राजाश्रय और विशिष्ट परिस्थिति प्राप्त होने पर तो समंत- द्रव्य नित्य शुद्ध हैं। जीव और पुद्गलका सम्बन्ध भद्र जैसे कितने ही प्राचार्यों द्वारा यह मौलिकता सवशेष- संयोगी है, 'पुद्गलनभधर्म-अधर्मकाल, इनसे न्यारी है रूपसे सिद्ध हो चुकी है। समन्तभद्रने स्थान-स्थान पर जीवचाल.' इस वाक्यमें उसीका पुरस्कार किया गया है। अपनी अकाव्य युक्रियोंसे परमतोंका खण्डन करके स्याद्वाद- जीव-पुद्गल एक दूसरेके निमित्तसे अशुद्ध बन रहे हैं। का डंका बजाया है। संयोग दूर हटनेसे ही जीव द्रव्य शुद्ध परमात्मा हो जाता कुन्दकुन्दकृत पाज जो प्रन्थ उपलब्ध हैं उन्हींका पहले है। पंचास्तिकाय तथा कालका अस्तित्व इस ग्रन्थमें सप्तविचार करना जरूरी है। भंगीसे सिद्ध किया गया है । यह ग्रंथ निश्चयसम्यग्दर्शनके कुन्दकुन्द-कृत ग्रंथ तथा विषय परिचय- स्वरूपको स्पष्ट रूपसे प्रगट करता है। धर्म वस्तुस्वभावके १. मूलाचार-यह ग्रन्थ भाज कुछ विद्वानोंकी रायमें बिना और कोई चीज नहीं है। आमाकी शुद्धावस्था पहवट्टकर-कृत समझा जाता है परन्तु अधिकांश विद्वानोंकी चानना ही सम्यग्दर्शन है। इस प्रन्थमें वैज्ञानिक दृष्टिकोणसे रायमें कुन्दकुन्दकृत ही है। कर्नाटक साहित्यम कुन्दकुन्दका शुद्धद्रव्यवर्णन पाया जाता है। नाम मूलाचारके लिये स्पष्ट गया जाता है। और मूलाचार ४. प्रवचनसार-कुन्दकुन्दका प्रवचनमार प्रन्थ सम्यको कितनो ही गाथाएँ कुन्दकुन्दक अन्य प्रन्थों में अनुतरूप रज्ञानकी प्रधानतास सारे अध्यात्मग्रन्थों में बेजोड़ है। इसमें से पाई जाती हैं। स्पष्ट कहा है कि ज्ञान ही आत्मा है। प्रात्माके बिना ज्ञान २. रयणसार-इस नामका जो ग्रंथ उपलब्ध हैं वह हो ही नहीं सकता । जैसे कि निम्न गाथासे प्रकट हैकुन्दकुन्दके अन्य ग्रन्थोंसे कुछ अलगसा दिखता है । यह 'णाणं अप्प त्ति मदं वदि गाणं विणा ण अप्पाणं । एक मार ग्रन्थ होकर अधूग तथा बिखरा हुआ ज्ञात होता तम्हा णाणं अप्पा अप्पाणाणं व अण्णं वा ॥२७॥ है। मुनिचारित्र तथा श्रावकधर्मका वर्णन इसमें है। इस ग्रन्थक जो तीन अधिकार हैं ये मानो तीन श्रुतपञ्चास्तिकाय, प्रवचनसार, समयमार तथा नियम- स्कंध ही है। पहला श्रुतम्कंध ज्ञानतत्व-प्रज्ञापन है । अनासार ये चार सार ग्रन्थ हैं । इनसे पहले तीन ग्रन्थ प्राभृत- दिकालमे पर सन्मुख-जीवने 'में ज्ञानस्वभावी हूँ, मेरा सुख त्रय या नाटकत्रयके नामसे भी प्रसिद्ध हैं। इनके सिवाय आत्मासे अलग नहीं:' हम तरहकी श्रद्धा ही नहीं की। बारह अणुवेक्खा, दशक्रि तथा अष्टपाहु नामके अन्य इस ग्रन्थमें कुन्दकुम्दने मानो जीवनके ज्ञानानन्द-स्वभावका भी कुन्दकुन्द कृत सुप्रसिद्ध हैं। अमृत ही बरसाया है। केवलीका ज्ञान और उन्हींका सुग्व पचास्तिकाय, प्रवचनसार, समयसार इन तीनों उपादेय है । क्षायिक ज्ञान ही उपादेय है, तायोपमिक ग्रन्थों द्वारा साक्षात् निश्चयरत्नत्रयके रूपमें मोक्षमार्गको ज्ञानधारी केवल कर्मभार सहनेका ही अधिकारी है। प्रत्यक्षसाधकके लिये साफ सुथरा करके रखा है। तीनों प्रन्थोंमें ज्ञान ही सुख है, परोपज्ञान प्राकुलतारूप है, इत्यादि बास्माको मध्यबिन्दु-केन्द्रस्थान बनाया है। कमड़ कवि बातों पर जिन्हें श्रदान नहीं उन्हें मिथ्यारष्टि कहा है। इस भरतेशवैभवकार रत्नाकरने कहा है कि प्राभृतपाहुडोंमें तरह इस में केवल ज्ञान तथा प्रतीन्द्रिय सुखकी अोर जीवक Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ११-१२] श्री कुन्दकुन्द पार समन्तमद्रका तुलनात्मक अध्ययन २६३ बड़ीदताके साथ आगे बढ़ाया है। श्रमणोंसे वर्तन मादि श्रमण-मुनिके, चारित्रकी छोटोसे लेकर दूसरा शेयतस्व-प्रज्ञापन अधिकार तो अनेकान्तकी जब बड़ी बातें कुन्दकुन्दने समझाई है। निश्चय-म्यवहारको है कुन्दकुन्दके पहले तीन ही मूल भा प्रचलित थे। इप्टिसे यह अध्यात्मका निरूपण है। सारे प्रन्थमें प्रात्माकी कुन्दकुन्दने तीनोंसे ही सातभंग करके दिखलाये। अनादि- प्रधानता होनेसे सारा वाणा-प्रवाह शान्तधाराक समान बहता कालसे परिभ्रमण करनेवाले जीवने स्व-पर-भेदविज्ञानका हुआ अध्यात्म-गीत सुना रहा है। रसास्वाद कभी नहीं पाया । बंधमार्गके ममान मोक्षमार्गमें ५. समयसार-( ज्ञानी-संतके गलेका हार) भी जीव अकेला कर्ता-कर्म-करण और कर्मफल बन जाता समय नाम प्रारमाका है। 'प्रात्मा ज्ञानमात्र है। इस है-इनके साथ वास्तविक कुछ सम्बन्ध नहीं । इस तरहकी तरह प्रवचनसाग्में समझाने के बाद 'स्थितिरत्र तु चारित्रम्' सानुभव श्रद्धा कभी भी नहीं हुई। इस कारण सैकड़ों अर्थात् प्रास्मामें स्थिर होना ही चारित्र है ऐसा निर्देश है। उपाय करके भी यह जीव दुःखोंमे मुक्रि नहीं पा रहा है- कुन्दकुन्दके शब्दों में ही 'सव्वणय-पक्ख-रहिदो भणिदो जो इन दुःखोंसे मुक्रिका रामबाण उपाय भेद-विज्ञान बताया सो समयसारा' यह ममयसारका रूप है। नव पदार्थोंका कथन शुद्धनयको प्रधानतास किया है । श्री कुन्दकुन्द ग्रन्थके संसार में कोई भी सत् पदार्थ या द्रव्य उत्पाद-व्यय- प्रारम्भमें ही एकत्व-माधनको दुर्लभता दिख जाते हैं। वे धौव्यके या गुण-पर्यायके विना नहीं होता। मन् कहो या स्वयं कह रहे हैंद्रव्य कहो, या उत्पाद-व्यय-धीव्य कहो, या गुण-पर्याय- 'सुदपरिचिदाणुभूदा सव्वस्स वि काम-भोग-बंधकहा। पिण्ड कहो, ये सब एक ही हैं। यही वीतराग-विज्ञान है। एयत्तस्सुवलंभोगवरि ण सुलहो विहत्तस्स ॥ ३॥ द्रव्य-निरूपण तो स्वयं अध्ययन किये विना डाक समझा 'कामभोगकी कथाएँ सबने सुनी हैं, परिचयमें पाई है ही नहीं जा सकता । द्रव्य-सामान्व-निरूपणके साथ द्रव्य- और अनुभव की गई है; परन्तु परसे जुदे एकन्व-अभेदकी विशेषका निरूपण अनिवार्य है इस तरह जैनसिद्धान्तका प्राप्ति दुलभ है। बाकीके सारे दर्शनकार सर्वथा भेद या तत्व इसमें कूट-कूट कर भरा हुआ है। द्रव्यके सर्वथा पर्यथा अभेदका एकान्त निरूपण करते हैं । पर कुन्दकुन्दकी अभावका निषेध, दन्यकी सिद्धि मन्-असत्, एक-अनेक, विशेषता यह है कि भेदमेंसे अभेद पाना। इसी बातको पृथक् अपृथक् , तद्-अतद्, नित्य-अनित्य आदि रूपमें युकि आगम-परम्परा तथा अनुभूति द्वारा समझानेकी बार २ अनेकान्तस की गई है। वस्तु स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भावकी चेष्टा की गई है। प्रात्माके विना जिनशासन कुछ भी अपेक्षा अस्तिरूप है और पर-द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावकी नहीं हैअपेक्षा नास्निरूप है। इस प्रकार स्वमत सिद्धिके समय 'जो पस्सदि अप्पाणं अयपुट्ट अणएणमविसेसं। बौद्धादि अन्य मतोंका निराकरण सहज ही हो गया है। अपदेससंतमझ पस्सदि जिणशासणं सव्वं ।। जीव देहादिका कर्ता नहीं, अन्योंसे जीवकी भिन्नता, जीव समय. १५ पुद्गल पिण्डका भी कर्ता नहीं, निश्चय बन्धका स्वरूप, 'जो आत्माको प्रबद्धस्पृष्ट, अनन्य, नियत, अविशेष चनना-लक्षण आदि विषयों पर स्पष्ट प्रकाश डाला गया है। तथा असंयुक्र देखते हैं वे समग्र जिनशासनको देखते हैं, वीर-शासनका मौलिकतत्त्व सिद्धान्त अवाधयुनिसे- इस तरहका जब तक स्वयं जीव अनुभव नहीं करता तब स्याद्ववादमे-सिद्ध किया गया है । यह अधिकार वीर-जिन तक वह मोक्षमार्गी नहीं है । ऐसे जीवके भाव अज्ञानमय शासनका प्रकाशस्तम्भ ही है। होते हैं-उसने भले ही प्रत-समिति-गुप्ति प्रादि सबका प्रवचनसारका तीसरा अधिकार चरणानुयोग सूचक. पालन किया हो, सारे भागम मुखाग्र किए हों। शुद्ध प्रात्माचूलिका या चारित्र-प्रज्ञापन-तत्त्व है । इसमें शुभोपयोगी मुनि की अनुभूति जहाँ है वहीं सम्यग्दर्शन है । रागादिक उदयसे श्रमणकी अन्तरंगदशाका यथार्थ चित्र खींचा गया है। सम्यग्दष्टि जीव कभी एकाकाररूप परिणमता नहीं, किन्तु दीक्षाविधि, अन्तरंग सहजदशानुरूप, बहिरंग यथाजातरूप, ऐसा समझता है कि यह पुद्गल-कर्मरूप रागका विपाक २८ मूलगुण, अन्तर्बाह्य छेद, उपधिनिषेध, उत्सर्ग-अप- उदय है, यह भाव मेरा नहीं, मैं तो एक शुद्ध शायक स्वभाव वाद, युक्ताहार-विहार, एकाग्रतारूप मोक्षमार्ग, श्रमणका अन्य- हूं। इस तरह प्रतिपादन करते समय आचार्य श्री स्वयं ही Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४] अनेकान्त [ वर्ष १३ शंका उठाते हैं कि रागादिभाव रखते हुए प्रात्मा शुद्ध कैसे निरूपण है । कुछ निश्चय नयसे तथा अशुद्ध व्यवहार मयसे है ? उत्तरमें स्फटिक मणिका दृष्टांत निरूत्तर कर रहा है। जीव-अजीव • शुद्धभाव-प्रतिक्रमण - प्रत्याख्यान-मालोचनाप्रा. प्रज्ञारूपी बैनीसे छेदते छेदते जीव पुद्गल अलग होकर यश्चित्त-समाधि-भक्ति- आवश्यक - शुद्धोपयोग इन सबका 'जीव जुदा पुद्गल जुदा' की घोषणा अंतर्नादसे सुनी जाती वर्णन स्वतन्त्र अधिकारों में किया है। 'नियम' की निरुकि है । अर्थात् ज्ञानसे हो यथार्थ वस्तुस्वरूप पहिचाननेसे अनादि- प्रन्यारम्भमें तथा फल अन्तमें (उपयुक) देते हैंकालीन रागद्वषोंके साथ परिणमनेवाला श्रात्मा एकाकाररूप 'खियमेण य जंकज्जंतरिणयमंणाण-दसण-चरित।' परिणामता है। इस स्थिति तक पहुंचनेके लिए अनेक विषय नियमसार यान नियमकासार अर्थात् शुद्ध रत्नप्रय । अनिवार्य हो गये हैं। जीव और पुद्गलका निमित्त-नैमि- इस शुद्ध रत्नत्रयकी प्राप्ति परमात्मतत्वके आश्रयसे होगी। त्तिक सम्बन्ध, दोनोंका स्वतन्त्र परिणमन, ज्ञानी जीव न कुन्दकुन्द गाथा-गाथामें अपना अनुभव सिद्ध-परमात्मता रागद्वेषोंका कर्ता है न भोक्रा, अज्ञानी जीव रागद्वेषोंका बतलाते हैं। परमात्मतत्त्वका प्राधार सम्यग्दर्शन है-उसका कर्ता तथा भोका है, सांख्यदर्शन नित्यवादी एकान्त होनेसे प्राश्रय पाने पर जीवकी देशचारित्र तथा सकलचारित्रकी मिथ्या है, गुणस्थान-आरोहणमें भाव और द्रव्यका निमि- दशा प्रकट होती है । परमात्मतत्वका आश्रय ही सम्यग्दर्शन तमित्तिकपन, मिथ्यात्वादि जडत्व और चेतनत्व, पुण्यपाप- है. वही ज्ञान-चारित्र, प्रतिक्रमण, आदि सब कुछ है। जो का बन्धरूप, मोक्षमार्गमें चरणानुयोगका स्थान प्रादि कितने भाव परमात्मतत्त्वसे सर्वथा अलग हैं वे मोक्षका कारण नहीं ही विषय इस अधिकारमें पाये जाते हैं। हैं । सम्यग्दर्शनसे शून्य निरी व्यवहारभक्ति व्यवहारप्रत्याश्री जयसेनाचार्यके शब्दोंमें इस ग्रन्थकी महत्ता पर्वतके ख्यान आदि सारे उपचार भाव द्रव्यलिंगी मुनिके होते हैं नह।इस ग्रन्थका विशेषता यह है कि 'ज्ञानी जाव कम और प्रत्येक जीव उन्हें अनन्तबार कर चुका है। परन्तु ये फल-भोगते समय बद्ध नहीं होता, ज्ञानीकी (सम्यग्दृष्टिकी) सब भाव जीवको बार बार संसारचक्रमें घुमानेवाले ही सारी क्रियाएं निर्जराके लिए ही होती है, ऐमा बार बार * साकि परमात्मतत्व प्राश्रयविना-उसका लक्ष्य स्पष्ट कहा गया है। कर जीवका स्वभाव परिणमन अंशतः भी मभव नहीं। समयसारकी भूमिका नाटकके समान ही है। शायद इस प्रकार ग्रन्थका केन्द्रबिन्दु परमात्मतत्त्व ही हैउस समय समाजमें नाटकोंका बोलबाला और प्रभाव समाज इसके सहारे थानेवाले पर्याय, गुण, षड्दव्य, जीवक पर ज्यादा होगा । कुन्दकुन्दने जनताकी रुचिको अध्यात्मका असाधारण भाव, व्यवहार-निश्चयनय, रत्नत्रय, तथासम्यक्त्वमें तरफ खींचनेके लिए इस प्रथका कथन नाटकके समान पात्र- जीवकी दशना ही निमित्त है, इस तरहका नियम, पंचपरयुक्त किया है। कविवर बनारसीदासजीने समयसारको यसारका मेष्ठी-स्वरूप आदि अनेक विषयोंका सरस वर्णन इसमें मिलता 'नाटक' संज्ञा इसीलिए दी है। इसमें बिल्कुल मंदेह नहीं है। और इसीलिए कुन्दकुन्द स्वयं प्रन्थ के अन्तम कहते हैकि यह समयसार अध्यात्मगीता है और ज्ञानी मन्त महा- यह सुन्दर मार्ग हैस्माओंके गलेका हार बना हुआ है। ईसाभावेण पुणो, केई शिंदन्ति सुदर मग्गं । ६. नियमसार ('मुक्तिधामका सुन्दर मार्ग') तेसिं वयणं सोच्चा अभत्ति मा कुणह जिमग्गे।६।। ___ श्रीकुन्दकुन्दने इस ग्रन्थ के सिंहावलोकनमें उपयुक्त सचमुच ही यह सुन्दर राजमार्ग है। तीनों प्रन्थोंके प्रति सकेत किया है ७. अष्टपाहुड (पहलुदार माणि) 'जीवाण पुग्गलाणं गमण जाणेहि जाव धम्मत्थी। । कुन्दकुन्दने रत्नत्रयको अष्टपाहुडोंमें पहलुदार बनाया रदाण गच्छाद ॥ है। इस ग्रन्थके पहलुओंका तेज प्राभृतत्रयोंमें जगमगाता मियम णियमस्स फलं णिट्टि पवयणम्म भत्तोए। है। प्रत्येक पाहडका नाम ही महत्वपूर्ण तथा अन्वर्थमंज्ञक पुव्वावर-विरोधो जदि अवरणीय पूरयंतु ममयबहा ॥१८५ हैं। दर्शन, सूत्र, चारित्र, बोध, भाव, मोक्ष, लिंग और प्रस्तुत ग्रंथमें कुन्दकुन्दने अपने पूर्व-रचित ग्रन्थोंका शील ये अष्ट प्राभृतके नाम हैं। मार ही निकाला है-इस ग्रन्थमें मोक्षमार्गका स्पष्ट सत्यार्थ दर्शनका मतलब सम्यग्दर्शन प्रवचनसारमें जिस प्रकार Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष १३ श्री कुन्दकुन्द और समन्तभद्रका तुलनात्मक अध्ययन [२१५ 'चारित्तं खलुधम्मो' कहकर धर्मका लक्षण बतलाया है, भाव ही मूल है। भावविना निरा म्यलिंग चारोंगतियों में उसी प्रकार इसमें धर्मका मूल दर्शन कहा है 'दंसमलो भटकाता है। धम्मो की गर्जना इसमें है । दर्शन और चारित्र दोनों धर्म दमरी विशेषता इस पाहुडकी यह है कि कुन्दकुन्दके आत्माके निजगुण हैं। इसलिए परस्पराऽविरोधी है । परन्तु समय सैद्धांतिक तथा पारिभाषिक शब्दोंका ज्ञान लोगोंको दर्शनको मुख्यता दिखानेके लिए 'सिमति चरियभट्टा, अच्छी तरह था। अन्यथा पारिभाषिक शब्दोंका निर्देश व्यर्थ दसणभट्टा ण सिझति' ऐसा सिंहनाद किया है। होता | उसममय जनतामें पुरातन कथाएँ खूब प्रचलित सूत्रपाहुडमें 'सूत्र' शब्दकी निरुति करके बड़ा ही थीं। अतएव इममें तुषमास, बाहुबली, मधुपिंग, वशिष्ट, चमस्कारपूर्ण अर्थ दिखलाया है। जैसे कि बाहुवाम, दीपायन, शिवकुमार, अभव्यसेन, शिवभूति, सुत्ताम्म जाणमाणो भवस्स भवणासणं च सो कुदि। शालिसिक्थमन्स्य इत्यादि विविध नामोंका उल्लेख करके सूई जहा असुत्ता णादि सुत्त महा णो वि॥३॥ कथाओंका निर्देश किया गया है । स्व-प्रात्मा ही को पालंबन सूत्र-डोरा से रहित नंगी सई जिसप्रकार सो जाती कहा है। भाव शुभ-अशुभ-शुरूप होते हैं। प्रातरौद्र या केवल छिद्र करने में ही समर्थ होती है उसका अशुभ धर्म-शुभ भाव है। शुद्धभाव वाला जीव तो उच्चस्थान =जिनशासनसे रहित कथन व्यर्थ होता है । मिथ्या हो जाता ( पावई तिहुवनसार बोही जिणसासणे जीवो) पाता है। सूत्रका अर्थ 'धरहंत-भासियत्थं गणहरदेवेहिं गंथियं है । भावपाहुड अन्य पाहुडोंमें सबसे बड़ा है। और यह सुत्तं' (सूत्र. १.) है। सर्वज्ञ-प्रणीत तत्वको ही सूत्र कहते कुन्दकुन्दके अनुभवकी अविरल रसधारा बहाता है। हैं-यह जिनोक सूत्र व्यवहार तथा परमार्थ दो रूपधारी हैं । मोक्षपाहुडमें-मोक्षके प्राप्त करानेवाले साधनोंका शायद इसी समय स्त्री-मुक्ति, सग्रन्थमुक्ति आदि श्वेतांबर परिचय कराया गया है। इसके अन्तमें कहा भी गया है कि मान्यता का प्रचार हो रहा होगा। इसलिए कुन्दकुन्दने जिणपण्णत्तं मोक्खस्स कारण इसमें निरूपित है। प्रारंभदोनोंका तीव्र विरोध किया है में श्रान्माकी बहिरंग, अन्तरंग तथा परमात्माकी अवस्थाका और युक्रि तथा आगमके सहारे यथाजातरूप-नग्नदिगम्बरावस्था ही मुक्रिका कारण है, वर्णन है बहिरात्मा अवस्था त्याज्य है, अन्तरंगावस्था पर माके प्रति साधन है। सम्यग्दृष्टि श्रमणही मोक्षका अधिकारी ऐसा स्पष्ट प्रतिपादन किया है। है, आत्माकी अभेदअवस्था ही मोक्षके लिए साधकतम है चारित्रपाहडमें-देशचारित्र और सकलचारित्रका जहाँ 'जई ध्यान ध्याता ध्येयको न विकल्प वच भेद निरूपण करके देशचारित्र गृहस्थों के लिए राजमार्ग तथा सकल सकल न जहाँ' के समान केवल चैतन्यका ही साम्राज्य है। चारित्र मुनियोंका आदर्श मार्ग दिखलाया है। लिंगपाहुड - स्वतन्त्र रचना होकर भी भावपाहुडका बोधपाहडमें-जिनबिम्ब. जिनागम, जिनदीक्षाका विषय इममें घलामिला है। स्वयं ग्रन्थकार ही कहते हैं ' स्वरूप चित्रपटक समान स्पष्ट दिखलाया है। इसमें गुणस्थान कुछ है वह भाव ही है 'जानीहि भाव धम्मं किं ते लिंगेण मार्गणा, पर्याप्ति, प्राण प्राटिका व्यवहार-दृष्टि संक्षिप्त कादम्व' || भावविना व्यलिंग कार्यकारी नहीं है, श्रमण कथन किया गया है। इसमें कुन्दकुन्दने अपनेको भद्रबाहुका जिनलिंगका ही धारक है अन्यलिंग उसके लिये लांछन शिष्य कहा है। साथ ही, गमक गुरु' कहकर श्रुतकेवली हैं। इस प्रकार जिनलिंग-यथाजातरूपता का महत्व मुकिमार्ग भद्रबाहुका जयघोष भी किया है। में है । अष्टपाहुबका अन्तिम पहलु शील है जो आत्माका गुण कुन्दकुन्द स्वय' कहते हैं कि इस प्राभूतमें जो कुछ कहा है शोज और ज्ञान विरोधि रहते हैं। कुन्दकुद कहते हैं है वह स्वमतकल्पित नहीं है। बल्कि जिन-कथित है। कि शास्त्रीय ज्ञानसं शील ही श्रेष्ट हैभावपाइड-इन दो अक्षरोंमें सारे जीवनभरके अनन्त वायरण छंद-वइसेसिय ववहारणायसत्येसु । परिश्रमोंका सार, निचोड भरा हुआ है । वे स्वयं कहते हैं- वेटेजण सदेसय तेव सयं उत्तम सीलं ॥१६॥ 'भावरहिओण सिझह जह वि तवं चरह कोडि इस प्रकार शालमहिमा सबसे बड़ी है। जीवदया, कोडीओ'-( भा. पा० ) संयम, मत्य, अचौर्य ब्रह्मचर्या, ज्ञान, दर्शन, तप आदि यदि 'भाव' शब्दका मतलब प्रात्मज्ञान ही है तो यह शोलका परिवार है । जीव-कर्मकी प्रन्थी शीलसे खुल जाती Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ अनेकान्त | वर्ष १३ है। विषय विरक, तपोधन माधु शीलजनमें स्नान करनेसे नन्दीश्वर तथा शांति भक्निके लिये प्राकृत गाथाके बिना मिद्यालयको प्राप्त होते हैं । महद्भक्ति दर्शन और शोल इन केवल गथ ही है। ये भक्रिपाठ अपनी प्राचीन परम्पराकी तीनोंसे भिन्न चीज और कुछ नहीं है। भूमि पर अटल हैं-प्रो० उपाध्ये कहते हैं- Bhakties इस प्रकार अष्टपाहुडोंमें सारा जिनशासन भावअनु- are something like devotional pravers भूतिसे गूंथा हुआ है। कहते हैं कि इसतरह ८४ पाहुड with a strong dogmatic and religious background. इस प्रकार एक मूर्खको भी ये भक्रिपाठ दशभक्तिया-सुज्ञके समान मूर्खको भी सयाना सयाना बना देती हैं। बनाती हैं। संस्कृत भक्रिपाठ पूज्पादकृत और प्राकृत भकि- बारह अणुवेक्खा ('वैराग्यकी चावी') पाठ कुन्दकुन्दकृत है। पहली तीर्थकरभक्ति है--जिसमें यह ग्रन्थ कुन्दकुन्द-कृत है । ग्रंथके अन्त में कुन्दकुन्दका २५ जिनोंकी वंदना को गई है। पहली. गाथाके सिवाय नाम पाया जाता है। प्रो. उपाध्येकी रायमें यह ग्रन्थ कुन्दबाकीकी गाथाएँ श्वेताम्बर पंचप्रतिकमणकी गाथाओं के समान कुन्दकृत निश्चित नहीं है । परम्पग कुन्दकुन्दकृत माननेके मिलती जुलती है । सिद्धभक्ति-दूसरी भाके है। इसमें लिये अनुकूल तथा अनिवार्य है। इसकी कितनी ही गाथाएँ सिद्धोंके वर्ग, उनका मार्ग सुख प्रादिका निरूपण है। मूलाचारसे ठोक मिलती-जुलती है। श्रुतक की विशेषता यह है कि प्राचीन श्रुतोंको बारह भावनाएँ या अनुप्रेहा मुनियोंके लिये महाव्रतोंमें अंग १४ पूर्वका उल्लेख करके बंदन किया है । चारित्रभक्ति- स्थिरता लानेके लिए आवश्यक मानी गई हैं। इसमें क्रमशः में मुनिके सामायिक-छेदोपस्थापना परिहारविशुद्धि-सूक्ष्म बारह अनुप्रेक्षाका वर्णन है। जिसके प्राधार पर आगे श्री सांपराय-यथाख्यात-इस तरह ५ प्रकारकं चारित्र कहे हैं। कार्तिकेय स्वामीने एक स्वतन्त्र ग्रन्थ लिखा है। अनगारभक्ति में सभी महामुनियोंका स्तुति की गई कुंदकुंदके उत्तर और समन्तभद्रके पूर्वका वातावरण है। इसमें श्रमणके उच्च आदर्श पर पर्याप्त प्रकाश डाला वैदिक काल में गौडपादक मांडक्योपनिषद में जो विचार गया है। आचार्य भक्ति में प्राचार्योंके चरणों के पास खुदकी पास खुदका हैं वे सर्वथा अद्वैतवादी, एकांतवादी, प्रक्रियावादी हैं । इन ना मंगल-याचना नित्यके लिये करते हैं। 'तुम्हें पायपयारुह- विचारोंका खंडन तत्वतः कुन्दकन्द करते हैं। वेदको हो मिह मंगलमत्थु मे णिच्चं'। इस भकिमें चार्यों का चित्रण परवा मानने वाले मीमांसक, ईश्वरको सृष्टिकर्तृत्वका विधान बड़ा हो रोचक एवं काव्यमय किया गया है करने वाले न्याय-रैशेषिक, कैतवादि-शैव वैष्णव भौतिकवादी गयणमिव णिरुवलेवा अक्वोहा मुणिवमहा। चार्वाक, शुक-बृहस्पनि-चाणक्य कौटिल्य इन नीति त्रयोंके निर्वाण भक्ति-जैन तीर्थक्षेत्र तथा निर्वाणभूमियोंके खोजके प्रवर्तक-जिन्हें लौकायानक भी कहा जाता है और क्षणिकवादी लिये बड़ी ही महन्वपूर्ण है। इसमें सभी पुण्यभूमियों तथा मौत्रांतिकवादी बौद्ध-इन सब दर्शनोंको अपने अपने पन्थमें निर्वाणभूमियोंका निर्देश किया गया है। धुन सवार हो रही थी। प्रत्येक दर्शनकार अपनी अपनी पचगुरुभक्ति-अरहंत-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय • साधु खिचड़ी अलग पकाने में मस्त था । नित्यवादी-मांख्यका नाम ये पंचपरमेष्ठी गुरु हैं इन्हींको भक्रिको यह लिये हुए है। तो स्पष्ट कुन्दकुन्दके ग्रन्थोंमें-गाथाओंमें पाया जाता है। इन सब भक्रियोंके सूक्ष्म निरीक्षणसे ज्ञात होता सारे दर्शनोंका खंडन और स्वमतमण्डन इन्हें करना पड़ा। है कि कुन्दकुन्दने कितने सरल हृदयसे कितनी गहरी अन्य दर्शनोंका संकीर्ण वातावरण तथा प्रभाव होनेसे भक्ति की है। उन्होंने जिनेन्द्र के वचन तथा उनके कुन्दकुन्दके मभी ग्रन्थ अध्यात्मप्रधान, एक स्वात्माकी पादस्पर्शको भूमि तकको वंदन किया है। सभी भक्कियोंके विशुद्धिकी प्रधानता लेकर रचे गये हैं। इसीसे सिद्धान्तअन्तिम गयभागमें वे अपने लिए वर मांगते हुए कहते हैं- विरोधी नहीं है । औपनिषदिक प्रभावके अनन्तर दो तीन दरवक्खो कम्मक्खओ, समाहिमरणं च बोहि शतकोंका काल सूत्रोंका कहा जाता है, इस समयकी एक लाहो य । अर्थात्-मेरे दुःखोंका जय हो, समाधिमरण लहर थी कि अपनी बात सूत्र में बांधना। जैनसाहित्यमें हो और बोधिको प्राप्ति हो । पंचगुरुका स्मरण ही उस समय उमास्वामी सुप्रसिद्ध सूत्रकार थे। इन्होंने णमोकार-मंत्र है। 'एदे पंचणमोयारा भवेभवे ममसुहं दितु, तत्वार्थसूत्र नामक ग्रन्थमें सारा वीर-शासन गूंथा है। Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ११-१२] श्री कुन्दकुन्द और समन्तभद्रका तुलनात्मक अध्ययन २६७ सूत्रकालके पश्चात् वादियोंका युग पाया। वादि- स्तोत्र सच्चे साधकों के लिये 'नन्दादीप' है। समन्तभद्रसे जब प्रतिवादियों को केवल पागम और परम्परा मान्य नहीं थी। पूछा गया कि अर्हतभक्ति-पूजन-प्रचनादिकके लिये प्रतिपक्षी अपनी जय-पराजयके लिये न्याय-युक्तिको कसौटी प्रारंभादि सावध क्रिया करनी पड़ती है तब भक्तिसे पाप पर अपने सिद्धान्त कसने लगे, तब वीर-शासनको न्याय-तर्क- ही पुण्यके बदले मिलेगा ? इस शंकाका समाधान समन्तकी कसौटी पर कसनेके लिये महान् तार्किक योगियोंका भद्र स्वयं सुन्दर दृष्टान्त देकर करते हैं- . उदय हुआ। समन्तभद्रस्वामी इसी तर्क युगके प्रवर्तक पूज्यं जिनं त्वार्चयतो जनस्य सावधलेशो बहुपुण्यराशौ। कहे जाते हैं। कुन्दकुन्दसे कार्तिकेय तक अध्यात्मरहस्य दोषायनालं कणिकाविषस्य न दृषिका शीतशिवाम खोलना ही मुख्य उद्देश्य था। सूत्र युगमें सूत्रों-द्वारा जिन- यह वाक्य जब अंत:करणको स्पर्श करता है तब शासनको बांधकर प्रभावना करना उद्देश्य था। इसके अनन्तर भगवचरणाविंदमें अपना मस्तक सहज ही नत हो जाता है। न्याय-तर्क-युक्ति-भागमकी कमौटी पर पूर्व परम्पराको बाधा समन्तभद्र कहते हैं कि जिनोंकी भक्तिका जिनोंके लिये कुछ न पहुंचाते हुए वीरशासनको प्रभावना करनेका काल पाया। प्रयोजन नहीं क्योंकि वे स्वयं वीतरागी हो गये हैं। और यह काल स्वमतोंकी भेरी बजाकर और अन्य वादियोंको न निन्दाका ही कुछ प्रयोजन है, क्योंकि वे 'विवान्तवैर' हो आह्वान देकर वाद-विवाद में उन्हें परास्त करनेका था । इसी चुके हैं। प्रयोजन तो स्वयं साधकके लिये अनिवार्य है। 'पुण्ययुगके प्रवर्तक स्वामी समन्तभद्र होनेसे इनके लिये भी अपनी गुण-स्मृति' ही साधकके चित्तका दुरित-पाप धो सकती है। मेरी बजाना अनिवार्य और आवश्यक हो गया । इस स्तोत्रकी दूसरी एक खास विशेषता यह है कि [अब पहले समन्तभद्रकृत उपलब्ध कृतियोंका विषय परिचय स्तोत्र द्वारा जैसे स्वाद्वाद-अनेकान्तका तत्त्व दिखलाया है, संक्षेपमें दिया जाता है। उसी तरह अपने चरित्र पर कुछ प्रकाश डालने वाले शब्दोंका समन्तभद्र कृत उपलब्ध ग्रंथ और विषय परिचय उपयोग भी किया गया है। यहां उसके कुछ प्रमाण दिये जाते हैं। १. समन्तभद्र स्तोत्र या चतुर्विशतिस्तुतिमय स्वयंभू स्तोत्र । 1. आदिनाथ-स्तुतिके तीसरे श्लोकमें 'भस्मसारिक्रयाम्' १. देवागमस्तोत्र या प्राप्तमीमांसा का उपयोग। ३. जिनशतक या स्तुतिविद्या । २. संभव-स्तुतिमें-'रोगे: संतप्यमानस्य' और वैद्यकी ४. युक्त्यनुशासन या वीरजिनस्तोत्र। उपमा 'जिन' को देना। ५. रत्नकरण्डश्रावकाचार या समीचीनधर्मशास्त्र । ३. 'व्याहूतचन्द्रप्रभः' के समान चन्द्रप्रभ-स्तोत्रका दूसरा स्वयंभूस्तोत्र ('साधकोंका नदादीप') श्लोक। स्वयंभूस्तोत्रमें आदिजिनसे लेकर वाजिन तक क्रमश: ४. पार्श्वनाथस्तोत्रमें-तमाल-नील ( कृष्णा नदी ) स्तुति की गई है। यह स्तुतिधारा केवल भकिका रूप लेकर भीमाका उल्लेख जो जन्मस्थल है। और 'फणामंडल' ही नहीं बहता, बल्कि भकिक आवरणमंस स्यादवाद- 'नाग' 'वनौकस' जो उनका पितृदेश था। चन्नप्रभस्तुतिके अनेकाम्तत्वका दिव्य तेज भी प्रवाहित हो रहा है । जीवनकी समयतो प्रसिद्ध हो व्याहृतचन्द्रप्रभ: वचन है। इन्हें बंधविशिष्ट घटनाके समय अपनी दृढ श्रद्धा प्रगट करना केवल रचना और कविता-कुशलनाकी ऋद्धि प्राप्त थी। प्रत्येक आवश्यक ही नहीं किन्तु अनिवार्य हो गया, तब इस ग्रन्थमें स्तुतिका पुट देकर साथमें तत्त्वकी बुनाई की गई है। महान् स्तोत्रकी निर्मिति हुई है। उनकी आत्मा बाह्यविरोधी और खास ध्यान इस बात पर जाता है कि व्याधिमुक्त शत्रिका प्राबल्य रहने पर भी जिनस्तुतिरसमें इतनी गहरी आनन्दसे इस स्तोत्र के अंतमें 'मे, मम, माश, मद्य, मयी अनुभूति ले रही थी कि उनकी वाणी सरस्वतीको स्वच्छन्द प्रादि शब्दों द्वारा वर, अनुग्रह, कृपा मांगी है। विहारभूमि बन गई। और फिर वही भद्र-वाणी स्वय स्फूर्त पू.५० जुगलकिशोर जीके शब्दोंमें 'यह ग्रंथ स्तोत्रकी होकर शब्दब्रह्म बन गई । वह स्वयंभू-स्तोत्र स्वयंभू नामके पद्धतिको लिये हुए है, इसमें वृषभादि जिनोंको स्तुति की समान अबाधित रहा प्रभाचन्द्राचार्यके शब्दोंमें यह स्तोत्र गई है, परन्तु यह कोरा स्तोत्र नहीं, इसमे स्तुतिके बहाने 'निःशेषजिनोक्तधर्म' है, 'असम' अद्वितीय स्तोत्र है। यह जैनागमका मार एवं तत्वज्ञान कूट कूट कर भरा हुआ है।" Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८] अनेकान्त । वर्ष १३ प्राप्रमीमांसा (न्यायको नीव) जायगी। सर्वथा अवाच्यतत्व ही वाच्यके विना असम्भव ग्रंथका नाम अन्वर्थसंज्ञक है। आईत्-माप्तकी मीमांसा ख-पुष्पके समान है। प्रत्यभिज्ञानसे नित्यसिद्धि और कालसई, युक्ति, पागम, परम्पराकी कसौटी पर की गई है। मेदसे अनित्यसिद्धि दिखलाकर एक वस्तुकी एक समयमें इसीसे समंतभद्र 'परीक्षेषण तथा बड़े कठोर परीक्षाप्रधानी होनेवाली उत्पाद-व्यय-प्रौव्य रूप तीन अवस्थाओंका वर्णन तार्किक कहे जाते थे। कोरी श्रद्धा जब विरोधी आंदोलनमें करके 'घट-मौलि-सुवर्णार्थी' तथा 'पयोवती' के सुन्दर और अंधश्रद्धाका रूप लेने लगी तब इन्होंने श्रद्धाको कसनेके सुयोग्य दृष्टान्तसे समझाया है। लिये युक्ति-व्यायका सहारा लिया था। सर्वथा भेदवादी वैशेषिक जो कार्य-कारण, गुण-गुणी, ___ महावीर प्राप्तकी महानता-विषयक जब शंका उठाई सामान्य-विशेष, अवयव-अवयवी, प्राश्रय-माथ्यो ये सब गई तभी इन्होंने उनकी प्राप्त-विषयक महानताका मूल्यांकन सर्वथा भिक मानकर समवायसे एक मानते हैं इनका, परमाणु मार्मिक, महत्वपूर्ण, और युक्ति-न्यायसंगत वचनोंके द्वारा नित्य कथनका, कार्य-कारणका तादात्म्य मानने वाले सांख्योंका किया । इन्होंने कहा कि दोषावरणयोहानिनिःशेषा निराकरण एक सुन्दर कारिकाके द्वारा करके स्वमतकी सिद्धि स्त्यतिशायनात्' । यही एक हेतु सर्वज्ञता सिद्ध करनेमें की है। यह कारिका तो मानो प्राप्तमीमांसाका ६ वपद ही पर्याप्त है। संसारमें कोई आदमी सर्वज्ञ नहीं था, हो सकता 'विरोधान्नोभयकात्म्यं स्याद्वादन्यायविद्विषाम् । नहीं और नहीं है, ऐसा कहने वाले मीमांसकादि मतों और अवाच्यतैकान्तेप्यक्ति वाच्यमिति युज्यते । भाव एकांतवादी सांख्य, जो सर्वथा भावतत्वका हठ लेकर सारे ग्रन्थमें कमसे कम १०१२ बार इसी कारिका प्रभावको छिपाना चाहते हैं, सर्वथा एकांतवादी पर्यायनिष्ठ द्वारा उभय और अवाच्यता एकांतका निराकरण किया है। बौद्ध आदि सबकी बड़ी तकठोर मीमांसा करके उनका अन्तमें अनेकान्तका सुन्दर और परिष्कृत स्वरूप दिखनिराकरण किया है। प्राग-प्रध्वंस-अन्योन्य-अन्यंत इन चार प्रभावोंका समर्थन सप्तभंगी न्याय-द्वारा करके श्राप वीरको द्रव्य-पर्यायोरक्यं तयोरव्यतिरेकता। जतला रहे हैं कि 'न च कश्चित् विरोधोऽस्ति मुनीन्द्र तव शासने । सप्तभंगी न्यायसे वीरशासन समृद्ध है। परिणाविशेषाच्च शक्तिमच्छक्तिभावतः ।। पद्धत एकांतवादी वेदांतिक, जो ब्रह्म प्रत मानते हैं. संज्ञा-संख्या-विशेषाच्च स्वलक्षण विशेषतः । और शब्दाद्वैतवादी संवेदनाद्वैतवादी बौद्ध, इनका निरा- प्रयोजनादि-भेदाच्च तन्नानात्वं न सर्वथा ॥ करण बड़ी खूबीके साथ 'अद्वैतं न विना द्वैतात् अहे- द्रव्य और पर्याय कथंचित् एक हैं, सर्वथा भिन्न नहीं, तरिव हेतुना'-अद्वैततके विना रहता ही नहीं, इसमें परिणाम, मंज्ञा, संख्या, विशेष प्रादि हैं। इस प्रकार इत्यादि वाक्योंके द्वारा किया है और साथ ही यह विविध मतोंका खण्डन करके अन्तरङ्ग-बहिरंग तत्त्व, देवप्रतिपादन किया है कि यदि सर्वथा अत का हठ लिया भी पुरुषार्थ, पुण्य-पाप-मानवको मिद्धि कथंचित् अनेकान्तजाय तो बंध-मोक्ष, कर्म-फल, लोक-परलोक विद्या-अविद्या द्वारा की गयी है। और अन्तमें नयोंकी सार्थकता आदि की सारी व्यवस्था झूठ ठहरेगी। इतनी संक्षेपमें तथा योग्य शब्दों द्वारा बतलायी गयी है कि यदि मर्वथा दतवादी, पृथक्त्व एकांत वादी-नैयायिक- एकांतवादियोंकी सारी गुस्थियाँ सहजही सुलझ गई हैं। वैशेषिक और बौद्धका हठ पूरा किया जाय तो उन्हींके जैसे किसम्मत सन्तान-समुदायके लोपका प्रसंग भाजायगा। अपेक्षा तथा निरपेक्षाः नयाः मिथ्या,सापेक्षा वस्तु तेऽर्थकृत् ।' अनपेचा कथञ्चित् है । पारमा सर्वथा कूटस्थनित्य है ऐमा सांख्य, सापेक्ष नयोंका, स्याद्वादका इतना सुक्ष्म सुन्दर, परिका हठ लिया जाय तो पुण्य-पाप, बंध-मोक्ष, इह-परलोक मार्जित, और मार्मिक वर्णन कहीं भी नहीं मिलेगा। कुछ नहीं बन सकेगा। सर्वथा अनित्य पर्यायवादी बौद्धका इस ग्रन्थको प्रत्येक कारिका सूत्रके समान अर्थ-गौरवसे एकान्त मानेमें हिंस्य-हिंसक और सन्तानक्रम बिगड़ जाते हैं। ठोस भरी है। क्योंकि भागे विद्यानन्द-अकलंक वसुनन्दी उनकी विकल्पोंकी चतुष्कोटि कल्पना भी हवामें उढ़ प्राचार्योंके द्वारा प्रष्टसहस्री, अष्टशती, वृत्ति लिखी जाने पर Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ११-१२ श्री कुन्दकुन्द और समन्तभद्रका तुलनात्मक अध्ययन २६९ - - भी यह अन्य दुरूह, दुर्बोध बना हुआ है। मईत् प्राप्तकी किसी खास विषपकी रचना करना एक सम्मान गौरवकी । मीमांसा करने पर अन्तमें महत् ही प्राप्त सिद्ध होते हैं। बात हो गई थी। भर्तृहरि जैसे महा कवियोंके नीति शतक अर्हत्के सिवाय और कोई सर्वज्ञ सिद्ध नहीं हो सकता। आदि प्रसिद्ध ही हैं। समन्तभदने भी जिनशतकके बहाने समन्तभद्रकी परीक्षाप्रधान-दृष्टिमें महत् सर्वज्ञ सिद्ध होने जि स्तुति की है । मुरजादि चक्रबंधकी रचनासे इसमें पर इन्होंने उस प्राप्तपणोत शासनको हो निर्दोष तथा सत्य चित्रकाव्यका पाण्डित्य चमक उठा है। सारे कान्यकी अंतबतलाया है। और उसका ही 'युक्त्यनुशासन' ग्रन्थके बर्बाह्य-कला इसमें फूट-फूट करके बह रही है । इसमें भावद्वारा विस्तृत विवेचन किया है। सौंदर्य तथा उपसे भी अधिक रचना-कौशल एवं चित्रयुक्त्यनुशासन (वीरका सर्वोदयतीर्थ ) काव्यालंकार भरा हुमा हे। स्वयम्भू स्तोत्रके समान चौबीसमहावीरकी स्तुतिका पुट लेकर स्याद्वाद-अनेकान्तकी जिनोंकी स्तुनि इसमें की गई है। पर यह कोरी अलङ्कार सिद्धिर्मित यह स्तोत्र है। इसमें वीरशासनका बड़ी प्रधान स्तुति नहीं है, बल्कि तत्वज्ञानसे परिष्कृत है, काव्ययुनिसे मण्डन तथा वीर-विरुबू-मतोंका खण्डन किया गया से सुशोभित हैं और बीच-बीच में परमतोंका खण्डत तथा है । ग्रन्थके केवल ६४ पद्योंमें सारा जिनशामन भर कर समन्त-सिद्धि को भी लिए हुए हैं। 'गागरमें सागर' की उनि चरितार्थ की गई है। प्रत्येक पथ इस प्रकार यह पद्यबद्ध बंधरचना एक विशिष्ट विद्वत्ता अर्थ-गौरव-पूर्ण है। युक्ति-न्याय-द्वारा किया गया अन्यमतका पांडित्य एवं विविध-कला-कुशलताकी घोतक है। कहा जाता निराकरण मार्मिक तथा यथार्थ हुआ है। इसीलिये इनके वचन है कि यंत्रबद्ध रचनासे विशिष्टशक्रि प्राप्त होती है। शायद मुक्कामणिसे वीरशासनका मूल्य हजार गुना बढ़ जाता है। वह शनि प्रगटानेके लिए ही इस अमूल्य कृतिको निर्मिति समन्तभद्र 'युक्त्यनुशासन' शब्दका स्पष्टीकरण अपने हई हो। ही शब्दों में इस प्रकार कर रहे हैं : रत्नकरण्डश्रावकाचार-समन्तभद्रकी श्रावकधर्मको 'दृष्टागमाभ्यामविरुद्ध मथे प्ररूपणं युक्त्यनुशासनं ते' एक बड़ी ही मूल्यवान देन है। इस रत्नके प्रत्यक्ष और पागमसे अविरोधरूप जो अर्थका अर्थसे करण्डमें श्रावकोंका सारा भाचार संनिहित है। कुन्दनिरूपण है वही युक्त्यनुशामसन है । इस प्रन्धमें मुख्यतः कुन्दसे उमास्वामी तककी श्रावक धर्मकी परम्परा इन्हींके भौतिकवादी चार्वाकोंका निराकरण बड़ी कठोर आलोचना करके द्वारा निर्बाव एवं प्रखण्ड रखी गई है। इसीसे यह प्रक्षकिया है । माथमें वैशेषिक, सांरूप, बौद्ध, नैय्यायिक, वैदिक व्यसुखावह' ग्रंथ कहा गया है । धर्मको परिभाषा, सत्यदेव आदि दर्शनोंका निराकरण बड़ी खूबीके माथ करके अनेकांत- गुरु-शास्त्र, आठ अंग, तीन मूढता, मदोंका निराकरण, स्याद्वादकी सिद्धि की है। एकान्तवादी, कदाग्रहो जब वीर- सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र, अनुयोगोंका स्वरूप, मयुक्रिक चारिशासनको समदृष्टि से देखेंगे तब तुरन्त ही वे खण्डित मान- की आवश्यकता, श्रावकयतोके अतिचार, ११ प्रतिमाओं ऋा होकर उनकी अ-भद्रता शीघ्र ही स-मंतभद्रताके रूपमें तथा सल्लेखनाका इतना सुन्दर और परिमार्जित वर्णन बदल जायगी। वीर-जिनका शामन सभी एकान्तबादी अन्यत्र कहीं भी नहीं मिलता। इसकी खास विशेषता यह है अन्तोंका-धोका-उदय करने वाला सर्वोदय तीर्थ है। कि श्रावकोंके अष्टमूलगुणोंका सर्वप्रथम वर्णन इसीमें अन्धके अन्तिम श्लोकमें इस स्तोत्रका उद्देश्य कहा है मिलता है, तथा इसीमें अहत्पूजनको वैयावृत्यके अन्तर्गत कि इस ग्रन्थकी निर्मिति न राग से हो रही है, और न द्वेष किया गया है। पूजनको श्रावकवतोंमें गर्भित करनेवाले से; किंतु जो लोग न्याय-अन्यायको पहचानना चाहते हैं, ये ही पहले प्राचार्य है। दूसरी खास विशेषता यह है कि वस्तु स्वरूपका गुण-दोष जानना चाहते हैं उनके लिये यह पंचाणुव्रतों पांचपापों तथा चार दानों एवं पूजनमें प्रसिद्धि पाने स्तोत्र खास तौर पर हितान्वेषणके उपाय स्वरूप है। वाले व्यकियोंका नामोल्लेख इन्होंने किया है। और तीसरी स्तुति-विद्या ('स्तोत्रसाहित्यकी चरमसीमा') एक विशेषता यह है कि इन्होंने गृहस्थोंका दर्जा बढ़ाया है स्तुतिविद्या या जिन शतक चित्रकाव्य तथा बंधरचना- मोही मुनिसे निर्मोही श्रावककी श्रेष्ठता घोषित की है। कौशल्यकी एक बड़ी देन है। उस समय चित्रकाव्य तथा श्रावकधर्म पर इतना मार्मिक एवं सुन्दर विश्लेषण स्वतन्त्र शतकोंका उदय हो रहा था । स्तोत्र शतक-सौश्लोकमें ग्रन्थमें दिखलानेवाले सबसे पहले ये ही प्राचार्य गए हैं। Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३००] अनेकान्त [वर्ष ३ यह ग्रन्थ मानों श्रावक धर्मको प्रकाशित करने वाला तेजस्वी कुन्दकुन्दने 'प्रात्मा जाननेसे सब जाना जाता है। कहा है। पर प्रात्मा का जाना जायगा? वे स्वयं इसकी तालिका समन्तभद्र के अन्योंकी एक खास विशेषता यह दिखती देते हैं, जैसे किहै कि अपने सभी प्रन्योंके इन्होंने दो दो नाम दिये हैं। जो जाणदि अरहंतं दव्यत्त-गुणत्त-पज्जयत्तहिं । एक प्रायः प्रन्यारम्भमें उल्लिखित और दूसरा ग्रन्थके मुख्य सो जाणदि अप्पाणं मोहं खलु जादि तस्स लयं ॥ विषयानुसार-अन्वर्थसंज्ञक । जैसा कि लेखके प्रारम्भमें बताया -प्रवचनसार ८०॥ गया है। कुन्दकुन्दने प्रात्माकी सर्वज्ञता सिद्ध करके नित्यवादी दोनों आचार्यों के सामान्य विषय और विशेषता सांख्य और क्षणिकवादी सुगतोंका खण्डन किया है। संसारमें अवयव-समानता तथा मनुष्यजन्म पानेसे सभी पात्मन्यकी सिद्धि पर्याय तथा द्रव्यसे की गई है। इसके बलावा समन्तभदने जो प्रान्मा अर्हत् बन चुकी है उसीमें मनुष्यों के लिए एक ही मनुष्यसंज्ञा है । परन्तु सारे मनुष्योंमें प्राप्तस्वकी-सर्वज्ञत्वको सिद्धि की है। अरहतके सिवाय और से प्रत्येकका व्यक्तित्व पहचाननेवाली मूरत अलग अलग दूसरेकी सर्वज्ञता मिद्ध ही नहीं हो सकती, वही सर्वज्ञ हैही होती है । अभिन्नत्वमें भिमस्वकी विद्यमानता तथा इस तरहको सिंहगर्जना अपने सारे स्तुतिप्रन्थों में की है। ये भिवत्वमें अभिन्नत्वका अस्तित्व ही अनेकान्त-स्याद्वाद धर्म कहलाता है सामान्य दृष्टिसे हमारे दोनों प्राचार्योने जिन प्रखर तार्किक, प्रचण्डवादी तथा प्रकांड वाग्मी थे। उन्होंने शासनका ही प्रतिपादन किया है। किन्तु अपनी-अपनी विशेष स्थान-स्थान पर भ्रमण करके प्रहदविना अन्यको प्राप्तकी मान्यता देनेवाले सब वादि-प्रतिवादियोंको-परास्त किया है। ता लेकर । क्योंकि दोनोंका समय, परिस्थिति, समाजको एक बात पर गलत धारणा है कि देव तथा अरंहतके माँग और व्यक्तित्व, रुचि अलग अलग थी। इतना होने पर लिये 'पास' शब्दका व्यवहार सबसे प्रथम समन्तभद्रने ही भी दोनोंका विषय परस्पर विरोधी तथा एक ही सूत्रमें किया है। इस तरह पं० कैलाशचन्द्र शास्त्रीने प्राप्तपरीक्षाबैंधा हुआ है। समन्तभद्रने प्राय: कुन्दकुन्दका ही तत्व कहीं के प्राक्कथनमें पृष्ट ६ पर लिखा है। परन्तु कुन्दकुन्दने भी विस्तारसे कहीं संक्षेपसे बतलाया है। अरहंत तथा देवके लिए 'अत्तागमतचाणं' जैसे पद-द्वारा यहाँ पर ऐसे ही चुने हुए कुछ सामान्य विषयों पर प्राप्त शब्दका व्यवहार नियमसार की श्वीं गथामें किया है। परस्पर विशेषता दिखलानेको चेष्टा की जायेगी: अन्य स्थल पर भी उनके द्वारा 'प्राप्त' शब्दका व्या. १.सर्वज्ञसिद्धि या परमात्मसिद्धि-यह दोनों ही हार किया गया है। बाकी दोनोंको सर्वज्ञता और निर्दोषना प्राचार्योका विषय और उद्देश्य था। भ० कुन्दकुन्दके समय कर्मोसे रहित ही मान्य है। तर्क तथा न्यायको आवश्यकता इतनी नहीं थी । अहत्श्रद्धा २. रत्नत्रय-निरूपण-व्यवहार तथा निश्चय रत्नअनुभूति तथा निजभावनासे सर्वज्ञता सिद्ध हो जाती थी। . ता था। अयका निरूपण दोनों प्राचार्योने किया है। परन्तु कुदकुदसर्वज्ञता परमात्मत्वको चरमावस्था है। बहिरात्म-अवस्थासे उठी का विषय आध्यात्मिक तथा सैद्धांतिक होनेस निश्चय रत्नकर अन्तरात्मोन्मुख बनके जीव परमात्माका अवलोकन कर प्रय पर ही अधिक जोर दिया गया है। सभी सारग्रन्थों, सकता है । कुन्दकुन्दके समय 'जो एगं जाणइ सो सव्वं प्राकृत ग्रंथों पंचास्तिकाय आदिमें इसीकी गहरी छाया है । जाणई' अर्थात् जो एक पारमाको जानता है वह सब कुछ कुछ इसके अलावा समन्तभद्रके सारे ग्रंथ श्रावकधर्म और जाननम समथ ह-इत्यादि वचन सवज्ञता-साधक थ। अरहतभक्रिकी प्रधानता लेकर हैं। इसलिये जहाँ तहाँ परन्तु तर्क युगमें इन वचनोंका जैसा चाहिये वैसा उपयोग स्यांग व्यवहार रत्नत्रयका निरूपण है। नहीं हुआ। समन्तभद्रने सर्वज्ञता-सिद्धिके लिये सुन्दर कुदकुदने निश्चय रत्नत्रयका निरूपण करनेके लिये हेतुको योजना अपनी प्रासमीमासामें की है। भारमतत्वको केन्द्रबिन्दु बनाया। आत्मतत्व पर श्रद्धा 'दर्शन' सक्ष्मान्तरित-दरार्था प्रत्यक्षाः कस्यचिद्यथा है, प्रारमतवको द्रव्य-पर्यायसे जानना ज्ञान है और प्रात्मामें अनमेयत्वतोऽग्न्यादिरिति सर्वज्ञसंस्थितिः॥शा स्थिर होना चारित्र' कहा है। व्यवहाररत्नत्रयका निरूपण भनुमानसे सर्वशसिद्धि करना इस युगकी विशेषताथी। ये एक गाथामें करते हैं: Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ११-१२] श्री कुन्दकुन्द और समन्तमद्रका तुलनात्मक अध्ययन [३०१ 'जीवादी सदहणं सम्मतं, तेसिमधिगमो णाणं। इन्होंने खास तौर पर जैनदर्शनमें न्यायका प्रतिष्ठापन किया रायादिपरिहरणं चरणं एसो दु मोक्खपहो॥ है। तथा सप्तभगोको स्थिर बनाकर दर्शनशास्त्रकी प्रत्येक समय० १३४। दिशामें उसका व्यावहारिक उपयोग किया है। प्रमाणका ये लक्षण समन्तभद्रके लक्षणोंसे मिलते-जुलते हैं। दार्शनिक लक्षण तण फल बतलाया, श्रुतप्रमाणको स्याद्पर एक बात पर ध्यान अवश्य जाता है कि जहाँ ददने वाद कहा तथा उसके अंशको नय । सम्यक्-सुनयों तथा नियमसारमें प्राप्त-भागम-तत्व इन तीनोंके दासको मिथ्या-दुर्नयों की व्यवस्था की है। इन्होंने स्पष्ट कह दिया सम्यग्दर्शन कहा है वहां समन्तभदने तत्वके लिये तपोभृत्- है कि अनेकान्त भी एकान्तयुक्त हान गुरुको कहा है। [दोनों गाथाएँ भागे असमान सूची में देखो] सर्वथा अनेकान्त होकर व्यभिचरित होगा। कन्दकन्दने निश्चय नत्रयका निरूपण विस्ता कुन्दकुन्दके समय तक प्रणाली या न्यायशास्त्रका है, इसकी प्राप्ति ही जीवका उद्देश्य बतलाया है। परंतु इतना विकास नहीं हुआ था, तो भी समंतभद्रकी प्राप्त समंतभद्ने व्यवहार रत्नत्रयका निरूपण विस्तारसे किया मीमांसा प्रायः कुन्दकुन्दकृत श्रीर प्रवचनसार की नींव पर है। निश्चयका निरूपण समंतभद्रके ग्रंथों में नहीं के बराबर है। ही खड़ी है । उन्हींकी समभूमि पर ही समंतभद्र प्रत्येक कुन्दकुन्दके निश्चयरत्नत्रयके स्वतंत्र ग्रंथ प्राभूतत्रय कहे जाते तत्त्वको न्यायकी तुलामें तोलते हैं। प्रमाणसे अबाधित प्राप्त हैं । किंतु दोनोंका लक्ष्य रत्नत्रयकी प्राप्ति होने पर भी रुचि को ठीक-ठीक सिद्धि करके उन्होंने शेष सारे प्राप्तोंकी प्रमाणभिन्नतासे ग्रन्थमें मुख्य-गौणता विषयकी करदी गई है। बाकी बाधा दिखलाई है। कुछ मेद नहीं दिखता। ४. सप्तभंगी. अनेकान्त या स्याद्वाद तथा नय३. न्यायकी झलक तथा उपयोग-कुन्दकुन्द के पहले इन सबकी देन समंतभद्रको कुन्दकुन्दसे मिल चुकी है। तत्त्वचर्चा तथा वाद-विवाद अवश्यही होते थे और उनमें कुन्दकुन्द द्वारा प्रतिपादित सप्तभंगीका विस्तार ही समन्तभद्रयुक्ति-भागम तथा परम्पराका उपयोग किया जाता था। ने अपने स्तोत्र-मथों में किया है। अर्हत्-जिनोंकी स्तुति भी परन्तु खास युकि न्याय-शास्त्र पर स्वतन्त्र रचना नहींके स्याद्वादसे गुम्फित है। परन्तु सप्तभंगोका उल्लेख कुन्दकुन्दके समान थी। श्री कुन्दकुन्टके प्रवचनसार जैसे सैद्धान्तिक प्रवचनसार और पंचास्तिकायोंमें संक्षेप में ही पाया जाता है। ग्रंथों तक युक्रिपूर्ण दार्शनिकताकी झांकी स्पष्ट है। परन्तु यथाउसमें प्रत्यक्ष और परोक्ष दो प्रमाणके भेद पाये जाते हैं अत्थि त्ति य णत्थि त्तिय हवदि अवत्तव्व मदि पुणो दव्वं तथा सप्तभंगीका निरूपण संक्षेपसे पाया जाता है। पर पजजायेण दु केण वि तदुभयमादिठ्ठमण्णं वा॥ न्यायशास्त्रकी हेतु अनुमानादिकके रूपसे प्रगति नहीं हुई थी। प्रव०२.२३ उमास्वामीकी कड़ीने कुन्दकुन्द तथा समन्तभद्रकी शृङला सिय अस्थि णत्थि उहयं श्रवत्तव्वं पुणो य तत्तिदयं । सावी थी, उमास्वामीने न्यायोपयोगी सामग्री तथा सप्तनयों- दव्वं खु सत्तभंगं आदेसवसेण संभवदि ।।पंचा०१४ की निर्मिति को है। प्रश्नके अनुसार वस्तुमें प्रमाणाविरोधि विधि-प्रतिषेधकी उमास्वामीके अनन्तर समंतभद्ने सबसे पहले 'न्याय' कल्पनाको सप्तभंगी कहते हैं। प्रागमनथोंमें 'सिय अस्थि, शब्दका व्यवहार किया तथा न्याय-अथ लिखा है। प्राप्तकी मियणत्थि, सिय प्रवत्तव' रूपसे तीन ही भंगोंका निर्देश स्तुतिके बहाने अद्वैतवाद, नित्यएकांतवाद, भेद एकांतवाद है। सर्वप्रथम प्राचार्य कुदकुदके ग्रंथोंमें हमें सात भंगोंके तथा अभेदएकांतवाद प्रादि सभी एकांतवादियोंकी बड़ी कड़ी दर्शन होते हैं । वस्तुतत्त्व अखंड, अनिर्वचनीय तथा अनंतबालोचना करके युकि न्यायसे अनेकातिवादको स्थापना तथा धर्मा है। इस स्थितिके अनुसार अस्ति, नास्ति तथा प्रवक्तव्य उपेयतत्त्वके साथ-साथ उपायतत्व पागम और हेतुमें अने- ये तीन ही मूलभंग हो सकते हैं, अागेके भंग तो वस्तुत: कोई कांत गूंथकर स्यादवादको स्थिर किया है। उस समय स्वतंत्र भंग नहीं है । कार्मिक भंगजालकी तरह द्विसंयोगी आगम हेतुसे सर्वथा अलग होगया होगा। इसीसे समंतभद्र- रूपसे तृतीय, पंचम तथा षष्ठ भंगका आविर्भाव हुआ तथा को हेतुवादकी कसौटी पर प्राप्तको कसना पड़ा। सप्तमभंगका त्रिसंयोगीके रूपमें । तीन मूल भंगोंके अपुनुरुक जैन न्यायकी जड़ तो समन्तभद्रसे ही शुरू होती है। भंग सात ही हो सकते हैं। इसीका विस्तार समन्तभद्रने Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२] अनेकान्त [वर्ष १३ प्राप्तमीमांसा किया है। हाँ, यह ठीक है कि जहाँ समंतभद्र- इस प्रकार सापेक्षवादकी घोषणा समन्तभद्रने की है। ने इसका स्पष्ट रूपसे विद वर्णन किया है वहाँ कुदकुदने पर हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि यह सारा वृक्ष विस्तार केवल उनके नामोंका ही निर्देश किया है। कुन्दकुन्दके बीजांकुरसे ही हुआ है। अनेकान्तके बारेमें समन्तभदने सिंहके समान गर्जना ५. चारित्र-रत्नत्रयके सिवाय चारित्र पर भी दोनों करके कह दिया है कि सर्वथा एकांती ही स्व-पर बैरी हैं :- पाचर्योंने काफी प्रकाश डाला है। चारित्र संपन्न ही मनुष्य 'एकान्तमहरकतेषु नाथ स्व-पर-वरिष धीर-शासनका अधिकारी हो सकता है। चारित्रके दो भेद प्रत्येक वस्तुमें अनेक अंत-धर्म होते हैं । वस्तुका स्वभाव दोनों प्राचार्यों द्वारा मान्य हैं एक सकलचारित्र अथवा तर्कका विषय नहीं, 'स्वभावोऽतर्कगोचरः' ऐसा प्राप्तमी मुनिचारित्र दूसरा देशचारित्र अथवा श्रावकचारित्र । कुन्दमांसामें कहा है। उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य तीनोंका अविनाभाव कुन्दके सभी ग्रन्थों में मुनिचारित्रका विस्तार है। प्रवचनसारका कुन्दकुन्दने कहा है,समंतभद्रने पृथक्-पृथक् एक-अनेक, नित्य- एक . एक खास अधिकार, नियममार, चारित्रभकि, चारित्रपाहुड अनित्य, भाव-भावके रूपसे अनेकांतवादको बतलाया है। -सबमें प्रधाननया मुनिचारित्रकी सभी छोटी बड़ी बातें दोनोंका उद्देश्य वस्तुस्वरूप कहना ही है-केवल दोनोंके कही है। कहनेका तरीका भिन्न ज्ञात होना है। तत्त्वके लिए कुदकुद समन्तभद्रके ग्रन्थोंमें मुनिचारित्रका व्यवस्थित निरूपण द्रव्य शब्दका व्यवहार करते हैं। और अस्ति-नास्ति रूपसे नहींके बराबर है, यो सांकेतिक एवं सूचना रूपमें उन्होंने उसकी सिन्द्वि करते हैं समन्तभद्र तत्त्वका विधि-निषेध स्वयम्भूस्तोत्रमें बहुत कुछ कह दिया है। जैसे कि उसकी रूपसे प्रतिपादन करते हैं इस तरह केवल कहनेका तरीका प्रस्तावनामें मुख्तार श्रीजुगलकिशोरजीके द्वारा विश्लेषित मिस है । कुदकुद तत्वका स्वरूप कहते समय भूतार्थ करके रक्खे हुए 'कर्मयोग' प्रकरणसे जाना जाता है। अभूतार्थ और द्रव्य-पर्यायका उपयोग करते हैं। पर समन्तभद्र उन्होंने श्रावकधर्म पर एक स्वतंत्र ग्रन्थ निर्माण किया । उसे सामान्य-विशेष, विवक्षित अविदित, मुख्य-गौण और क्योंकि यह उस समयकी एक मांग थी। कुन्दकुन्दके समय अर्पित-अनपित शब्दों द्वारा कहते हैं। कुदकुदके प्रथमें लोगोंका झुकाव मुनिप्रवृत्तिको और अधिक होगा। शायद बार बार निश्चय तथा व्यवहारका उपयोग मिलेगा। मुनिचारित्रको स्थिर और अचल बनानेके लिये ही उन्हें समंतभद्र उसीके लिये भेद-अभेद कहते हैं। तस्व स्याद्वाद मुनिधर्म विस्तारसे कहना पड़ा। ही है-अनेकान्त रूप ही है यह बात समंतभद्ने अपनी समंतभद्रके समयमें वादियोंका स्वमतकी स्थापना स्तुतियोंमें सिंहनादके साथ कही है। इस प्रकार दोनों तथा उसे सुरढ़ बनानेका आंदोलन चला था। मुनिप्रवृत्ति आचार्यों में सप्तभंगी-स्याद्वाद-अनेकांतकी सिद्धि करते समय शिथिलाचारी बनने लगी थी। और सबसे पहले श्रावकधर्मअपनी-अपनी खास विशेषता है, पर यह विशेषता एक दूसरेकी की आवश्यकता ज्ञात होने लगो । समंतभद्रको श्रावकधर्मका विरोधी नहीं। नवोन्मेष-पुनरुज्जीवन करना पड़ा। इसके अलावा मुनि-श्रमण सापेक्ष नयोंको सार्थकता समंतभद्रने इतनी सयुनिक धर्मकी स्थिरता तथा प्रभावना कुन्दकुन्दने की है। मार्गतथा यथार्थ कही है कि निरपेक्ष नयोंका कदाग्रह रखने वाली प्रभावना उनका लचा था तो भी श्रावकधर्मका निरूपण वृत्ति समूल नष्ट हो जाती है । उन्होंने कहा है कि कुन्दकुन्दके चारित्रपाहुड और भावपाहुडमें मिलता है। कुछ नौपचारिक भेद दोनोंके निरूपणमें है । कुन्दकुन्द बारह 'मिथोऽनपेक्षाः नयाः स्व-पर प्रणाशिनः ।' व्रतोंका पालन करने वालोंके लिए 'श्रावक संज्ञा देते हैं'परस्परेक्षा नयाः स्वपरोपकारिणः।।' पञ्चवणुव्वयाइं गुणवयाइं हवन्ति तह तिरिण । स्व-पर-नाश तथा स्व-पर-उपकारके सिवाय हानि- सिक्खावय चत्तरिसंजमचरणंच सायारं। चारित्र पा०२३ उन्हान स्पष्ट कह दिया है कि समन्तभद्र अष्टमूलगुणोंका पालन करनेवालेको 'श्रावक' अनेकांत भी यदि एकांत-निरपेक्ष हो तो वह मिथ्या ही है- कहते हैं अनेकान्तोऽप्यनेकान्तः प्रमाण-नय-साधनः। मद्यमांसमधुत्यागैः सहाणुव्रतपंचकम् । अनेकान्तः प्रमाणात्ते तदेकान्तोऽपितानयात् ।। अष्टौ मूलगुणानाहुगृहिणां श्रमणोत्तमाः ।।रत्न० ६६ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष १३ श्री कुन्दकुन्द और समन्तभद्रका तुलनात्मक अध्ययन [३०३ श्रावकोंकी ग्यारह प्रतिमाओंका नामनिर्देश कुन्दकुन्दने किया है, समंतभद्र द्वारा विस्तार हुआ देखा जाता है। दोनों प्राचार्योंके उपास्य अरहत देव तथा सिद्ध भगबारहवोंके शिक्षावतसम्बन्धी भेदोंमें सल्लेखनाका नाम वान है। कन्दकुन्दने नियमसारमें परमभक्ति अधिकार तथा कुन्दकुन्दने बतलाया है; परन्तु समन्तभद्रने यह सोचकर दश भक्रियां लिम्बी हैं। वह भनि सरल एवं विशुद्ध चित्तसे कि मरणसमय धारण की जाने वाली सल्लेखनाका बनी है। समंतभदकी अहवभक्ति तो उनकी नस-नसमेंले जन्मभर यम-नियम रूपसे कैसे पालन किया जायेगा, फूट रही है। श्रावकाचारके सिवाय वाकीके सारे स्तोत्रग्रंथ श्रावकवतोंमें पल्लेग्वनाकी उपेक्षा करके उसकी भाव- तत्वका दार्शनिक तथा तास्तिक पुट लेकर अंतर्बाह्य भकिसे श्यकता कहनेके लिये सल्लेग्वना पर स्वतंत्र अधिकार प्राप्तावित है। कुंदकंदकी भनि निश्चय सरूपकी होनेसे तिखा और उपका विस्तारसे निरूपण किया है। एक परमार्थकी ओर ले जानेवाली है, समंतभद्रकी भक्ति व्यवहार और विशेषता दोनोके श्रावक्रधर्ममें है और वह यह कि मार्गकी तथा प्रागे तीर्थकर प्रकृतिबंधके रूपमे सातिशय पुण्य कुन्दकुन्दने बतों की स्थिरता करनेके लिए पांच पांच भावनाएँ प्राप्त करने तथा परम्परासे मांस पाने वाली है। कुन्दकुन्दने कही हैं और ममंतभद्ने उमास्वामीकी तरह वनोंका निर्दोष सबसे पहले रत्नत्रयभकि कही है और उसे करनेवाला जीव पालन होनेके लिए प्रत्येक इतके पांच पांच अतिचार कहे हैं। निवृत्ति पाता है। जिम तरह श्रावकाचारके सिवाय, समंतभद्रके सभी सम्मत्तणाण चरणे जो भत्तिं कुणइ सावगो समणो। ग्रंथोंमें अनेकांत स्थाद्वादन्याय समाया हुआ है उसी तरह तस्स दुणिव्वुदि भत्ती होदि जिणेहि पएणतं ॥ कुंन्दकुन्दके सभी प्रथोंमें निश्चय मोक्षमार्ग और मुनिचारित्र- उन्होंने आगे कहा है कि व्यवहारनयकी प्रधानतासे की छटा दिखाई देती है। परंतु दोनों श्राचार्यों द्वारा प्रति- मोक्षगामी पुरुषोंको-तीर्थकरोंकी-भक्ति-करनी चाहिये। वे पादित चारित्र अविरोधी है तथा वीरशापनक सूत्रमें गूंथा उपसंहार में कहते हैं:- . ही हुमा है। उसहादिजिणवरिंदा एवं काऊण जोगवर भत्ति । अनुप्रेक्षा-इसका विचार समंतभद्रके प्रथोंमें प्रायः । सिव्वुदि सुहमावण्णा तम्हा धरु जोगवरभत्तिं ।। नहों के बराबर हैं। अनुप्रेक्षा नित्यभावना अंतरंग विशुद्धिकी चीज़ है । समन्तभद्र के बुद्धिप्रधान दार्शनिक, वैचारिक तथा अपने भनि-पाठोंमें आपने सिद्ध, श्रत, चारित्र, योगी, तार्किक दृप्टिमें भावना अनुप्रे लाको इतना बड़ा और प्रकट निर्वाण, नंदीश्वर, शान्ति, तीर्थकर, पञ्चपरमेष्ठी इन सबकी स्थान नहीं मिलने पर भी उनके परिणामोंकी विशुद्धि एवं भक्रि विस्तारसे को है। ममन्तभद्रकी कि सिर्फ मुनिभद्रता स्तोत्रके चरण-चरणमें प्रतिबिम्बित होती है। और श्रमणोंके लिये नहीं, बल्कि श्रावकके लिये भी है। वृषभादि चौवीस जिनोंको भक्रिमें उनकी प्रात्मा इतनी तन्मय हो गई ऐसा भी नहीं कि उन्होंने अनुप्रेक्षाक विषयमें कुछ भी न थी कि उन्हींके शब्दों में उन्हें यह एक व्यसन हो गया था। कहा हो-वे रत्नकरण्डकी जिनभक्रिका उद्देश्य उन्होंने कितने ही स्थलों पर प्रगट अशरणमशुभमनित्यं दुःखमनान्मानमावसामि भवम् । किया है। वे कहते हैं-'तथापि भक्त्या स्तुतपादपद्मो मोक्षस्तद्विपरीतात्मेति ध्यायंतु सामयिके। ममार्य देयाः शिवतातिमुच्चैः'। अमकी भक्निमें मुझे इस कारिकाके द्वारा अशरणादि भावनाओंके चिंत- कल्याणपरम्पराका सामर्थ्य मिल जाप | और भी जो कुछकह नकी श्रावकों तकको स्पष्ट प्रेरणा करते हैं। कुन्दकन्दका रहा हूँ वह 'पुनानि पुण्यकीर्तनस्तनो ब्र याम किश्चन'। 'बारसायुपेक्खा' नामक स्वतंत्र ग्रंथ है। अनुप्रेक्षाका उद्देश्य आपका नामोच्चारण हमें पवित्र करे इसलिये कुछ कहता पण्डित दौलतरामजीके शब्दों में 'वैराग्य उपावन माई, हूं। प्राईजिनके 'वीतरागी' तथा निर हो चुकनेसे उन्हें चित्यो अनुप्रेक्षा भाई।' इस वाक्यमें संनिहित है । और स्तुति-पूजा तथा निन्दासे कुछ मतलब नहीं है। उनका पुण्यवस्तुतः अनुप्रेक्षाका अधिकारी मुनि सकलव्रती ही हैं। वे गुण-स्मरण ही चित्तका दुरित-पाप नष्ट करनेमें समर्थ है। बड़े भाग्यवान तथा संसार-भोगसे विरक्त होते हैं। दोनों प्राचार्योंकी भक्रिय यह एक स्वाय विशेषता है Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रत ३०४] अनेकान्त [वर्ष १३ कि कुन्दकुन्दने अरहंतादि सुभत्ती''सुहजुत्ता हवे चरिया समन्तभद्र एकही श्लोकमें व्यक्त करके गागरमें सागर भरनेमहत् भकिशुभोपयोगका पुण्य बांधने वाली, प्रशस्त राग- की कुशलता दिखाते हैं। रूप बतलायी है-जो एक तरहका बंध ही है । यह भनि समंतभद्रकी महत्भक्ति करनेका और भी एक कारण पुण्य बंध बहुत देगी परन्तु कर्मों का क्षय करनेमें असमर्थ यह है कि उनकी भावना अहत्के समान बनने की है । इमहै इस तरह कुन्दकुन्द स्पष्ट कहते हैं: लिये वे बारबार कहते हैं 'जिनश्रियं मे भगवान् विध'बंधदि पुराणं बहसोण दु सो कम्मक्खयं कुणदि । त्ताम' कन्दकदकी भक्रिय भावोत्कटता.विचार-तर्क परी'सिद्धंसु कुणदि भत्ति णिव्वाणं तेण पप्पेदि' पंचा.१६६ क्षिकताकी अपेक्षा अधिक है । उनकी भावभक्रिनगंगापर चित्तकी सरलताका सौंदर्य झलक रहा है। इसके अलावा इसीलिये कुन्दकुन्दकी परिणति पुण्य-पापसे निरपेक्ष होकर, समंतभद्रकी कि धूपकी रोशनीके समान प्रखर तेजःपुख्त शुद्ध निश्चय परमात्माको तथा सिद्धक्रिकी ओर अधिक ज्ञात होती है। इसके अतिरिक्र समन्तभद्रको महद्भक्तिकी ही जगन है। उसमें विचार परीक्षा, तत्त्वनिष्ठा, स्वाभिमान और गाढ़ श्रद्धाका प्रचण्ड सामर्थ्य एक प्रकारसे कूट-कूटकर भग है। . लगी थी। ये शुभोपयोग सातिशय पुण्य बंधके लिये चाहते एकके भक्तिरसमें अपनी आत्मा शीतल,शान्त चंद्रकिरणोंका हैं। जो परम्परासे मुक्रिका ही कारण कुन्दकुन्दने हो कहा है। आनंद लेती है, तो दूसरेकी भक्तिके प्रखरतेजसे आँखें 'सपयत्थं तित्थयरं अभिगदबुद्धिस्स सुत्तरोइस्स। चकाचौंधिया जाती है और मस्तक नत हो जाता है और दरतरं णिव्वाणं संजमतवसंपओ तस्स ॥१७॥ अंतः करणकी सारी प्रवृत्तियां जागृत हो उठती हैं। इसीलिये समन्तभद्र पूजन-अर्चनादि कर्ममें सावध पुण्य-पाप-व्यवस्थालेश होने पर भी परवाह नहीं करते । यह सावद्यलेश 'बहु- अद्भकि जब एक शुभोपयोग-प्रशस्तराग हैपुण्य राशिके' सामने नहीं के बराबर है । इस प्रकार यह जिसका पालंबन केवल अशुभोपयोगसे छुटकारा पाकर कहना अनिवार्य हो जाता है कि समन्तभद्रकी भक्रि शुभोप- शुद्धोपयोगकी ओर बढ़नेके लिये है। तब शुद्धोपयोग ही ग्राह्य योगयुक्त थी; जहाँ कुदकुदकी भकि शुद्धोपयोगकी थी। है शुभोपयोग उसके सामने हेय त्याज्य है । शुभोपयोग दूसरी विशेषता यह कि जो भक्ति कुदकुद दशभ क्योंमें सातिशय पुण्य बंधका कारण होकर परंपरासे मुक्तिका कारण सौ श्लोकों-द्वारा करते हैं वही भक्ति समन्तभद्र एक श्लोक कहा है। द्वारा दिखलाते हैं । यथा कुन्दकुन्दके समयसारमें पुण्य-पापका एक स्वतंत्र सुश्रद्धा मम ते मते स्मृति रपि त्वय्यर्चनं चापि ते।। अधिकार है । पुण्य-पाप शुभा शुभपरिणामोंसे परिणमता है। लेकिन ये दोनों पुण्य-पाप सुवर्ण हस्ताबज्जलये कथाश्रुतिरतः कर्णोक्षि संप्रेक्षते। लोहशृङ्खलाके समान जीवको बंधन में ही डालने वाले संग्तुत्या व्यसनं शिरोनति परं सेवेहशी येन ते। है। समयसारमें कुन्दकुन्दने पुण्य-पाप बंधका कारण तथा तेजस्वी सुजनोहमेव सुकृती तेनैव तेजःपते । पुण्य-पापातीत वीतराग अवस्थाही मोक्षका कारण कहा है। कितनी गाद भक्रिकी यह उन्कटता ! शरीरका एक भी समन्तभदने यही बात दूसरे शब्दोंमें प्राप्तमीमांमाके पुण्यअवयव वे जिनकि के विना खाली रखना, दुसरे काममें पापाधिकारमें बतलायी है। पुण्य-पापके बारेमें वे कहते हैं जगाना पसन्द नहीं करते। इस एकही पद्यमें कुन्दकुन्दकी कि परमें दुग्वोत्पादनसे न सर्वथा पाप होता है और सुखोसारी भक्कियोंका भाव भरा हुआ है । उदाहरणके तौरपर पादनसे न सर्वथा पुण्य अन्यथा अचेतन पदार्थको भी पुण्य'कथा तिरतः' वाक्य श्रुतिभक्निका घोतक है, 'हस्ताबजलये:' पापका फल मिलना चाहिये ? परंतु यह देखने में नहीं आता। शब्द उन योगियों-अनगारोंका है जिनके पास भक्तिके लिये और यदि इससे विपरीत माना जाय तो वीतरागियोंको भी अपने अंग हस्तावंजलिके सिवा और कुछ नहीं है, बंध होना चाहिये था पर होता नहीं । समंतभद्ने पुण्ययोतक है । 'स्तुत्यां व्यसनं' तो तीर्थकर भक्ति ही है-जो पापकी व्यवस्था प्राप्तमीमांसामें बड़ी मार्मिक तथा रहस्यपूर्ण ने विस्तारसे अन्य ग्रंथोंमें की है। इस प्रकार कुन्दकुन्दकी की है। वे कहते हैं:विस्तारसे भक्ति-पाठों में जैसी बहती है उसीके भाव विशद्धि संक्लेशांग चेत् स्त्रपरस्थं सुखासुखम् । Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष १३] श्री कुन्दकुन्द और समन्तभद्रका तुलनात्मक अध्ययन [३०५ पुण्यपापास्रवो युक्तो न चेद् व्यर्थ स्तवाहतः ।। अन्यथा कर्तृत्वजन्य-अहंकारवृत्ति हटना कठिन हो जाता है। सुख और दुःख यदि विशुद्धिका अंग हो, यानी कारण- अनेकान्त-प्रणेता समतभद्ने कार्योत्पत्तिके लिये दोनों ही कार्य-स्वभावमें किसी एक रूप हो तो पुण्यात्रव और सुख- कारण निमित्त उपादान सिर्फ आवश्यक ही नहीं, बल्कि दुःख यदि संक्लेशका अंग-कार्य-कारण-स्वभाव में किसी एक अनिवार्य कहे हैं: 'यथा-कार्य बहिरन्तः उपाधिमि:' बाबारूप हो तो पापात्रव है। इन्होंने पुण्य-पापके लिये विशुद्धि अभ्यंतर दोनों कारणोंसे कार्य होता है । उन्होंने और भी और संक्रश शब्द रखे हैं। अष्टसहस्रीकार विद्यानंदने स्पष्ट कहा हैविशुद्धिमें धर्म-शुक्लध्यान अंतर्गत किये हैं। पार्तीन यवस्तु बाह्य गुणदोषसूतेः, निमित्तमभ्यंतर-मूलहेतोः ध्यानोंको संक्रशके भीतर रखा है। इससे विशुद्धिमें शुभ अध्य त्मवृत्तस्य तदंगभूतं, अभ्यंतर केवलमप्यलं ते तथा शुद्ध दानों भावोंको अंतर्गत करनेकी समंतभद्रकी मूल अभ्यंतर तथा बाह्य कारणके बिना अकेला जीवव्यवस्था विशेष है । कुदकु दने पुण्य और पापको बंध द्रव्य-परिणमन गुण-दोषकी उत्पत्तिमें समर्थ नहीं। सहकारी कारण होनेसे विशुद्धावस्थाको दृष्टिमें स्याज्य कहा है । लेकिन कारण उपादानके समान ही कार्यकारी है। इसी बातको दोनोंके लिये पुण्य-पुण्यास्रव पुण्यबंधका कारण और पाप- समन्तभद्र और भी पुष्ट करते हैं। पापाखव-पापबंधका कारण है। 'अलंघ्यशक्तिर्भवितव्यते यं, हेतुद्वयाऽऽविष्कृत कार्यलिंगा जहाँ कुदकुदने पुण्य-पापकी व्यवस्था शुद्ध-निश्चय, हेतुद्वय-निमित्त उपादान या अंतरंग-बहिरंग कारणोंसे अशुद्ध व्यवहारष्टिसे की है वहाँ समन्तभद्रने पुण्य-पापकी प्राविष्कृत-प्रगट होने वाली भवितव्यताकी-कार्यशक्रि चलंघ्य है। कथंचित् अस्ति-नास्ति रूप, उभय अनुभय रूप, वक्रव्य भागे और भी अधिक स्पष्ट कहते हैं कि मोक्ष भी सहकारी प्रवक्तव्य रूप, सहार्पित-कार्पितकी दृष्टिसे व्यवस्था की है। कारणोंके बिना असम्भव है । बाह्य-इतर उपाधि या निमित्तनिमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध उपादान द्रव्यगत स्वभाव ही है। जैसे किजीव-कर्मका निमित्त-मैमित्तिक सम्बन्ध समयसारके बाह्यतरोपाधिसमप्रतेयं कार्येषु ते द्रव्यगतः स्वभावः। कर्ताकर्मके अधिकारमें बतलाया गया है। यह भूल नहीं नैवान्यथामोजविधिश्चपुंसांतेनाभिवन्यस्त्वमृषिर्बुधानाम जाना चाहिये कि कुदकुदके मार ग्रन्थ अध्यात्म-प्रधान हैं और उनमें निश्चयकी प्रधानता है। जीव-परिणामके यदि दोनों प्राचार्योका उपयुक उद्देश्य ठीक उनके ही दृष्टिकोण परसे समझनेका यत्न किया जाता तो श्री कुदकुदनिमित्तसे पुद्गलोंको कर्मरूप पर्याय होती है। तथा के नाम पर निश्चय एकान्तका जो दोष मढ़ा जाता है वह पुद्गलोंके निमित्तसे जीव रागादिरूप परिणमता है। जीव धोया जाकर वस्तु-स्वरूपका यथार्थ और समीचीन ज्ञान और पुद्गल दोनोंके ही निज-उपादान पर-निमित्तरूपमें होगा । हमें भूल नहीं जाना चाहिये कि कुदकुदने सूत्रद्वारा कदापि बदल नहीं सकने । ऐसा दोनों का निमित्त-नैमित्तिक जो सिद्धांत कहे हैं निश्चयकी प्रधानता लेकर जो कुछ सम्बन्ध है। जीव उपादानकी दृष्टिसे निज भावोंका कर्ता कहा है- उमीका कथन-विस्तार अनेकान्तकी दृष्टिस समंतभोका है, न कि कर्मोंका । यह कुदकुंदकी कतृ स्व-अकर्तृत्व भद्ने किया है। दृष्टि है। इसका मतलब यही है कि प्रत्येक द्रव्य अपने कुदकुदके मतले अध्यात्ममें जो निमित्त-नैमित्तिक परिणमनमें उपादान है, दूपरा निमित्त है-इपीसे केवल सम्बन्ध है उसीका स्पष्टीकरण सप्तभंगी न्यायके द्वारा निश्चय दृष्टिले परनिरपेक्ष शुद्ध-अात्मस्वरूपके निमित्तका समन्तभद्रने किया है। कुन्दकुन्दने विचार किया है। इसी द्रव्य स्वरूपका निरूपण मागे समन्तभदने दोनोको दृष्टिमें अन्तरकिया है । अध्यात्मशास्त्रके अनुमार कुन्दकुन्दने इन दोनों प्राचार्योंके यदि उपलब्ध ग्रंथ देखे जायें, तो वोतरागी-शुद्ध परिणतिकी अोरसे जानेके लिये, निमि- कुदकुदका ग्रंथ विस्तार मतभद्र से कई गुना अधिक है। तका अहंकार नष्ट करनेकी दृष्टिसे उपादानका समर्थन ग्रंथका विषय देखा जाय तो समंतभद्रका विषय कुंदकुदके जोरदार किया है, और उपादानकी जड़ दृढ़ की है। विस्तीर्ण और विशाल उपवनके चुने हुए दो तीन गुलदस्ते कियाहा Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त वर्ष १३ है-जिनकी महकसे सारा उपवन गूंज उठा है। कुंदकुंद भगवानसे समन्तभद तक तथा उनके पीछे भी अविरोधमात्मवादी, अध्यात्मशील, अनुभूतिशील होनेसे उनका रूपसे प्रविधिन बह रही है। सारा कथन निजात्माकी उसतिके लिये है। समंतभद्र जिनोक सूत्रका प्राश्रय लेकर ही सभी प्राचार्योने अपने समष्टिवादी, प्रचंड तार्किक, और चतुर वाग्मी होनेसे इनका वचन-मणियोंको गूंथा है। यदि यह सूत्र-ढोरा नहीं मिलता सारा कथन सामष्टिक दृष्टिकोणसे हुबा है, कुदकुंद अपना तो इनके द्वारा केवल छिद्र ही छिद्र दिखाई देते आज जो विषय विस्तारसे निरूपण करते हैं, पर समन्तभद्र वही हम वीरशासनकी सुन्दर दृखला बद्ध एकरूपता प्राचीन विषय समास-संक्षेपसे कहते हैं। भ. कुदकुदने अपना कालसे देख रहे हैं वह मायः अशक्य, असम्भव ही हो विषय मुख्यतः पागम जिनाज्ञा, दृढ़ श्रद्धा, तथा अनुभूतिके जाती । (औपचारिक भेद पीछे दिखाया है , सारा जिनबल पर निरूपित किया है । पर समंतभद्र निरे आज्ञाधारी शासन कुन्दकुन्दने सैद्धांतिक, प्राध्यात्मिक दृष्टिकोणसे कहा है ही नहीं थे बदिक वे तो 'परीक्षण' तार्किक थे। इसलिए वही बात समन्तभद्रने तात्विक भूमिका लेकर स्तुतिके बहाने उन्होंने प्रत्येक तत्वकी सिद्धि युक्रिन्याय तथा अनेकांतकी कही है, उनको दृष्टि में तार्क-न्यायसे युक विश्लेषण है। कसी है। उनके पास पायतुला होनेसे प्रत्येक जिनशासन-प्रतिपादनकी शैली-साधन एवं दोनोंके पास बात संतुलन करके रखी गई है। अलग अलग थे, पर साध्य दोनोंका एक ही है। इसीलिये कुदकुदने 'आदा' आरमा शब्दको मध्यबिंदु बना कर दृष्टिकोणमें चाहे जितना ही अन्तर क्यों न हो, वह कदापि मानो आत्माके मधुर गीत सुनाए है। किन्तु समन्तभद्रगने मौलिक अन्तर नहीं कहा जाता। और न साध्य भिकाअपनी निर्दोष वाणीके निनादसे परमतके दृढ़ दुर्गों को उबाया स्वतन्त्र कहा जा सकता है । सारा अन्तर विषयकी गौणहै।कुदकुदकी अनुभूति भावना और सम्वेदनाको लेकर मुख्य-दृष्टिसे औपचारिक ही रहता है। क्योंकि दोनों प्राचाउमड़ती है। समन्तभद्रको बुद्धि तर्कनिष्ठ विचारोंका बल योंने 'जिनागमस्य इति संक्षेपः' 'जिनैःरुक्तम्' जिणवरैः लेकर योद्धाके समान खड़ी हो जाती है और स्याबादकी कथितम् , रिणदि8, भणियं आदि वाक्यों द्वारा जिनशासनगर्जनामें मानो एकांतको आवाज सुनाई हो नहीं देती। परम्पराका अनुयायित्व हो प्रकट किया है। दोनों प्राचार्योने एक महत्वकी बात यह है कि इस प्रकार दोनोंका जिन शासनका मण्डन तथा उसकी सिद्धि करके परमतको इप्टिकोण भिन्न भिन्न ज्ञात होने पर भी दोनोंकी दृष्टि अन्त परास्त किया है। हाँ, इतना भेद अवश्य है कि कुन्दकन्दके में एक ही स्थान पर केंद्रित होती है-वह स्थान है चीर- ग्रंथों में न्याय तर्क अन्तनिहित-भित है-जैसे बादल शासन । हाँ यह बात दूसरी है कि, कुन्दकुन्द जो बात कहीं पानीसे भरे हुए होते हैं। इसके अतिरिक्त वही न्याय समविस्तारसे कहते हैं वही बात समन्तभद संक्षेपसे कहते हैं तभद्र-द्वारा प्रस्फुटित होकर पानीके समान बरसाया गया और जो कुन्दकुन्द सूत्र रूपेण कहते हैं समन्तभद्र उसोका है, अभिव्यक्त हुआ है । विशिष्ट कालादि परिस्थिति इसका विस्तार करके उसका मूल्य हजार गुना बढ़ा देते हैं। प्टि- कारण है। कोणमें अन्तर इतना ही है कि कुन्दकुन्द निश्चय पर जोर अन्यमतोंका निराकरण करते समय दोनों अपना देकर प्ररूपण करते हैं और समन्तभद्र उसीके पूरक व्यव- अपना तस्व प्रतिपादन करते हैं। परन्तु कुन्दकुन्द 'जिन्हें हारकी सार्थकता न्यायके दृष्टिकोणसे दिखलाते हैं। इस जिनमत मान्य नहीं उन्हें 'मिच्छाइट्ठी' 'अनाहत' कहते हैं। प्रकार कुन्दकुन्दका अध्यात्मिक, निश्चय, शुद्ध दृष्टिकोण है समन्तभद्रकी तार्किकवृत्ति कठोरशब्द-चुनौती है। उन्होंने और समन्तभदका व्यवहारमय तार्किक न्याय दृष्टिकोण है। चाकको-'प्रारमशिश्नोदरपुष्टितुष्ट' बौद्धको 'विश्रांत परन्तु दोनों का अन्तिम साध्य एक ही है। दृष्टि' तथा वैदिकको वैतंटिक' आदि विशेषणों-द्वारा गलितदोनों द्वारा प्रतिपादित जिनशासन एक है मान बनाया है। गौण मुख्यका अंतर पाने पर भी दोनों दोनोंके सामान्य विषय तथा परस्पर विशेषता देखते द्वारा प्रतिपादित जिनशासन एक ही है प्रविरोधी है। साध्य समय दोनोंमें कुछ औपचारिक भेद ज्ञात होता है। यह एक ही होनेसे कथन शैलीको भिन्नता उन्हें अलग अलग औपचारिक भेद कुछ विशिष्ट परिस्थितियों तथा कालादिके नहीं बनाती । इससे जिनशासनका मूल्य बढ़ता ही है। जैसे अनुसार हुआ है । लेकिन जिनशासनकी परम्परा तो महावीर कि एक कविने कहा है Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - किरण ११-१२] श्री कुंदकुंद और समन्तभद्रका तुलनात्मक अध्ययन [३०७ 'इलोविकाररमपृक्तगुणेन लोके पिष्टाविकांमधुरतांमुपयाति कुन्दकुन्दकी शैली सरज और प्रसादमय है-उपमा, दोनोंकी शैली-विशेषता स्ष्टांतोंका इतना सरल उपयोग और वैपुल्य अन्यत्र स्वचित् ही मिलेगा । उदाहरण के तौर परstyle is the man 'शैली और व्यक्ति मित्र नहीं, ऐसा कहा जाता है। परन्तु इन दोनों प्राचार्योंका १ देहि णिम्मलयरा, भाइच्चेहिं अहियपहा 'सत्ता' व्यक्तित्व इनके ग्रंथों में इतना स्पष्ट नहीं होता जितना कि सायरमिव गंभीरा, सिद्धा सिद्धि मम दिसंतु।। और दूसरे लेखकोंका अपनो काव्य प्रादि कृतियों में देखा सिद्धोंका वर्णन इतना सुन्दर और काम्यमय, सरत जाना है। क्योंकि दोनोंके प्रथ अध्यात्मप्रधान तात्विक और कहाँ है? समन्तभद्रकी शैली तथा भाषा पांडित्यपूर्ण तथा सैद्धांतिक है। लेकिन यहाँ पर स्थूनष्टिसे उनकी है, पर जरा दुरूह और जटिव ज्ञात होती है। भाषा, कथन-पदति शैलीवैशिष्टयका विचार किया जाना है। कुन्दकुन्द अपने कयनमें बार बार 'कर्ष एग? कर्ष इससे दोनों के दृष्टिकोणका अंतर अधिक सट होगा। महा?, कषं होही ऐसे प्रयोग करके प्रश्नका उत्तर पाठकोंक कुन्दकन्दको भाषा प्राकृत ही है। थोडा मा गय भी मुंहसे ही निकाल कर अपने भाव उनके दिल पर अंकित भकिपालों में प्राप्य है। गमिवाय ma करते हैं । पमन्तभद्र भी उदाहरण देकर 'मुरजः किमपेक्षते? समंतभद्रकी भाषा संस्कृत है-उनका गद्य कहीं भा नहीं फसेवते' आदि प्रश्नांक द्वारा समस्याका ममाधान मिलता | वे वस्तुनः कवि थे. उनका संस्कृत भाषा पर कितना पाठ काम हा पाठकोसे हो कग लेते हैं। वे उदाहरण भी बड़े मार्मिक प्रमुन्ध था यह जिनशतककी बंधाचना तथा विविधातोंमे त है। ज्ञात होता है। मंकन भहितान्य नैषधचरितके समान इनकी कदमें ममतभक ममान पौडिन्य, रचना कौशल्य, काव्य-कचा परिमार्जित एवं दुर्बोध है। विद्वत्ता प्रचुरता नहीं दिखती तो भो कुन्दकुन्दको गाथामें कुन्दकुन्द कविप्रकृतिके थे, उनमें कवित्व अभिज्ञान एक तरहको निराली कुशलता प्रगट होती है जैसे किथा-उसे कभी उन्होंने बाह्य छंद, वृत्त, बंध इयादि द्वारा णिण्णहा णिलोमा णिम्मोहा णिग्वियार णिकलुसा। प्रगट करने का प्रयत्न ही नहीं किया । 'सुन्दरमार्ग' का रास्ता णिम्भय णिरासमावा पवज्जा एरिसा भणिया। महज त्रयं उम मार्ग परमे जाने समय बिना प्रायाय दिन प्रत्येक पदका प्रारम्भ एकही प्रवरसे है। इस गाथालाया है। उनका वाणा-प्रवाई शान्त, शातल, मंद-मंद को मधुरता, बढ़ गई है पोर उच्चारणकी मंजुन ध्वनि वायुके ममान बहता है। मानभवको वाणा वोर प्रोसे भरो कानों में गूंजती है । दोनों कथनसे शालीनता, नम्रता और हई हमेशा वादियोंको ललकारनेके लिये तैयार है । ममंतभद्र विनय प्रगट होता है। वे बार बार कहते रहे हैं जो कुछ की प्रवृत्तिमें राजम प्रकृतिका तेज प्रस्फुरित हो रहा है, किंतु मैं कह रहा है, वह न मेरा है. न निरी कल्पना मात्र है। कुन्दकन्दमें सात्विक प्रकृतिको झोंकी है। ममंतभद्रकी वाणी वह सब वीर शामन है 'नवव,' 'तवजिनशासन इदं इन का सिंहनाद सुन कर मारे वादी अपनी निर्बलता, अ-भद्रता शब्दोंसे ममन्तभद्र पुकारते हैं। और कुन्दकुन्द 'मासणं ग्बो देते हैं और एक नरहको समीचीन ममन्तभद्रता-ही हि वोरस्प 'सामणं सव' आदि शब्दोंसे अपना अभिप्राय पाते हैं। प्रकट करते हैं। दोनों प्राचार्योंकी जिनशासन-सेवा तथा लोक-सेवा इन दोनों महान् प्राचार्योंकी शैलीका इस प्रकार सूक्ष्म दोनोंको भाषा सहन स्फूर्त तथा अधिकारी है-उसमें दृष्टिसे अध्ययन किया जा सकता है, परन्तु उनकी शैलीमात्र निजभाव प्रभावित करनेको शक्ति है। दोनोंके साहित्यमें उनकी भव्य-मात्मा नहीं बन सकती। व्यावहारिक दृष्टान्त पानेले समय, समाज, परिस्थितिका संक्षेपमें कुन्दकुन्दकी शैलीमें मरनेका शांत बहना, चाँदप्रतिबिम्ब पाते हैं। जैसे कंदकुद विष-वैद्य, राजा-सेवक, की शीतलता तथा भानफलोंको मधुरता है-जिसका गीत शिल्पिकार प्रादि दृष्टांत जीव-पुद्गल संबंध समझाने के लिये दिन रात सुना जाय, जिसको चन्द्रिकामें कितना ही ममय देते हैं। समंतभद्रने मौलि, कुम्हार, व्रती, राजा, वैध बिताया जाय और जिनका सुस्वाद प्रतिदिन लिया जायजा मादिके दृष्टांत दिये हैं। भी मनुष्य सब नहीं सकता। इसके अतिरिक समन्तभद्रका Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०] अनेकान्त [वषे १३ शैलीमें योद्धाकी वीरता, सूर्यको तेजस्विता, तथा सत् शुभ ही अन्य बाज अनेक शतकोंसे अमर हुए हैं। कृत्योंकी प्रखरता अधिक ज्ञात होती है-जिन्हें पाकर कुदकुदकी ज्योतिसे समंतभदने अपनी प्रतिभाकी जीवनमें अदम्य उत्साह प्रगट होता है। अनेकान्त दृष्टिका ज्योति प्रदीप्त की है। श्रद्धासे काम न निभने लगा। वादियोंतेज झलकता है, और एक प्रकारकी कृतकृत्यता पाती है। ने तर्क न्यायका विकास दिखलाकर एक आंदोलन शुरू दोनों आचार्योंकी जिनशासन सेवा तथा लोक सेवा किया था । सिद्धांतको युक्ति प्राप्त तथा आगम कसौटी हो 'सेवाधर्मो परमगहनो योगिनामप्यगम्यः। गयी थी । न्यायके बिना सिद्धान्त अंधा समझा जाने लगा महान् योगियोंके लिये भी सेवाधर्म प्रसिधाराबत है। था। इसीलिए समन्तभद्रको न्याय-तर्कका आलंबन अनिवार्य ऐसा होने पर भी दोनों प्राचार्योंका जीवनवृक्ष जिनशासन- हो गया । उन्होंने न्याय-तर्क-युक्रिसे प्राप्तकी प्राप्ततत्वोंकी सेवा तथा लोक सेवाके फलोंसे लबालब भरा हमा है। सिद्धि करके वीरशासनकी अमोघ सेवा की है । शासन सेवाका भागम-परम्परा तथा जैनधर्म संस्कृतिका संरक्षण करनेके मूल्यांकन करने में उन्हींक ग्रंथ समर्थ हैंलिये इन्होंने प्रमोल सेवा-योग दिया है-जिसका खास लोक-सेवाप्रमाण उन्हींके अमर ग्रंथ हैं। दोनों प्राचार्योकी लोक-सेवा अमूल्य है । समयकी लोगों माजसे कोई ढाई हजार वर्ष पहले भ० महावीरने को माँग demand क्या थी, दूसरी तरफ उन्हें विरोधका अपनी सातिशय दिव्य ध्वनिके द्वारा मोक्षका मार्ग बतलाया। कितना सामना करना था तथा माँगको पूरा और विरोधका उनके निर्वाणके बाद पांच श्रुतकेवली हुए। उनमेंसे भद्रबाहु । सामना करने वालोंके पास योग्यता किस कोटिकी थीअन्तिम श्रुतकेवली थे। उस समय तक द्वादशांग वाणीका इन सब बातों पर उनकी सेवाका दर्जा तथा मूल्य प्रांका प्रवाह निश्चयव्यवहार मार्गरूप अविछिस था। परन्तु आगे जा सकता है । कुन्दकुन्दने अध्यात्मका प्रभाव जनता पर काल तथा परिस्थितिके दोषसे अंगज्ञानकी ब्युच्छित्ति होने डाला। मुनिधर्म-श्रमणधर्मकी ओर जनताकी प्रवृत्ति झुकाई। लगी और अपार श्रुत-सिंधुका बहुभाग सूम्बने लगा। इस अध्यात्म रहस्य खोलनेकी चाबी, रत्नत्रय-मार्गका दीप और परंपरामें अपनी बाग्ज्योति जगाने वाले कई प्राचार्य हो गये श्रद्धाका प्रकाश जनताको दिया है। समयकी माँग जो हैं | प्रा.कुन्दकुन्द भद्रबाहु श्रुतवलीके शिष्य थे-इन्होंने मुनिधर्म-तत्व-निरूपणकी थी वह सौटक्के पूरी की है । निश्चयभी अपनी ज्योति इसी परंपरासे प्रज्वलित की है। को मुख्यता देना इसीलिये उन्हें अनिवार्य हो गया। इनकी बीरका सारा शासन तो इन्हें नहीं मिला। परंपरासे योग्यताका यथार्थ मूल्यांकन आज निष्ठुर कालके श्राघातसे बचा-खुच्चा जो मिला उसीकी सेवा इन्होंने जीवन भर की बचे हुए कतिपय ग्रन्थोंसे नहीं कर सकते। एक ऋद्धिधारी है। भारतके दक्षिण भागमें कर्नाटक-दिगबर-सम्प्रदाय अलग मनि होकर आपने विदह क्षेत्रमें साक्षात् सीमंधर भगवानकी हो रहा था । श्वेताम्बरोंने गुजरातमें प्रागम-प्रभावना अपने अपन कृपासे प्राप्त हुअा अपना ज्ञान भण्डार हमें रचनाबद्ध करके पंचके अनुसार बढ़ा दी थी देश विभाग-संघात हो रहा था। दिया है। ऐसी हालतमें मूल-मागम परंपराका रहना आवश्यक था। इनकी प्रत्येक कृति लोगोंके लिए एक परमोच्च अवस्थाकुन्दकुन्दने नदिसंघ स्थापन करके उसे अनेक संघोंके साथ मुनि अवस्थाका सन्य आदर्श है। इनकी सेवाका सच्चा एक सूत्रमें बांधनेका काम किया है। ये महान पद्मनन्दी मूल्यांकन इनके ग्रंथों पर टीकाएँ लिखने वाले महान आचार्योप्राचार्य थे जिन्होंने अपने विरोधी कालमें परमागम रूप ने ही किया है। प्राज मोनगढ़की जनता पर इनका गहरा श्रुतस्कन्ध सम्हालनेका उत्तरदायित्व अपने शिर पर लिया था। . प्रभाव ज्ञात हो रहा है । कुन्दकुन्दसे समन्तभद्र तक की रेखा कुखकरोंके समान वे एक बड़े अन्वयकार थे। इनका सूत्रकारों की है दोनोंकी कड़ियाँ जुटानेवाले उमास्वामी एक स्वतन्त्र अम्बय प्रागेके प्राचार्योंने चलाया। वैदिक प्राचार्य हैं। समन्तभद्रने लोगोंकी सेवा युगप्रवर्तक बनके संप्रदायमें शंकराचार्य माधवाचार्य, रामानुजाचार्य ये सब की है। इनके प्रभावसे गौरव पाने वाले प्राचार्योने कहा है अपनी भागम-वेद परम्परा स्थिर करनेमें लीन थे। ऐसी कि जब प्रचण्डवादी समन्तभद्र वादियोंके बीच भात, तब हालतमें कुन्दकुन्दने भी भ. महावीरसे चली आई श्रत- कुवादिजन नोचा मुख करके अंगूठेसे पृथ्वी कुरेदने लग जाते! परम्पराकी रक्षा वृद्धि भपनी कृतियाँ लिपिबद्ध करके की है। इनके सामने प्रवादिरूपी पर्वत चूर-चूर हो जाते थे। समस्त Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - किरण ११-१२] श्री कुन्दकुन्द और समतन्भद्रका तुलनत्मक अध्ययन [३०६ भद एक बड़े वाग्मी गमक तथा तार्किक एवं त्यागी-योगी एक सूत्रबद्ध करनेकी बड़ी भारी जिम्मेदारी इन्होंने अपने होनेसे लोगोंकी, समयकी माँगको उन्होंने अच्छी तरह पूरा कंधों पर ली थी, जिसका प्रबल प्रमाण भावकाचार थकी किया है। परमागमका बोज, त्रिभुवनोंका गुरु जो अनेकान्त निर्मिति हैं। स्वय निश्चयमार्गका अवलम्बन करके (मनिपदउसको रक्षा वादियोंके झंझावायुसे करके इन्होंने वीरशासनकी में रहकर इन्होंने मानव-समाजका ध्यान महत्भक्रिकी मोर बड़ी सेवा को है। इन्होंने वीरशासनका सर्वोदय-तीर्थ सारे प्राकृष्ट किया, और लोगोंको सच्चे शत्रु-पाप और सम्वे प्रतिवादियोंको दिखलाया और कहा है बंधु धर्मको पहिचान कराकर ज्ञाता बनानेका यत्न सर्वान्तवत्तद्गुण-मुख्यकल्पं,सर्वान्तशून्यचमिथोऽनपेक्षम किया है :सर्वापदामन्तकरं निरन्त, सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव ॥ 'पापमरातिधर्मो बंधुर्जीवस्य चेतिनिश्चिन्वन् । ____ इसी सर्वोदय-तीर्थकी प्रवृत्ति उनकी अनुपम-संवा है। समयं यदि जानीते श्रेयो ज्ञाता ध्रवं भवति ॥ इसमें परस्पर विरोधी धर्म विधि-निषेध, द्रव्य-पर्याय, सामा (रत्न क.) न्य-विशेष, एक-अनेक सभी धर्म अपनाए गये हैं । यह तीर्थ अपने शत्रु और बंधु की पहिचान बताकर ज्ञाता बनानेसर्व प्रापदाओंका अन्त-नाश करनेवाला, और सभी धर्मोंका से और अधिक लोक सेवा कौनसी है? वे कर्मयोगी ज्ञानउभय-मुख्य गौण रूपसे उदय करने वाला है। समन्तभद्रकी योगी और भक्रियोगी थे। कुन्दकुन्दकी सेवा वैयक्रिक पारमा यह अमूल्य देन तथा सेवा उस समयके लोगोंसे भाजके की सेवा कहलाती है । समंतभद्रकी सेवा समष्टिकीवैज्ञानिक तथा प्राधि भौतिक प्रस्त युग तक अत्यन्त महत्व- समाजकी सेवा कहो जाती है। इनके वचनामृतसे प्रभावित की तथा उपयोग की है। होने वाले प्राचार्योंने इनकी प्राप्तमीमांसा जैसी छोटोमी उनकी योग्यता क्या थी इसका परिचय म्वयं इन्होंने पर अनुपम और प्रौद कृती को अपने भव्य प्रासादकी नीव राजसभामें दिया था, जो इस प्रकार है: बनाया । अकलंकने अष्टशती लिखकर स्तम्भका सा आधार आचार्योंहं कविरहमहं वादिराट पण्डितोऽहं ।। दिया। और वसुनन्दीने वृत्ति लिखकर, एकाएक पर्देक दैवज्ञोहं भिषगहमहं मांत्रिकस्तांत्रिकोऽहं ।। किवाड खोल दिये। श्री विद्यानन्दने अष्टसहस्त्री लिखकर राजन्नस्यां जलधिवलयामेखलायामिलाया तो प्रासाद शिखर ही पूर्ण किया है। यदि प्राप्तमीमांसाको माज्ञासिद्धः किमिति बहुना सिद्ध सारस्वतोऽहं ।। 'गंधहस्ति महाभाप्य' की मंगल-प्रस्तावना समझी जाय, तो इसमें अहंकार या आत्माभिमानकी उक्ति नहीं है। गंधहस्तीमहाभाप्य' किस कोटिका होगा, इमको कल्पना नहीं अपि तु उनके उपलब्ध अन्धोंसे कितने ही विशेषण यथार्थ की जा सकती। दुर्भाग्यसे इस अनमोल कृतिका लाभ हम सिद्ध हो चुके हैं। इतनी बढ़ी योग्यता होने पर जब भस्मक लोगोंके नसीब नहीं। समन्तभद्रका गहरा प्रभाव तथा ऋण व्याधिसे त्रस्त हुए थे तब इन्हें परधर्मी शैव आदि राजाओं इनक प्रत इनके प्रत्येक उत्तरवर्ती प्राचार्योन इनका गुणगान करके का कुछ दिनके लिये श्राश्रय लेना पड़ा । शरीर स्वस्थ होने स्तुण स्तोत्रसे उऋण होनेका प्रयत्न किया है। पर ही इनको सिद्ध सरस्वतीका वहाँके राजा तथा लोगों पर इस प्रकार दोनों महाभागोंकी सेवामें एक विशेषता यह इतना गहरा प्रभाव पड़ा कि सबके सब इनके अनुयायी हो है कि दोनोंकी सेवाएँ भिन्न-भिक्ष कोटिकी होकर भी दोनोंने गये। कहा जाता है कि कुन्दकुन्दको भी गिरनारपर श्वेतांबरों स्व-पर-उन्नतिका यथार्थ मार्ग बतलाकर लोक-सेवा को है। से विवाद करके तत्त्वसिद्धि करनी पड़ी थी । परन्तु समन्त- और दोनोंके ही द्वारा वीर-शासनकी प्रभावना हुई है। भद्र तो स्वयं अपने दक्षिणसे-उत्तर देश तकके (कांची- क्योंकि 'न धर्मो धार्मिकैर्विना' उन्हींका वचन है। अज्ञान कन्हाड) विहारका परिचय पद्यमें देते हैं । वादार्थी होकर अंधकार तो 'रवि शशि न हरे सो तम हराय' इस उक्तिके स्वयं भेरी बजाकर प्रतिवादियोंको बाहान देना और अन्त में अनुसार इतना दूर किया है कि आज तक भी वह जैन स्याद्वादको गर्जना करना इनका मुख्य काम था । इन्होंने दर्शनके समीप फटकने नहीं पाता | जिन्हें इनकी सेवाको दिग्विजय द्वारा वीर-शासनको प्रतिष्ठा कायम करके अनेकांत लाभ नहीं मिला, वे सच्चे मार्ग-राजमार्ग-से कोसों दूर भाग और अहिंसाकी सेवा की है। सारे बिखरे हुए जैन समाजको रहे हैं। और जिन्होंने अंत:करण को धोकर और निर्मल कर Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष १३ के लाभ लेनेका प्रयत्न किया है वे मुक्रि-सुख समीप पहुँच भद्रबाहु वृक्षको कुन्दकुन्दक अध्यात्म-रसने पलवित रहे हैं। यदि दोनों प्राचार्योकी शामन-सया तथा लोक सेवाके किया । उमीको उमास्वामीने अपने सुन्दर सूत्रोंसे पुष्पित बार यह रूपक दिया जाय तो इनकी संवाफी कोटि किया और समन्तभद्ने स्याद्वाद अनेकान्त रूप सुमधुर (quality) तथा परिस्थिति (quinuts ) ठीक-ठीक फलोंसे उस फलित किया, जिनकी सुम्बादमय सुगंध प्रत्येक ज्ञात हो सकेगी भव्य जीवको अपनी ओर आकृष्ट कर रही है। दोनों आचार्योंकी कुछ विषयों में समानता-असमानता-द्योतक वाक्य-सूची समन्तभद्र १. सम्यग्दर्शन अत्तागमतच्चाणं सहहणादो हवेइ सम्मत्तं । नियम० ४ श्रद्धानं परमार्थानां प्राप्नागमतपोभृताम् । रन्न । २. अठारह दोषोंके नाम छहतएहभीरुरोसा रागोमोहोचिंताजरारुजामिच्चू । क्षुत्पिपासाजरातंक जन्मांतकभयस्मयाः । स्वेदं खेदमदोरइ विण्हिय णिहा जणुब्वेगो । नियम ६ न रागद्वेपमोहाश्च यस्याप्तः म प्रकीर्त्यते ॥ रत्न ६ ३. आप्त-लक्षण हिस्सेसदोसरहिओ केवलणाणाइपरविभवजुत्ता। आप्तन्नोत्सन्नदोषेण सर्वज्ञेनागमेशिना । सो परमप्पा उच्चइ तश्विवर ओण परमप्पा ।। नियम०७ भवितव्य नियोगेन नान्यथाह्याप्तता भवेत् ॥ न. ४ ४. आगमच्चक्षण तस्स मुहग्गयवयणं पुव्वावरदोसविरहियं सुद्धं । प्राप्तीपज्ञमनुल्लंध्यमहप्टेष्ट-विरोधकम । अागममिदि परिकहियं तेण दु कहिया हवंति तरचथा। तत्त्वोपदेशकृतसा शास्त्रं कापथपहनम ME नियम ८ रत्न० ५. संयमाचरणके भेद और स्वामी दुविहं संजमचरणं सायारं तह हवे णिरायारं। सकलं विकलं चरणं तत्सकलं सर्वसंगविरतानाम् । सायारं सगंथे परिग्गह रहियं खलु णिरायारं चारि०२७ अनगाराणां विकलं सागाराणां ससंगानाम । रत्न. ४ ६.पंचागुवत नाम थूले तसकायवहे मोसे अदत्त थूले य। प्राणातिपातवितथव्याहारस्तंय काममूर्खेभ्यः । परिहारो परमहिला परिग्गहारंभपरिमाणं। चारित २४ स्थूलेभ्यः पापेभ्यो व्युपरमणमणुव्रतं भवति । रत्न. ३ ७. विकलचारित्र भेद पंचेवणुव्वयाइ गुणवयाई हवंति तह तिरिण। गृहिणां त्रेधा तिष्ठत्यणुगुणशिक्षावतात्मकं चरणम । सिक्खावय चत्तारि य संजमचरणं च सायारं। पंचत्रिचतुर्भदं त्रयं यथासंख्यमाख्यातम् ।। रत्न ५ ८. त्रिगुणवतनाम दिसिविदिसिमाणपढमंत्रणस्थदण्डस्स पज्जणं विदियं । दिग्बतमनर्थण्डव्रतं च भोगोपभोगपरिमाणम् । भोगोगोपमोगपरिमा इयमेव गुणव्वया तिरिण | चारि. अनुहणाद् गुणानामाख्याति गुणव्रतान्यार्याः। रत्न. ३६७ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ११-१२] श्री कुन्दकुन्द और समन्तमद्रका तुलनात्मक अध्ययन [३११ समन्तभद्र ६. चारशिक्षाव्रत सामाइयं च पढमं विदियं च तहेव पोसह भणिय। देशावकशिकं वा सामयिक प्रोषधोपवासो वा नइयं च अतिहिपुज्जं चउत्थ सल्लेखना अन्ते । चारि० चैयावृत्त्यं शिक्षाव्रतानि चत्वारि शिष्टानि । रत्न. १०. सम्यग्दर्शन जह मूलम्मि विण? दुमस्स परिवार णन्थि परीवड्ढी न सन्त्यसति सम्यक्त्वे बीजाभावे तरोरिव । रत्न० ३२ तह जिणदमण भट्टा मूलविणद्रा ण सिझंति ।। चारित्र. २६ ११. सम्यग्दर्शन महिमा सम्म इछी लाग्धेदि सुरासुरे लोएं। अमरासुरनरपतिमि...."नूनपादाम्भोजा। रत्न. १२. चारित्रलक्षण रायादि परिहरणं चरणं । समय. रागद्वेपनिवृत्त्यै चरणं प्रतिपद्यते माधु० । (रत्न०) १३. शरीर स्वरूप और उससे वैराग्य दगंधं बीभत्थं कलिमलभरि अचेयणो मन। अजंगमं जंगमनेययनं यथा तथा जीवधुतं शरीरम। सडण-पडसहायं देहं इदिचिंतये णिचं । अशुचि. बीभत्सुपूतिक्षयितापकंच स्नेहो वृथाऽत्रेति हितं त्वमाख्यः स्वयं १४. सत्-असत् (भाव-अभाव) भावम्य णस्थि णासो गस्थि अभावस्य चव उप्पादो। मतः कथंचित्तदसत्वशक्ति,खे नास्ति पुष्पं तरुसुप्रसिद्धम्। गुणपज्जयेसु भावो उप्पादवपहिं पकुवंति ।। पंचा १६ सर्वस्वभावच्यतमप्रमाणं, स्ववाविरुद्धं तव दृष्टितान्यत एवं सदो विग्णासो असदो जीवस्य पत्थि उत्पादो। नवासितो जन्म सतो न नाशो ॥ स्वयम्भृ ३० १५. सप्तभंगी अस्थि त्तियणस्थि त्तिय हदि अवत्तव्यमिदि पुणो दव्वं कचित्ते सदेवेष्ट कथंचित्तदसदेव तत् । पज्जायेण दु केण वि तदुभय मादिट्टमरणं वा। प्रवच० २३ तथोभयमवाच्यं च नययोगान्न सर्वथा ।। श्राप्त . १६. उत्पादव्यय-ध्रौव्य उप्पादो य विणामो विज्दि मध्वस्स अट्टजादस्य। स्थितिजनन निरोध लक्षणं, चरमचंर च जगत प्रतिक्षणम् पज्जायेण दु वेण वि अट्ठो खलु होदि मभूदो। प्रव०११६ -स्वयंभू. ११४ १७. भव्य-अभव्य निर्देश ण मुयइ पर्याड अभव्वा सुठ्ठ वि आणिगऊण जिणधम्भी शुद्धयशुद्धी पुनः शक्ती ते पाक्यापाक्यशक्तिवत । गुडदुद्धं पि पिबंता ण पण्ण्या रणव्विसा होति ॥ -प्राप्त... मिच्छत्तछएणदिट्टी दूद्धो रागगहगहिचित्तहि। साद्यनादी तयोर्व्यक्ती स्वभावोऽतर्कगोचरः॥ आन धम्मं जिणपएणत्त अभव्यजीवो ण रोचेदि ॥ भाव पा० १३८,३६ १८. धर्मलक्षण संसारतरणहेद् धम्मो त्ति | भाव० ८५ 'संसारदुःग्वतः मत्वान् यो धरत्युत्तमे सुखे'। रयणत्तयजुत्तो धम्मो ॥ रयण । २०-२० 'सदृष्टिज्ञानवृत्तानि धर्म रत्न.. Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२] अनेकान्त [ वर्ष १३ %3 समन्तभद्र १६. दानफल खेत्तविसेसे काले ववियसुवीयं फलं तहा विउलम् । क्षितिगतमिववटबीजं पात्रगतं दानमल्पमपि काले। होइनहा तं जाणइपत्तविसेसेसु दाणफलं । रयण १७ फलतिच्छायाविभवं बहुफलमिष्टं शरीरभृताम् । रत्न०१६॥ २० अहिंसाका आरम्भसे रहित होना तस्सारंभ-नियत्तण परिणामो होइ पटमपढम् ।। नियम १६ न सा तत्रारंभोऽस्त्यगुरपि च यत्रा पाश्रमविधौ ।। स्वयंभू. १२ २१ अनेकान्त-द्रन्यपर्याय पज्जयविजुदं दव्वं दव्वविजुत्ता य पज्जया णत्थि। अनेकमेकं च तदेवत त्त्वं भेदान्वयज्ञानमिदं हि सत्यम् । दोपह अणणभूदं भाव समणा परुविति ।। पंचा० १२ मृषोपचारोऽन्यतरस्यज्ञोपे तच्छेषलोपोऽपि ततोऽनु पाख्यम् स्वयम्भू. २२. अंतरंग विशुद्धि के लिए बाह्य तपः भावविसुद्धणिमित्तं बाहिरगंथस्य कीरए चाओ। बाह्य तपः परमदुश्चरमाऽऽधरस्वम् । ___भावपा.. आध्यात्मिकस्य तपसः परिवृहणार्थम् ॥ स्वयंभू कुथु । २३. मोहीमुनिसे निर्मोही गृहस्थ श्रेष्ठ ते च्चिय भणामिहं जे सयलकलाकलासील संजमगुणेहि गृहस्थो मोक्षमार्गस्थो निर्मोहो नैव मोहवान् । बहुदोसाणावासो सुमलिणचित्तो ण सावयसमो सो॥ अनगारो गृही श्रेयान् निर्मोहो मोहिनो मुनेः। भाव पा. १५३. रत्न. १७ २४. प्राप्तकी परीक्षा पूर्वक स्तुति इणमएणं जीवादो देहं पुग्गलमयं थुणित्तु मुणी। देवागमनभोयानचामरादि वभूतयः । मरणदिसंथुदो वंदिदो मए केवली भयवं ।।२८ मायाविष्वपि दृश्यते नातस्त्वमसि नो महान् ।। तं णिच्छये ण जुज्जदि ण सरीरगुणाहिहोंतिकेवलियो। अध्यात्म बहिरप्येष विप्रहादि महोदयः। केवलिगुणो थुणदि जो सो तच्चं केवलि थुणदि ॥२ दिव्यः सत्यो दिवौकष्वप्यस्ति रागादिमत्सु सः ॥ एयरम्मि वरिणदे जहण रगणो वएणणा कदा होदि । तीर्थकृत्समयानां च परस्परविरोधतः । देहगुणे थुव्वंते ण केवलि गुणा थुदा हांति ॥ ३० सर्वसामाप्तता नास्ति कश्चिदेव भवेद्गुरुः । जो इंदिये जिणत्ता णाणसहावाधिकं मुणदि बादं। दोषावरणया हीनिनिशेषास्त्यतिशायनात्॥ तं खलु जिदिदियं ते भणंति जे णिच्छिदा साहू ॥ समय० प्राप्तमी० इस प्रकार सूक्ष्म अध्ययनसे दोनों आचार्योमें शब्द, वाक्य, पद, भाव, पद्धति आदि की उपेक्षा स्थानस्थान पर साम्य पाते हैं। उदाहरणके तौर पर ऊपर कुछ साम्य-असाम्य सूचक वाक्य उधृतकिये गये है। Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीरसेवा मन्दिरमें श्रतपञ्चमी महोत्सव ज्येष्ट शुक्ला पञ्चमी ता. २६ मईको श्रतपञ्चमी पर्व है, जिसे वीरसेवामन्दिर और बाबू छोठेलालजी कलकत्साके स्थानीय दि. जैन लालमन्दिरमें सानन्द और सोत्साह सत्प्रयत्नसे सम्पन्न कर रहा है। जीर्णोद्धार हो जानेसे इन मनाया गया । इस उत्सवकी सबसे बड़ी विशेषता यह थी ग्रन्थोंको काया पलट हो गई है और अब उनको प्रायु पांचकि भगवान महावीरकी साक्षात् वाणीसे जिनका सम्बन्ध है सौ वर्षके लगभग और हो गई है। अर्थात् जिनमें भगवान महावीरकी वाणीका सार भरा हुधा इसके बाद ला. रघुवीरसिंहजी जैनावाचने बाबू है उन पागम ग्रन्थोंकी प्रायः एक हजार वर्ष पुरानी जय छोटेलालजी कलकत्ताका परिचय कराते हुए बतलाया कि धवल महाधवलकी प्राचीन ताण्डपत्रीय प्रतियाँ जो गत १२ बाबूजी वीरसेवामन्दिरकी बिल्डिंगके कारण इतनी दूर तीव्र दिसम्बरको देहजीके वार्षिक रथोत्सबके समय मूडबिद्रीसे गर्मी में तीन महीनेसे अधिक समयसे पड़े हुए हैं। इन्होंने मरम्मतके लिए लाई गई थीं, और जिनका शानदार जुलूस वीरसेवामन्दिरको बिल्डिंगके लिए जमीन खरीदनेके लिए निकाला गया था । और जो भारतीय ग्रन्थ रक्षा चालीस हजारसे ऊपरकी रकम प्रदान की है। और शारीरिक गार (नेशनल पारकाईन्ज अाफ़ इण्डिया ) से जीर्णो- अश्वस्थतामें भी अपने सेवा-कार्यमें जुटे हुए हैं। प्राप द्वारित होकर लालमन्दिरजीके विशाल हालमें शो ग्लास लघमी सम्पन्न, इतिहामज्ञ और कलाके प्रेमी विद्वान है। केशमें चाँदीकी चौकियों पर विराजमान की गई थीं। उनके आपकी वजहसे ही इन भागम-प्रन्थोंका ऐसा अच्छा जीर्णोदोनों ओर लालमन्दिरजी और वीरसेवामन्दिरके हस्त- द्धार कार्य हो सका है। मैं बाबूजीके भद्रस्वभाव और सेवा लिखित ग्रंथ और मुद्रित ग्रन्थ विराजमान थे। उस समय कार्यको प्रशंसा करते हुए नहीं थकता । मैं बाबूजोसे प्रेरणा ऐमा जान पड़ता था कि सरस्वती माताके इम मन्दिरमें करता हूँ कि आप इन श्रुत प्रन्योंके सम्बन्धमें अपना भाषण महावीरकी वाणोका धाराका प्रवाह प्रवाहित हो रहा है, अनन्तर उक्र बाब साहबने अपना भाषण प्रारम्भ करते बा० छोटेलालजी कलकत्ता, धर्मसाम्राज्यजी मूडबिद्री, पं. हुए जैन समाजके धार्मिक प्रेमके शैथिल्यकी चर्चा करते हुए जुगजकिशोरजी मुख्तार और ला• रघुवीरसिंहजी जैना वाच, बड़ा भारी खेद प्रकट किया और कहा कि जिन भागमऔर मैंने तथा दूसरे स्थानीय अन्य साधर्मी भाइयोंके साथ ग्रन्थोंके दर्शनोंके लिए हम हजारों रुपया खर्च करके ३०-३५ श्रुतकी पूजा की, दोनों ओर दो लाउडस्पीकरों पर पूजा बड़े पाकरा पर पूजा बड़े व्यक्रि शामिल होकर और वहां भेंट चढ़ा कर उनका दर्शन मधुर स्वरमें पढ़ी जा रही थी, जिसे उपस्थित जनता बड़ी भाकर करते थे। ये ग्रंथ लाखों व्यक्रियोंके नमस्कारों और शान्तिके माथ सुन रही थी। धोकोंसे पवित्र हुए हैं। वे जैन संस्कृतिकी ही नहीं किन्तु शामको शास्त्र प्रवचनके बाद ८ बजेसे मभाका कार्य भारतकी अनुपम निधि हैं। जिनके जीर्णोद्धारका महान् प्रारम्भ हुआ। यद्यपि गर्मीकी वजहसे जनताकी उपस्थिति कार्य वीरसेवामन्दिर द्वारा सम्पन्न हुआ है, इस कार्य में मेरे उतनी ज्यादा नहीं थी, जितनी कि दहलो जैसे केन्द्र स्थल में केन्द्र स्थलम मित्र धर्म साम्राज्यजीका सत्प्रयत्न सराहनीय है धर्मसाम्राज्यजीसे होनी चाहिये थी। फिर भी कार्य प्रारम्भ किया गया। मेरी तीस वर्षसे मित्रता है। वे चौहार राजवंशके हैं उन्हीं प्रथम हा पं. अजितकुमारजी शास्त्री सम्पादक 'जैन गजट' ने की कपासे दिल्ली वालोंको उनके दर्शन-पूजन करनेका परम श्रुतपंचमीक उद्गमका इतिहास बतलाते हुए उन अागम सौभाग्य मिला है। इसके लिये वे धन्यवादक पत्र है ! ग्रन्थोंका महावीरकी वाणीसे कितना गहरा सम्बन्ध है। दिल्ली जैन समाजका केन्द्र है। यहाँ जैनियोंकी संख्या २०इसका विवेचन करते हुए आपने बतलाया कि यदि जिन- २५ हजार होते हुए भी उनकी उपस्थिति उसके अनुकूल वाणी माता न होती तो आज हमें सन्यपथ भी नहीं सूझता। न होना बढे भारी खेदका विषय है। मालूम होता है कि परन्तु खेद है कि हम लोग इनकी महत्ताको भूल गये। हमारा धार्मिक प्रेम अब शिथिल हो गया है, जब कि हमारा सौभाग्य है कि वीरसंवा-मन्दिरके सत्प्रयन्नसे हमें मुसलमानों और सिक्खोंका धर्म प्रेम बढ़ रहा है । जब एक इनका साक्षात् दर्शन और पूजन करनेका सुअवसर मिला मानेके एक पुराने स्टम्पका मूल्य दो लाग्य रुपया मिला और है । मूडबिद्रीके पंचों ट्रस्टियों और भट्टारकोंने श्रुतकी रक्षाका वह भी सुरक्षाकी गारंटोके साथ । इस तरह जब ऐसी-ऐसी महान् कार्य किया। जिसके लिए वे धन्यवादके पात्र हैं। चीजोंकी सुरक्षा की जा रही है तब इन प्रमूल ग्रन्थोंकी वीरसेवामन्दिरका शास्त्रोद्धारका यह विशाल कार्य महान् सुरक्षाकी और हमारा तनिक भी ध्यान न होना हमारी अज्ञता Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ अनेकान्त वर्ष १३ ] और खापर्वाहीका हा द्योतक है। खेद है कि हम लोग किनिदत्तरं प्राहु राप्ता हि श्रुतदेवयोः।' जो कुछ अनार इन नागम ग्रन्थोंकी महत्तामे परिचित होते हुए भी उनको है वह केवल प्रत्यक्ष परोक्षका है । जिनवाणी हमारी माता वास्तविक भक्रि और कर्तव्यपे दूर हैं। हजारों ताडपत्रके है हमें उसकी रक्षा उसी प्रकार करनी चाहिये जिस तरह हम ग्रन्थ आज जीर्ण-शीर्ण दशामें अपना जीवन ममाप्त कर अपनी माताको करते हैं। वीरसेवामन्दिरके द्वारा उठाया रहे हैं । परन्तु हमारा लचा उनको रक्षाका अब तक भी हुमा ग्रन्थोंके जीर्णोद्धारका कार्य महान् है । समाजका कर्तव्य नहीं हुमा, यह देख कर तो और भी खेद होता है। है कि इस पुनीत कार्यमें अपना सहयोग प्रदान करें। दहली गिरनारको 'चन्मगुहा' जो प्राचार्य धरसेनका निवाप के कुछ सजनोंसे इस कार्यके लिये अभी सात-पाठपी की स्थान था, नगरके समीप होते हुए भी हम लोग यात्राका सहायता प्राप्त हुई है, उनके नामोंकी सूची भी सुनाई गई। जाते हैं, परन्तु उसे देखने तक नहीं जाते । यद्यपि अब उसमें अन्य भाइयोंको भी अपना लक्ष्य इधर देनेकी आवश्यकता कोई विशेष सांस्कृतिक चिन्ह अवशिष्ट नहीं है। फिर भी है। अन्तमें आपने अपने मित्र धर्म माम्राज्यजीका परिचय देते गवर्नमेन्ट उसकी रक्षाके लिये वहाँ ८०) रुपये माहवारका हुए बतलाया कि यह सब महत्वका कार्य प्रापकी कृपा एवं एक चपरासी रक्खे हुए है। इसी तरह मद्रास प्रान्तः सौजन्यका प्रतिफल है। मैं उनका अभिनन्दन करता हूं । 'मित्तनवामल' नामका एक रमणीय एवं सुन्दर स्थान है जो एक मुख्तार सा० ने अपने भाषणमें धर्ममाम्राज्यजी की धर्मसिद्ध स्थान कहलाता है । वहाँ भी मुनियोंके निवा-की अनेक प्रियताका उल्ने ग्व करते हुए समाजका ध्यान जीर्ण शीर्ण गुफाएं बनी हुई हैं जो ईस्वी सनसे पूर्व की हैं । वहीं ईम्बी सन् ग्रन्थोंके उद्धार करने की ओर अाकृष्ट किया और फलस्वरूप पूर्वका एक शिलालेख भी मिला हैं । जैन श्रमण संस्कृति- उसी समय श्रीमती गुणमाला जयवन्तीदवाने जीर्णोद्धार की अनेक पुरातनवस्तुएँ अजायबघरों, जंगलों, बण्डहरों, कार्यमें सौ रुपये प्रदान किये । मन्दिरों तथा भूगर्ममें दबी पड़ी हैं और जिसके ममुद्धारकी अनन्तर ला. रघुवीरसिंहजीने दहली निवासियोंकी भोर हमें कोई चिन्ता नहीं है। यह हमारी उपेक्षा ही हमें पतन से धर्मसाम्राज्यजी और बाबू छोटेलालजीका आभार की ओर ले जा रही है। मेरा विचार था कि कमसे कम दो व्यक्त करते हुए धन्यवाद दिया और कहा कि आप इसी घण्टेमें आपको इन आगम प्रन्थोंके परिचयके साथ इनके तरह पार भो ग्रन्थ वीरसेवामन्दिरके मारफत लाइये प्रति अपने कर्तव्यकी ओर आपका ध्यान आकृष्ट करता: उनकी भी मरम्मत हो जायेगा । और समाजका सहयोग परन्तु अब समय कम रह गया है। अत: हमारा कर्तव्य है भी प्राप्त होगा । यह कार्थ महान् और पुनीत है। इस कि हम जिनवाणीके प्रति होने वाली भारी उपेक्षाको छोडें, तरह भगवान महावीरकी जयध्वनि पूर्वक सभा समाप्त क्योंकि जिनदेव और जिनश्रुतमें कोई फरक नहीं है, 'नहि हुई। -परमानन्द जैन वीरसेवा मन्दिर सोसाइटी की मीटिंग आज ता.१ अप्रेल सन् १९५५ को दिनके १॥ बजेसे १. वीरसेवामन्दिरकी यह कार्यकारिणी समिति स्थानीय श्री दिगम्बर जैन लालमन्दिरमें श्री वीरसेवामंन्दिरके निम्नलिखित महानुभावोंको कार्यकारिणी समितिके सदस्य दफ्तरमें कमेटीका अधिवेशन हुआ । जिसमें उपस्थिति निम्न नियुक्त करती है । साहू शान्तिप्रसादजी जैन कलकत्ता, प्रकार थी-पं० जुगलकिशोर जी, बा. छोटेलाल जी नन्दलालजी सरावगी, कलकत्ता, श्रीराजेन्द्रकुमारजी जैन (अध्यक्ष), बा. जयभगवान जी एडवोकेट, बा. नेमचन्द्र देहली, रायसाहब ला० ज्योतिप्रसादजी देहली, राय सा० जी वकील, डा. ए. एन० उपाध्ये कोल्हापुर (विशेषा- ला उल्फतरायजी जैन देहली, श्री तनसुखरायजी जैन देहली, मंत्रित), ला० जुगल किशोर जी कागजो, ला० राज कृष्ण डा० सुखबीरकिशोरजी, राय बहादुर ला. दयाचन्द्रजी जी और जयवन्ती देव। देहली, लाप्रेमचन्द्रजी, ला० नन्हेमल जी (सुपुत्र ला. प्रथम मीटिंगका नोटिस और एजंडा पढ़कर सुनाया गया। मनोहरलालजी) ला० नन्हेमलजी सदरबाजार, ला. मक्खन Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण २१-१३] वीरसेवामन्दिर सोसाइटीकी मीटिंग [३१५ लालजी ठेकेदार, ला० श्यामलालजी, वैद्य महावीरप्रसादजी। पूरा किया जाय, और उसके पूर्ण होने तक नये काम हाथमें प्र.बाबू छोटेलालजी अध्यक्ष नहीं लिये जाय । इन दो प्रन्थों में पहले जैन लक्षणावलीका ( सर्वसम्मतिस पास कार्य हाथमें लिया जाय और उसके लिये एक विद्वानकी २. यह कार्यकारिणी समिति प्रस्ताव करती है कि नियुक्रिका भार पं. जुगलकिशोरजी मुख्तारको दिया जाय । धारा ६(ख) के अनुसार डा.पु० एन० उपाध्ये कोल्हापुर प्र., बा.छोटेलाल जी डा. हीरालाल जी जैन नागपुर, पं० अजित कुमारजी शास्त्री म०, डा. ए. एन० उपाध्ये दहली, ता. पन्नालालजीजैन अप्रवाल दहली मम्मानित नोट-डा. ए. एन. उपाध्येने बह राय दी कि एच. सदस्य बनाये जाय। टी. वेलंकर द्वारा सम्पादित जिन रनकोशक प्रकाशित -प. अध्यक्ष (मर्व सम्मतिसे पास), पृष्ठोंमें कोरे कागज लगाकर प्रन्योंके नये परिचयको संवर्धित ३. यह समिति प्रस्ताव करती है कि वार-सवामन्दिर- किया जाय। की स्थावर जंगम सम्पत्तिकी पूरी लिस्ट ट्रस्टस लंकर उसक ७. यह कार्यकारिणी समिति प्रस्ताव करती है कि अनुसार सम्पत्तिको सम्हाल कर रसीद ट्रस्टक अधिष्ठाताको वारसंत्रा मन्दिरके प्रकाशित ग्रन्योंकी एक सूची डा. ए. दे दी जाय। एन० उपाध्येसे प्रस्तुत करवा कर और उसे छपवाकर प्र. जयभगवान वकील, पानीपत भारतके समस्त विश्व विद्यालय, कालेजों और पुस्तकालयोंको स.नमचन्द्र वकील, सहारनपुर भेज दी जाय । और पत्रों में इन पुस्तकोंका विज्ञापन दिया (मर्व सम्मतिसे पास) जाय । बड़े-बड़े मन्दिरों, सेंठों और जैन पुस्तकालयांकी . यह कार्यकारिणी समिति प्रस्ताव करती है किालिट भेज दी जाया करे । और प्रन्यांका विभिन्न का एक सूची तैयार करके पयूषचपके पूर्व अपने प्रकाशनोंकी अनेकान्त पत्रका प्रकाशन अनुसंधानकी दृष्टिसे हो, भले ही बना कर उन्हें बेचनेका प्रयन्न किया जाय। उसके अंक वर्षमें १२ में कम निकल । इमा लिए पोस्टल ! प्र. जयभगवान वकील विभागस भी पूछा जाय कि कम अंक निकलनेस पोस्टेजमें म. जुगलकिशोर मुख्तार क्या फर्क पड़ेगा । अनेकान्तको बड़े पुस्तकालयों (सर्वसम्मतिसे पाम) और विश्वविद्यालयों में निःशुल्क भेजा जाय, तथा : जो इतिहास और माहित्यस मन्बन्धित पत्रिकाएँ निकलती हैं स्वीकार करती है ८. यह कार्यकारिणी समिति निम्नलिग्वित बजटको उनके माथ विनिमय किया जाय । श्रार अमिट इनिहासके विद्वानों को भी नि:शुल्क भेजा जाय । लग्यकोंकी सूची बना पायकर उनमें निवेदन किया जाय । । १०.) किरायेसे मरमावाकी इमारतास। प्रस्तावक, डा. ए. एन. उपाध्ये १०००) अनेकान्तकं ग्राहकोंस । समर्थक, बा० नमीचन्द जी (मर्व मम्मतिस) ७५०) पुस्तक विक्रयसे । ५. यह कार्यकारिणी ममिनि प्रस्ताव करनी है कि र २०००) डिवीडेन्ड से। ६० परमानन्द जी द्वारा संकलित अपभ्रंशका प्रशस्ति मंग्रह ४६५०) अनेकान्तमें क्रमशः प्रकाशित किया जाय । प्र०, इ. ए. एन. उपाध्य पं. परमानन्दजी २१..) स., बा. जयभगवान वकील पं. जयकुमारजी १००) (पर्व सम्मतिसे पाम) हरस्वरूप ६००) १. यह कार्य कारिणी समिति प्रस्ताव करती है कि पं. ३७८०) जुगलकिशोर जी द्वारा अनेक वर्षोंये संकलित किया हुमा अनेकान्तका कागज छपाई वगैरह जैन ऐतिहासिक व्यक्तिकोश और जैन लक्षणावलीको अविलंब विजली Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष १३ वीरसेवामन्दिर सोसाइटीकी मीटिंग [३१६ स्टेशनरी २१० हैं। प्रस्तु, उन्होंने यह निश्चित किया था कि कार्यकारिणी पोस्टेज २१.) कमेटीमें डा. ए. एन. उपाध्येको परामर्शके लिये लायब्ररी २५०) आमन्त्रित किया जाय । डा. उपाध्येने अप्रेलकी कमेटीमें सफर खर्च ३.०) उपस्थित होनेकी कृपा की है। सरसावा चपरासी जाहरू माली ८४६०) १२. ता. ७-४-५५ को डाक्टर हीरालालजीने, जिन्हें 6. यह समिति प्रस्ताव करती करती है कि पं० जगल- डाक्टर ए. एन. उपाध्यजीके साथ निमंत्रित किया किशोर जीकी सेवाके लिये १०) रु० मासिकका एक सबक गया था, वीरसेवामन्दिरमें पधारनेकी कृपा की। डा. नियुक्त किया जाय। हीगनालजी और डा. उपाध्येजीने बोरसेवामन्दिरको प्र. बा. जयभगवान जी गतिविधि सम्बन्धमें यह सुझाव दिया कि दिगम्बर जैन स. बा. नेमीचन्द जी समाजकी साहित्यिक, प्रकाशक और अनुसंधानवी (सर्व सम्मतिसं स्वीकृत) जो संस्थाएँ हैं उन सबका केन्द्रीकरण वीरसेवामन्दिर ... यह समिति ला• राजकृष्ण जीसे निवेदन करती है तस्वावधानमें किया जाय । और वे मंस्थाएँ अपना नाम कि साहित्योद्धार, साहित्य और इतिहासके मध्ये जो आर्थिक अस्तित्व और कोषको स्वतन्त्र रखते हुए साहित्यिकादि सहायता उनके व्यवस्थापक कालमें लिखी गई थी उनमें जो कार्योको केन्दीय सम्पादकमण्डलके निर्देशानुसार सम्पन्न रकम वसूल नहीं हुई है उसे उन्हें वे वसूल करवा देवें। करें। इस सुझावको कार्यान्वित करने के लिए यह नय हुआ समितिके कार्यालयसे भी उन दातारोंको पत्र लिखे जाय। किमी संस्थाओंके संचालकों या प्रतिनिधियों को निमंत्रित प्र.बा. छोटेलाल जी (अध्यक्ष) कर एक सम्मेलन किया जाय, और उस सम्मेलनमें इस म० डा• श्रीचन्द्रजी (सगल) योजना पर विचार किया जाय । इन संस्थाओंको जो पत्र ११. पं. जुगलकिशोर जी मुख्तारने बताया कि लक्षणा- लिखा जायगा उसके ड्राफ्टका भार डा. हीरालालजी और वलीके प्रथमवण्डके प्रकाशनकी सहायताका वञ्चन साह डा. उपाध्येजीको दिया गया । और निम्नलिखित शान्तिप्रसादजीसे पहले प्राप्त हो चुका है। इस पर ममिनिन संस्थाओं को आमन्त्रित करना तय दुमा ।माणिव चन्द प्रथमाला प्रस्ताव किया कि लक्षणावलीके-निर्माणके लिये २५००) बम्बई, भारतीय ज्ञानपीठ काशी, जीवराजग्रंथमाला सालापुर, वार्षिक महायता के लिये दातारों से अपील की जाय। कारंजा मौरीज कारंजा, जैन माहिन्योद्धारकपंड मेलमा, नोट-२० मार्च १९१५ को ट्रस्ट कमेटी में जो ट्रस्टी दाँग्रन्थमाला बनारम, दि. जैन संघप्रमाला मथुग, उपस्थित थे और वे ट्रस्टी ही प्रथम कार्यकारिणीके सदस्य वीरशासनसंघ कलकत्ता, कुथसागरगन्यमाला मोलापुर। वीरसेवामन्दिरकी कार्यकारिणी सभाके दो प्रस्ताव प्रस्ताव १ प्रस्ताव २ श्रीमान् माह शान्तिप्रसादजीके पेटका आपरेशन सफ- वीरसेवामन्दिरकी यह कार्यकारिणी ममा प्राचार्य लता पूर्वक सम्पन्न होने और स्वास्थ्यमें उत्तरोत्तर सुधार एवं श्री जगलकिशोरजी मारनार अधिष्ठाता बीरसेवामन्दिरके कल लाभक समाचारोंको ज्ञातकर वोरसेवामंदिरकी कार्यकारिणीकी (21 जूनको महमा बीमार हो जाने के समाचारोंको ज्ञातकर यह सभा सन्तोष और हर्ष प्रगट करती हुई श्रीजिनेन्द्र भगवानसे प्रार्थना करती है कि साहजी शीघ्र ही पूर्ण चिन्तित हुई है और भगवान वीरप्रभुसे प्रार्थना करती है स्वस्थ हों और पूर्व की गई अपूर्व देश (सामाजिक और कि श्री मुख्तारसाहब शीघ्र ही प्रारोग्य-लाभ और दीर्घायु धार्मिक सेवाओंमें अपनी शक्ति और भी अधिक प्रदान करें। प्राप्त करें। Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चिट्ठा हिसाब अनेकान्त १३ वर्षका (जून सन १९५४ से) आय (जमा) व्यय (खर्च) ६२ ) प्राइक खाते जमा, जो बी० पी० आदि के द्वारा प्राप्त हुए। १२०४) सहायता खाते जमा । ११४३) संरक्षकों-सहायकों से ८१) साधारण सहायता खाते 11)। पिछले वर्ष का घाटा ८७१) ६७६) कागज खाते खर्च ४६) पिछला कागज, जो १२ वें वर्ष के अंत में शेष रहकर जमा किया गया । ४६६/-) कागज सफेद २०४३.४२४ के २६ रिम, जो सेठ वृद्धिचन्द कागजी चावड़ी बाजार से खरीद किये। १३ ) पार्ट पेपर, जो सेट वृद्धिचन्द और रूपचंद एण्ड सन्स चावड़ी बाजारसे खरीद किया। १२२४) १६८०) फाइलों और अनेकांतकी फुटकर किरण विक्रीसे प्रास १०) विज्ञापन खाते जमा ६६) कागज खाते जमा, जो खर्च होकर बाकी बचा २४) मफेद कागज २०४३. तीन रिमके लगभग २४ १५) आर्ट पेपर १५८ सीट १९६५) छपाई खाते खर्च, जो रूपवाणी प्रेस को दिये गये। १४००) एक से १० किरणों की छपाई बाबत । १६५) ११-१२वों सयुक्त किरणके मध्ये दिये गए। १५६१) २३५४३) घाटा ओ देना है १४८/-) इस वर्षका घाटा 2011) पिछले वर्षका घाटा २३५७%) ४७५०) १४३) पाप्टेज खाते खर्च, किरण । से १० तक का । ७२)ब्लाक बनवाई में दिये गए २०) सफर खर्च खात ३२) स्टेशनरी खातं खर्च ११३७॥) वतन खमत खर्च जो १३ महीने का बावत अद्ध वेतनके रूपम ५० परमानन्दको दिए गए। ४१) मुतरिक खाते खर्च १२५) प्रस्तुत संयुक्त कि० को बाबत शेष खर्च, जिसमें लगभग १००) प्रेसको देना और २५, पोप्टेजमें खर्च करना है। ३७७७॥3॥ . ८७112) घाटा पिछला ४६४६) १.१) बाबू छोटेलालजीके नाम, सेठ बैजनाथजी सरावगीकी सहायता वाला, जिसमें चित्रादिकोंका हिमाव पाना शेष है। ४०५000 परमानन्द जैन Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१%] अनेकान्त अपनी आलोचना और भावना [वर्ष ३ सहे दुख भारी औ' उत्ताप, जपा नहिं भाव-पूर्ण तव जाप ॥ प्रभो! रागादिक दोष निवार, धरूँ मैं समना-भाव उदार । यही तव पूजा उन्नतिकार, ___यही तव गुण कीर्तनका सार ॥ भूल-यश भटका सब संसार, न पाई शान्ति-सुधाकी धार । लखी नहिं अन्तज्योति अपार, सुधा बरसाती जो अनिवार । आपसा नेता पा अविकार, मार्ग पर लगा न संयम धार। रुला जगमें यों होकर ख्वार; मुझे धिक्कार ! मुझे धिक्कार! १ मुश्क रहता निज-नाभि-मॅझार, विपिनमें खोजे हिरन गँवार । त्यों हि मुझमें निज-सुख-भंडार खोज पर-द्रव्यों में बेकार ॥ तुच्छ सम्पत पा, यह हुँकार ! श्रणिक बल पा, यह अत्याचार ! ज्ञानको पाकर, धरा विकार; मुझे धिक्कार ! मुझे धिक्कार ! (४) अज्ञता-वश कीने बहु पाप, मोह-वश किये अनेक विलाप । वीर ! हो उम रुचिका विस्तार, लखू निज गुप्त-शक्ति-भंडार ! लहूँ निजमें सन्तोष अपार, मिटै भव-भ्रमण महा-दुखकार ॥ -युगवीर दिल्ली २०-६-५५ 'श्रीराजकली-मुख्तार-ट्रस्ट' की अोरसे सात छात्र-वृत्तियाँ 'श्रीराजकली मुख्तार इस्ट' को मुख्तार श्रीजुगलकिशोर छात्रवृत्ति प्राप्त करनेको इच्छुका छात्राओं को अपनी जीने, अपनी स्वर्गीया धर्मपत्नी श्रीमती राजकलीदेवीकी वर्तमान शिक्षा-योग्यतादिका उल्लेख करते हुए नीचे लिखे स्मृतिमें ५००१) की रकम निकाल कर, स्थापित किया है। पते पर पत्रव्यवहार करना गहिए । साथ ही अपना पूरा इस ट्रस्टकी शारसं इस वर्ष मात छात्र वृत्तियाँ देनेका निश्चय पता तथा परिचय भी मुवाच्य अक्षरों में लिखना चाहिए, किया गया है। ये छात्रवृत्तियाँ उन सुयोग्य छात्राओंको, जिससे उनके लिए उक्र ग्रन्थमें परीक्षाकी योजना अागामी चाहे वे जैन हों या जैनेनर, दी जाएगी जो वीरसंवा- दिसम्बर-जनवरीके लगभग की जा सके और इस बीचमें वे मन्दिरसे हालमें प्रकाशित स्वामी ममन्तभद्रक 'ममी जीन- ग्रन्थका अच्छा अभ्याम भी कर सकें। धर्मशास्त्र' और उसके 'हिन्दी भाष्य' में दक्षता प्राप्त कर ऊँचे नम्बरोंसं उत्तीर्ण होंगी। छात्रवृत्ति प्रतियोगिताकी इस जयवन्ती जैन परीक्षा में विशारद पास अध्यापिकाएं भी बैठ सकेंगों, जिन्हें मंत्रिणी 'श्रीराजकली-मुख्तार-ट्रस्ट' उस प्रकारसे उत्तीर्ण होने पर ५०) की एक मुश्त और शेष छात्रामों में प्रत्येक को ५) मामिककी एक वर्ष तक ठि.वीरसवामन्दिर, सरसावा, छात्रवृत्ति दी जायगी। जि. सहारनपुर Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय १. दूसरी भयंकर दुर्घटनासे त्राण जलवायु भी मुझे अनुकूल नहीं पड़ रहा है। अस्तु । पिछली तोंगा-दुर्घटनाको अभी दो वर्ष दो महीने भी इस दुर्घटनाके अवसर पर दोनों डाक्टरोंने, पुत्रीसम पूरे नहीं हो पाए थे कि एक दूसरी भारी दुर्घटनाका मुझे बहन जयवन्तीने घऔर बाब छोटेलालजी, पं० परमानन्दजी शिकार होना पड़ा। गत ११ जनको काम करते-करते तथा पं० होरालालजी शास्त्री श्रादिने मेरी जो सेवा की है अचानक एक भयंकर रोगका मेरे उपर आक्रमण हो गया, उप सबके लिये में उनका बहुत श्राभारी है। जिससे एकदम मन-पित्तादिका क्षय होकर शरीर ठण्डा पड २. पुरस्कारोंकी घोषणाका नतीजागया, म्वुश्की बढ गई और हम्त पादादिक जल्दी-जल्दी अनेकान्तकी गत दूसरी किरण (अगस्त १९५४) में मुडकर भारी वेदना उत्पन्न करने लगे । खूनका दौरा निम्न छह ग्रन्थों को खोजक लिये, जिनके उल्लेख तो मिलते (Circulation of blood) बन्द होकर सब कुछ हैं परन्तु वे उपलब्ध नहीं हो रहे हैं, मैंने अपनी तरफसे समाप्त होनेके ही करीब था कि इतनमें मेरे पोते डा. नेम- ६००) रुपयक छह पुरस्कारोंकी घोषणा की थी और साथमें चन्दका एक इंजेक्शन बाएं हाथको एक नस (रंग) में उन उल्लेख-वाक्यों श्राविका परिचय भी दे दिया था सफल हो गया और उससे शरीग्में गर्मीका स्पष्ट संचार जिनसे उनके निर्माण तथा पठन-पाठनादिका पता चलता हैहोता हुआ नज़र पड़ा। तबियतके कुछ सँभलने ही मुझे -जीवमिद्धि (स्वामी समंतभद्र), २-तत्त्वानुमासन जैसे तैसे बन्धुबर डा. रमुवीरकिशोरजी जेनके हम्पतालमें (म्वामी समंतभद्र), ३-४-सन्मतिसूत्रकी दो टीकाएँ-एक ले जाया गया जो निकट था और जहाँ मैं तांगा-दुर्घटनाके दिगम्बगकार्य मन्मति या सुमतिदेव-कृत और दूसरी श्वेताममय भी २० दिन रह चुका था। दोनों डाक्टरोंके परामर्श- म्बराचार्य मल्लवादि कृत, ५-तत्त्वार्थसूत्रकी टीका (शिवमे कुछ इंजेक्शन और दिये गये तथा १५-१५ मिनिटके कोटि), ६-विलक्षणकदर्थन (पात्र केसरी स्वामी) बाद पानी का दिया जाना निर्धारित हुआ। रात भर पैरों- सोजकी सूचगावधि फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा सं० २०११ टांगा आदिका मुइना और नम पर नम चढ़ कर वेदना तक रग्वी गई थी और साथ ही यह 'श्रावश्यक निवेदन' उत्पन्न करना जारी रहा, जिसे बहुत कुछ धैर्य के साथ सहन भी किया गया था किकिया गया। सुबह होनेपर बड इंजक्शन द्वारा, जो ढाई घटेके इन अन्यांक उपलब्ध होने पर साहित्य, इतिहास करब जनी हा शरीरमें नमीन पानी बहाना गया और तत्वज्ञानविपयक क्षेत्र पर भारी प्रकाश पडेगा और क्योंकि हम्न-पादादिकके मानका कारण शरीर में नमकमा अनेक उलझी हुई गुत्थियाँ म्वतः सुलझ जाएँगी । इमीसे कम हो जाना था । इस जेशनका त्वरित और साक्षात वर्तमानमें इनको खोज होनी वहुन ही आवश्यक है । अतः फल यह हुआ कि हस्तपादादिका मुन्द्रना उसी समय रुक सभी विद्वानोंको-स्वासकर जैन विद्वानोंको-इनकी खोज गया। मामी, पाया हुआ पानी खर्ट-कड़ए पित्तीको साथ लिये पूरा प्रयन्न करना चाहिये, सारे शास्त्रभण्डारोंकी लेकर जो उबकाई-बमन द्वारा निकल जाता था उसका अच्छी छान-बीन होनी चाहिये। उन्हें पुरस्कारकी रकमको निकलना भी बन्द हो गया। और कोई छह दिनके बाद न देखकर यह दग्वना चाहिये कि इन ग्रन्थोंको खोज-द्वाग में दम्पनानसे वापिस वीरसेवामन्दिरको भागया। हम देश और समाजको बहुत बड़ी सेवा कर रहे हैं । ऐसी इस तरह दूगरी भागे दुर्घटनास, जिमकी भयंकरता संवाओंका वास्तवमें कोई मूल्य नहीं होना-पुरस्कार नो पहनी दुर्घटनासे कुछ भी कम नहीं थी, यद्यपि धर्मरे आदर सत्कार एवं सम्मान व्यक्त करनेका एक चिन्ह मात्र प्रसादसे मेरा त्राण (संरक्षण) हो गया है परन्तु शरीर है। वे तो जिन ग्रन्थकी भी खोज लगाएँगे उसके 'उद्धारकर बहुत कुछ निप्पाण बन गया है। शरीर में शनियाँके क्षयस समझ जायेंगे।" जो कमजोरी आ गई है उसका दूर होना अब अधिक इतना सब कुछ होते हुए भी खेद है कि किसीने भी विश्राम एवं निश्चिन्ततादिको अपेक्षा रखता है, जिनका उस पर कुछ ध्यान नहीं दिया ! कहींसे खोजका प्रयत्नमनना दिल्ली वोरमेवामन्दिरमें रहने और उस कार्योका सूचक कोई पत्र भ प्राप्त नहीं हुआ जिमसे यह मालूम ज़िम्मेदारियोंका भार वहन करत नहीं बन सकता । दिल्लीका होना कि अमुक सज्जनने अमुक बड़े, अप्रसिद्ध या अपरि. Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० अनेकान्त (वर्ष १३ चित शास्त्र भंडारके प्रन्योंकी छानबीन की है और उसमें धनिकोंने अपने धनसे अनेकान्तकी सहायता की है वे उक्र ग्रन्थ नहीं मिले ! क्या इससे यह समझ लिया जाय अवश्य ही मेरे तथा संस्थाके द्वारा भन्यवादके पात्र हैं-उनके कि विद्वानों अथवा समाजको इन ग्रन्थोंकी ज़रूरत नहीं है ? सहयोगके बिना कुछ भी नहीं बन सकता था। धनसे नहीं ऐसा नहीं समझा जा सकता । समाजको ही नहीं किंतु सहायता करनेवालोंमें ज़्यादातर अनेकान्तके संरक्षक और देश और साहित्यके इतिहासको इनकी और इन जैसे दूसरे सहायक सदस्य है। सच पूछा जाय तो.इनके भरोसेपर हा भी कितने ही अनुपलब्ध प्रन्थोंकी बड़ी जरूरत है- बंद पड़े अनेकांतको फिरस चालू किया गया था और इन्हींके साहित्य तथा इतिहास-विषयके विद्वान तो इन ग्रथोंके दर्शन- आर्थिक सहयोगको पाकर उसके चार वर्ष निकल गये हैं। के लिये बहुत ही लालायित हैं । जब इन ग्रंथोंकी बड़ी अन्यथा, समाजमें माहित्यिक रुचिके प्रभाव और सत्साहित्यके जरूरत है तब इनकी खोजका प्रयत्न भी समाज-द्वारा कुछ प्रति उपेक्षाभावको लेकर, ग्राहक संख्याकी कमोके कारण बड़े पैमाने पर और व्यवस्थित रूपसे होना चाहिए- उसे कभोका बन्द कर देना पड़ता। विदेशोंकी लायबेरियों में भी इनकी खोज कराई जानी मुझे खेद है कि इस वर्ष मेरे सहयोगी बाबू जयचाहिये, जहाँ भारतके बहुतसे ऐसे ग्रन्थ पहुंचे हुए हैं भगवानजी, एडवोकेट अपनी कुछ परिस्थितियोंके वश, अपना जिनकी अभी तक सूची भी नहीं बन पाई है । मैं तो कोई भी लेख पाठकोंकी भेंट नहीं कर सके, जिससे पाठक अवधिको समाप्ति पर यह सोच रहा था कि यदि अवधिके उनके बहुमूल्य विचारोंसे वंचित ही रहे ! दूसरा खेद यह बाहर भी किसी परिश्रमशील सजनने इन ग्रन्थोंमेंसे किसी- है कि कलकत्ताके सेठ तोलारामजी गंगवाल (लाडनूं वाले) की भी खोज लगाकर मुझे उसकी सूचना की तो मैं तब भी गत सितम्बर मासमें २५१) रु. देकर अनेकान्तके संरक्षक बसे पुरस्कार दूंगा। अब मैं इतना और कर रहा हूँ कि बने थे, जिनकी सहायताकी रकम हिसाबमें दर्ज होगई, द्वितीय भादों के अंत तक खोज-विषयक परिणामकी और रसीद भेजी जा चुकी परन्तु आफिस-क्लर्ककी ग़लतीसेप्रतीक्षा करूँ, उसके बाद अपनी निर्धारित रकमके विषयमें पिछली किरणों में उनका नाम संरक्षकोंकी सूची में दूसग विचार किया जायगा। भादोंका महीना धर्म साधन- प्रकाशित नहीं किया गया और न अनेकान्तकी किरणें ही का महीना है और ऐसे सदज्ञान प्रसाधक ग्रंथरत्नोंकी खोज सेठ साहबके निर्देशित पते पर लाडनूं भेजी गई। इसके धर्मका एक बहुत बड़ा कार्य है अतः विद्वानों तथा दूसरे लिए में भारी दुःख व्यक्त करता हुआ सेठ साहबसे क्षमा सज्जनोंसे निवेदन है कि वे इस महीनेमें इन ग्रन्थोंकी चाहता है। प्राशा है वह क्लर्क की इस भूलके लिये मुझे खोजका पूरा प्रयत्न करें और अपने प्रयत्नके फलसे मुझे अवश्य ही क्षमा करेंगे। शोघ्र सूचित करनेकी कृपा करें। तीसरा खेद यह है कि यह संयुक्र किरण, जो २२ जून को प्रकाशित हो जानी चाहिये थी, आज दो महीनेके बाद ३. अनेकान्तकी वर्षसमाप्ति और कुछ निवेदन- अगस्तमें प्रकाशित हो रही है ! इसके विलम्ब-कारणको इस संयुक्त किरणके साथ अनेकान्तका १३वाँ वर्ष समाप्त यद्यपि कुछ न कहना ही बेहतर है, फिर भी मैं इतना ज़रूर हो रहा है। इस वर्ष भनेकाम्तने, समाजके राग-द्वेष और कह देना चाहता हूँ कि मैंने बीमारीकी अवस्थामें रोग-शय्या कगड़े-टंटोंसे अलग रह कर, अपने पाठकोंको क्या कुछ सेवा पर पड़े-पड़े पं० परमानन्दजीको यह सूचना कर दी थी कि की, कितने महत्वके लेख उनके सामने रक्खे. कितने नूतन इस रिण में अनेकान्तका वार्षिक हिसाब जरूर जायगा और माहित्यके सृजनमें वह सहायक बना, साहित्य और इतिहास- कुछ संपादकीय भी लिखा जायगा परंतु हिसाब तय्यार नहीं विषयकी कितनी भूल-भ्रान्तियोंको उसने दूर किया, उन- हो सका और न सम्पादकीय ही किसीके द्वारा लिखा जा झनोंको सुलझाया और कितने अपरिचित पुरातन साहित्य सका! हिसाबको पं. परमानन्दजीके देख-रेख में पं० जय और विद्वानोंका उन्हें परिचय कराया, इन सब बातोंको कुमारजी लिखते और रखते थे, गत अप्रैल माससे उनकी यहाँ बतलानेकी जरूरत नहीं है-सहृदय पाठक उनसे नियुक्रि बिल्डिंगके कार्यमें करदी गई थी, बिल्डिगके कार्योंसे भले प्रकार परिचित हैं। यहाँपर मैं सिर्फ इतना ही कहना अवकाश न मिलने आदिके कारण उन्होंने कह दिया कि चाहता हूँ कि जिन विद्वानोंने अपने लेखोंसे और जिन मुझे हिसाबके काममें योग देनेके लिये अवसर नहीं मिल Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ % 3D किरण ११-१२] सम्पादकीय [३२१ रहा है । इधर बा. छोटेलालजीको कलकत्तासे पाए और लेखोंका प्रफ जरूर देखता हूँ-दूसरे किसी खास लेखका बिल्डिंगके कार्यमे पूरा योग देते तथा स्वयं खड़े होकर प्रफ देखने में मुझे कदाचित् हा प्रवृत्त होना पड़ता है। परिश्रमके साथ काम कराते हुए कई महीने हो गये और वे प्रफ रीडिंग और सम्पादनका कार्य प्राय: ५० परमानन्दजी अब जल्दी ही वापिस कलकत्ता जाना चाहते थे और साथ ही कर रहे हैं । मेरी वृद्धावस्था और रुचिके भी कुछ बदल ही यह भी चाहते थे कि बिल्डिगकी नीकी मंजिलको जानेके कारण ये दोनों परिश्रम-साध्य कार्य अब मुझसे प्रायः सब तरहसे पूरी कराकर, उसे किराये पर चढ़ाकर और नहीं बनते। और इस से मैं सम्पादक-पदसे एक दो बार दूसरी मंज़िलके हॉल आदिकी छतें डलवाकर ही कलकत्ता त्यागपत्र भी दे चुका है, जिसे यह कह कर अस्वीकार कर जावें । इमसे मामान ग्वरीदने, बिजली तथा नलोंका फ़िटिंग दिया गया कि आप कार्य भले ही न करें, आपका नाम कराने, उनके क्रिटिंगकी शीघ्रताके लिये बार २ अनेक अफसरोंके सम्पादक-मण्डलमें जरूर रहेगा, परन्तु मेरे द्वारा होनेवाले पास जाने, सरकारी दफ्तरों में चक्कर लगाने भादिके कितने ही कार्योकी कोई दूसरी व्यवस्था नहीं की गई ! अस्तु । काम ऐसे नये खड़े होगये जिनकी मारा-मारीमें ६० परमानंद अब तो इस नये भयंकर रोगके धक्कसे मेरी शक्तियां नीको भी लगना पड़ा और अनेकान्तका सारा काम गौण और भी जीर्ण-शीर्ण हो गई हैं। इसीसे शरीरमें शक्रके कर दिया गया । उधर दिल्ली में लगातार अशान्ति भोगते पुनः संचार एवं स्वास्थ्य-लाभको दृष्टिसे मैं कमसे कम एक हुए मेरा प्राण घुटने तथा स्वास्थ्य और भी गिरने लगा, वर्षके लिये सम्पादक-पदस अवकाश ग्रहण कर रहा हूँ। इसमे स्वास्थ्य गाथा शान्ति-लाभ लिये मैं जुलाई के मध्यमें अत: इस किरणके माथ अपने पाठकोंसे विदाई ले रहा हूँ। सरमावा चला गया, जहाँ मुझे शान्ति मिली और मेरे यदि जीवन शेष रहा तो फिर किसी-न-किसी रूपसे उनकी म्वास्थ्यमें अपेक्षाकृत कितना ही सुधार हुश्रा है. और उसीका सेवामें उपस्थित होमगा । अपने इस लम्बे संवा-कालमें यह फल है कि आज मैं यह 'सम्पादकीय' लिखने में प्रवृत्त यदि कोई अनुचित या अप्रिय आचरण पाठकोंके प्रति मेरा हो रहा है। अनेकान्तका हिसाब भी जैसे तैसे तय्यार ही बन गया हो तो उसके लिये मैं उनसे हदयसे क्षमा चाहता गया है और वह इस किरणमें प्रकाशित किया जा रहा है। हूँ, श्राशा है वे अपने उदारभावसे मुझे ज़रूर पमा करेंगे। यहाँ एक बात और भी प्रकट कर देने की है और वह ४. अनेकान्तका हिसाब और घाटायह कि कुछ विद्वानोंका ऐसा ख़याल है कि अनेकान्तका अनेकान्तक इस १३ वर्षका हिसाब, जिसे पं० परमास्टैंड कुछ गिर रहा है, जिसका जिक्र उन्होंने अध्यक्ष बाबू नन्दजी शास्त्रीने तय्यार किया है, प्रस्तुत किरणमें अन्यत्र छोटलालजोस किया है। इस विषयों में इस समय इतना ही प्रकाशित हो रहा है। हिमाबको देखनेसे मालूम होता है कि निवेदन कर देना चाहता है कि जहों नक लेखोंके प्रकार, इस वर्षकी कुल आमदनी २३६३-) है, जिसमें नियत ग्राहकोंस चयन-युनाव या मंझलनसे सम्बन्ध है पत्रका मडर्ड प्रायः प्राप्त हुई रकम केवल १२ ) है, शेष संरक्षक-महायकों कुछ भी नहीं गिग-वह जैया पिछले कुछ वर्षोंमें था वैमा तथा फाइलोंकी विक्री प्रादिस प्राप्त रकमें हैं। और खर्चका अब भी है। दूसरे अनेक विद्वानोंक ऐसे पत्र पा रहे हैं जो कल जोड ३७६ ) है। अत: इस नका घाटा अब भी लेवोंकी दृष्टिय इस जैन समाजका एक आदर्श एवं १४६२॥-)॥ हुया, जिसमें पिछले घाटेको रकम महत्वपूर्ण पत्र बतला रहे हैं। हाँ, दो दृष्टियोंसे पत्रका ८७१10) मिला देनेसे घाटकी कुल रकम २३६४) हो स्टैंडर्ड कुछ गिरा हुया जरूर कहा जा सकता है-एक तो जाती है । यह रकम वास्तवमें चार वर्षके घाटकी है। यदि यह कि दूसरोंके लेम्बोंका सम्पादन अब मेरे द्वारा प्रायः १.वें वर्षके घाटेकी रकम २३३३) को, जिसके कारण नहीं होता, जब मेरे द्वारा लेखांका सम्पादन होता था तब पत्र वर्षभरसे ऊपर बन्द रहा था, अलग रक्खा जाय तो भाषा-साहित्यादिके सुधार-द्वारा अधिकांश लेग्वोंमें कुछ यह कह सकते हैं कि शेष तीनों वर्ष, अपने संरक्षकों नथा नया जीवन पा जाता था और इसलिये पाठकोंको वे अधिक सहायकों के बल पर, बिना किसी घाटेके ही पूरे हो गये है। रुचिकर मालूम होते थे। दूसरी दृष्टि पत्रके कुछ अशुद्ध परन्तु पाटेकी उस रकम का तो पहले पूरा होना अनिवार्य छपनेकी है और उसका प्रधान कारण यही है कि पत्रका था, इसलिये चार वर्षके घाटेकी जो रकम स्थिर की गई वह प्रफ रीडिंग अब मेरे द्वारा प्राय: नहीं होता, मैं स्वयं अपने प्रायः ठीक हो है। मैंने एक दो बार यह प्रक्ट किया था कि Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२1 अनेकान्त [ वर्षे १३ ५. अगले वर्षकी समस्या घाटेकी उ स्थितिमें अनेकान्तको अगले वर्ष कैसे निकाला जाय-कहांसे और कैसे इतनी बड़ी रकमको पूरा किया जाय? यह एक समस्या है जो इस समय संचालकोंके सामने खड़ी है। दूसरे शब्दोंमें यों कहना चाहिए कि जो समस्या १० वर्षक अन्तमें उत्पन्न हुई थी यही भाज फिरसे उपस्थित हो गई है। इस समस्याको हल किये बिना भागे और घाटेकी जोग्खोंको कौन उठावे ? अत: अनेकालके प्रेमी पाठकों और उससे पूरी महानभूति रखने वाले सज्जनोंसे निवेदन है कि वे इस समस्याको हल करनेके लिए अपनेअपने सुझाव शीघ्र ही उपस्थित करनेकी कृपा करें, जिसमे उनपर गंभीरता के साथ विचार होकर शीघ्र ही कोई समुचित मार्ग स्थिर किया जा सका क्योंकि साहित्य तथा इतिहासकी ठोम सेवा करनेवाले से पत्रोंका ममाज-हितको प्टिसे अधिक दिन तक बन्द रहना अच्छा नहीं है । शाशा है यह समस्या जल्दी ही हल होगी और इसके हल होने तक प्रेमी पाठक, समस्या हलग यथाशक्ति अपना सहयोग देते हुए, धैर्य धारण करेंगे। 'अनेकान्तके यदि १०. संरक्षक और ५०० सहायक हो जावें तो वह घाटेको चिन्तासे बहुत कुछ मुक्र हो सकता है, परन्तु इसपर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया गया। यदि अनेकान्तके प्रेमी पाठक कोशिश करते तो इतने संरक्षकों तथा सहायकोंका हो जाना कोई बड़ी बात नहीं थी । परंतु खेद है कि उन्होंने संरक्षकों तथा सहायकोंको बनानेकी तो बात दूर, ग्राहकोंको बनानेकी भी प्रायः कोई कोशिश को मालूम नहीं होती। घाटेका प्रधान कारण ग्राहक-संख्याकी कमी है और उसीकी वजहसे संरक्षकों तथा सहायकोंकी ज़रूरत पड़ती है। यदि ग्राहक-संख्या एक हजार भी हो तो वर्तमान स्थितिमें घाटेको चिन्ताके लिये कोई स्थान नहीं रह सकता। इस वर्ष ग्राहक-संख्याकी वृद्धि के लिये तीन उपयोगी योजनाएँ की गई-एक १२) की जगह १०) रु. पेशगी भेजने वालोंको अनेकान्तकी दो कापी दी जानेको, एक उना लिये और दूसरी उनके किसी इष्ट-मित्रादिके लिये जिस वे भिजवाना चाहें । दूसरी, स्थानीय किसा सस्था तथा मन्दिरादिको प्राहक बनाकर १२) रु. पेशगी भेज देनेवाले विदानोंको एक वर्ष तक फ्री पत्र दिये जानेकी और तीसरी ६) रु.पेशगी मेज देनेवालोंको १. रु. की पुस्तके १) में दिये जानेकी, जिससे पत्र ) में ही सालभर पढ़नेको मिल जाता है। इतनी सुविधाएँ दिये जानेपर भी प्रेमी पाठकॉन ग्राहक-संख्याको वृद्धिका कोई खास प्रयत्न नहीं किया, यह बडे ही खेदका विषय है !! यदि वे दो-दो ग्राहक भी बनाकर भेज देने अथवा अपने प्रयत्न-द्वारा किसीको २५१)दन वाला मरक्षक या 1.1) देने वाला सहायक बना देने तो आज पत्रके घाटेका प्रश्न ही पैदा न होता । इस समय संरक्षकोंको संख्या कुल २४ और सहायकोंकी संख्या ३३ है । मंरक्षकोंके पायसे सहायताकी कुल रकम पा चुकी है। सहायकॉमसे एकके पाम पूरी, दुसरेके पास श्राधी और तीसरेके पास माधीसे भी कम रकम बाकी है. जिनके नाम क्रमश: इस प्रकार हैं-१. बा. जिनेन्द्रकुमारजी जैन बजाज सहारनपुर, २. ला. परमादोलालजी पाटनी देहली, ३. ला. रतनलालजी कालकावाले दहली। आशा है ये तीनों सज्जन अपनी स्वीकृत महायताके वचनको अब शीघ्र ही पूरा करनेकी कृपा करेंगे। शेष सब महायकोंसे भी सहायताकी पूरी रकम था चुकी है। इस सहायताके लिये संरक्षक और सहायक दोनों ही धन्यवादके पात्र हैं। इस सम्बना एक विचार यह चल रहा है कि पत्रको त्रैमाम्पिक करके एकमात्र साहित्य और इतिहासके कामोंक लिए ही सीमित कर दिया जाय, इससे ग्राहकसंख्या गिरकर आर्थिक समस्याके और भी जटिल हो जानेकी सम्भावना है। दृप्सरा विचार है कि पत्रको बदस्तूर मासिक रखकर उसके लिए एक तो उपहार ग्रन्थोंकी याजना की जाय और दूसरा कार्य संरक्षकों तथा सहायकों की वृद्धिका किया जाय और इन दोनों कार्योको सान बनाने की ज़िम्मेदारी कुछ प्रभावशाली प्रेमी प्राहक एवं पाठक मज्जन अपने-अपने ऊपर लनेकी कृपा करें। तीसरा विचार है योग्य प्रचारक द्वारा ग्राहकवृद्धिकी योजना, जिसके लिये योग्य प्रचारककी आवश्यकता है। और चौथा विचार है मूल्य तथा पृष्ठसंख्याको कम करके पत्रको जैस तैसे चालू रग्वा जाय । इन सब विचारोंकी उपयुक्रना-अनुपयुक्तापर भी समस्याको हल करते समय उन्हें विचार कर लेना चाहिए । जुगलकिशोर मुख्तार Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओं अहम् अनेकान्त सत्य, शान्ति और लोकहितके सन्देशका पत्र नीति-विज्ञान दर्शन-इतिहास-साहित्य-कला और समाज-शास्त्रके प्रौढ़ विचारोंसे परिपूर्ण सचित्र मासिक सम्पादक-मंडल जुगलकिशोर मुख्तार छोटेलाल जैन जयभगवान जैन एडवोकेट परमानन्द शास्त्री तेरहवाँ वर्ष (श्रावण कृष्णा प्रतिपदा वीर नि० सं० २४८० से अपाद शुक्ला वीर नि० सं० २४८१ वि० सं० २०११, १२, जुलाई सन् १९५४ से जून सन् १९५५ तक) | মাহাক परमानन्द जैन शास्त्री वीरसेवामन्दिर, दि. जैन लाल मन्दिर चांदनी चौक, देहली वार्षिक मुरूप । बह रुपये । भास्त अगस्त (एक किरण का मूल्य । आठाने १६५५ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्तके तेरहवें वर्षकी विषय-सूची विषय और लेखक पृष्ठ विषय और लेखक अतिशय क्षेत्र खजुराहा-परमानन्द शास्त्री . तीर्थ और तीर्थकर-[पं० हीरालाल सिद्धान्त शास्त्री १८ अपनी मालोचना और भावना (कविता)-[युगधीर टायटिज दिल्ली और उसके पाँच नाम-[६० परमानन्द शास्त्री " अपभ्रश भाषाका जंबूस्वामीचरिउ और महाकषि दिल्ली और योगिनीपुर नामोंकी प्राचीनताबीर-[परमानन्द जैन शास्त्री १४६ [भगरचन्द नाहटा १ अपभ्रन्शभाषाका पार्श्वनाथ चरित-परमानंद जैन २५२ दीवान अमरचन्द-परमानन्द जैन अभिनन्दन पत्र १३४ दीवान रामचद्र छावड़ा-[ परमानन्द शास्त्री २५६ असंज्ञी जीवोंकी परम्परा धर्म पंचविंशतिका (ब्रह्मजिनदास) विरचित[ डा. हीरालाल जैन एम. ए. १७५ [जुगलकिशोर मुख्तार २५६ अश्पृश्यता विधेयक और जैन समाज धारा और धाराके जैन विद्वान-[ परमानन्द शास्त्री [श्री कोमलचन्द्रजी जैन एडवोकेट २१२ नागकुमारचरित और कवि धर्मधर-परमानन्द २. अहिंसा तत्व-[परमानन्द शास्त्री नाथ अब तो शरण गहूँ (कविता)भहिंसा की युगवाणी-[डा. वासुदेवशरण अग्रवाल २८६ [मनु ज्ञानार्थी 'साहित्यरत्न' । महोरात्रिकाचार-[ शुल्लक मिद्धि मागर निरतिवादी समता--[ सत्य भक्क मात्महितकी बातें-[ दुल्लकसिन्डिसागर निमीडिया और नशियां--[हीरालाल सिन्दान्त शास्त्री ५३ काक पिक-परीक्षा-[पं० हीरालाल सिद्धान्त शास्त्री ७८ निश्चयनय और व्यवहारनयका यथार्थनिर्देश कुमुदचन्द्र भट्टारक-[पं० के० भुजबली शास्त्री १७८ [सुलक गणेशप्रमादजी वर्णी किसकी जीत (कविता)- नेमिचन्द्र जैन "विनम्र' १०६ पं० जयचन्द और उनकी साहित्य-सेवाक्या प्रन्य-सूचियों श्रादि परसे जैन साहित्यके इतिहास [परमानन्द शास्त्री का निर्माण सम्भव है।-[परमानन्द शास्त्री २८. पं.दीपचन्दजी शाह और उनकी रचनाएँक्या व्यवहार धर्म निश्चयका साधक है? [परमानन्द शास्त्री -[जिनेन्द्र कुमार जैन २२॥ , 'परिशिष्ट क्या असंही जीवोंके मनका सद्भाव मानना आवश्यक है ? पंडित और पंडित पुत्रोंका कर्तव्य-[पं. वंशीधर ग्याकरणाचार्य [तुल्लक मिद्धिसागर १०८ क्या सुख-दुःखका अनुभव शारोर करता है? पार्श्व जिन जयमाल-निन्दास्तुति (कविता)-पुल्लक सिद्धिसागर स्त्र. ५० ऋषभदाम चिलकाना निवासी १८२ कोल्हापुरके पार्श्वनाथ मंदिरका शिलालेख पुरातन जैन माधुओं का आदर्श-[५० हीरालाल शास्त्री १. -[परमानन्द जैन २४० पूजा राग-समाज तातें जैनिन योग किम? (कवितापुलक श्री भद्रबाहुजीका अभिमत २४६ । स्व. पं. ऋषभदास १६५ अन्योंकी खोजके लिये ६००) रुपयक छह पुरस्कार पासहराम और भट्टारक ज्ञानभूषण - [परमानंद जैन १६ -[जुगलकिशोर मुख्तार पृथ्वी गोल नहीं चपटी है-एक अमेरिकन विद्वान् १७६ चन्द्रगुप्त मौर्य और विशास्त्राचार्य-परमानन्द २७६ प्राक्कथन ( समीचीन धर्मशास्त्र)चन्दल युगका एक नवीन जैन प्रतिमालेख [डा. वासुदेवशरण अग्रवाल २५० [प्रो. ज्योतीप्रसाद जैन एम० ए० १८ बरगड प्रा-तके दो दिगम्बर जैन मन्दिर-परमानंद ११२ चिट्ठा हिसाब अनेकान्तके १३ वर्षका- ३१७ भगवान ऋषभ देवके श्रमर स्मारकजैन समाजके सामने एक प्रस्ताव [पं० हीरालाल सिद्धान्त शास्त्री [दौलतराम जी 'मित्र' २८४ भगवान भादीश्वरकी ध्यान मुद्रा (कविता)डा. भायाणी एम.ए. की भारी भूल-जुगाज किशोर ४ [कविवर दौलतराम २६७ १५३ " २१७ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ r विषय और लेखक पर विषय और लेखक पृष्ठ भगवान महावीर-[परमानन्द शास्त्री २४ रोपड़की खुदाई में महत्वपूर्ण ऐतिहासिक वस्तुओं की भगवान महावीर और उनका लोक कल्याणकारी उपलब्धिसन्देश-[डा.हीरालाल एम० ए० २५४ वादीचन्द्र रचित अम्बिका कथासारभट्टारक श्रुतकीर्ति और उनकी रचनाएँ [श्री अगरचन्द नाहटा १.. परमानन्द शास्त्री २७९ विश्वको प्रशान्तिको दूर करनेके उपाय - भारतकी राजधानीमें जयधवल महाधवल ग्रंथराजों [परमानन्द जैन .१ का अपूर्व स्वागत परमानन्द जैन १५८ वीरसेवामन्दिरको प्राप्त महायता भन्यमार्गोपदेश उपासकाध्ययन-तुमिद्धिसागर १७६ वीरसवामन्दिरको स्वीकृत महायता भारतीय इतिहासका एक विस्मृत पृष्ठ (जैन सम्राट वीग्लेवामन्दिर ट्रस्टका दो मीटिंग २५४ राणा सुहिलदेव)- [श्री लल्लनप्रसाद व्यास २४६ वीरसेवामन्दिर सोसाइटीकी मीटिंग भाषा साहित्यका भाषा-विज्ञानको दृष्टिसे अध्ययन- श्रमण संस्कृतिमें नारी-परमानन्द शास्त्री ८४ श्री माईदयाल जैन बी.ए., बी.टी. २१. श्रावकोंका प्राचार विचार- [० मिन्द्विमागर १८६ मद्रास और मयिलापुरका जैन पुरातत्त्व श्रीकुन्दकुन्द और समनभद्रका तुलनात्मक अध्ययन[छोटेलाल जैन ३५ [बान्न ब्रह्मचारिणी विद्युल्लना बी. ए. २६१ महापुराणकलिका और कवि ठाकुर श्रीधवनग्रन्थराजोंके दर्शनोंका अपूर्व श्रायोजन-. [परमानन्द शास्त्री १८१ परमानन्द जैन १३५ श्रीनेमिनाथाष्टक स्तोत्र ४१ महापुगणकलिकाकी अन्ति प्रशस्ति-[परमानन्द २०२ श्री० पं० मुख्तार सा० से नम्र निवेदनमहाविकल संमामरी (कविता)- [बनारसीदास २३६ [श्री हीराचन्द बोहरा बी.ए.१४२ मुक्रिज्ञान (कविता)-[श्री मनुज्ञानार्थी साहित्यरत्न १२० श्रीवीरजिनपूजाष्टक (कविता)-[जुगलकिशोर मुगतार १२२ मुनियों और श्रावकोंका शुद्धोषयोग वीरशासनजयन्ती महोत्सव-परमानन्द जैन [पं० हीरालाल जैन सिद्धान्तशास्त्री २०१ श्री हीराचन्द्रबोहराका नम्र निवेदन और कुछ शंकाएंमूलाचारके कर्तृत्वपर नया प्रकाश [जुगलकिशोर मुख्तार १३७, १६२, १८७, १९३, २११ हीरालाल सिद्धान्त शास्त्री १८ मकामधर्म साधन- [जुगलकिशोर मुख्तार . मौजमाबादके जैन शास्त्रभंडारमें उल्लेखनीय ग्रंथ- मखि पर्वराज पर्युषण पाये (कविता)-[मनु ज्ञानार्थी ॥ परमानन्द शास्त्री ८० सन्यवचन माहात्म्य (कविता)-[मुनालाल 'मणि' ५२ मौजमावादके जैन समाजके ध्यान देने योग्य समन्तभद्र भारती दवागम [युगवीर १३३, ६५, १८, १४७, १६५,111, २१५ समयसारकी १२वीं गाथा और श्रीकानजीस्वामीराजधानीमें वीरशासन-जयन्ती और वीरसेवामन्दिर [जुगलकिशोर मुख्तार १ नूतन भवनके शिलान्यासका महोत्सव-[परमानन्दजैन २७ सम्पादकीयराजस्थानके जैन माहित्य भंडारों में उपलब्ध महत्वपूर्ण- सम्पादकीय नोट-परमानन्द जैन २२६ साहित्य-[कस्तूरचन्द्रजी एम. ए. सम्पादकीय-[जुगलकिशोर मुख्तार राजस्थानमें दासी प्रथा-[परमानन्द जैन सम्यग्दृष्टि और उसका व्यवहार-[० सिद्धिसागर ११. राजस्थान विधानसभाम दि० जन धमावराधाविधयक- साधुत्वमें नग्नताका स्थान[बा० छोटेलाल जैन ६४ [पं. वंशीधरजी व्याकरणाचार्य २५॥ राष्ट्रपति और प्रधानमंत्रीका महावीर जयन्तीके साहित्य परिचय और समालोचनअवसरपर भाषण २६३ [परमानन्द जैन, ६५, १६, १३२, २६६ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंह-श्वान-समीक्षा-पं. हीरालाल सिद्धान्त शास्त्री हिंमक और अहिंसक (कविता)-[मुमालाल मणि ५२ स्वागतगान (कविता)- ताराचन्द्र 'प्रेमी' ३२ हिसाबका संशोधन (टाइटिल)हस्तिनागपुरका बड़ा जैन मन्दिर-[परमानन्द जैन १४ हुँबर या हुमडवंश और उसके महत्वपूर्ण कार्यहिन्दी भाषाके कुछ ग्रंथोंकी नई खोज-परमानन्द जैन १.१ परमानन्द जैन शास्त्री १२३ समीचीन-धर्मशास्त्र (रत्नकरण्ड) मुख्तार श्रीजुगलकिशोरके हिन्दी-भाष्य-सहित छपकर तय्यार सर्व साधारणको यह जान कर प्रसन्नता होगी कि श्रावक एवं गृहस्थाचार-विषयक जिस अति प्राचीन तथा समीचीन धर्मग्रन्थके हिन्दी भाष्य-सहित कुछ नमूनोंको 'समन्तभद्र-वचनामृत' जैसे शीर्षकोंके नीचे अनेकान्तमें प्रकाशित देख कर लोक-हृदयमें उस समूचे भाष्य-ग्रन्थको पुस्तकाकार रूपमें देखने तथा पढ़नेको उत्कण्ठा उत्पन्न हुई थी और जिसकी बड़ी उत्सुकताके साथ प्रतीक्षाकी जा रही थी वह अब छपकर तैयार हो गया है, अनेक टाइपोके सुन्दर अक्षरोंमें ३५ पांडके ऐसे उत्तम कागज पर छपा है जिसमें २५ प्रतिशत रूई पड़ी हुई है। मूलग्रन्थ अपन विषयका एक वेजोड़ ग्रन्थ है, जो समन्तभद्र-भारतीमें ही नहीं किन्तु समूचे जैनसाहित्य में अपना खास स्थान और महत्व रखता है । भाष्य, मूलकी सीमाके भीतर रह कर, ग्रन्थके मर्म तथा पद-वाक्योंकी दृष्टिको भले प्रकार स्पष्ट किया गया है, जिससे यथार्थ ज्ञानके साथ पद-पद पर नवीनताका दर्शन होकर एक नए ही रसका श्राग्वादन होता चला जाता है और भाज्यको पढ़नेकी इच्छा बराबर बनी रहती है—मन कहीं भी ऊबता नहीं। २०० पृष्ठके इस भाप्यके साथ मुख्तारश्रीकी १२८ पृष्ठकी प्रस्तावना, विषय-सूचीके साथ, अपनी अलग ही छटाको लिए हुये है और पाठकोंके सामने खोज तथा विचारकी विपुल सामग्री प्रस्तुत करती हुई ग्रन्थके महत्वको ख्यापित करती है । यह ग्रंथ विद्यार्थियों तथा विद्वानों दोनोंके लिए समान रूपसे उपयोगी है, सम्यग्ज्ञान एवं विवेककी वृद्धि के साथ आचार-विचारको ऊँचा उठानेवाला और लोकमें सुख-शान्तिकी सच्ची प्रतिष्ठा करने वाला है इस ग्रन्थका प्राक्कथन डा. वासुदेवजी शरण अग्रवाल प्रो० हिंदू-विश्वविद्यालय बनारसने लिखा है और भूमिका डा० ए० एन० उपाध्ये कोल्हापुरने लिखी है । साथमें पूज्य क्षुल्लक श्री गणेशप्रपाद जी वणी की शुभ सम्मति भी है । इस तरह यह ग्रंथ बड़ा ही महत्वपूर्ण है। यदि आपने आर्डर नहीं दिया है तो शीघ्र दीजिए,अन्यथा पीछे पछताना पड़ेगा। लगभग ३५० पृष्ठके इस दलदार सुन्दर गजिन्द ग्रन्यकी न्योछावर ३) रुपए रखी गई है । सुन्दर जिम्द बंधी हुई है । गैटप चित्ताकर्षक है । पठनेच्छुको बथा पुस्तक विक्रेतामों (बुकसेलरों) को शीघ्र ही आर्डर देकर मंगवा लेना चाहिए। मैनेजर 'वीरसेवामन्दिर-ग्रंथमाला' दि. जैन लालमन्दिर, चाँदनी चौक, देहली Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीरसेवामन्दिरके सुरुचिपूर्ण प्रकाशन (१) पुरानन-जैनवाक्य-सूची-प्राकृतके प्राचीन ६४ मूल-ग्रन्थाकी पद्यानुक्रमणी, जिसके साथ ४८ टीकादिग्रन्थामें उद्धृत दुसरे पद्याकी भी अनुक्रमणी लगी हुई है । सब मिलाकर २५३५३ पद्य-वाक्याको सूची । संयोजक और सम्पादक मुख्तार श्रीजुगलकिशोरजी की गवेषणापूर्ण महत्वको ७० पृष्ठकी प्रस्तावनासे अलंकृत, डा. कालीदास नाग एम. ए.. डी. लिट् के प्राक्कथन (Fore word) और डा. ए. एन. उपाध्याय एम. ए. डी. लिट की भूमिका (Introduction) मे भृषित है, शोध-योजक विद्वानों के लिये अतीव उपयोगी, बड़ा साइज, जिल्द ( जिसकी प्रस्तावनादिका मूल्य अलग पाच रुपये है ) (0) आप्त-परीक्षा-श्रीविद्यानन्दाचायकी स्वोपज मटीक अपूर्वकृति,प्राप्तांकी परीक्षा द्वारा ईश्वर-विषयके सुन्दर परम और मजीव विवचनको लिए हुण, न्यायाचार्य पं. दरबारीलालजी के हिन्दी अनुवाद तथा प्रस्तावनादिसे युक्त, सजिल्द । (३) न्यायदीपिका-न्याय-विद्याकी सुन्दर पाथी, न्यायाचार्य पं. दरबारीलालजीके संस्कृतटिप्पण, हिन्दी अनुवाद, विस्तृत प्रस्तावना और अनेक उपयोगी परिशिष्टोंसे अलंकृत, मजिल्द । .. (४) स्वयम्भूम्तात्र--समन्तभद्रभारतीका अपूर्व ग्रन्थ, मुख्तार श्रीजुगलकिशोरजीके विशिष्ट हिन्दी अनुवाद, छन्दपार चय, ममन्तभद्र-परिचय और भक्तियोग, ज्ञानयोग तथा कर्मयोगका विश्लेषण करनी हुई महत्वकी गवेषणापूर्ण १०६ पृष्ठको प्रस्तावनास मुशोभित। ... (१) स्तुतिविना-स्वामी समन्तभद्रकी अनाग्वी कृनि, पापांक जीननेकी कला, मटीक, मानुवाद और श्रीजुगलकिशोर मुख्नारकी महत्वकी प्रस्तावनादिम अलंकृत सुन्दर जिल्द-सहित । (१) अध्यात्मकमलमानण्ड-पंचाध्यायीकार कवि राजमल्लकी सुन्दर श्राध्यात्मिक रचना, हिन्दीअनुवाद-हित और मुख्तार श्रीजुगलकिशोरकी खोजपूर्ण ७८ पृष्ठकी विस्तृत प्रस्तावनामे भूषित । (७) युक्त्यनुशासन-तत्वज्ञानसे परिपूर्ण ममन्तभद्रकी असाधारण कृति, जिसका अभी तक हिन्दी अनुवाद नहीं हुश्रा था । मुख्नारश्रीके विशिष्ट हिन्दी अनुवाद और प्रस्तावनादिने अलंकृत, मजिल्द । ) (८) श्रीपुरपाश्वनाथस्तोत्र-प्राचार्य विद्यानन्दचित, महन्वकी स्तुति, हिन्दी अनुवादादि महित। " ॥) (1) शासनचतुम्निशिका-(तीर्थपरिचय)-मुनि मदनकीर्तिकी १३ वीं शताब्दीको सुन्दर रचना, हिन्दी अनुवादादि-हित । (१०) सत्साच-स्मरण मंगलपाठ-श्रीवीर ईमान और उनके बाद के २१ मह प्राचार्यों के १३७ पुण्य-स्मरणोका महत्वपूर्ण संग्रह, मुख्तारश्रीक हिन्दी अनुवादादि-पहित । (११) विवाह-ममुहंश्य-मुख्तारश्रीका लिम्बा हुआ विवाहका सप्रमाण मार्मिक और तात्विक विवेचन ॥) (५०) अनेकान्त-रस-लहरी-अनकान्त जम गढ़ गम्भीर विषयका बड़ी सरलतासे समझने-समझानेकी कुजी, मुख्तार श्रीजुगलकिशार-लिग्वित । (१३) अनित्यभावना-श्रा० पद्मनन्दी की महत्वको रचना, मुख्तारश्रीके हिन्दी पद्यानुवाद और भावार्थ सहित ।) (५४) नत्त्वार्थमृत्र-(प्रभाचन्द्रीय )-मुख्तारश्रीक हिन्दी अनुवाद तथा व्याख्यान युक्त । (१५) श्रवणबेलगोल और दक्षिणकं अन्य जैनतीर्थ क्षेत्र-ला. राजकृष्ण जैन समाधितन्त्र और इष्टोपदेश पटोक साजिद ३), जैन अन्य प्रस्ति भंग्रह.), समीचीन धर्मशास्त्र ३) महावीर का सर्वोदय तीर्थ ), समन्तभद्र विचार-दीपिका )। ___ व्यवस्थापक 'वीरसेवामन्दिर-ग्रन्थमाला' वीरसेवामन्दिर, जैन लाल मन्दिर, चाँदनी चौक देहली। ... Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Regd. No D. 211 अनेकान्तके संरक्षक और सहायक संरक्षक १०१)बा० लालचन्दजी जैन सराबगी १५००) बा० नन्दलालजी सरावगी, कलकत्ता १.१) बा. शान्तिनाथजी कलकत्ता २५१) बा.छोटेलालजी जैन सरावगी,, १०१) बा. निर्मलकुमारजी कलकत्ता २५१) बा० सोहनलालजी जन लमंच १०१) बा. मातालाल मक्खनलालजी, कलकत्ता २५१) ला० गुलजारीमल ऋपभदासजी १०१ बा. बद्रीप्रसादजी सरावगी, २५०) बा० ऋषभचन्द (B.R.C. जैन १०१) बा. काशीनाथजी, .. मा० काशीनाथजी, २५१) बा. दीनानाथजी सरावगी १०१, बा० गोपीचन्द रूपचन्दजी २५१) बा० रतनलालजी झांझरी १.१) बा. धनंजयकुमारजी २५१) बा० बल्देवदामजी जैन मगधगी , १०१) बा. जीतमल जा जैन २५१) सेठ गजराजजी गंगवाल १०१) बा. चिरंजीलालजी सरावगी , २५१) सेठ सुआलालजी जैन १०१) बा. रतनलाल चांदमलजी जैन, रोची २५१) बा० मिश्रीलाल धर्मचन्दजी १०१) ला. महावीरप्रसादजी ठेकेदार, देहली २५१) सेठ मांगीलालजी १०१) ला• रतनलालजी मादीपुरिया, देहली २५१) सेठ शान्तिप्रसादजी जैन १०१) श्री फतहपुर जैन समाज, कलकत्त। २५१) बा० विशनदयाल रामजीवनजी, पुलिया १०) गुप्तसहायक, मदर बाजार, मेरठ ५२५१) ला० कपुर चन्द धूपचन्दजी जैन, कानपुर १०१) श्री शीलमालादेवी धर्मपत्नी डा०श्रीचन्द्रजी, ण्टा म २५१) बा० जिनेन्द्रकिशोरजी जैन जौहरी, देहली १०१) ला• मक्खनलाल मातीलालजी ठेकेदार, देहली २५१) ला० राजकृष्ण प्रेमचन्दजी जैन, देहली १०१) बा० फूलचन्द रतनलालजी जैन, कलकत्ता २५१) बा० मनोहरलाल नन्हेमल जी, देहली १०१) बा. सुरेन्द्रनाथ नगेन्द्रनाथजी जैन, कलकत्ता २५१) ला० त्रिलोकचन्दजी, महारनपुर १०१) बा०वंशीधर जुगलकिशारजी जैन, कलकत्ता *२५१) मेठ छदामीलालजी जैन, फीरोजाबाद ५०१) बा. बद्रीदास आत्मारामजी सरावगा, पटना २५१) ला० रघुवीरसिंहजी, जनावाच कम्पनी देहली १०१) ला० उदयराम जिनेश्वरदासजी सहारनपुर २५१) रायबहादुर मेठ हरखचन्दजी जैन, राची १०१) बा. महावीरप्रमादजी एडवोकट, हिमार ५१) मठ वीचन्दजी गंगवाल, जयपुर १०१) ला• बलवन्तसिहजी, हांसी जि. हिसार । सठ तुला-मजी नथमलजी लाडनूवाल १०१) सेठ जाव रामजनाथ जी सरावगी, कलकत्ता १०१) बाबू जिनन्द्रकुमार जैन, सहारनपुर कलकत्ता १०१) वैद्यराज कन्हैयालालजो चाँद औषधालय,कानपुर सहायक १०१) बा. राजेन्द्रकुमारजी जन, न्यु देहली १०१) ला प्रकाराचन्द व शीलचन्दजी जौहरी, देहलो. १०१) ला० परसादीलाल भगवानदासजी पाटनी. देहली १०१) ला० रतनलाल जी कालका वाल, देहली १०१) बा लालचन्दजी बी० सेठी, उज्जैन अधिष्ठाता 'वीर-सेवामन्दिर १०१) बा- वनश्यामदाम बनारसीदासजी, कलकत्ता सरमावा, जि. सहारनपुर . प्रकाशक-परमानम्बजी जैन शास्त्री दि. जैन जालमंदिर देहली । मुद्रक-कप-वाणी प्रिटिंग हाऊस २५, दरियागंज, देसी Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कान्त ALLIAMOVi/AM - अप्रैल १९५५ - - . - मम्पादक-मण्डल जुगलकिशोर मुख्तार विषय-सूची कोटेलाल जैन जयभगवान जैन एडवोकेट परमानन्द शास्त्री १ महा विकल संमारी (कविता)-[बनारसीदास २३६ २ कोल्हापुरके पार्श्वनाथ मन्दिरका शिला लेख-[ २४० | ३ माधुत्वमें नग्नताका स्थान-[पं०वंशीधर व्याकर्णाचार्य २४१ ४ भारतीय इनिहामका एक विस्मृत पृष्ट (जैन सम्राट गणा । मुहेलदेव-[श्री लल्लनप्रमाद व्यास २४६ १५ जुल्लक श्री भद्रबाहुजीका अभिमन-[ २४६ । ६ प्राक्कथन (समीचीन धर्मशास्त्र पर)-[डा०वासुदेव शरण अग्रवाल २५० । ७ अपभ्रंश भाषाका पार्श्वनाथ चरित्र - [परमानन्द जैन २५२ वीरसेवामन्दिर ट्रस्ट की दो मीटिंग--[ २५४ 26 दीवान गमचन्द्र छाबड़ा--[ परमानन्द शास्त्री २५६ :१० भगवान महावीर और उनका लोक कल्याण कारी अनेकान्त वर्ष १३ । मन्देश- [ डा. हीगलालजी एम०ए० २५६ किरण १० ११ गष्ट्रपति और प्रधान मन्त्रीका महावीर जयन्ती के अवसर पर भापण २६३ १२ राजस्थान विधान मभा दि. जैन धर्म-विरोधी विधेयक वा० छोटेलाल जैन २६४ १३ माहित्य परिचय और समालोचन--[ परमानन्द जैन २६६ Reema eera--Jaum. - - -.. . Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामी समन्तभद्रका समीचीन-धर्मशास्त्र ( रत्नकरण्ड ) मुख्तार श्री जुगलकिशोरके हिन्दी-भाष्य-सहित छपकर तय्यार सर्व साधारणको यह जान कर प्रसन्नता होगी कि श्रावक एवं गृहस्थाचार-विषयक जिस अति प्राचीन तथा समीचीन धर्मग्रन्थके हिन्दी भाप्य-सहित कुछ नमूनोंको 'समन्तभद्र-वचनामृत' जैसे शीर्षकोंके मोचे अनेकान्तमें प्रकाशित देख कर लोक-हृदय में उस समूचे भाष्य-ग्रन्थको पुस्तकाकार रूपमें देखने तथा पढ्नको उत्कण्ठा उत्पन्न हुई थी और जिसकी बड़ी उत्सुकताके साथ प्रतीक्षा की जा रही थी वह अब छपकर तैयार हो गया है, अनेक टाइपोके सुन्दर अक्षरोंमें ३५ पौडके ऐसे उत्तम कागज पर छपा है जिसमें २५ प्रतिशत रूई पड़ी हुई है । मूलग्रन्थ अपन विषयका एक बेजोड़ ग्रन्थ है, जो समन्तभद्र-भारतीमें ही नहीं किन्तु ममचे जैनमाहित्य में अपना खास स्थान और महत्व रखता है । भाष्यमें, मूलकी मीमाके भीतर रह कर, ग्रन्थके मर्म तथा पद-वाक्योंकी दृष्टिको भले प्रकार स्पष्ट किया गया है, जिससे यथार्थ ज्ञानके साथ पद-पद पर नवीननाका दर्शन होकर एक नए ही ग्मका आम्वादन होता चला जाता है और भाष्यको पढ़नकी इच्छा बराबर बनी रहती है-मन कहीं भी ऊबता नहीं। २०० पृठके इस भाष्यके साथ मुख्तारश्रीकी १२८ पृष्ठकी प्रस्तावना, विषय-सूचीके माथ, अपनी अलग ही छटाको लिए हुये है और पाठकोंके सामने खोज नथा विचारकी विपुल मामग्री प्रस्तुत करती हुई ग्रन्थके महत्वको ख्यापित करती है । यह ग्रंथ विद्यार्थियों तथा विद्वानों दोनोंके लिए नमान रूपसे उपयोगी है, सम्यग्ज्ञान एवं विवेककी वृद्धिके साथ आचार-विचारको ऊँचा उठानवाला और लोकमें मुख-शान्तिकी सच्ची प्रतिष्ठा करने वाला है इस ग्रन्थका प्राक्कथन डा. वासुदेवजी शरण अग्रवाल प्रो० हिंदू-विश्वविद्यालय बनारसने लिखा है और भूमिका डा० ए० एन० उपाध्धं कोल्हापुरने लिखी है । इस तरह यह ग्रंथ बड़ा ही महत्वपूर्ण है । यदि आपने आर्डर नहीं दिया है तो शीघ्र दीजिए, अन्यथा पीछे पछताना पड़ेगा । लगभग ३५० पृष्ठके इस दलदार मुन्दर सजिल्द ग्रन्थकी न्योछावर ३) रुपए रक्खी गई है। जिल्द बंधाईका काम शुरू हो रहा है । पठनेच्छुकों तथा पुस्तक विक्रेताओं ( बुकसेलरों ) को शीघ्र ही आर्डर बुक करा लेने चाहिए। मैनेजर 'वीरसेवामन्दिर-ग्रंथमाला' दि० जैन लालमन्दिर, चाँदनी चौक, देहली Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त -> श्रीमान् दानवीर साहू शान्तिप्रसादजी जैन कलकत्ता Marat EMS ke अभी वैशालीके महावीर जयन्तीके उत्सवमें, वैशाली कमेटीके संरक्षक, भारतकं प्रमुख उद्योगपति और जैन ममानक नररत्न, वोरसेवा मन्दिर (दिल्ली ) के ट्रस्टी और मंरक्षक दानवीर माइ शान्तिप्रमादजी जैन कलकताने प्राकृत जैन विद्यापीठ वैशालीके भवन निर्माणक लिये एक मुश्त पांच लाख रुपया और पांच वर्ष तक पच्चीस हजार रुपया प्रतिवर्ष देते रहने की महत्वपूर्ण उदार घोषणा की है। आप जैन संस्कृतिके लिये लाखों रुपया प्रतिवर्ष मुक्तहस्तसे प्रदान करते रहते हैं। आपका यह युगानुकल दान प्राचीन भारतीय जैनसंस्कृति के लिए वरदान सिद्ध होगा। जैनसमाजकी प्रतिष्ठाको ममुन्नत करने वाले दानवीर युवक रत्न साहू शान्तिप्रसादजी चिरजीवी हों और चिरकाल तक जैन वाङ्मयका मंरक्षण करते रहें, यही अनेकान्त परिवारको हार्दिक शुभकामना है। Page #71 --------------------------------------------------------------------------  Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ अहम भाम बस्ततत्त्व-मघातक in वश्व तत्त्व-प्रकाशक वार्षिक मूल्य ६) एक किरण का मूल्य 1) DU % 3D नीतिविरोधध्वंसीलोकव्यवहारवर्तकःसम्यक् । पगामस्य बीज भुवनेकगुरुर्जयत्यनेकान्त ॥ - वर्ष १३ किरण१०। चारसेवामन्दिर, C/दि० जैन लालमन्दिर, चाँदनी चौक, देहली क्षेत्र, वीरनिर्वाण-संवत् २४८१, विक्रम संवत २०१२ अप्रैल १६५५ ० महा विकल संसारी (कविवर बनारसीदास) देखो भाई ! महानिकल संसारी, दग्विन अनादि मोहके कारन, राग-द्वेष भ्रम भारी ॥१॥ हिसारम्भ करत सुख समुझै, मृपा बोलि चतुराई । परधन हरत समर्थ कहा, परिग्रह बढ़त बड़ाई । वचन र ख काया दृढ़ रावे, मिट न मन चपलाई। यात होत और को औरै, शुभ करनी दुखदाई ॥३॥ जोगासन करि कर्म निराधे, आतमष्टि न जागै। कथनी कथत महंत कहाचे, ममता मूल न त्यागै ॥४॥ आगम वेद सिद्धान्त पाठ मुनि. हिये आठ मद आने । जाति लाभ कुल बल तप विद्या, प्रभुता रूप बस्त्राने ॥५॥ जड़मों राचि परमपद साधे, आतम-शक्ति न सूझे। बिना विवेक विचार दरब के, गुण परजाय न बूझ ॥६॥ जस वाले जस सुनि सन्तांपैं, तप बाले तन साईं । गुन वाले परगुनको दोणे, मतवाले मत पोर्षे ॥७॥ गुरु उपदेश सहज उदयागति, मोह-विकलता छूटै ।। कहत 'बनारसि' हे करुनारसि, अलख अखय-निधि लूटै।।८।। EACHOOK-HEoHE0T0 Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोल्हापुरके पार्श्वनाथ मन्दिरका शिलालेख [कोल्हापुर दक्षिण महाराष्ट्रका एक ऐतिहासिक स्थान है, जिसका नाम शिलालेखमें चुल्लकपुर उल्लेखित मिलता है । कोल्हापुरका प्रतीत गौरव जैन संस्कृतिकी समृद्धिसे श्रोत-प्रोत रहा है। यह नगर पंचागंगा' नदीके किनारे वसा हुआ है। कोल्हापुर और उसके पास-पासके प्रदेशों में स्थित जैन पुरातत्त्वकी सामग्री, मंदिर. मूर्तियों और शिलालेखादि जैन संस्कृतिकी महत्ताकी निदर्शक हैं उसका एक शिलालेख यहाँ दिया जा रहा है। हमारी तार्थयात्रा संस्मरण' नामक लेखमें इस नगरका कुछ परिचय कराया गया है। देखो, अनेकान्त वर्ष १२, किरण । -~-सम्पादक] १-श्रीमत्परमगम्भीर स्याद्वादामोघलांछनम। जीयात्रैलोक्य नाथस्य शासनं जिनशासनम् ।। २-स्वस्ति श्रीर्जयाश्च अम्युदयाश्च जयत्यमलनानार्थप्रतिपत्तिप्रदर्शकम् । ३-अहतः पुरुदेवस्य शासनं मोघ शासनं । स्वस्ति श्रीशिलाहार महाक्षत्रियान्वये । Y-वित्रस्त शेषरिपुः प्रतातिर्जाति गो नाम नरेन्द्रोऽभूत तस्य सुनूवो दान्तलो गोदलः । ५-कीर्तिराजश्चन्द्रादित्यश्च इति चत्वारः । तत्र गोदलपति मुरसिंहो नाम नंदनः तस्य तनुजः गुवालो । ६-गंगदेवः, बल्लालदेवः, भोजदेवः, गान्धारादित्यदेवाचेति पंच तेषु धार्मिक धर्मजस्य वेरी ७-कान्ता वैधव्य दीक्षागुरोः सकलदर्शन चक्षुषः श्रीमद्गान्धारादित्य देवस्य प्रियातनयः । ८-स्वस्ति समधिगत पंच महाशब्द महामडएलेश्वरः तगरपुरवरवा(श्चर। ह-श्री शिलाहार नरेन्द्रः निजविलास विजितदेवेन्द्रः जीमूतवाहनान्वय प्रसूतः । शौर्य विख्यातः । १०-सुवर्णगरुड देवजः युवतिजनमकरध्वजः निदौलत रिपु मण्डालक कंदप्पः मरूवंश सूय्यः। ११-अय्यनासिंहः सकलगुण तुगः रिपुमण्डलिक भैरवः विद्वषगजकएठीरिव । १२-उडुवरादित्यः कलियुगविक्रमादित्यः रूपनारायणः नीतिविजिता चारायणः । १३-गिरिदुर्ग लंघनः विहिताविरोधिवंचनः शनिवारसिद्धिः धर्मैकबुद्धिः । १४-महालक्ष्मीदेवी लब्धवरप्रसादः महजकस्तूरिकामोदः एवमादिनामा१५-वालविराजमान श्रीजमादित्यदेवः बलावदस्तरशिविरे, सुम्ब-संकथा विनोदेन राज्यं । १६-कुर्वन, शकवर्षेषु पंचप्ठियुत्तरसहस्त्रप्रमितेष्वतीतेपु प्रवर्तमाना १७-दुदुभि सम्वत्सर माघमास पौर्णमास्ये सोमवारे सामग्रहण पूर्वा-निमित्तम । १८-अजरागेकहोल्लभनुगतहविना 'होरिलेट्' प्रामे कामदेवस्य हड़पा१६--वालेन श्रीमूलसंघ देशीगण पुस्तकगच्छ अधिपतः शुल्लकपुर श्री रूपनारायण जि२०-नालयाचायेस्य श्रीमान् माघनन्दिसिद्धान्तदेवस्य प्रयच्छ छत्रिणः सकलगुणरत्नपात्रेण २५-जिन पादपद्मभृङ्गण विप्राकुलसमुत्तुगधुरीणन स्वकृति सद्भावेन वासुदेवेन । २२ --कारित्यः वसतेः श्रीपाश्वनाथ देवस्य अष्टविधार्चनमहन्तम् तच्चैत्यालय बण्ड२३-स्फुटिता जीर्णोद्धागर्थ तत्रेत्य यतिनां प्राहारदान अहंकुलम् तत्रैव ग्रामे । २४-कुण्डिदण्डेन निवर्तना चातुर्थभागप्रमितं क्षेत्रं द्वादश हस्त सम्मेतम गृहनिवेशनं २५-च तं माघन्दिसिद्धान्तदेवः शिष्याणां माणिक्यनन्दि पण्डितदेवेन, पादौ प्रक्षाल्य धारा२६- पूर्वक सर्पनार्मास्यं सवबाधा परिहारं चन्द्रार्कतारं शासनं दत्तवान् । २७-तद भागामिभि अस्मद् इति बम्वस्यै राभि आत्म-सुख-पुण्ययशस्शान्ति वृद्धि अभिलिपिस्यमिः२८-दत्ति निरवशेष प्रतिपादनीयं इति मान्तरसाकेतेन नले बाढ । २६-जिनप्रभु तत्र देवं अशरान्तगुणक्के तेन नेलेआढातयो। ३०-जोयी तत्र गुरु तत्र अधियं विभुकामदेव साम्यतन यदुत्वं यदु । ३१-पुण्य यदु उन्नति वासुदेवेन । (एपिप्राफिका इण्डिका भा० ३ पृ०२०८) Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का कारण नग्नताका स्थान (पं० वंशीधर व्याकरणाचार्य बीना ) उद्देश्यसे ही साधुमार्गका अवलंबन लिया करते हैं । जैन एक लेख "दिगम्बर जैन साधुनोंका नग्नत्व" शीर्षक - संस्कृतिमें मुख्यतः मुक्रि प्राप्त करनेके उद्देश्यसे ही साधुसे जैन जगत ( वर्धा के फरवरी १९५५के अंकमें प्रकाशित मार्ग अवलंबन की बात कही गयी है। हुया है। लेख मूलतः गुजराती भाषाका था और "प्रबुद्ध "जीवका शरीरसे सर्वथा संबंध विच्छेद हो जाना" जीवन" श्वे. गुजराती पत्रमें प्रकाशित हुआ था। लेखके ख मुकि कहलानी है परन्तु यह दि. जैन संस्कृतिक अभिप्रायालेखक "प्रबुद्ध जीवन' के सम्पादक श्री परमानन्द कुंवरजी नुसार उसी मनुष्यको प्राप्त होती है जिस मनुष्यमें अपने कापड़िया है नथा जैन जगत बाला लेख उसी लेखका श्री वर्तमान जीवनकी सुरक्षाका आधारभूत शरीरकी स्थिरताभंवरलाल सिंघो द्वारा किया गया हिन्दी अनुवाद है। के लिये भोजन, वस्त्र, औषधि श्रादि साधनोंकी आवजंग जगतक पपादक भाई जमनालाल जैनने लेखकका श्यकता शेष नहीं रह जाती है और ऐसे मनुष्यको साधुनोंजो परिचय संपादकीय नाटमें दिया है उसे ठीक मानते हुए का चरमभेद स्नातक (निष्णात् ) या जीवन्मुक्त नामसे पुकारा जाता है। भी हम इतना कहना चाहेंगे कि लेखकने दिगम्बर जैन माधुनों के नग्नत्व पर विचार करनेक प्रसंगसे माधुन्चमें से साधुत्वमें नग्नताको प्रश्रय क्यों ? नग्नता की प्रनिष्ठाको समाप्त करनेका जो प्रयन्न किया है मामान्य रूपसे जैन सस्कृतिकी मान्यता यह है कि उसे उचित नहीं कहा जा सकता है। प्रत्येक शरीरमें उस शरीरसे अतिरिक जीवका अस्तित्व इस विषयमें पहली बात तो यह है कि लेग्यकने अपने रहता है। परन्तु वह शरीरके साथ इतना धुला-मिला है कि लेखमें मानवीय विकासक्रमका जो ग्वाम्बा खींचा है उसे बुद्धि शरीरके रूपमें ही उसका अस्तित्व समझमें आता है और का निष्कर्ष ता माना जा सकता है परंतु उसकी वास्तविकता जीवके अन्दर जो जान करनेकी शकि मानी भी निर्विवाद नहीं कही जा सकती है। शरीरका अंगभून इन्दियोंके सहयोगके बिना पंगु बनी रहती दूसरी बात यह है कि मभ्यताक विषयमें जो कुछ लेख है, इतना ही नहीं, जीव शरीरके इतना अधीन हो रहा है में लिखा गया है उसमें लेखन कवल भौतिकवादका ही कि उसके जीवनकी स्थिरता शरीरकी स्वास्थ्यमय स्थिरता महाग लिया है जबकि मापुत्वकी श्राधारशिला विशुद्ध पर ही अवलंबित रहती है । जीवकी शरीरावलंबनताका यह अध्यात्मवाद है अतः भौनिक पदकी सभ्यताके साथ अध्यात्म- भी एक विचित्र फिर भी तथ्यपूर्ण अनुभव है कि जब शरीरवादमें ममपित नग्नताका यदि भेल न हो, तो इसमे आश्चर्य में शिथिलता आदि किमी किम्मक विकार पैदा हो जाते हैं नहीं करना चाहिये ! तो जीवको क्लेशका अनुभव होने लगता है और जब उन नामरी बात यह है कि बदलती हुई शारीरिक परि- विकारोंको नष्ट करनेके लिये अनुकूल भोजन प्रादिका महारा स्थितियां हमें नग्नताम विमुम्ब ना कर सकती हैं परन्तु सिर्फ ले लिया जाना है तो उनका नाश हो जाने पर जीवको इसी आधार पर हमारा नाधुन्वमें से नग्नताके स्थानको सुखानुभव होने लगता है। तात्पर्य यह है कि यद्यपि भोजसमाप्त करनका प्रयन्न मही नहीं हो सकता है। नादि पदार्थ शरीर पर ही अपना प्रभाव डालते हैं परन्तु साधुत्वका उद्देश्य शरीरके माथ अनन्यमयी पराधीनताके कारण सुग्वका अनुप्रायः सभी संस्कृतियों में मानववर्गको दो भागों में भोला जीव होता है। बांटा गया है-एक तो जनमाधारण का वर्ग गृहस्थवर्ग और दिगम्बर जैन संस्कृतिकी यह मान्यता है कि जीव जिस दूसरा माधुवर्ग । जहां जनमाधारणका उद्देश्य केवल सुख- शरीरके साथ अनन्य मय हो रहा है उसकी स्वास्थ्यमय पूर्वक जीवन यापन करनेका होता है वहां साधु का उद्देश्य स्थिरताके लिये जब तक भोजन, वस्त्र, औषधि प्रादिकी। या तो जनसाधारणको जीवनके कर्तव्य मार्गका उपदेश देने आवश्यकता बनी रहती है तब तक उस जीवका मक होन का होता है अथवा बहुतमे मनुष्य मुक्ति प्राप्त करनेके असभव है और यही एक मबब है कि दि. जैन संस्कृति Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२] अनेकान्त वर्षे १३ - = द्वारा साधुत्वमें नग्नताको प्रश्रय दिया गया है। दूसरी बात सिक पराधीनताको नष्ट करना चाहिए और तब इसके बाद यह है कि यदि हम इस बातको ठीक तरहसे समझ लें कि उसे साधुत्व ग्रहण करना चाहिए । यद्यपि आजकल प्राय: साधुत्वकी भूमिका मानव जीवन में किस प्रकार तैयार होती सभी सम्प्रदायोंमें उक्र मानसिक पराधीनताके रहते हुए ही है? तो सम्भवतः साधुत्वमें नग्नताके प्रति हमारा भाकर्षण प्रायः साधुत्व ग्रहण करने की होड़ लगी हुई है, परन्तु नियम बढ़ जायगा। यह है कि जो साधुत्व मानसिक पराधीनतासे छुटकारा पानेसाधुत्वकी भूमिका के बाद ग्रहण किया जाता है वही सार्थक हो सकता है और जीव केवल शरीरके ही अधीन है, सो बात नहीं है, उस उसीसे ही मुक्रि प्राप्त होनेकी आशा की जा सकती है। प्रत्युत वह मनके भी अधीन हो रहा है और इस मनकी तात्पर्य यह है कि उक मानसिक पराधीनाताकी समाप्ति अधीनताने जीवको इस तरह दबाया है कि न तो वह ही माधुत्व ग्रहण करनेके लिए मनुप्यको भूमिका काम अपने हिनकी बात सोच सकता है और न शारीरिक स्वास्थ्य देती है। इसको ( मानसिक पराधीनताकी समाप्तिको)जैन की बात सोचने को ही उसमें क्षमता रह जाती है। वह तो संस्कृति में सम्यग्दर्शन नामसे पुकारा गया है और क्षमा, केवल अभिलाषायोंकी पूर्तिके लिये अपने हित और शारी- मानव श्राजव, सत्य शोच, आर सयम य छह मार्दव प्रार्जव, सत्य शौच, और संयम ये छह धर्म उस रिक स्वास्थ्यके प्रतिकूल ही पाचरण किया करता है। सम्यग्दशनक अंग मान गए ह यदि हम अपनी स्थितिका थोड़ासा भी अध्ययन करने मानव-जीवनमें सम्यग्दशेनका उद्भव का प्रयत्न करें तो मालूम होगा कि यद्यपि भोजन प्रादि प्रत्येक जोवके जीवनकी सुरक्षा परस्परोपग्रहो जीवानाम्। पदार्थों की मनके लिये कुछ भी उपयोगिता नहीं है, वे केवल सूत्र में प्रतिपादित दूसरे जीवोंके महयोग पर निर्भर है। शरीरके लिये ही उपयोगी सिद्ध होते हैं। फिर भी मनके परन्तु मानव जीवनमें तो इसकी वास्तविकता स्पष्ट रूपसे वशीभूत होकर हम ऐसा भोजन करनेसे नहीं चूकते हैं जो दिखाई देती है। इसी लिए ही मनुष्यको सामाजिक प्राणी इमारो शारीरिक प्रकृतिके बिल्कुल प्रतिकूल पड़ता है और स्वीकार किया गया है, जिसका अर्थ यह होता है कि मामाजब इसके परिणाम स्वरूप हमें कप्ट होने लगता है तो न्यता मनुष्य कौटुम्बिक सहवास आदि मानव समाजक उसका समस्त दोष हम भगवान या भाग्यक ऊपर थोपनेकी विविध संगठनों के दायरेमें रहकर हो अपना जीवन सुखपूर्वक चेष्टा करते हैं। इसी प्रकार वस्त्र या दूसरी उपभोगकी बिता सकता है । इमलिए कुटुम्ब, ग्राम, प्रान्त, देश और वस्तुओंके विषय में हम जितनी मानसिक अनुकूलताको बात विश्वक रूपमें मानव संगठनके छोटे-बड़े जितने रुप हो सकते मोचते हैं उतनी शारीरिक स्वास्थ्यको अनुकूलताकी बात हैं उन सबको संगठित रखनेका प्रयत्न प्रत्येक मनुष्यको मतत नहीं सोचते । यहां तक कि एक तरफ तो शारीरिक स्वास्थ्य करते रहना चाहिए। इसके लिये प्रत्येक मनुष्यको अपने बिगड़ता चला जाता है और दूसरी तरफ मनकी प्रेरणासे जीवनमें "प्रात्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्" का हम उन्हीं साधनोंको जुटाते चले जाते हैं जो साधन हमारे सिद्धान्त अपनानेको अनिवार्य आवश्यकता है, जिसका अर्थ शारीरिक स्वास्थ्यको बिगाड़ने वाले होते हैं। इतना ही यह है कि "जैसा व्यवहार दूसरोंसे हम अपने प्रति नहीं नहीं, उन माधनोंक जुटाने में विविध प्रकारकी परेशानीका चाहते हैं वैसा व्यवहार हम दूसरोंके माथ भी न करें और अनुभव करते हुए भी हम परेशान नहीं होते बल्कि उन जैसा व्यवहार दूसरोंसे हम अपने प्रति चाहते है वैसा व्यवसाधनोंके जुट जाने पर हम आनन्दका ही अनुभव करते हैं। हार हम दूसरोंके साथ भी करें।' मनकी आधीनतामें हम केवल अपना या शरीरका अभी तो प्रत्येक मनुष्यको यह हालत है कि वह प्रायः ही अहित नहीं करते हैं, बल्कि इस मनकी अधीनताके दसरोंको निरपेक्ष सहयोग देने के लिए तो तैयार ही नहीं कारण हमारा इनना पतन हो रहा है कि विना प्रयोजन हम होता है। परन्तु अपनी प्रयोजन सिद्धि के लिए प्रत्येक मनुष्य दूसरोंका भी अहित करनेसे नहीं चूकते हैं और इसमें भी न केवल दसरोंसे सहयोग लेनेके लिए सदा तैयार रहता है। प्रानन्दका रस लेते हैं। बल्कि दूसरोंको कष्ट पहुंचाने, उनके साथ विषमताका व्यवदि. जैन संस्कृतिका मुक्ति प्राप्तिके विषयमें यह उपदेश हार करने और उन्हें धोखेमें डालनेसे भी वह नहीं चूकता है कि मनुष्यको इसके लिए सबसे पहले अपनी उक्त मान- है। इतना ही नहीं, प्रत्येक मनुष्यका यह स्वभाव बना हुआ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १. 1 साधुत्वमें नग्नताका स्थान है कि अपना कोई प्रयोजन न रहते हुए भी दूसरोंके प्रति इनके उपभोगमें कंजूसी नहीं करना चाहिए और इनका उपउक्र प्रकारका अनुचित व्यवहार करनेमें उसे प्रानन्द प्राता भोग प्रावश्यकतासे अधिक भी नहीं करना चाहिए। । आवश्यकता रहते हुए भोजनादि सामग्रोके उपभोगमें जैन संस्कृतिका उपदेश यह है कि 'अपना प्रयोजन कंजूसी नहीं करना, इसे ही शौचधर्म और अनर्गल नरीक्रमे रहने न रहते कभी किसीके साथ उक्त प्रकारका अनुचित व्यव- उसका उपभोग नहीं करना इसे हा मंयमधर्म समझना हार मत करो। इतना ही नहीं, दूसरोंको यथा-अवसर निर- चाहिए। पेक्ष सहायता पहुँचानको सदा तैयार रहो' एमा करनेसे एक इस प्रकार मानव जीवनमें उक्र उमा, मार्दव, प्रार्जब तो मानव संगठन स्थायी होगा, दूसरे प्रत्येक मनुष्यको उस और सत्यधर्मोके माथ शौच और संयम-धर्मोंका भी समामानसिक पराधीनतासे छुटकारा मिल जायेगा, जिसके रहते वेश हो जाने पर मम्पूर्ण मानपिक पराधीनतासे मनुष्यको हुए वह अपनेको सभ्य नागरिक तो दूर मनुष्य कहलाने तक छुटकारा मिल जाता है और तब उस मनुष्यको विवेकी या का अधिकारी नहीं हो सकता है। सम्यग्दृष्टि नाममे पुकारा जाने लगता है क्योंकि तब उम अपना प्रयोजन रहते न रहत दूसरोंको कष्ट नहीं पहुं मनुष्य के जीवन में न केवल "प्रात्मन. प्रतिकृलानि परेषां न चाना, इसे ही क्षमाधर्म, कभी भी दूसरोंके माथ विषमताका ममाचरत' का सिद्धान्त समाजाता है, बल्कि वह मनुष्य व्यवहार नहीं करना व इसे ही मादव धर्मः कभीभा दूसरोंको इस तथ्यको भी हृदयंगम कर लेता है कि भोजनादिकका धोखे में नहीं डालना, इसेही आजव धर्म और यथा अवसर उपयोग क्यों करना चाहिये और किस ढंगसे करना चाहिये? दूसरोंको निरपेक्ष सहायता पहुंचाना, इस ही सत्यधर्म सम- सम्यग्दृष्टि मनुष्यकी साधुत्वकी ओर प्रगति मना चाहिए । इन चारों धर्मोको जीवनमें उतार लेने पर इस प्रकार मानसिक पराधीनताके समाप्त हो जाने पर मनुष्यको मनुष्य, नागरिक या सभ्य कहना उपयुक्र हो मनुष्यक अन्तःकरणमें जो विवेक या सम्यग्दर्शनका जागरण सकता है। होता है उसकी वजहमे, वह पहले जो भोजनादिकका उपयह भी दखत है कि बहर मनुष्य उक्र प्रकारस मभ्य ग या n n पागे उनका हुए भी लाभक हनने वशीभूत रहा करत है कि उन्हें वह उपभोग वह शरीरकी आवश्यकताओं को ध्यान में रखते सम्पत्तिक संग्रह में जितना अानन्द प्राता है उतना अानन्द हुए ही करने लगता है। उपक भोगने में नहीं पाता । इस लिए अपनी शारीरिक श्राव इस तरह माधुवको भूमिका तैयार हो जाने पर वह श्यकताओंकी पूतिमें वे बड़ा कंजूमीसं काम लिया करते है मनुष्य अपना भाश कनव्य-मार्ग इस प्रकार निश्चित करता सका परिणाम यह हाता है कि उनका स्वास्थ्य बगह है कि जिमम वह शारीरिक पराधीनतास भी छुटकारा पा जाता है। इसी तरह दूसरे बहुतसे मनुष्योंकी प्रकृति इतनी । लोलुप रहा करनी है कि वे मंपत्तका उपभोग अावश्यकता- वह मांचना है कि मेरा जीवन तो शरीराश्रित है ही, से अधिक करते हुए भी कभी तृप्त नहीं होने । इसलिए ऐसे - ही, लेकिन शरीरका स्थिरताक लिये भी मुझे भोजन, वस्त्र, मनुष्य भी अपना स्वास्थ्य बिगाड कर बेठ जाते हैं। आवास और कौटुम्बिक महवाम्पका महाग लेना पड़ता है.इस जैन संस्कृति बतलाती है कि भोजन आदि मामग्री नम्ह में मानव संगठ के विशाल चकरम फंसा हुनाई। शारीरिक स्गम्थ्यकी रक्षाक लिए बड़ी उपयोगी है इसलिए इस डारीको समाप्त करनेका एकही युनि. मंगत उपाय इसमें कंजमीसे काम नहीं लेना चाहिए। लेकिन अच्छी बातों- जैन संस्कृतिमें प्रतिपादित किया गया है कि शरीरको का अतिक्रमण भी बहुत बुरा होना है, अत: भोजनादि अधिकसे अधिक प्रात्म निर्भर बनाया जावे । इसके लिए मामग्रीक उपभोगमें लोलुपता भी नहीं दिखलाना चाहिये, (जैन संस्कृति) हमें दो प्रकारक निर्देश देती है-एक तो क्योंकि शारीरिक स्वास्थ्यरताके लिए भोजनादि जितने भात्मचिंतन द्वारा अपनी (मात्माको) उस स्वावलम्बन जरूरी है उतना ही जरूरी उनका शारीरिक प्रकृतिके अनु- शक्रिको जाग्रत करनेकी, जिसे अन्तरायकमने दबोचकर कूल होना और निश्चित सीमातक भोगना भी है। इसलिए हमारे जीवनको भोजनादिकके अधीन बना रक्खा है और शरीरके लिए जहाँ तक इनकी आवश्यकता हो, वहां तक दूसरा ब्रतादिक द्वारा शरीरको सबल बनाते हुए भोजना. Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - २४४] अनकान्त [वर्ण १३ दिककी पावश्यकताओंको कम करनेका । इस प्रयत्नस जैसे- जीवका उस शरीरस सम्बन्धविच्छेद नहीं हो जाता है। जैसे शरीरके लिये भोजनादिककी आवश्यकतायें कम होती शरीरका पूर्ण रूपसे आत्म निर्भर हो जानेसे मनुष्यका भोजननागी (याने शरीर जितना-जितना प्रात्म-निर्भर होना से भी सम्बन्ध विच्छेद हो जानेको प्राचिन्य धर्मकी नायगा) वैसे-वैसे ही हम अपने भोजनमें सुधार और वस्त्र, पूर्णता कहते है और इस तरह प्राचिन्यधर्मकी पूर्णता हो भाषास तथा कौटुम्बिक महवाममें कमी करते जागे जिससे ___ जाने पर उसे माधु वर्गका चरमभेद स्नातक भामसे पुकारने हमें मानव संगठनके चक्करसे निकलकर (याने समष्टि गत लगते हैं । जैन सस्कृतिमें यही जोपन्मुक्र परमात्मा कहलाता जीवनको समासकर) वैयक्रिक जीवन बितानेकी क्षमता प्राप्त है। यह जीवन्मुक्त परमात्मा प्रायुकी समाप्ति हो जाने पर हो जायगी। शरीरसे सर्वथा सम्बन्ध विच्छेद होजानेके कारण जो अपने प्रात्माकी स्वावलंबन शक्रिको जाग्रत करने और शरीर आपमें स्थिर हो जाता है यही ब्रह्मचर्य धर्म है और यही सम्बन्धी भोजनादिककी आवश्यकताओंको कम करनके मुक्ति है । इस ब्रह्मचर्य धर्म अथवा मुनिकी प्राप्तिमें ही मनुष्य प्रयत्नोंको जैन संस्कृतिमें क्रमशः अन्तरंग और बाह्य दो का माधुमार्गक अवलम्बनका प्रयास सफल हो जाता है। प्रकारका तपधर्म तथा भोजनादिकमें सुधार और कमी करने यहां पर हम यह भी स्पष्ट कर देना चाहते है कि दि. को त्यागधर्म कहा गया है। जैन संस्कृतिमें माधुनोंको जन-माधारण वर्गसे अलग परस्पर साधु मार्गमें प्रवेश समूह बनाकर अथवा एकाकी वाय कग्नका निर्देश किया जीवनमें तप और त्याग इन दोनों धर्मोकी प्रगति करते गया है। अन. जब उन्हें भोजन ग्रहण करनेकी आवश्यकता हुए विवेक या सम्यग्दर्शन सम्पन मनुष्य जब जन साधारण- महसूम हो, तभी और सिर्फ भोजनके लिये ही जन के वर्गसे बाहर रह कर जीवन विताने में पूर्ण सक्षमना प्राप्त माधारणके सम्पर्कमें आना चाहिये। वैसे जनमाधारण चाहें, कर लेता है और शारीरिक स्वास्थ्यकी रक्षाके लिये उसकी तो उनके पास पहुंच कर उनसे उपदेश ग्रहण कर सकते हैं। वस्त्र ग्रहणकी आवश्यकता समाप्त हो जाती है तब वह . नग्न दिगम्बर होकर दिगम्बर जैन संस्कृतिके अनुसार साधुमार्गमें प्रवेश करता है । नग्न दिगम्बर बन कर जीवन इस लेखमें साधुत्वक विषयमें लिखा गया है वह यद्यपि बितानेको दिगम्बर जैन संस्कृतिमें आकिंचन्य धर्म कहा गया दि. जैन संस्कृतिक दृष्टिकोणके आधार पर ही लिखा गया है। पाकिच्चन्य शब्दका अर्थ है, पाममें कुछ नहीं रह जाना, है परन्तु यह समझना भूल होगी कि साधुत्वक विषयमें इससे अर्थात् अब तक मनुष्यने जो शरीर रक्षाके लिये वस्त्र, भिन्न दृष्टिकोण भी अपनाया जा सकता है कारण कि साधुत्त्व आवास, कुटुम्ब और जन साधारणसे सम्बन्ध जोड रक्या ग्रहण करते समय मनुष्यक सामने निर्विवाद रूपसे प्रात्माकी था, वह सब उसने समाप्त कर दिया है केवल शरीरकी स्वावलम्बन शक्निको उत्तरोत्तर बढ़ाना और शरीरमें अधिक स्थिरताके लिये भोजनमे ही उसका मन्बन्ध रह गया है से अधिक आत्मनिर्भरता लाना एक मात्र लक्ष्य रहना और भोजन ग्रहण करनेकी प्रक्रियामें भी उसने इस किम्मसे उचित है। अत: किसी भी सम्प्रदायका माधु क्यों न हो. सुधार कर लिया है कि उसे पराश्रयताका लेशमात्रभी अनु उसे अपने जीवन में दिगम्बरजैनसंस्कृति द्वारा समर्थित भव नहीं होता है । इतने पर भी कदाचित् पराश्रयताका रष्टिकोण ही अपनाना होगा अन्यथा साधुत्त्व ग्रहण करनेका अनुभब होनेकी सम्भावना हो जाय तो पराश्रयता स्वीकार उसका उद्देश्य सिद्ध नहीं होगा। करनेकी अपेक्षा सन्यस्त होकर (ममाधिमरण धारण करके) वर्तमानमें सभी सम्प्रदायोंके साधु-जिनमें दि. जैन जीवन समाप्त करनेके लिये सदा तैयार रहता है। भोजनसे सम्प्रदायके साधु भी मम्मिलित हैं, साधुत्वके स्वरूप, उद्देश्य उसका सम्बन्ध भी नब तक रहता है जब तक कि शरीर और उत्पत्तिक्रमकी नासमझीके कारण बिल्कुल पथभृष्ठ रक्षाके लिये उसकी आवश्यकता बनी रहती है, इसलिये हो रहे हैं। इसलिए कंवल सम्प्रदाय विशेषके साधुनोंकी जब शरीर पूर्णरूपसे आत्म निर्भर हो जाता है तब उसका पालोचना करना यद्यपि अनुचित ही माना जायगा फिर भी भोजनसे भी सम्बन्ध विच्छेद हो जाता है और फिर शरीर जिस सम्प्रदाय के साधुओंकी आलोचना की जाती है उस की यह आत्मनिर्भरता तब तक बनी रहती है जब तक कि सम्प्रदायके लोगोंको इससे रुष्ट भी नहीं होना चाहिये कारण Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - किरण १.] साधुत्वमें नग्नताका स्थान २४५ कि आखिर वे साधु किसी न किसी रूपमें पथभृष्ट तो रहते साधुत्व ग्रहण करनेकी योग्यता रखने वाले, तीसरे, चौथे ही हैं अतः रुष्ट होनेकी अपेक्षा दोपोंको निकालनेकाही और पांचवें गुणस्थान वर्ती मनुष्यों में जब साधुत्वका उदय उन्हें प्रयत्न करना चाहिए । अच्छा होगा, यदि भाई परमा- होता है तो उस हाल नमें उनके पहले सातवां गुणस्थान ही नन्द कवरजी कापडिया साधुत्वमेंसे नग्नताकी प्रतिष्ठाको होता है छठा गुणस्थान हो इसके बादमें ही हुमा करता है समाप्त करनेका प्रयत्न न करके केवल दि. जैन माधुओंके इसका आशय यही है कि जब मनुष्यकी मानसिक परिणति अवगुणोंकी इस तरह आलोचना करते, जिससे उनका मार्ग- में साधुन्ध समाविष्ट हो जाता है तभी बाह्यरूपमें भी साधुत्वदर्शन होता। को अपनाते हुए वह नग्नताकी ओर उन्मुख होता है। प्रश्न-जिस प्रकार पीछी, कमण्डलु और पुस्तक पास तापर्य यह है कि सप्तम गुणस्थानका आधार साधुत्वमें रखने पर भी दि. जैन माधु अकिंचन (निर्गन्थ) बना का अन्तमुख प्रवृत्ति है और षष्ठ गुणस्थानका प्राधार साधु, रहता है उसी प्रकार बम्ध रखने पर भी उसके अकिंचन बने स्वकी बहिर्मुख प्रवृत्ति है। माधुत्वकी ओर अभिमुख होने रहने में श्रापनि क्यों होना चाहिये ? वाले मनुष्यकी साधुत्वकी अन्तमुख प्रवृत्ति पहले हो जाया उत्तर-दि. जैन माधु कमण्डलु तो जीवनका अनि- कानी है, इसके बाद हो जब वह मनुष्य बहिःप्रवृत्तिको ओर वार्य कार्य मलशुद्धि के लिए रम्बना है, पोछी स्थान शोधनके झुकना है तब वस्त्रोंका त्याग करता है अत: यह बात स्पष्ट काममें पानी है और पुस्तक ज्ञानवृद्धिका कारण है अतः हो जाती है कि साधुन्चका कार्य नग्नता है नग्नताका कार्य साधुअकिंचन साधुको इनके पाममें रम्बनेकी छूट दि. जैन संस्कृति त्व नहीं , यद्यपि नपता अंतरंग माधुस्वके विना भी देखने में में दी गयी है परन्तु इन वस्तुओं को पासमें रखते हुए वह पाती है परन्तु जहाँ अन्तरंग साधुत्वको प्रेरणासे बाह्य वेशमें इनके सम्बन्धमें परिग्रही ही है, अपरिग्रही नहीं। इसी नग्ननाको अपनाया जाता है वही सच्चा साधुत्व है। प्रकार जो माधु शरीर रक्षाके लिए अथवा सभ्य कहलानेके प्रश्न-जब ऊपरके कथनसे यह स्पष्ट होता है कि लिए वस्त्र धारण करता है तो उसे कमसे कम उस वस्त्रका मनुप्यकं सातवां गुणस्थान प्रारम्भमें सवस्त्र हालतमें ही परिग्रही मानना अनिवार्य होगा। हो जाया करता है और इसके बाद छठे गुणस्थानमें आने पर तात्पर्य यह है कि जो साधु वस्त्र रखते हुए भी अपने- वह वस्त्रको अलग करता है । तो इससे यह निष्कर्ष भी को माधुमार्गी मानते है या लोक उन्हें माधुमार्गी कहना है निकलता है कि मानवे गुणस्थानकी तरह अाठवां प्रादि तो यह विषय दि. जैन संस्कृतिक दृष्टिकोणके अनुसार गुणम्थानोंका सम्बन्ध भी मनुष्यको अन्तरंग प्रवृत्तिस होनेके विवादका नहीं है क्योंकि दि.जैन संस्कृतिम माधुत्वके विषय कारण मवम्ब मुक्रिक समर्थन में कोई बाधा नही रह जाती में जो नग्नता पर जोर दिया गया है उसका अभिप्राय तो है और इस तरह दि. जैन संस्कृनिका मीमुनि निषेध भी सिर्फ इतना ही है कि मवस्त्र साधुमे नन माधुकी अपेक्षा असंगत हो जाना है। श्रात्माकी म्वावलम्बन शकिके विकास और शरीरकी प्रान्म- उत्तर-यद्यपि सभी गुणस्थानीका सम्बन्ध जोवकी निर्भरनाकी उतनी कमी रहना म्वाभाविक है जिस कमीक अन्तरंग प्रवृत्तिसे ही है, परन्तु कुछ गुणस्था। ऐसे हैं जो कारण उसे वस्त्र ग्रहण करना पट रहा है । इस प्रकार नम्त्र अन्तरंग प्रवृत्तिा माथ बाह्यवेशक आधार पर व्यवहारमें भ्यागकी असामर्थ्य रहने हुए वस्त्रका धारण करना निंदनीय अाने योग्य है । ऐम गुपन्धान पहला, तीसरा, चौथा, नहीं माना जा सकता है प्रन्युन वस्त्र--पागकी प्रमामर्थ्य रहने पांचवों; छठा और तरहवां ये सब हैं शेष गुणम्थान दूसरा, हुए भी नग्नताका धारण करना निन्दनीय ही माना जायेगा मानवां, अाठवां, नववा, दशवां, ग्यारहवाँ, बारहवां और क्योंकि इस तरह प्रयन्नस माधुरमें उत्कर्ष होनेको अपेक्षा चौदहवां ये सब केवल अन्तरंग प्रवृत्ति पर ही आधारित अपकर्ष ही हो सकता है यही मबब है कि दिगम्बर जैन हैं। इसलिए जो मनुप्य मवस्त्र होते हुए भी केवल अपनी संस्कृतिमें नग्रताको मिसी एक हद तक माधुत्वका परिणाम अन्तः प्रवृत्तिकी अोर जिम समय उन्मुम्ब हो जाया करते हैं ही माना गया है माधुन्वमें नग्नताको कारण नहीं माना गया उन मनुष्योंक उस समयमे वस्त्रका विकल्प ममाप्त हो जान के कारण मातवेंसे बारहव नकक गुणम्यान मान लेने में कोई इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार समझना चाहिये कि आपत्ति नहीं है। दि० जैन संस्कृनिमें भी चेलोपसृष्ट साधु Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६] . अनेकान्त [ वर्षे १३ भोंका कथन तो भाता ही है । परन्तु दि. जैन संस्कृतिकी म्बित है, दूसरे वहाँ पर प्रात्माकी स्वालम्बन शक्ति और मान्यतानुसार मनुष्यके पठा गुणस्थान इलिये सम्भव नहीं शरीरकी प्रात्मनिर्भरताकी पूर्णता हो जाती है, इसलिए वहाँ है कि वह गुणस्थान ऊपर कहे अनुसार साधुत्वकी अन्तरंग वस्त्रस्वीकृतिको आवश्यकता ही नहीं रह जाती है। दि. प्रवृत्तिके साथ उसके बाझ वेश पर आधारित है, अतः जब जैन संस्कृतिमें द्रष्यस्त्रीको मुक्ति न माननेका यह भी एक तक वस्त्रका त्याग बाह्यरूपमें नहीं हो जाता है तब तक दि. कारण है। जंन संस्कृतिक अनुसार वह साधु नहीं कहा जा सकता है। जिन लोगोंका यह ख्याल है कि साधुके भोजन ग्रहण इसी आधार पर मवस्त्र होनेके कारण इन्य स्त्रीके छठे गुण और वस्त्र ग्रहण दोनों में कोई अन्तर नहीं है उनसे हमारा स्थानकी सम्भावना तो समाप्त हो जाती है । परन्तु पुरुषकी इतना कहना ही पर्याप्त है कि जीवनके लिए या शरीर रक्षा तरह उसके भी सातवां आदि गुणस्थान हो सकते हैं या के लिए जितना अनिवार्य भोजन है उतना अनिवार्य वस्त्र मुक्रि हो सकती है इसका निर्णय इस आधार पर ही किया नहीं है, जितना अनिवार्य वस्त्र है उतना अनिवार्य आवाम जा सकता है कि उसके संहनन कौन सा पाया जाता है। नहीं है और जितना अनिवार्य प्रावास है उतना अनिवाय मुक्रिके विषय में जैन संस्कृतिकी यही मान्यता है कि वह पब- कौटुम्बक महवाल नहीं है। वृषभनारचपहनन वाले मनुष्यको ही प्राप्त होती है और अन्तमें म्थूल रूपसे साधुका लक्षगा यही हो सकता है यह मंहनन द्रव्यस्त्रीक सम्भव नहीं है। अतः उसके मुनि- कि जो मनुष्य मन पर पूर्ण विजय पा लेनेके अन्तर यथाशक्ति का निषेध नि. जैन संस्कृतिमें किया गया है। मनुष्यके तर- शारीरिक आवश्यक्ताओंको कम करते हुए भोजन आदिको हवें गुणस्थानमें बस्त्रकी सत्ताको स्वीकार करना तो सर्वथा पराधीनताको घटाता हुआ चला जाता है वही साधु कहलाता प्रयुक्त है क्योंकि एक तो तेरहवां गुणस्थान षष्ठगुणस्थानक है। समान अन्तरंग प्रवृत्तिके साथ-साथ बाह्य प्रवृत्ति पर अवल (बीना-ता. २०१३।१५) भारतीय इतिहासका एक विस्मृत पृष्ठ (जैन सम्राट् राणा सुहेलदेव ) [श्रीलल्लन प्रमाद व्याम] सहस्रो वर्षकी दासनाने हमारे राष्ट्रको निर्जीव-मा बना देना चाहिए। इसलिए यद्यपि अाज हमने गजनैतिक दिया है। इस दीर्घकालीन परतन्त्रता रूपी झंझाके थपेटोन रूपसे स्वतन्त्रता प्राप्त करली परन्तु मानसिक स्वतन्त्रता - शकी संस्कृति, धर्म, साहित्य और इतिहासको अस्त व्यस्त प्राप्त करने में अब भी कुछ समय है। कर दिया है। विदेशी शासक, जिसमें विशेषतः अंग्रेजोंने तो, आज हम स्वतन्त्र हैं। परन्तु अभी हमें अपना इस दशमें राजनैतिक पारतन्त्रक अपेक्षा मानपिक पारनन्त्र (स्व) तन्त्र निर्माण करना शेष है। जिसके बिना हम पर अधिक जोर दिया। कारण कि मानसिक पारनन्त्रसे स्वतन्त्र' नहीं कहे जा सकते । अतः हमें अपने वास्तविक सम्पूर्ण राष्ट्रमें प्रात्म-विस्मृति हो जाती है और फिर वह इतिहासका निर्माण करना बहुत मावश्यक है जो हमारे गष्ट्र परतन्त्रताकी बेडियोसे और भी जोरोंसे जकडा जाता राष्ट्र जीवनमें मदैव नवस्फूर्ति और प्रेरणाका संचार कर है इसी नीतिको ध्यानमें रखते हुए, विदशियोंने हमारे सके । छत्रसाल जयन्तीके अवसर पर भाषण करते हुए अतीतके गौरवमय इतिहामको विनष्ट करने तथा शेपको राष्ट्रपति डा. राजेन्द्रप्रसादने कहा कि मुझे अत्यन्त खेद है असत्वमें परिवर्तित कर देनेके सफल प्रयास किए। क्योंकि कि भारतीय इतिहासमें छत्रसाल ऐसे महापुरुषका उल्लेख थे भली भांति जानते थे कि यदि किसी जातिको नष्ट तक नहीं है तथा उन्होंने प्राश्वासन दिया कि भविष्य में करना है तो सर्वप्रथम उसके ऐतिहासिक महत्वको नष्ट कर देशका वास्तविक इतिहास लिखा जाने वाला है। Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १०] भारतीय इतिहासका एक विस्मृत पृष्ठ [२४७ उसी प्रकार दुर्भाग्यका विषय है कि हमारे इतिहासकार ममऊदीमें भी की गई। परन्तु कुछ हिन्दू और जैन ग्रंथोंका श्रावस्ती नरेश, वीर राणा सुहेलदेवको भी भूल गए अध्ययन करनेसे यह बात सर्वथा असत्य जान पड़ती है। जिन्होंने अपनी शनि और पराक्रमसे भारत देशको विदेशी श्रीकंठचरित्रमें सम्राट् सुहेलदेव राजवंशी क्षत्रिय कहे गये अाक्रमणकारियोंसे रहित कर दिया था और फिर सैकड़ों है। गोडा गजेटियरमें इनको राजपूत सम्राट् बतलाया है। वर्षों तक किमी भी विदेशीने भारतवर्षमें आनेका नाम नक परगना बुक बहराइचमें भी इनका क्षत्रिय वंश उल्लिखित है। न लिया । क्या इस राष्ट्र-पुरुषको हमारा देश कभी भुला अतएव सम्राट् सुहेलदेवके सम्बन्धमें उपलब्ध, अब सकता है? कदापि नहीं । आज मस्यको छिपानेका चाहे तकके समस्त ग्रन्योंका मन्यन करनेसे हम इस निष्कर्ष पर कोई दुस्साहम करे परन्तु कल तो वह प्रकट होकर ही रहेगा पहुंचते हैं कि वीर सुहेलदेव, गजनवीके समकालीन, कोशल और भविष्यमें लिखे जाने वाले देशके सच्चे वीर मुहेलदेवका के मम्राट थे, जिनकी राजधानी श्रावस्तीपुरी थी । ये खत्री नाम स्वर्ण अवरों में अंकित होगा। प्राज-भी मानो श्रावस्ती- थे तथा जैनधर्मको मानने थे। उन्होंने यवनाधिपति मैयद के खंडहर अपने गत वैभवकी कहानी सुना रहे हैं तथा मलार ममऊद गाजीको युद्ध में मार डाला और एक बार उसके कण-कणसे 'राणा सुहेलदेवकी जय' की स्वर लहरी इस भारत भूमिको परकीयोंसे रहित कर दिया। प्रस्फुटित हो रही है। युद्धसे पूर्व देशकी दशा और युद्ध राणा सुहेलदेवसे सम्बन्धित ऐतिहासिक खोज वीर सम्राट् सुहेलदेवके जीवनकालमें युद्ध ही एक यह तो सर्वविदित है कि हमारा भारतीय इतिहास ऐतिहासिक महत्वकी घटना थी। इस युद्धकी विजयश्रीने वीर सुहेलदेवक सम्बन्धम पूणतः मान है। इस सम्बन्धम ही उन्हें सदैवके लिए अमर बना दिया। इसलिए युद्धके अभी तक जो कुछ भी ऐतिहामिक सामग्री उपलब्ब हो बारेमें थोडा बहत ज्ञान होना अति आवश्यक है। सकी है उसी पर हमको सन्तोष करना पड़ता है। युद्धके पूर्व देश धन धान्यसे सम्पन्न किन्तु छोटे-छोटे प्रथम, आर्कियालाजिकल सर्वे रिपोर्ट में सम्राट् सुहेलदेव- राज्यों में विभाजित था। देशमें एक सुसंगठित शकिका को प्रतापी सम्राट मोरध्वज, हंमध्वज और सुधनध्वजका अभाव था। लगभग ममस्त राजागणोंमें संकुचित मनोवृत्ति वंशज तथा श्रावस्तीका अन्तिम जैन सम्राट् माना गया है। होनेके कारण वे आपसमें ही युद्ध किया करते थे। हमारे युद्ध में सम्राट् सुहेलदेवके हाथों सलार मसऊद गाजीके वधका देशके इतिहासकी असफलता और पराजयसे परिपूर्ण महस्रों भी उल्लेख है। द्वितीय, गजेटियर जिला बहराइचसे भी वर्षकी लम्बी करुण कहानीका सारांश यही है कि शेर शेर सम्राट् सुहेलदेव जैनी सम्राट् ज्ञात होते हैं तथा इनकी आपस में ही लड़कर समाप्त हो गये तथा गीदड़ोंने राज्य राजधानी श्रावस्तीपुरी थी । तृतीय, श्रीकंठचरित्रमें भी किया । उसी प्रकारसे हमारी विघटित तथा बीया शक्रिसे सम्राट सुहेलदेवका उल्लेख है और उनका काश्मीरकी एक लाभ उठाकर महमूद गजनवीने एक दो नहीं सत्रह बार इस विद्वानोंको सभामें जाना वर्णित है। इसके अतिरिक्त कुछ देश पर आक्रमण किया और अपार धन यहांसे गजनी ले इतिहासकारोंका मत है कि सम्राट् सुहेलदेव कोई स्वतन्त्र गया। कनौज उस समय देशका केन्द्र था,यथा यहांके राजाने राजा न थे बल्कि अपने समकालीन कनौज सम्राट्के प्राधीन पहले ही राष्ट्रीय आत्म-सम्मानको तिलांजलि देते हुये थे। परन्तु यह तो सर्वमान्य सत्य है कि कौजके सम्राट अन्य राजाओंकी सम्मतिके बिना ही यवनोंसे सन्धि कर ली इसके पूर्वसे ही मुसलमानोंके मित्र हो चुके थे और विशेष थी। इसके अतिरिक्र एक दूसरा संकट देश पर पाने वाला रूपसे उनका सैयद सलार मसऊदके बीच भीषण युद्धका था। महमूद गजनवीका भानजा सेयद सलार मसूद इस्लामप्रश्न ही नहीं उठता। धर्म प्रचारकी आदमें भारतवर्ष पर भीषण आक्रमणके हेतु कतिपय विदेशियोंने ईर्ष्या और द्वेष वश सम्राट् एक बहुत बड़ी सेनाका निर्माण कर रहा था। सत्रह वारके सुहेलदेवको 'भर' अथवा 'डोम' जातिका कह गला है। आक्रमणोंसे अनुभव प्राप्त महमूद गजनवीकी सेनाके भूतपूर्व उदाहरणार्थ स्मिथ और नेवायलने इनको 'भर' अथवा सेनापति और सिपाही ही अधिकतर, सैयद सलार मसूदकी 'म' जातिका सम्राट् कहा है और यही भूल मीरात सेनामें भर्ती किये गये थे। इसके उपरान्त वह अपनी सेनाके Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [ वर्ष १३ उसके मुँह से ये शब्द निकले 'मौतका सामना है । व ग्वीर है । यह इल्तिजा है कि मैंने जिसे सताया हो या किसीने मुझसे आजार पाया हो माफ करे। दिलको साफ करे । फिराक सुरी नज़दीक हैं। अब वस्ले बहेदत ला शरीक है।" परन्तु सैयद मलार ममने इस बार एक बहुत बड़ी चाल चली है। २४८ ] म्याथ गजनीसे भारतमें घुस आया। यहाँ आकर उसने भीषण लूटमार प्रारंभ करदी तथा तलवार जोरसे इस्लामधर्मका प्रसार करने लगा। चारों ओर जनता ग्राहि-त्राहि कर उठी । किसी में इतना साहस न था जो उसका सामना कर सके। लाहौर, दिल्ली, मथुरा, कानपुर, लखनऊ चीर मतारिय आदिको जीतता हुआ वह सन् १०३० में बालार्क पुरी (बहराइच) आ पहुंचा और इसीको अपना केन्द्र बना कर रहने लगा । । इधर सैयद मलार मसूदका यह उत्पात देखकर देशभतिकी भावना ओत-प्रोत वीर सम्राट् सुहेलदेवकी तलवार अपने निरपराध देशवासियों खूनका बदला लेने लिए मचल रही थी । परन्तु वे शान्ति और अहिसाके पुजारी थे । उन्होंने एक पत्रके द्वारा मैयद सलारको यह देश छोड़ देनेके लिए कहा। परन्तु वह तो देशका सर्वोच्च शामक वननेका स्वप्न देख रहा था और युद्धका इच्छुक था वीर सुहेलदेव कब पीछे हटने वाले थे। शठे शाट्यं समाचरेत्' वे खूब जानते थे । अतः दोनों ओरसे युद्ध की तैयारियाँ होने लगीं। इधर सुहेलदेव के सेनापति त्रिलोकचन्द बोहराके सेनापतित्वमें प्रान्तके २१ तथा अन्य राजाओंकी भी सैन्य शक्रियाँ श्रावस्तीके निकट राप्ती नदी किनारे एकत्रित हुई। सैयद सवार मसऊद की सहायता के लिए भी बहराइच, महोबा, गोपामऊ, लखनऊ, मानिकपुर और बनारस योद्धागण आये। श्रावस्तीसे लगभग चार मील दूर इकौनाके स्थान पर दोनों सेना में घमासान युद्ध हुआ । सैयद सलारकी पराजय हुई और उनका सेनापति बुद्धमें मारा गया तथा शेष सभी बहराइच भाग आये। शत्रु अभी देश में ही थे, ऐसी दशा अभी देशमें ही थे, ऐसी दशा में वीर सुहेलदेवको कैसे चैन पड सकता था। उनकी खेनाने आगे बढ़ कर बहराइचसे कोस दूर प्यागपुरके स्थान पर पड़ाव डाला और सैयद सलारको पुनः ललकारा। उसने मी एक दिन अवसर पाकर एकदम सुहेलदेवकी सेना पर धावा बोल दिया। सेयर मलारकी सेना धायन्त वीरवासे ast परन्तु मफलता प्राप्त न कर सकी और पुनः बहराइच भाग गई। बीर सुहेलदेवकी सेनाने उसका पीछा किया और बहराइचसे दो कोस दूर कुटिला नदी किनारे जितौरा ara चित्तौराके स्थान पर अपना पड़ाव डाला । सैयद मजारको जब इसकी सूचना मिली तो वह अत्यन्त भयभीत हुआ 'और अब उसको अपनी पराजयका स्पष्ट चित्र दृष्टिगोचर होने लगा। मीरात मसूदीके अनुसार उस समय उसको निश्चय पता था, कि हिन्दू गडको पूज्य मानते हैं औरों पर कभी अस्त्र नहीं उठा सकते । इसलिए उसने अपनी सेनाके धागे बहुमी गायको कर दिया। जिनके कारण विरोधी मेना इन पर तीरका वार न कर सकेपरन्तु ये अपनी विरोधी सेना पर आसानी से नीरवर्षा कर म ऐसे आपत्ति और संशय में वीर मुहेलदेव अपना कर्त्तव्य खूब पहचानते थे । बुद्धिमानी और चातुखमें भी वे किमीसे कम न थे इसलिए उन्होंने आतिशबाजी और इसकी तीर वर्षाले गायको तितर-बितर कर दिया। अब क्या था, सुहलदेवकी सेना सैयद सलारकी सेनापर शेरोंकी भांति टूट पड़ो। उनकी तलवारें अरि शोणितसे अपनी प्यास बुझाने लगीं । इसी युद्ध पर देशक भाग्य-सूर्यका उदय था अस्त होना निर्भर था। दोनों सेनायें बडी वीरता से लड़ रही थीं । किन्तु इस समय सम्राट् सुहलदेवकी श्र किसी और के लिएड़ी स्याकुल थीं और वह था सैयद सलार । तभी मम्राट्ने उसे एक महुए के पेड़के नीचे युद्ध करता हुआ देखा। इन्हीं की तो प्रतीक्षा देश तया धर्मके अपमानका बदला लेनेके लिए क्षण भरको उनका हृदय मचल उठा । देहसे क्रोधाग्नि निकलने लगी । श्रब अपनेको और सम्हालना उनके लिए असम्भव हो गया । सम्राट् सुहलदेव और यवनाधिपति सैयद सलार के बीच युद्ध प्रारम्भ हुआ। इतने में ही मम्राट् सुहलदेव एक बा सैयद सलारको मृत्युलोक पहुँचा दिया। मीराते मसऊदी (भारसी) में इसका वर्णन इस प्रकार है : 1 ""निज्द दरियाय कुटिला र दरख्त गुलचकां जब नाविक हम मीज शहीद शुद" अर्थात् कुटिला नदी के किनारे, महुवेके वृत्तके नीचे, तीरके द्वारा गला विंधनेसे मसकर गाजी शहीद हुए। इसके उपरान्त सैयद सलारके लगभग सभी सिपाही मारे गये। भारत भूमि वचनोंसे रहित हुई। देशके भाग्यका पुनः सूर्योदय हुआ। विजयकी सूचनासे सम्पूर्ण देशवासियों में प्राकी एक शहर दौड़ गई। प्रजाके लिए तो राजा Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष १३ तुजक श्री भद्रबाहुजीका अभिमत [२४४ सुहलदेव भगवान बन गये और वह पूर्ववत सुखसे रहने (सूर्यकुण्ड धादि) बहराइचसे १ मील उत्तरमें है। लेकिन लगी। बादशाह फीरोज तुगलकने इन सब बातों पर कोई ध्यान न सूर्यकुण्ड और सैयद सलारका मकबरा दिया और फकीरके कहने पर सूर्यकुण्ड मिहीसे पटवा दिया मयद मलारकी मृत्युकं ३१० वर्ष बाद अर्थात १३१॥ नया सूर्य भगवानके मन्दिरको ध्वस्त करके उस पर सैवत ई. में बादशाह फीरोज तुगलकने बंगाल पर चढ़ाई की और मलार ममऊदको गाजीका एक शान्दार मकबरा बनवा । उसी समय वह मैयद मालार ममऊदका मकबरा बनवान दिया । वह अब भी वर्तमान है । इसके अतिरिक्र शुक्र, बहराइच भाया । इनने वर्षों के बाद मैयद मलार मसऊदकी बुद्ध बृहस्पति, मंगल और चन्द्र आदि ग्रहोंके स्थान पर कवका कोई चिन्ह नक शेष न रह गया था। बादशहन यहा क्रमशः सुका मलार बुडढन मलार, पीरू मलार, हठीले के सबसे वृत मुसलमान को में जो अपनेको एक पहुंचा हुआ तथा मार माहकी करें बनवा दीं। फकीर बतलाता था मैयद सलारकी कनके सम्बन्धमें पूछा। यह हमारे गष्ट्रक लिए बडे कलंक की बात है कि बालापुरी (बहराइच) में एक सूर्य भगवानका मन्दिर था राष्ट्रीय और देशघातक मनोवृत्ति पर विजय प्राप्त करने जो उस समय देश भग्में प्रसिद्ध था तथा इसके समीपही वाले एक राष्ट्रीय महापुरुपकी हमने सदैव उपेक्षा की है तथा एक सूर्य कर द था जिसके उध्या जलसं कष्टरोगी अच्छे हो एक परकीय एवं आक्रमणकारीका पूजन किया । हो सकता जाया करते थे। उप मुसलमान फकीरने बादशाहको विश्वास है कि समय और परिस्थितियान हमको ऐसा करनेके लिए दिलाया कि यहीं पर मेयर सलार मपऊद गाजीकी कब थी, बाध्य कर दिया हा, किन्तु अब ता हमारा देश स्वतन्त्र है। जब कि वास्तविक स्थान कटिला नदीके किनारे जित्तीरा या अनएव राष्ट्रीय जीवनमें नवचेतनाका संचार करने वाले वीर चित्तौरा जहाँ पर महवेके वृक्षक नीच मैयद सालार मारे गये मम्राट् मुहेलदेवकी स्मृतिको पुनर्जीवित करना आज हमारा थे बहराइचस ४ माल पू.व में स्थित है और यह स्थान राष्ट्रीय कर्तव्य है। -(वीर अर्जुनसे) समीचीन धर्मशास्त्रके भाष्यपर क्षुल्लक श्री भद्रबाहुजीका अभिमत मक्रिमोपनपर महन्धका प्रकाश डालने वाले इस समो- पं. मुख्तारजीने अपने सम्पूर्ण जीवनमें इतनी जमिन चीन धर्मशास्त्र (ग्नकरण्ड) पर अनेक टीका टिप्पणानि नल्लीनतासे गहरा अध्ययन किया है कि ममन्तभदभारतीय उपलब्ध हैं. किन्तु अन्यके मर्मको, ग्रन्थकारके हार्दिक भावोंको ऊपर अधिकार वाणीसे कहने वाले जगतमें आज ही एक प्रत्येक पदके यथार्थ सुनिश्चित अर्थको स्पष्ट करके यथार्थ- मेव-अद्वितीय विद्वान हैं। उनकी साहित्य सेवाएं विद्वज्जनोंक ग्रन्थ-व्युत्पत्ति कराने वाले भाष्यकी आवश्यकता सुदीर्घकालसे हृदयमें उनका नाम अमर बना रकम्बेंगी । उनकी इस लोकोमासस हो रही थी। श्री. विद्वदर पं. जुगलकिशोरजी पयोगी अनुपम कृतिका विद्वजनोंमें समुचित समादर होकर मुख्तारने इस भाष्यको लिखकर उस महती आवश्यकताकी इसके अन्य प्रांतीय भाषायों में भी भाषांतर हों और सामान्य पति की है। अतः वे अनेकशः हार्दिक धन्यवादके पात्र हैं। जनताके हृदयतक इसका खूब प्रचार होकर समीचीन धर्मकी जैन तत्त्वज्ञान और इतिहासका, विशेषतः समन्तभद्र- प्रभावना हो, यही शुभ कामना है। पु. भववाह भारतीका और स्वामी समन्तभद्राचार्यके जीवनका, श्री. ११-४-१५ - - Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर सेवामन्दिरसे हाल में प्रकाशित समीचीन धर्मशास्त्र ( रत्नकरण्ड) का प्राक्कथन ( डा० वासुदेवशरणजो स्वामी समन्तभद्र भारतवर्णके महान् नीतिशास्त्री और तत्वचितक हुए हैं। जैन दार्शनिकों में तो उनका पद अति उच्च माना गया है। उनकी शैली सरल, संक्षिप्त और आत्मानुभवी मनीषी जैसी है। देवागम या आप्तमीमांसा और युक्त्यनुशासन उनके दार्शनिक ग्रन्थ हैं । किन्तु जीवन और आचारके सम्बन्ध में भी उन्होंने अपने रत्नकांड श्रावकाचारके रूपमें अद् भुत देन दो है। इस प्रन्थ में केवल १५० श्लोक हैं । मूलरूपमें इनकी संख्या यदि कम थी तो कितनी कम थी इस विषय पर ग्रन्थ के वर्तमान सम्पादक श्रीजुगलकिशोरजी ने विस्तृत विचार किया है। उनके मतसे केवल सात कारिकाएँ संदिग्ध हैं। सम्भव है मातृचेतके अध्यर्ध शतककी शैली पर इस ग्रन्थको भी श्लोकसंख्या रही हो । किन्तु इस प्रश्न का अन्तिम समाधान तो प्राचीन हस्तलिखित प्रतियोंका अनुसंधान करके उनके आधार पर सम्पादित प्रामाणिक संस्करण से सम्यक्तया हो सकेगा जिसकी ओर विद्वान् सम्पादकने भी संकेत किया है ( पृ० ८७)। प्रवाल प्रो० काशी विश्वविद्यालय ) ज्ञान हुआ तो उन्होंन कांचीपुरमें जाकर दिगम्बर नग्नाटक यति की दीक्षा ले ली और अपने सिद्धान्तोंके प्रचारके लिए देशके कितने ही भागोंकी यात्रा की । आचार्य जिनसेनने समन्तभद्रकी प्रशंसा करते हुए उन्हें कवि, गमक, वादी और वाग्मी कहा है । लंकने समन्तभद्रके देवागम प्रन्थकी अपनी अष्टशती विवृतिमें उन्हें भव्य अद्वितीय लोकचतु कहा है। सचमुच समन्तभद्रका अनुभव बढ़ा चढ़ा था । उन्होंने लोक-जीवनके राजा-रंक, ऊँच-नीच, सभी स्तरोंको आँख खोलकर देखा था और अपनी परीक्षणात्मकबुद्धि और विवेचना-शक्ति से उन सबको सम्यक आचार और सम्यक् ज्ञानकी कसौटी पर कसकर परखा था । इसीलिये विद्यानन्दस्वामीने युक्त्यनुशासनकी अपनी टीकामें उन्हें 'परीक्षेक्षण' ( परीक्षा या कसौटी पर कसना ही है आँख जिसकी ) की सार्थक उपाधि प्रदान की । समन्तभद्र के जीवन के विषय में विश्वसनीय तथ्य बहुत कम ज्ञात हैं । प्राचीन प्रशस्तियोंसे ज्ञात होता है कि वे उरगपुरके राजाके राजकुमार थे जिन्होंने गृहस्थाश्रमीका जीवन भी बिताया था । यह उरगपुर पांड्य देशकी प्राचीन राजधानी जान पड़ती है, जिसका उल्लेख कालिदासने भी किया है ( रघुवंश, ६।५६, अथोरगाख्यस्य पुरस्य नाथं ) । ४७४ ई० के गड्बल ताम्र शासन के अनुसार उरगपुर काबेरीके दक्षिण तट पर स्थित था (एपि० इं०, १०।१०२ ) । श्री गोपालनने इसकी पहचान त्रिशिरापल्ली के समीप उरैय्यूर से की है जो प्राचीन चोलवंशकी राजधानी थी । कहा जाता है कि उरगपुर में जन्म लेकर बड़े होने पर जब शान्तिवर्मा ( समन्तभद्रका गृहस्थाश्रमका नाम ) को स्वामी समन्तभद्रने अपनी विश्वलोकोपकारिणी वाणी से न केवल जैन मार्गको सब ओरसे कल्याणकारी बनानेका प्रयत्न किया ( जैनं वर्त्म समन्तभद्रुमभवद्भद्र ं समन्तान्मुहुः ), किन्तु विशुद्ध मानवी दृष्टि से भी उन्होंने मनुष्यको नैतिक धरातल पर प्रतिष्ठित करने के लिये बुद्धिवादी दृष्टिकोण अपनाया । उनके इस दृष्टिकोण में मानवमात्रकों रुचि हो सकती है । समन्तभद्रकी दृष्टि में मनकी साधना, हृदयका परिवर्तन सच्ची साधना है, बाह्य आचार तो आडम्बरोंसे भरे हुए भी हो सकते हैं। उनकी गर्जना है कि मोही मुनिसे निर्मोही गृहस्थ श्रेष्ठ है । कारिका ३३ ) । किसीने चाहे चण्डाल-योनि में भी शरीर धारण किया हो, किन्तु यदि उसमें सम्यग्दर्शनका उदय हो गया है, तो देवता ऐसे व्यक्तिको देव-समान ही मानते हैं। ऐसा व्यक्ति भस्मसे ढके हुए किन्तु अन्तर में दहकते Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १०] समीचीन-धर्मशास्त्र (रत्नकाण्ड) का प्राकथन [२५१ हुए अंगारेकी तरह होता है सदृष्टि-ज्ञान-वृत्तानिधर्म धर्मेश्वरा विदुः । श्लो. ३ सम्यग्दर्शन सम्पन्नमपि मातंगदेहजम् । धर्म कल्पित ढकोसलोंका नाम नहीं है। धर्म तो जीवनके सुनिश्चित नियमोंकी मंज्ञा है जिन्हें जैन परिभाषामें सामायिक कहते हैं। यदि गृहस्थाश्रममें 'धर्मसे श्वानके सदृश नीचे पढ़ा मनुष्य भी देव रहनेवाला गृही व्यक्ति भी सामायिक-नियमोंका सञ्चाईसे हो जाता है और पापसे देव भी श्वान बन जाता है।' पालन करता है तो वह भी वस्त्रखण्ड उतार फेंकने (श्लोक २६) वाले मुनिके समान ही यतिभावको प्राप्त हो जाता है __ ये कितने उदात्त, निर्भय और आशामय शब्द हैं (श्लोक १०२)। बात फिर वहीं आ जाती है जहाँ जो धर्मके महान आन्दोलन और परिवर्तनके ममय संसारके सभी ज्ञानी और तपस्थित महात्माओंने उसे ही विश्व-लोकोपकारी महात्माओंके कण्ठोंस निर्गत टिकाया है-हिंसा, अनृत, चोरी, मैथुन और परिग्रह होते हैं ? धर्म ही वह मेरुदण्ड है जिमके प्रभावसे ये पांच पापकी पनालियाँ हैं । इनसे छुटकारा पाना मामूली शरीर रखनेवाले प्राणीकी शक्ति भी कुछ ही चारित्र है' (श्लोक ४६)। बिलक्षण हो जाती है। (कापि नाम भवेदन्या सम्पद स्वामी समन्तभद्रके ये अनुभव मानवमात्रके लिये धर्माच्छरीरिणाम् । श्लोक २६)। यदि लोकमें ऑख उपकारी हैं। उनका निजी चारित्र ही उनके अनुभवम्खोलकर देखा जाय तो लोग भिन्न-भिन्न तरह के मोह की वाणी थी। उन्होंने जीवनको जैसा समझा वैसा जाल और अज्ञानकी बातों में फंसे हुए मिलेंगे। कोई कहा। अपने अन्तरके मैलको काटना ही यहाँ सबसे नदी और समुद्र के स्नानको सब कुछ माने बैठा है, बड़ी सिद्धि है। जब मनुष्य इस भवके मैलको काट कोई मिट्टी और पत्थरके स्तूपाकार ढेर बनवाकर धर्म डालता है तो वह ऐसे निखर जाता है जैसे किट्ट और की इति श्री समझता है, कोई पहाड़से कूदकर प्राणांत कलौंसके कट जानेसे घरिया में पड़ा हुआ सोना निखर कर लेने या अग्निमें शरीरको जला देनेसे ही कल्याण जाता है (श्लोक १३४)। अन्तमें वे गोसाई तुलसीमान बैठे हैं-ये सब मूर्खतासे भरी बातें हैं जिन्हें दासजीको तरह पुकार उठते हैं-स्त्री जैसे पतिकी लोक-मूढ़ता कहा जा सकता है (श्लोक २२)। कुछ इच्छासे उसके पास जाती है, ऐसे ही जीवनके इन लोग राग द्वेषकी कीचड़ में लिपटे हुए हैं पर वरदान अर्थोकी सिद्धि मुझे मिले; कामिनी जैसे कामीके पाम पानेकी इच्छासे देवताओं के आगे नाक रगड़ते रहते जाती है ऐसे ही अध्यात्म-सुखकी स्थिति ( सुखभूमि) हैं-वे देवमूद हैं (श्लोक २३)। कुछ तरह-तरहके मुझे सुख देनेवाली हो ।' (श्लोक १४६-५०)। मनो. माधु-सन्यासी पाखण्डियोंके ही फन्दों में फंसे हैं विज्ञानकी दृष्टिसे भी यह सत्य है कि जब तक (श्लोक ४)। इनके उद्धारका एक ही मार्ग है- अध्यात्मकी ओर मनुष्यकी उसी प्रकार सहज प्रवृत्ति सच्ची दृष्टि, सच्चा ज्ञान और सच्चा आचार । यही नहीं होती जैमी कामसुखकी ओर, तब तक धर्मपक्का धर्म है जिसका उपदेश धर्मेश्वर लोग कर साधनामें उसकी निश्चल स्थिति नहीं हो पाती। गए हैं काशी, ता.२८-२-१५५ जैनग्रन्थ प्रशस्तिसंग्रह यह ग्रन्थ १७१ अप्रकाशित प्रन्योंकी प्रशस्तियोंको लिए हुये है। ये प्रशस्तियाँ हस्तलिखित ग्रन्थों परसे नोट कर संशोधन के साथ प्रकाशित की गई हैं। पं० परमानन्दजी शास्त्रीको ११३ पृष्ठकी खोजपूर्ण महत्वकी प्रस्तावनासे अलंकृत है, जिसमें १०४ विद्वानों, प्राचार्यों और मद्वारकों तथा उनकी प्रकाशित रचनाओंका परिचय दिया गया है जो रिसर्चस्कालरों और इतिहास संशोधकोंके लिये बहुत उपयोगी है। मृन्य ४) रुपया है। मैनेजर वीरसेवा-मन्दिर जैन लाल मन्दिर, चाँदनी चौक, देहली. Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश भाषाका पार्श्वनाथ चरित ( परमानन्द शास्त्री) कुछ वर्ष हुए डा. हीरालालजी एम. ए. नागपुरने नाम 'कमलश्री' था, उससे तीन पुत्र उत्पन्न हुए थे यंदण, नागरी प्रचारिणी पत्रिकामें अपने लेग्यमें कवि अमवालके मोणिग और लोणामाह। इनमें पाहू लोणा जिनयात्रा 'पासणाहचरिउ' की एक अपूर्ण प्रतिका उल्लेख किया था। श्रादि प्रशम्तकार्यों में बव्यका विनिमय करने थे। भनेक उसी समयसे मैं उसकी दूसरी पूर्ण प्रतिको तलाशमें था। विधान और उद्यापनादि कराते थे। भाग्यसे उपकी एक प्रति जयपुरके नेगपंथी मन्दिरके शाम्न- उन्होंने कवि 'हल्ल' की प्रशंसाकी थी, जिसने 'मल्लिभंडारमें मिल गई। प्रनि यद्यपि कुछ अशुद्ध है परन्तु पूर्ण नाथ चरित की रचनाकी थी । स्लोणामाने अनेक यात्रा है। उपका.मंक्षिप्त परिचय मय श्रादि अन्त प्रशस्तिके यहां और प्रतिष्ठाए कराई थीं और उन्हींकी प्रेरणासे कवि दे देना ही इस लेखका प्रमुख विषय है। असवालने इस ग्रन्थकी रचना का जिसे उन्होंने अपने ज्येष्ठ इस ग्रंथमें जैनियोंके नेवीपर्व नीर्थकर श्रीपार्श्वनाथका जीवन भ्राता सोणिगक लिये बनवाया था। परिचय दिया हुआ है । ग्रन्थमें कुल १३ मंधियां दी हुई हैं प्रन्थकी प्राय प्रशस्तिमें लिखा है कि उक्र चौहानवंशी जिनमें पार्श्वनाथकी जीवन-घटनाओंका उल्लेख किया गया है। राजा भोजराजके राज्यकालमें सं०१४७१ में वहां बडा भारी इम ग्रन्थक का कवि अमवाल हैं जो पं० लचमणके मुपुत्र प्रतिष्ठोत्सव हुआ था जिसमें रत्नमयो बिम्बकी प्रतिष्ठाकी गई और 'गुन्नराडवंश' में उम्पन्न हुए थे। यह 'गलगड' वंश थी । इससे स्पष्ट है कि उस समय करहल जन धनसे सम्भवतः 'गोलाराड' वंश ही जान पड़ता है। कविने यह मम्पन था। ग्रंथ कुशाती देशमें स्थित करहल नामक ग्राममें विक्रम संवत् पार्श्वनाथ चरित प्रशस्ति १४७६में भाद्रपद कृष्णा एकादशीको बनाकर समाप्त किया प्राविभाग था और जिसे कविने एक वर्ष में बनाया था। जैसा कि ग्रंथकी सिवमुहसर सारंगहो सुयसारंगहो सारंग कहो गुणभरित्रो । अन्तिम प्रशस्तिके निम्न पद्यसे प्रकट है : भणमिभुश्रणमागहोखममारंगहो पणविविपाजणहोचरित्रो। दुगवीर होणिवुई वुच्छराई सत्तरिसहुंचउसयवत्थराई। भावियमिरिमलसंघचरणु, सिरिवलयारयगण वित्थरणु। पच्छडासाराणवावक्कमगयाइ,पउणसादासहुच उदहमयाई पर हरिय कुमय पोमायरिउ, प्रायग्यिमामि गुणगणभरित। भानवनम एयारमि मुणेह, परिसिक्केपूरिउ गंथु एहु॥ धरमचंदुव पहचंदायरियो. पायरियरयणजम पह धरियो। कविने मूलसंघ स्थित दिसंघबलात्कारगणके प्राचार्य धरिपंचमहब्वयकामरण, रणुकयपंचिदिय संहरणु । प्रभाचन्द्र पद्मनन्दि और उनक पधर शुभचंद्र और धर्मचंद घर घम्म पयामउ सावयह, वय वारि मुणीमर भावयहं । का समल्लेख किया है जिससे ग्रन्थकर्ता उन्हींकी आम्नायका भत्रियण मण पोमाणंदयरु, मुणिपोमणंदि तहो पट्टवरु । ज्ञात होता है। हरिसमउणभवियगु तुब्छमणु, मणहरइपट्टजियवरभवणु। कविने इस ग्रन्थको जब रचना की, उस समय करहल वरभवण भवणि जस पायडिउ, पायडु ण अणंग मोहणडिउ । में चौहान वंसी राजा भोजदेवका राज्य था । उस समय गडियावयरयणत्तय धरगु, धर रयणत्यगुणवित्थरणु । यदुवंशी अमरसिंह भोजराजक मंत्री थे, जो जनधर्मके संपा घत्तालक ये । इनके चार भाई और भी थे जिनके नाम करमसिंह, करमासह, ततोपवरससि णामेसहससि मुणिपयपंकयचन्द हो। न ममरसिह और नक्षत्रमिह लक्ष्मणसिंह । अमरसिंहकी पत्नीका कुलुखित्तिपासमि पहु बाहासमि, संघाहिवहो वहोअर्णिदहो। कुशात देश मूरसेन देशके उत्तरमें वशा हुआ था और इयं जंबूदीवहं पहाणु, भरहकिउ णं पुर एव णणु । उसकी राजधानी शौरीपुर थी जिस यादवोंने बसाया खेत तरिदमुकुपट्ट रम्मु, दो वीसमु जिण कल्लागु जम्मु । था। भगवान नेमिनाथका जन्म भी शौरिपुरमें बतलाया कालिदिय सुरसरिममगाई. दस्साछणयंतरि पक्खुणाई। जाता है। जरासंधक विरोधके कारण यादवोंको इस प्रदेशको करहलु वरणयरू करहलुसुरम्मु मणिवपरिपालणि पयलहइसम्भु छोड़कर द्वारिकाको अपनी राजधानी बनानी पड़ी थी। वर्त- चहुवाणवंसेअरिकुरुहणाउ, भोइवभोयंकिउ भोयराउ । मानमें यह ग्राम इसी नामसे अाजभी प्रसिद्ध है। णाइक्कदेवि सुउ अरिमयंदु, चंदुव कुवलय संसारचंदु । Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १.1 अपभ्रंश भाषाका पार्श्वनाथ चरित जसुरज्जिपुज्वपुरिसाहिमाणु, मंधाहिवेण विज्जह पमाणु। ग्यगाहें किकरजंपिएण, कि बुद्धिम् नच्च अजंपिएण । सयचउनहगहतरि ममेय माहवघणपणिवापर पमेय। इउसुणिनि मज्भु पोसेहि चित्त करि कन्वु पासणाहोचरित्तु । रयणमयबिंबजिणतिलक सिद्ध., तिथयरणामुकुलाउबद । नेणिमुगिवि कन्वहं तणउणामु.बुहुासुवा ने णिमुगिवि कन्वहं तणउणामु.बुहुअासुवालु हुउ जो मधामु । तहोजुपरज्जिउकयपुहइरज्जु, अरिकुल कयंतु पहपुरइ रज्ज। ग्वगु इकवितांविवि भणई तामु, किं कुणमि कब्बु संघाहिवासु तहो समई एउगुणगणपमन्थु, लेहाविउ संघाहिया गंथु। घत्ताजदुसरवर विपिलुम्बुगिसकेउ? बंभुव पय पालउ बम्हए। हर्ष मुक्वणिरक्वक अमुणिय मम्वरुचिरु महकइकह पाहणु द्यना पामि किग्णाहें रविमसिवाहं बजावय कि बोहणु ॥५॥ पहुरज्जिधुरंधरु उएणयकंधरु शिवकुबेर पहचंद गुरु। वियाण विलक्वगु रामहा भाइ, समासुनिपट्टि दिग्णाहि जुजाइ । यणायक मज्जिणालउ चउबीमालउ मंततणि पहनिययउ। मछंदु णिचंद सुग्रो वणिणाउ, मुगोरम मंथगि तक्कु महाउ नही भान्जा निगिण कुमुवा पहिल्ल,मुअकरम मममसहगणागग्ल्लि लह गुरु बंदिण भाम मुणेमि, वरूहिणि पाहि मंधि मुणोमि मूहव बाई णक्वनकुमर, मायग्पिलमालकावगाहे गवर । विहनि वियाणमि दुजापन्थि, वग्गीहरिणील मुणमि पर्याय हुव पंचपुनगुणगणमहंत, धीरत्नणेण गां मेरु मन। अहो किमि रंजमि मजणांचत्त जिदुज्जणु नाहंगा बुज्झमि वित्त करममिह समर णकावत्तसीह तुरियउमुनकुमरु अमरमीह निलुब्बसु चंपिय मुच्यान णेहु. गुणेहि स्खलिब्य वियंभहि देह। णिवभोयमंति मंतण वियड्ढ, लवणहो जेट भायक गुणहर । दुजीहु व जपहि भापदुमग्गि, ण्याम नाहं मुपसन्थ ण लग्गि कमलामरिजायतहोतणियभज्ज,पइवय-वयधारिणिपियमलज्जा चरिन पयाममिणमहु केव, मुणे वि पर्यापियु मज्जण एम । नहिउअरिपुत्त उ(अ)तिरिणकेय, जिणवामिहिरयणइंतिगिणजेम। अही । अहो बुह जह विरवी महनेउ, खजोवद्यतो विणणामहंभेउ । पढमउंमणणंदगुणंदणक्खु, मोणिग्गु बीउ संघवइदक्षु । पयासहि हिम्मल श्रायमवाणि, कुणेविण सज्जण पंजलपाणि लहुभाइग लूणिवकज्जिदन्थु, जिणजत्त पवित्त ण वित्त मन्थु । जिगम्वुण घेसु कुणंति गहनि गुणी गुणमोत्तिमदाम लहंति । बहुविह विहाण उज्जावणासु, कइहल्ल कवित्त पसंसणास। गहु दुज्जणु मप्पुव सुख महावु, सरम्मि दएप्पिगु दुहं पाउ । जिण मल्लिचरित्तणामंकियामु, सुबतिल यतायजसपूरियासु । घत्ताअट्टविह पुज्जमुहदाणयासु जो भाइजेट्ट, उवममधगसु । पग्रडक्वरु जंपहि थोउवियहि सुइउडवहु रसदावणउं । भाषणि छुहभंजणु पयडुमबंजणु गामवसाय सुहावणउं ॥६॥ पत्ता जसुणाम गहणि उवमगम्बुद्ध. णामति जंति बहु विहरउद्द । गुणियणहं गुणायरु मंतणिकुलगुरु जिणगिहतुगविमालउ। मो किराणाथमाहि सम्मत्तमति मो किरणथुगहि सम्मत्तसुद्धि पावई णरु होइ अणंतत्रुद्धि । कारावणतप्परू सघाहिउ गुरुदाणेणं मयपाल र ।४ जंपिउ मुणे वि संघाहिवासु, पंडिएण पयंपुण कुणि वि हासु। तहो रामाणामें रामच्छि , सुरवह मईवकुल कमललच्छि। णिच्छउहउ जिणगुर णविविपाय, नउ छिउपूरमिमाणुराय । सुउगुणसंघवघाटमुश्वु, णिव यरुपियकावरमयलचक्छु । खरविडव भंजिमग्गेणणाउ, जेणेइ कि ण सारंगु जाउ । इकहिं दिणि जिणहरिठनएण, जिणपत्थनच्च पयइंतएण।। कह पुसूरि सुत्तु जि मुणेहु, गंयुजि अउबु भासाम मुणेहु घाटेम्मताएँ पह सतगण ? दहलवणधम्मामत्तएण। अन्तभागजिशजत्तपइट्ट कयायरेण, सयत्तरयण रयणायरेण । इगवीरहो णिन्वुइंकुच्छराई, मत्तरिसहुँचउसवत्थराई। लोणासिंह भाइणिव दुल्लहेण, बोलिज्जइ रामावल्लहेण । पच्छइंसिरिणिवविक्कमगयाई, एउणसीदोपहुँचउदहसयाई । अहो पंखिय लक्खण सुयगुणंग, गुलराडवंसि धयवहंग। भादवतमण्यारसिमुणेहु, वरिमिक्कपूरिउगंथुएहु। किं धम्में अहधणु णिग्गुणेण, रयणा बुहणिव फग्गुणण। पंचाहियवीससयाई सुतु सहमई चयारि मंडणिहिंजुत्त् । कीरह जाणेविषु मणुयजम्मु, सहलउ पयडेवि अहिमधम्मु । बहलवणमूगामुउवरिट्ठ, पाणंदमहेसर भाइजेट । संसार अमारउ मुणहि पड, सारत्तगु बुद्धिहि तच्चहेउ । जसुपंचगुत्तसीहंतियाई, हुआ करम-ग्यण महमयणराई। उक्नच सो करम उलेविगु मज्जणांह, आहासह गुणियण गुणमणाहं 'बुद्ध फलं तस्वविचारणं च, देहस्य सारं व्रतधारणं च। जो दुविहालंकारह मुणेइ. जो जिणमामणि दंसगु जणेह । अर्थस्य मार किल पात्रदानं. वाचाफलं प्रीतिकरं नराणां" जो सम्मत्तायगुण अगम्यु, जो प्रायम-सस्थाई मुणई भन्छ । Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४] अनेकान्त [वर्ण १३ जो जीव दम्ब तच्चस्थभासि, जो सदासहहं कुणई रासि। णंदउ णंदणु सहुं भायरेहि, पारम्मता उपहसिय मणेहिं । गुण्यास भाउ संवग्गु भेइ, जो वग्गु वाग मूल जि मुणे।। णंदउ लहुभायस सहुं सुएण, परमत्थु जेण बुज्मिड मणेण । जो सख असंख अणंत जाणि, जो भब्वाभम्वहं कय पमाणि। [दउ अवरुवि जिणसमयलीणु,खउजाउ दुठु मिच्छत्सु होणु जो घण घण मूलहं मुण भेउ,सो सोहिवि पयडउ गंथुएउ। णंदउ जो पयडह पासचित्तु प्रातम मारंकिउ गुण विचितु। ब्रहण मुणइंती मज्मुत्थ होउ प्रमुणंतह दोसु म मज्झ देउ। जा सुरगिरि रविससि महिपोहि, ताचडविह संघहंजणंहिं बोहि प्रसुवालु भाइ मई कयउ राउ, जिणु केवललोणुणु मज्मुदेउ जिणसमय पहुत्तणु गुणगणकित्तणुप्रवमविमहिविन्थारइ। किंचोज जासुघरिज हवइ । भोकि सेन्य रहो तंण देह । हउं तसु पयवंदाम अप्पर जिंदमि जो सम्मत्तुद्धारह ॥६॥ धत्तासो णंदउजियु सिरिपासणाहु. उबसग्गविणासणु परमसाहुँ जा जिणमुहणिग्गय सग्गा सुमंगम गिरतइ लोश हो सारो। णंदउ परमागमु णदिसंधु, यंदउपुहवीमरु अरिदुलंधु । जंकित होणाहिउ काइमि माहिउ तमहु खमउ भंडारो ॥६॥ णंदउ पउरमणु अहिंमभाउ, बुहयग्णु सज्जणु अमुणियकुभाउ इय पासणाह चरिए प्रायमसारे मुबग्ग चहुभरिए बुह णंदडामरि वाम्ह हो तणउवसु,कील उणियकुलिजिमसेरहि हंसु अमवाल विरइए संघाहिप सोरिणगस्स करणाहरण सिरिपास णंदउ जिण धम्म णिबद्धराउ, लोणायक सुध हरिबम्हताउ। णाह शिवाण गमणोणाम तेरहमो परिच्छेो सम्मतो ॥१३॥ वीरसेवामन्दिर ट्रस्टकी दो मीटिंग ८२३ शेयर, क्यूम्यूलेटिव शेयर और साउथ विहार सुगर सा. २० माच मन् १९५५ को प्रातःकाल ॥ बजे मिलके आर्डनरी १० शेयर और डिफर्ड १० शेयरोंकी ट्रान्सस्थानीय दि. जैन लालमन्दिर में श्री वीरसंवामन्दिर दृस्टकी फरडीड्स पर हस्ताक्षर करके मुझे दे दिये हैं। मीटिंग श्री बाबू छोटेलालजी कलकत्ताकी अध्यक्षतामें हुई, गत मीटिंगमें जो सरसावाकी दुकानें बनाने बावत दो जिसमें निम्नलिखित ट्रस्टी उपस्थित थे-बाबू छोटेलाल जी हजार रुपये स्वीकृत हुए थे घे दुकानें अभीतक नहीं बनाई कलकत्ता (अध्यक्ष) पंडित जुगलकिशोरजी मुख्तार. वा. जा सकी हैं। जयभगवानजी एडवोकेट (पानीपत), बा० नेमचन्दजी वकील आज की मीटिंगमें श्री जयभगवानजी वकीलके सुझाव (महारनपुर), ला. राजकृष्णजी, ला. जुगलकिशोर जी, पर कि वीरसेवामन्दिर ट्रस्टको समाप्तकर उसकी सारी संपत्ति बापू जिनेन्द्रकिशोर जी और श्रीमती जयवन्तीदेवी। वीरसेवामन्दिर सोसाइटीके सुपुर्द कर दी जाय, इस पर भाजकी मीटिंगको बुलाने वाला नोटिस व एजहा पढ़कर काफी वाद-विवाद हुआ और समय हो जानेसे मीटिंग दुपहर सुनाया गया । एजंडा- ट्रस्टादिका हिसाब, २ पदा- के लिये स्थगित हो गई, तथा २॥ बजे पुनः प्रारम्भ हुई, धिकारियोंका चुनाव, ३ ट्रस्टको वीरसेवामन्दिर सोसाइटीके उसमें पर्याप्त विचारके बाद ट्रस्टको रखना स्थिर हुना। सुपुर्द करनेका विद्यार, ४ सोसाइटोके मेम्बरोंकी अभिवृद्धि, मीटिंगमें निम्नलिखित प्रस्ताव सर्वसम्मतिसे पास हुए। १ वीरसेवामन्दिर बिल्डिंगके निर्माण तथा उद्घाटनका १-यह ट्रस्ट कमेटी प्रस्ताव करती है कि ट्रस्टके उद्देश्योंकी विचार, ६. अन्य कार्य जिसे समय पर पेश करना जरूरी पूर्ति वीरसेवामन्दिर सोसाइटीके द्वारा कराई जाय और समझा जाय। इसके लिये उक्क सोसाइटीको पूर्ण सहयोग दिया जाय । प्रथम ही गत ता० २१-२-५७ की कार्रवाई पढकर २-यह ट्रस्ट कमेटी प्रस्ताव करती है कि श्री जुगलसुनाई गई जो सर्व सम्मतिसं पास हुई। !किशोरजी मुख्तारके द्वारा ट्रस्टको दी गई सम्पत्तिकी अध्यक्षने सूचित किया कि श्रीवीरसेवामन्दिर सोसा- आय वीरसेवामन्दिर सोसाइटीको प्राप्त होते ही दी इटी ता० २१-७.१५ को रजिस्टर्ड हो चुकी है और श्री. जाया करे और इस सम्पत्तिकी रक्षा तथा स्थितिके लिये जुगलकिशोरखी मुख्तारने देहली क्वाथ मिलके चारनरी "जितना खर्च आवश्यक हो वह वीरसेवामन्दिर सोसा Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १०] वीरसेवान्दिर ट्रस्टकी दो मीटिंग २५५ --- इटीसे लिया जाय और पारा पाय-व्ययका हिमाब भी ५-यह कमेटो श्री नत्थूमनजीके स्तीफेको स्वीकार करती है वारसेवामन्दिर सोसाइटी ही रक्खे। और अब तक उनके द्वारा दिये गए सहयोग लिये ३ यह ट्रस्ट कमेटी प्रस्ताव करती है कि 'अनेकान्त' पत्रका धन्यवाद देती है। प्रकाशन वीरमवामन्दिर सोमाइटीकी प्रोरसे होता रहे। ममय न रहनेके कारण एजंडाकी अन्य बातोपर विचार हम ट्रस्ट कमेटीके प्राधीन जो पुस्तकादि फर्नीचर वगैरह नहीं किया गया और भागे मीटिंग १ अप्रैल चैत्र शुक्ला चल सम्पत्ति है वह मब वीरसेवामन्दिर मोसाइटीके के लिये रक्खी गई। -छोटेलाल जैन अध्यक्ष,देहली उपयोगके लिये दी जाती है। (२) ता. १ अप्रेल पन् १९५५ चैत्र शुक्ला स्मी को सुबह प्ठाता वीर सेवामन्दिर, ट्रस्ट के स्तीफेको अस्वीकार करती हाँ 81 बजे वीरसेवामन्दिर ट्रस्ट कमेटीको बैठक दिन लाल- उनमे निवेदन करती है कि अभी इस पदको चाप ही मन्दिरमें हुई, जिसमें निम्नलिलित दृस्टी उपस्थित थे। सुशोभित करें। आपकवत नियमोंके पालनके लिये समय १-बा. छोटेलाल जी (अध्यक्ष)२-६० जुगलकिशोरजी और शान प्राप्त हो इसके लिये कमेटी प्रबन्ध करेगी। मुख्तार, ३-डा. श्रीचन्दजी संगल ४-बा. जय भगवान प्रस्तावक-छाटलाल जन, समयक-नमाचन्द जन एडवोकेट ५-बा. नेमचन्द वकील, ६-जुगलकिशोरजी यह ट्रस्ट कमेटी प्रस्ताव करती है कि ट्रस्टको अञ्चल कागजी -जयवन्ती देवी ८-राजकृष्ण जैन। संपत्तिको देखभाल, किराया वसूली, मुकद्दमा वगैरहके लिये -प्रत्यक्षने माहू श्री शान्तिप्रमादजी जैन (मुपुत्र जनरल पावर श्राफ एटर्नी (मुख्तार प्रामके अधिकार) श्री स्वर्गीय साहू दीवानचन्दजी) कलकत्ता और श्रीनन्दलालजी महाराजप्रसाद जैन सुपुत्र स्वर्गीय ला• चमनलालजी सरमरावगी (सुपुत्र स्वर्गीय सेठ रामजीवन मरावगी) कलकत्ता सावा निवासी और पं० परमानन्दजी जैन शास्त्री सुपुत्र के नाम ट्रस्ट कभेटीके लिये रक्खे, जो मर्व सम्मतिसे स्वीकृत स्वर्गीय सिंघई दरयावसिंहजी देहली निवासीको दिया जाय । हुए। पं० श्रीजुगलकिशोरजी मुख्तारने आय-व्ययका हिसाब म्यनिगतरूपसे और सम्मिलित रूपसे-Separately जो उनके स्वयं के पास था, १ मई मन् १९५१से ३० जून and Jointly. सन् १९५४ तकका पेश किया, जिसमें अनेकान्तका हिसाब प्रस्तावक-जुगलकिशोर मुख्तार । म.-डा.श्रीचन्द संगल भी १ मई मन् १९५६ के (पिछली रोकड़ बाकी ) प्रोपनिग ६ यह ट्रस्ट कमेटी प्रस्ताव करती है कि सरसावाके वेलेन्पर्म प्रारम्भ करके ३० सन् १९५४ तकका शामिल था, निम्नलिखित किरायेदारोंके विरुद्ध किराया वसूली और इस पर यह तय हुआ कि आवश्यक हो तो बेदखलीके लिये तुरन्त दावा कर दिया २-यह ट्रस्ट कमेटी प्रस्ताव करती है कि पं0 जुगल जाय और इसके लिये आवश्यक कानूनी कार्रवाई करने के किशोरजी मुख्तारने जो हिसाब दिया है और जो प्राय-व्यय लिये श्री ६० जुगलकिशोरजी मुख्तारको उस वक्र तक वीरसावामन्दिर दहलोक प्राफिममें हुआ है उन दोनोंको अधिकार दिया जावे जब तक कि मुख्तारामनामा रजि. स्टर्ड नहीं हो जाता। सम्मिलितकर एक हिमाब बनाया जाय और उसे फिर १. सुरजा कहार, २. बनारसीदाम, ३. मंगतराम किरायेदार हिसाब परीक्षक जंचवाकर प्रकट कर दिया जाय । हिमाब प्रस्तावक-छोटेलाल जैन समर्थक-जयवन्ती देवी नियमानुसार लिग्ववाने के लिये अकाउन्टेन्टकी नियुक्ति ला. ७ यह ट्रस्ट कमेटी निम्नलिम्वित पदाधिकारियों का जुगलकिशोर जी कागजोके परामर्शमे एक मासके अन्दर चुनाव करती है। करली जाय। अधिष्ठाना-पं. जुगलकिशोर जी मुख्तार, परमावा प्रस्तावक-नमीचन्द जैन, समर्थक-जयभगवान जैन अध्यक्ष-बा० छोटेलाल जी मरावगी कलकत्ता । ३-यह ट्रस्ट कमेटी श्रीवीरेन्द्रकुमारजी जैन चाटर्ड कोषाध्यक्ष-श्री जुगलकिशोर जी कागजी, देहली एकाउन्टेन्ट कानपुरको हिसाब परीक्षक नियुक्र करती है। मंत्री-श्री जयभगवानजी वकील, पानीपत प्रस्तावक-डा०श्रीचन्द संगल । ममर्थक-राजकृष्ण जैन । प्रस्तावक-नेमीचन्द जैन समर्थक-राजकृष्ण जैन । यह दूस्ट कमेटी ६० जुगलकिशोर जी मुख्तार अधि- नोट-उपरोक सभी प्रस्ताव सर्व सम्मतिसे पाम हुए। Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीवान रामचन्द्र छावड़ा (परमानन्द शास्त्री) कौटुम्बिक-परिचय होनेके लिये भादेश दे दिया। बरातमें बरातियों की संख्या राजपूताना अपनी वीरताके लिये प्रसिद्ध है। राजपूत दखकर रामचन्द्रजाक ससुर साहब घबड़ा गए । परन्तु उस वीरों और वीराङ्गनामोंकी वीरता और स्वदेश रक्षाके लिये समय उनकी सासुने शाहपुराके नरेशको कहलवाया कि धनकी अपनी प्रानपर प्राणोंका उत्सर्ग करने वाली गौरव-गाथासे कमी तो नहीं है परन्तु यदि व्यवस्थामें कमी किसी तरहकी भारत गौरवान्वित है। वे अपनी बातके धनी थे. आनके रह गई तो आपकी बदनामी होगी। अतः भाप इस कार्य में पक्के ये जो किसीसे कह देते थे उसे पूर्ण करना अपना सहयोग प्रदान कीजिये। लेकिन शाहपुरा नरेशकी सहायतासे कर प्य समझते थे। वैसे तो राजपूतानेमें अनेक जैन वीर प्रबन्ध पूरा हो गया। जब बरात विदा होने लगी तब हुए हैं, जिनकी कर्तव्य-निष्ठा, वीरता, त्याग और सहृदयता विमलदासजीने अपने सम्बन्धीसे कहा-"यह अधिक अच्छा स्पृहाकी वस्तु हैं। पर राजस्थानका जयपुर तो जैनवीरोंकी होता कि हम लोगोंने इस विवाहमें जितना अधिक धन व्यय खान रहा है-वहाँ अनेक जैन वीर अपनी वीरता, कला किया है यदि वह धर्म-कार्यमें खर्च किया जाता " प्रस्तु, कौशल्य, ईमानदारी, कर्तव्य परायणता, स्वामिभक्ति और राज्यके संरक्षण तथा संवर्द्धनमें ही सहायक नहीं हुए हैं दीवान रामचन्द्रजी एक वीर सैनानी होते हुए भी परम किन्तु उन्होंने शाही अधिकारसे भामेर और जोधपुरको धार्मिक सद्गृस्थ थे। वे श्रावकोचित षट्कर्मका पालन भलीछुड़ाकर संरक्षित भी किया है। उनका नाम है दीवान राम- भांति करते थे । रामगढ़ आमेरसे जगभग १५ मील दूर था । चन्द्र छाबड़ा। उस समय यातायातकी व्यवस्था आजकल जैसी न थी, इनकी जाति खंडेलवाल, गोत्र छावड़ा और धर्म ऊंट और घोड़ेकी सवारी पर हो इधर-उधर भाना-जाना दिगम्बर जैन था। यह रामगढ़के निवासी थे, इनके पिताका होता था। दीवानजीका भामेरसे रामगढ़ बराबर पानानाम विमलदासजी और दादा वल्लूशाहजी थे, जो जयपुरके जाना रहता था। भामेर और रामगढ़के मध्यमें उन्हें जैनमिर्जा राजा जयसिंहजी के समय हुए हैं जिनका राज्यकाल मन्दिरका अभाव खटकता था, अतः आपने सं० १७४७ में संवत् १६७८ से १७२४ तक पाया जाता है। एक जिन मंदिर साहावाड नामक ग्राममें बनवा दिया। विमलदासजी स्वयं एक वीर योद्धा, राजनीतिमें विचक्षण, वहांके मन्दिरपर उक्त संवत्का एक लेख भी उत्कीर्णित है कर्मठ कार्यकर्ता एवं राजभक्त थे। इन्होंने राजा रामसिंहजी परन्तु वह इतना खराब हो गया है कि ठीक रूपसे पढ़ने में और विशनसिंहजीके समयमें, जिनका राज्यकाल सं० १७२४ नहीं आता। से १७४६ और १७४६ से १७५६ तक बतलाया जाता है। सवाई जयसिंहजीने सैयदोंसे जब विजय प्राप्त कर ली, दीवान जैसे उच्च एवं प्रतिष्ठितपद पर आसीन होकर राज्य- तब मुगल बादशाहकी ओरसे उन्हें उज्जनका सूवा प्रदान कार्यका संचालन किया है। कहा जाता है कि लालसोट किया गया। उस समय दीवान रामचन्द्र जी भी जयपुरानामक स्थानमें युद्ध में गोला लग जानेसे भापकी मृत्यु धिपके साथ उज्जैनमें मौजूद थे। तब दीवानजीने उज्जैनमें हुई थी। भी एक निशि या निषधा बनवाई थी और जब दीवानजी रामचन्द्रजी छावड़ाका विवाह शाहपुरा (मेवाड़) के सेठ का जयसिंहजीके साथ दिल्लीके जयसिंह पुरा नामक स्थानमें सरूपचन्दजीकी कन्यासे हुआ था, स्वरूपचन्द्रजीने जब रहना हुआ, तब आपने वहां भी एक जैन मन्दिर और रहनेके टीका भेजा उसके साथ ही एक राई की थैली भी भेजी और लिये एक मकान बनवाया। राज्यकार्यसे अवकाश मिलनेपर यह कहलाया कि अगर तुम दीवान हो तो थैलीमें जितने आप अपना समय धार्मिक कार्यों में व्यतीत करते थे और राईके दाने मौजूद हों उतने बराती लाना । जब दीवान संवत् १७७० में होने वाले भट्टारक देवेन्द्रकीर्तिके पहाभिषेकविमलदासजीको बह हाल मालूम हुआ तब उन्होंने सवाई में भी आपने अपने पुत्र के साथ भाग लिया था। इन सब जयसिंहजीसे सब हाल कह सुनाया, तब भामेरपतिने अपने कार्योंसे आपके धर्म-प्रेमका कितना ही परिचय प्रास हो सब सरदारों, सामन्तों और रईसोंको इस विवाहमें सम्मिलित जाता है। स्वरूपचन्द्रजीत यह कहनासाथ ही एक Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १.] दीवान रामचन्द्र छावड़ा [२५७ राज्य-सेवा के कुशल समाचार पूछे । दीवानजीने जयपुराधिपके समाचार सम्राट् औरंगजेबकी मृत्युके पश्गत् उनके लड़कोंमें बतलाये और कहा-'माताजा म तुमस कुछ मदद चा राज्यसिंहासनके लिये युद्ध छिड़ गया। सवाई जयसिंहजीने बनजारने कहा-'दीवाननी! मैं किस योग्य है जो बहादुरशाहका पक्ष न लेकर शाह आजमका साथ दिया। बापकी मदद कर सकू', फिर भी आप जो फर्मायें और मैं किन्तु युद्धमें बहादुरशाह विजयी हुआ। बहादुरशाहने सं० अपनी सामर्थ्यानुसार जिसे पूरा करने में समर्थ हो सक' वह १७६४ में भामेर पर आक्रमण कर कब्जा कर लिया। सब करनेको तैयार हूँ।' अतः जयसिंहजीको अपना राज्य छोड़ना पड़ा और संयद दीवानजी ने कहा-'हमें भामेरका राज्य वापिस लेना हशैनखांको भामेरका प्रबन्ध सौंपा गया । है, इसलिये तुम हमें पचास हजार रुपये, एक हजार बैल, ठीक इसी तरहकी घटना जोधपुर पर भी घटी। जोधपुर और एक हजार प्रादमियोंकी मदद दो। हम राज्य प्राप्त पर बादशाहने खालसा बिठला दिया-अपना कब्जा कर करनेके बाद तुम्हारे रुपये और युद्धसे बचे हुए बैल और लिया । जयपुर-जोधपुरके दोनों राजा बादशाह के साथ प्रादमी सभी वापिस कर देंगे तथा राज्यमें तुम्हारा कर भी दक्षिणकी रेवा (नर्मदा) नदी तक गए और तहांसे बादशाहका माफ कर देगे।' पीछा छोड़कर संवत् १७६५ में जेठवदी के दिन दोनों उदयपुर बनजारेने दीवानजीके निर्देशानुसार तीनों चीजें मदद पहुंचे। यद्यपि उस समय आमेर और उदयपुरमें वैमनस्य स्वरूप प्रदान करदी। फिर दीवानजी पास-पासके जागीरचल रहा था, पर जब भामेरपति स्वयं हो राणाजीके घर दारोंसे मिले और उन्हें भामेर प्राप्त करनेका सब हाल कहा पहुंच गए, तब राणाजीने प्राचीन बैरकी ओर ध्यान न देकर एवं उनसे सहयोग करनेका संकेत भी किया, परिणामस्वरूप जयसिंहजीका उचित सम्मान किया और उन्हें 'सर्वऋतु- उनसे भी तीनसौ के लगभग राजपूत वीरोंकी सहायता विलास' नामक भवनमें ठहराया गया। दीवान रामचन्द्रजी प्राप्त हुई । यह सब पा चुकनेके बाद वे उसकी तैयारीने भी उनके साथ थे। संलग्न थे और भामेरपर कब्जा करनेके लिये वे किसी खाम एक दिन उदयपुरके दरबारमें किसी सरदारने कुछ ऐसी उपयुक अवसरको बाट जोह रहे थे। बातें कहीं जो जयपुर और जोधपुरके लिये अपमानजनक एक समय जब कृष्णारानि अपने तिमिर-वितानसे थीं। उन्हें सुनकर रामचन्द्रजीसे न रहा गया। वे सब बातें भूमण्डलको व्याप्त कर रही थी । दीवानजीने धूमधामसे भामेर उनके हृदय-पट पर अंकित हो गई और वे उन्हें बाणकी पर चढ़ाई कर दी। बलाक मागा पर मशाल बांधकर जला तरह चुभने लगी। वे विषका-सा घूट चुपचाप पी कर अपने दी गई और प्रत्येक बैलकी पाठ पर मनुष्याकार पुतले बैठा ढेरेपर पाए, तब उन्होंने भामेरपतिसे प्रार्थनाकी कि-'मुझे दिये गये, वे देखने में दूरसे मनुष्य ही मालूम होते थे, दो-दो प्रादश दीजिये, मैं भामेर जाऊँगा। महाराज जयसिहजी बैल एक ही साथ जोड़ दिये गए, जिससे वे सब एक साथ ने जब कारण पूछा, तब उन्होंने दरबारमें उस सरदार द्वारा कतारमें चल सकें और प्रत्येक दो बैलोंके साथ एक-एक कही हुई दे सब बातें कहीं। तब जयपुराधिप बोले-'अभी भादमी था, जिसके एक हाथमें तेलसे भरी हुई सीदवी और हम विपदग्रस्त हैं अतः हमें चुप होकर सब कुछ सहना ही रस्सी तथा दूसरे हाथमें चमकती हुई तलवार थी। सौ के पड़ेगा। रामचन्द्रजीने कहा-'मैं जाता हूँ और आमेरके लगभग सिपाही युद्धका बाजा बजाते हुए भागे-भागे जा रहे उद्धारका यत्न करूंगा।' जयसिंहजीने कहा-'जैसी तुम्हारी थे और उनके पीछे चारसौ सरास्त्र सैनिक पैदल चल रहे थे। बैलोंके सींगों पर बंधी हुई दो सहन मशालें भामेरेके मर्जी।' भूभाग पर अपनी प्रकाश-किरणे बखेर रही थीं। और आमेरका उद्धार-कार्य सैनिकगण महाराजा जयसिंहको जयके नारे लगाते हुए दीवान रामचन्द्रजी उदयपुरसे रवाना हुए। आमेरके भागे बढ़े जा रहे थे। जब सेना भामेरके किले के कुछ नजपाससे माते हुए रास्तेमें उनकी मोती नामक एक लक्खी दीक धानेको हुई। तब मामेरके किले में जो मुस्लिम सैना बनजारेसे भेंट हो गई । बनजारा दीवनजीसे परिचित था, विद्यमान थी, उसके सैनिक लोगोंने जब दूरसे मशालोंसे उसने दीवानीका खूब पावर सस्कार किया और पामेरपति भालोकित सैन्य-समूह देखा और मशालोंके मध्य में और Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५-1 अनेकान्त विर्ष १३ भागे नर-मुण्डों पर निगाह पड़ी, तब उन्हें यह भान हुआ सांभरपर अधिकार और उसका बटवारा कि महाराज जयसिंह बहुत बड़ी फौजके माथ पा रहे हैं। दीवान रामचन्दजीने नाती महाराजा जयसिंहजीको उन्होंने यह पब माजग देखकर यह निश्चय किया कि इतनी " जोधपुरके किले पर भी अधिकार प्राप्त करनेका समाचार भेजा, विशाल फौजके साथ थोडेसे सैनिकोंका युद् करना मूर्खता है । तो उन्हें बड़ी खुशी हुई। दोनों गजा अपने सिपाहियोंके साथ अतः किलेके सैनिक जान बचा दूसरे रास्तेसे भागने लगे। दल-बल महित उदयपुरसे रवाना हुए। चलते-चलते जब वे उसी समय दीवान रामचन्द्रजी ढाईसौ राजपूतोंके सांभरके पास पहुंचे, तब सांभरके रक्षक मुसलमानों पर उन्होंने साथ आमेरक किले में प्रविष्ट होगए । और उन्होंने अवशिष्ट हमला कर दिया । आखिर मुसलमान सिपाही वीर राजबचे हुए मुसलमान सिपाहियोंका काम तमामकर किले पर पूतोंसे कब तक लोहा लेते, कुछ मर गए और कुछ हारकर अपना अधिकार कर लिया, और आमेरमें पुनः राजा भाग गये। जर्यासहकी ध्वजा फहराने लगी। इतनेमें दीवान रामचन्द्रजी भी महाराजा जयसिंहजीक दीवान रामचन्द्रजीने राजा जयसिंहजीके पास उदयपुर उदयपुर आगमनका समाचार सुनकर अगवानी के लिये प्राण थे, वे भी पत्र भेजा कि भामेर पर अपना अधिकार हो गया है । अब सांभरकी उस युद्धस्थलीमें शरीक हो गए । सांभर पर दोनों आप यहां पा जावें । पत्र पाकर महाराज जयसिंहजी बहुत राजाओंने अधिकार तो कर लिया किन्तु दानों में इस बानकी प्रसन्न हुए। उन्होंने उत्तर दिया-"मैं तब तक आमेर नहीं चर्चा उठ खड़ी हुई कि सांभर किसक राज्यमें रहे? इस पाऊँगा, जब तक हमारे बहनोईजीका जोधपुरका राज्य छोटी सी बातपर विवाद बढ़ने लगा और वह विपंवादका मुसलमानोंके अधिकारस पुनः अधिकृत नहीं हो जाता।" रूप धारण करना ही चाहता था कि सहसा उनका ध्यान जोधपुरका उद्धार-कार्य दीवान रामचन्द्रजी पर गया । दोनों राजाओंने सांभरके फैसलेका भार दीवानजी पर डाला, दीवानजीने कुछ-शोचदीवानजीने जब अपने स्वामीका पत्र पढ़ा, तब उन्हें विचार कर सांभरका प्राधा-आधा बटवाग करनेका फैसला जोधपुरका राज्य पुनः वापिस लेनेकी चिंता हुई और उन्हें एक दिया अर्थात् प्राधा सांभर जयपुर राज्यमें और प्राधा जोधयुकि सूझ पड़ी। उन्होंने दो सौ म्याने तैयार करवाए। पुर राज्यमें रहेगा। उक्त फैसला दोनों राजाओंने स्वीकृत हर एक म्यानेमें शस्त्र मज्जित चार-चार वीर मैनिक बिठाए, किया और आगत विर्षवाद टल गया। सांभरका उक्र बटऔर चार-चार सिपाही उनको उठाने वाले हुए, जिनके सब वारा दोनों राज्यों में अब तक बराबर कायम रहा है। हथियार म्यानेके अन्दर रख दिये गए। और तीन सौ सवार दीवान रामचन्द्रजीके इन कार्यों उनको स्वामिभक्ति मुस्लिम सैनिक वेषमें उन म्यानोंके आगे पीछे चले । म्याने और राज्य मंचालनकी योग्यता और निर्भयता परखी जा जिम दिन जोधपुर पहुंचे, उस दिन ताजियोंका त्यौहार था। सकती है। इस प्रकारके कार्यास उन्हें राज्यमं अनेक उपहार किलेकी फौजके अनेक सिपाही ताजियोंमें चले गए थे, कुछ और जागीरें, सनदें समय दमय पर प्राप्त होती रही हैं। थोडेसे सैनिक किलेमें रक्षार्थ रह गए थे। जब म्याने किलेके दरवाजे पर पहुंचे, तब दरवाजेके पहरेदारोंने रोका और अनन्तर दीवानजीने राजा जयसिंहजोसे बादशाहको पूछा, तब उत्तर दिया कि 'शाहंशाहका जनाना है।' मुसल खुश करनेकी तदवीर भी बत्तलाई. और उससे बादशाहका सैनिकोंको देखकर पहरेदार सिपाहियोंने रास्ता दे दिया। रोषभी ठंडा पड़ गया और उसने राज्य प्राप्ति-सम्बन्धी म्याने किलेके अन्दर पहुँचते ही हथियारबन्द मैनिक म्यानी- अपराधका क्षमा कर दिया। से बाहर निकल पड़े। उन्होंने किलेके रक्षक मुसलमान सिपा टोकिलेला इससे रामचन्द्रजी दीवानके सम्बन्धमें भाई भंवरलालहियोंको मार डाला और किले पर अधिकार कर जोधपुर जीने जो तीन दोहे सुनाए थे. मैं उन नोट कर लाया था. राज्यका झंडा खड़ा कर दिया। जब किलेके सैनिकोंको, जो उनसे दीवानजीके व्यक्रित्व और राज्य प्रेमकी महत्ताका ताजियोंमें गए हुए थे यह पता चला कि किने पर जोधपुर कितना ही बोध हो जाना है। नरेशका कम्जा हो गया है बेचारे अपने प्राणोंकी रक्षार्थ "रामचन्द्र विमलेशका ढूढाहडकी ढाल । इधर-उधर भाग गये। बांकाने सूधा किया सूधा किया निहाल || Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष १३ भगवान महावीर और उनका लोककल्याणकारी सन्देश [२५६ मन कोई फलसा जुडो मन कोई जुडो किवाड। वीर सेनानी दीवान रामचन्द्रकी मृत्यु सं० १७८४ में यह रामचन्द्र विमलेशका डूढाहडकी ढाल | हुई थी। इनका एक मकान पामेरमें भी बनलाया जाता है। घर राखण घरा रावण प्रजा राखण प्राण । वह अब मौजूद है या नहीं। यह कुछ ज्ञात नहीं होता । जैसिंह कहै छै रामचन्द्र तु सांचो छै दीवाण" बहुत मम्भव है वह भी खगरातमें परिणत हो गया हो। भगवान महावीर और उनका लोक-कल्याणकारी सन्देश (डा० हीरालाल जैन एम० ए० डी. लिट०) [वैशाली संघकी ओरसे भ० महावीरकी जन्मभूमि वैशालीमें, जो भगवान महावीरके नाना और लिच्छविगणराजके अधिनामक राजा चेटककी राजधानी थी और जिमका कुण्डपुर एक उपनगर था गत ५ अप्रेल १६५५ को आयोजित ११ वें महावीर जयन्ती-महोत्मयके अध्यक्षपदमे डा०हीरालालजीने जो महत्व पूर्ण अभिभाषण दिया था, वह अनेकान्तके पाठकोंको हितार्थ यहाँ दिया जाता है डाक्टर साहब जन साहित्य और इतिहासके अधिकारी विद्वान हैं और नागपुर विश्व विद्यालयमें संस्कृत पाला तथा प्राकृत विभागके प्रमुग्व एवं विद्या परिपद्के अध्यन हैं । -सम्पादक] प्रिय बन्धुओ, महावीर कौन थे, यह बात विस्तारसे बतलानेकी मैं वंशाली संघ और उसके सुयोग्य प्रधान श्री माथुर मावश्यकता नहीं है, क्योंकि उसे आप सम्भवतः इसस जीका बहुत कृतज्ञ हैं, जो उन्होंने मुझे वैशालीको इस पवित्र पूर्व अनेक बार सुन और पढ़ चुक होंगे। किन्तु उनकी भूमिके दर्शन करने और यहां एकत्रित जनताक सम्पर्कमें जन्मजयन्तीक इस अवसर पर उनके जीवनका स्मरण कर श्रानका आज यह सुचवसर प्रदान किया। वंशाली एक लेना एक पुण्य-कार्य है। इसलिए संक्षपम भगवान महावीरक महान तीर्थक्षेत्र है, और तीर्थदनाका अवसर मनुष्यको जीवन-वृतान्तकी चचा कर लेता है। बड़े पुण्यके प्रभावसे ही मिला करता है। अतएव इस आजस अढाई हजार वर्ष पूर्वकी बात सोचिए । संसार अवसरको पाकर में अपनेका बड़ा पुण्यशाली अनुभव कर कितना परिवर्तनशील है? जहाँ हम और भाप इस समय खड़े या बैठे हैं, वहीं उस समय एक वैभवशाली राजधानी इस शाना-क्षेत्रको नार्थकी पवित्रता किस प्रकार प्राप्त थी और उसका नाम उशाली था। वैशालीका एक भाग हुई, यह बात आप मय भली भांति जानते हैं। यह वही कुण्डपुर या क्षत्रिकुण्ड कहलाता था जहाँ एक राजभवन में नूमि है, जिर्मन भगवान महावीर जैसे महापुरुषको जन्म राजा सिद्धार्थ अपनी रानी त्रिशलाक साथ धर्म और न्यायदिया। यहां भगवान महावीरका जन्म आजस कोई अदाई पूर्वक शासन करते हुए सुग्बम रहन थ। रानी शलाका हजार वर्ष पूर्व हुअा था। भगवान महावीर कितने महान् कुक्षिसे एक बालकका जन्म हुआ और राजकुमारके अनुरूप थे, यह इसी बातस जाना जा सकता है कि प्रदाई हजार उसका पालन-पोषण और शिक्षण हुआ। इमी राजकुमारका वर्षोक दार्घकाज पश्चान् भी हम और आप सब आज उत्तरोत्तर बढ़ता हुई बुद्धि और प्रतिभा तथा उन्नति-शाला अनेक कष्ट मकर भी उनका जन्म-भूमिके दर्शन कर । शरीरको उपकर उसका नाम वर्द्धमान महावीर रखा गया । अपनको धन्य पार पुण्यवान् बनानेके लिए यहाँ प्राय हैं। स्वभावनः यह श्राशा की जाती थी कि गजकुमार महावीर इस सुअवसर पर स्वभावतः हमें यह जाननेकी कुछ विशेष भी यथा समय राज्यकी विभूतिका मुग्व-भाग करेंगे। किन्तु इच्छा और अभिलाषा होती है कि भगवान महावीरमें ऐमा एसा नहीं हुअा। लगभग तीस वषोंकी युवावस्थामें उन्हें कौन-सा गुण था और उन्होंने ऐसा कौन-सा महान कार्य राजभवनक जीवनस विक्रि हो गया, आत्म-कल्याण तथा किया, जिपंक कारण उन्हें आज भी यह लोक-पूजा प्राप्त लोकोपकारको भावनासं प्रेरित होकर राजधानीको छोड़ हो रही है। वनको चले गये। उन्होंने भांगरेपभोग और साज-सजावटकी Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - २६० ] अनेकान्त [ वर्ष १३ समस्त मामग्रीका परित्याग तो किया ही, किन्तु लेशमात्र वनस्पति आदि सब सचेतन पदार्थोमें जीव रहता है । जीवकी परिग्रह रखना उन्होंने अपनी शान्ति और आत्मशुदिका ये गतियाँ उसके पुण्य और पापके फलसे ही उत्पन होती बाधक समझा । इसलिए उन्होंने वस्त्रका भी परित्याग कर हैं। जब मनुष्य श्रद्धा, ज्ञान और संयमके द्वारा पाप-पुण्यदिया और वे 'निग्रंथ' या 'मचेल हो गये । इस प्रकार रूपी कर्म-बंधका नाश कर देता है, तब वह इस संसारसे बारह वर्षों तक कठोर तपस्या करनेके पश्चात् उन्हें सच्चा, मुक हो जाता है। यही उसका निर्वाण है, जिसके होने पर शुद्ध और सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त हुआ. जिसके कारण वे प्रारमामें सच्चे ज्ञान और निर्बाध सुखको उत्पत्ति हो जाती 'मर्वज्ञ' और 'कवली' कहलाने लगे। उस समय मगध देश- है। इस प्रकार यही जीव परमात्मा हो जाता है । की राजधानी राजगृह (माधुनिक राजगिर) थी और वहाँ अपने इस तत्वज्ञानके आधार पर भगवान् महावीरने सम्राट श्रेणिक बिंबसार राज्य करते थे। भगवान् महावीर जीवनको सखमय, सशांतिपूर्ण और कल्याणकारी बनानक विहार करते हुए राजगृह पहुँचे और विपुलाचल नामक लिए कछ उपयोगी नियम स्थिर किये। चूंकि सभी जीवपहाड़ी पर उनका सर्वप्रथम प्रवचन हुथा। उनके उपदेशोंको धारियों में परमात्मा बननेकी योग्यता रखने वाला जीव हजारोंकी संख्यामें जनताने बड़े चावसे सुना और ग्रहण विद्यमान है. अतएव सत्ताकी दृष्टिसे वे सब समान हैं और किया। फिर कोई तीस वर्षों तक भगवान महावीर देशके अपना-अपना विकास करनेमें स्वतन्त्र हैं। वे सब अपनेभिन्न-भिन्न भागोंमें विहार करते रहे और इसीलिए इस अपने कर्मानमार नाना गतियों और भिन्न अवस्थाओं में प्रदेशका नाम 'विहार' प्रसिद्ध हुआ। उन्होंने मुनि, अर्जिका, हुआ। उन्हान मुनि, अाजका, विविध प्रकारके सुख-दुःखोंका अनुभव करते हैं। इसमें न श्रावक और श्राविका इस प्रकार चतुविध संघकी रचना कोई देवी-देवता उन्हें क्षमा कर सकता और न दे दे की, जिसकी परम्परा जैनधर्मके नामसे अाज तक भी सकता है। अतएव प्रत्येक मनुष्यको अपनी पूरी जिम्मेदारीविद्यमान है। किन्तु मैं यह बात नहीं मानता कि महावीर का ध्यान रखते हुए अपना चरित्र शुद्ध और उन्नतिशील भगवानके उपदेशोंकी परम्परा केवल अपनेको जैनी कहने बनाना । बनाना चाहिए । अपनी इस जिम्मेदारीको कभी भूलना नहीं वाले लोगोंमें ही विद्यमान हो। भगवान महावीरने जो चाहिए और न मदाचारमें कोई प्रमाद करना चाहिए। अमृतवाणी वर्षायी, उसका भारतकी कोटि-कोटि जमताने प्रमाद, भूल और अपराध करनेसे केवल अपना ही बुरा पान किया, जिसका प्रभाव आज तक भारतीय जनता भग्में होता हो, सो बात नहीं है | अपनी प्रात्माका अधःपतन तो कुछ-न-कुछ सर्वत्र पाया जाता है। बिहार करते हुए भगवान होना ही है. किन्तु साथ ही उसके द्वारा दूसरे प्राणियोंकि पावापुरीमें पहुंचे और वहाँ करीब बहत्तर वर्षाको अवस्थामें र वहा कराब बहत्तर वर्षाको अवस्थाम विकासमें भी बाधा पडती है। और यही यथार्थतः हिसा है। उनका निर्वाण हो गया। प्राचीन ग्रन्थों में उल्लेख मिलता है जो वशीभत होकर. या प्रकार-वश अथवा कि भगवान महावीरका निर्वाणोत्सव दीपमालिकाओं द्वारा छल-कपट बुन्दिरी, या लोभवश कुछ अनाचार या दुराचार मनाया गया और आजकल जो दीवाली मनायी जानी है, करते हैं, तब हम स्वयं पापके भागी होते हैं और दूसरे वह उसी परम्पराकी योतक है। प्राणियोंको हानि या चोट पहुंचती है, जो हिंसा है। दूसरे भगवान् महावीरका उपदेश संक्षेपमें यह था कि चेतन जीवोंका प्राण-हरण करना तो हिंसा है ही, उनको किसी और जब ये दोनों अलग-अलग पदार्थ हैं, जिन्हें हम जीव प्रकार हानि या चोट पहुंचाना भी हिसा है, जिससे सदाचारी और अजीव तस्व भी कह सकते हैं। ये दोनों प्रकारके तत्व मनुप्यको सावधान रहना चाहिए। किमीका प्राण हरण अनादि और अनन्त है । जीवका जड़ भौतिक तस्वके साथ करना या चोट पहुंचाना जैमा पाप है, उसी प्रकार चोरी अनादि कालसे सम्बन्ध चला पाता है। यही उसका संसार करना, मूठ बोलना, व्यभिचार करना भी पाप है । यहाँ या कर्म-बन्धन है। जीव शुभ कर्म करता है, तो उसे पुण्य- तक कि अपनी और अपने कुटुम्बकी आवश्यकताओंसे का बंध होता है और वह सुख भोगता है तथा स्वर्गको अधिक धन-संचयका लोभ करना भी पाप है। इन्हीं पांच जाता है। और जीव यदि अशुभ या बुरे कर्म करता है, तो पापोंसे समाजमें नाना प्रकार का विद्वष, कलह और उसे पापका बन्ध होता है, वह दुःख भोगता है और नरकको संघर्ष उत्पन्न होता है। यदि लोग इन पाँच पापोंका परित्याग जाता है। मनुष्यसे लेकर पशु पक्षी, कोट, पतंग एवं वृष, कर दें, तो वे समाजके विश्वासपात्र और प्रेम-भाजन बन Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष १३ भगवान महावीर और उनका लोककल्याणकारी सन्देश [२६१ - जाते हैं और कभी भी किसी देश या कालमें किसी की सुविधाएँ उत्पन करनेके प्रयत्नों द्वारा मांस-भोजनको अपराध में नहीं फंस सकते। ओरसे मनुष्यको रुचिको हटानेका प्रायोजन करें। अब चूंकि सभी प्राणी परमात्मस्व की मोर विकास कर रहे और फलोंका उत्पादन बढ़ाना तथा शाक-भोजनालयोंकी हैं, अतएव वे सब एक ही पथ के पथिक हैं। अतः उनमें जगह-जगह स्थापना और उनमें रुचिकारक और सस्ते परस्पर समझदारी और सहयोग एवं सहायता की भावना शाकमय खाद्य-पदार्थोको प्रस्तुत करना इस दिशामें उचित होनी चाहिए, न कि परस्पर विद्वेष और कलह की। प्रयत्न होंगे। विद्वेषका मूल कारण प्रायः यह हुश्रा करना है कि या तो ऊपर जो भगवान महावीर द्वारा बतलाये गये हिंसा हम भूल जाते हैं कि हम मनुष्य हैं, या हमारी लोलुपता आदि पाँच पाप कह पाये हैं, उनमें अन्तिम पापका कुछ हमें मनुष्यतामे भ्रष्ट कर देती है। इन्हीं दो प्रवृत्तियोंसे विस्तारसे वर्णन करना आवश्यक है। भगवान्ने स्वयं बचनेके लिए भगवान् महावीरने मद्य और मांसके निषेध- राजकुमारका वैभव छोड़कर अकिंचन व्रत धारण किया का उपदेश दिया है । शराब पीकर मनुष्य भूल जाता है था । उन्होंने गृहस्थों को यह उपदेश तो नहीं दिया कि वे कि वह कौन है और अन्य जन कौन कैसे हैं। इसीसे अपनी समस्त धन-सम्पत्तिका परित्याग कर दें, किन्तु अपने शराबीका आचरण अविवेक और निर्लज्जतापूर्ण हो जाता लोभ और संचय पर कुछ मर्यादा लगाना उन्होंने आवश्यक है, जिससे वह नाना प्रकारके भयंकर अपराध कर बैठता है। बतलाया । संसारमें जितने जीवधारी हैं, उनके खाने-पीने धर्माचार्योंने सदैव मद्य-पानको पाप बतलाया है। आज और सुखसे रहनेकी सामग्री भी वर्तमान है । किन्तु मनुष्यसौभाग्यसे हमारी राष्ट्रीय कांग्रेस तथा सरकार भी मद्यपान में जो अपरिमित लोभ बढ़ गया है, उसके कारण ऐसी के निषेधका प्रयत्न कर रही है। उनके इस पवित्र कार्यमें परिस्थिति उत्पन्न हो गयी है कि प्रत्येक मनुष्य या सभी विवेकी और धार्मिक व्यक्यिोंको सहयोग प्रदान जन-समुदाय संसारकी समस्त सुख-सम्पत्ति पर अपना करना चाहिए। अधिकार जमाना चाहता है। इसमें संघर्ष और विद्वष ___ मांस-भोजनका निषेध मद्य-निषेधसे बहुत बड़ी अवश्यम्भावी है। महावीर भगवान् ने इस आर्थिक संघर्षसमस्या है, क्योंकि उसका सम्बन्ध प्रादतके अतिरिक्त से मनुष्यको बचानेके लिए ही परिग्रह-परिमाण पर बड़ा भोजन-सामग्रीकी कमीसे भी है । तथापि इस सम्बन्धमें जोर दिया है। और गृहस्थोंको इस बातका उपदेश दिया हमें प्रकृतिके स्वभाव और मानवीय संस्कृतिक विकासकी है कि वे अपनी प्रावश्यकतासे विशेष अधिक धन-संचय ओर ध्यान देना चाहिए । प्रकृति में जो प्राणी मांस-भक्षी न करें। यदि अपना कर्त्तव्य करते हुए न्याय और नीति के हैं, जैसे शेर, व्याघ्र इत्यादि, वे क्रूर-स्वभावी और निरुपयोगी अनुसार धनकी वृद्धि हो हो, तो उस अतिरिक पाये जाते हैं। शिक्षाके योग्य, उपयोगी और मृदु-स्वभावी उन्हें औषधि, शास्त्र, अभय और पाहार इन चार प्रकारवे ही प्राणी सिद्ध हुए हैं, जो मांस-भाजी नहीं हैं-शुद्ध के लोक-हितकारी दानोंमें लगा देना चाहिए । अर्थात् शाक-भोजी हैं-जंसे हाथी, घोड़ा, ऊँट, गाय, बैल, भैस सम्पस गृहस्थका उन्होंने यह कम्य बतलाया कि वह इत्यादि । एक वैज्ञानिक शोधक अनुसार मनुष्य-जातिका अपनी सम्पत्तिका सदुपयोग लोगोंको प्राण-रक्षाके उपायोंविकाम बानरोंसे हुआ है, और जैसा कि हम भली भांति में, शिक्षा और विद्याक प्रचार में, रोग-व्याधियोंके निवारणजानते हैं, बानर शुद्ध शाक और फल-भही होता है। में तथा दीन-दुःखियोंको भोजन-वस्त्रादि प्रदान करनेमें प्राणीशास्त्र के विज्ञाता बतलाते हैं कि मनुष्योंके दाँतोंकी कर डाले । मज प्राचार्य विनोबा भावे अपने भूदान-यज्ञअथवा उसके हाथ-पांवों की रचना मांस-भक्षी प्राणियों जैसी के आन्दोलन द्वारा जिस मनोवृत्तिका निर्माण करनेका नहीं है। इसीसे मांस-भोजी मनुष्योंके दौत जल्द खराब हो प्रयत्न कर रहे हैं, उसी वृत्तिक निर्माणका उपदेश भगवान् जाते हैं और उससे कई बीमारियों भी उत्पन हो जाती हैं, महावीरने आजसे अढाई हजार वर्ष पूर्व दिया था। यही जिनसे शाक-भोजी मनुष्य बहुधा बचा रहता है। अतएष नहीं, भगवान्के उस शासनको उनके अबुवापियोंने भगवान् महावीरके अनुयायियोंका कर्तव्य है कि वे इन भाजसे कोई रेद हजार वर्ष पूर्व ही 'सोंदव-तीर्थ' का वैज्ञानिक शोधोंके प्रचार द्वारा तथा शाक-भोजन नाम भी दिया है। प्राचार्य समन्तभद्रने भगवार महावीर Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ ] अनेकान्त [ वर्ष १३ के 'सर्वोदय-तीर्थ' के जो लक्षण बतलाये हैं, वे सर्वोदय- द्वारा बतलाये गये अहिसा-प्रधान मार्गका पूर्णत: अनुभावनाकी वृद्धि और पुष्टिमें आज भी बहुत सहायक हो करण है। - सकते हैं। जब सभी विचार-धाराओका समन्वय किया जाए, स्वम्मामि सब्ब-जीवानं मम्वे जीवा खमन्तु मे। किसी एक मत या दलकी पुष्टि और पक्षपात न किया जाए, मेत्ती मे सन्व-भूदसु वरं मम न कवि ॥ किन्तु समय और आवश्यकतानु गर गौण और मुख्यके सब जीवोंस देशांसे और राष्ट्रोंसे हमारा कोई विद्वेष भेदसे एक या दूसरी बातको प्रधानता या अप्रधानता दे दी नहीं, और हम चाहते हैं कि वे सब जीव, देश और राष्ट्र जाए, और दृष्टि रखा जाए सब प्रकारकी जन-बाधाओंको हमसे भी कोई विद्वेष न रखें। सबसे हमारी मित्रता है, दूर करनेकी, नथा जोर दिया जाय न्याय और नीतिके शाश्वत् वैर किसीसे भी नहीं। परस्पर आक्रमण नहीं करना, दूसरे की गति-विधिमें व्यर्थ हस्तक्षेप नहीं करना, मिलकर रहना, सिद्धान्तों पर, तभी पर्वोदय-तीर्थकी सच्ची स्थापना हो सहयोग रखना, जीना और जीने देना इत्यादि समस्त सकती है। इस सर्वतोमुम्बी. सर्वहितकारी कल्याण-भावना भावनाएँ अहिंसावृत्तिक व्यावहारिक रूप ही तो हैं, जिस का विस्तार भगवान महावीर द्वारा प्रतिपादित अनेकान्त पुष्टि देकर संसार भरमें फैलाना तथा व्यक्कियों, समाजों और मिद्धांत में पाया जाता है, जिसके द्वारा सब प्रकारके मतभेदों और विरोधोंको मिटाकर एकन्व और सहयोगको स्थापना राष्ट्रोंके जीवनमें उतारना हम सबका महान् पुनीत कर्तव्य होना चाहिए। यही भगवान् महावीरको जन्म-जयन्ती की जा सकती है। क्या ही अच्छा हो, यदि आजका विरोधी मनानेका मच्चा फल होगा। विचारोंके कारण मर्वनाशकी ओर बढ़ता हुश्रा मानव-समाज मुझे यह जान कर बडा हर्ष है कि भगवान महावीरके भगवान महावीरकी अनेकान्तात्मक समन्वयकारी वागीको इन्हीं सब विश्व कल्याणकारी उपदेशोंका अध्ययन करने तथा समझ कर उससे लाभ उठाए। उनके शासन पर आधारित साहित्यका शोध और पठनआज संसारमें चारों ओर नर-संहारकी आशंका फैल रही पाठनको विशेष सुविधायें उत्पन्न करनेके लिए उनकी इसी है। युद्धके बादल बारंबार उठ-उठकर गर्जन-तर्जन कर रहे जन्म-भूमि पर एक विद्यापीठके निर्माणका प्रयत्न किया जा हैं और जिन महाभयंकर प्रलयकारी अस्त्र-शस्त्रोंका अाजके रहा है । जो सज्जन इस पुण्य-कार्यमें विशेष रूपसे प्रयत्नविज्ञान द्वारा आविष्कार हुआ है, उनके नाम और गुण शील हैं, उनमें मुझे वैशाली-संघके प्रधान मन्त्री श्री सुन-सुनकर ही निरपराध नर-समाज कॉप-कौंप उठता है। जगदीशचन्द्र माथुर जीका नाम प्रमुखतास ध्यानमें आता ऐसे ममनमें हमारे देशकी राजनीतिको निर्धारित करने वाले हैं। मैं माथुर जी और उनके समस्त महयोगियोंका उनकी पंडित जवाहरलाल नेहरुने जो पंचशील' की घोषणा की है, इस उत्तम योजनाके लिए अभिनन्दन करता हूँ और प्रार्थना वह भारतीय संस्कृतिक पर्वथा अनुकूल एवं भगवान महावीर करता हैं कि उनका यह महान् संकल्प पूर्णतः सफल हो। 'अनेकान्त' की पुरानी फाइलें 'अनेकान्त' की कुछ पुरानी फाइलें वर्ष ४ से १२ वें वर्षतक की अवशिष्ट हैं जिनमें समाजके लब्ध प्रतिष्ठ विद्वानों द्वारा इतिहास, परातत्व, दर्शन और साहित्यके सम्बन्धमें खोजपूर्ण लेख लिखे गये हैं और अनेक नई खोजों द्वारा ऐतिहासिक गुत्थियोंको सुलझानेका प्रयत्न किया गया है । लेखोंकी भाषा संयत सम्बद्ध और सरल है । लेख पठनीय एवं संग्रहणीय हैं । फाइलें थोड़ी ही शेष रह गई हैं। अतः मंगानेमें शीघ्रता करें । प्रचारकी दृष्टिसे फाइलोंको लागत मूल्य पर दिया जायेगा। पोस्टेज खर्च अलग होगा। मैनेजर-'अनेकान्त', वीरसेवामंदिर, दिल्ली Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर जयन्ती के अवसर पर राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री का भाषण अहिंसाके बिना संसारमें वास्तविक शांति असंभव जैन साहित्य के प्रचार पर जोर राष्ट्रपति का महत्वपूर्ण भाषण भारत के राष्ट्रपति डा. राजेन्द्रप्रसाद ने दिनांक इन ग्रन्थोंको प्रकाशमें लायें और जिनके पास ज्ञान ७ अप्रेल ५ को उक्त महावीर जयन्ती-समारोह में वे इनका योग्य सम्पादन करे तथा जिनके पास कुछ भाषण करते हुए कहा कि 'संसार में अहिंसा के नहीं है वे इससे फायदा उठायें और जो जैनेतर हैं ये सिद्धान्त को स्वीकार किए बिना वास्तविक शान्ति जैन विचारोंसे परिचित हों।' असम्भव है । २५०० वर्षों से जैन धर्म के प्रचारकों आज ही मुझे बिहार के राज्यपाल ने लिखा है की अटूट परम्परा आज तक चली आ रही है और कि वहाँ वैशाली में जैन-झान प्रतिष्ठान के लिए पाँच उनके विद्वान् तथा मुनिगण अनेक ग्रन्थ लिखते आ रहे हैं, मगर तो भी यह दुःख के साथ कहना पड़ेगा लाख इकमुश्त और ५ हजार प्रति वर्ष ५ वर्ष तक कि उनके साहित्य से माम लोगों को परिचय बहुत देने का एक जैन भाईने उन्हें वचन दिया है। हमें ज्यादा नहीं हुआ। उनके सहस्त्रों हस्तलिखित ग्रन्थ हर्ष है कि भगवान महावीर का जन्म बिहार में वैशाली पुस्तकालयों और संग्रहालयों में छिषे रहते हैं, यहाँ में हुआ और वहीं पावापुर में उनका निर्वाण हुआ। तक कि उनको तहखानों में सुरक्षित रखा हुआ है। उन्होंने १२ वर्ष तक तप भी विहार में ही आस-पास हाल में मैं जैसलमेर गया था वहाँ मैंने तहखाने में भी किया होगा । जहाँ जहाँ उन्होंने तप किया उन स्थानों तहखाना और उस नहखाने में भी तहखाना देखा, जहां की श्राज खोज होनी चाहिए। वे महापुरुष थे, उनके जैन ग्रन्थ मुझे दिखाये गये। जिनके पास धन है सिद्धान्तों से ही दुनियामे शान्ति हो सकती है।' हथियारका जबाब हथियार नहीं अहिंसा है। चैत्र शुक्ला १३ वी निः १० २४८१ दिनांक ५ क्या अच्छाई है, क्या बुराई है ? हम लोगों में रटे भप्रेल १६४५ को 'कॉस्टीटयूशन क्लब' नई दिल्ली में हुए सबक को दोहराने की आदत है। सवाल है कि भायोजित महावीर-जयन्ती के समारोह में भाषण हमें क्या करना है ? हमें महापुरुषों के सिद्धान्बोको करते हुए भारत के प्रधानमन्त्री पं. जवाहरलाल नेहरू जीवन में उतारना है, अपने ही नहीं, बल्कि राष्ट्र के ने कहा कि हथियार का जवाब हथियार से नहीं बल्कि और विशेषकर अन्तर्राष्ट्रीय जोवनमें।' शान्तिमय ढंग से महिसा से देना चाहिए। हमारे अणुबम की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा-भाज महापुरुषों-गाँधी जी तथा महावीर स्वामी ने शान्ति संसार में एटमबम और हाईड्रोजन बम की चर्चा है, व अहिंसा के मार्ग पर चलने के लिए उपदेश दिये। लेकिन इसका जबाब अहिंसा से दिया जा सकता है, बाज एक महापुरुष को जयन्ती है। मुनासिव है कि हथियार से नहीं। हथियार से हथियार का कोई जवाब हम उनके सिद्धान्तों को याद करे और ननका तर्जुमा नहीं, क्योंकि अपने हथियार से अपने को ही खतरा अपने जीवन में करें।' भागे नेहरू जी ने कहा-जहाँ है। हमें इस शक्ति का उपयोग शान्ति कायम करने तक जैन सिद्धान्तों का मतलब है, वे अहिंसक ही हैं। में करना चाहिये हमें खुशी है कि हम महफूज है, हम महापुरुषों के सिद्धान्तों की ओर ध्यान कम देते हम उतने खतरे में नहीं जितने और देश हैं । कारण हैं और तमाशा करते हैं. दूसरों को दिखाने के लिए। हम लड़ना नहीं चाहते । पर आज कोई महफूज नहो, आप ही नहीं हम मब करते हैं। मुनासिब तो यह है जब कि आग सब जगह लग गई है । जवाब गालिकि हम भगवान महावीर के सिद्धान्तों का पालन करें। वन एक ही है और वह है गांधी जी तथा भगवान आजकल दुनिया टेडी है, खतरनाक है । हम एक महावर के शान्तिमय सिद्धान्तों पर चलने का। भगदूसरे को भला बुरा कहते हैं । एक देश दूसरे देश को वान महावीरने उन्हें धर्म व समाज तक सीमित धोखा देता है । नेता लोग एक दूसरे देश पर इल्जाम रखा, गाँधी जी उन्हें राजनीति में लाये । हम महाशक्ति जगातेहमें अपने दिली को टटोलना चाहिये, का मुकाबला महाशकि सेन करें।' Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थान विधान सभामें नग्नता प्रतिषेध विधेयक (श्री छोटेलाल जैन) राजस्थान विधानसभामें जो पशुलि विरोध बिल सुधार कर चुकी होती क्योंकि समाजमें बहुत बड़ी संख्या पेश है उसीकी प्रतिक्रिया स्वरूप यह लग्न उपस्थिति तथा विद्वानों, विचारकों और सुधारकों की है। प्रदर्शन (प्रतिषेध) विधेयकके १९५५ श्री भीमसिंह जी दिगम्बर जैन मुनियोंकी चर्या इतनी कठोर होती है भूतपूर्व जागीरदार मडावाने उपस्थित किया है। भारतमं कि इनका रास्तोंमें निकलना बहुत ही कम होता है । केवल कहीं भी दिगम्बर साधुओंके विहार पर प्रतिबन्ध न था और एक बार भोजन और शौचके लिए बाहर जाते हैं। सूर्यास्तन अब तक है तो भी राजस्थानमें उक्त अराजकीय बिल से सूर्योदय तक इनका गमन बिल्कुल बन्द रहता है। भोजन और जल भी केवल जैनीके यहाँ लेते हैं, सो भी यह विधेयक दिगम्बर जैन समाजक मूलभूत सिद्धांतका खड़े खड़े, पाणि पात्र (हाथों पर) से ही लेते हैं, रात्रिघातक है। पाश्चात्य संस्कृतिस प्रभावित आजके कालमें वे मौन पूर्वक रहते हैं । इनका रात दिन धर्मध्यानमें सत्ताधारी धर्मकी परिभाषामें ही परिवर्तन लाना चाहते हैं। म हा पारवतन लाना चाहते हैं। हो व्यतीत होता है। उनका मन पवित्र और शरीर तथा प्राचीनकालमें नीति और चरित्रकी शिक्षा प्राप्त करनेक लिये इंद्रिय-विषयों पर विजय होती है। अस्तु । विदोंस लोग भारत प्रात थे, पर आज भारतवासी अपना मार्ग-दर्शन विदेशोंस प्राप्त करते हैं। धार्मिक हस्तक्षेप विधेयकका दुष्प्रभाव करने वाले विधेयक कदापि उचित नहीं कहे जा सकते हैं यद्यपि इस विधेयक द्वारा दि० जैनोंके अतीव प्राचीन और वे सहनीय भी नहीं हो सकते हैं जो अन्याय और परम्परागत दृढ़ सिद्धान्तको प्राघात पहुंचानका प्रधान और परम्परागत दृढ़ सिद्धान्तका आधा मुसलिम और क्रिश्चियन जैसे विदेशा और मूर्ति-पूजाके प्राशय है, तो भी इसका प्रभाव अन्य सम्प्रदायोंमें भी महा विरोधी शासन काल में नहीं हुआ वह अब स्वतन्त्रकाल- पड़ेगा। दिगम्बर मूर्तियोंके निदर्शन प्रागैतिहासिक कालसे में हो रहा है। जिस शासनमें जनताको यह विश्वास आज तक जो उपलब्ध हैं उनमें जैनोंके और शैवोंसे दिलाया गया था कि शासन सदा धर्मनिरपेक्ष नोतिको विशेषतासे अलब्ध हैं मोहन जोदडोकी चार हजार वर्ष अपनावेगा। उसी शासनके कतिपय सदस्य जिनका सांस्कृतिक प्राचीन शिवजीकी तथा ध्यानमग्न दि. साधुके चित्र और प्रागैतिहासिक ज्ञान न्यून है और जो अपने धर्मस प्रकाशित हो चुके हैं। दोनोंके दिगम्बरत्वमें अन्तर इतना विपरीत धर्म वालोंका अन्त करने पर ही तुल गये हैं। ही है कि जैनोंके दिगम्बर बिल्कुल नग्न वस्त्राभूषणसे रहित दिगम्बर मुनियों और मूर्तियांका अस्तित्व कम स-कम ४००० होते हैं और शिश्न पड़ा हुआ होता है, जबकि शिवजीकी हजार वर्षोस आजतक अविच्छिन्न रूपसे भारतमें प्राप्त हो मूर्ति वस्त्राभूषण सहित होती है और लिंगको उर्ध्व रूपसे रहा है। प्राचीनकालमें महाराज चन्द्रगुप्त मौर्य और इतना उठा हा दिखाया जाता है कि वह मानो नाभिकी महाराज खारवल सरोखे प्रसिद्ध सम्राटोंने भी दिगम्बर ही स्पर्श कर रहा हो। इस प्रकारसे ऊर्ध्व लिंग शिवकी दीक्षा ग्रहण करके प्रात्म-कल्याण किया था और उनकी मूर्तियों अनेक जगह पाई जाती हैं। गुडिमल्लमके परशुमहारानियों दिगम्बर साधुओंको नवम भकिस आहार दान रामेश्वर मन्दिरमें ई० पूर्व दूसरी शताब्दीकी मूर्ति है जिसकी देकर अपनेको कृतार्य मानती थीं। इस प्रकारके अनेक राजा पूजाके लिये लाखों हिन्दू पाते जाते हैं। ऊर्ध्वलिग शिवकी मन्त्री और सेनानायकोंके रष्टान्त इतिहास में उपलब्ध हैं। मूर्तियाँ भारतमें सर्वत्र उपलब्ध हैं। कलकत्ताके म्युजियममें परिग्रह त्यागको चरम सीमा पर पहुंचने वाले इन परम चतुर्थ शताब्दीकी कोशमसे उपलब्ध शिव-पार्वतीको एक त्यागियोंने जितना लोक कल्याण किया है उतना किसी मूर्वि है जिसमें ऊर्ध्व लिंग स्पष्ट रूपसे अंकित है। अन्यने नहीं किया। इनके सम्पर्कमें आकर घोर व्यभिचारी अमरावती, सांची आदिकी दो हजार वर्ष प्राचीन ऐसी भी सदाचारी बन गए और अब भी बनते हैं। नंगे बच्चों- मूर्तियाँ उपलब्ध हैं जिनको शिल्पीने स्त्राभूषणोंसे आच्छादित को देख कर जैसे किसीके मनमें क्लेश उत्पन्न नहीं होता, कर दिया है पर उनका लिगभाग स्पष्ट प्रदर्शित होता है। वैसे ही परम तपस्वियोंके दर्शनसे क्लेश कैसे हो सकता है? बौद्धोंके कुम्भंड यक्षकी मूर्तिमें उसके बड़े अंडकोशको यदि ऐसा होता तो भारतकी दिगम्बर समाज कभीका यह प्रदर्शित करते हुए उसका नाम निर्देश हुआ है। ऐसी Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १० राजस्थान विधान सभामें नग्नता प्रतिषेध विधेयक २६५ मूर्तियाँ मथुरामें उपलब्ध है। भैरवकी मूर्ति वस्त्राभू.ण ताका समर्थन भी किया है । भले ही इस घोर तपस्याके होते हुए भी लिंगको दर्शनीय रखा जाता है और यही हाल प्रतीक उनमें आज उपलब्ध न हों। भिक्षाटन शिव और सदाशिव ब्रहमेन्द्रका है। दाराश्वरम् भारतमें आने वाले विदेशी यात्रियोंने जैसे ग्रीक, चीन में तो भिक्षाटन मूर्ति दि.शिवकी इस प्रकार की है, जिसमें प्ररया आदि ने दि० साधुओंके प्रभाव और तपस्या पर स्त्रियाँ शिवजीके सुन्दर रूपसे लुप्त होगई हैं और उनके वस्त्र प्रकाश डाला है जिनसे उनके निर्वाध विहार पर स्पष्ट प्रकाश खुल कर पढ़ते हुए प्रदर्शित किये गए हैं। पड़ता है । मुसलमान राज्यकालमें मुसलिम शासकोंने तत्प___ ग्रीक (यूनान) लोगोंके शक्तिके देवता हरक्यूलिशको श्चात् अंग्रेजोंने भी दिगम्बर साधुनोंके प्रति अपना भादर बड़ी बड़ी कलापूर्ण मूर्तियाँ जो प्रसिद्ध संग्रहालयोंमें गौरवके प्रकट किया था, इसके भी प्रमाण उपलब्ध हैं। साथ प्रदर्शित होती हैं । वे नग्न होती हैं अंगोपाग सहित श्रवणबेलगोला (मैसूर) की जगत प्रसिद्ध गोमटेश्वरकी मूर्तियोंके अतिरिक केवल लिंगकी पूजा तो भारतके कोनेकोने- विशाल दिगम्बर मर्तिके दर्शन करनेके लिये भारतीय ही नहीं में प्रचलित है। क्या इनका भी अन्त राजस्थानमें किया किन्त विदशोंसे भी लोग दर्शन करनेके लिये पाते हैं, और जायेगा ? पूरे नग्न लिंग देवताको पूजा जब वर्जितकी जा उस वीतराग तपस्वीकी मुद्राको देखकर नतमस्तक हो जाते है, रही है नब कटे हुए अंग भागकी पूजाका अस्तित्व किस भारत सरकारने भी उस दिव्य मूर्तिको भारतके गौरवकी प्रकार रह सकेगा? यह विचारणीय है। इसके लिये क्या वस्त मान कर उसे सुरक्षित रखनेकी घोषणा की है। इसी लाखों जैनोंके विरोध-सूचक अभिमतका आदर इस विधेयक प्रकार भारतकं म्यूजियमों (संग्रहालयों) में दिगम्बर जन द्वारा मान्य होगा? मुनियों गौरवके साथ प्रदर्शित है। जिन पाश्चात्य देशोंके दिगम्बरत्वका प्रभाव लोगोंको नग्नताके विरोधी मानते हैं उनके संग्रहालयों में भी दिगम्बर जैन साधुओंका राजप्रसदोंमें पदण होना दिगम्बर जैन मूर्तियों आदरके साथ रक्खी जाती हैं और सम्रा श्रीर सम्राज्ञी अपना अहोभाग्य समझते थे और उन्हें कलाके पारखी लोग उनके दर्शनोंसे प्रभावित होते हैं। नवधा भक्रिपूर्वक आहार दान देकर अपनेको धन्य मानते गत दिसम्बरमें राज्य सभामें अपने एक भाषणमें प्रसिद्ध थे। और उनके सादुपदेशको वे केवल ग्रहण ही नहीं करते थे कलाकार पृथ्वीराजकपूरने कहा था कि-'जेनेवामें मैंने बिल्कुकिन्तु जीवनमें उतार कर स्वयं साधुदीक्षा तक ले लेते थे। ल नंगे नाचको पाससे देखा, इससे श्रद्धा होती है कि इतना उन परम त्यागीतपस्वियोंका आज अल्प समयके लिये मार्ग- सुन्दर शरीर हो सकता है।' तब भला निर्विकार और में चलना ही खटकमकता है इसकी स्वप्नमें भी पाशा नहीं निर्मित दि. मुनियोंके दर्शनोंसे वीतरागता और भक्ति ही थी। जागृत हो तो इसमें क्या आश्चर्य है? उनके दर्शनोंसे जिस सम्प्रदायका अतीव उच्चकोटिका साहित्य गत तीन मनुष्य के हृदयमें विकार उत्पन्न हो ही नहीं सकते, यह तो हजार वर्षोंसे निरन्तर समृद्धिको प्राप्त होता हुश्रा, संस्कृत, भावनाकी बात है । हो, यदि दम बोस कलुष हृदय व्यक्तिप्राकृत तामिल कन्नड, अपभ्रंश, राजस्थानी और गुजराती योंकी भावना विगढ़ती हो तो इसके लिये एक प्राचीन आदि सभी भाषाओं में उपलब्ध है और विभिन्न विषयोंक अकाम्य सिद्धान्तका गला नहीं घोंटा जा सकता। अतिरिक्र तर्कशास्त्र और अपने मिन्द्वान्तको (दिगम्बरवके) यह कोई नया धर्म तो है नहीं कि उसे बन्द करनेकी इतनी सबलतासे प्रतिपादन करने वाला है कि उसके सामने आवश्यकता हो । यह तो इतिहासकालसे अब तक निर्वाधित विरोधियोंको भी लोहा मानना पड़ा है। रूपसे चला आ रहा है, फिर धर्मनिरपेक्ष सरकारका यह संसारके किसी भी सम्प्रदायने दिगम्बरत्व (अपरिग्रहवाद) कर्तव्य नहीं है कि वह सभी धर्मवालोंके विश्वासोंमें बाधा का विरोध नहीं किया है और उसकी प्रशंसा और उपादेय- न पहुंचाये। Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य परिचय और समालोचन -वरांगचरित, मूनकर्ता जटामिहनन्दी अनुवादक देशमें 'तामिल-वेद' के नामसे प्रख्यात है। यह उसी महाप्रो. खुशालचन्दजी एम. ए. साहित्याचार्य गोरावाला, प्रका- काब्यके कामपुरुषार्थको छोड़कर शेष सम्पूर्ण ग्रन्थका संस्कृत शक, मंत्री साहित्य विभाग भारत दि. जैन संघ चौगसी हिन्दी गद्य-पद्यानुवाद है । जिसके कर्ता प्रज्ञाचा पं. मथुरा। साइज २२x२६ पृष्ठ संख्या सब मिला कर १०. गोविंदरायजी शास्त्री हैं जिन्होंने इस प्रन्थका अध्ययन मनन सजिल्द प्रतिका मूल्य पात रुपया। परिशीलनकर संस्कृत और हिन्दीकी सरस कवितामें इस मुल काम्य-ग्रन्थका अन्वेषण 1. प. एन. रखनेका उपक्रम किया है । ग्रन्थमें १०८ परिच्छेद या उपाध्ये एम. ए. ने किया और स्वयं मम्पादितकर माणिक- अध्याय हैं जिनमें सदाचार, धर्म, ईश्वर स्तुति, सयम, चन्द्र ग्रन्थमाला द्वारा प्रकाशमें लाया गया। जटासिंह नन्दी- भेद, परोपकार, सत्य, दान, कीर्ति, मादि १०८ विषयों पर ने इस महाकाव्यमें ३, सगों और तीन हजार आठ सौ प्रकाश डाला गया है । यह नीतिका महाकान्य है, ग्रन्थके सोस रखोकोंमें राजा परांगकी जीवन-कथाका परिचय सभी प्रकरण रोचक और पठनीय हैं और लोकोपयोगी हैं। कराया है, जिसमें वरांगकी धर्म-निष्ठा, सदाचार, कर्तव्य पाई सफाई अच्छी है, ऐसे सुन्दर संस्करणके लिये पंडितपरायणता, और शारीरिक तथा मानसिक विपत्तियों में महि- जी बधाईके पात्र हैं। मजिल्द प्रतिका मुख्य १०) कुष माता, विवेक और साहसके साथ बाह्य और अन्तरकषाय अधिक जान पड़ता है। शत्रुओंको दबाने, उमकी शक्ति क्षीण करने उन्हें अशक एवं ३-पाण्डव पुराण भष्टारक, शुभचन्द्र, अनुवादक पं. अममर्थ बनाने अथवा उन पर विजय प्राप्तिका उल्लेख जिनदास शास्त्री प्रकाशक, जीवराज ग्रंथमाला शोलापुर । किया गया है। राजा वगंग जैनियोंके १२वें तीर्थकर भगवान पृष्ठ संख्या ५६८ बड़ा माइज, मूल्य सजिल्द प्रतिका १२) मेमिनाथ और श्रीकृष्णके समकालीन थे। प्रन्थकारने प्रन्यमें रुपया। उपजाति, मालभारिणी, भुजंगप्रयात और द्र नविलम्बित प्रस्तुत प्रन्यमें महाभारत कालमें होने वाले यदुवंशी मादि विविध छन्दोंका उपयोग किया है । ग्रंथका कथा भाग कौरव और पांडवोंका चरित्र कः हजार श्लोकोंमें दिया हुआ मरम और सुन्दर है । प्रस्तुत ग्रंथका यह हिन्दी अनुवाद है। महाभारतको कथा हिन्दू जैन बौड प्रन्थों में अंकित बहुत सुन्दर और मूलानुगामी हुना है। और प्रोफेमर पाई जाती है। यद्यपि उनमें परस्पर कुछ भेदोंके साथ माहबने उसे ललित भाषामें रखनेका उपक्रम किया है, भाषा कथनोपकथनों में वैशिष्ट मिल जाता है। फिरभी प्रन्थकारों में मुहावरेवार और सरल है। अनुवादकने प्रन्यमें मूल पचोंके एक दूसरेके अनुकरणकी स्पष्ट छाप दिखाई पड़ती है। नम्बर भी यथास्थान दे दिये हैं जिनसे पद्योंके अर्थ के साथ अनुवाद भी अच्छा है। मूल श्लोकोंका मिलान करने में सुभीता हो जाता है । न्य पं. बालचन्द्रजी सिद्धान्त शास्त्री द्वारा लिखी गई इस अन्तमें पारिभाषिक कोषभी दे दिया है जिससे म्वाध्याय ग्रन्थकी प्रस्तावना ग्बोज पूर्ण है। उसके पढ़नेसे ग्रन्थका प्रेमियोंको शब्दोंके अर्थ जानने में विशेष सुविधा हो गई है, निचोद महज ही मालूम हो जाता है । और कथावस्तुके मर्मग्रंथकी प्रस्तावना सुन्दर ऐतिहासिक दृष्टिको प्यक्र करते हुए का भी पता चल जाता है। साथही ग्रन्धकी रचना शेली लिखी गई है। इस तरह अनुवादकजीने हिन्दी भाषा आदिके सम्बन्धमें विचार हो जाता है। ग्रंथके अन्त में पों. भाषियोंके लिए उक्त प्रन्थको पठनीय बना दिया है। इसके का अनुक्रम न होना खटकता है । माथमें ग्रन्थ निर्दिष्ट लिये अनुवादक और प्रकाशक दोनों ही धन्यवादके राजा, राज मंत्री, श्रेष्ठी और विविध देशों आदिका परिपात्र हैं। चायक परिशिष्ट भी रखना आवश्यक था। फिर भी जीव२-कुरख-काम्य, मूलकर्ता विवल्लूवर-एलाचार्य, अनु- राज ग्रन्थमालाका प्रकाशन सुन्दर हुपा है। इसके लिये ग्रंथ पावक, संस्कृत-हिन्दी गद्य-पद्य पं. गोविन्दरायजी शास्त्री, मालाके संचालक महोदय धन्यवादके पात्र हैं। बाशा है यह महरौनी ।बकाशक स्वयं, पृष्ठ संख्या ३५०, मजिद प्रति- प्रन्थमाला भविष्यमें और भी सुन्दरतम प्रकाशनों द्वारा जैन का मूल्य ..)। संस्कृतिके संरक्षणके साथ उसके प्रचारमें विशेष योग देगी। मूल ग्रन्थ तामिल भाषाका महाकाव्य है जो तामिल -परमानन्द जैन Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीरसेवामन्दिरके सुरुचिपूर्ण प्रकाशन (१) पुरातन - जैनवाक्य सूची - प्राकृतके प्राचीन ६४ मूल प्रन्थाकी पद्यानुक्रमणी, जिसके साथ ४८ टीकादिग्रन्थोंमें उद्धृत दुसरे पद्यांकी भी अनुक्रमणी लगी हुई है । सब मिलाकर २५३५३ पद्य वाक्योंकी सूची | संयोजक और सम्पादक मुख्तार श्रीजुगलकिशोरजी कोषापूर्य महत्वको ७० पृष्ठकी प्रस्तावना अलंकृत, डा० कालीदास नाग एम.ए डी. लिट् के प्राक्कथन ( Foreword) और डा० ए. एन. उपाध्याय एम. ए. डी. लिट की भूमिका (Introduction) भूषित है, शोध के विद्वानों के लिये अतीव उपयोगी बड़ा साइज, सजिल्द जिसकी प्रस्तावनादिका मुल्य अलगमे पांच रुपये है) " (२) आप्न परीक्षा-श्रीविद्यानन्दाचार्यको स्वोपज्ञ सटीक अपकृति, आशोकी परीक्षा द्वारा ईश्वर-विषयक सुन्दर मरस और सजीव विवेचनकी लिए हुए, न्यायाचार्य पं० दरबारीलालजी के हिन्दी अनुवाद तथा प्रस्तावनादिसं युक्त, सजिल्द । ... ८) (३) न्यायदीपिका याय-विद्याकी सुन्दर पांधी, न्यायाचार्य पं० दरबारीलालजीक संस्कृर्नाटिप्पण, हिन्दी अनुवाद, विन्नन प्रस्तावना और अनेक उपयोगी परिशिष्टसे अलंकृत मजिन्द -- , - ... 9 ४) स्वयम्भूनां समन्नभावना अपूर्व ग्रन्थ मुन्नार श्री जुगलकिशोर जीके विशिष्ट हिन्दी अनुवाद, वन्दर चय समन्म-परिचय और भक्तियोग, ज्ञानयोग तथा कर्मयोगका विश्लेषण करती हुई महत्वका १०६ पृष्ठको प्रस्तावना सुशोभित (४) स्तुतिविद्या - स्वामी समन्तभड़की अनांथो कृति, पापांके जीतनेकी कल्ला, सटीक, सानुवाद और श्रीजुगलकिशोर सुनारको महत्वकी प्रस्तावनादि अलंकृत सुन्दर जिन्द-महिन २) 111) (5) अध्यात्मकमलमानगड पंचाध्यापीकार कवि राजमलकी सुन्दर आध्यात्मिक रचना, हिन्दी अनुवाद- महिल और जुगलकिशोरको पूर्ण पृष्ठकी विस्तृत प्रस्तावनाभूषित। 911) ... ... ... (७) युक्त्यनुशासन-नस्वज्ञान परिपूर्ण समन्तभद्रकी असाधारण कृति, जिसका अभी तक हिन्दी अनुवाद नहीं 21) हुआ था | मुख्तारश्रीके विशिष्ट हिन्दी अनुवाद और प्रस्तावनादिसे अलंकृत, सजिल्द । 15) श्रीपुरपाश्वनाथस्तोत्र याचा विद्यानन्दरचित महत्वको स्तुति, हिन्दू अनुवाद सहित (६) शामनचतुस्त्रिशिका - ( नीर्थपरिचय ) मुनि मदनकीको १३ वी शताब्दीको सुन्दर रचना, हिन्दी 1) अनुवादादिति । ... ... ५) ... (१०) सत्साधु-स्मरण- मगलपाठ - श्रीवीर वर्द्धमान और उनके बाद के २१ मा आचार्य के १३७ पुण्य स्मरणांका महत्वपूर्ण संग्रह मुख्तारक्षक हिन्दी अनुवादादि- महिन 11) ॥) (११) विवाह-ममुद्देश्य गुम्नारथीका जिम्मा हुआ विवाहका सप्रमाण मामिक और तात्विक विवेचन हुश्रा (१२) अनेकान्न रख लहरी-अनेकान्त जसे गुर गम्भीर विषयको यह सरलतासे समझने-समझानेकी कुंजी, मुख्तार श्री जुगलकिशोर- लिखित । 1) (१३) अनित्यभावना - आा. पद्मनन्दी की महायकी रचना, गुरुवारओके हिन्दी पद्यानुवाद और भावार्थ सहित ) (१४) तस्वार्थसूत्र - (प्रभाचन्द्रीय) मुख्तारीके हिन्दी अनुवाद तथा व्याख्यासं युत । (१४) श्रवणबंगाल और दक्षिणके अन्य जैनतीथ क्षेत्र ना० राजकृष्ण जैनकी सुन्दर सचित्र रचना भारतीय पुरातत्व विभागकं डिप्टी डायरेक्टर जनरल डा०टी० एन० रामचन्द्रनकी महत्व पूर्ण प्रस्तावनामे अलंकृत १ ) नाटये सब ग्रन्थ एकसाथ लेनेवालोंका ३८ ॥ ) की जगह ३० ) में मिलेंगे । 1) ५) ... व्यवस्थापक 'वीरसेवामन्दिर-ग्रन्थमाला' वीर सेवामन्दिर, जैन लाल मन्दिर, चाँदनी चौक देहली। (m) Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ***४४,४२४१.१४१.४ः४४४४४४४ कान्तके संरक्षक और सहायक १०१) बाट शान्तिनाथजी कलकत्ता १०१) बा० निर्मलकुमारजी कलकत्ता १०१) बाट मोतीलाल मक्म्वनलालजी, कलकत्ता १०२) बाट बद्रीप्रसादजी मरावगी, १०१) बाट काशीनाथ जी. १०१) बा० गोपीचन्द रूपचन्द्रजी १०१) बाट धनंजयकुमारजी १०१) बा० जीतमलजी जैन १०१) बा० चिरजीलालजी सरावगी संरक्षक १५०० ) बा० नन्दलालजी सरावगी, कलकत्ता २५१) बा० छोटेलालजी जैन सरावगी २५१) बाद मोहनलालजी जैन लगेचू २५१) ला गुलजारीमल ऋषभदासजी ०५१) बा० ऋषभचन्द्र (B.B.C. जैन २५१) बा० दीनानाथजी सरावगी २५४) बाट रतनलालजी झांझरी २५१) बा० बल्देवदासजी जैन सरावगी २५१) सेठ गजराजजी गंगवाल २५१) मेठ सुत्रलालजी जैन २५१) बा० मिश्रीलाल धर्मचन्द्रजी २५१) सेठ मांगीलालजी ०५१) सेठ शान्तिप्रसादजी जैन 35 19 २५१) बा० विशनदयाल रामजीवनजी, पुरलिया २५१) ला० कपूरचन्द धूपचन्दजी जैन, कानपुर २५१) बा० जिनेन्द्रकिशोरजी जैन जौहरी, देहली २५१) ला० राजकृष्ण प्रेमचन्दजी जैन, देहली २५१) बा० मनोहरलाल नन्हेमलजी, देहली २५१) ला० त्रिलोकचन्दजी, सहारनपुर २५१) सेठ छदामीलालजी जैन, फीरोजाबाद २५१) ला० रघुवीर सिंहजी, जैनावाच कम्पनी, देहली २५१) रायबहादुर सेठ हरखचन्दजी जैन, रांची २५१) सेठ वीचन्दजी गंगवाल, जयपुर १०१) बाट रतनलाल चांदमलजी जैन. राँची १०१) लाट महावीरप्रसादजी ठेकेदार, देहली १०१) ला० रतनलालजी मादीपुरिया, दहली १०१) श्री फतहपुर जैन समाज, कलकत्ता १०२) गुप्र सहायक, सदर बाजार, मेरठ १०१) श्री शीलमालादेवी धर्मपत्नी डा०श्रीचन्द्रजी, एटा, १०१) ला० मक्खनलाल मोतीलालजी ठेकेदार, देहली १०१) बा० फूलचन्द रतनलालजी जैन, कलकत्ता १०१) बा० सुरेन्द्रनाथ नरेन्द्रनाथजी जैन, कलकत्ता १०१) बा० वंशीधर जुगलकिशोरजी जैन, कलकत्ता १०१) बा० बद्रीदास आत्मारामजी सरावगी, पटना १०१) ला० उदयराम जिनेश्वरदासजी सहारनपुर १०१) बा० महावीरप्रसादजी एडवोकेट, हिसार १०९) ला० बलवन्तसिंहजा, हांसी जि० हिसार १०१) सेठ जग्वीराम बैजनाथ सरावगी, कलकत्ता १०१) बाबु जिनेन्द्रकुमार जैन, सहारनपुर १०९) वैद्यराज कन्हैयालालजी चद औषधालय, कानपुर : सहायक १०१) बा० राजेन्द्रकुमारजी जैन, न्यू देहली १०१) ला८ परसादीलाल भगवानदासजी पाटनी, देहली १०१) ला० प्रकाशचन्द्र व शीलचन्द्रजी जौहरी, देहली १०१) बा० लालचन्दजी बी० सेठी, उज्जैन १०१) ला रतनलाल जी कालका वाले, देहली अधिष्ठाता 'वीर - सेवामन्दिर' मरमावा, जि० सहारनपुर 11 १०१) बाट घनश्यामदास बनारसीदासजी, कलकत्ता १०१) बा० लालचन्द्रजी जैन सरावगी SKK Regd. No D. 211 " १४४४४४४४४४४४४४४४४३,४२४१४ XXX प्रकाशक - परमानन्दजी जैन शास्त्री दि० जैन लालमंदिर देहली। मुद्रक-रूप-वासी प्रिटिंग हाऊस २३. दरियागंज, देवी Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनका मार्च १९५५ A सम्पादक-मण्डल जुगलकिशोर मुख्तार छोटेलाल जैन जयभगवान जैन एडवोकेट परमानन्द शास्त्री विषय-सूची २१५ १ समन्तभद्र-भारती देवागम-[ युगवीर २ क्या अमंजी जीवों के मनका सद्भाव मानना आवश्यक है ? - [पं० वंशीधर व्याकर्णाचार्य ३ क्या व्यवहार धर्म निश्चयका माधक है ? -[ जिनेन्द्रकुमार जैन ४ सम्पादकीय नोट-[ परमानन्द जैन ५ नागकुमार चरित और कवि धर्मधर -[परमानन्द शास्त्री अनेकान्त वर्ष १३ १६ भगवान महावीर-[ परमानन्द शास्त्री किरण Rames and Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामी समन्तभद्रका समीचीन-धर्मशास्त्र ( रत्नकरण्ड ) मुख्तार श्री जुगलकिशोरके हिन्दी-भाष्य-सहित छपकर तय्यार सर्व साधारणको यह जान कर प्रसन्नता होगी कि श्रावक एवं गृहस्थाचार-विषयक जिस अति प्राचीन तथा समीचीन धर्मग्रन्थक हिन्दी भाष्य-सहित कुछ नमूनोंको 'समन्तभद्र-वचनामृत' जैसे शीर्षकोंके मीचे अनेकान्तमें प्रकाशित देख कर लोक-हृदयमें उस समृचे भाष्य-ग्रन्थको पुस्तकाकार रूपमें देखने तथा पढ़नेको उत्कण्ठा उत्पन्न हुई थी और जिसकी बड़ी उत्सुकताके साथ प्रतीक्षा की जा रही थी वह अब छपकर तैयार हो गया है, अनेक टाइपोके सुन्दर अक्षरोंमें ३५ पौडके ऐसे उत्तम कागज पर छपा है जिसमें २५ प्रतिशत रूई पड़ी हुई है । मूलग्रन्थ अपने विषयका एक बेजोड़ ग्रन्थ है, जो समन्तभद्र-भारतीमें ही नहीं किन्तु समूचे जैनमाहित्यमें अपना खास स्थान और महत्व रखता है । भाष्य में, मूलकी मीमाके भीतर रह कर, ग्रन्थके मर्म तथा पद-वाक्योंकी दृष्टिको भले प्रकार म्पष्ट किया गया है, जिससे यथार्थ ज्ञानके साथ पद-पद पर नवीनताका दर्शन होकर एक नए ही ग्मका आस्वादन होता चला जाता है और भाष्यको पढ़नेकी इच्छा बराबर बनी रहनी हैमन कहीं भी ऊबना नहीं । २०० पृष्ठकं इस भाष्यके साथ मुख्तारश्रीकी १२८ पृष्ठकी प्रस्तावना, विषय-सूचीके माथ, अपनी अलग ही छटाको लिए हुये है और पाठकोंक सामने खोज तथा विचारकी विपुल सामग्री प्रस्तुत करती हुई ग्रन्थके महत्वको ग्व्यापित करती है । यह ग्रंथ विद्यार्थियों तथा विद्वानों दोनोंके लिए समान रूपसे उपयोगी है, सम्यग्ज्ञान एवं विवेककी वृद्धिके साथ आचार-विचारको ऊँचा उठानवाला और लोक मुख-शान्तिकी सच्ची प्रतिष्ठा करने वाला है इस ग्रन्थका प्राक्कथन डा. वासुदेवजी शरण अग्रवाल प्रो० हिंद-विश्वविद्यालय बनारसने लिखा है और भृमिका डा० ए० एन० उपाध्धे कोल्हापुरने लिखी है। इस तरह यह ग्रंथ बड़ा ही महत्वपूर्ण है। यदि आपने आर्डर नहीं दिया है तो शीघ्र दीजिए, अन्यथा पीछे पछताना पड़ेगा । लगभग ३५० पृष्ठके इस दलदार मुन्दर सजिल्द ग्रन्थकी न्योछावर ३) रूपए रक्खी गई है। जिल्द बंधाईका काम शुरू हो रहा है । पठनेच्छुकों तथा पुस्तक विक्रेताओं ( बुकसेलरों ) को शीघ्र ही आर्डर बुक करा लेने चाहिए। मैनेजर 'वीरसेवामन्दिर-ग्रंथमाला' दि. जैन लालमन्दिर, चाँदनी चौक, देहली भूल सुधार प्रथम फार्ममें पेजोंके नम्बर २१५ से २२२ के स्थानमें २२४ से २३२ तक गलत छप गए है । अतः पाठक उन्हें सुधार कर २२२ से २३२ के स्थान पर २१५ से २२२ तकके नम्बर अपनीअपनी कापीमें बनानेकी कृपा करें । -प्रेस मैनेजर Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ॐ अहम स्ततत्वसधातर विश्वतत्त्व-प्रकाशक BHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHHE वाषिक मुल्य ६) एक किरण का मूल्य ॥) IFES नीतिविरोषध्वंसीलोकव्यवहारवर्तकःसम्यक् । परमागमस्यबीज भुवनैकगुरुर्जयत्यनेकान्त । वर्ष १३ । किरण चारमेवामन्दिर, C दि० जैन लालमन्दिर, चाँदनी चौक, देहली फाल्गुन, वीरनिर्वाण-संवत २४५१, विक्रम संवत २०११ मार्च १६५५ समन्तभद्र-भारती देवागम यद्यसत्सर्वथा कार्य तन्मा जनि ख-पुष्पवत् । मोपादान-नियामोऽभून्माऽऽश्वासः कार्य-जन्मनि ॥४२॥ (क्षणिकैकान्तमें कार्यका मत् रूपसे उत्पाद तो बनना ही नहीं, क्योंकि उपसे सिद्धान्त-विरोध घटित होता हैक्षणिक एकान्तमें किसी भी वस्तुको सर्वथा सत्-रूप नहीं माना गया है । तब कार्यको प्रमत् ही कहना होगा।) यदि कार्यको सर्वथा असत कहा जाय तो व आकाशके पुष्प-समान न होने रूप ही है। यदि असतका भी उत्पाद माना जाय तो फिर उपादान कारणका कोई नियम नहीं रहता और न कार्यकी उत्पत्तिका कोई विश्वास ही बना रहता है-गेहूँ बोकर उपादान कारणके नियमानुसार हम यह प्राशा नहीं रख सकते कि उससे गेहूँ हो पैदा होंगे, असदुत्पादक कारण उससे चने जौ या मटरादिक भी पैदा हो सकते हैं और इसलिये हम किसी भी उत्पादन कार्यके विषयमें निश्चित नहीं रह सकते; सारा ही लोक-व्यवहार बिगड जाता है और यह सब प्रत्यक्षादिकके विरुद्ध है। न हेतु-फल-भावादिरन्यभावादनन्वयात् । सन्तानान्तरवन्नकः सन्तानस्तद्वतः पृथक् ॥४३॥ . (इसके सिवाय क्षणिकैकान्तमें पूर्वोत्तरक्षणों के ) हेतुभाव और फलभाव आदि कभी नहीं बनते; क्योंकि सर्वथा अन्वयके न होने के कारण उन पूर्वोत्तर क्षणों में सन्तानान्तरकी तरह सर्वथा अन्यभाव होता है। (यदि यह कहा जाय कि पूर्वोत्तर क्षणोंका सन्तान एक है तो यह ठीक नहीं है। (क्योंकि) जो एक सन्तान होता है वह सन्तानीसे पृथक नहीं होता-सर्वथा पृथक्पमें उसका अस्तित्व बनता ही नहीं।' अन्येष्वनन्यशब्दोऽयं संवृतिर्न मृषा कथम् । मुख्यार्यः संवृत्तिर्न स्याद् (नास्ति) विना मुख्यान संवृतिः॥ 'यदि (बौद्धोंकी ओरसे ) यह कहा जाय कि अन्यों में अनन्य शब्दका यह जो ब्यवहार है-सर्वथा भिन्न चित्त-क्षणोंको जो सन्तानके रूपमें अनन्य, अभिन्न अथवा एक श्रान्मा कहा जाता है-वह संवृति है-काल्पनिक अथवा Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपचारिक है, वास्तविक नहीं तो सवथा संवृत्तिरूप होनेसे वह मिथ्या क्यों नहीं है?-अवश्य ही मिथ्या है, और इसलिये उसके आधार पर सन्तान प्रात्मा जैसी कोई वस्तु व्यवस्थित नहीं बनती। यदि संतानका मुख्य अर्थके रूपमें माना जाय तो जो मुख्यार्थ होता है वह सर्वथrसंवृति रूप नहीं होता और यदि मवृति रूप में उसे माना जाय तो संवृति बिना मुख्यार्थ के बनती नहीं-मुख्यक विना उपचारकी प्रवृत्ति होती ही नहीं। जैसे सिंहके सद्भाव-बिना सिंहका चित्र नहीं बनता।' चतुष्कोटेर्विकल्पस्य सर्वन्तेषूक्त्ययोगतः । तत्त्वाऽन्यन्यत्वमवाच्यं चेत्तयोः सन्तानतद्वतोः ॥४॥ _ 'यदि (बौद्धोंकी ओर से) यह कहा जाय कि चूंकि सब धर्मों में चतुष्कोटिविकल्पके कथनका अयोग है-सत्व-एकत्वादि किसी भी धर्मके विषयमें यह कहना नहीं बन सकता कि वह सत् रूप है या असत् रूप है अथवा सत् असत् दोनों (उभय ) रूप है या दोनों रूप नहीं ( अनुभय रूप ) है; क्योंकि सर्वथा सत् कहने पर उसकी उत्पत्तिके माथ विरोध प्राता है, सर्वथा असत् कहने पर शून्य-पक्षमें जो दोष दिया जाता है वह घटित होता है, सर्वथा उभयरूप कहने पर दोनों दोषोंका प्रसंग पाता है और सर्वथा अनुभय पक्षके लेनेपर वस्तु निर्विषय, नीरूप, निःस्वभाव अथवा निरुपाख्य ठहरती है और तब उसमें किसी भी विकल्पका उत्पत्ति नहीं बनती-अनः उन सन्तान सन्तानीका भी तत्त्व (एकत्व-अभेद) धर्म तथा अन्यत्व (नानात्व-भेद ) धर्म (धर्म होनेसे) अवाच्य ठहरता है। तदनुसार उभयत्व-अनुभषन्व धर्म भी (अवाच्य ठहरते हैं ); क्योंकि वस्तुके धर्मको वस्तुसे सर्वथा अनन्य (अभिन्न) कहनेपर, वस्तुमात्रका प्रसंग आता है, वस्तुसे सर्वथा अन्य (मिन ) कहने पर व्यपदेशकी सिद्धि नहीं होती अर्थात् यह कहना नहीं बनता कि अमुक वस्तुका यह धर्म है, सर्वथा उभय ( भिन्नाभिन्न ) कहने पर दोनों दोष पात हैं और सर्वथा अनुभय (न भिन्न और न अभिन्न ) कहने पर वस्तु निरुपाख्य एवं निःस्वभाव ठहरती है- इससे सन्तान-पन्ततीके धर्म-विषयमें कुछ भी कहना नहीं बनता, ( तो यह कथन ठीक नहीं है। क्योंकि) अवक्तव्यचतुष्कोटिविकल्पोऽपि न कथ्यताम् । असर्वान्तमवस्तु स्यादविशेषस्य-विशेषणम् ॥४६॥ 'तब तो (बौद्धोंको ) 'चतुष्कोटिविकल्प अवक्तव्य हैं। यह भी नहीं कहना चाहिये;-क्योंकि सब धर्मोमें उकिका प्रयोग बतलाने अर्थात् सर्वथा अवक्रव्य (अनभिलाप्य ) का पक्ष लेनेपर 'चतुष्कोटिविकल्प अवक्तव्य है' यह कहना भी नहीं वनता, कहनेस कथंचित् वक्तव्यत्वका प्रसंग उपस्थित होता है। और न कहनस दूसरोंको उसका बांध नहीं कराया जा सकता। ऐसी स्थितिमें उसके सर्वविकल्पातीत्व फलित होता है, जो सर्व विकल्पातीत है वह असन्ति (सब धर्मासे रहित ) है और जो असर्वन्ति है वह (आकाश कुसुमके समान ) अवस्तु है; क्योंकि उसके विशयविशषणभाव नहीं बनता। ऐसी कोई भी वस्तु प्रत्यक्ष प्रतिभासित नहीं होता जो विशंप्य न हो या विशेषण न हो।' (यदि यह कहा जाय कि स्वसंवेदन विशेषण-विशंप्य-रहित हा प्रतिभासित होता है तो वह ठोक नहीं; क्योंकि स्वसंवेदनके भी मत्व (अस्तित्व ) विशेषणको विशिष्टतास विशेष्यका हा अवभामन होता है । स्वसंवेदनक उत्तरकाल में विकल्पबुद्धिक होने पर 'स्वका संवेदन' इस प्रकार विशेषण-विशष्य भाव अवभासित होता है। यदि यह कहा जाय कि स्वसंवेदन अविशष्य-विशेषण रूप है और यह स्वतः प्रतिभासित होता है तो इसस (भी) संवेदनमें विशेषण-विशेष्य-भाव सिद्ध होता है। क्योंकि वैसा कहने पर विशेषणविशष्यत्व ही विशेषण हो जाता है।) द्रव्याद्यन्तरभावेन निषेधः संज्ञिनः सतः । असद्भ दो न भावस्तु स्थानं विधि-निषेधयोः ॥४७॥ ' (यदि विषेषण-विशष्य-भावको सर्वथा अमत् माना जाय तो उसका निषेध नहीं बनता। क्योंकि ) जो संज्ञी (स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भावकी उपेक्षा ) सत् होता है उसीका पर द्रव्य क्षेत्रकाल-भावका उपेक्षा निषेध किया जाता है, न कि असन्का । सवया असत् पदार्थ ना विधि निपेधका विषयहा नहीं होता-जो पदार्थ परद्रव्य-क्षेत्र-काल-भावकी अपेक्षाके समान स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भावको अपेक्षासे भी असत् है वह सर्वथ। असत् है. उसकी विधि कैसी? जिसकी विधि नहीं उसका निषेध नहीं बनता क्योंकि निषेध विधिपूर्वक होता है । और इसलिये जो सत् होकर अपने द्रव्यादिकी अपेक्षा कथंचित् वक्तव्य है ) उसीक (परद्रव्यादिकी अपेक्षा निषेध हानेस अवध्यपना युक्त टहरता है। और जो सत् पदार्थ स्वद्रव्यादिकी अपेक्षा कथंचित् विशेषण-विशेप्य रूप है उसीक ( परदन्यादिकी अपेक्षा) अविशष्य-विशेषणपना ठीक घटित होता है। अत: एकान्तसे कोई वस्तु अवक्रव्य या अविशेष्य-विशेषण रूप नहीं है ऐसा बौद्धोंको जानना चाहिये। Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्या असंज्ञी जीवोंके मनका सद्भाव मानना आवश्यक है ? (पं० वंशीधर व्याकरणाचार्य) श्री डा. हीरालाल जैन एम. ए. नागपुरने अम्बिल मालूम होना है। अतः मेरे सामने अाज भी यह प्रश्न खड़ा भारतीय प्राच्य सम्मेलनके १६वें अधिवेशनके समय प्राकृत हुआ है कि मनके अभाव में असंझी जीवोंके श्रुतज्ञानकी और जैनधर्म विभागमें जो निबन्ध पढा था उसम्म हिन्दी मगति किम तरह बिठलाई जावे ? अनुवाद 'संजी जीवोंकी परंपग' शीर्षकसे अनेकान्त पत्रके श्वे. पागम ग्रंथ विशेष प्रावश्यक भाप्यका वह प्रकरण, वर्ष १३ की संयुक्त किरण ४.५ और ७ में प्रकाशित हुआ है। जिसका रडग्ण माननीय डा. माहबने अपने निबन्धमें डा. साहबके निबन्धका मारांश यह है कि अमज्ञी लिया है और जिसमें केन्द्रिय आदि समस्त प्रमंशी जीवोंके माने जाने वाले एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, वीन्द्रिय, चतुरिन्द्रय भी तरतम भावसे मनकी सत्ताको स्वीकार किया गया है, और पंचेन्द्रिय तिथंचोंके जब मति और श्रुत दोनों ज्ञानोंका __ करीब २० वर्ष पहले मेरे भी देखने में पाया था लेकिन उससे मद्भाव जैन श्रागममें स्वीकार किया गया है तो निश्चित ही भी मेरे उक्त प्रश्नका उचित समाधान नहीं होता है। क्योंकि उन सभी जीवोंके मनका सद्भाव सिद्ध होता है कारण कि अमजी जीवोंके मनके प्रभावमें लब्धिरूप श्रुतज्ञानकी सत्तामति और श्रत ये दोनों ही ज्ञान मनकी सहायताके बिना को स्वीकार करने और उनके ईषत्-मनका सद्भाव स्वीकार कि.गे भी जीवके सम्भव नहीं हैं। करके उपयोगरूप श्रुनजानकी सत्ता स्वीकार करने में असंभी नककी प्रचलिन दि० पागम परंपरा यह है कि तोषप्रद स्थितिका विशेष अन्तर नहीं है। निन जीदोंके मनका सद्भाव पाया जाता है वे जीव मंज्ञी चूंकि डा. माहबने उक्र विषयमें अपने विचार लिपि और जिन जीवोंके मनका सद्भाव नहीं पाया जाता है वे बद्ध किये हैं अतः इस विषय पर मेरे अब तकके चिंतनका जीव अमंझी कह जाते हैं परन्तु माननीय डा. साहबने जो निष्कर्ष है उसे मैं भी विद्वानोंके समक्ष उपस्थित कर देना मंशी जीवोंके साथ असंज्ञो जीवोंका अन्तर दिग्वलानेके लिये उचित समझता हूँ। अमनम्क शब्दका मनरहित अर्थ न करके 'ईषत् मन वाला' जानकी उत्पत्ति दो प्रकारसे सम्भव है-स्वापेक्ष और अर्थ किया है। परापेक्ष । अवधि, मनःपर्यय और केवल इन तीनोंकी माननीय डा. साहबने अपने उक्त विचारोंकी पुष्टि उत्पत्ति स्वापेक्ष मानी गई है तथा मति और श्रुत इन दोनों आगमके कतिपय उद्धरणों और युक्रियों द्वारा की है। ज्ञानोंकी उत्पत्ति परापेक्ष मानी गई है। यहाँ पर शब्दसे इन्द्रियजन्य सभी प्रकारके मतिज्ञानमें मनकी सहायता मुख्यतया स्पर्शन, ग्सना, नासिका, नेत्र और कणं ये पांच अनिवार्य है-यह विचार न तो आज तक मेरे मनमें उठा द्रव्य-इन्द्रियां और द्रव्यमन ग्रहीत होते हैं। और न अब भी मैं इस बातको माननेके लिये तैयार हैं परंतु मनिज्ञानका प्रारम्भिक रूप अवग्रह शान है और अनुममचे जैनागममें अमज्ञी जीवोंके श्रुतज्ञानकी पत्ता मान उस मतिज्ञानका अन्तिम रूप है। मतिज्ञानका अंतिम म्वीकार करनेमे मेरे मनमें यह विचार सतत उत्पन्न होता रूप यह अनुमान ज्ञान श्रुतज्ञानकी उत्पत्तिमें कारण होता है। रहा कि श्रुतज्ञान, जो कि मनके अवलम्बनसे ही उत्पन्न होना अागमके 'मतिपूर्व श्रुतम्' इस वाक्यसे भी उन बातका समर्थन , है, मन रहित असंज्ञी जीवोंके कैसे सम्भव हो सकता है? होता है। प्रायः वर्तमान समयके सभी दि० विद्वान् अमंजी जीवोंके किमी एक घट शब्दमें गुरु द्वारा घट रूप अर्थका सकेत मनका प्रभाव निश्चित मानते हैं इसलिये उनक (श्रमज्ञी ग्रहण करा दनके अनन्तर शिष्यको सतत घट शब्द श्रवणके जीवोंके) भागममें स्वीकृत श्रुतज्ञ'नकी सत्ता स्वीकार करके अनन्तर जो घटेरूप अर्थका बोध हो जाया करता है वह बोध भी वे विरोधका परिहार इस तरह कर लेते हैं कि श्रमज्ञी उम शिष्यको अनुमान द्वारा उस घट शब्दमें घट रूप अर्थका जीवोंके मनका अभाव होनेके कारण लब्धिरूप ही श्रुतज्ञान संकेत ग्रहण करनेपर ही होता है अतः अनुमानकी श्रुतज्ञानपाया जाता है क्योंकि उपयोगरूप श्रुतज्ञान मनक मदाबके की उत्पत्तिमें कारणता स्पष्ट है और चूंकि अनुमान मनिविना उनके (अमझी जीवोंके) संभव नहीं है। ज्ञानका ही अंतिम रूप है अत: 'मतिपूर्व श्रुतम्' ऐसा निर्देश दि.विद्वानोंका उक्त निष्कर्ष मुझे संतोषप्रद नहीं आगममें किया गया है। Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८] अनेकान्त [वर्ष १३ - कई लोगोंका ख्याल है कि 'जब अर्थसे अर्थान्तरके होता है परन्तु इतना विशेष है कि किसी-किसी ज्ञानमें तो बोधको श्रुतज्ञान कहते हैं तो श्रुतज्ञानको अनुमान ज्ञानसे पदार्थका दर्शन कारण होता है और किसी-किसी ज्ञानमें पृथक् नहीं मानना चाहिये' परन्तु उन लोगोंका उक्त ख्याल पदार्थका दर्शन कारण न होकर पदार्थ ज्ञानका दर्शनकारण ग़लत है। क्योंकि मैं ऊपर बतला चुका हूँ कि श्रुतज्ञानमें होता है, जिन ज्ञानों में पदार्थका दर्शन कारण होता है उन अनुमान कारण है अतः अनुमान ज्ञान और श्रुतज्ञान दोनों ज्ञानोंमें पदार्थ स्पष्टताके साथ झलकता है। अतः वे ज्ञान एक कैसे हो सकते हैं? विशद कहलाते हैं और इस प्रकारको विशदताके कारण हो जिस प्रकार श्रुतज्ञानमें कारण अनुमानज्ञान है और वे ज्ञान प्रत्यक्ष ज्ञानकी कोटिमें पहुंच जाते हैं। जैसे-अवधि, अनुमानज्ञानके अनन्तर ही श्रुतज्ञान उत्पन्न होता है उसी मनःपर्यय और केवल ये तीनों स्वापेक्षज्ञान तथा स्पर्शन, रसना, प्रकार अनुमानज्ञानमें कारण तर्कज्ञान होता है और तर्कज्ञान- नापिका, नेत्र और कर्ण इन पांच इन्द्रियोंसे होने वाला के अनन्तर ही अनुमानज्ञानको उत्पत्ति हुना करती है इसी पद र्थज्ञान तथा मानस प्रत्यक्ष ज्ञान । एवं किन ज्ञानोंमें तरह तर्कज्ञानमें कारण प्रत्यभिज्ञान, प्रत्यभिज्ञानमें कारण पदार्थका दर्शन कारण नहीं होता है अर्थात् जो ज्ञान पदार्थस्मृतिज्ञान और स्मृतिज्ञानमें कारण धारमा ज्ञान हुआ करता दर्शनके प्रभाव में ही पदार्थज्ञानपूर्वक या यों कहिये कि पदर्थ है तथा तर्कज्ञानके अनतर ज्ञानकी उत्पत्तिके समान ही प्रत्य- ज्ञानदर्शनके सदभावमें उत्पन्न हुश्रा करते हैं उन ज्ञानों में भिज्ञानके अनन्तर ही तर्कज्ञानकी, स्मृतिज्ञानके अनन्तर ही पदार्थ स्पष्ठताके साथ नहीं झलक पाता है अत: वे ज्ञान प्रत्यभिज्ञानकी और धारणाज्ञानके अनन्तर ही स्मृतिज्ञानको प्रविशद कहलाते हैं और इस प्रकारकी अविशदताके कारण उत्पत्ति हुआ करती है। ही वे ज्ञान परोक्षज्ञानको कोटिमें चले जाते हैं जैस-स्मृति, इस प्रकार श्रुतज्ञानकी तरह उक प्रकारके मतिज्ञानों में प्रत्यभिज्ञान, तर्क व अनुमान ये चारों मतिज्ञान तथा श्रुतज्ञान। भी मतिज्ञानकी कारणता स्पष्ट हो जाती है क्योंकि अनुमान यहाँ पर यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि दर्शन तर्क, प्रत्यभिज्ञान, स्मृति और धारणा ये सभी ज्ञान मति और ज्ञानमें जो कार्यकारण भाव पाया जाता है, वह सहज्ञानक ही प्रकार मान लिये गये हैं 'मतिः स्मृतिः संज्ञा भावी है इसलिए जब तक जिस प्रकारका दर्शनोपयांग विद्यचिन्ताभिानबोध इत्यनन्तरम्' इस अगमवाक्यमें मतिक मान रहता है तब तक उसी प्रकारका ज्ञानोपयोग होता रहता अर्थमें 'अवग्रहहावायधारणाः' इस सूत्र वाक्यनुसार धारणा है और जिम क्षणमें दर्शनोपयोग परिवर्तित हो जाता है उसी का अन्तर्भाव हा जाता है तथा प्रत्यभिज्ञानका ही अपर नाम । क्षणमें ज्ञानोपयोग भी बदल जाता है 'दंसणपुच्वं गाणम्' संज्ञाको, तर्कका ही अपर नाम चिन्ताको और अनुमानका इस आगम वाक्यका यह अर्थ नहीं है कि दर्शनोपयोगके ही अपर नाम अभिनिबोधको माना गया है। अनन्तरकालमें ज्ञानोपयोग होता है क्योंकि यहाँ पर पूर्व यहाँ पर इतना और ध्यान रखना चाहिये कि जब शब्द ज्ञानमें दर्शनकी सिर्फ कारणताका बोध करानेके लिये स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क और अनुमान इन सब प्रकारके ही प्रयुक्र किया गया है जिसका भाव यह है कि दर्शनक मतिज्ञानोंमें तथा श्रुतज्ञानमें पदार्थका दर्शन कारण न होकर बिना किसी ज्ञानकी उत्पत्ति सम्भव नहीं है। यथायोग्य ऊपर बतलाये गये प्रकारानुसार पदार्थज्ञान अथवा यों कहिये कि पदार्थज्ञानका दर्शन ही कारण हुअा करता है इस कथनसे छमस्थजीवों में दर्शनोपयोग और शानोपअतः ये सब ज्ञान- परोक्षज्ञानको कोटिमें पहुंच जाते हैं क्यों योगके क्रमवीपनेकी मान्यताका खण्डन तथा केवलीके कि पदार्थदर्शनके प्रभावमें उत्पन्न होनेके कारण इन सब समान ही उनके (वयस्थोंक) उन दोनों उपयोगोंके यौगपद्य का समर्थन होता है। ज्ञानोंमें विशदताका प्रभाव पाया जाता है जबकि 'विशदं प्रत्यक्षम्' श्रादि वाक्यों द्वारा आगममें विशद ज्ञानको ही इस विषयके मेरे विस्तृत विचार पाठकोंको भारतीय ज्ञानप्रत्यक्षज्ञान बतलाया गया है यहाँ पर ज्ञानकी विशदताका पीठसे प्रकाशित होने वाले ज्ञानोदय पत्रके अप्रेल सन् १९५० तात्पर्य उसकी स्पष्टतासे है और शानमें स्पष्टता तभी आ के अंकों प्रकाशित 'जैन दर्शनमें दर्शनोपयोगका स्थान' शीर्षक सकती है जबकि वह ज्ञान पदार्थदर्शनके सजावमें उत्तम हो। लेखरों तथा जून १७ के अंकमें प्रकाशित 'ज्ञानकं प्रत्यक्ष और तात्पर्य यह है कि यद्यपि प्रत्येक ज्ञानमें दर्शन कारण परोक्ष भेदोंका आधार' शीर्षक लेखमं दखनेको मिल सकते हैं। Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ] क्या असंज्ञी जीवोंके मनका सद्भाव मानना आवश्यक है ? [२२६ अस्तु ! ऊपर जो स्मृतिमें कारणभूत धारणाज्ञानका संकेत होता है। किया गया है वह धारणाज्ञान चू कि पदार्थ दर्शनके सद्भाव २-इन्द्रियों अथवा मन द्वारा होने वाला पदार्थ प्रत्यक्ष या में ही उत्पन्न होता है अतः वह ज्ञान प्रत्यक्षज्ञानकी कोटिमें तो सोधा धारणारूप होता है। अथवापहुँच जाता है। तथा इस धारणाज्ञानके अतिरिक्त इमके ३-अवग्रह पूर्वक धारणारूप होता है । अथवापूर्ववर्ती श्रवाय, इहा और अवग्रहज्ञान भी चूँ कि पदार्थ ४–पंशयात्मक अवग्रहण होनेके अनन्तर यथायोग्य साधन दर्शनके सद्भावमें ही उत्पन्न हुआ करते हैं अत: ये तीनों मिलने पर धारणारूप होता है । अथवाज्ञान भी प्रत्यक्षज्ञानकी कोटि में पहुँच जाते हैं। ५-संशयात्मक अवग्रहणके अनन्तर यथायोग्य साधनोंके यहाँ पर इतना विशेष समझना चाहिए कि वाय, ईहा मिलने पर उसकी अवायामक स्थिति होती है और और प्रवाह ये तीनों ज्ञान यद्यपि धारणाज्ञानके पूर्ववर्ती होते तदनन्तर वह धारणारूप होता है । अथवाहैं परन्तु इनका धारणाज्ञानके माथ कार्यकारण सम्बन्ध नहीं ६-संशयात्मक अवग्रहणके अनन्तर यथायोग्य साधनोंके है अर्थात् जिस प्रकार पूर्वोक्न प्रकारसे धारणा आदि ज्ञान मिलने पर उसकी ईहात्मक स्थिनि होती है और तब स्मृति श्रादि ज्ञानों में कारण होते हैं उस प्रकार धारणाज्ञानमें वह धारणारूप होता है । अथवाअवाय अादि ज्ञानोंको कारण माननेको अावश्यकता नहीं है -ईहाके बाद आवायात्मक स्थिति होकर वह धारणारूप क्योंकि ऐमा कोई नियम नहीं है कि धारणाज्ञानके पहले होना है। इस प्रकार ऐन्द्रियिक पदार्थ प्रत्यक्षके धारणा अवाय आदि ज्ञान होना ही चाहिये। रूप होनमें ऊपर लिखे विकल्प बन जाते हैं और इन तात्पर्य यह है कि कभी कभी हमारा ऐन्द्रियिकज्ञान सब विकल्पोंके साथ पदार्थदर्शनका सम्बन्ध जैसाका तैसा अपनी उत्पत्ति के प्रथमकालमें ही धारणारूप हो जाया करता बना रहता है लेकिन जिस समय और जिस हालतमें है अत: वहाँ पर यह मेद करना असम्भव होता है कि ज्ञान पदार्थका दर्शन होना बन्द हो जाता है उसी समय को यह हालत तो अवग्रहज्ञानरूप है और उसकी यह हालत और उसी हालन है पदार्थ प्रत्यक्षकी धारा भी बन्द हो धारणारूप है । कभी २ हमारा ऐन्द्रिक ज्ञान अपनी उत्पत्ति जाती है इस तरह कभी तो ऐन्द्रियिक पदार्थ प्रत्यक्षके प्रथमकालमें धारणारूप नहीं हो पाता, धीरे-धीरे काला धारणरूप हो कर ही समाप्त होता है और कभी-कभी न्तरमें ही वह धारणाका रूप ग्रहण करता है इसलिए जब यथायोग्य अवग्रह, संशय, ईहा या अवायकी दशामें ही तक हमारा ऐन्द्रियिक ज्ञान धारणा रूप नहीं होता, तब तक वह समाप्त हो जाना है। वह ज्ञान अवग्रहज्ञानकी कोटि में बना रहता है। यदि कदा- इस विवेचनस यह बात भी स्पष्ट हो जाती है कि जिस चित् हमारा ऐन्द्रियिक ज्ञान किन्हीं कारणोंकी वजहसे संशया- प्रकार धारणा प्रत्यक्षसे लेकर परोक्ष कहे जाने वाले स्मृति, स्मक हो जाता है तो निराकरणके साधन उपलब्ध हो जानेपर प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और श्रुतरूप ज्ञानोंमें नियत, संशयके निराकरण कालमें ही वह ज्ञान धारणा रूप नहीं हो प्रानन्तयं पाया जाता है उस प्रकार प्रत्यक्ष कहे जाने वाले जाया करता है । कदाचित् संशयके निराकरण कालमें वह ज्ञान अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा रूप ज्ञानोंमें पानन्तर्य धारणा रूप नहीं हो सका तो जब तक वह ज्ञान धारणारूप नियत नहीं है तथा यह बात तो हम पहले ही कह आये हैं नहीं होता तब तक उसकी अवायरूप स्थिति रहा करती है। कि अवग्रह, ईहा, अवाय ओर धारणा इन चारों प्रकारके कभी कभी संशय निराकरणके साधन उपलब्ध होने पर भी प्रत्यक्षज्ञानों में उत्तरोत्तर कार्यकारण भावका सर्वथा अभाव यदि संशयका पूर्णतः निराकरण नहीं हो सका तो उस हाल- ही रहता है। तमें हमारा वह ज्ञान ईहात्मक रूपधारण कर लेता है और इन पूर्वोत्र प्रत्यक्ष और परोक्ष सभी ऐन्द्रियिक ज्ञानोंमें कालांतरमें यह ज्ञान या तो सोधा धारणारूप हो जाया करता से एकन्द्रियस लेकर पंचेन्द्रिय तकक समस्त अरुंजी जीवोंके है अथवा पहले अवायात्मक होकर कालांतरमें धारणरूप होता पदार्थका केवल अवग्रहरूप प्रत्यक्ष ज्ञान स्वीकार किया जावे है इस तरह ज्ञानके धारणारूप होने में निम्न प्रकार बिकल्प और शेष प्रत्यक्ष कहे जाने वाले ईहा, अवाय और धारणाखड़े किए जा सकते हैं ज्ञान तथा परोक्ष कहे जाने वाले स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तक, १-पदार्थ दर्शनकी मौजूदगीमें ही उस पदार्थका प्रत्यक्ष अनुमान और श्रतज्ञान उन अमंशी जोवोंके न स्वीकार किये Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३०] अनेकान्त (वर्ष १३ जायें जैसा कि बुद्धिगम्य प्रतीत होता है तो इनके (असंही स्वसंवेदी होता है । ज्ञानकी यह स्वसंवेदना प्रकाशमें रहने जीवोंके ) ईषत् मनको कल्पना करनेको आवश्यकता ही वाली स्वप्रकाशकताके समान है। अर्थात् जिस प्रकार प्रकाश नहीं रह जाती है और तब संज्ञी तथा असंज्ञी जीवोंकी को अपना प्रकाश करने के लिये दूसरे प्रकाशकी आवश्यकता 'जिनके मनका सद्भाव पाया जाता है वे जीव मंज्ञी, तथा नहीं होती है उसी प्रकार ज्ञानको अपना प्रकाश करने (ज्ञान जिनके मनका सद्भाव नहीं पाया जाता है ये जीव असंज्ञी कराने) के लिये दूसरे ज्ञानकी आवश्यकता नहीं रहती है। कहलाते हैं। ये परिभाषायें भी सुसंगत हो जाती है। ज्ञानका यह स्वसंवेदन ही एकेन्द्रिय आदि सभी असंज्ञी इतना स्वीकार कर लेने पर अब हमारे सामने यह जीवोंको प्रवृत्ति और निवृत्ति रूप समस्त क्रियाओं में प्रेरक मुख्य प्रश्न विचार के लिए रह जाता है कि जब अमंज्ञो हा करता है अतः इनकी (अमंज्ञी जीवोंकी) उक प्रवृत्तिजीवोंके मनका सद्भाव नहीं है ना केवलियोंके अतिरिक्र. निवृत्ति रूप क्रियाओं के लिये कारण रूपसे उन जीवोंके अतिपंचेन्द्रियसे लेकर एकेन्द्रिय तक ममम्त संपारी जीवोंके रिक श्र तज्ञानका सदभाव माननेकी आवश्यकता ही नहीं रह मति और श्रुत दोनों ज्ञानोंकी मत्ता बतलानेका कारण जाती है जिसके लिये हमें उनके ईषत् मनकी कल्पना करनेके क्या है? लिये बाध्य होना पड़े। इसका उत्तर यह है कि जैन संस्कृति में वस्तु विवेचनके मेरा ऐसा मत है कि करणानुयोगकी श्रागमिक पद्धतिमें विषयमें दो प्रकारकी पद्धतियों अपनायी गयी हैं-एक तो उक्त स्वसंवेदन ज्ञानको ही संभवतः श्र तज्ञान शब्दसे पुकारा करणानुयोगकी आगमिक पद्धति और दूसरी द्रव्यानुयोगकी गया है। क्योंकि अर्थसे अर्थान्तरका ज्ञान रूप श्रुतज्ञानका दार्शनिक पद्धति । इनमेंसे जो द्रव्यानुयोगकी दार्शनिक लक्षण उसमें घटित हो जाता है। घट पदार्थका ज्ञान होनेके पद्धतिका श्रुतज्ञान है जिम्मका अपर नाम अगमज्ञान है और माथ जो घट ज्ञानका म्नमवेदन रूप ज्ञान हमें होता है यह जिमका कथन द्रव्ययशुनके रूपमें 'द्वयनकद्वादशभेदम् ' इस अर्थान्तर ज्ञान रूप ही तो है। यह स्व संवेदनरूप श्रुतज्ञान सन वाक्य द्वारा किया गया है अथवा जो वचनादि निबन्धन चकि इन्द्रियों द्वारा न होकर ज्ञानद्वारा ही हुआ करता है अर्थज्ञानके रूपमें प्रत्येक संज्ञी जीवके हुआ करता है-वह अतः श्रुतको अनिन्द्रियका विषय माननेमें कोई विरोध भी श्रतज्ञान असंज्ञी जीवोंके नहीं होता, यह बात तो निर्विवाद नीता राके है नब फिर इसके अतिरिक्र कौनमा ऐसा श्रुतज्ञान शेष रह ग्रनिन्द्रिय शब्दका "ज्ञान" अर्थ करने में भी कोई बाधा जाना है जिसकी सत्ता अमज्ञी जीवोंके स्वीकार की जावे। उपस्थित नहीं होती है। शंका-एकेन्द्रियादिक मभी असशी जीवोंकी भी तात्पर्य यह है कि द्रव्यानुयोगकी दार्शनिक पद्धनिमें जिम्म मज्ञी जीवोंकी तरह सुखानुभवनक माधनभूत पदार्थोका श्रु नका विवेचन किया जाता है वह तो मनका विषय होता ग्रहण और दुखानुभवनके माधनभून पदार्थोका वर्जन रूप है अत: इस प्रकरण में अनिन्द्रियको "अ" का ईषत् अर्थ जो यथा सम्भव प्रवृत्तियां देखनम पाती हे वे उनकी प्रवृत्तियां करके ममका बाची मान लेना चाहिये और करणानुयोगकी बिना श्रुतज्ञान सम्भव नहीं जान पड़ती हैं।। प्रागमिक पद्धतिमें जिम स्वसंवेदन रूप जानको श्रत नामसे प्रायः देखने में आता है कि चींटी मिठामजन्य सुग्वानु- ऊपर बनला पाये हैं वह ज्ञानका विषय होता है अतः उस भवन होने पर मीठे पदार्थको प्रार दौडकर जाती है और प्रकरणमें अनिन्द्रिय शब्दको '" का अर्थ निषेध उप्णताजन्य दुःखानुभवन होने पर अग्नि आदि पदार्थोस करके ज्ञानवाची मान लेना चाहिये। दूर भागती है इस प्रकार चींटीकी इस प्रवृत्ति अथवा निवृत्ति अमनस्क शब्दका "ईषत् मन वाला" अर्थ भी कुछ रूप क्रियाका कारण श्रु तज्ञानको छोड़कर दूसरा क्या हो अमंगत मा प्रतीत होता है। अर्थात् इन्द्रिय शब्दके साथ सकता है । अतः असंज्ञी जीवोंके अ तज्ञानकी पत्ता-भलेही अनिन्द्रिय शब्दका “ईषत् इन्द्रिय' अर्थ जितना उचित वह किसी रूपमें हो-मानना अनिवार्य है और इसीलिए प्रतीत होता है उतना समनस्क शब्द के साथ अमनस्क शब्दउनके ईषत् मनका सद्भाव म्बीकार करना असंगत नहीं माना का “ईषत् मन बाला" अर्थ उचित प्रतीत नहीं होता, जा सकता है। क्योंकि ममनस्क शब्दमें सह शब्दका प्रयोग मनकी मौजूदगीसमाधान-एकन्द्रियादिक मभी जीवोंका प्रत्येक ज्ञान के अर्थ में ही किया गया है अतः स्वभावतः अमनस्क शब्दमें Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ] क्या व्यवहार धर्म निश्चयका साधक है ? [२३१ "" का अर्थ मनकी गैर मौजूदगी ही करना चाहिये। है क्योंकि अमनस्क शब्दका जब हम "ईषित् मन वाला" दूसरी बात यह है कि अनिद्रिय शब्दके विशेषणार्थक अर्थ करेंगे तो स्वभावतः समनस्कशब्दका हमें "पूर्ण मनसंज्ञा होने की वजहसे उसका वाच्यार्थ मन होता है इसलिये वाला" अर्थ करना होगा लेकिन समनस्क शब्दका "पूर्ण जिस प्रकार इन्द्रिय शब्दके माथ अनिन्द्रिय शब्दके प्रयोगमें मन वाला" अर्थ करना क्लिष्ट कल्पना ही कही जा सामंजस्य पाया जाता है उस प्रकार अमनस्क शब्दका सकती है। "ईषित् मम वाला" अर्थ करके समनस्क शब्दके साथ बोना, ता. २६।२।५५ उसका (अमनस्क शब्दका) प्रयोग करनेमें सामजस्य नहीं क्या व्यवहार-धर्म निश्चयका साधक है ? ( जिनेन्द्रकुमार जैन ) व्यवहार तथा निश्चय-धर्म नाम निर्देश :- प्र० मा०५, पंचास्तिकाय६, तथा मोक्षमार्गप्रकाश श्रादि सर्व दया, दान, सद्देव गुरु शास्त्रकी पूजा, भकि, शील, प्रन्थों में इन क्रियाओंको जो-जो उपाधिये प्रदान की गई हैं ययम, तप, अणुव्रत, महावत, समिति, गति प्रादि सर्व वह विद्वद्जनोंकी दृष्टिस श्रोझल नहीं है। यदि कहा जाय बाह्य क्रियायें, व्यवहार धर्म है, निश्चयके साधन हैं, हेतु कि यह सब मज्ञायें नो अज्ञानीकी क्रियाओंके लिए हैं तो है, सहायक है, मित्रवत् है इत्यादि अभिप्राय सचक वाक्योंकी ठीक है। परन्तु यह तो भूल नहीं जाना चाहिये कि ज्ञानोकी जैनागममें कमी नहीं है। यह बात कौन नहीं जानता। क्रियाय नो निम्न प्रकार हेयोपादेय बुद्धि सहित ही होती इसलिये मप्रमाण इनको सिद्ध करनेका प्रयत्न व्यर्थ ही है। हैं। निरपेक्ष नहीं। अतः उन क्रियाओंका अर्थ ग्रहण जिसे दूसरी ओर इस प्रकारके प्रमाणोंकी भी कमी नहीं कि जिनमें उस रूपमें हुअा हो उसीकी उन क्रियाओं को व्यवहार धर्म इन बाह्य क्रियाओंको निरर्थक, व्यवहाराभाम, चारित्रामाम कह सकते हैं, मब हो को क्रियाश्रांको नहीं। आदि मज्ञायांस अलकृत करके म्यवं श्राश्रय रूप स्वात्मानु- क्या पूर्वापर विराध है ? भूतिमें ही दृढ़ रहनेका उपदेश है। जैसे मूलाचार गा० १०. एक ही प्राचार्य प्रणीत एक ही ग्रन्थमें भिन्न-भिन्न में सम्यक्त्व रहित उपरोक्र क्रियाओंको निरर्थक कहा है।। स्थलोंपर इस प्रकारकी दो विरोधी बातोंसे क्या पूर्वापर म. सा. गा० ४११ की टीकामें इन क्रियाओंका छोड़ देने विरोधका ग्रहण होना स्वप्नमें भी सम्भव है? ऐसा कदापि नकका भी भगवान अमृतचन्द्राचार्यका आदेश है। । हो ही नहीं सकता कि सर्वज्ञ भाषित जिनागममें इस प्रकारका अात्मानुशासन गा. 14 में इन्हें भार बताया है३ । लाटी- विगंध आये । शब्दोंम विगंध देखते हुए भी इन दोनों ही संहितामें विना स्वा मानुभृति श्रुत मात्र तत्वार्थ श्रद्धान तथा मन्तव्यों में किञ्चित भी भेद नहीं है। कंवल कथन शैली में व्रतादि क्रियाओंको मिथ्यात्वकी कोटिमें गिनाया है। । अन्तर है। एक चरणानुयोगकी मुग्व्यनासे कहा गया है और । ज्ञानं करणविहान, लिगग्रहणंच संयमविहीनं । दृमरा द्रव्यानुयोगकी मुग्व्यतासे । परन्तु इनमें परस्पर क्या दर्शनहिनं च तपः यः करोति निरर्थकं करोति।मू.गा... सम्बन्ध है यह केवल ज्ञानी जन ही जान सकते हैं अज्ञानी २ ततः समस्तमपि दलिग त्यक्त्या दर्शनज्ञानचाारने चैत्र तत्वानुगतप्पाच्छुद्धा नानुपलब्धितः ॥६६॥ माक्षम र्गत्वात् आत्मा योकव्य इति सूत्रानुमतिः । भवाशनिको नूनं सम्यक्त्वेन युतो नरः । प्रान्मख्याति टीका गा० ४१३ दर्शनप्रनिमाभामः क्रियावानऽपि तद्विना ॥१२॥ ३ शमबांधवृत्तापमा पाषाणस्यव गौरवं पुसः । लाटोसंहिता १०३ पूज्यं महामणेरिव तदेव सम्यक्त्व संयुक्त प्रात्मानुशासन १५ ५ अथ आत्मज्ञानशून्यं प्रागमज्ञानतत्वार्थश्रद्धानसंयतत्वयोग४ स्वानुभूति विनाभापाः नार्थादच्छुद्धादयो गुणाः । पद्यमपि अकिचित्करमेव । प्रसा. टोका गा०२३६ बिना स्वानुभूति तु या श्रु मात्रतः । ६ ततः खल्वहंदादिगताप रागं चन्दननगसङ्गतमाग्निमिव Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० अनेकान्त [वर्ष १३ नहीं। इनमेंसे किमी एक अंगको ग्रहण करते हुये ज्ञानी जन अपनी सर्व शक्तिको दुरुपयोग कर रहे हैं। आजसे लगभग तत्सापेक्ष अन्य अंगको एक क्षणके लिये भी भूल नहीं पाते। ३०० वर्ष पूर्व श्वेताम्बराचार्य श्रीयशोविजयजी, उस समय पर जो इनमेंसे अपनो इच्छास किसी एक अंगको पकड कर दिगम्बर समाजमें दृढ स्यादवाद रूप सापेक्षताके प्राकारको क्वल उसके मात्रपरसे लेखक या वक्राके अभिप्रायका मिथ्या दिगम्बर समाजकी भृल सूचित करते हुए, “निश्चय नय - अनुमान लगाकर एकान्तरुप अग्निमें पुण्यरूप राखका ग्रहण पहिले कहें पीछे ले व्यवहार । भाषाक्रम जाने नहीं, जैन करनेके लिये यथार्थ श्रान्म स्वभावरूप रन्नको भस्म करनेमें, ममका सार" इत्यादि रूप जो कुछ लिख गये हैं, बड़े खेदकी निरपेक्ष अर्थको ग्रहण कर मिथ्या मार्गको पकड़नेमें और उस बात है कि उस ही को अपनी भूल स्वीकार करके यथार्थ अपनी कल्पनाको जिन प्रणीत मार्ग मानकर अपनी गणना मार्गका वर्जन करनेमें अर्थात् निश्चयसे पहिले व्यवहारको व्यवहार सम्यग्दृष्टिको श्रेणी में करनमें, नथा भगवान प्रात्माकी मुग्व्य रुप स्थापित करक यशोविजयजीके मतानुयायी बनकर रुचिस उन्मुख स्वयं ही निजाम हननके कारण बननेमें संतुष्ट अाज साधारण दिगम्बर समाज मिथ्यात्वमें सम्यक्त्वकी हो रहे हैं, ऐसे प्रात्मा प्रति नकार करनेवालोंमें वर्तमानमें रूपरेखाके दर्शन करने लगी है। व्यवहाराभाषियों की संख्या ही विशेष ध्यान देने योग्य है। हमारे 'व्यवहार करते-करते निश्चय हो जायेगा' इसको ही दोनों उपरोक्त दोनों मन्तव्योंमें प्रथमको व्यवहार और दृमरेको अंगोंकी सापेक्षता कहकर मात्र एकान्तकी पुष्टि करने वाले निश्चय मंज्ञायें अर्पित की गई हैं। जो केवल शाब्दिक ऐसे उभयावलम्बी अंधकाग्में भटके हुये भव्य जीवोंको नहीं बल्कि मार्मिक है । यह ठीक है कि परस्पर माक्षेप दो प्रकाश दर्शानेकी आवश्यकता है। विरोधी धर्मोको बारी-बारीसे अपनी-अपनी अपेक्षा मुख्य ऐसी भ्रमपूर्ण धारणासे सावधान करते हुए परम कृपालु गौण करके कथन करनेकी पद्धतिका नाम स्याद्वाद या प्राचार्य भगवन्तोंने प्र०मा० गा २६६४ तथा भावपाहुड अनेकान्तवाद है । जिस प्रकारसे निश्चयको धर्म कहा है गा० ८३ टीकामें ऐसे साध्वाभपियों तथा जेनाभामियोंको बिल्कल उसी प्रकारसं यदि व्यवहारको भी धर्म माना लौकिक जनों तथा अन्य मतियोंकी कोटि में बिठाकर, इस जायगा तो निश्चय और व्यवहारमें कुछ भेद रहेगा नहीं। प्रकारकी कोरी बाह्य क्रियाओंमें अपने पुरुषार्थको व्यर्थ न सिलिये यह माव्यता गौमाता कथन करनमें ही भिन्न-भिन्न खोनेका आदेश किया है। वत्राकी विवक्षाओंके कारण पा सकती है परन्तु अर्थ ___ फिर इन दोनों परम्पर विरोधी भामने वाले वाक्योंका ग्रहण करनेमें नहीं । अर्थ ग्रहण करनेमें तो जो अंग नियत अर्थ कैसे किया जाये। इस मकटमें, आज नक अनेक प्रकार- रूप से हेय हैं वह हय ही रहता है और जो उपादेय है की क्षतियों तथा विपत्तियोंसे जैन शामनकी रक्षा करके उसका उपादय रूपमें ही ग्रहण होना है। अपनी इच्छासे उसे अचल रूपमें स्थायी रखने वाला वह अनुपम स्याद्वाद- अन्यथा ग्रहण नहीं किया जा सकता । यदि ऐसा न होता चक्र ही महायक हो सकता है। पर आश्चर्य है कि आज तो पंचाध्यायीकारको 'निश्चय ही उपादेय है अन्य सब उस अमूल्य रत्नकी परख खो बैठनेक कारण जैन भी उपरोक हेय है। ऐमा नियम करनेकी आवश्यकता न पड़ती। मिथ्या सापेक्षता रूपी बनावटी पापानको अपनानेमें अपना --- गौरव मानने तथा उस अतुल निधानका तिरस्कार करनेम युक्रि और श्रागम दोनोंसे अविरुद्ध अस्तित्व नास्तिन्त्र आदि एक दुसरेके प्रतिपक्षी अनेक धर्मोके स्वरूपको ..."समस्तविषयमपि गगमुन्सृज्य । पंचास्तिकाय '७२. निरूपण करने वाला सम्यगनेकान्त है। xसंयमतपोभारोऽपि मोहबहुलनया श्लथीकृत शुद्धचेतनव्यव राज. वा. ११६ हारो मुहर्मनुप्यन्यवहारण व्याघूर्णमनन्वादेहिककर्मानिवृती विवक्षितो मुख्य इतीप्यतेऽन्यो, गुणो विवक्षो न लौकिक इन्युच्यने । प्र०मा० सन्वदीपिका टीका गा. २६६ निरान्मकस्ते॥ स्वयंभृस्तोत्र ॥५३॥ लौकिक जन तथा अन्य मनि कई कहै है जो पूजा अादि x स्वयमपि भूतार्थत्वादभवति स निश्चयनयो हि सम्यक्त्वम् । शुभ क्रिया तिनि विर्ष श्रर व्रत क्रिया महित है सो धर्म है अविकल्पवदतिवागिव स्यात् अनुभवैकगम्यवाच्यार्थः । सो ऐसे नाहीं है। भा.पा. गा. ८३ टीका यदि वा सम्यग्दृष्टिस्तदृष्टिः कार्यकारी स्यात् तस्मान् । - - - - - - Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण क्या व्यवहार निश्चयका साधक है ? [२२३ • प्रमाण ज्ञान पर्व अंशोंकी उन उनके रूपमें युगपत निश्चय अंशक', कारणमें कार्यका उपचार करके, साधन ग्रहण करता है। पर इन अंशोंमें सर्व ही उपादेय या सर्व कहा जाता है । पर इसका यह अर्थ नहीं कि जिसे सम्यक्त्व हो हेय नहीं हुअा करते। इन मब अंशोंमें स्वाभाविक प्रगटा नहीं, उसके प्रति रुचि उत्पन्न हुई नहीं, उसको अंशों रूप उपादय ऐसे सद्भुत नयके विषय तथा विभाविक समझनेका भी प्रयास जो वर्तमानमें करता नहीं, 'निश्चयकी अंश रूप हेय ऐसे श्रमदभूत नयके विषय.दोनों ही मम्मिलित कथनी' इतना कह कर उसे छोड़ देता है ऐसे अज्ञानीको होते हैं। ज्ञान मबको युगपत जानता है। परन्तु सबको भी उन क्रियाओंको माधन या व्यवहार कहा जाये। क्योंकि ही उपादय नहीं मान लेता । ज्ञान अर्थात् जानना एक भूत नैगमनय कार्य प्रगट हो जाने पर और भावी नैगमनय बात है और मम्यक्त्व अर्थात यथार्थ हेयोपादय बुद्धि, इमरी आंशिक कार्य देव कर भविष्यमें पूर्ण हो जानेका निश्चय हो बात । सम्यक्च सद्भूत अर्थात निश्चय ही विषयको ग्राह्य जाने पर ही लाग होती है। जिन शुभ क्रियाओंके पीछे मानता है, अमद्भूत अर्थात् व्यवहार या उपचारक विषयको मिथ्यात्व होना पड़ा हो उन्हें सम्यक्त्व या धर्मका उपचारसे हेय रूपमे अंगीकार करता है। यदि इन दोनोंमें इस प्रकार भी साधन नहीं कहा जा सकता। इस विषम व्याप्तिके का हेयोपदिय रूप भेद न हो और दोनों ही समान रूपसे कारण यह दोनों क्रमवर्ती अंश ग्रहण नहीं किये जा सकते। धर्म हों तो इनको भिन्न-भिन्न नयोंका विषय न बनाया यदि ऐसा किया जाये तो द्रव्य लिंगीको मोक्ष होनेका प्रसंग जाये । ज्ञानमें ग्रहण करनेकी अपेक्षा यद्यपि दोनों समान हैं भाजाये। इस हानिके कारण इस प्रकारकी मान्यताको उपचार पर चारित्रमें प्राचरंजेकी अपेक्षा निश्चयको मदा मुख्य तथा या व्यवहार भी नहीं कहा जा सकता। क्योंकि उपचार व्यवहारको मदा गोगा ही समझना चाहिए। क्योकि व्यव- किमी लाभदायक प्रयोजनकी सिद्धि के लिये ही किया जाता है हारनय म्याग करने योग्य है पर अनुमरने योग्य नहीं है। हानिकारक प्रयोजनके लिये नहीं। जैसे कि जीवको दहके नय सम्यग्ज्ञानका अंश है चरित्रका नहीं । इसलिए प्रवृत्तिमें कारण वर्णादिमान कहना कोई उपचार नहीं हो सकता । नयका प्रयोजन ही नहीं है । यही समीचीन सापेक्षता है। वास्तवमें सम्यक्त्व उत्पन्न हो जाते ही, तत्क्षण चारित्रमें व्यवहारको धर्म कहनेका प्रयोजन भी आंशिक वीतरागता (स्वरूपाचरण) प्रगट हो जाती है। यह व्यवहार तथा निश्चय एक धर्मीक दो अंश दो यही रत्नत्रयकी एकता है। पर अल्पशक्तिके कारण उस वीतप्रकारसे हो सकते है । एक क्रमवर्ती तथा दूसरा यहवर्ती। गगताके साथ वर्त रहे राग अंशके फलस्वरूप उसके द्वारा यह ठीक है कि सम्यक्त्व सन्मुख जीवको सम्यक्त्व प्रगटनेमै हट पूर्वक भी ग्रहण की जा रही वह बाह्य क्रियायें, उनके पूर्व शुभ रागरूप व्यवहार होता है और इसी कारण उसके प्रति अन्तरमें निषेध होते हुए भी, उसमें होती हैं। इसमें शकोभत नगमनयकी अपेक्षा उसर ममयमें प्रगटने वाले कोई दोष नहीं। क्योंकि स्वाभाविक वीतराग अंशके साथनम्मान म उपादयो नापादयस्तदन्यनयवादः । माथ जो यह राग रुष विभाविक अंश या व्यवहार धर्म चाध्यायी पूर्वाद्ध ६२-६३०॥ रहता है उसकी हटको बराबर अपने अनन्त पुरुषार्थ द्वारा सत्यं शुद्धनयः श्रेयान् न श्रेयानितरो नयः । माधक जीव पीछे छोड़ना तथा निश्चय धर्ममें वृद्धि करता अपि न्यायबलादास्त नयः श्रेयानिवतरः। . चला जाता है । और एक दिन उस व्यवहारका मूलोच्छेद पंचाध्यायी उत्तरार्द्ध १३७॥ करके पूर्ण निश्चय धर्म तत्व प्रगट करता है। अतः इन - व्यवहारनयोपि म्लेक्छभाषास्थानीयत्वेन परमार्थ प्रति- दोनोंको महवर्ती अंशोंके रूपमें ही नियमसे ग्रहण किया जा पादकत्वादपज्यमनीयो, अथ च ब्राह्मणों न म्लेच्छितव्य मकता है। इसमें प्रति व्याप्ति प्रादि कोई भी दषण नहीं इतिवचनाद्व्यवहारनयो नानुमर्तव्यः । लग सकता। ___ससा. श्रात्मख्यानि गा.८ वीतरागता रूप निर्विकल्प, सूक्ष्म, अरुपी, वचनातीत, ।' प्रवृत्तिमें नयका प्रयोजन ही नहीं है। मो० मा.प्र.प्र. निश्चय व्यवहाराबलम्बी प्र.२ तद्वादोऽय यथा स्याज्जीवो वर्णादिमान इहास्तीति, यही भेद विज्ञान है, यही जिनशासनका सार है। इसलिये इत्युक्त न गुणः स्थापत्युत दोषस्तदेकबुद्धित्वात् । यही जैनधर्म है। (पंचाध्यायी पूर्वार्ध ५५५) Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ अनेकान्त [वर्ष १३ केवल अनुभव गम्य तथा दृष्टान्त रहिन उस निश्चय अंश- है। परन्तु इसका यह अर्थ कदापि सम्भव नहीं कि किसी का किसी मन्द वुद्धि या प्राथमिक शिष्यको परिज्ञान कराने जीवको व्यवहार क्रियाओं रूप धर्मका उपादेय रूप अंगीकार के लिये x उस अंशके सहवर्ती यह रूपी बाह्य क्रियायें तथा किसी अन्यको निश्चयका उपादेय रूप अंगीकार या किसी साधन पड़ती हैं। और साधनका नाम ही उपचार है+। तीसरको दोनों ही का उपादेय रूप अंगीकार समान रूपसे मोर जहां जो प्रयोजन निमित्त होता है वहां उपचार होता है और फलमें कारण या माधन हो सकता है। वह उपचार व्यवहारमें गर्मित है। मुख्यके अभाव में प्रयो- निश्चय मुख्य तथा व्यवहार सदा गोण होता है जन या निमित्त दशनिक लिवे उपचार प्रवतता है। अन्तरंग पंचाध्यायी उत्तरार्ध गा०८०६, कार्तिकेयानुप्रेक्षा गा. वीतरागतामें प्रवृत्ति बाह्य त्यागादि कार्योंमें साधन है । इस २७७+ तथा टीका ३११४ स्वयंभूस्तोत्र ५० आदि रूपसे तो निश्चय व्यवहारका माधन है तथा उपरोक प्रकार नियालेनेके पश्चात ( अर्थ ग्रहया निश्चयका ज्ञान करानेमें बाह्य व्यवहार साधन है। करते समय ) निश्चय सदा मुख्य तथा व्यवहार सदा गौण इस प्रकार एक दूसरेमें भिन्न-भिन्न अपेक्षाओंसे माध्य साधन ही होता है. बाह्य क्रियानोंको व्यवहार धर्म कहना सत्य है। भाव है। यही इन दोनोंका परस्परोपकारीपना या मैत्रित्व इसके अतिरिक्त नय समीचीन तभी कहला सकती है जब कि इत्यादि है। यही श्रीस्वयंभूस्तोत्र गा. ६१का ' अभिप्राय वह लक्षण कारण तथा प्रयोजन सहित ही ग्रहण की जाय। तस्मादवसेयमिदं यावदुदाहरणपूर्वको रूपः। प्रकृन विषयमें प्रथम अश असदभूत नयका विषय है । जिसतावान् व्यवहारनयस्तस्य निषेधात्मकस्तु परमार्थः॥ का कारण उस जीवकी विभाव परणति अर्थात् व्रतादिका (पंचाध्यायो पूर्वार्ध ६२५) हट पूर्वक अंगीकार है और इस प्रकारका पराश्रय रूप संकर xपरमार्थतस्त्वेक...स्वभाव-अनुभवतो न दर्शनं न ज्ञानं न दोषोंका सय करना ही इस नयके विषय रूप व्यवहार धर्मको चारित्रं, शायकैव एकः शुद्धः। प्रारमख्यातिटीका गा०७ जाननेका फल है (), १७लघुनयचक्र गा० ७७ 0 में भी तहि परमार्थ एवैको वक्तव्य इति चेत् । (इस शंकाका बाझ व्यवहारको बन्धका कारण जान अराधना कालमें अर्थात उत्तर गा.८ में दिया है) निश्चय धर्मरूप यथार्थ स्वभाव प्रगटानेके लिए गौण करनेको यथा नापि शक्योऽनार्योऽनार्यभाषां विना तु ग्राह्ययितुम् । ही कहा है। अर्थात विद्यमान रहते भी उस राग रूप व्यवतथा व्यवहारेण विना परमार्थोपदेशनमशक्यम् ॥ हार धर्म प्रति मदा हेयबुद्धिरूप अरुचि अन्तरङ्गमें रखनका स० सा० गा०८ - + अर्थो ज्ञेयज्ञायकसंकरदोषभ्रमक्षयो यदिवा। र तद्विधाऽथ च वात्सल्यं भेदात्स्वपरगोचरात । अविनाभावात् साध्य सामान्य माधको विशेषः स्यात । प्रधानं स्वान्मसम्बन्धिगुणे यावत्परात्मनि ॥ पंचाध्यायी पूर्वार्ध ५४५ (पंचाध्यायी उत्तरार्ध ८०६) नो व्यवहारेण विना निश्चयसिद्धिः कृता विनिर्दिष्टा। + जण सहावेण जदा परिणद रुखम्मि तम्मयत्तादो। साधनहेतुर्यस्मात्तस्य च सो भणितो व्यवहारः॥ तप्यरिणाम साहदि जो विसयो सो वि परमत्यो । (वृ० नयचक्र २६५) (का० अनु० गा० २७७) अन्य वस्तुका अन्य वस्तुमें प्रारोपण करके प्रयोजन x अध्यात्मप्रकरणमें मुख्यका तो निश्चय कहा है और सिद्ध किया जाता है। वहां उपचार नय कहलाता है। गौणको व्यवहार कहा है। का. अनु० टीका ३। यह भी व्यवहारमें ही गर्भित है ऐसा कहा है। जहाँ जो : यस्तु बाह्य गुणदोषसूतेनिमित्तभ्यन्तरमूलहेतोः । प्रयोजन निमित्त होता है प्रहां उपचार प्रवर्तता है। अध्यात्मवत्तस्य तदंगभूतमभ्यन्तर केवलमप्यते ॥ कार्तिकेयानुप्र हा टीका गा. ३११-३१२) स्वयंभू स्तीत्र॥ व्यवहारनय भी उपचार है। जैसे कुण्डी बहती है, मार्ग . फलमागन्तुकभावादुपधिमात्र विहाय यावदिह । चलता है। स्याद्वाद मारी २८११ पृ० १६॥ शेषस्तच्छुद्धगुणःस्यादिति मत्वा सुदृष्टिरिह कश्चित् ॥ ० य एव नित्यत्तणिकादयो नया मिथोऽनपेक्षाः स्वपरप्रणाशिनः । . पंचाध्यायी पूर्वार्ध ५३२ त एव तत्वं विमलस्य ते मुने परस्परेता स्वपरोपकारिणः॥ ॥ व्यवहारादो बन्धो माक्खो जम्हा सहावसंजुत्तो। स्वयम्भूस्तोत्र ६॥ तम्हाकु रुतं गउणं सहावमाराहणाकाले लघुनयचक्र०७॥ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [वर्ष १३ क्या व्यवहार धर्म निश्चयका साधक है? [२२५ हो उपदेश मुख्यतासे सर्वत्र योजनीय है। निश्चयके लिये की भावनाको तीव्र और तीव्रतर बनानेमें उद्यमशील रहना हो तो व्यवहार भी सत्यार्थ है। और बिना निश्चयक व्यव- चाहिए। ऐमा उपदेश है। हार भी सारहीन है।+ परन्तु यह बात तभी सम्भव है जबकि दोनों अंशोंमेंसे फिर व्यवहार क्रियायें क्यों ? एक अर्थात् व्यवहारको प्रसद्भुत तथा दूसरे अर्थात् निश्चयसाधक दशामें व्यवहार तथा निश्चय दोनों ही अंश का सद्भूत, एकका विभाव दूसरका स्वभाव, एक को सद्भूत, एकको विभाव दूसरेको स्वभाव, एकको दोष होते अवश्य है। इसका निवेध नहीं। ज्ञान इन दोनोंको दुसरेको गुण, एकको अशुद्ध दूसरेको शुद्ध, एकको आश्रय अपने २ रूपसे (एकको हेय तथा दूसरेको उपादेय) जानता भी बन्ध रूप अधर्म और दुसरेको संवर निर्जरा रुप धर्म है। इसका भी निषेध नहीं। अल्प शक्रिक कारण वह अंश समझा जाये। इस प्रकारका भेद विज्ञान किये बिना प्रयोजनहोता है। उसे छोड़ देनेका भी उपदेश नहीं है। क्योंकि की सिन्द्धि नहीं और इसीलिये इस व्यवहारको कथम्चिन् जब तक राग अंश विद्यमान है उसका कार्य अवश्य होगा। अधर्म कहना बाध्य नहीं समझा जा सकता । कथञ्चित् यदि शुभको छोड़ा तो वही अशुभ रूप होगा। राग रूप कहनेका यह अभिप्राय नहीं कि किसी अपेक्षा इसमें स्वभाव बाह्य क्रियाओंको छोड़नेसे रागका प्रभाव नहीं होगा परन्तु रुप धर्मपना भी है, परन्तु यह है कि वास्तवमें अधर्म अन्तरंगमेंसे उस रागके प्रति कारण अर्थात् रुचि या उपादेय (विकार) होते हुए भी विप्रतिपत्तिके समय, संशय उम्पन (विकार) ह बुद्धिको छोड़नेसे ही उसका लोप हो सकता है। इसलिए हो जाने पर या मन्दबुद्धि किसी शिष्यको निश्चय धर्मका निषेध है व्यवहारमें उपादेय बुद्धि रुप पकड़ रखनेका । क्योंकि स्वरूप समझाते समय इसका प्राश्रयज्ञानमें लिये बिना नहीं जब तक उसके प्रति उपादेय बुद्धि है तब तक उसका ज्याग बनता। इसलिये निचली दशा में किसीके लिये वस्तु स्वरूप नहीं हो सकता। जब तक उसका त्याग नहीं होता (अर्थात या निश्चयधर्मका ज्ञान करते समय उपरकी सिद्धिके लिये उसका लोप नहीं हो जाता) तब तक मोक्ष नहीं होता। यह साधन रुपमें कार्यकारी होता है। इसलिये उपचारसे इसलिये सदैव साथ-साथ वर्तते हुए उस व्यवहार अंशके प्रति इसे धर्म कहा जाता है निश्चयसे नहीं । पर यह केवल 'मेरा अपराध है। ऐसी बुद्धि बनी रहनी चाहिये । उसका स्थापना करने योग्य है (जानने योग्य है) पर अनुसरने योग्य भार कर्मोंपर डालकर स्वयं निदोष नहीं बनना चाहिये। नहीं (प्राचरने योग्य नहीं +। उसको श्रीदयिक भाव न समझकर अपना विभाविक पारि- व्यवहार णामिक भाव ही ग्रहण करना चाहिए (जयधवला भा०१ व्यवहार नथा निश्चयके उपरोक नामान्तर युगलोंमेंसे पृ. ३११) इस प्रकार समझते हुये सदा ही उसके वर्जन- मबको नो जिस किसी प्रकार भी स्वीकार कर लिया जाता है + यह व्यवहार निश्चयके लिये हो तो वह व्यवहार भी पर व्यवहारका अधम माज्ञत स्वीकार करने आपत्ति श्राती सत्यार्थ है और विना निश्चयक व्यवहार सारहीन है। है। और उमका कारण केवल वह मिथ्या मान्यता है जिसके है कार्तिक्यानुप्रेक्षा टीका ४६४) आधार पर कि जीव इसे निश्चयमें महायक रूप जान कर * कुशील शुभाशुभ कर्मभ्यां सहराग संसर्गों प्रनिविद्धौ बंध यह कहा करता है कि 'व्यवहार करते करते निश्चय हो हेतुत्वान् । स० सा. श्रात्मख्याति टीका १४७ । __जायेगा।' उसी मिथ्यामान्यताको अन्तरसे पूर्णतया धो देनेके x वैचित्र्यावस्तुनिनां स्वतः स्वस्यापगधतः ॥ पंचाध्यायी लिये ही परम कृपालु श्रीकानजी स्वामीके प्रवचनोंका भार उत्तरार्ध ६॥ परद्रव्य ग्रहं कुर्वन् बध्येतैवापराधवान् । + नैव यतो बलादिह विप्रतिपत्तौ च संशयापत्तौ । वस्तु बध्येतानपराधो न म्वद्रव्ये संवृतोत्पत्तिः ।स.मा. कलश१८६। विचारे यदि वा प्रमाणमुभयावलम्बि तज्ज्ञानम् ॥१३॥ कषायोंको अपराध रुप जाने इनसे अपना पान जाने तब तस्मादाश्रयणीयः केषांचित् स नयः प्रसंगस्वात् । अपि अपनी दया कषायभावके प्रभावको मानता है इस तरह सविकल्पानामिव न श्रेयो निर्विकल्पबोधवताम् ॥१३॥ अहिंसाको धर्म जानता है। का० अनु० टीका ४१२ पंचाध्यायी पूर्वार्ध। ये परमं भावमनुभवन्ति तेषां.... अहवा मोदइएण भावेण कसानो। पदं णेगमादिचउण्ह शुद्ध नयएव"परिज्ञायमानः प्रयोजनवान् । ये अपरम बयाणं । तिण्हं सामायाणं पारिणामकुण भाषण कसाना; भावमनुभवन्ति तेषां "म्यवहार नयो"परिज्ञायमानस्तकारणेण विणा कज्जुप्पत्तीदो । जय ध० भाग १ पृ.१५. दावे प्रयोजनवान् । स.सा. प्रात्मख्याति टी० गा.१२. Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ ] अनेकान्त । वर्षे १३ मुख्यतया व्यवहारको अधर्म संशित सिद्ध करने पर अर्थात् पापका अगवाई बताया गया है । कार्तिकेयानुअधिक रहता है। मोक्षमार्ग प्रकाशक अधिकार - प्रकरण प्रेक्षामें सम्यग्दृष्टिके भी नि.दनर्गहन आदिको पुण्य १६ में भी ऐसा ही कहा है कि 'अपनेको जो विकार हो (प्रशद्धोपयोग रूप अधर्म ) कहा है x धर्म नहीं, फिर उसके निषेध करने वाले उपदेशको ग्रहण करे पर उसके पोषण मागको तो बात ही क्या है। वाले उपदेशको न ग्रहण करे। इसलिए उसका अर्थ यह कार्तिकेयानुप्रेक्षा ४.१ के अनुसार जो पुरुष पुण्यको नहीं लगाया जाना चाहिए कि वह एकान्ती है या उनका चाहता है वह संसारको चाहता है। अभिप्राय इन बाह्य क्रियानोंको छुड़ा कर जनमाधारणको जब तक उसे धर्म जानता रहेगा तब तक उसके प्रति स्वच्छन्दी बनाने या आगममें धर्म मंज्ञिन उन क्रियाओंका उपदिय बुद्धि बनी रहना स्वाभाविक है। माना कि लौकिकमें सर्वथा निषेध करके किमी रूपमें भी उन महान पाद पूज्य अधर्म पापको और धर्म पुण्यको भी कहते हैं परन्तु यह प्राचार्य भगवन्तोंकी जिनके लिए कि उनकी दृष्टिमें अगाध मोक्षमार्ग है। लौकिक या संसारमार्ग नहीं । यही पुण्य प्रादर भरा हुआ है, जिनके लिये कि उनके हृदयमें भत्रि तथा पाप यह द्वैत ही बनता नहीं छ । यहाँ तो एक शुद्धोरसका सागर कल्लोलित हो रहा है, अबहलना करने या पयोग ( धर्म ) है और दूसरा अशुद्धोपयोग (अम) है करानेका है। न ही वे कोई सम्प्रदाय बनाने जा रहे है। इसीलिए यहाँ पुण्यका कोई मूल्य नहीं। सम्यग्दृष्टि इसे क्योंकि जितनी बातें भी वह कहते हैं सप्रमाण दिगम्बर प्राधव अर्थान् बाधक ही समझता है महायक नहीं। यह ग्रन्थोंके आधार पर हो कहते हैं, कोई अपनी तरफसे नहीं। विभाव है और विभाव तीन कालमें भी स्वभावका कारण कहते। जब तक व्यवहारको भी उसी रूपसे उपादेय रूप धर्म नहीं हो सकता। लौकिकमें या उपचारसं धर्म कहा जाने समझा जाता रहंगा, जिस प्रकारसे कि निश्चयको तब तक वाला यह अंश उसके लिए अधर्म ही है। यदि इन दोनों दोनों में भेद करना असम्भव है। भेदके अभावमें सप्तभंगों अंशोंमेंस व्यवहारको अधर्म न समझा जाये तो मोक्षमार्ग अभाव तथा एकान्तका प्रसंग प्राता रहेगा। तथा दोनों ही ही न बने । बल्कि सम्यग्दर्शन होते ही पूर्ण धर्म अर्थात अंश धर्म हो जाने पर अधर्म रूप अंशका सर्वथा अभाव मोक्ष हो जाया करे। मानना होगा। और इस प्रकार अधर्मकै अभावमें पूर्ण धर्म इस प्रकार वास्तविकताको लयमें रख कर व्यवहारका रूप केवलज्ञान प्रगट हो जानेका प्रसंग उपस्थित हो कथञ्चित निषेध करने वाले वक्रा पर श्रागमविरुद्ध होनेका आरोप लगाना युक्ति संगत प्रतीत नहीं होता। जायेगा। केवलज्ञान धर्मसे नहीं बल्कि अधर्मसे रुका हुआ है। अत, व्यवहारधर्मको अधर्म स्वीकार किये बिना माधक + विरलो अज्जदि पुण्णं सम्मादिट्ठी चराहि संजुनो। कभी आगे नहीं बढ़ सकता । वस्तु अर्थात् प्रात्माका निज उवसमभावे सहियो णिदणगोहि संजुत्तो॥ का० धनु. ४८ स्वभाव न होनेके कारण मिथ्यादृष्टिकी यह एकान्तिक क्रियायें पंचाध्यायां में अधर्म बताई गई है। इन्हें अशुभ + पुराणं पिजी समिच्छदि, समारो तेण ईहिदो होदि । पुगणं मग्गई हेऊ.पुण्णग्वयेणेव णिवाणं ॥ * नापि धर्मः क्रियामानं मिथ्यादृष्टेरिहार्थतः । का अनु०४०६ नित्यं रागादि सद्भावात् प्रत्युताऽधर्म एव सः। ॐ परमार्थतः शुभाशुभोग्योगयोःपृथक्व व्यवस्था नावतिष्ठते । (पंचाध्यायी उत्तराद्ध ४४४) . प्र. सा. तत्वदीपिका टीका गा. ७२ ॥ सम्पादकीय नोट लेखकने लेखमें व्यवहारको अधम बतला कर उसे केवल स्थापन (जानने) योग्य बतलाया है । यदि ऐसा है तो सम्यग्दृष्टिका व्यवहार भी क्या अधर्म है ? तब उसे व्यवहार धर्मका आचरण नहीं करना चाहिये। लेखमें सम्यग्दृष्टि और मिध्यादृष्टि दोनोंके व्यवहारकी खिचड़ी करदी गई है । यदि व्यवहार केवल स्थापनकी ही चीज है तो उसका जीवनमें उपयोग क्यों किया जाता है ? वह तो अधर्म है, फिर मूर्ति और मन्दिर निर्माण तथा प्रतिष्ठादि कार्यमें प्रवृत्ति क्यों की जाती है वह भी व्यवहार है । ईन व्यवहार कार्यों में प्रवृत्ति करते हुए Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण क्या व्यवहार धर्म निश्चयका साधक है? २२७ उन्हें अधर्म (पाप) की घोषणा करते हुए केवल उपादानका उपदेश देने और व्यवहार प्रवृत रहनेसे तो मोक्षमार्ग नहीं बन जाता। व्यवहार के बिना केवल निश्चयकी प्रवृत्ति नहीं हो सकती। आचार्य अमृतचन्दने जब तक शुद्धस्वरूपकी प्राप्ति नहीं होती तब तक व्यवहारनयको हस्तावलम्बके समान बतलाया है और उक्त च रूपसे उद्धृत निम्न प्राचीन पद्य के द्वारा उसका समर्थन भी किया है। जड़ जिणमयं पवज्जह ता मा ववहार णिच्छए मुणह । एकेण विणा छिज्जइ तित्थं अण्णण उण तच्चं ॥ इममें बतलाया गया है कि यदि तुम जिनमतको प्रवतोना चाहते हो तो व्यवहार और निश्चय इन दोनों नयोंको मत छोड़ो, क्योंकि व्यवहारनयके बिना तो तीर्थ का नाश हो जायगा और निश्चयके बिना तत्त्व (वस्तु) का बिनाश हो जायगा । अतः यथायोग्य दोनों नयोंका व्यवहार करना उचित है। एकको ही उपादेय और दूसरेको मात्र स्थापनकी चीज समझना उचित नहीं जान पड़ता। निश्चयनय सदा मुख्य कैसे हो सकता है ? उमके सदा मुख्य रहने पर व्यवहार बन नहीं मकता । इसलिए निश्चयनय सदा मुख्य नहीं रह सकता । यदि केवल निश्चयनयको सदा मुख्य मान लिया जाय तो क्या बिना किमी निमित्त के केवल उपादनसे कार्य निष्पन्न हो सकता है। कार्य निष्पत्तिके लिए तो अनेक कारणोंकी आवश्यकता होती है क्या उनके बिना भी उपादान अपना कार्य कर सकता है ? लेखिका अन्तिम भाग पढ़नेस ज्ञान होता है कि लेखकने श्री कानजी स्वामीके सम्बन्धमें उठनेवाले आक्षेपोंका परिमार्जन करने के लिए ही प्रस्तुत लेख लिखने का प्रयास किया है परन्तु उन आपत्तियोंका लेखकसे कोई निरसन नहीं बन पड़ा है। और न कानजी स्वामीने ही उनके सम्बन्ध में अपना कोई वक्तव्य देनेको कृपा की है। जब शुभक्रियाओं को आगममें धर्मसंजित स्वीकार कर लिया गया तब फिर उनके निषेधकी आवश्यकता ही क्या रही ? -परमानन्द जैन नागकुमार चरित और कवि धर्मधर ( परमानन्द शास्त्री) नागकुमारकी कथा कितनी लोक प्रिय रही है, इन्द्रिय विषयों में प्रामकि उत्पन्न करनेमें असमर्थ रही है। इसे बतलानेकी आवश्यकता नहीं है। उस पर अनेक ग्रंथ रच वह आत्म-जयी वीर था जो अपनी साधनामें म्बरा उतरा गए हैं। यकृत और अपभ्र श भाषामें अनेक कवियों द्वारा है। और अपने ही प्रयत्न द्वारा कर्मबन्धनकी अनादि परग्रंथोंकी रचना की गई है। इस पर ग्वण्डकाव्य भी रच गण तन्त्रतास सदाक लिए उन्मुक्ति प्राप्त की है। हैं । प्रस्तुत ग्रन्थ भी कविको एक छोटीसी संस्कृत कृति है कवि परिचय जिसमें नागकुमारका संक्षिप्त जीवन-परिचय अंकित किया इस ग्रन्थके कर्ता कवि धर्मधर हैं जो इच्वाकुवंशमें गया है। नागकुमाग्ने अपने जीवन में जो-जो कार्य किये, व्रता समन्पन्न गोलाराडान्वयी माहू महादेवके प्रपुत्र और प्राशदिका अनुष्ठान कर पुण्य संचय किया और परिणामत: विद्या- पालक पुत्र थे । इनकी माताका नाम हीरादेवी था धर्मधरके दिका लाभ तथा भोगोपभोगकी जो महनी मामग्री मिली, दो भाई और भी थे जिनका नाम विद्याधर और देवधर था। उसका उपभोग करते हुए भी नागकुमारने उनसे विरक्र होकर पंडित धर्मधरकी पन्नीका नाम नन्दिका था जो शीलादि श्रात्म-साधना-पथमें विचरण किया है। नागकुमारका जीवन मद्गुणोंसे अलंकृत थी, उससे दो पुत्र एवं तीन पुत्री उत्पन्न बड़ा ही पावन रहा है उसे क्षणस्थाई भोगोंकी चकाचौंध हुई थीं। पुत्रोंका नाम पराशर और मनमुम्ब था । इमी सब Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८1 अनेकान्त [वर्षे १३ परिवारसे युक्त कवि धर्मधरने सम्बत् ११११में श्रावण शुक्ला जो अनेकान्तके वर्ष ८ किरण ८-8 में प्रकाशित हो चुका पूर्णिमा सोमवारके दिन इस अन्यको बनाकर समाप्त किया है। उस समय तक यह अन्य उपलब्ध नहीं हुआ था। अब था । कविने इस ग्रंथकी रचना कविवर पुष्पदन्तके 'नाग यह ग्रन्थ जयपुरके तेरापंथी मन्दिग्के शास्त्र भंडारमें उपसब्ध कुमार चरिउ' को देखकर की है। हुआ है, उस पर से जो मैने प्रशस्ति नोट की थी उसे कविने ग्रन्थके गुरूमें मूलसंघ मरस्वती गच्छके भट्टारक पाठकोंकी जानकारीके लिए नीचे दिया जा रहा है। पद्मनन्दी शुभचन्द्र और जिनचन्द्रका उल्लेख किया है इस ग्रन्थकी प्रशस्तिमें भी चौहानवंशके कुछ राजाओं जिससे स्पष्ट है कि कवि उन्हींकी पाम्नायका था और उन्हें का परिचय प्रादिका उल्लेख दिया हुआ है वह इस प्रकार गुरुरूपसे मानता था । कविने इस ग्रन्थमें अपनी दूसरी है:-सारंगदेव, इनका पुत्र अभयपान या अभयचन्द्र रचना 'श्रीपालचरित' का भी उल्लेख किया है, जिसे उसने हुा । अभयपालका पुत्र रामचन्द्र था जिसका राज्य सं० इससे पूर्व बनाया था। और जो इस समय अनुपलब्ध १४४८ में मौजूद था । रामचंद्रका पुत्र प्रतापचंद्र था जिसके है। कविने अन्य किन ग्रंथोंकी रचना की, यह कुछ ज्ञान राज्यमें रहधूने ग्रंथ रचना की थी। प्रतापचन्द्रका दूसरा भाई नहीं हो सका। रणवीर (सिंह) था। इनका पुत्र भोजराज था भोजराजकी पत्नीका नाम शीलादेवी था और उससे माधवचन्द्र नामका ग्रन्थ रचना में प्रेरक एक पुत्र उत्पन्न हुआ था। माधव चन्द्र के दो भाई और भी इस प्रन्थको कविने यदुवंशी लंबकंचुक (लमेचे) थे कनकसिंह और नृसिंह । ग्रंथ- कर्ता कवि धर्मधरके समय गोत्री साहू नल्हूकी प्रेरणासे बनया है। माहू नल्हु माधवचन्द्र राज्य कर रहे थे। चन्द्रपाट या चन्द्रवाढ नगरके दत्तपल्ली नामक नगरके निवासी थे। उस समय उस नगरमें ब्राह्मण, दत्री, वैश्य और शूद्र नागकुमार चरित प्रशस्ति श्रादिभागनामक चातुरवर्णके लोग निवास करते थे। नल्हू साहूके श्रीमंतं त्रिजग संसारांबुधितारकं । पिताका नाम धनेश्वर या धनपाल था जो जिनदासके पुत्र प्रणमामि जिनेशानं, वृषभ वृषभध्वजम् ॥१॥ थे। जिनदासके चार पुत्र थे शिवपाल- च चलि, जयपाल नमोऽस्तु वद्ध मानाय केवलज्ञानचक्षुषे । और धनपाल | और जिनदास श्रीधरके पुत्र थे। नल्ह- संसारश्रमनाशाय कौघध्वांतभानवे ॥२॥ साहकी माताका नाम लक्षणश्री था । उस समय चौहान जिनराजमुखांभोज-राजहंसमरस्वती। वंशी राजा भोजराजके पुत्र माधवचन्द्र राज्य कर रहे थे। मानसे रमतां नित्यं मदीये परमेश्वरी ॥३॥ धनपाल उनके समय में मन्त्रीपद पर प्रतिष्ठित थे। साहूनल्ह- गौतमादीन्मुनीनन्वा श्रुतसागरपारगान । के भाईका नाम उदयसिंह था । साहूनल्ड राज्यमान थे। वक्ष्येऽहं शुक्लपंचम्याः फलं भव्यसुखप्रदम् ॥४॥ और श्रावकोचित व्रतोंका अनुष्ठान करनेमें दक्ष थे। जिन भद्रं सरस्वतीगच्छे कुंदकुंदाभिधो गुरुः । देवके भक्र थे। इनकी दो पत्नियां थी । जिनमें पहलीका नाम तदाम्नाये गणी जातः पद्मनंदी यतीश्वरः ॥॥ दूमा और दूसरीका नाम यशोमति था, उससे चार पुत्र तत्प? शुभचंद्रोऽभूज्जिनचन्द्रस्ततोऽजनि । उत्पन्न हुए थे। तेजपाल विनयपाल, चन्दनसिंह और नर नन्वा तान् सद्गुरून् भक्त्या करिप्ये पंचमीकथां ॥६॥ सिंह । इस तरह साहू नल्हूका परिवार बड़ा ही सम्पन्न और शुभां नागकुमारस्य कामदेवस्य पावनीं । धर्मात्मा था। उन्हीं साहू नल्हको प्रेरणाका परिणाम कवि करिष्यामि समासेन कथां पूर्वानुमारतः ॥७॥ धर्मधरकी प्रस्तुत रचना है। . समस्तवसुधायोषिदऽलंकारमिवाऽभवत् । चन्द्रपाट या चन्द्रवाट ऐतिहासिक नगर है जो आज चंद्रपाटाभिधं रम्यं नगर स्वःपुरोपमम् ॥८॥ खंडहरके रूपमें विद्यमान है । यहाँ पर चौहान वंशी राजाओं- तद्देशस्ति पुरी रम्या दत्तपल्लीति विश्रुता। का राज्य १२वीं शताब्दी से १६वीं शताब्दी तक रहा है। चातुर्वर्णजनैः पूर्णा कल्पवल्लीव राजते ॥६॥ मैने इस नगरके इतिहास को प्रकट करते हुए एक लेख लिखा चाहुमानान्वये श्रेष्ठः कल्पवृष इवापरः । था, जिसका शीर्षक 'अतिशयक्षेत्र चन्द्रवाट' है, और दाननिर्जितकर्योऽभूदभोजराजो महीपतिः ॥१०॥ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण [] नागकुमार चरित और कविधर्मधर २२४ तत्पुत्रोऽस्ति महातेजा जितारातिविवेकवान् । म्वस्ति प्रशस्तजनजीवनहेतुभूतं श्रीचन्द्रपाटनगरं प्रथितं जगत्यां राजनीतिविदांश्रेष्ठो माधवेंद्रो गुणाश्रयः ॥११॥ आलोक्य यस्य नयतिपौरवित्तं चित्ते सुकौतकवता मलकापिनैव तस्य मंत्रिपदे श्रीमयदुवंशममुद्भवः । श्री चाहुमानान्वय दुग्धसिंधुसुधाकरस्तत्र चकार राज्यं । लंबकंचुकसद्गोत्रे धनेशो जिनदासजः ॥१२॥ सारंगदेवप्रभुराजि कृपाणतापानतवैरिराज ॥४॥ तत्पत्नी शीलसंपूर्णा पातिवृत्यगुणान्विता । तम्यात्मजो भूमपतीद्धिताधिविख्यातनामाऽभयचंद्रदेवः । सवलक्षणमंपूर्णा लक्षणश्रीति नामिका ॥१३॥ यः क्षात्रदानरममः पृथिव्यां बभूव सनीतिमाधुरीणः ॥५ तदात्मजो गुणश्रेष्ठो भाग्यवान् संपदाश्रयः । श्रीरामचन्द्रो जितवक्रचन्द्रः स्वगोत्रपायोनिधिवृद्धिचंद्रः अग्रणीभव्यलोकानां नल्हू साधुगुणालयः॥१॥ विपक्षपंकेरुहवन्दचन्द्रो,जातो गुणज्ञोऽभयचंद्र-पुत्रः ॥६॥ धर्मेच्छया तु तेनोक सादरं श्रद्धया युतं । श्रीमत्प्रतापनृपतिस्तनयास्तदीयो,ज्येष्ठोनराधिपगुणैरतुलोविनीतः सुसंस्कृतमयीं रम्यां धर्मश्रावय पंचमीम् ॥१॥ नात सुरासकामांख्ययुतं स्वलोक,ज्ञात्वागुणाधिकामयंकमनीयकांति: कथा नागकुमारस्य श्रोतुमिच्छाम्यहं मुदा । तम्यानुजः श्रीरणवीर नामा भुक्र महाराजपदं हतारिः । श्रुन्वा धर्मधरश्चित्ते कथां चितितवान् परो ॥१६॥ श्रीमत्सुमंत्रीश्वररायताले भ्रात्रासमं नंदतु सर्वकालम् ॥८॥ मन्दबुद्धिरहं यस्मात्कथं काव्यं प्रकाशयेत् । चंद्रपाट समीपेऽस्ति दत्तपल्लो पुरी परा। बिना लक्षणछन्दोभिस्तकेंणालंकृतो च भो ॥१७॥ राजते कल्पवल्लीव वांछितार्थप्रदायका ॥३॥ न काव्यानि मयाधीतान्यनिधानं च न श्रुतं । स्फाटिका यत्र हालीलानाचंद्रकैरनिशि । कत्तु न पार्यते भद्र ! संस्कृतं काव्यमुत्तमम् ॥१८॥ कोटिः सुवर्णकुभानां नमः पद्मायतेऽभितः ॥१०॥ इति श्रुत्वा वब्रीसाधुर्यथाशक्रिविधीयतां । यत्र पुईवो रम्याः सरसा वायुनोदिताः। अत्रनास्त्य परः कश्चित्संस्कृतस्य विधायकः ॥१६॥ नृत्युमाना इवाभांति गोधनैर्लक्षिता अपि ॥११॥ श्रीपालचरितपूर्व कृत्वा संस्कृतमुत्तमम् । कल्पवृक्षपमा वृक्षाः फलानि मधुराणि ये। यथासम्बोधितो भव्यः क्षमलो भवता तथा ॥२०॥ प्रयच्छति हि लोकभ्यः पुण्यस्येव मनोरमाः ॥२॥ सावधानं मनःकृत्वाऽथालस्यं प्रविहाय च । नत्राभयेंद्रारनुजः प्रतापी प्रतापसिंहा नृपशङ्ग सूनुः। प्रबोधय भद् त्वं कूवा धर्मकथानका ॥२॥ चक्र. स्वराज्यं किल दत्तपल्यां यः शकवद्वज्रधरोऽरिशैले ॥१३॥ विभमि दुर्जनात्माधो दोष हणतत्परात् । प्रतापसिहदेवस्य पत्नी लाडमदेविका । गृहोतेषु तु दोषेषु ग्रन्यो निर्दोषवान् भवेत ॥२॥ व्याता सती व्रतोपेता परिवारधुरंधरा ॥ तस्य साधोर्वचः श्रुत्वा कविद्धर्मधरोऽब्रवीन । तत्कुक्षिसुक्रिमीकि महिमानं भोजराजुनामानं । ममाकर्णय भव्यात्मन !ग्म्यं तत्पंचमीफलम् ॥३॥ पुत्रप्रतापसिंहो धर्मादुत्पादयामस ॥१५॥ पन्नी श्रीभोजराजस्य शीलादेवीति विश्रुता । इति श्रीनागकुमारकामदेवकथावतारे शुक्लपंचमोवत- शोलाभरण शोभाढ्या कामधेनुरिवाऽभवत् ॥१६॥ माहात्म्ये साधु ल्हुकारापित पण्डिनाशपालामजधर्मधर भोजः प्रासून सुतं विख्यातं माधवेन्द्रनामानं । विरचिन श्रेणिकमहागजसमवसरणप्रेवशवर्णनी नाम प्रथमः- ध्वजपटइव निजवंशं व्यभूषणद्योगुणैयुकः॥१७॥ परिच्छेदः समाप्तः ॥१॥ स्वभ्रातृभिःकनकमिहनसिंहबालेरग्रेसर.समिति नंदतुधारमाय: अन्नभाग: संपत्तिपालितमनीषिमहीसुरोऽथदाशी:समेधिनसमस्तमनीषितार्थः स्व-संवेदनसुव्यकमहिमानमनश्वरं । भास्वन्प्रतापविषमाऽग्निमुपहुतारिवग्रॅन्धनोधनकृतार्थितयाचकौघः परमात्मानमाद्यतविमुक्तं चिन्मयं नुमः ॥१॥ श्रीभोजराजतनयाभुविमाधवेंद्रदेवः क्षमापतिरभूद्धवनैकमान्यः यत्रानम्रसुरासुरेश्वरशिर:कोटीरकोटिस्फुर न्याये यस्य मतिः सदा भगवति श्रीवासुदेवे स्तुतिद्वोत्कररश्मिरतनया लीलाविधत्तं तरां । र्वेदार्थश्रवणो श्रुतिः सुकृद्धदेव वर्षे रतिः।। श्रीचन्द्रप्रभकायकान्तिविलसद्गंगांतरं, मिशेषूपकृतिविरोधिषु हतिः पात्रेषु दानोन्नतिः, गोल्वला भूयाद्वः परितापपापहृदये सा सर्वदा शर्मदा ।। मस्कोतिर्वरमाधवेंद्रनृपति यात्सशक्राकृतिः ॥२०॥ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष १३ तस्मान्माधवतो लब्धप्रतिष्ठो नल्हनामकः । माधोनल्हस्य भार्ये द्वे संजात सुप्रशस्तिके। यदुवंशनभोभानुस्तत्पशस्ति निगद्यते ॥२१॥ दूमाख्याप्रथमा प्रोक्का द्वितीया तु यशोमती ॥३८॥ सद्वृत्ताः खलु यत्र लोकमहिता युक्ता भवंति थियो, तत्पुनस्तेजपालोऽभूद्विनयाख्यो द्वितीयकः । नानामपिलब्धये सुकृतिनोयं सर्वदोपासते। चंदनो नरसिंहश्च ततस्त्रिभुवनाभिधः ॥३६॥ सद्धर्मामृतपूरपुष्टसुमनाः स्याद्वादचंद्रोदयः। जयतु जिनविपक्षःश्रावकाचारदत्तः कुसुमशरसदृक्षःप्राप्तसन्मंत्रशिक्षः कांक्षी सोऽत्र सनातनो विजयते श्रीमूलमंघोदधिः ॥२२॥ दुरिततरुहुताशःकीर्तिविद्योतिताशो धनपतिवरपुत्रो नल्हसाधुसुवक्र सद्यशः पूरक'रसुगंधीकृतदिग्गणं । वुधजनकृतमानकांतिपीयूषधामाविनयगुणनिवाससत्यवाणीविलाम लंबकंचूकपदगोत्रमम्ति स्वस्तिपदं भुवि ॥२३॥ कलिकलुषविहीनःपोषिताशेषदीनःकृतजिनपतिसेवोदतानल्हदेव जिनबिम्बतिलकदानगर्जितपुण्यौ विशुद्धसम्यकतौ । परिवारधुरीणेन नल्हाख्येन गुणात्मना । कोकिलभरतौ भन्यौ बभूवतुः शुचिगुणोपेतौ ॥२४ पंचमीव्रतमाहात्म्यं तेन कारापितं महत् ॥४२॥ ततोबहुवतीतेषु पुरुषेषु व्रतकभूः। पुष्दन्तकवींद्रेण यत्सूत्र भाषितं पुरा । गजसिंहस्तु जैनांघ्रि सेवाहेबाकिमानमः ॥२५॥ तन्निरीच्यकृतं नान्यत्संस्कृतं तन्निदेशतः ॥४३॥ लंबकंचुकसद्गोत्रपद्माकरदिवाकरः । इच्वाक शसंभूतो गोलाराडान्वयः सुधीः । अजनिष्ट महीपृष्टे श्रीधरः साधुरद्भुतः ॥२६॥ महादेवस्य पुत्रोऽभूदाशपालोबुधः क्षितौ ॥४४॥ जिनार्चने सद्गुरुपर्युपास्ती श्रुतःश्रुती-निर्मलपात्रदाने । तद्भार्याशीलमपूर्णा हीरानाम्नोति विश्रुता। हदानुरागो जिनदासनामा कृती कृतज्ञस्तनयस्तदीयः ।२७ नत्पुत्रत्रितयं जातं दर्शनज्ञानवृत्तवत् ॥४॥ जिनदासो जिनाधीशपदभकिरसे वशी । ज्येष्ठो विद्याधरः च्यातः सर्वविद्याविशारदः। शच्या शक्रइवाभाम्बपल्यादेवश्रियाश्रितः ॥२८॥ ततो देवधरो जातस्तृतियो धमनामकः । पदार्था इव चत्वारः तत्पुत्राः सुनयान्विताः। तत्पन्नी नंदिका नाम्नः शीलसौभाग्यशालिनी । चिंतामणिसमानाम्ने पात्रदानसमुद्यता. ॥२६॥ नपुत्रद्वितयं जाना कन्यका त्रितयं तथा ॥४७॥ प्राधः श्रीशिवपालाख्यो द्वितीयो युद्धलिः। श्राद्य. परशुरामाग्यो द्वितीयम्तु मनःसुम्वः । कृती तृतीयो जयपालश्च धनपालश्चतुर्थकः ॥३०॥ पतन परिवारण युनो धर्मधरः कवि ॥४८॥ पन्नी श्रीशिवपालस्य पातिव्रत्यगुणोज्वला । अकापारनं भद्र पंचमीत्यभिधानकं । नारी नाम्नाऽकूनेवाभूत्परिवारधुरंधरा ॥३१॥ कथा नागकुमारस्य कामदेवम्य पावनीं ॥४॥ तनयास्तस्य चत्वारः प्रयागप्रथमोऽभवन् । चरितं नंदनादनत्यर्यकालं नराधिपः । शिवब्रह्मापरो जातो महादेवदिवाकरी ॥३२॥ लोकश्च मा निर्विघ्नो भवतु प्राप्यतां मुम्बं ॥५०॥ घुद्यालि प्रमदाख्याता विजयश्रीर्बभूव हि । समस्तवाहिसम्पूर्णा महा भवतु सर्वदा। शुभलक्षणसंयुक्ता जिनशामनभाक्रिका ॥३३॥ लोकाः सर्वेऽभिनंदंतु यावरचन्द्रदिवाकरी ॥५॥ ततोभूदजयाख्यस्य हीरा नाम्ना सुपत्निका । दुभिक्ष मारिचय डाकिनी माकिनी तथा । चिती सर्वसुखी पुत्री संजातौ शुभलक्षणी ॥३॥ ततः श्रीधनपालस्य भामिनी लक्षणान्विता । प्रलयं यांतु मेघाश्च पदा वर्षतु भूनले ॥१२॥ लक्षणश्रीरिति ख्याता साध्वीगुण विराजिता ॥३५॥ व्यतीत विक्रमादित्यं रुद्रं पुशिनामनि । नापुत्री जगति ख्याती सूर्याचंद्रममाविव । श्रावण शुक्लपक्ष च पूर्णिमाचन्द्रवामर ॥१३॥ माधवेदनृपाल्लब्धप्रतिष्ठौ जनभक्तिकी ॥३६॥ अभूममाप्तिग्रंथम्य जयंधरसुतस्य हि । ज्येष्ठो नल्हः सुविख्यातो राजमान्यो गुणालयः । नूनं नागकुमारम्य कामरूपम्य भूपतेः ॥१४॥ द्वितीयोदयसिंहाख्यो द्वितीयः समभूक्षितौ ॥३७॥ इति श्रीनागकुमारम्य चरित्र समाप्तं शुभं भवतु ॥ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर ( परमानन्द शास्त्री) भगवान महावीरकी जन्मभूमि विदेह देश की राज- धीरता, दृढता पन्यता और पराक्रमादिके लिए प्रसिद्ध थी। धानी वैशाली थी जिस वसाद भी कहा जाता था। प्राचीन इनका परस्पर मंगटन और रीति-रिवाज, धर्म और शासनकालमें वैशालीकी महत्ता और प्रतिष्ठा गणतंत्रकी राजधानी प्रणाली मभी उनम थे । इनका शरीर अत्यन्त कमनीय और होने के कारण अधिक बढ़ गई थी। मुजफ्फरपुर जिलेकी गंडि- ओज एवं नेजस सम्पन्न था। यह अपने लिए विभिन्न रंगोंके कानदीके समीप स्थित बसाढ ही प्राचीन वैशाली है। उसे बम्त्रोंका उपयोग करने थे । परम्परमें एक दूसरे के सुख-दुख में राजा विशालकी गजधानी बननेका भी सौभाग्य प्राप्त हुआ काम पाने थे । यदि किमीक घर कोई उत्सव वगैरह या था। पाली ग्रंथों में वैशालीके संबंध लिम्बा है कि-'दीवा- इष्टवियोगादि जम्मा कारण बन जाता था तो सब लोग उसके रोंको तीन बार हटाकर विशाल करना पड़ा था' इसीलिये घर पर पहुँचते थे और उसे तरह-तरहसे मान्यता देने थे इसका नाम वैशाली हुअा जान पड़ता है। वैशाली में उम और प्रत्येककार्यको न्याय-नीतिसं सम्पन्न करते थे। वे न्यायममय - नेक उपशाग्वा नगर थे जिनसे उसकी शोभा और प्रिय और निर्भयवृत्ति थे और स्वार्थतत्परतासे दूर रहते थे। भी दर्गाणत हो गई थी। प्राचीन वैशालीका वैभव अपूर्व वे परम्परमें प्रेम-सूत्र में बंधे हुए थे, एकता और न्यायप्रियताके था और उसमें चातुर्वर्णके लोग निवास करते थे। कारण अजेय बने हुए थे। इनमें परस्पर बड़ा ही सौहार्द विज्जीदशx की शामक जातिका नाम 'लिच्छवि' था। वाल्मल्य था। वे प्रायः अपने सभी कार्योंका परस्पर में लिच्छवि उच्च वंशीय क्षत्री थे। उनका वंश उस समय विचार विनिमयस निर्णय करते थे। वैशाली गणतंत्रकी अत्यन्त प्रतिष्टित समझा जाता था। यह जाति अपनी वीरता, प्रमुख राजधानी थी और उसके शासक राजा चेटक गणतंत्रक । गण्डकी नदीस लेकर चम्पारन तकका प्रदेश विदेह अथवा प्रधान थे । राजा चेटककी रानीका नाम भद्रा था, जो बरी ही विदुपा और शालादि मदगुणोंस विभूषित थी। नीरभुक्र (तिरहुन) नामस भी ध्यान था। शनि-संगम नत्रक निम्न पद्यस उसकी स्पष्ट सूचना मिलनी है चटकका ७ पुत्री और धन, मुभद्र, मुदत्त, सिंहभद्र, सुक गण्डकी नीरमारभ्य चम्पारण्यान्तकं शिवे । भोज अकम्पन, मुपतंग, प्रभंजन और प्रभाय नामक दश सिंह भृ. समास्याता तीरभुक्राभिधो मनुः ॥ पुनथे । बिहभद्रकी मातों बहनों नाम-प्रियकारिणी (घ) वज्राभिद देश विशाली नगरी नृपः । (त्रिशला ) सुप्रभा, प्रभावती, मृगावती, जेष्ठा, चलना और चन्दना था। उनमें त्रिशला क्षत्रिय कुण्डपुरक राजा सिद्धा___ हरिषेण कथाकोप, ५५, श्लो. १६५ र्थको विवाही थी। मुप्रभा दशाणं दशक राजा दशरथको श्रीर (आ) विदहों और लिच्छवियांक पृथक-पृथक मंघोंको प्रभावती कच्छ दशक राजा उदयनकी रानी थी। मृगावती मिलाकर एक ही संघ या गण बन गया था जिसका नाम कौशाम्बीक राजा शतानीककी पन्नी थी। चेलना मगधके राजा जि या बज्जिगण था । समूच वृजिमंघकी राजधानी वैशाली विम्बमारकी पटरानी थी। ज्येष्ठा और चन्दना श्राजन्म ही थी। उसके चारों और तिहरा परकोटा था जिसमें स्थान २ बंड बडे दरवाजे और गापुर (पहरा दनक मीनार) बने हुए 6 चटकायोनि विग्यातो विनीता परमाईतः ॥३॥ थे। -भारतीय इतिहासको रूप-रेखा पृ० ३.०से ३१३ तस्य देवी च भद्राख्या तयोः पुत्रा दशाभवत् । (इ) वज्जादेशमें अाजकल के चम्पारन और मुजफ्फरपुर धनाख्यो इत्त भद्रांताबुपेन्द्रोऽन्यः सुदत्तवाक् ॥ जिला, दरभंगाका अधिकांश भाग तथा छपरा जिलंका सिहभद्रः सुकुभांजोकंपनः सुपतंगकः । मिर्जापुर, परमा, सोनपुरक थाने तथा अन्य कुछ और भूभाग प्रभंजन प्रभासश्च धर्माइव सुनिर्मलाः ॥५॥ सम्मिलित थे। -पुरातत्त्व निबन्धावली पृ० १२ -उत्तरपुराणे गुणभद्रः Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२] अनेकान्त [ वर्ष १३ ब्रह्मचारिणी थी, ये दोनों ही महावारक संघ दीक्षित हुईथों, को भगवान महावीरका जीव अच्युत कल्पके पुष्पोत्तर नामक उनमें चन्द्रना आर्यिकाओं में प्रमुख थी । सिंहभद्र विज्जि- विमानसे च्युत होकर प्राषाढ शुक्ला षष्ठीके दिन जबकि हस्त संघकी सेनाक सेनापति थे। इस तरह राजा चेटकका परिवार और उत्तरा नक्षत्रों के मध्यमें चन्द्रमा अवस्थित था । त्रिशला खूब सम्पन्न था। देवीके गर्भ में आया x। उसी रातको त्रिशला देवाने १६स्वप्न वज्जीदेशक हैं गणतंत्र थे जिनमें वृजि, लिच्छवि, देखे । जिनका फल अष्टांग महानिमित्तके जानकारोंने बतज्ञात्रिक, विदही, उग्र, भोग और कौरवादि संभवत: आठ लाया कि सिद्धार्थ राजाके एक शूरवीर पुनका जन्म होगा जातियों शामिल थीं। ये जातियाँ मोलह जनपदों में विभाजित जो अपनी ममुज्वल कीर्तिसे जनताका कल्याण करेगा। थीं। उस समय भिन्न-भिन्न देशोंको जनपद और उनके महावीरका जन्म ओर बाल्यजीवन सामहिक प्रदेश या भूभागको महाजनपद कहा जाता था। नौ महीना आठ दिन अधिक व्यतीत हान पर चत्र अंग, मगध, काशी-कौशल,जि-मल्ल, चेदि-वत्प, कुरु-पांचाल, रु-पाचाल, शुक्ला प्रयोदशीकी रात्रिमें मौम्यग्रहों और शुभलग्नमें जब वत्स-शूरसेन, अश्मक-अवन्ति और गान्धार-कम्बोज । यी : गान्धार-कम्बाजा य चन्द्रमा अवस्थित था, उत्तराफाल्गुनी नक्षत्रक समय भगवान सोलह जनपद महाजनपदकी विशाल शक्तिम सम्पन्न थे और महावीरका जन्म हुआ। पुनोत्पत्तिका शुभसमाचार देनेवालों अपना समृद्धि एव शक्लिक कारण बड राष्ट्र कहलान थ। को खूब पारितोषिक दिया गया। नगर पुत्रोत्पनिकी खुशी में उस समय अन्य भी कई छोटे-छोटे राष्ट्र था परन्तु उन खूब सुसज्जित किया गया, तोरण ध्वज-पंक्रियोंस अलंकृत सबमें कोशल, मगध, अवन्ति और वत्सगज ये चारों ही किया गया। सुन्दरवादित्रों की मधुरनिसे अम्बर गुंज राज्य ईसाकी छठी शताब्दी से पूर्व अत्यन्त प्रबल थे। अंग उठा। याचक जनाको मनवांछित दान दिया गया। माधु और मगध तो एक दूसरे पर जब कभी अधिकार कर मन्तों, श्रमणों और ब्राह्मणादिका सन्मान किया गया । उम लेते थे। समय नगरमें दीन दुखियोंका प्रायः अभाव-सा था । नगरक वृजि लोगों में प्रत्येक गांवका एक सरदार गजा कह- मभी नरनारी हातिरकस आनन्दित थे । धूप-घटोंस लाता था। लिच्छवियाँक अनेक राजा थे और उनमें प्रयका उदगत सुगन्धित वायुस नगर सुरभित हो रहा था। जिधर उपराज, सेनापति और कोषाध्यक्ष आदि अलग, अलग होने जाइये उधर हो बालक महावीरक जन्मोन्मयका कलग्य थे। ये सब राजा अपने-अपने गांवक स्वतन्त्र शासक थे किन्तु सनाई पड रहा था। राज्य कार्य का संचालन एक सभा या परिषद द्वारा होता था। बालक का जन्म जनताके लिए बड़ा ही मुग्व-प्रद हुश्रा यह परिषद ही लिच्छवियोंकी प्रधान शायन-शति थी। था। उनके जन्म समय मारके सभी जीवोंने क्षणिक-शांति शासन-प्रबन्ध के लिए सम्भवतः उनमेंस ४ या ६ श्रादमी का अनुभव किया । इन्द्रने श्रीवृद्धिके कारण बालकका नाम गण राजा चुने जाते थे। इनका राज्याभिषेक वहाँ की एक वद्ध मान रक्खा । बालकके जातकर्मादि संस्कार किए गए। पोखरनीके जल से होता था । राजा सिद्धार्थने म्बजन-सम्बन्धियों परिजनों, मित्रों नगरके ___ मल्लांका गणतन्त्र और लिच्छवि राजवंश ये दोनों ही प्रतिष्ठित व्यक्रियों, मरदारों और जातीयजनों तथा नगरगणतन्त्र भारतके प्राचीन बान्य कहलाते थे। और यह दोनों वामियोंका भोजन, पान वस्त्र, अलंकार और ताम्बूलादिसे ही अर्हन्तोंके उपासक थे । उनमें जैनियोंके नेईसवें तथंकर उचित सम्मान किया । इस तरह और राज्यको श्रीसमृद्धिके भगवान पार्श्वनाथ का शासन या धर्म प्रचलित था। कारण बालककं वद्धमान होनेकी अनुमोदना की। वैशालीमें गंडकी नदी बहती थी उसके तटपर क्षत्रिय बालक व मान बाल्यकालीन दो ग्वाम घटनाओंके कुडपुर और ब्राह्मण कुण्डपुर नामक उपनगर अवस्थित ____x यहां यह प्रकट करदना अनुचित न होगा कि श्वेता थे । क्षत्रिय कुण्डपुरमें ज्ञात्रिक क्षत्रियोंक १०० घर थे ४ । म्बीय कल्पसूत्र और आवाश्यक भाष्यमें ८२ दिनबाद राजा सिद्धार्थ क्षत्रियकुडपुरके अधिनायक थे। सिद्धार्थकी महावीरके गर्भापहारकी अशक्य घटनाका उल्लेख रानी त्रिशला वैशालीक राजा चेटककी पुत्री थीं । जिम रात्रि- मिलता है इस घटनाको श्वेताम्बारीय मान्य विद्वान : भारतीय इतिहास की रूपरेखा भाग पृ. १३४ भी अनुचित बतला रहे हैं। * श्रमण भगवान महावीर पृ० । -देखो. चार तीर्थकर पृ. १०६ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - किरण भगवान महावीर [२३३ कारण 'महावीर' और 'सन्मति' नामसे लोकमें ख्यापित कल्याण करना चाहते थे। इसी कारण उन्हें सांसारिक हुए। बालक वद्ध मान बाल्यकालसही प्रतिभा सम्पन्न परा- भोग और उपभोग अरुचिकर प्रतीत होते थे। वे राज्य. क्रमी, वीर, निर्भय तथा मति-श्रुत-अवधिरूप तीन ज्ञान-नों कर दीक्षित होना बतलाया गया है । इससे स्पष्ट है कि शेष के धारक थे। उनका शरीर अत्यन्त मुन्दर और मनमोहक पाँच तीर्थकर कुमारअवस्थामें ही दीक्षित हुए हैं। इसीसे था। उनकी मौम्य प्राकृति देखते ही बनती थी और उनका टीकाकार अभयदव मूरिने अपनी वृत्तिमें 'शेषास्तु पंचकुमारमधुर संभाषण प्रकृतिः भद्र और लोकहितकारी था। उनके भाव एवेत्याहच' वाक्यके माथ 'वीरं अरिष्टनेमि' नामकी तेज पुजसे वैशालीका राज्यशासन चमक उठा था । उस समय वैशाली और कुण्डपुरकी शोभा दुगणित हो गई थी वीरं अरिट्टनेमि पास मल्लिं च वासुभुज च । और वह इन्द्रपुरीसे कम नहीं थी। पा मानगा जिणे अवसेसा आसि रायणा ॥२२१॥ वैराग्य और दीक्षा रायकुलेसुऽवि जाया विसुद्ध बंमेयवित्तिअ कुलेसु । भगवान महावीरका बाल्यजीवन उत्तरोत्तर युवावस्था न य इत्थियाभि से आ कुमारवामि पञ्चइया ॥२२२॥ में परिणत हो गया । राजासिद्धार्थ और त्रिशलाने महावीर - आवश्यक नियुक्रि पत्र १३६ का वाहिक सम्बन्ध करने के लिए प्रेरित किया क्योंकि इन गाथाओंमें बतलाया गया है कि वीर, अरिष्टनेमि, कलिंगदेशक राजा जितशत्रु, जिमके माथ राजा सिद्धार्थकी छोटी पार्श्वनाथ, मल्लि और वासुपूज्य इन पांचोंको छोड़कर शेष बहिन यशोदाका विवाह हुआ था, अपनी पुत्री यशोदाक १६ तीर्थकर राजा हुए हैं। ये पांचों तीर्थकर विशुद्ध बंशों, पाथ कुमार व मानका विवाह सम्बन्ध करना चाहता था, ॥ चाहता था, क्षत्रिय कुलों और राजकुलोंमें उत्पन्न होने पर भी स्त्री परन्तु कुमारवर्द्धमानने विवाह सम्बन्ध करानेके लिए मथा पाणिग्रहण और राज्याभिषेकसे रहित थे तथा कुमारावस्थामें इकार कर दिया-वे विरक्र होकर तपमें स्थित हो गए। ही दीक्षित हुए थे । गाथामें प्रयुक्त 'न य इत्थिाभिसेश्रा ही इपस राजा जितशत्रु का मनोरथ पूर्ण न हो सका है। क्योंकि कुमारवामीम पव्वइया' ये दोनों वाक्य खास तौरसे ध्यान कमारवमान अपना श्रान्म-विकास करते हुए जगतका दन योग्य हैं। इनमसं प्रथम वाक्यका अर्थ टिप्पणमें निम्न (अ) भवानकिश्रेणिक वत्तिभूपति नृपेन्द्रसिद्धार्थकनीयसीति प्रकारस विशद किया गया हैइमं प्रसिद्ध जिनशत्रु माग्व्ययाप्रतापबन्तं जितशत्रुमंडलम् ॥॥ स्त्री पाणिग्रहण-राज्याभिषेकोभयरहिता इत्यर्थः।' जिनेन्द्रवीरम्य ममुद्भवोत्सवे तदागतः कुन्दपुरं सुहृत्परः। -देखो, आवश्यक सूत्र भागमोदय समिति द्वारा प्रकाशित । मुपूजितः कुदपुरस्य भूभृता नृपोयमाम्बण्डलतुल्यविक्रमः ॥७॥ अावश्यक नियुक्ति की 'गामायारा विसया जे भुक्ता यशोदयायां सुतया यशोदया पवित्रया वीर विवाह मंगलम् । कुमाररहिह' नामकी गाथासे उक्त विषयकी और भी पुष्टि अनेककन्या परिवारयाम्हन्समीक्षतु नुगमनोरथं तदा ॥८॥ हो जाती है । परन्तु कल्प-सूत्रकी गत समरवीर राजाको स्थितऽधनायतपमि स्वरभवि प्रजातकवल्य विशाललोचन । पुत्री यशोदासे विवाह-सम्बन्ध होने और उससे प्रियदर्शना जगद्विभृत्य विहरत्यपि क्षिति क्षितिं विहाय स्थितवांस्तपस्य॥॥ नामकी लडकीके उत्पन्न होने और उसका विगह जामालिके -हरिवंशपुराणे जिनसनाचार्यः माथ करनेकी मान्यताका मूलाधार क्या है ? यह कुछ मालूम (श्रा) श्वेताम्बर माम्प्रदायमें महावीर के विवाह-सम्बन्धमें नहीं होता और न महावीरके दीक्षित होनेसे पूर्व एवं पश्चात् दो मान्यताएँ पाई जाती हैं। विवाहित और अविवाहित । यशोदाक शेष जीवनका अथवा उसकी मृत्यु श्रादिके संबंधों कल्पसूत्र और आवश्यक-भाप्यकी विवाहित मान्यता है और ही कोई उल्लेख श्वेताम्बरीय साहित्यमें उपलब्ध होता है समवायांगसूत्र तथा श्रावश्यकनियुक्निकार भद्रबाहुकी अवि- जिससे यह कल्पना भी निष्याण एवं निराधार जान पड़ती वाहित मान्यता है। है कि यशोदा अल्पजीवी थी और वह भगवान महावीरके "एगूणवीसं तिथयरा अगारवासमज्मे वसित्ता मुंडे दीक्षित होनेसे पूर्व ही दिवंगत हो चुकी थी। अत: उसकी वित्ताणं अगाराओ अणगारिश्र पवइया" मृत्युके बाद भगवान महावारके ब्रह्मचारी रहनेसे वे ब्रह्मचारीके -समवायांगसूत्र १६ पृ. ३५ रूपमें प्रसिद्ध हो गए थे। इम सूत्र में १६ तीर्थकरोंका घरमें रहकर और भोग भोग -देखो, अनेकान्त वर्ष ४ कि० ११, १२ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४] अनेकान्त वैभव में पले और रह रहे थे किन्तु वह जलमें कमलवत कि अमुक पुरुषने अज्ञानता या विद्वषवश असहनीय उपमर्ग रहते हुए उसे एक कारागृह ही समझ रहे थे, उनका अन्तः किया है। यह महावीरकी महानता और सहन-शालताका करण सांसारिक भोगाकांक्षाओंसे विरक और लाक-कल्याण- उच्चा आदर्श है। उन्होंने १२ वर्ष तक मौन पूर्वक जो कठोर की भावनासे श्रोत-प्रोत था। अत: विवाह-सम्बन्धको चचा तपश्ा का और मानव तथा तियचों द्वारा किये जाने वाले होने पर उसे अस्वीकार करना समुचित ही था । कुमार प्रसहाय उपयोंको निर्ममभावस सहन किया । उपपर्ग बर्द्धमान स्वभावतः ही वैराग्यशील थे। उनका अन्तःकरण और परिषह सहिप्णू होना महावीरके साधु-जीवनकी श्रादर्शता प्रशान्त और दयासे भरपूर था, वं दीन-दुखियोंक दु.ग्वोंका और महानता है। श्रमण महावीर शत्रु-मित्र, सुग्व-दुग्व, अन्त करना चाहते थे। इस समय उनकी अवस्था भो २६ प्रशंसा-निन्दा, लोह-कचन और जीवन-मरणादिम समानवर्ष ७ महीने और १२ दिन की हो चुकी था। अतः आत्मो- भावको-माह दोभस रहित वीतरागभावकी-अवलम्बन (कर्षकी भावना निरन्तर उदित हो रही था जो अन्तिम किये हुए थे। वे स्व-पर-कल्पना रूप ममकार अहकारात्मक ध्येयकी साधक ही नहीं, किन्तु उसके मूर्तरूप हानेका सच्चा विकल्पाका जात चुके थे और निर्भय होकर सिहक समान प्रतीक थी। अतः भगवान महावारने द्वादश भावनाओंका ग्राम नगारादिमें स्वच्छन्द विचरते थे। महावीर अपने यात्रु चिन्तन करते हुए संसारका अनित्य एव अशरणादि अनुभव जीवनमें तीन दिनसे अधिक एक स्थान पर नहीं ठहरते थे। किया और राज्य-विभूतिको छोडकर जिन दाता लेनका दृढ़ किन्तु वर्षा ऋतुमे व चार महाना जरूर किमी एक स्थान पर संकल्प किया। उनकी लोकोपकारी इस भावनाका लोकान्तिक रहकर योग-साधनामें निरत रहते थे। उनक मानी साधुदबोंन अभिनन्दन किया और भगवान महावीरन 'ज्ञातम्बर' जीवनस भा जनताको विशेष लाभ पहुंचा था। अनंकोंका नामक वनमें मंगशिर कृष्णा दशमीक दिन जिनदीक्षा अभयदान मिला, और अनकों का उद्धार हुआ और अनकाका ग्रहण की । उन्होंने बहुमूल्य वस्त्राभूषणांको उतारकर पथ-प्रदर्शन मिला। यद्यांप श्रमण महावीरक मुनि जावनमें फेंक दिया और पंचमुट्ठियांसे अपने कंशोका लोच कर डाला। होने वाले उपनगों का विस्तृत उल्लेख श्वेताम्बर परम्पराक इस तरह भगवान महावीरने सर्व पोरस निर्भय एवं निस्पृह समान दिगम्बर साहित्यम उपलब्ध नहीं होना परन्तु पांचवी और ग्रन्थ रहिन होकर दिगम्बर मुद्रा धारण कीx, जो शताब्दी प्राचार्य निवृषभका निलीयपण्णताका चतुर्थायथा-जात बालकके समान निर्विकार, वीतराग और ग्राम- धिकारगत १६२० न० की गाथांक- मत्तमतयामंतिमतिन्थसिद्धिकी प्रमाधक थी। यगणं च उवमम्गा' वाक्थस, जिसमें मातवें, तेईसवे श्रीर तपश्चर्या योर केवलज्ञान अंतिम तीर्थकर महावीरक सोपसर्ग होनसा स्पष्ट उल्लेख किया गया है । इसमें महावीरक मापमर्ग माधु जीवनका स्पष्ट पाभास • भगवान महावीरने अपने साधु जीवनमें अनशनादि मिल जाता है। भले ही उनमें कुछ अतिशयोक्रिसे काम द्वादश दुर्धर एवं दुष्कर तपोंका अनुष्ठान किया। भयानक । अनुष्ठान किया। भयानक लिया गया हो । परन्तु मण महावीर के सोपसर्ग साधु हिस्त्रजावांस भरी हुई अटवीमें विहार किया, डाय मच्छर, जीवनस इंकार नहीं किया जा सकता। शीत, उप्ण और वर्षादिजन्य घोर कष्टीको महा साथ ही महावीरन अपन साधुजीवनम पंचमितियोंक साथ मनउपसर्ग परीघहोंको, जो दूसरोंक द्वारा अज्ञानभावस अथवा वचन-कायरूप तीन गुप्तियांको जीननं श्रीर पंचन्द्रियोंको विद्शवश उत्पन्न किये गए थे, उन्हें सम्यक् भावसे सहन उनक विपर्यास निराध करने तथा कपाय चक्रको कुशल किया परन्तु इमरोंके प्रति अपने चित्तम जरा भी विकृतिका मल्नके ममान मलमलकर निष्प्राण एवं रस रहित बनानेका स्थान नहीं दिया, और न कभा यह विचार ही उत्पन्न हुश्रा उपक्रम करते हुए दर्शनज्ञान चारित्रकी स्थिरतासे ममतामय * देखो, पूज्यपादकृत निर्वाण भकि संयतीवन व्यतीत करते हुए समस्त परद्रव्यांक विकल्पोस x श्वेताम्बर सम्प्रदायकी मान्यता है कि महावीरक दिगम्बर शून्य विशुद्ध पात्मस्वरूपमें निश्चल वृत्तिस अवगाहन करने दीक्षा लेने पर इन्द्रने एक 'देवपूष्य' वस्त्र उन कंधे पर थे। श्रमण महावीर को इस तरह ग्राम, खेट, कवंट और डाल दिया था, कुछ समय बाद जिसमेंसे प्राधा फादकर सममत्तुबंधुवग्गो सममुह-दुक्खा पसंमणिंदममा । उन्होंने गरीब ब्राह्मण को दे दिया था। समलोट्टकंचणो पुण जीविद मरणे समो समणों । Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण } भगवान महावीर [२३५ - वन मटम्बादि अनेक स्थानों में मौन पूर्वक x उप्रोग्र तपश्च- प्राप्त हुए । उनके समक्ष जाति-विरोधीजीव भी अपना र. रणोंका अनुष्ठान एवं प्राचरण करते हुए बारह वर्ष, पांच महीनं विरोध छोड देते थे। उनकी अहिंमा विश्वशांति और और १५ दिनका समय व्यतीत हो गया । और वे घोर वास्तविक स्वतन्त्रताकी प्रतीक है और इसीलिए प्राचार्य नपक साधन द्वारा अपनी चित्त शुद्धि करते हए जम्भिका समन्तभद्रने उस परब्रह्म बतलाया है। ग्रामक समीप आये और ऋजूकूला नदीक किनारे शालवृक्षक भगवान महावीरका उपदेश और विहार नाचे वशाग्व शुक्ला दशमाको तीसरे पहरके समय जब व एक केवलज्ञान होनेके पश्चान् महावीरको दिव्य वाणीको शिला पर षष्ठोपबामसे युक्र होकर क्षपकश्रेणी पर श्रारूढ थे, झेलने या अवधारण करने योग्य कोई गणधर नहीं था, इस उस समय चन्द्रमा हस्तोत्तर नक्षत्रक मध्यमें स्थिन था, भग- कारण भगवान छयामठ दिन तक मौन पूर्वक रहे। वान महावीरन ध्यानरूपी अग्निक द्वारा ज्ञानावरणादि घाति- पश्चात राजगृहके विपुलगिरिपर श्रावण कृष्णा प्रतिपदाको कर्ममलको दग्ध किया+ और स्वाभाविक आत्म-गुणों का पूर्ण अभिजित नक्षत्रमें भगवान महावीरक मर्वोदय तीर्थकी धाग विकाम किया कंबल ज्ञान या पूर्णज्ञान प्राप्त किया। १ । कर्म प्रवाहित हुई । अर्थात भगवानका मबस प्रथम उपदेश कलंक बिनाशसे संसारक सभी पदार्थ उन ज्ञानमें युगपत हया । उसी दिनसे वीरक शासनकी लोको प्रवृत्ति प्रतिभापित होने लगे और इस तरह भगवान महावीर वीत- हुई-तीर्थचला। वह वर्षका प्रथम माप और प्रथम पक्ष गग. पर्वज और सर्वदर्शी होकर अहियाकी पूर्णप्रतिष्ठाको था, वहीयुगका भी प्राति था । इपीस अब यह पर्व वीर xश्वनाम्बर सम्प्रदायमें ग्राम नीर पर नीर्थकगेंक मौन- संत्रामदिर द्वारा प्रचरित समाजमें वीरशामन जयन्तीक पूर्वक तपश्चरणका विधान नही है। किन्तु उनके यहां जहां रूपमें मनाया जाने लगा है। क्योंकि इसका मानव नहां वर्षावाममें चौमामा विनाने और छद्मथ अवस्थामें उप- जीवनक विकामसे स्वाम्म सम्बन्ध है। उनकी इस सभा। देशादि म्वयं देने अथवा यक्षादिक द्वारा दिलानका उल्लंग्व पाया नाम समवसरण सभा था और उसमें देव, मनुष्य, पशु,पक्षी जाता है । परन्तु श्राचागंगमूत्र : टीकाकार शीलांकन माधिक वर्गरह सभी जीवोंको समुचित स्थान मिला, सभी मनुष्य बारह वर्षतक मौनपूर्वक तपश्चरणका दिगम्बर परम्पराके निथंच बिना किसी भेदभावक एक स्थान पर बैठकर धर्मोपदेश समान ही विधान किया है, वे वाक्य इस प्रकार हैं :- रहे थे । वनुष्योंकी तो बात क्या उस समय मिह, हिरण, ___'नानाभिधाभिनपता घोगन परीषहोपपर्गानपि महमानो सर्प, नकुल और चूहा बिल्ली श्रादि निथचों में भी कोई वैरमहापचया म्लेच्छानप्युपशमं नयन द्वादशवर्षाणि माधि- विरोध दृष्टिगोचर न होता था, प्रत्युन वे सब बड़ी हा शांनिकानि छद्मस्थी मौनव्रती नपश्चचार ।" के साथ दिव्य दशनाका पानकर रहे थे। इसमें पाठक भग-पाचागंगवृनि पृ. २७३ वान महावीरक शामनकी महत्ताका अनुमान कर सकते है। प्राचार्य शालांकक इम उल्लेख परसे श्यताम्बर ___x आंहला प्रतिष्ठायां तन्मन्निधी वैर त्याग., ३५, सम्प्रदायमें भी नीर्थकर महावीके मौनपूर्वक तपश्चरणका -पातंजलिकृत योगसूत्र। विधान होनस छनम्य अवस्थामें उपदेशादिकी कल्पना निरर्थक ॐ अहिमा भूतानां जगति विदितं ब्रह्मपरम, जान पड़ती है। न सा तत्रारम्भोऽस्त्यणुरपि च यत्राश्रमविधौ। * धवनामें भी भगवान महावीर नपश्चरणका काल बारह वर्षमा पांच महीने बतलाया है जैसा कि उपमें ततस्तन्सिाय परमकमणी ग्रन्थमुभयं, भवानेवाऽत्याक्षीन च विकृत-षोपधि-रतः ॥ स्वयं समुद्धत निम्न प्राचीन गाथासं स्पष्ट है + षट्षष्ठि दिवमानभृयो मनिन बिहरन विभुः । गमइय छदुमत्थतं बारस वासाणि पंचमासय । आजगम जगतख्यातं जिनो राजगृहं पुरं ॥ पण्णाग्म दिनाणिय ति-रयगामुद्धा महावीरो॥ -हरियश पुराण २-६१ + दवा, निर्वाणभक्ति पूज्यपाद कृत १०,१११२ । x वामस्म पढममास पढमे पक्खन्हि मावणे बहुले । ५ वइमाह-जोगहाम्वदममीए उजुकूलणदीतीरे जंभिय- पादिवद-पुत्र-दिवसे तिस्थुप्पत्ती दु अभिजिन्हि ॥ गामम्प वाहिछटोबवासेण मिलावटटे पाढावतण अवररहे सावण-बहुल-पडिवद रुह-मुहत्ते सुहोदए रविणो । पाद छायाए कंवलणाण मुप्पाइदं। अभिजिस्म पढम जोए जन्य जुगादी मुणेयब्यो । -जयधवला भा० १,५०४६ -धवला,,पृ०६३ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - अनेकान्त विर्ष १३ भगवान महावीरने अपने ३० वर्षके लगभग अर्थात् इस पद्यमें जिम शासनको 'सर्वोदयतीर्थ' कहा गया है २६ वर्ष ५ महीने और २० दिनके केवली जीवनमें काशी, वह मंसारके समस्त प्राणियोंको मंसार, ममद्रस तारनेके लिये कौशल, पांचाल, मगध, बिहार, राजगृह, मथुरा और अंग, घाट अथवा मार्गस्वरूप है, उसका श्राश्रय लेकर सभी जीव बंग कलिंगादि विविध देशों और नगरों में विहारकर जीवोंको श्राम विकाम कर सकते हैं। वह सब सबके उदय, अभ्युदय कल्याणकारी उपदेश दिया। उनको अन्धश्रद्धाको हटाकर उत्कर्ष एवं उन्नतिमें अथवा अपनी आत्माके पूर्णविकासमें समीचीन बनाया। दया, दम, त्याग और ममाधिका स्वरूप महायक है । पर्वोदय नीर्थ में तीन शब्द है मर्व उदय और बताते हुए यज्ञादि कांडोंमें होने वाली भारी हिमाको विनष्ट तीर्थ । पशब्द सर्वनाम है वह सभी प्राणियोंका वाचक है, किया और इस तरह बिल बिलाट करते हुए पशुकुलको उदयका अर्थ कल्याण, अभ्युदय, उत्कर्ष एवं उन्नति और अभय दान मिला। जनसमूहको अपनी भूलें मालूम हुई तीर्थ शब्द संपार समुद्रस तरनक उपाय स्वरूप जहाज, घाट और वे मत्पथके अनुगामो हुए। घृणा पापसे करना चाहिये अथवा मार्ग श्रादि अर्थों में व्यवहृत होना है। इससे इसका पापीसे नहीं, उसपर तो दया भाव रग्वकर उसकी भूल सुझा मामान्य अर्थ यह है कि जो शासन संसारके सभी प्राणियोंक कर प्रेमभावसे उसके उत्थान करनेका यत्न करना चाहिये। उन्कर्षमें सहायक है, उसके विकास अथवा उन्नतिका कारण शूदों और स्त्रियों को अपनी ये ग्यतानुसार आन्म-माधनका है वह शामन पर्वोदय 'तीर्थ' कहलाता है। यह तीर्थ सामाअधिकार मिला । महावीग्ने अपने संघमें स्त्रियों को मबम न्य-विशेष, विधि-निषेध और एक अनेक श्रादि विविध धर्मापहले दीक्षित किया और चन्दना उन सब प्रायिकाओंकी को लिए हुए है, मुख्य-गौणकी व्यवस्थासे व्यवस्थित है, गणिनी (मुख्य) थी। भगवान महावीरके शासनको महत्ताका पर्वदुःखोंका विनाशक है और म्वयं अविनाशी है। इपसे अनुमान लगाया जा सकता है कि उस समयके बडे २ इसके मिवाय, जो शामन वस्नुक विविध धर्मोमें पारस्परिक प्रधान राजा और युवराज अपने २ राज्य वैभवको जीर्ण तृणके अपेक्षाको नही मानता, उसमें दूसरे धर्मोका अस्तित्व नहीं समान छोड़कर महावीरके मंघमें दीक्षित होकर ऋषिगिरि बनता, अतः वह सब धर्मोस शून्य होता है। उसके द्वारा पर कठोर तपश्चर्या द्वारा प्राम-पाधना कर निर्वाणको पदार्थ व्यवस्था कभी ठीक नहीं हो सकती | वस्तुतन्वकी पधारे। जिनमें राजा चेटक, जीवंधर, वारिषेण और अभय. कान्त कल्पना म्ब-परके वैरका कारण है, उससे न अपना ही कुमारादिका नाम उल्लेखनीय है। हित होता है और न दृसरका ही हो सकता है, वहतो सर्वथा इस तरह भगवान महावीरने अपने विहार एवं उपदेश एकान्नके आग्रहमें अनुरक्र हुश्रा वस्तुतत्वसे दूर रहता है । द्वारा जगतका कल्याण करते हुए कार्तिक कृष्णा चतुर्दशीकी इमीसे पर्वथा एकान्त शामन 'मर्वोदयती नहीं कहला रात्रिके अन्तिम प्रहरमें पात्रासे परिनिर्वाण प्राप्त किया। पकत। अथवा जिस शासनमें पर्वथा एकान्तोंके विषयवीरशासन और हमारा कर्तव्य प्रवादाको पचानकी शक्रि-क्षमता नहीं है और न जो विक्रमकी दूसरी शताब्दीक प्राचार्य समन्तभदने भग उनका परस्परमें समन्वय ही कर सकता है वह शामन कदाचित भी 'पर्वोदय' शब्दका वाच्य नही हो सकता है। वान महावीरके शासनको उनके द्वारा प्रचारित या प्रसारित जो धर्म या शामन म्याद्वाद के ममुन्नत सिद्धान्तसे अलंकृत धर्मको निम्न पद्यमें सर्वोदय तीर्थ बतलाया है है, जिसमें ममता और उदारनाका सुधारम भरा हुआ है, सर्वान्तवत्तदगुणमुख्य कल्पं सर्वान्तशून्यंच मिथोऽनपेक्षम म जो स्वप्नमें भी किमी प्राणीका अकल्याण नहीं चाहतासर्वापदामंतकरं निरन्नं सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव ।। चाहे वह किमी नीची से नीची पर्यायमें ही क्यों न हो, जो xपच्छा पावाणयरे कत्तियमासस्य किरह चोमिए । अहिमा अथवा दयासे प्रोत-प्रोत है जिसके प्राचार-व्यवहारमें मादीप रत्तीए संसरय छत्तु णित्वाश्रो ॥३१॥ दूसरोंको दुःखोन्पादनकी अभिलाषारूप अमंत्री-भावनाका -जयधवला भा० १ पृ.८१ प्रवेश भी न हो, पंच इंद्रियोंक दमन अथवा जीतनके लिये तीन पावाओंका उल्लेख देखने में आना है उनमेंसे यह जिसमें संयमका विधान किया गया हो, जिसमें प्रेम और पावामगधमें थी । यह विहार नगरसे तीन कोस दक्षिण में है, वात्सल्यकी शिक्षा दी जाती हो, जो मानवताका सच्चा हामी और वर्तमानमें जैनियोंकी तीर्थ भूमि कहलाती है। हो, अपने विपचियोंके प्रति भी जिसमें राग और द्वेषकी Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ] भगवान महावीर चचल तरंगें न उठती हों जो सहिष्णु एवं क्षमाशील है, पाठ पढ़ाया है। परन्तु जैनी अहिंसाका पालन वही शासन सर्वोदयतीर्थ कहला सकता है और उसीमें कायर पुरुषसे नहीं हो सकता । अात्मनिर्भयी, इन्द्रियविजयी विश्ववन्धुन्चकी कल्याणकारी भावना भी अन्तनिहित होती सदृष्टि मनुष्य ही उसका यथेष्ट रीत्या पालक हो सकता है। है। वहीं शामन विश्व समस्त प्राणियोंका हितकारी धर्म अहिंमा जीवका निज म्वभाव है, यदि वह जीवका निज स्वहो सकता है । तथा जिमकी उपमना एवं भक्रिम अभद्रता भाव न होता तो मानव समृहरूपमें हम एक स्थान पर बैठ भी भी भगतामें परिणत हो जाती हो वही शासन विश्वमें नहीं सकते थे। कमाई हिमक होते हुए भी अपने बच्चों श्रेयस्कर हो सकता है। और स्त्री प्रादिस प्रेम करता ही है। इससे स्पष्ट है कि भगवानके शासन-सिद्धान्त बड़े ही गम्भीर और समुदार अहिसा जीवनका निज म्वभाव है। और क्रोधादि परिणाम है वे मैत्री प्रमोद कारुण्य और मध्यस्थताको भावनाओंस जीव विभाव हैं हिमा जनक हैं। श्रोत-प्रोत है, उनसे मानव-जीवनके विकासका खाम-सम्बन्ध अनकान्त-दुसरा सिद्धान्त अनेकान्त है, जिसका है उनके नाम हैं अहिंसा, अनेकान्त या स्याद्वाद, स्वतंत्रता अर्थ है। अनेक धर्मवाला पदार्थ । अन्त शब्दका अर्थ और अपरिग्रह। ये सभी सिद्धान्त बड़े ही मूल्यवान हैं। धर्म या गुण है। प्रत्येक पदार्थमें अनेक धर्म रहते हैं। क्योकि इनका मूलरूप अहिंसा है। उन सभी धर्मोका योग्य समन्वयक साथ अस्तित्व अहिंसा-वार शामनमें अहिसाकी जो परिभाषा बत- प्रतिपादन करना ही अनकान्त कहलाता है। अनेकान्तकी लाई गई है वह अन्यत्र नहीं मिलती। उसमें केवल प्राणी- यह ग्वाम विशेषता है कि वह दुनियावी विरोधों वधका न होना अहिंसा नहीं है किन्तु अपने अभिप्रायमें भी को पचा सकता है-उनका समन्वय कर सकता है तथा किसीको मारने, मताने, दुःखी करने जमा कोई भी दुष्कृत उनकी विषमता को दूर करता हश्रा उनमें अभिनव मैत्रीका विचार का न होना अहिसा है। श्रान्मामें राग, दोपोंकी संचार भी कर सकता है अनेकान्त जीवनके प्रत्येक क्षणमें उत्पत्तिका न होना अहिमा है और उनकी उत्पत्तिका नाम काम पाने वाला सिद्धान्त है। इस विना जीवन में एक f:मा है । वीर शापनमें अहिमाके दर्जे व दर्जे क्रमिक विकास समय भी काम नहीं चल सकता । यदि इसे वास्तरिक रीति का मौलिक रूप विद्यमान है जिनमें अहिमाको जीवनमें से जीवनमें घटित कर लिया जाय, तो फिर हमारे दैनिक उतारनेका बडा ही सरल तरीका बतलाया गया है। माथही जीवनमें आनेवाली कठिनाइयों या विषमताका कभी अनुभव उमकी व्यवहारिकता उपयोगिता और महत्ताका भी उल्लेख गिता भार महत्ताका भी उल्लेख नहीं हो सकता। हमारा व्यवहार जबसे एकान्निक हो जाता किया गया है । जिसपर चलनेस जीवात्मा परमात्मा बन नब वह विषमता कारण बन जाता है. अत: हमें अपने सकता है। भगवान महावीरने बतलाया कि संमारक मभी व्यवहारको अनेकान्तकी सीमाकं अन्दर रग्बने हुए प्रवृत्ति जीवों को अपने प्राण प्यार हैं कोई भी जीव मरना नहीं करनी चाहिये। चाहता । सब सुख चाहते है और दुग्खसे डरते हैं। अतः हमें स्वतन्त्रता-वीर शासनका नीसंग सिद्धान्त स्वतन्त्रता अपने जीवन में ऐसा व्यवहार नहीं करना चाहिये जिसस है। भारतके दूसरे धर्मोमें जहाँ जीवको परतन्त्र माना जाता दृयरोंको दुख या कष्ट पहुंचे। क्योंकि दुर्भावका नाम हिंमा है-उसके सुखदुःखादि सभी कार्य ईश्वरके प्रयन्न एवं इच्छा है, ऋरता है, पाप है। कायरता या बुजदिली हिंसाकी जननी से सम्पन्न होते बतलाए जाते हैं, वहाँ वीर शासनमें जीवको है। अहिंसा जीवन प्रदायिनी शक्रि है उससे प्रात्मबलकी स्वतन्त्र माना है-वह सुखदुःव अच्छे या बुरे कार्योको वृद्धि होती है। मानवताके साथ नैतिक चरित्रमें भी प्रतिष्ठा अपनी इच्छासे करता और उनका फल भी स्वयं भोगता और बलका संचार होता है तथा मानव सत्यताकी और है। वीर शासनमें द्रव्यदृष्टिस (जीवत्व की अपेक्षास) सभी अग्रसर होने लगता है, उपक मनमें स्वार्थ-वासना और विषय जीव समान है। परन्तु पर्याय दृष्टिस उनमें राजा रंक श्रादि लालुपना जैसी दुर्भावनाएं बाधक नहीं हो सकतीं। गांधीजी भेद हो जाते हैं । इस भेदका कारण जीवोंके द्वारा समुपार्जित महावीरकी अहिमा और सन्यकी एक देश निष्ठास ही स्वकीय पुण्य-पाप कर्म है । उसके अनुसार ही जीव अच्छीमहात्मा बने हैं। महावीरक बाद उन्होंने राजनीतिमें बुरी पर्याय प्राप्त करता हैं और उनमे अपने कर्मानुसार भी अहिंसाका प्रयोग करके जगतको उसकी महत्ताका सुख-दुखका अनुभव करता है। जीवात्मा स्वयं ही अपनेको Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८] अनेकान्त [ वर्षे १३ - - उमत और अवनत बनाता है। तत्वदृष्टिसे आत्माका गुरु जैसे बांका और दमरे अस्त्र-शस्त्रोंका निर्माण हो रहा है, आत्मा ही है। अपरिग्रह-परिग्रह परिमाण अथवा अपरिग्रहवत जिनक भयसे दुनिया मंत्रस्त है, भयभीत है। यदि दुनियाके लोग अपनी आशाओंको मीमित बना लें और गम्राज्यवादविश्वशांतिका अमोघ उपाय है। ममत्व परिणामका नाम ही परिग्रह है। परिग्रह रागद्वेषकी उत्पत्तिमें कारण है, और की अनुचित अभिवृद्धिको लोलुपताको कम कर , जिम्मकी. गगढेषका उत्पन्न होना हिंमा है परिग्रहसे हिंसा होती है। चाह-दाहकी भीषण ज्वालासे मारक मानव मुलम रहे अतः अहिंसक जीवके लिए परिग्रहका परिमाण कर लेना है-परिप्रहकी अपार नृणामें जल रहे हैं और उसकी श्रेयस्कर है, परन्तु जो मनुष्य परिप्रहका पूर्ण व्याग नहीं कर पूनिके लिये अनेक प्रयत्न किये जाते हैं और जिम्मकी अपर्णता सकता वह गृहस्थ अवस्थामें रहकर न्यायसे धनादि सम्पत्ति- जीवनमें 'द मचा रही है. अमनुष्ट और अशांन बना रही का अर्जन एव' संग्रह करे । परन्तु उसके लिए उसे उतने ही है, वह सब अशान्ति परिग्रहका परिमाण करने अथवा अपनी प्रयत्नकी जरूरत है जितनसे उमकी आवश्यकताओंकी पति इच्छाओं पर नियंत्रण करनेमे जीवनमें होने वाली भारी प्रासानीस हो सकती हो। अतः गृहस्थके लिए परिग्रहका अशान्तिसे महज ही बच सकते हैं और परस्परकी विषमता प्रमाण करना आवश्यक है, उमस वह अनेक संघर्षोसे अपनी भी दूर हो सकती है। भगवान महावीरका यह सुन्दर रक्षा कर सकता है। मुनि चूंकि परिग्रह रहित होने हैं अतः सिद्धान्त मानव जीवनक लिय कितना उपयोगी है और उन्हें अपरिग्रहो एवं अतिचिन कहा जाता है। वास्तवमें उसमे जीवन कितना सुम्बी बन सकता है यह अनुभव और यदि विचार कर देखा जाय तो संसारक सभी अनर्थोका मृल मनन करनेको वस्तु है । यदि सभी दश महावीरके कारण परिग्रह अथवा साम्राज्यवादकी लिप्मा है । इसके लिए इस अपरिग्रह मिन्द्वान्तका उचित रीतिसे पालन करनेका एक राष्ट्र मरे राष्ट्रको निगलन एवं हडपनेकी कोशिश व्रत करें तो फिर विश्वमें कभी अशान्ति हो नहीं करता है अन्यथा विभूतिके मंग्रहकी अनुचित अभिलाषाके मकती और न फिर उन अस्त्र-शस्त्रोंक निर्माणको हो बिना रक्तपात होनेकी कोई सम्भावना ही नहीं है। क्योंकि जरूरत रह जाती है। अतः समाजको भगवान महावीरक अनर्थोंका मूलकारण लोभ अथवा स्त्री, राज्य और वैभवकी इन सुनहले सिद्धान्तों पर स्वयं अमल करना चाहिये। सम्प्राप्ति है। इनके लाभ ही महाभारत जैसे काण्ड हुये है, साथ ही मंगठन महन-शीलता तथा वात्सल्यका अनुसरण आज भी विश्वकी अशांतिका कारण साम्राज्यवादको लिज्मा, करते हुए उन सिद्धान्तोंका प्रचार व प्रसार करनेका प्रयत्न वश प्रतिष्ठादि हैं उसीके लिए परमाणुबम और उदजन बम करना चाहिए । जैनग्रन्थ प्रशस्तिसंग्रह यह ग्रन्थ १७१ अप्रकाशित ग्रन्थोंकी प्रशस्तियोंको लिए हुये है। ये प्रशस्तियाँ हस्तलिखित ग्रन्थों परसे नोट कर संशोधनके साथ प्रकाशित की गई हैं। पं० परमानन्दजी शास्त्रीकी ११३ पृष्ठकी खोजपूर्ण महत्वकी प्रस्तावनासे अलंकृत है, जिसमें १०४ विद्वानों, प्राचार्यों और भट्टारकों तथा उनकी प्रकाशित रचनाओंका परिचय दिया गया है जो रिसर्चस्कालरों और इतिहास संशोधकोंके लिये बहुत उपयोगी है। मृन्य ४) रुपया है। ___. मैनेजर वीरसेवा-मन्दिर जैन लाल मन्दिर, चाँदनी चौक, देहली. Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीरसेवामन्दिरके सुरुचिपूर्ण प्रकाशन (१) पुरातन-जैनवाक्य-सूची-प्राकृतके प्राचीन ६४ मूल-ग्रन्यांकी पयानुक्रमणी, जिसके साथ ४८ टीकादिग्रन्थों में उद्धृत दृमरे पद्योंकी भी अनुक्रमणी लगी हुई है । सब मिलाकर २५३५३ पद्य-चाक्याको सूची । संयोजक और सम्पादक मुख्तार श्रीजुगलकिशोरजी की गवेषणापूर्ण महत्वको ७० पृष्ठको प्रस्तावनासे अलंकृत, डा० कालीदास नाग एम. ए., डी. लिट् के प्राक्कथन (Foreword) और डा. ए. एन. उपाध्याय एम. ए डी. लिट की भूमिका (Introduction) से भूषित है, शोध-बोजके विद्वानों के लिये अतीव उपयोगी, बड़ा माइज, सजिल्द ( जिसकी प्रस्तावनादिका मूल्य अलगसे पांच रुपये है) (२) आप्त-परीक्षा-श्रीविद्यानन्दाचार्यकी स्वोपज्ञ मटीक अपूर्वकृति,प्राप्तांकी परीक्षा द्वारा ईश्वर-विषयके सु दर सरस और मजीव विवेचनको लिए हुए, न्यायाचार्य पं. दरबारीलालजी के हिन्दी अनुवाद तथा प्रस्तावनादिसे युक्त, सजिल्द । (३) न्यायदीपिका-न्याय-विद्याकी सुन्दर पोथी, न्यायाचार्य पं. दरबारीलालजीक संस्कृतटिप्पण, हिन्दी अनुवाद, विस्तृत प्रस्तावना और अनेक उपयोगी परिशिष्टोंसे अलंकृत, मजिल्द। ... (४) स्वयम्भूस्तात्र-ममन्तभद्रभारतीका अपूर्व ग्रन्थ, मुख्तार श्रीजुगलकिशारजीक विशिष्ट हिन्दी अनुवाद, छन्दपरि चय, समन्तभद्र-परिचय और भक्तियांग, ज्ञानयोग तथा कर्मयोगका विश्लेषण करती हुई महत्वकी गवेषणापूर्ण १०६ पृष्ठकी प्रस्तावनामे सुशोभित। ... (५) स्तुतिविधा-स्वामी समन्तभद्रकी अनोग्बी कृति, पापांके जीतनेकी कला, मटीक, मानुवाद और श्रीजुगलकिशोर मुख्तारकी महत्वकी प्रम्तावनादिम अलंकृत सुन्दर जिल्द-पहिन । (६) अध्यात्मकमलमानण्ड-पंचाध्यायीकार कवि राजमलकी सुन्दर प्राध्यास्मिक रचना, हिन्दीअनुवाद-महित और मुग्तार श्रीजुगलकिशोरकी खोजपूर्ण ७८ पृष्ठकी विस्तृत प्रस्तावनामे भूषित। ... १॥) (५) युक्त्यनुशासन-तत्त्वज्ञानस परिपूर्ण ममन्तभद्की असाधारण कृति, जिसका अभी नक हिन्दी अनुवाद नहीं हुअा था । मुख्तारश्रीके विशिष्ट हिन्दी अनुवाद और प्रस्तावनादिने अलंकृत, जिल्द । ... ) (८) श्रीपुरपाश्वनाथस्तोत्र-श्राचार्य विद्यानन्दचित, महत्वकी स्तुति, हिन्दी अनुवादादि हिन । ... ॥) (६) शामनचतुग्त्रिशिका-(नीर्थपरिचय )-मुनि मदनकी निकी १३ वीं शताब्दोकी सुन्दर रचना, हिन्दी अनुवादादि-हित । (१०) सत्साध-स्मरगा-मंगलपाठ-श्रीवीर बर्द्धमान और उनके बाद के २१ महान प्राचार्यों के १३० पुण्य-स्मरणांका ___ महत्वपूर्ण संग्रह. मुख्तारश्रीक हिन्दी अनुवादादि-हिन । (११) विवाह-ममुद्देश्य - मुख्तारधीका लिम्वा हा विवाहका मप्रमाण मार्मिक और तास्तिक विवेचन " ॥) (१२) अनेकान्त-रस लहरी-अनकान्त जैसे गूढ गम्भीर विषयका बड़ी सरलतासं समझने-समझानेकी कुजी, मुख्तार श्रीजुगलकिशोर-लिखित । (१३) अनित्यभावना-प्रा. पद्मनन्दी की महत्वकी रचना, मुख्तारश्रीक हिन्दी पद्यानुवाद और भावार्थ सहित ।) (१४) तत्त्वाथसूत्र-(प्रभाचन्द्रीय)-मुख्नारश्रीक हिन्दी अनुवाद तथा व्याख्यास युक्त । (१५) श्रवणबेल्गोल और दक्षिणक अन्य जैनतीर्थ क्षेत्रला . राजकृष्ण जैनकी सुन्दर सचित्र रचना भारतीय पुरातत्व विभागके डिप्टी डायरेक्टर जनरल डाल्टी०एन० रामचन्द्रनकी महत्व पूर्ण प्रस्तावनासे अलंकृत ) नोट-ये मब ग्रन्थ एकसाथ लेनेवालोंको ३८॥) की जगह ३०) में मिलेंगे। व्यवस्थापक 'वीरसेवामन्दिर-ग्रन्थमाला' वीरसेवामन्दिर, जैन लाल मन्दिर, चाँदनी चौक देहली। Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Regd. No D. 211 अनेकान्तके संरक्षक और सहायक संरक्षक १०१) बाल शान्तिनाथजी कलकत्ता म.१५००)बा नन्दलालजी सरावगी, कलकत्ता १०१) बा० निर्मलकुमारजी कलकत्ता ५ २५१) बा० छोटेलालजी जैन सरावगी , १०१) बा० मोतीलाल मक्खनलालजी, कलकत्ता २५१) बा० सोहनलालजी जैन लमेचू , १०१) बा० बद्रीप्रसादजी सरावगी, #२५१) ला० गुलजारीमल ऋषभदामजी , १०१) बा० काशीनाथजी. .." २५१) बा० ऋषभचन्द (B.R.C. जैन , १०१) बा० गोपीचन्द रूपचन्दजी ५१) बा० दीनानाथजी मरावगी १.१) बा० धनंजयकुमारजी २५१) वा० रतनलालजी झांझरी १०१) बाजीतमल जी जैन २५१) बा० बल्देवदासजी जैन सरावगी , १०१) बाचिरंजीलालजी सरावगी म २५१) सेठ गजराजजी गंगवाल १०१) बा० रतनलाल चांदमलजी जैन, रॉची १. २५१) सेठ मुआलालजी जैन १०१) ला० महावीरप्रसादजी ठेकेदार, देहली २५१) बा० मिश्रीलाल धर्मचन्दजी , १०१) ला० रतनलालजी मादीपुरिया, देहली २५१) सेठ मांगीलालजी १०१) श्री फतहपुर जैन समाज, कलकत्ता २५१) सेठ शान्तिप्रसादजी जैन १०१) गुमसहायक, सदर बाजार, मंग्ठ 5२५१) बा० विशनदयाल रामजीवनजी, पुलिया १०१) श्री शीलमालादेवी धर्मपत्नी डा०श्रीचन्द्रजी, एटा २५१) ला० कपूरचन्द धूपचन्दजी जैन, कानपुर १०१) ला मक्खनलाल मातीलालजी ठेकेदार, देहली २५१) बा० जिनेन्द्रकिशोरजी जैन जौहरी, देहली १०१) बा० फूलचन्द रतनलालजी जैन कलकत्ता २५१) ला० राजकृष्ण प्रेमचन्दजी जैन, देहनी १०१) बा० सुरेन्द्रनाथ नगेन्द्रनाथजी जैन, कलकत्ता * २५१) बा० मनोहरलाल नन्हेंमलजी, देहली १०१) बा० वंशीधर जुगलकिशोरजी जेन, कलकत्ता २५१) ला०त्रिलोकचन्दजी, सहारनपुर १०१) बा. बद्रीदाम आत्मारामजी मरावगी, पटना २५१) सेठ छदामीलालजी जैन, फीरोजाबाद १०१) ला० उदयराम जिनश्वरदासजी सहारनपुर २५१) ला० रघुवीरसिंहजी, जैनावाच कम्पनी. देहली १०१) बा० महावीरप्रमादजी एडवोकेट, हिसार २५१) रायबहादुर सेठ हरखचन्दजी जैन, रांनो २०१) ला० बलवन्तसिंहजी, हांसी जि० हिसार २५१) सेठ वधीचन्दजी गंगवाल, जयपुर १.१) मेठ जाग्वीरामबैजनाथ सरावगी, कलकत्ता सहायक १०१, बाबू जिनेन्द्रकुमार जैन, सहारनपुर १०१) वैद्यराज कन्हैयालालजी चद औषधालय,कानपुर १०१) बा० राजेन्द्रकुमारजी जैन, न्यू देहली १०१)ला. प्रकाशचन्द व शीलचन्दी जौहरी, देहलो र १०१) ला० परसादीलाल भगवानदासजी पाटनी, देहली १०१) ला• रतनलाल जी कालका वाले, देहली १०१) बा० लालचन्दजी बी० सेठी, उज्जैन १०१) बा० घनश्यामदास बनारसीदासजी, कलकत्ता अधिष्ठाता 'वीर-सेवामन्दिर' १०१) बा० लालचन्दजी जैन सरावगी सरसावा, जि. सहारनपुर पाक-परमानन्दजी जैन यान्त्री वि. जैन बालमंदिर रेहती। मुद्रक-प-चावी प्रिटिंग हाउस २६, दरियागंज, रेल्ली Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नकात फरवरी १९५५ सम्पादक-मण्डल जुगलकिशोर मुख्तार विषय-सूची छोटेलाल जैन जयभगवान जैन एडवोकेट । १ ममन्तभद्र भारती ( देवागम) [युगवीर १६१ २ श्री हीगचन्दजी बोहगका नम्र निवेदन और परमानन्द शास्त्री ___कुछ शंकाएँ-[ जुगलकिशोर मुख्तार १६३ ३ अहोगत्रिकाचार [तु० मिद्धिमागर १६५ ४ क्या मुख-दुःखका अनुभव शरीर करना है ? - [तु० मिदिमागर १६७ ५ दीवान अमरचन्द- [परमानन्द जैन १६८ । ६ महापुगण-कलिकाकी अन्तिम प्रशम्नि- [२०२ ७ मृनियों और श्रावकोंका शुद्धोपयोग [पं० होगलालजी जैन मि० शाम्त्री २०४ . हम्निनागपुरका बड़ा जैन मन्दिर [परमानन्द जैन शास्त्री २०५ ह जन माहित्यका भाषा-विज्ञान-दृष्टिसे अध्ययनअनेकान्त वर्ष १३ ॥ [श्री माईदयाल जैन बी० ए० ( आनर्स ) बी. टी. २१० १० अस्पृश्यता विधयक और जैन-समाजकिरण - [श्री कोमलचन्दजी जैन एडवोकेट २१२ । ११ मोजमावादक जैन-समाजको ध्यान देने योग्य [ परमानन्द जैन शाम्त्री २१४ । Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामी समन्तभद्रका समीचीन धर्मशास्त्र ( रत्नकरण्ड ) मुख्तार श्री जुगलकिशोर के हिन्दी भाष्य सहित छपकर तय्यार सर्व साधारणको यह जान कर प्रसन्नता होगी कि श्रावक एवं गृहस्थाचार - विषयक जिस र्थात प्राचीन तथा समीचीन धर्मग्रन्थ के हिन्दी भाग्य -सहित कुछ नमूनों को 'समन्तभद्र - वचनामृत' जैसे शीर्षकांके नीचे अनेकान्त में प्रकाशित देख कर लोक- हृदयमें उस समृचे भाष्य ग्रन्थको पुस्तकाकार रूपमें देखने तथा पढ़ने की उत्कण्ठा उत्पन्न हुई थी और जिसकी बड़ी उन्मुकनाके साथ प्रतीक्षा की जा रही थी वह अब छपकर तैयार हो गया है, अनेक टाइपोंके सुन्दर अक्षरोंमें ३५ पौंडके ऐसे उत्तम कागज पर छपा है जिसमें २५ प्रतिशत रूई पड़ी हुई है । मूलग्रन्थ अपने विषयका एक बेजोड़ ग्रन्थ है, जो ममन्तभद्र-भारती में ही नहीं किन्तु समृचे जैनसाहित्य में अपना खास स्थान और महत्व रखता है । भाष्य में, मूलकी मीमाके भीतर रह कर, ग्रन्थके मर्म तथा पद-वाक्योंकी दृटिको भले प्रकार स्पष्ट किया गया है, जिससे यथार्थ ज्ञानके साथ पद-पद पर नवीनताका दर्शन होकर एक नये ही रसका आस्वादन होता चला जाता है और भाष्यको पढ़नेकी इच्छा बराबर बनी रहती है - मन कहीं भी ऊबता नहीं । २०० पृष्ठके इस भाप्यके साथ मुख्तारश्रीकी १२८ पृष्ठकी प्रस्तावना, विषय सूची के साथ, अपनी अलग ही छटाको लिये हुए है और पाठकोंके सामने खाज तथा विचारक विपुल सामग्री प्रस्तुत करती हुई ग्रन्थके महत्वको ख्यापित करती है । यह ग्रंथ विद्यार्थियों तथा विद्वानों दोनोंके लिये समान रूपसे उपयोगी है, सम्यग्ज्ञान एवं विवेकको वृद्धिके साथ आचार-विचारको ऊँचा उठानेवाला और लोक में सुख-शान्तिकी सच्ची प्रतिष्ठा करनेवाला है । लगभग ३५० पृष्ठके इस दलदार सुन्दर मजिन्द ग्रन्थकी न्योछावर ३) रु० रकावी गई है । जिल्दSafar काम होकर एक महीने के भीतर ग्रन्थ भेजा जा सकेगा। पटनेच्छुक तथा पुस्तकविक्रेताओं ( बुकसेल) को शीघ्र ही अपने यार्डर बुक करा लेने चाहियें । मैनेजर 'वीर सेवामन्दिर - ग्रन्थमाला' दि० जैन लालमन्दिर, चाँदनी चौक, देहली अहिंसा-सम्मेलन श्री जैनमिशन की बिहार प्रान्तीय शाखा की ओर से पारसनाथ ( मधुवन) में फागुन मुडी ४ ता० ७ मार्चको एक विराट अहिसा सम्मेलन होगा | अच्छे-अच्छे विद्वान भी पहुँचेंगे | हिंसा प्रेमियों को इस अवसर पर अवश्य पहुँचना चाहिए । संचालक ताराचन्द जैन गंगवाल 'बिहारप्रान्तीय जैनमिशन' माडम (हजारी बाग ) Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वार्षिक मूल्य ६) वर्ष १३ किरण म विश्व तत्त्व-प्रकाशक ॐ अर्हम न का नीतिविरोधध्वंसी लोकव्यवहारवर्तकः सम्यक् । परमागमस्य बीजं भुवनैकगुरुर्जयत्यनेकान्तः ॥ वस्तु तत्त्व-संघोतक वीर सेवामन्दिर, C/o दि० जैन लालमन्दिर, चाँदनी चौक, देहली माघ, वीनिर्वाण - संवत् २४८१, विक्रम संवत २०११ समन्तभद्र-भारती देवागम फर्वरी एक किरण का मूल्य 11) १६५५ नित्यत्वैकान्त-पक्षेप विक्रिया नोपपद्यते । प्रागेव कारकाऽभावः क्व प्रमाणं क्व तत्फलम् ||३७|| 'यदि नित्यत्व एकान्तका पक्ष लिया जाय - यह माना जाय कि पदार्थ सर्वथा नित्य है, सदा अपने एक ही रूपमें स्थिर रहता है - तो विक्रियाकी उपपत्ति नहीं हो सकती - श्रवस्थासे श्रवस्थान्तर रूप परिणाम, हलन चलनरूप परिस्पन्द अथवा विकारात्मक कोई भी क्रिया पदार्थ में नहीं बन सकती; कारकों का - कर्ता, कर्म करणादिका - अभाव पहले ही (कार्यात्तिके पूर्व ही ) होता है - जहाँ कोई अवस्था न बदले वहाँ उनका सद्भाव बनता ही नहीं— और जब कारकोंका अभाव है तब ( प्रमानाका भी अभाव होनेसे ) प्रमाण और प्रमाणका फल जो प्रमिति ( मभ्यग्-ियथार्थ जानकारी ) ये दोनों कहाँ बन सकते हैं ? नहीं बन सकते। इनके तथा प्रमाताके श्रभावमें 'नित्यत्व एकान्तका पक्ष लेनेवाले पांख्योंके यहाँ जीवतत्वकी सिद्धि नहीं बनती और न दूसरे ही किसी तत्वकी व्यवस्था ठीक बैठती है ।' प्रमाण-कारकैर्व्यक्त ं व्यक्त ं चेन्द्रियाऽर्थवत् । ते च नित्ये विकार्यं किं साधोस्ते शासनाद्वहिः ॥३८॥ *( यदि सांख्यमत-वादियोंकी ओरसे यह कहा जाय कि कारणरूप जो अव्यक्त पदार्थ है वह सर्वथा नित्य है, कार्यरूप जो व्यक्त पदार्थ है वह नित्य नहीं, उसे तो हम अनित्य मानते है और इसलिए हमारे यहाँ विक्रिया बनती है, तो ऐसा कहना ठीक नहीं है; क्योंकि ) इन्द्रियांक द्वारा उनके विपयकी अभिव्यक्ति के समान जिन प्रमाणों तथा कारकों के द्वारा अव्यक्तको व्यक्त हुआ बतलाया जाता है वे प्रमाण और कारक दोनों ही जब सर्वथा नित्य माने गये हैं तब उनके द्वारा विक्रिया बनती कौन सी है ? – सर्वथा नित्यके द्वारा कोई भी विकाररूप क्रिया नहीं बन सकती और न कोई अनित्य कार्य ही घटित हो सकता है। हे साधो ! - वीर भगवन् ! - आपके शासन के बाह्य - आपके द्वारा अभिमत Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ अनेकान्त [ वर्ष १३ अनेकान्तवादको सीमाके बाहर - जो नित्यत्वका सर्वथा एकान्तवाद है उसमें विक्रियाके लिये कोई स्थान नहीं हैसर्वथा नित्य कारणोंसे अनित्य कार्योको उत्पत्ति या अभिव्यक्ति बन ही नहीं सकती और इसलिये उक्त कल्पना भ्रमसूलक है।" यदि सत्सर्वथा कार्यं वनोत्पत्तुमर्हति । परिणाम- प्रक्लृप्तिश्च नित्यत्वैकान्त - बाघिनी ॥ ३६ ॥ ' ( यदि सांख्योंकी ओरसे यह कहा जाय कि हम तो कार्य-कारण- भावको मानते हैं- महदादि कार्य हैं और प्रधान उनका कारण है— इसलिए हमारे यहाँ विक्रियाके बननेमें कोई बाधा नहीं श्राती, तो यह कहना अनालोचित सिद्धान्तके रूपमें विचारित है; क्योंकि कार्यकी सत् और असत् इन दो विकल्पोंके अतिरिक्त तीसरी कोई गति नहीं । ) कार्यको र्याद सर्वथा सत् माना जाय तो वह चैतन्य पुरुषकी तरह उत्पति के योग्य नहीं ठहरता - कूटस्थ होनेसे उसमें उत्पत्तिजैसी कोई बात नहीं बनती, जिस प्रकार कि पुरुषमें नहीं बनती। दूसरे शब्दोंमें यों कहिये कि जो सर्वथा सत् है उसके चैतन्यकी तरह कार्य नहीं बनता, चैतन्य कार्य नहीं है श्रन्यथा चैतन्यरूप जो पुरुष माना गया है उसके भी कार्यका प्रसंग आएगा | अतः जिस प्रकार सर्वथा सत्रूप होनेसे चैतन्य कार्य नहीं है उसी प्रकार महदादिकके भी कार्यश्व नहीं बनता । जब नई कार्योत्पत्ति ही नहीं तब विक्रिया कैसी ? और कार्यको यदि सर्वथा असत् माना जाय तो उससे सिद्धान्तविरोध घटित होता है, क्योंकि कार्य- कार - भावको कल्पना करनेवाले सांख्योंके यहाँ कार्यको सत् रूपमें ही माना है - गगनकुसुमके समान असत् रूपमें नहीं । ) ' (यदि यह कहा जाय कि वस्तु अवस्था अवस्थास्तर होने रूप जो विवर्त है परिणाम है-वही कार्य है तो इससे वस्तु परिणामी ठहरी ) और वस्तु में परिणामकी कल्पना ही नित्यत्वके एकान्तको बाधा पहुँचानेवाली हैसर्वधा नित्यत्वक एकान्तमें कोई प्रकारका परिणाम परिवर्तन अथवा अवस्थान्तर बनता ही नहीं ।' पुण्य-पाप-क्रिया न स्यात्प्रेत्यभावः फलं कुतः । बन्ध-मोक्षौ च तेषां न येषां त्वं नाऽसि नायकः ||४०|| *( ऐसी स्थितिमें हे वीरजिन !) जिनके श्राप ( श्रनेकान्तवादी ) नायक (स्वामी) नहीं हैं उन सर्वथा नित्यत्वैकान्तवादियों के यहाँ ( मनमें ) पुण्य-पापकी क्रिया - मन-वचन-कायकी शुभ या अशुभ प्रवृत्तिरूप श्रथवा उत्पादव्ययरूप कोई क्रिया नहीं बनती, ( क्रियाके अभाव में ) परलोक-गमन भी नहीं बनता, ( सुग्व-दुम्बरूप ) फलप्राप्ति की तो बात ही कहांसे हो सकती है ? -- वह भी नहीं बन सकती और न अन्ध तथा मोक्ष ही बन सकते हैं ।तब सर्वथा नित्यत्रके एकान्तपक्षमें कौन परीक्षावान किस लिए श्रादरवान हो सकता है ? उसमें सादर प्रवृत्तिके लिये किसी भी परीक्षकके वास्ते एक भी आकर्षण अथवा कारण नहीं है ।" क्षणिकैकान्त- पक्षेऽपि प्रेत्यभावाद्यसम्भवः । प्रत्यभिज्ञाद्यभावान्न कार्यारम्भः कुतः फलम् ॥ ४१ ॥ ' ( नित्यत्वैकान्तमें दोष देख कर ) यदि क्षणिक एकान्तका पक्ष लिया जाय - बौद्धोंक सर्वथा धनित्यत्वरूप एकान्तवादका आश्रय लेकर यह कहा जाय कि सर्व पदार्थ क्षणाक्षणामें निरन्वय- विनाशको प्राप्त होते रहते हैं, कोई भी उनमें एक क्षण के लिये स्थिर नहीं है - तो भी प्रेत्यभावादिक असंभव ठहरते हैं- परलोकगमन और बन्ध तथा मोक्षादिक नहीं बन सकते । ( इसके सित्राय प्रत्यभिज्ञान, स्मरण और अनुमानादि जैसे ज्ञान भी नहीं बन सकते ) प्रत्यभिज्ञानादि - जैसे ज्ञानोंका अभाव होनेसे कार्यका आरम्भ नहीं बनता और जब कार्यका आरम्भ ही नहीं तब उसका ( सुखदुःखादिरूप अथवा पुण्य-पापादिरूप ) फल तो कहांसे हो सकता है ? नहीं हो सकता । अतः सर्वथा क्षणिकान्त भी tarantia लिये श्रादरणीय नहीं है । * 'असदकरणादुपादानग्रहणात्सर्वसंभवाभावात् । शक्रस्य (कार्यस्य ) शक्य करणात् कारणभावाच्चसत्कार्यम्" इति हि साख्यानां सिद्धान्तः ।- (अष्टसहस्री पृ० ११) Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीहीराचन्दजी बोहराका नम्र निवेदन और कुछ शंकाएँ (जुगलकिशोर मुस्तार ) [गत किरणसे आगे] कानीस्वामी वाक्योंको उद्धत करनेके अनन्तर श्री बोहराजीने मुझसे पूछा है कि "आत्मा एकान्ततः अबद्धस्पृष्ट है" यह वाक्य कानजीस्वामी के कौनसे प्रवचन या साहित्य में मैंने देखा है। परन्तु यह बतलानेको कृपा नहीं की कि मैंने अपने लेखमें किस स्थान पर यह लिखा है कि कानजी स्वामीने उक्त वाक्य कहा है, जिससे मेरे साथ उक्त प्रश्नका सम्बन्ध ठीक घटित होता । मैंने वैसा कुछ भी नहीं लिखा, जो कुछ लिखा है यह लोगोंकी आशंकाका उलेख करते हुए उनकी समझते रूपमें जिला है जैसा कि लेखके निम्न शब्दोंसे प्रकट है— शुद्धमा तक पहुँचनेका मार्ग पासमें न होनेसे लोग 'इतो भ्रष्टास्ततो भ्रष्टाः' की दशाको प्राप्त होंगे, उन्हें अनाचारका डर नहीं रहेगा, वे समझेंगे कि जब आम एकान्ततः सर्व प्रकारके कर्मबन्धनोंसे रहित शुद्ध-बुद्ध है और उस पर वस्तुतः किसी भी कर्मका कोई असर नहीं होता, तब बन्धन से छूटने तथा मुक्ति प्राप्त करनेका यत्न भी कैसा ?" इत्यादि । ये शब्द कानजीस्वामीके किसी वाक्यके उद्धरणको लिये हुए नहीं है, इतना स्पष्ट है और इनमें आध्यात्मिक एकान्नाके शिकार मिध्यादृष्टि लोगों की जिस समझका उल्लेख है वह कानजीस्वामी तथा उनके अनुयायियोंकी प्रवृत्तियोंको देखकर फलित होनेवाली है ऐमा उक्र शब्दपाक्योंकि पूर्व सम्बन्धसे जाना जाता है कि एकमात्र कानजी स्वामीके किमी वाक्यविशेषसे अपनी उत्पत्तिको लिये हुए है। ऐसी स्थिति में उम्र शब्दावली में प्रयुक्र " श्रात्मा एकान्तत: प्रवद्वस्पृष्ट है' इस वाक्यको मेरे द्वारा कानजीस्वामीका कहा हुश्रा बतलाना किसी तरह भी युक्तियुक्त एवं संगत नहीं कहा जा सकता - वह उन शब्दविन्यासको ठीक न सकझनेके कारण किया गया मिथ्या आरोप है। इसके सिवाय, यदि कोई दूसरा जन कानजीस्वामीके सम्बन्धमें अपनी समझको उक्र वाक्यके रूपमें परितार्थ करे तो वह कोई अद्भुत या अनहोनी बात भी नहीं होगी, जिसके लिये किसीको आश्चर्यचकित होकर यह कहना पड़े कि हमारे देखने-सुननेमें तो वैसी बात आई नहीं क्योंकि कानजी महाराज जब सम्यग्हण्टिके शुभभावों तथा तज्जन्य पुण्यकमको मोक्षोपाय के रूपमें नहीं मानते - मोक्षमार्गमें उनका निषेध करते हैं तब से आध्यात्मिक एकान्तकी ओर पूरी तौरसे ढले हुए हैं ऐसी कल्पना करने और कू कहने में किसीको क्या संकोच हो सकता है ? शुद्ध या निश्चयनय के एकान्तले आत्मा श्रबद्वस्पृष्ट है ही । परन्तु वह सर्वथा अवद्धस्पृष्ट नहीं है, और यह वही कह सकता है जो दूसरे व्यवहारनयको भी साथ में लेकर हैउसके वक्तव्यको मित्रके पक्रन्यकी दृष्टिसे देखता है शत्रुके चक्रम्यकी रहिसे नहीं, और इसलिये उसका विरोध नहीं करता। जहाँ कोई एक नयके वक्रव्यको ही लेकर दूसरे नयके वक्रव्यका विरोध करने लगता है वहीं वह एकान्तकी धो चला जाता और उसमें ढल जाता है । कानजीस्वामी के ऐसे दूसरे भी अनेकानेक वाक्य हैं जो व्यवहारनयके वक्रयका विरोध करनेमें तुले हुए हैं, उनमें से कुछ वाक्य उनके उसी 'जिनशासन' शीर्षक प्रवचन- लेखसे यहाँ उद्धृत किये जाते हैं, जिसके विषयमें मेरी लेखमाला प्रारम्भ हुई थी: १. "ग्रामको कर्मके सम्बन्धयुक्त देखना वह वास्तव जैनशासन नहीं परन्तु कर्मके सम्बन्ध रहित शुद्ध देखना यह शामन है।" २. " श्रात्माको कर्मके सम्बन्ध वाला और विकारी देखना वह जैनशासन नहीं है ।" "जैनशासन में कथित सामा जब विकारहित और कर्मसम्बन्धरहित है तब फिर इस स्थूल शरीरके आकार वाला तो वह कहांसे हो सकता है ?" ४. "वास्तव भगवानकी बाकी कैसा भरमा बतलाने में निमित्त है ? - अबद्धस्पृष्ट एक शुद्ध आत्माको भगवानकी वादी बतलानी है; और जो ऐसे आमाको समझता है वही जिनवाणीको यथार्थतया समझा । " ५. "बाह्यमें जड शरीरकी क्रियाको आत्मा करता है और उनकी किवासे आमाको धर्म होता है—ऐसा जो देखता है ( मानता है उसे तो जैनशासनकी गंध भी नहीं > तथा कमके कारण आमाको विकार होता है या विकार है Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४] अनेकान्त [ वर्ष १३ भावसं आत्माको धर्म होता है-यह बात भी जैनशासनमें पयडी वि य चेयह उपज्जइ विणस्सइ ।।३१२॥ नहीं है।" एवं बंधो उ दुण्हं वि अण्णोएणपञ्चया हवे। ६. "श्रात्मा शुद्ध विज्ञानघन है, वह बाह्यमें शरीर अप्पणी पयडीए य संसारो ने ण जायए ॥ १३॥' आदिको क्रिया नहीं करता, शरीरकी क्रियासं उसे धर्म नहीं पान्तु कानजी महाराज अपने उन वाक्यों द्वारा कर्मका होता; कर्म उसे विकार नहीं कराता और न शुभ अशुभ प्रान्मा पर कोई असर ही नहीं मानते, अामाको विकार विकारी भावोंसे उसे धर्म होता है। अपने शुद्ध विज्ञानधन और सम्बन्धमे रहित प्रतिपादन करते हैं और यह भी प्रतिस्वभावके श्राश्रयसे ही उसे वीतरागभावरूप धर्म होता है।" पादन करते हैं कि भगवानको वाणी अबन्द्वस्पृष्ट एक इस प्रकारके स्पष्ट वाक्योंकी मौजूदगी में यदि कोई यह शुद्धान्माको यतलाती है ( फलतः कर्मबन्धनसे युक्र अशुद्ध समझने लगे कि 'कानजीस्वामी आत्माको 'एकान्ततः भी कोई आत्मा है इसका वह निर्देश ही नहीं करनी)। अबद्धस्पृष्ट बतलाते हैं तो इसमें उसकी समझको क्या दोष माथ ही उनका यह भी विधान है कि प्रामा शुद्ध विज्ञानदिया जा सकता है? और कैसे उस समझका उल्लेख घन है. वह शरीरादिकी ( मन-वचन-कायकी) कोई क्रिया करनेवाले मेरे उन शब्दोंको श्रापत्तिके योग्य ठहराया जा नहीं करता-अर्थात् उनक परिणमनमें कोई निमित्त नहीं मकता है? जिनमें आत्माके 'एकान्ततः अबढस्पृष्ट' का होता और न मन-वचन-कायको कियासे उसे किसी प्रकार स्पष्टीकरण करते हुए डैश (-) के अनन्तर यह भी लिखा धम्की प्राप्ति ही होती है। यह सब जैन आगमों अथवा है कि वह "सर्व प्रकारके कर्मबन्धनोंसे रहित शुद्धबुद्ध है महर्षियोंकी देशनाके विरुद्ध आत्माको एकान्ततः अबद्धस्पृष्ट और उस पर वस्तुतः किसी भी कमका काई श्रपर नहीं प्रतिपादन करना नहीं तो और क्या है, श्रामा यदि सदा होता।" कानजीस्वामी अपने उपयुक वाक्योमें थारमारे शद्ध विज्ञानघन है तो फिर संसार-पर्याय कैसे बनेगी। साथ कर्मसम्बन्धका और कर्मके सम्बन्धस आन्माके विकारी मार-पर्यायके अभाव में जीवोंके संमारी तथा मुक ये दो हाने अथवा उस पर कोई असर पड़नेका सात निषेध कर मेद नहीं बन सकेंगे. मंमारी जीवोंके अभावमें मोक्षमार्गका रहे हैं और इस तरह पात्मामें प्रात्माकी विभावपरिणामन- उपदेश किस अतः वह भी न बन सकेगा और इस तरह रूप वैभाविको शक्रिका ही प्रभाव नहीं बतला रहे बल्कि सारे धर्मतीर्थक लोपका ही प्रसंग उपस्थित होगा। और जिनशासनके उस सार कथनका भी उत्थापन कर रहे और प्रारमा यदि सदा शुद्ध विज्ञानघनक रूपमें नहीं हैं तो फिर उस मिथ्या ठहरा रहे हैं जो जीवात्माके विभाव-परिणमनको विज्ञापनमा किसी समय या अन्तलमयकी 'प्रदर्शित करनेके लिए गुणस्थानों जीवसमासों और माग- पान ठहरेगा उसके पूर्व उस अशुद्ध तथा अज्ञानी मानना णामों आदिकी प्ररूपणाम श्रोत-प्रान है और जिससे होगा. वैसा मानने पर उसकी अशुद्धि तथा अज्ञानताकी हज़ारों जनप्रन्थ भरे हुए हैं। श्रीकुन्दकुन्दाचार्य 'समयमार' अवस्थानों और उनके कारणोंको बतलाना होगा। साथ ही, तकमें पारमाके साथ कर्मके बन्धनकी चर्चा करते है और उन उपायों-मार्गोका भी निर्देश करना होगा जिनसे एक जगह लिखते हैं कि 'जिस प्रकार जीवके परिणामका अशुद्धि प्रादि दूर होकर उसे शुद्ध विज्ञानघनत्वकी प्राप्ति निमित्त पाकर पुद्गल कर्मरूप परिणमते हैं उसी प्रकार हो सकेगी तभी आत्मद्रव्यको यथार्थरूपमें जाना जा सकेगा। पुद्गलकोका निमित्त पाकर जीव भी परिणमन करता है, प्रान्माका सरचा तथा पूग बोध करानेके लिये जिनशासनमें और एक दूसरे स्थान पर ऐसा भाव व्यक्र करते हैं यदि इन सब बातोंका वर्णन है तो फिर एकमात्र शुद्ध कि 'प्रकृतिके अर्थ चतनाग्मा उपजता विनशता है, प्रकृति भी प्रात्माको 'जिनशासन' नाम देना नहीं बन सकेगा और चेतनके अर्थ उपजती विनशती है, इस तरह एक दूसरेके न यह कहना ही बन संकंगा कि पूजादान-प्रतादिके शुभ कारण दोनोंका बन्ध होता है। और इन दोनोंके संयोगसे भावों तथा व्रत-समिनि-गुप्ति श्रादि रूप सरागचरित्रको ही संसार उत्पन्न होता है ।' यथा जिनशासनमें कोई स्थान नहीं- मोक्षोपायक रूपमें धर्मका "जीवपरिणामहेदु कम्मत्तं पुग्गला परिणमंते। कोई अंग ही नहीं है। ऐसी हालत में कानजी महाराज पर पुग्गलकम्मणिमित्तं तहेव जोवो वि परिणम ॥" घटित होने वाले आरोपोंके परिमार्जनका जो प्रयत्न श्रीवोहरा"चेया उ पयडी अट्ट उप्पज्जइ विणस्सड। जीने किया है वह समुचित प्रतीत नहीं होता। (क्रमश:) Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहोरात्रिकाचार (क्षुल्लक सिद्धिसागर) मौजमायाव (जयपुर) के शास्त्र भण्डारमें पंडितप्रवर यथायोग्य जिन-भक्तों को संतुष्ट करे और अहंतके वचनके भाशाधरजीके द्वारा विरचित 'अहोरात्रिकाचार' नामका एक व्याख्यान-एवं पठनस अपनेमें बारबार उत्साहको उत्पन्न करे । संस्कृत ग्रन्थ ११ श्लोक प्रमाण अनुष्टुप् वृत्तमें रचित पाया (६) अर्हद् रूपको धारण करने वाले महावतीके प्रति जाता है इस ग्रन्थमें वां रवां और २६वां श्लोक सोम- 'नमोऽस्तु' इम विनय क्रियाको करे। मुल्लक परस्परमें देवाचार्यके यशस्तिलकचम्पूसे लेकर 'उतच' रूपसे उद्धृत इच्छाकार करें । स्वाध्यायको विधिवत, करना चाहिए। किये गये हैं । श्रावकोंके द्वारा दिन और रात्रिमें करने योग्य विपदा पड़े हुए धार्मिकोंका उद्धार करना चाहिए! मोक्ष, सद्विचार और सदाचारका संक्षिप्त विवेचन इस ग्रन्थमें पाया ज्ञान और दयाके सामीभूत होने पर सब गुण मिद्धि कारक जाता है । वह निम्न प्रकार से है होते हैं जमा कि निम्न पद्यस स्पष्ट हैं(१) ब्राह्ममुहूतमें उठकर पंच नमस्कार करके मैं कौन स्वाध्यायं विधिवत्कुर्यादुद्धरेच्च विपद्धतान् । हूँ-मेरा कर्तव्य या धर्म क्या है ? मैंने कौनसा बत ग्रहण पक्वज्ञानादयस्यैवगुणाः सर्वेऽपि सिद्धिदा.॥१५॥ किया है ? मुझे क्या करना है ? इत्यादिक चितवन करे । (1 जिन-गृहमें हास्य, विलास, कुकथा, पापवार्ता, (२) मैं अनादिकालस संसारमें भटक रहा हैं-मैंने पाप, निन्द्रा, थूकना और चार प्रकारका प्रहार त्याज्य हैंबड़ी कठिनाईमे इस श्रावकाय पाई धर्मको प्राप्त कर लिया यह निम्नपदसे पकट हैहै तो मुझे इस धर्ममें उत्साह होना चाहिए? मध्य जिनगृहं हा विलासं-दुःकथां कलिम । (३) तल्पसे उठकर श्रावक पवित्र-मनसे एकाप होकर निन्द्रानिष्ठ्यूतमाहारं चतुर्विधमपि त्यजेत् ।।१६।। अरिहन भगवानकी भावसे अष्टप्रकार पूजा रूप कृतिकर्मको (5) गृहस्थको न्यायपूर्ण व्यवसाय करना चाहिए। करके~समाधि लगाकर शान्तिका यथाशक्ति अनुभव करक पुरुषार्थक द्वारा अल्प फल होने पर या असफल होने पर प्रत्याख्यान ग्रहण करे और जिनदेवको नमरकार कर। भी धैर्य रखना चाहिए । हिंसकवृत्ति धारण नहीं करना (४) ममतामृतसे अपने अन्तरात्माको प्रक्षालन कर वह चाहिए-उसे यह विचारना चाहिए कि में प्रारम्भादिकको जिनक गमान शानमुद्राको धारण करे ! देवसे ऐश्वर्य और छोड़कर कब माधुकरी अनगार वृत्तिको धारण करूंगा। दुर्गति होती है ऐमा विचार करते हुए वह जिनालयको (१) यथालाभ उसको संतुष्ट रहना चाहिए और पाजीजावे ! यथा विभव पजाकी सामग्रीको लेकर आत्मोत्पाहसं विका चलाना चाहिए। उस योग्य नीर, गोरम, धान्य, युक्र चलते हुए वह देशवती संयतके समान भावनाको शाकादिक शुद्ध वनस्पतिको क्रय कर अविरुद्ध वृत्तिको करने वाला होता है। लाधवरूपसे करना चाहिए। (५) जगत्को बोध कराने वाले ज्योनिमय अरिहन्त (20) उद्यानभोजन, जन्तुका योधन, कुसुमांच्चयन, भास्करके दर्शन करके और जिन-मंदिरकी ध्वजाओंका स्मरण जलक्रीड़ा, डोलनादिकका त्याग करना चाहिए । यह अभिकरते हुए वह प्रसन्नचित्त हो-वायके शब्दसे और पूजादिक प्राय निम्न पासे अभिव्यक होता हैअनुष्ठानोंसे उत्साहित होकर 'निस्मही' शब्दका उच्चारण उद्यानभोजनं जंतुयोधनं कुसुमोच्चयम् । करे । मंदिरमें प्रविष्ट होकर प्रानन्दसे परिपूर्ण हो तीन प्रद- जलक्रीड़ा दोलनादिश्च त्यजेदन्यच्च तादृशम् ।।२।। क्षिणा देकर जिनदेवको नमस्कार करके पवित्र जिन-भगवानकी (११) अपवित्रताके अनुसार स्नान करके मध्याह्नक पुण्यस्तुनि पढे । समय द्रव्यको धोकर निद होकर पापनाशक देवाधिदेवकी (६) समवसरण सभामें स्थित ये वही जिन हैं और भक्ति करे । पीठका स्नानकर पीठिक को शुद्धकर चार कुभोंये सभासद हैं। इस प्रकार चितवन करते हुए यह धार्मिक को चारों कोगों में स्थापन करे । श्रीकार लम्बन कर इत्यादिक पुरुषोंको भी प्रसन्न करे। इर्यापथ शुद्धि पूर्वक जिनेश्वरको रूपसे स्नपनको करे । जल चंदनादिकस पूजा करकं नमस्कार पूजनकर, गुणी भाचार्यके सामने प्रत्याच्यानको प्रकाशित करे। और जिनदेवका स्मरण करे । Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त वर्ष १३ (१२) अथवा (१८) जो असाध्य स्मर रिपु ज्ञानियोंकी संगति और सम्यग्गुरूपदेशेन, सिद्धचक्रादिर्चियेत् । ध्यानके द्वारा भी नहीं जीता जा सकता है-वह देह और श्रुतंच गुरुपादांश्च कोहि श्रेयस तृप्यात ॥२६॥ प्रात्माके भेदविज्ञानसे उत्पा हुए वैराग्यके द्वारा अवश्य (१३) श्रुतकी और गुरुके चरणोंकी पूजा करनी चाहिए। माध्य हो सकता है। वे धन्य हैं जो भेदज्ञानरूपी पायत फिर पात्रोंको नवधा-भक्किसे शनि के अनुसार तृप्त करके सब नेत्रोंसे युक्त है और राज्यका परित्याग कर चुके हैं तथा मुझे पाश्रितोंको योग्य काल में साम्य भोजन करावे और करे। धिक्कार है कि मैं कलत्रकी इच्छा लिए गृहस्थ जालोंमें सात्म्यका लक्षण निम्न पदसे प्रकट है फंसा हूं।' इस प्रकार वह चितवन करे। पानाहारादयो यस्य विशुद्धा प्रकृतेरपि (१९) एक ओर श्रमश्रीसे युक्त चित्तकर्षक है क्या वह सखित्वायावकल्पते तत्सात्म्यमिति कथ्यते ॥२८॥ मुझको जीत सकता है ? इसके उत्तरसे अज्ञात ही वह मोह(१४) कहा भी है गजाकी चमू (सेना) इस लोकमें मेरे द्वारा जीतने योग्य हैगुरुणामर्द्धसाहित्य, लघूनां नातितृप्तता। ___ (२०) जिम्मने प्रारमासे शरीरको भित्र जाना था वह भी मात्राप्रमाणनिदिष्टं, सुख ताव तजीयते ॥२६॥ स्त्रीके जालमें फँम कर पुनः देह और प्रामाको एक मानने (११) दोनों लोकोंके अविरुद्ध दम्य वगैरहको प्राप्त (२१) यदि स्त्रीसे चित्त निवृत्त हो चुका है, तो वित्तकी करना चाहिए । रोग उत्पा न हो इसके लिए और इस इच्छा क्यों करता है? चूंकि स्त्रीकी इच्छा नहीं रखने ग्याधिसे अच्छे होनेके लिए यत्न करे । 'कि वह रोग वृत्तको वाला होकर धनका संचय करता है तो वह मृतकके मंडनके भी नष्ट कर देता है । उक्त प्राशय निम्न पदसे प्रकट है समान है. यह मन्तव्य निम्न पद्यसे प्रकट होता हैलोकद्वयाविरोधीनि द्रव्यादीनि सदा लभेत्। स्त्रीतश्चित्तनिवृत्तं चेननु वित्तं किमीहसे यतेत व्याध्यनुत्पत्तिच्छेदयोः स हि वृत्तहा ॥३०॥ (१६) संध्याके समय आवश्यकको करके गुरुका स्मरण मृतमंडनकल्पोहि स्त्रीनिरीहे धनग्रहः-४५ करे, योग्यकालमें गत्रिके समय अल्पशः शयन करे और (२२) इस प्रकार उसे मुक्रिमागमें उद्योग करना शक्रिके अनुसार अब्रह्मका वर्णन करे! निद्राक पाने पर चाहिये । मनोरथ रूप भी श्रेयरथ श्रेय करने वाले हारे। पुनः चित्तको निर्वेद रूपम ही स्तिवन करे। च कि निर्वेदको क्षण-क्षण में प्रायु गल रही है। शरीरके सौष्टवका दाम हो सम्यग् प्रकारसे भाने पर वह चेतन शीघ्र सच्चे मुम्बको रहा है और वुढापा मन्युरूपी सखीकी खोज में है कि वह प्राप्त करता है-दुःव चक्रवालसे युक्र इस संसार ममुद्र में कार्य सिद्ध करने वाली है। क्रियाके ममभिहारसे महित भी अन्यको प्रारमबुद्धिम माननेक कारण मेरे द्वाग कषायवश जिनधर्मका सेवन करना श्रेष्ठ है। विपदा हो या सम्पदा पुनः पुनः बद्ध अवस्था प्राप्त की गई-इसस पराधीन जिनदेवका कहा हुआ यह वचन मेरे लिए हिनकारक है। दुःखी बना रहा-अब मैं उम मोहका उच्छेद करने के लिए (२३) प्राप्त करने योग्य प्राप्त कर लिया है तो वह नित्य उत्साहित होता है-जब मोहक्षय हो जाएगा तब श्रामण्य महासागर है। उसे मथ कर समता रूपी पीयूषको राग द्वेष भी शीघ्र नौ दो ग्यारह हो जायेंगे। पोवू जो कि परम दुर्लभ है-पुर हो या अरण्य, मणि हो (१७) बंधस दह होती है- उसमें इन्द्रियों होनी हैं या रेणु मित्र हो या शत्रु, सुख हो या दुःख, जीवित हो या और इन्द्रियोंस विषयांका ग्रहण होता है-उस राग द्वेष, मरण, मोक्ष हो या संसार इनमें में समाधीको-राग दोष महित विषय ग्रहणके द्वारा बंध होता है। उससे पुनः देह रहित परिणामको-कब धारण करूंगा? माशोन्मुख क्रियाइत्यादिका सम्बन्ध होता है-अतः मैं इस बंध और उसके काण्डसं बाह्यजनोंको विस्मित करते हुए मैं समरस स्वादियोंकारणका ही संहार करता हूँ। उक्र कथन निम्न पदसे की पंक्रिमें प्रारम रटा हो र कब बैलूंगा--जब मैं ध्यान में व्यक है एक न हो जाऊँगा रुब शरीरको स्थाणु समझ कर वे मृग बंधा होऽत्र करणान्येतेश्च विषयमहः । उपसे खाज खुजाएँगे उन दिनोंकी में बाट जोह रहा हैबंधश्च पुनरेवातस्तदेनं संहराम्यहम् ॥३६|| जिनदत्त वगैरह गृहस्थ भी धन्य है जो कि उपसर्गोके होने Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - किरण] क्या सुख-दुःख का अनुभव शरीर करता है? पर भी धर्मले विचलित नहीं हुए इत्याशा धर विरचितमहोरात्रिकाचारः(२५) इस प्रन्धका अन्तिम पद्य इस तरह यह ग्रन्थ श्रावकाचारकी उपयोगी बातोंको इत्यहोरात्रिकाचारचारिणि व्रतधारिणि । लिए हुए है । कृति संक्षिप्त और सरल है। और प्रकाशमें स्वर्गश्रीनिपते मोक्षशीर्षयेव वरखजम् ॥५०॥ लानेके योग्य है। नोट-यह ग्रन्थ कोई नया नहीं है किन्तु मागार धर्मामृतके छठे अध्यायका एक प्रकरणमात्र है। इसी तरह स्वयंभूके 'हरिवंशपुराण से नेमिनाथके केवलज्ञानका एक प्रकरण मौजमावादके भंडारमें अवलोकनमें पाया है खोगोंने इन प्रकरणोंको अपनी ज्ञानवृद्धि के लिये अलग-अलग लिखवाये है, वे स्वतन्त्र ग्रन्थ नहीं हैं। -परमानन्द क्या सुखदुःखका अनुभव शरीर करता है ? (तुझक सिद्धिसागर ) कुछ लोगोंका यह कहना है कि सुख-दुःस्व शरीरको लिटा दिया जाय तो भी शय्या निमिससे उसे सुम्ब नहीं होता है-जीवको नहीं होता है-यह मन भी विचित्र होता है.--उपयोग उम ओर जाने पर और इष्ट या अनिष्ट चार्वाकों जैसा है-चूकि व पुद्गलक या भून चतुष्टयक बुद्धिक होने पर ही दुःख या मुखका अनुभव हो सकता हैविकसित मिश्रित रूपको चेतना मानते हैं । चार्वाक मतमें किसी भी वस्तुको जानने मात्र सुम्ब या दुःख नहीं स चतनका ही सुग्वदुःख होता है उससे कल्पना की जाती होता है किंतु मोहके उदयसे युक्त पाय सहित प्रारमा इए है। मित्रजीवकी सत्ताको वह स्वीकार नहीं करता, किन्तु ये या अनिष्ट बुद्धिके होने पर ही सुम्ब या दुःखका अनुभव विचित्र अध्याग्मिक शरीरको सुखदुःम्ब होना है ऐसा कहते करता है-उसमें साता या ममाताका उदय भी निमित्त हुए-जीवकी सनाको अलग मानते हैं। है। उक्त सुग्ख भी सुस्वाभास है और अस्थिर हैजब कि पुद्गलमें मूलरूपसं ही चतनाक्रि नहीं तब उसे सुखदु ख कैसे हो सकता है ? मुग्वदुःख नो चनना शकि जो उपयोग इष्टानिष्ट परिणतिम रहित है वह सर्च से युक्त उपयोगी जीवको हो होता है-जातलमें शराब है मुम्बका अनुभव करता है जो बन्ध गुणस्थान और मार्गग्याकिन्तु उसके होने पर भी प्रचंतन बोनल उन्मत्त नहीं होती म्यान, अादिक वर्णनको अनिष्ट और मोक्षक वर्णनको है-उसी प्रकार शरीरमें रोग उत्पन्न होने पर शरीर अचंतन इष्ट-या शुद्ध प्रात्माकं कचनको ही इस मानने है- सच्चे होनेसे दुःखका अनुभव नहीं कर सकता है जैसे कि कांटोंकी सुग्षका अनुभव नहीं करते है-विन्तु जो जीव शुद्ध और शय्या पर पड़ा हुमा प्रचेतन शरीर दुःखका अनुभव नहीं अशुद्धको जानकर नटम्थ होता है-वही नय-पक्ष कक्ष करता है अतीत मध्यस्थ-या समत्व युक्न श्रामा जान चेतनाक द्वारा शरीरमें राग होने पर भी एक जीव उमस उपयुक्त वास्तविक मुखका अनुभव करता है या नही होता है। नहीं होता है तब तक किसी कार्य में व्यस्त होने पर दःखका कर्म निमित्त जन्य मुःग्वको जीव ही अनुभव करता है अजीष या वेदनाका अनुभव नहीं करता है-दुःख का अनुभव जीव नहींको तो हो सकता है पर अचेतन शरीरको कभी नहीं हो हममें मन्दह नहीं कि सुबहुम्वका बेदनी कवल जब सकता। शरीरको नहीं होता किन्तु शरीरस्थित जीवामा उपयुक्र मुर्देको कोमल शय्या पर बिठाने पर भी सुखका अनु- होने पर ही करता है। अनुपयुक्त दशामें उमका अनुभव भव नहीं होता है-ध्यानमें निमग्न शरीरमें अनुपयुक्त नहीं होता। क्योंकि वेटन या अनुभवन जीवका निजस्वभाव विशिष्ट ध्यान और मंहनन वाला शरीरधारी कोमलशय्या पर है पुद्गलका नहीं। Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीवान अमरचन्द (पं. परमानन्द जैन) राजपूताने में जैनममाजमें ऐसे अनेक गौरवशाली महा- खंजाची भी थे, और रामचन्द्र छाबड़ा, जिन्होंने भामेर और पुरुष हुए हैं जिन्होंने देश-जाति और धर्म की सेवा ही नहीं जोधपुरको मुसलमानोंके अधिकारसे संरक्षिन किया था। इमी की है कि उन्होंने नगर या देशको रक्षार्थ अपना सर्वस्व होम तरह और भी अनेक दीवान हुए हैं जिन्होंने अपनी अपनी दिया है। उनमेंसे आज हम अपने पाठकोंको एक ऐसे ही योग्यतानुसार राज्यके संरक्षण और श्री वृद्धि में सहयोग दिया महापुरुषका संक्षिप्त जीवन-परिचय देना चाहते हैं जो केवल है। उनमें अमरचन्दजी दीवानका नाग भी खास तौरसे धर्मनिष्ठ और दयालु ही नहीं था, किन्तु जिसने अपने नगर उल्लेखनीय है। इनका जन्म सम्वत् १८४० में हुआ था। की रक्षार्थ बिना किसी अपराधके दयालुतामे द्रवित होकर इनके पिता शिवजीलालजी थे, जो गज्यके दीवानपद पर खुशीसे अपने अमूल्य जीवनको बलिवेदी पर उत्सगं किया बासीन थे। उनकी जाति खंडेलवाल और गोत्र पाटनी था। है। उनका नाम है अमरचन्द दीवान । ये सम्वत् १८४० में राजा प्रतापसिंहके राज्यकाल में दीवान जयपुर राज्यकी सुरक्षा और श्री-वृद्धि में वहांके जानयोंजैसे उच्चपद पर प्रतिष्ठित थे। शिवजीलाल जी बड़े ही का प्रमुख हाथ रहा है, अनेक जैन दीवानांने अपने राज्यकी मिलनसार, पग्लस्वभावी और धर्मान्मा थे। इन्होंने एक रक्षार्थ अनेक प्रयत्न किये और उसे मुसलमानोंके कब्जेंस विशाल जैनमन्दिर मनिहारोंके रास्ते में बनवाया था। वहा सदाया । साथ ही स्टेट पर अंग्रेजों का भी अधिकार नहीं जाना है कि उसकी नींव जयपुर नरेश प्रतापसिंहजीने स्वयं होने दिया । यद्यपि इन कार्योमें उन्हें अपनी और सामर्थ्य अपने हाथोंसे रखी थी। इस मन्दिरमें किसी साम्प्रदायिक के अनुसार अग्नि-परीक्षामें सफलता मिली, उन्होंने जयपुर व्यक्तियोंने जैन मृतिको हटाकर शिवकी मूर्ति रखकर अपना और जोधपुर राज्यमें होने वाले मत-भेदोंको मिटाया, उनमें अधिकार कर लिया था जिसका नमूना आज भी मौजूद है। प्रेम और अभिनय मैत्रीका संचार किया। इसमें सन्दइ नहीं अाजकल उस मन्दिरको विल्डिंगमें जैनसंस्कृत कालेज चल कि उन्होंने अपने कर्तब्यका दृढताके साथ पालन किया। रहा है. और राज्य सरकारकी ओरसे कालेज संचालनके और अनेक प्रापदाओंका स्वागत करते हुए भी अन्तमें जीव लिए दी हुई है । बादमें सरकारसे अनुरोध करने पर सरनको भी अर्पण कर दिया । अन्यथा उक्त राज्यने अपनी स्वतन्त्राताको सदाके लिए खो दिया होता। कारने उमी मन्दिरकी बगल में एक मन्दिर बनवा दिया था जयपुरके जैन दीवानोंमें रावकृपाराम, जो बादशाह दिल्ली के जो आज भी दीवानजी के नामसे ख्यात है। जयपुरके एक ------ दरवाजे पर भी शिवजीलालजी दीवानका रास्ता । यह वाक्य दीवान रामचन्द्रजी छावडाने अामेरसे यदों को लिखा हुआ मिलता है। अमरचन्द जो दीवानके पिता शिवभगाया, और जयसिहजी का कब्जा पूर्ववत् कराया। पश्चात् जीलालजी की मृत्यु सम्वत् १८६७में हुई थी, उस समय जोधपुरस भी मुसलमानों को भगाया। तथा जयपुर जोधपुर जयपुरमें जगतसिंहजीका राज्य था और पंडित जयचन्दजी राजाओं ने सांभरको यवनोंसे पुनः वापिस लेने पर अापसमें उस समय तक अनक ग्रंथोंकी टीकाए बना चुके थे। अधिकार सम्बन्धी जो विवाद उपस्थित हो गया था उसमें साधी वात्सल्य मध्यस्थता कर दोनों राज्यों में बांटकर परस्पर प्रेमका मंचा दीवान अमरचन्द जी भी अपने पिताके समान सरललन किया। राजा प्रतापसिंहका राज्यकाल सं० १८४० १८५८ स्वभावी और विनयी थे । एक चित्रमें वे अपने पिताजीक तक तो निश्चित ही है, क्योंकि वि० सं० १८५८ में पुस्कर सामने हाथ जोदे खड़े हुए हैं। अमरचन्द जी शिक्षासम्पन्न जोधपुर नरेश विजयसिंहजी के बड़े पुत्र फतहसिंहजी की विद्वान थे और राजा जगतसिंहजी के राज्यकालमें दीवानपद कन्यास प्रतापसिंहजी का और प्रतापसिंह की बहिनसे भीम- पर प्रतिष्ठित हुए थे। उस समय भूधारामजी भी दीवान थे. सिह जी का विवाह हुआ था-इसके बाद वर्ष और राज्य तथा स. १८५में राजा जगतसिंहजी राज्यासीन हो गए थे। कर पाये थे कि संवत् १८५६ में उनका स्वर्गवास होगया। देखो, भारतक प्राचीनराज वंश भा० ३ पृ० २५५ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ % D दीवाम-ममरचन्द [१L जो मे ही प्रभावक, निर्भय और राजनीतिज्ञ थे | अमरचन्द- नायककी एक विशाल मूर्ति चन्द्रप्रभ भगवानकी बड़ी ही जीने धर्मनिहता के साथ २ धर्मवत्सलता और करूणाकी अपूर्व- चित्ताकर्षक और कलापूर्ण है। इस मंदिरमें प्रविष्ट होकर धारा प्रवाहित थी, वे नमरमें स्वयं घूमते और अपने नौकरों- माली गर्भालयमें स्थित वेदीकी सफाई आदिका कार्य नहीं से अपने साधर्मी भाइयोंकी दयनीय एवं निर्धन स्थितिका कर सकता और न पूजनके वर्तन भादि ही मांजकर ठीक पत्य जगवा कर उनके यहाँ लड्डुओंमें मुहरे या रुपया रख कर सकता है। कहा जाता है कि जब तक दीवन अमरचंद कर भिजवा देते थे। और जब ये लड़ फोड़ते तब उसमेंसे जी रहे, मंदिर के अन्दर गर्भालयमें स्वयं बुहारी देने प्रादिका मोहरें वा रुपया निकालते, तब वे उन्हें वापिस ले जाकर कार्य करते थे और उनकी धर्मपत्नी पूजनके बर्तन प्रतिदिन दीवानजी को देने जाते सब दीवानजी उनके स्वाभिमान- साफ किया करती थी। एक बार कोई सज्जन उनसे मिलने में किसी किस्मकी ठेस न पहुँचाते हुए समझा बुझा कर यह के लिये आए, तब दीवानजी घेदीमें बुहारी दे रहे थे। कहते कि वह सब आपका ही है, वह मेरा नहीं है ।इस तरह उनकी इस क्रियाको देखकर उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ कि उनके प्रति प्रेम और पावरमावको प्रकट करते थे। और इतना बड़ा संभ्रात कुलका दीवान भी मंदिरजीमें स्वयं दूसरों के स्वाभिमानको भी संरक्षित रखते थे। इसी तरह बुहारी देनेका कार्य करता है । दीवानजीको कभी उक्त कार्यसे जिन घरोंमें अनाज की कमो मालूम होती थी, तब उनका संकोच अथवा लज्जाका अनुभव नहीं होता था, किन्तु । नामादि मालूम कर अपने नौकरोंके हाथ उनके घर अनाज उसे अपना कर्तव्य समझकर उस कार्यको करते थे। उनके घरवालोंका नाम लेकर भिगवा देते और कहना दीवानजीके जीवन-सम्बन्धमें भाजभी अनेक किंवद. देते कि उन्होंने बाजारसे मेजा है। इस तरह दोवानजी तियाँ प्रसिद्ध है। वे यों ही प्रसिब हो गई हों सो भी नहीं अपने साधर्मी भाइयोंके दुःखको दूर करमेका प्रयत्न करते थे। है किन्तु उनमें कुछ न कुछ रहस्य जकर अन्तर्निहित है, इसी प्रकार वे समाजमें शिक्षाके प्रचारमें अपना वरद इसीसे वे लोकमें उनका समादरके साथ यत्र-तत्र कही जाती हाथ खोले हुए थे। उनकी मार्थिक सहायतासे कई विद्या- हैं। उनमें से कुछका यहाँ निर्देश किया जाता है। थियोंने उच्च शिक्षा प्राप्तकर अपनी २ रचनाओंमें दीवानजी उनका प्रेम केवल साधर्मी जनोंसे ही नहीं था किन्तु का प्रभार मानते हुए साता ब्याक की है। अन्य लोगोंके प्रति मी उनका वैसा ही प्रेम पाया जाता है। जीवन-चर्या कहा जाता है कि एक रंगरेज (मुसलमान), जो कपड़े रंगकर मापकी जीवनचर्या गृहस्थोचित तो थी ही। उनका अपनी आजीविका चलाता था, उसे दीवानजीने पंचनमस्कार रहन-सहन और व्यवहार सादा धर्म भावनाको लिये हुए मंत्र दिया था, उसकी उस मंत्रपर बड़ी भन्दा थी, वह पहले था । उनका विद्वानों के प्रति बड़ा ही भद्र व्यवहार था। वे उसका जाप करके ही अन्य कार्य करता था और यह भी स्वयं प्रातःकाल सामायिकादि क्रियाओंसे निवृत्त होकर और सुनने में प्राता है कि वह उनके शास्त्रको भी जीनेमें बैठकर निकर राख वस्त्र पहनकर जिनमादरजाम जाते थे। पूजन सुना करता था। एक दिन उसे किसी दूसरे ग्रामको कार्यवश स्वाध्यायादि कर अपने कर्तव्यका पालन करते थे। उन्होंने जाना था। रास्तेमें उसे एक सेठजी मिले उन्हें भी किसी अपने जीवनको सदा कर्तव्यनिष्ठ बनाया, प्रमाद या बालस्य कामवश उसी ग्राम जाना था। चलते-चलते जब जयपुरसे तो उन्हें कभी नहीं गया था। वे सदा जागरुक और कर्तव्य- बहुत दूर निकल गए, तब उन सज्जनको प्यासकी बाधा शीख बने रहे। सताई और तब उन्हें याद पाया कि मैं बोटा डोरी भून दीवान अमरचन्दजीने भी एक विशाल मंदिर बनवाया है, माया हूँ, उन्हें अपनी भूल पर बड़ा भारी पछतावा हुआ। जो छोटे दीवानजीके मंदिरके नामसे प्रसिद्ध है। इस मंदिरके पर जब चलते-चलते ध्यासने अपना अधिक जोर जनाया, उपर एक विशाल कमरा है जिसमें दो-तीन हजार व्यकि और उधर सूर्यकी प्रखर किरणें भी अपना ताप बखेर रही बैठकर शास्त्र-श्रवणादि कार्य करते थे। इस हाथमें यदि थी, अतः वह तृषाजन्य भाकुलतासे उत्पीदित हो षटपटाने सरस्वति भण्डारको स्थापित किया जाय तो उस स्थानका बगा, शरीर पसीने से तर होगया और चलनेमें असमर्थताका उपयोग भी किया जा सकता है। दीवानजीका यह मंदिर अनुभव करने लगा और तब उसने डा रंगरेजसे कहा कि गुमानपंच माम्बायका कहा जाता है। इस मंदिरमें मूब- भाई अब मुझसे एक पग भी नहीं चला जाता, कंठ सूख Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०.1 अनेकान्त [ .१३ गया है और प्यासकी पीड़ा अपने उग्ररूपमें मुझे सता रही जैन समाजके कुछ बोगोंका अपने मंत्रादिपर कोई विश्वास है। रंगरेजने कहा कि सेठजी घबहाओ मत, अब थोड़ी ही नहीं, इसीजिये बह पावश्यकता पड़ने पर दूसरों के मंत्र-संन्त्र दूर पर एक गांव है उसके पास ही एक अच्छा हुवा है, गंडा-तावीज प्रादि पर अपने ईमानको डिगाता है। इसी. उसका मीठा और ठंडा पानी पीकर अपनी प्यास बुझाइये। लिए वह दर-दरको ठोकरें खाता है। पर सेठजी अधीर होकर बोले-'मैं जल्दी-जल्दीमें अपना कहा जाता है कि एक बार वही रंगरेज शास्त्रसभाके लोटा डोरी भूल पाया हूँ, इसीसे प्राण संकटमें आ गए। बाद जब घर जा रहा था तब उसे कुछ चिन्तित सा देखकर अब क्या करूं । तब वह रंगरेज उन सेठजीको जैसे-तैसे दीवानजीने उससे चिन्ताका कारण पूछा, तब उसने कहा कि धीरे-धीरे उस गाँवके समीप तक ले गया और उन्हें एक मुझे लोग काफिर कहते हैं, ईमान बदला हुआ बतलाते हैं, वृषकी छायामें बैठा दिया और कहा सेठजी सामने कुचा है इसकी मैंने कभी परवाह नहीं की; किन्तु मेरो एक लड़की है इसके पानीसे अपनी प्यास बुझाइये। संठजाने जब कुमां उसका रिश्ता जिस खड़केके साथ तय हुमा था, अब उसने देखा तो और भी घबराये, कुभा मिल गया तो क्या मेरा इंकार कर दिया है, उसके घर वाले कहते हैं कि हम उस तो प्यासके मारे दम निकला जा रहा है । तब उस रंगरेजने । काफिरकी लड़की नहीं लेंगे। इसीसे मैं परेशान हूँ। दीवानकहा सेठजी धीरज रखिये अभी उपाय करता हूं और ! जोने उससे कहा चिन्ता छोड़ो सब ठीक हो जायेगा। अगले आपकी प्यास मिटाता हूँ। उसने गुन-गुनाते हुए कुछ ही दिन दीवानजी ने उस लड़केको बुलवा कर समझाया तब कंकद उस कुएं में डाले जिससे उस कुएंका पाना जमीनकी उसने उस लड़कीसे शादी करना मंजूर कर लिया और उसे सतह तक छा गया और सेठजीसे कहा कि संठजो अब । एक सोनेका जेवरभी भेंट कर दिया, दीवानजीके कहनेसे उस पाप प्यास बुझाइये। सेठजीने पानी छानकर अपनी प्यास रंगरेजकी परेशानी दूर हो गई और यह लड़कीकी शादीकी बुझाई और कुछ देर आराम करनेके बाद जब चलन लगे चिन्तासे मुक्त हो गया। इस तरह दूसरोंके कार्यमें हाथ तब रास्तेमें सेठजीने उस रंगरेजसे पूछा कि भाई तुम यह 'बटाना या उसे सहयोग प्रदान करना दीवानजी अपना तो बताओ कि तुमने उस समय क्या जादू किया था जिससे कर्तव्य समझते थे। पानी जमीनको सतह तक आ गया था । आपने मेरा बड़ा एक बार किसीके सुझाने पर राजाने दीगनजीसे कहा कि उपकार किया, मेरे पर तुमने बड़ी मिहरवानी करी और मेरे आज भापशेरोंको भोजन कराइये, दीवानजीने स्वीकार कर लिया प्राण बचाए । मैं तुम्हारा अहसान कभी नहीं भूलूगा, पर और एक हलवाईसे एक टोकरेभर जलेबी बनाकर देनेको तुम मुझे वह मंत्र अवश्य बतला दो, जिससे यह करिश्मा कहा । जलेबीका टोकरा वहां लाया गया जहाँ शेर बेठा था, हुआ है। उसने कहाकि सेठजी मेरे गुरुने जब मत्र दिया था दीवानजीने पिंजरा खोल देनेको कहा, जब पिंजरा खोल दिया तब यह कहा था कि इसे किसीको नहीं बतलाना । अतः : तब दीवानजी स्वयं सिंहकं सामने गए और वहाँ बैठे हुए मैं उसे किसीको नहीं बतजा सकता । परन्तु सेठजीने उससं शेरसे कहा कि हे मृगराज ! यदि पापका स्वभाव मांस खानेभारी आग्रह किया तब उसने 'णमो अरिहंताणं' कहा, उसका : का है तो मैं सामने मौजूद हूँ और यदि आपको अपनी इतना उच्चारण करना था कि सेठजी झठस बोल उठे कि भूख मिटानी है तो जलेबीका टोकरा मौजूद है, तब शेरने यह मंत्र तो मेरे बच्चोंको भी याद है। पर उसने ऐसा जलंबी खाना शुरु कर दिया, यह सब देख लोग चकित रह करिश्मा तो कभी नहीं दिखाया। तब उस रंगरेजने कहा गए । इमस दीवानजीकी धार्मिक रहता और आत्मविश्वाससेठजी विना अपने एतकादके मंत्र क्या कर सकता है। का पता चलता है। मापको उसपर यकीन ही नहीं है फिर भला वह करिश्मा एक बार राजा शिकार के लिये जंगल में गया। साथमें क्या दिखलाना ? मुझे तो उस पर पूरा एतकाद है, मुझपर दीवानजीसे भी चसनेको कहा। रास्तमें हिरणोंका समूह जब कभी कोई विपत्ति माती है तब वह उस मंत्रके प्रभावसे सामनेसे गुजरता हुअा जा रहा था, राजाने अपना छोड़ा हट आती है। वह मेरा बड़ा उपकारी है मैं उसका रोज उनके पीछे दौड़ाया तब दीवानजीने उन हिरणोंको सम्बोधन जाप करता है। प्रस्तु, वास्तव में प्रात्म-विश्वासके बिना करते हुए कहा कि मय जंगलके हिरणो ! जब रक्षक ही कोई भी वस्तु अपना प्रभाव नहीं दिखलाती। खेद है कि तुम्हारा भनक है तब तुम किसकी शरणमें भागे जारहे हो Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण] दीवान अमरचन्द मर जायो । हिरयोंका समूह खड़ा हो गया। तबदीवानी एजेंट भी रहता था। किसी समय कारणवश एक अंग्रेजको ने राजासे कहा कि वे हिरणोंका समूह खड़ा है, अब पाप किसी मुहल्लेकी जनसाने मार दिया था, जिसकी वजहसे इनको रक्षा करें या विनाश । राजाने सोचा जरा-सी बाहर जयपुरको उदाने या खत्म करनेकी बात सामने आई। पाकर चौकड़ी भर कर भागने वाला यह डरपोक जानवर दीवानजीके पता लगाने पर भी मारनेवालोंका कोई पता अपने समूह सहित निर्भय बड़ा है यह कम भारचर्यको पात नचला । फलतः दीवानजीके सामने एक ही प्रश्न था और नहीं है। अतः शरणमें पाए हुओं पर प्रस्त्र चलाना ठीक वह यह कि जयपुरको रक्षा कैसे हो । जब रक्षाका अन्य नहीं है। मैं माजसे शिकार नहीं खेलूगा। दीवानजीने भी कोई साधन ही नहीं बन पड़ा, तब नगरकी रक्षार्थ दीवानराजासे उसी बातको पुर किया। दीवानजी जैगोथे, उनमें जीने स्वयं अपनेको पेश कर दिया, और कहा कि यह कार्य जैनधर्मकी पारमाका मूर्तरूप विद्यमान था, उनका भात्मबल मेरी वजहसे हुआ है अता जो चाहें सो दण्ड दीजिये। पर बढ़ा हुचा था अत: वह पशुओं पर भी अपना प्रभाव मगरको नुकसान न पहुँचाइये। उन्होंने दीवानजीको बहुत अंकित करने में समर्थ हुए। दीवानजीके जीवनकी यह समझाया कि पाप जैन श्रावक हैं, जैनी लोग ऐसा कभी नहीं घटनाएँ अपना महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं। कर सकते । परन्तु फिर भी दीवानजीने अपने अपराधकी दीवान अमरचन्दजी केवल जिनपूजन, सामायिक, स्वीकृतिसे इंकार नहीं किया। तब उनसे कहा गया कि स्वाध्याय ही नहीं करते थे किन्तु वे इन्द्रियजय और प्राणि जानते हो इस भारी अपराधका दण्ड मृत्यु होगा। चुनांचे संरक्षणकी ओर अधिक ध्यान देते थे। उन्हें जैन सिद्धान्तका उसका अदालतमें वाकायदा मुकदमा चला और दीवानजीको भी अच्छा परिज्ञान था। अनेक प्रन्थोंको भी उन्होंने लिख- कद कर लिया गया, और अदालनसे उन्हें फाँसीका हक्म वाया है। और अनेक प्रन्योंकी टीकाएँ भी विद्वानोंको दिया गया और उनको बहुमूल्य सम्पत्तिका भी अपहरण प्रेरित कर बनवाई हैं। इन सब कार्योंसे उनकी धर्मप्रियताका कर लिया गया। पता चल जाता है। वे जो कुछ भी करते थे उस पर ___सम्पत्तिका अपहरण करनेसे पूर्व उनके घर वालोंको पहले विचार कर लेने के बादमें उस कार्यमें परिणत करते इस बातका कोई पता नहीं था कि दीवानजीने जयपुरकी थे। वे राजनीतिमें भी दक्ष थे। परन्तु उनका व्यवहार छल रक्षार्थ कोई ऐसा गुरुनर अपराध स्वीकार कर लिया है और कपटसे रहित था। जैन समाजमें शिक्षा प्रचारक लिये भी उससे उन्हें फॉम्पीकी सजा दी जावेगी। जब उन्हें फाँसी दी उ जानेका भमय पाया, तब उनसे कहा गया कि आपको जिस प्रयत्न करते रहते थे, और अपने आर्थिक सहयोग द्वाग गरीब किससे मिलना हो मिल लीजिये । परन्तु उन्होंने उत्तर दिवा विद्यार्थियोंको उनके पठन-पाठनमें सहायता देते । यही कारण कि मैं किसीसे भी नहीं मिलना चाहता, मुझे एक घण्टा है कि विद्वान लेखकोंने दीवानजीके आर्थिक सहयोगको ध्यान रखनेको अनुमति दी जाय । चुनांचे श्रारम-ध्यान करते स्वीकार किया है, और उनका आभार व्यक्त किया है। ___ दीवामजीने संवत् १८७१ में पं. मनालालजी मांगाको हुए एक घण्टेके अन्दर उनके प्राण पखेरू बिना किसी माधाके उड़ गए। और उनके निर्जीव ध्यानस्थ शवको माथमें ले जाकर हस्तिनापुरको यात्रा की थी। यात्रास लौटने फाँसीके तग्रते पर रख दिया गया। जयपुर नगरकी रक्षा तो पर दीवानजीको राजा जगतसहिंजीके कार्यसे ८-१० दिन तक दिल्ली में ठहरना पड़ा । उन दिनों पं० मन्नालालजीने हो गई परन्तु एक महापुरुषको अपनी बलि चढ़ानी पड़ी। शास्त्रसभामें अपना शास्त्र पढ़ा और अपनी रोचक कथन धन्य हे उस वीर साहसी श्रात्माको, जिसने निर्भय शैली द्वारा श्रोताओंका चित्त आकर्षित किया था। तब हाकर नगरकी रक्षार्थ अपने प्राणोंका उत्सर्ग कर दिया। ला. सुगनचन्दजीने पंडितजीसे 'चरित्रसार' नामक ग्रन्थकी यही कारण है कि देहलीके धर्मपुराके नये मन्दिरके परमात्महिन्दी टीका बनानेकी प्रेरणा की और पंडितजीने उक्र अन्य प्रकाश नामक ग्रन्थकी प्रतिके संस्कृत टिप्पणके अन्तमें निम्न दो दोहे मिलते हैं, जो बहुत ही अशुद्ध रूपमें बिखे गये है, की टीका चार महीनेमें ही बना कर दे दी थी। पर उनसे उक बातका समर्थन प्रच्छी तरहसे होता है। उस समय अंग्रेज सरकार जयपुर पर कब्जा करना चाहती थी, उसके लिये अनेक पदयन्त्र रचे जारहे थे। श्रीदिवाण अमरेशजू कियो स्वर्ग (स्वयं) यह काम। सांगानेरमें अंग्रेजी छावनी रहती थी, और वहाँ पोलिटिकल पंचसरावग(परमपद)ध्यान परि,पायो सुख महाधाम ॥१॥ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Pok यह पुस्तक परमात्मा कर्म अष्ट परि त्याग । भेंट भये अमरेश जू सुभग चाहियत भाग १७२७ यह घटना संभवतः संवत् १८३२ की है उस समय दीवानजीकी उम्र २२ वर्षके लगभग थी। दीवानजीके पुत्र ज्ञानचन्दजी थे । और ज्ञानचन्द्रजीके पुत्र उदयवालजी अनेकान्त [ वर्ष २३ हुए। जिन्होंने जयपुरमें अजमेरी दरवाजेके बाहर एक बहुत सुन्दर नशियांजीका निर्माण कराया था । उनके पुत्र फतेलालजीका करीब २५ वर्ष हुए तब स्वर्गवास हो गया था । सम्भवतः इस समय दीवानजीके परिवार में फतेहजानजीके पुत्र ईश्वरलालजी विद्यमान हैं। महापुराण कलिकाकी अन्तिम प्रशस्ति (गत किरया ७ से धागे) संवत् चिति आदि जो जन मोलासह पंच छठमी सुदि माह अरु गुरु लाह रेवती नखत पवणभले ॥ दुबई कवि महापुरिम गुरु कलिका सुर संबोध-सार भवि पवोहणाइ बिइ-बुद्धि पयदहु भुवणि कइवणे ॥ साहि अकबर दिल्ली मंडले, हुमाऊं नंदन चकत्ता खंडले । पुब्वा पच्छिम कूट दुहाइ, उत्तर दक्षिण सब अपणाइ । पर खंडहु रसाल पहुँचावर, मालुसम पइ सेवा श्रावइ । महाराज सिर मान मह पति, भगवंत सुखवंत अनि अति । गढ र सहित रोहितगढ़, समदमीम सुप्रतापकरी दिढ । लुवाणि पुरो सुभग रुचि सुन्दरु, सोहा णयरि समान पुरंदरु । महर-टु-बहु वाडी वग्गह, कूवा वाई वर्हति तडागइ । क्रूरमयं उप सुखराज सिरिज सेव मंडलीइ महि मंडलि, जसु जंपइ जाचक खिति खंडलि । मृलसंध महिमा मंडल, सरसइगच्छ मुखिति खंडलि । नंदि मनाइ गइ जिमि चंदे, कुंदकुंद मुनि राजपवंदे । पद्मनंदि सहुपट्ट भट्टारक हुन सुभचंद सोहंतसारक राहु जिपट्टि जिनचन्द्र महारक, पहाचंदु परिवादि विदारक तापट्टि भूमं लकीरति, जाविति सुचाइ चंदुकीरति । तासु मनाई सुदिक्खा सासनि, मंत्र महोच्छवविधि जिन शासन खंडेलवालखिति मंडलिक, देव-सत्थ-गुरुमति भावक । लोहादिया सुवंस शिरोमणि, साह जगत जिनदेव सुलक्ख बसा - तद्दुवंसिजु सारो, गुण-गणयारो साधूमाह विख्यातजणे । मंद दो भाग सुभग साल्हा पाल्दा सुभगमये । पाल्दा पुत्र तीन सुविलेमो सुबुद्धि मास । बोहिथ केसराज सुन्दर छवि सज्जनमन उल्हासये ॥ दूहडी खेमा पुरा पंच-पंच जग जोधा रतनो पदम जानिये। राजौ खिति खैपाल टील "बोलहु प्रमाणिये । बोहिथ तथा पुत दो मंडल नेमित नेगौ विदू खले 1. ........ बू दू बीयो मुहु महिमडलि हुव सो सुभग लखे | बसाल्दा साहु सुचरि सोहोनिधि, नवजू नाम संब पुता पंच कुक्खि उवण्या कुंती जेम खंडले ॥४॥ पदम पुत्र परसिद्ध लोह, बिज्झइ नामाजगि प्रगटु भोइ । जगि जालपुजाकहि गतिमाथि चाचौचितिचाय व सुवाणि । खेत खिति मंद गतिमाथि सीतड पंचम पुई पमाणि । पठमोजु साह बीमासु सुगेहि, बाली मला बहुगु समेहि। छह पुत्र उवा कुक्खितासु, दोदा मरु पढमजु चिति उल्हासु । फलहू जीणो समरत्थ जुत्ति निरपुत्र सुभग सँग्या सुचिन्ति । रणमल घरणि पोमात्रसिद्ध संघनायक पंचजु पुत्तलद्ध । भीवी गोइद साया सुरण, ईसर चांपो सुन्दर सुमन । सुइण्णा, समरत्थ पुत्त उपपन्न तीनि सरवरण फाल्हौ नल्हे सुचीनि । बाला घरितोय विख्यातसार, राइमल ऊंधाले गणति चार । केसा घरि पुस उवश्च दोय, ऊदौ धानो जगि जुगत जोय । सल्हा घर मारै एक पुत, उपपक्ष सुतासुत प्रति बहुत । जालपुके चार नाम सहसे नाथु बीले भवान । चाचौ घरि राणी पुत्र तीन, मूलो कान्हो बोहिथ सुमीत । सीहा धरि पुस उवन्न दोइ, खेतउ गूजर जगि जुगति जोइ । साहु खेत मुनि राख देखि अधिक मानि। राहु परि सुभ सीहा सुसीम, परिता सुबर पालय सुनीम । पोखण सुहि सज्जा जगागादानि; पुरजन परिवारहु अधिकमानि । पत्ता-घरि नारि अनूप सलहि भूप शील दानविधि लखरावर तपस्याग अचार वडविधि सार साजु नाम जपोणुभर दुवई - साकुक्खि पुत्र तउवना सुन्दर प्रवह सुभतयो । भाभू साहु बीयो जोखो जगि ठाकुर त्रिति सुभमणो तहु कुविख उपभा तीनि पुत्त, तिन्नेव सकल सखया संजुरा । पदम पुरा मा विसाज, सो राजमानि बहु भागिभाव । Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरा].. . अन्तिम प्रशस्ति । २०३ बलवंत सुभट पर भूमिसोह, रावल देवल जसु लिहिलीह। तिहि कियो सुसार चरित अपार कथा पुराणिक पुरसतणे तहु घर मंडन सोहा सुनारि, नामेण सुभग पूरा विचारि। दुवई-किडबहुवो जुथन्थ जमकामा जुत्तिगत सुभग सासणे। सा सती सुलक्षण पथडलोह, तहु उववरण यंदण जुदोइ । कलिका पुरुष सबजु गुणहत्तरि मन्बा गुण पचासणे। पेमराज पढमगुण गण विसाल, सोहुवो विचक्षण धवलचाल मंद जिन सासणि धम्मसार, णंदउ सिरि गुह पदाधिकार तहुमज्जा भागा भागवति, तहु णंदण तीनि हुवा सुमंति। णदड भहारक चंदकित्ति, णंदउ........... ......... रुपसीसाह सुन्दर अनूप, वनराज पिचिक्षण सुमगरूप। आइरिय पवर जतिवग्ग सार, संदउ अज्जिका बह्मचार। पूरणमल पूरणचन्द्रभाल, उपपक्ष विचक्षण तितियबाल। बाइ पांडे संघाट मित्ति, णंदड मुनि अवर प्राचारमिति । गिरिराज दुतिय नन्दन सुसाह, तसु भज्जा तेजी गुण अगाह मंडलि नंदउ जति नेमचन्द, णंद पंडित जग पर परिंद। सहु नंदन होइ वियाणि चित्त, जूगर परमानन्द वे सुमत्त । णंदर सावय परमेट्ठिभत्त, दडसिंघासण राजथत खेतउ सुतनि वीवो जु पुत्त, जोखराज मुणो गुणकल-संजुत्त। णंदउ तजा परजामुचित .. .. | दो भज्जा तहु धरि धम्मधीरि, मोली मोमा नामा बरु सरीरि णंदउ दिल्ली मंडलु सयल देस, पातिमाह अकवर नरेस। तितियो नंदनु जगि ठकुरसाह, विज्जा विणोइ सुइवहइवाहु ागरो फतेपुर गढ़गुलेर, णंदो लहोर रुहितास गौर । सो-देव-मन्थ गुरुभत्ति सन्तु, सज्जन-मनकमल-विकासुवंतु । पटणा हाजीपुर समद सीम, दंढाड ढाढौ अधिक सीम। पंडितजन पेमवहई सुचित, रुचिराग गानगुण वहण वित्ति । अवैिरी स-णागर चाल णइर, बुदी नोडो गढ अज्जमहर । संगीय मन्थ लंकार छन्द, कवि कवित काल आनन्द कन्द। दोसाल्वणि मेवाड़ सहर, वइराट अलवर नारनउर । धरि भज्जा ता सुभसील पालि, जति-पावय पोषण पुण्णपालि मानसिंघ महीपति सकल माज, प्रविरिपुरी राजाधिराज । सकुटुब मानि तामहतचित्ति, जाचक जस जंपइ जगति कित्ति। लूइनि चौवारइ सकल साज, गंदहु कूरम कलि अखैराज । जसु नाम रमाई सुभग सार, घरमंडण सा प्राचार सार। णंद्हु कुटुम्ब सखि पुत्त पउत्त, णंदहु सामंत पुरोहि मत्त । दो पुत्र उवना कुक्म्वितास, मंगण जण जिह वहई प्रास। मन्त्री पहान पोहित सुभाइ, णंदउणेगीजन चित सुचाइ । गोविन्ददास गरउ समुह, सज्जनजन पीह वहति भद्द । सामंत संत गंदह सुधीर, णंदड कषि व्यास विख्यात वीर। यो मामिभत्त सुन्दर भिराम, सोहंति अवइतन कलित काम णंदउ अंतेवर सुइण विंदु, णंदउ कुमार जस पयहुचंदु । परि नारि नामु जगि जण भणंति, मा जाति विलाली उच्चरति । णंदउ बुधेउ चउसंघ सार णंदउ साहेमि सुधम्म (कार) तहु कुक्खि उवगगा पुत्त तिषिण, जसवंतु सुजसुजगि मइलचिरिण णंदउ लुइणि पुरि मयल लोइ,णंदउ जिणमासण जण पमोड़ कलि केसवदाम विचित्त लोह, तीसर जुत किड बलिमोह। रायाहिराव सिरि प्रखैराज, णंदउ कुटुम्ब मखि सुइण साज | धम्महु रुचि बीयो धम्मदास मंगणजण जो पुरवंत प्रास। गंदउ हिम्मल कित्ति सुधार, मिरिविसाल गुरु जस अपार । मो राजमानि श्रुतवंत मार, जो पहइ कुटुंबइ सयल भार। णंदउ कलिका जग सासुलीह. णंदउ जुनाम कलि ठकुरसीह महिमा महंतु गुरु देवभत्त, पबसत्यसारु सुमरण सुचित्त। वरसहिं सुमेध निपजो सुधान, सबनय निपज्जहिं प्रति प्रमान धम्मदास हुघरि सुन्दर सुभज्ज, सोहाइमाणि सुन्दरि सुकज्ज दुरभिक्ख पणासो रोय-हारि, महु जहु.लोइहु चोर मारि । पढमा झाबू जाणों विवेइ, दूजी बाल्दा सुन्दरि सुमेह । चत्ता-जिणसासणि धम्मु जोणिछम्मुससरहु पुण पवित फले झाबू जुपुत्र जायो सुअंगि, णामेण साहडगडू गुणगि। कलिकासुपयामह भवियण भावइ बढहु अंतरसुभगइने सो सयल कला सोहायमाण, अति बुधिविवेक बहुकल बंधाण दुवई-मो अध्याणि धरौ अंण लगत्त अथहु छंद होणयं। बोयोजु पुत्त उक्वन्नसार, सुन्दर सुदास गुण सुभगसार। संवारहु सुविधि पंडितजन तुमतो जगि पमाणयं ॥७॥ धत्ता-जगिजाणि सुमा अवनि प्रगाहु ठाकुरनाम प्रसिद्धजणे ॥इति महापुराण कलिका समाप्त ॥ Cirta Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनियों और श्रावकका शुद्धोपयोग ( पं० हीरालाल जैन शास्त्री ) भगवती आराधनाकी 'विजयोदया' टीकामें टीकाकार श्रीचपराजितसूरिने शुद्धोपयोगके मुनि और गृहस्थकी अपेक्षा दो भेद किये हैं। आजकल सर्वसाधारणमें शुद्धोपयोगकी अधिक है, पर वह मुनि और श्रावकोंके क्रिय रूपमें होता है. इसके विषय में लोगोंको जानकारी कम है। अतएव यहाँ पर उक्त टीकाका कुछ विवरण देना असंगत न होगा । विजयोदया टीकाकारने गाथा नं० १८३४ की टीका करते हुए 'यतेः शुद्धोपयोगः इत्थम्भूतः जिन छह पयोंको उद्धृत किया है, ये हिन्दी अनुवादके साथ इस प्रकार हैं:जीवान्नहन्यां न मृषा बदेयं, चौर्यन कुर्यान्न भजेय भोगान् । धनं न सेवेय न च क्षपामु भुजीय कृच्छ्रे ऽपि शरीरतापे रोषेण मानेन च माययां च, लोभेन चाहं बहुदुःखकेन । युजेय नारंभ - परिम हैश्च, दीक्षां शुभामभ्युपगम्य भूयः । यथानभायाच्चल मौलिमालो भिक्षांचरन्कार्मुकबाणपाणि: तथा न भायां यदि दीक्षितः सन् वहेय दोषानवहायलज्जां। लिंगं गृहीत्वा महतामृषीणां, अंगंच बिभ्रत्परिकर्महीनं । भंगं व्रतानामविचित्यकष्टं, संगं कथं काम गुणेषु कुर्याम् । चर्यामनार्या चरितामधैर्या धैर्ये राहीनाः कृपणत्वमेत्य । कथं वृथामुण्डशिरश्चिरेण लिंगी भवन्नंगविकारयुक्तः । इत्येवमादिः शुभकमेचिता सिद्धादाचार्यबहुश्रुतेषु । चैत्येषु संघेजिनशासने व भक्तिविरक्तगुरागिता च । अर्थात् मैं जीवों को नहीं मारूंगा, असत्य नहीं बोलू ँगा, चोरी नहीं करूं'ग', भोगों का नहीं भोगूंगा, धनको नहीं ग्रहण करूंगा, शरीरको अतिशय कष्ट होने पर भी रात मैं नहीं खाऊंगा। मैं पवित्र जिन दीक्षाको धारण करके क्रोध, मान, माया और लोभके वश बहु दुख देने वाले प्रारम्भ और परिग्रहसे अपनेको युक्र नहीं करूंगा । जैसे अपने मुकुटपर माजा धारण करने वाले तथा हाथमें धनुषवाणको लेकर घूमने वाले किसी तेजस्वी राज पुरुषका भीष मांगना योग्य नहीं है उसी प्रकार सिंहवृत्ति वाली जिन दीक्षाको धारण करके मेरा आरम्भ – परिग्रहादिकको प्रहण करना भी योग्य नहीं है । मैंने पूज्य महर्षियोंका लिंग (वेष) धारण किया है, अब यदि मैं उसे धारण करते हुए व्रतोंका भंग करूँगा और लज्जाको छोड़कर दोषोंका धारण करने वाला बनूंगा तो यह महान् कटकी बात होगी, दीक्षाको धारणकर मैं काम-विकार में अपनी आसक्ति कैसे करूँ ? धैर्यको छोड़कर चाहे जैसी प्रवृत्ति करना यह श्रनार्यपनेका सूचक है। धै छोड़कर और हीन होकर नीच प्रवृत्ति करना योग्य नहीं है । यदि मेरे अंगमें बिकार रहेगा तो व्यर्थ मस्तक मूंडर यातका वेष धारण करना निरर्थक है। इस प्रकार आरम्भपरिमहादिकले विरक्त होकर शुभकर्मके चिन्तनमें अपने चित्तको लगाना सिद्ध, अर्हन्त, श्राचार्य, उपाध्याय, जिन चैत्य, संघ और जिनशासनकी भक्ति करना और इनके गुणोंमें अनुरागी होना तथा विषयोंसे विरक्त रहना यह मुनियोंका शुद्धोपयोग है।" उक्त पद्योंके अनन्तर टीकाकारने लिखा है:'विनीतता, संयमोऽप्रमत्तत्ता, मृदुता, क्षमा, श्रार्जव: सन्तोषः संज्ञाशल्य गौरव विजयः, उपसर्ग परीषहाजयः, सम्यग्दर्शनं, ताद्विज्ञानं, सरागसंयमः, दशविधं धर्मध्यानं, जिनेन्द्रपूजा, पूजोपदेशः, निःशंकित्वादिगुणाष्टकं, प्रशस्त रागममेना तपोभावना, पंचसमितयः, तिस्रो गुप्तयः इत्येवमायाः शुद्ध प्रयोगाः । - अर्थात् विनीत भाव रखना, संयम धारण करना, अप्रमत्तभाव रखना, मृदुता, क्षमा, श्रार्जव और सन्तोष रखना, श्रहार भय मैथुन परिग्रह इन चार संज्ञाओंको माया मिथ्यात्व और निदान इन तीन शक्योंको, तथा रस, ऋद्धि और सात गौरवों को जीतना, उपसर्ग और परीषद्दों पर विजय प्राप्त करना, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सरागसंयम धारण करना दश प्रकारके धर्मोका चिन्तवन करना, जिनेन्द्र पूजन करना, पूजा करनेका उपदेश देना, निःशंक - तादि आठ गुणको धारण करना, प्रशस्तरागले युक्त तपकी भावना रखना, पाँचसमितियोंका पालना, और तीन गुप्तियों का धारण करना, इत्यादि ये सब मुनियोंका शुद्ध प्रयोग है। इसके आगे गृहस्थोंका शुद्धोपयोग वर्णन करते हुए टीकाकार लिखते हैं: " गृहिणां शुद्धोपयोगः उच्यते- गृहीतव्रतानां धारण- पालनयोरिच्छा, क्षणमपि व्रतभंगोऽनिष्टः, अभीक्ष्णं यतिसंप्रयोगः अन्नादिदानं श्रद्धादिविधि पुरस्सरं, श्रमनोदनाय भोगान् भुक्त्वापि स्थगितशक्तिविगहेणं, सदा गृहप्रमोक्ष प्रार्थना, धर्मश्रवणोपलं भात्ममनजोऽति तुष्टिः । भक्त्या पंचगुरुस्तवनप्रणामेन Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश भाषाका अखामिचरित और महाकवि वीर - तत्पूजा, परेषां च स्थिरीकरणमुपहणं, वात्सल्य, पर अपने मन में प्रतिभानन्दित होना, मालिसे पंच परमेष्ठियोंजिनेन्द्रभक्तानामुपकारकरणं, जिनेन्द्रशास्त्राभिगमः, की स्तुति प्रणाम द्वारा पूजा करना, अन्य खोगोंको भी जिनशासनप्रभावना इत्यादिकः॥ स्वधर्ममें स्थिर करना, उनके गुणोंको बढ़ाना और दोषोंका अर्थात् -प्रहण किये हुए बतों धारण और पालन उपगृहन करना, साधर्मियों पर वात्सल्य रखना, जिनेन्द्रदेवके करनेकी इच्छा रखना, एक शखके लिए भी प्रत-भंगको भकोंका उपकार करना, जिनेन्द्र शास्त्रोंका चादर-सरकारअनिष्ट-कारक समझना, निरन्तर साधुजनोंकी संगति करना, पूर्वक पठन-पाठन करना, और जिनशासनको प्रभावना करना, श्रद्धा-भक्ति प्रादिके साथ विधिपूर्वक उन्हें आहारादि दान इत्यादिक-गृहस्थोंका शुद्धोपयोग है। देना, श्रम पा थकान दूर करनेके लिए भोगोंको भोग कर भी उपयुक विवेचनसे शुद्धोपयोगके कार्योंका और मुनियों उनके परित्याग करने में अपनो असामथ्र्यको निन्दा करना, तथा श्रावकोंक शुद्धोपयोगको मर्यादाका कितना ही स्पष्टीसवा घर-बारके त्याग करनेकी वांछा रखना, धर्मभाषण करने करण हो जाता है। हस्तिनागपुरका बड़ा जैन मन्दिर (परमानन्द जैन शास्त्री) हस्तिनागपुर नामका एक नगर प्राचीनकाल में अपनी पहली पारणामें इरसका पाहारदान वैशाख सुदि तीजके समृद्धि, विशालता और वैभवके लिये प्रसिद्ध था। इस नगरमें दिन दिया था। उसी समयसे वैशाख शुक्ला तृतियाका अनेक वीर परक्रमी राजा हा गए हैं जिनकी भौहोंक विकारसे दिन अख्ती या अक्षयतृतियाक नामसे लोकमें विश्रुत है शत्रुदल कांपते थे। अकंपनादि मुनियोंपर बलिनामक ब्राह्मण और राजा श्रेयांसके महादानी हानेको प्रसिद्धि भी उसी द्वारा किये गये घोर उपसगोका निवारण हस्तिनागपुरके समयसे हुई है। इससे यह नगर प्राचीन कालसे ही अनेक राजा महापनके सुपुत्र महामुनि विष्णुकुमारक द्वारा हुआ ऐतिहासिक घटनाओं का प्रधान केन्द्र रहा है। था। उसी समयसे रक्षाबंधन नामका पर्व लोकमें प्रथित जैनियोंके शांतिनाथ, कुन्यनाथ और अरहनाथ नामक हुश्रा है। कहा जाता है कि इस नगरको सोमवंशी राजा तीन तीर्थकरोक गमे, जन्म और तप ये तीन २ कल्याणकर हस्तिनने बसाया था । इस कारण बादमें इस नगरका नाम इसी नगरमें हुए हैं। ये तीनों ही तीर्थकर चक्रवर्ती राजा उन्हींक नामपर प्रसिद्धिको प्राप्त हुश्रा जान पड़ता है। यह ___ भी रहे हैं। राजा भगवान ऋषभदेवा पौत्र कुरुका वंशज था। सोमवशी ___ यह नगर कुरुजाङ्गल देशके अन्तर्गत था। कौरव-पांव भी इस नगर में रहे है। पुरातन सरकारी कागजातोंमें भी राजा श्रेयांसने भगवान ऋषभदेवको एक वर्षके बाद सबसे इसका उल्लेख कौरव पाण्डव पट्टीकं नामस उल्लिखित xहस्तिनागपुर नगरका नामोल्लेख हरिषेण कथाकाशमें मिलता है। महाभारतसे पूर्व इस नगरकी खूब प्रमिन्द्धि रही अनेक कथा-स्थलोंपर हुआ है और उसे कुरुजाङ्गलदेशमें है। इस नगर पर शासन करने वाले नाग राजा भी हुए हैं। स्थित होना बतलाया है। 'कुरुजाङ्गल देशोऽस्तिहस्तिनाग- इस नगरको केवल राजधानी बननेका सौभाग्य ही प्राप्त पुरं परम् ।-देखो, हरिषेण कथाकोष, १२,५७, ६५, ८३ नहीं हुमा किन्तु यह महामुनियोंकी तपोभूमि भी रहा है। नम्बरकी कथाएं। उन नर पुंगव योगीन्द्रोंकी तपश्चर्या से इस नगरकी भूमिमहाभारत तथा हिन्दू पुराणों के अनुमार जिस राजा पवित्र हो गई थी। इसीसे इसे तीर्थभूमिके नामसे भी हस्तिमने इस नगरका नाम हस्तिनागपुर अंकित किया था, उल्लेखित किया जाता है। वह शकुन्तला पुत्र सर्वदमन भरतकी पांचवीं पीढी में हुआ था, x शान्तिकुन्थ्वस्तीर्थेशान जन्मनिष्क्रमणानिध। उपके बहुत पूर्व पुरुवंशी दुष्यन्त एवं भरतकी राजधानीका वन्दनार्थ मिहायस स्त्वद्भक्तिच विलोकितुम् ॥२॥ . यही नगर बतलाया जाता है। -हरिषेणकथाकोष पृ० १४. Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ . इस्तिमागपुरके दोखेकी खुदाई में अनेक प्राचीन मिहीके कौरखान और पट्टी पाण्डवानके नामाले वहाँकी भूमि मशहूर बर्मन भादि पुरातत्वकी सामग्री उपलब्ध हुई है। पर उसमें थी। वर्तमान दि. जैन मन्दिर पट्टी कौरवानमें है। चमी जैन संस्कृतिके पुरातन अवशेष मिले यह कुछ हात हस्तिगागपुरकी यात्राओंमें उस टीले पर जिन मन्दिर नहीं होता । हो सकता है कि उस टीलेमें और उसके प्रास: बनवाने की अनेक बार चर्चा चली; परन्तु अभी तक कोई पासको भूमिमें नीचे दबे हुए जैन संस्कृतिके पुराने अवशेष ऐसा सुअवसर प्राप्त नहीं दुचा था जिससे वहाँ मन्दिरका उपलब्ध हो जांय । क्योंकि श्वेताम्बरोंने , अपनी निसि निर्माण कार्य होने लगता । चूंकि पास-पासके गूजर लोग (निषचा) जिस टीले पर बनाई थी उसकी नीव खोदते इस बातके लिये राजी नहीं थे कि यहाँ जैन मन्दिर बने। समय उसमें संवत् १२२३ की एक अखण्डित खड़गासन यद्यपि जैनियोंका उनसे कोई विरोध भी नहीं था, फिर भी दिगम्बर प्रतिमा शान्तिनाथकी प्राप्त हुई थी। जो भाज वे मन्दिर बननेके विरोधी थे, इसीसे मन्दिर बननेकी चर्चा भी मुख्य मन्दिरके पीछे बरामदेके कमरेमें विराजमान है। उठकर रह जाती थी। पर कोई ऐसा.साहसी व्यक्ति सामने इससे स्पष्ट जाना जाता है कि यहाँ दिउम्बर जैन मन्दिर रहे नहीं पाता था जो उस पुनीत कार्य को सम्पन्न करादे। है। पर कब और कैसे विनष्ट हुए यह इस समय बतलाना संवत् १८१८ (सन् १८०१)में जेठ वदी चतुर्दशीके संभव नहीं है। पर इतमा अवश्य कहा जा सकता है कि दिन जैनी लोग पिछले वर्षोंकी तरह यात्राको बाए थे। वहजैन लोग प्राचीनकालसे इस नगरको अपना तीर्थ मानने | ताथ मजन सूमासे एक सामयाना लेजाकर उसी टीले पर लगाया गया पाए हैं और उसको पूजा बंदना करनेके लिए समय समय और निसि यात्राके बाद पंचायत शुरू हुई। पंचायत में पर पाते रहे हैं और अब भी पाते हैं। मन्दिर बनवानेकी बात भी उठाई गई, और कहा गया कि मालूम होता है गंगानदीके पूरके कारण इस नगरका प्रति वर्ष पंचायतमें यह मसला सामने जब यहाँ पाते हैं विनाश हुमा है। इसीसे यह विशाल नगर अब खण्डहरके ध्यानमें पाता है परन्तु खेद है कि हम अब तक उसे कार्यमें रूपमें विद्यमान है। परन्तु जैन यात्रियोंको यहाँ ठहरने परिणत नहीं कर सके। बहुत विचार-विनिमयके बाद दिल्ली मादिकी असुविधा होनेसे यात्रिगण सुवह बहसूमासे आते निवासी राजा हरसुखरायजीने सब पंचोंके समक्ष यह थे और शामको वापिस चले जाते थे। उस समय कोई प्रस्ताव रक्खा कि यहाँ मन्दिर जरूर बनना चाहिए और जैन मन्दिर नहीं था और न ठहरनेके लिए जैन धर्मशाला उस मन्दिरके निर्माणमें जिस कदर भी रुपया खर्च पड़े वह ही थी, इसीसे हस्तिनागपुरमें जेनमन्दिरके बनवानकी सब में मेजता रहेगा। पंचायतमें उस समय शाहपुर जिला पावश्यकता महसूस की जा रही थी। जहाँ प्राज मन्दिर बना हुमा है वहाँ एक ऊँचा टोला था, और यात्री जन® ला०हरसुखरायजी हिंसारके निवासी थे, इनके चार भाई वहसमासे पाकर निसिकी यात्रा कर इसी टीले पर एक और थे जिनका नाम तनसुखराय मोहनलाल आदि था। और सामियाना लगवा देते थे, और उसके नीचे पंचायत हुआ वे हिसारसे बादशाहकी प्रेरणा पर देहली पाए थे। बड़े ही करती थी। इस टीजे पर यात्री जन जेठ बदी के दिन धर्मात्मा और मिलनसार सज्जन थे। अप्रवाल वंशमें यहाँ एकत्रित होते थे। और पंचायतमें विविध प्रकारके समुत्पन्न हुए थे। शाही खजांची थे, और राजाके खिताब विचारोंका आदान-प्रदान होता था। और यहाँ मन्दिर अथवा उपाधिसे विभूषित थे। सरल स्वभावी और कर्तव्य बनानेकी चर्चा भी चलती थी पर कार्य रूपमें परिणत नहीं निष्ठ थे । इनके पुत्रका नाम सुगनचन्द था जो गुणी और हो पाती थी। पंचायतमें देहली, मेरठ, बिजनौर, मुजफ्फर- तेजस्वी तथा काम काजमें चतुर व्यक्ति थे। इन पर लषमीकी नगर खतौली, शाहपुर और सहारनपुर तथा पास-पासके बड़ी कृपा थी, वैसे ही वह सच्चरित्र और प्रतिभा सम्पन्न ग्रामोंकी जनता सम्मिलित होती थी। और शामका भोजन थे। उनकी अनेक कोठियाँ थीं। जयपुर, अलवर, भरतपुर वहीं पर कर सब लोग वहसूमें चले जाते थे। मन्दिरके और आगरा । बा० हरसुखरायजीने देहली, हिंसार, पानीपत, दरवाजेके बाहर जो कुवा बना हुआ है वह कुयों पुराना ही करनाल, सुनपत, शाहदरा, सांगानेर और हस्तिनागपुर मादिमें है उसीका पानी पिया जाता था। हस्तिनागपुरका यह सब अनेक जैन मन्दिरोंका निर्माण कराया था, उनमें लाखों इलाका वत्कालीन गूजर राजा नैनसिंहके प्राधीन था। पट्टी रुपया खर्च करने पर भी उन्होंने कहीं पर भी अपना नाम Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण हस्तिनागपुरका बड़ा जैन मन्दिर [२०० मुजफ्फरनगरक निवासी ला• जयकुमारमबजी भी उपस्थित नैनसिंहजीके यहाँ पहुँचे । यद्यपि राजा मैनसिंह ला हरसुखथे। और जिनका स्वास सम्बन्ध बहसूमेके राजा नैनसिंहसे रायजीसे परिचित ही थे और शाही खजांची होनेके कारण थावे जय यात्राको आते थे तब राजा नैनसिंहके यही हो वे उनका भादर भी करते थे। राजा नैनसिंहके शाही रूपयेकी उहरते थे। उस समय भी वे उन्हींके यहाँ ठहरे हुए थे और भदायगी राजा हरसुखरायजीनं अपने पाससे एक लाख पंचायतमें मौजूद थे। उनसे भी राजा हरसुखरायजीने रुपया देकर कराई थी। इसीसे सन् १८७१ में लिखे जाने प्रेरणा की, और कहा कि यह सब कार्य प्रापको सम्पन वाले मेरठके इतिहासकी एक पुस्तकमें हस्तिनागपुरके मन्दिर कराना है। उन राजा साहबने अपनी पगड़ी पंचायतमें रख बनवाने के सम्बन्ध में निम्न पंक्तियां लिखी हुई हैं और वे इस दी और कहा कि मन्दिर निर्माणमें जितना भी रुपया लगे में प्रकार हैं:दू'गा। आप मन्दिर बनवानेकी व्यवस्था कराहये। इस तरह 'तखमीनन साठ पैसठ वरस हुए कि यह डेरा पहन विचार-विनिमयके बाद सब लोग खाना खाकर बहसूमे चले। को नैनसिंहके इस तौर पर बना था कि राजा मौसूफको कुछ गये। बहसमे पहुँच कर ला. जयकमारमलजीx राना रुपया माह देहलीका देना था और उसमें राजा साहब -. .. यमुकाम देहली थे। जब सबील प्रदाई रुपयेकी न बन अंकित नहीं किया। उन्होंने नामक लिए मन्दिर नहीं बन पाई तो लाला हरसुखराय नामी खजांची बादशाह देहलीने, वाए थे किन्तु धार्मिक भावनासे प्रेरित होकर ही सब कार्य जो वह जैन धर्मी था, बिल एवज राजा साहब मौसूफका किया था, अाजकल जैसी यशोलिप्सा और नाम करनेका रुपया इस शर्त पर अदा किया कि राजा साहब डेरा पारसचाह उनमें नहीं थी। वे जैसे श्रीमान थे वैसे ही उदार नाथ बमुकाम हस्तिनापुर बनवा दें, किस धास्ते कि यह और चरित्रनिष्ट भी थे। उनकी प्रकृति में उदारता और जगह बहुत पवित्तर समझी जाती है और जमीदारान् भदता दोनों ही बातें सम्मिलित थीं । वे न्याय प्रिय व्यकि गनेशपुर दनको मान तामीर थे। चुनांचे राजा साइबकी थे। उस समयमें उनकी धार्मिकवृत्ति स्पृहाकी वस्तु थी। दवागतसे मरावगी अपने मकसदको पहुँचे। ऐसा कोई भी कार्य सम्पन्न नहीं था जिसमें वे भाग नहीं -देवो, जैनसिद्धांतभा कर भा० ११-१ लेते हों । प्रतिदिन शास्त्र मभामें जाते थे। वे शुद्धाम्नायके इससे स्पष्ट है कि राजा हरसुग्घरायजी हस्तिनापुरमें प्रेमी थे तेरह पन्धक अभ्युदयमें उन्होंने अपना पर्ण सह- मन्दिर निर्माण करानेके लिए कितने उत्सुक थे और बराबर योग दिया था और विद्वानांसे उनका भारी प्रेम था, वे प्रयन्नमें लगे हुए थे, परन्तु गनेशपुरके जमींदारोंके भारी गुणीजनोंको श्रद्धा और पादरकी रष्टिसे दबते थे। और विरोधके बावजूद मन्दिर निर्माणका कार्य शुरू करानेमें वे गुणीजनोंमें भी उनका श्रादर पाया जाता था। इनके जोधन- मंकोच कर रहे थे. कि न्यर्थमें झगड़ा क्यों मोल लिया जाय परिचय पर फिर कभी यथोचित प्रकाश डाला जावेगा। पुनीत कार्यको सरल तरीकस ही सम्पन्न करना उचित है। x लाजा जयकुमारमनजी भी अग्रवाल कुलमें उत्पन्न हुए इसीसे ला० हरसुग्वरायजीने राजा नैनसिंहकी स्वीकृति प्राप्त थे। और बाल ब्रह्मचारी थे। श्रापकी एक दुकान मेरठमें करानक लिए ला. जयकुमारमलजीको प्रेरित दिया था। थी। एक बार राजा नैनसिंहजीको कुछ रुपयोंकी आवश्यकता क्योंकि ये राजा ननमिहक धनिष्ठ मित्र थे। पटी जब जा जयकमारमलजीने मेरठ दकानसं हजार उस समय जयकुमारमनजीके चहरे पर कर उदासी रुपया दे दिया था, बादमें वह रुपया राजा साहबने वापस छाई हुई थी राजा ननर्मिहीने उन्हें देख कर पूछा कि भेज दिया था। राजा साहबसे उनकी घनिष्ट मित्रता थी। अभयकुमारजी थे। अभयकुमारके पुत्र शीदयालमल थे। इसीसे वे उनके यहाँ ठहरते थे। वे राजाको समय-समय पर जिन्होंने हस्तिनागपुर मन्दिरके बड़े दरवाजे बनानेमें सहयोग समुचित सलाह भी दिया करते थे। अतः राजाका उन पर प्रदान किया था उनस दो पीढ़ियों प्रारम्भ हुई, मंगमलाल प्रेम होना स्वाभाविक है। मापने मन्दिर निर्माणमें यथेष्ट जयकुमारमलके पोते थे और संगमलालक प्रपौन बा. कर्तव्यका पालन किया है। कहा जाता है कि उन्हीं दिनों विमलप्रसाद जी, जो तृतीय पीढ़ीके हैं इस समय शाहपुरमें शाहपुरमें भी मन्दिरका निर्माण कार्य भी शुरू हुमा भा, मौजूद हैं और वहींके मन्दिरका प्रबन्ध करते हैं। उनकी उसका कार्य भार भी आप पर था । जयकुमारमनके भाई दुकान (कसरेट) बर्तनों की है। Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त २०] मित्र ! आज आप चिन्तित क्यों हैं ? क्या पंचायत में कोई गड़ा हुआ या अन्य कोई चिन्ताजनक बात हुई, जिससे आप सचिन्त दीख रहे हैं। तब जयकुमारमलजीने कहा राजा साहब ऐसी तो कोई बात नहीं हुई, किन्तु सब लोगोंने और खास कर राजा हरसुखरायजीने यह खास तौरसे आग्रह किया है कि उस टीले पर जैनमन्दिरका निर्माण करना है। और उसे श्राप करा सकते हैं। उन्होंन पंचोंमें मेरे सामने पगड़ी भी उतार कर रख दी थी। इसीसे चिन्तित हूँ कि यह विशाल कार्य कैसे सम्पन्न हो । तब राजा नैनसिंहजीने का हरसुखरायजी और जयकुमारमल जीकी बात रखते हुए कहा कि मित्र ! इसमें चिन्ताकी कोई बात नहीं हे श्राप खुशीसे जहाँ चाहें वहीं मन्दिर बनवाइये । जयकुमारमलजीने कहा कि आप कल सवेरे नींव में पाँच ईंटें अपने हाथसे रख दीजिये । राजाने स्वीकृति दे दी और जयकुमारमलजीने राजा हरसुखराय तथा बहसूमे बालसिं कहा कि कल सबेरे ही हस्तिनागपुर में मन्दिरकी नीव रखी जायेगी। अतः राज मजदूर और सामान लेकर हस्तिनागपुर चलना है। चुनांचे सब लोग प्रातःकाल उस टीले पर गये और राजा नैनसिंहजी ५ इंटें उठाकर अपने हाथसे नींव में रख दीं । इम तरहसे जिन मन्दिर के निर्माणका कार्य शुरू हो गया। जयपुरले कारीगर भी आ गये और लगभग पाँच वर्षके परिश्रमके परिणामस्वरूप मन्दिरका विशाल शिखर बन कर तय्यार हो गया। इस मन्दिरके निर्माण कार्यकी देख-देख ला जयकुमारमलजी शाहपुर करते थे बच राजा हरसुखराज की श्रोरले भी वहाँ आदमी नियुक्त था जा कार्यकी देख-भाल करता था, सामान लाकर मुहय्या करता था और रुपये पेसका हिसाब भी रखता था। परन्तु कार्यका निर्देश जयकुमामल करते थे, रुपया भी संभवतः उन्हींकी मार्फत श्राता था और ये प्रत्येक महीने शाहपुर हस्तिनापुरके लिए था और राजा ने यहाँ थे और मन्दिर निर्माणका निरीक्षण कर श्रावश्यक कार्यकी सूचनाएँ करके वापिस चले जाते थे। यद्यपि बीजाला हरमुदगी भी मन्दिर निर्माणका कार्य देखनेके लिए जाते थे। और अपने गुमास्तेके जरिये सब बातें मालूम करते रहते थे । इस तरह हस्तिनापुर मन्दिरके विशाल शिखरका निर्माण ५ वर्षमें बन कर तय्यार हो गया । मन्दिरका यह शिखर बड़ा मजबून बनाया गया है और श्रापत्काल आने पर उसमें सुरक्षाका भी ध्यान रखा गया है । मन्दिरके चारों ओर जो सिदरी बनी हुई हैं वे 1 [ वर्ष १३ सब जा० हरसुखरायजीकी बनवाई हुई है। हाँ बाहरको कुछ सिदरी ला० जयकुमारमलने स्वयं अपनी लागत से अपने भाईके लड़केके लिये बनवाई थीं । इस समय शिखरके दरवाजे में जो किवाड़ों की जोड़ी लगी हुई है वह शाहपुर जिला मुजफ्र नगरसे बन कर आई थी और जिसकी लागत दो हजार रुपया थी । 1 इस तरह मन्दिरके तय्यार हो जाने पर संवत १८६३ के फाल्गुन महीने में जब सब लोग तबला हरसुखरायजी ने कहा कि मन्दिर बन कर तय्यार हो गया है वेदी प्रतिष्ठा और कलशारोहणका कार्य सम्पन्न कराना है मेरी जितनी सामर्थ्य थी उतना किया, मन्दिर धाप सबका है अतः इस कामें अपना अपना सहयोग प्रदान करें । उस समय वहाँ जो लोग उपस्थित थे उनके सामने एक घढ़ रक्खा गया और उसमें सब लोगोंने अपनी-अपनी मुट्ठीमें जो जिनिके पास था लेकर उसमें डाला अंतमें उस घड़ेको बोलकर देखा गया तो वह द्रव्य इतना अल्प था कि उसमे दोनोंमेंसे कोई भी कार्य सम्पन्न नहीं हो सकता था। क्योंकि जनता मन्दिरमें रुपया पैसा ले जाकर नहीं बैठी थी । जो कुछ थोड़ा सा रुपया निकला, उससे राजा साहबको क्या करना था उनका तो एक मात्र आयोजन मन्दिरको सार्वजनिक बनाने और अपने अहंभ वको दूर करनेके लिए था। चुनांचे प्रतिष्ठा और कलामा विशाल कार्य राजा हम्सुम्पने बड़े महोत्सवके साथ सम्पन्न कराया। उस समय इस मन्दिर में भगवान पार्श्वनाथकी बिनाफा वाली मूर्ति विराजमान की गई, जो ला० हरसुखरायजी देहलीस लाये थे । हस्तिनापुर में बिम्ब प्रतिष्ठाका कोई कार्य सम्पन्न नहीं हुआ । मन्दिर की प्रतिष्ठा हो जान ३०-३५ वर्ष बाद जहाँ मन्दिरजीक सामने विशाल दरवाजा बना हुआ है वहीं बड़ का एक विशाल पेड था। गृज़र लोग उस बढ़क पेड़को कट वाने नहीं देते थे । अतः विशाल दरवाजेका निर्माण कैसे हो ? यह चिन्ता भी बराबर अपना घर किए हुए थी। एक चार ला० हरसुखरायजीक सुपुत्र ला० सुगनचन्दजीने जयपुरके किसी कारीगरसे कहा कि यहाँ विशाल दरवाजा बनाना हे और बढ़के दरख्त काटे बिना दरवाजा बन नहीं सकता । तब उसने कहा कि मुझे १०० मजदूर दीजिए आपका दरवाजा बन जायगा और आप सब बहसूमे ठहरिये । श्रतः जयकुमारमलजी शाह वालक पोते स्वीदीने 1.. मजदूर दिये । तब उन्होंने रात्रि में उस बड़ को काटकर गंगाम 1 Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण हस्तिनागपुरका बड़ा जैन मन्दिर [२०६ बहा दिया और गहरी विशाल नीव खोद कर रात्रिमें तय्यार वहीखाता नहीं है जिसमें मन्दिर निर्माणके खर्चका पूरा ब्योरा की गई। प्रातःकाल गूजर लोग श्रा पहुंचे, जब कुछ कहा दिया गया हो। उन्होंने उसकालमें अनेक मन्दिरोंका निर्माण सुनी होने लगी तब जयपुरका वह राज नीवमें कूद गया, कराया था। इस कार्यमें उन्होंने बहुत रुपया खर्च किया था । उसके कूदते ही गूजर लोग भाग गए और मन्दिरका विशाल जिसकी संख्या एक करोड़से कम नहीं थी | किन्तु उनकी यह दरवाजा बनकर तय्यार हो गया, जो मन्दिरको शोभाको सबसे बड़ी विशेषता थी कि मन्दिर बनवानेके बाद उन्होंन दुगुणित किए हुए है। कहीं अपने नामका कोई पत्थर नहीं लगवाया | आजकल जैन उस समय हस्तिनागपुरमैं कुल तीन ही निसि या निषचा समाजकी प्रवृत्ति नाम लिखवानेकी अर अधिक बढ़ थीं। परन्तु तीसरी निसि भ० अरहनाथको बहुत दूर थी, गई है। जिन लोगोंने उनके बनवाए हुए मन्दिरों में चार सौ वहां धना जंगल होने और हिंसक जानवरोंको बामद रफ्न पांच सौ रुपया खर्च करके थोड़ा सा संगमर्मरका फर्श लगवा के कारण उतनी दूर यात्रियोंका आना जाना सरल नहीं था, दिया, वहीं अपना नाम भी अंकित करवा दिया है। यह यात्रियोंका जीवन वहाँ अरक्षित था । इसीसे भगवान अरह- प्रवृत्ति कुछ अच्छी नहीं जान पड़ती। श्राशा हे समाज इस नाथकी उस निसि (निषद्या) को भ. कुन्थुनाथकी निसिके और अपना ध्यान दगी। और अपनेको अहंकार ममकारके बगल में बनवा दिया गया है। फिर भी यात्रीलोग पुरानी निसिकी बन्धनमें बन्धनेसे बचानेका यत्न करेंगी। यात्राके लिए जाते रहते हैं। भगवान शान्तिनाथकी निसिक दिगम्बर मन्दिर बन जानेके बहुत वर्षोवाद श्वेताम्बरों बगलमें जो कुआ बना हुआ है उसे लाला संगमलालजी ने भी अपना मन्दिर बनवा दिया। और दिगम्बर समाजके शाहपुरने बनवाया था। उमटीले पर जहां शान्तिनाथकी मूर्तिके निकलनेका उल्लेख मन १८५७ (वि० सं० १६१४ ) में जब गदर पड़ा, किया गया है। अपनी निसी भी बनवाली है। कुछ दिनोंसे तब गूजर लोगोंने अवसर पाकर हस्तिनापुरके उस मन्दिरको दोनों में साधारण कारणोंको लेकर कशमकश चल रही है। लूटकर ले गए, वहां का वे सब सामान ही नहीं ले गए थे आज के असाम्प्रदायिक्युगमें दोनोंको चाहिए कि वे प्रेमसे किन्तु भगवान पार्श्वनाथकी उस मूर्तिको भी उठाकर ले रहना सीखें। अपनी धार्मिक परिणतिको कहर साम्प्रदायिगए थे। बादमें शान्ति स्थापित हो जाने पर दिल्लीक धर्म- कताकी पोर न जाने दें। साम्प्रदायिकता एक विष है जो पुराके नए मन्दिरजीसे भगवान शान्तिनाथकी सं० १५४८की कषायक संस्कारवश अपने व दूसरेका बिगाड़ करनेपर उतारू भ० जिनचन्द्रद्वारा प्रतिष्ठिन मृति मूलनायकके रूपमें विराज- हो जाता है । उससे हानिके सिवाय कोई लाभ भी नहीं है। मान की गई थी। तबस यह मन्दिर शानिनाथक नामसे आशा है उभय समाजके व्यक्ति अपनी परिणति असाम्प्रदापुकारा जाने लगा है। यिक बनानेकी ओर अग्रसर होंगे। __ प्रयत्न करने पर भी यह मालूम नहीं हो सका, कि यह लेख पं० शातलप्रसादजी शाहपुरवालोंकी गजा हरसुवरामजोने इस मन्दिरक बनवाने में कितना रुपया प्रेरणासे लिखा गया है। इसके लिये मैं उनका खर्च किया है। क्योंकि उनके वंशमें अब उस समयका कोई आभारी हु। जैनग्रन्थ प्रशस्तिसंग्रह यह ग्रन्थ १७१ अप्रकाशित ग्रन्थोंकी प्रशस्तियोंको लिए हुये है। ये प्रशस्तियाँ हस्तलिखित ग्रन्थों परसे नोट कर संशोधनके साथ प्रकाशित की गई हैं। पं० परमानन्दजी शास्त्रीकी ११३ पृष्ठकी खोजपूर्ण महत्त्वकी प्रस्तावनासे अलंकृत है, जिसमें १०४ विद्वानों, प्राचार्यों और भहारकों तथा उनकी प्रकाशित रचनाओंका परिचय दिया गया है जो रिसर्चस्कालरों और इतिहास संशोधकों के लिये बहुत उपयोगी है । मूल्य ४) रुपया है। मैनेजर वीरसेवा-मन्दिर, दि. जैन लालमन्दिर, चाँदनी चौक, दिल्ली। Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्यका भाषा-विज्ञान-दृष्टिमं अध्ययन (बाबू माईदयाल जैन बी. ए. (आनर्स), बी. टी.) प्राचीन साहित्यका अध्ययन भिन्न-भिन्न दृष्टियोंसे या प्राचार्यों और लेखकोंने गात न की हो इन भाषाओं में भिन्न-भिन्न बातोंकी जानकारीके लिये किया जाना है। भित्र-भिन्न संवतों में लिखित जैन शास्त्रांकी सख्या सहना है धार्मिक साहित्य बहुत करके धर्मनाभ या पुगय प्राप्ति या और वे भाषा विज्ञानियोंकी राह देख रहे है । यह दुर्भाग्यकी धर्मशान प्राप्तिके लिए पढ़ा जाता है। पर भिव-निय विषयोकं. बात है, कि भाषा विज्ञानियोंका ध्यान इस विपुल जनजानकार या विशेषज्ञ उसे अपने-अपने उपयोग या म्बोजोके माहिन्यकी ओर अभी नहीं गया। पर जब जैनोंका ही ध्यान लिए पढ़ते हैं। प्राचीन साहित्यके अध्ययनकी एक और इस ओर न हो, तब और किपीस शिकायत या गिला क्या ? दृष्टि या उपयोग भाषा-विज्ञानको दृष्टि है। डा. ए. एन. उपाध्यायने एक स्थानपर ठीक हो यो नो प्राचीन या मध्यकालीन जैनमाहित्य अभी ठीक तौर लिखा है-'जैन ग्रन्थोंमें भाषा-विज्ञान सम्बन्धी उपलब्ध पर तथा पूरा प्रकाशित भी नहीं हुआ है, तब उसके भिन्न सामग्रीकी उपेक्षा करके राजस्थानी गुजराती और हिन्दी के दृष्टियोंसे अध्ययनका प्रश्न पैदा ही नहीं होता, पर मौजूदा विकासको रचना करना असम्भव है +।' साहित्यका अभी उपयोग नहीं हो रहा है। प्राचीन इनिहाय- भारतकी प्राचीन भाषाओं, आधुनिक आर्य-भाषाओं की जानकारीके लिए जैन साहित्यका कुछ उपयोग जैन-जेन तथा दक्षिणी भाषाओंमें जैन पारिभाषिक शब्द तथा अर्ध विद्वानों द्वारा किया जाने लगा है, पर दूसरी दृष्टियोंसे पारिभाषिक शब्द सहस्रोंकी संख्यामे हैं, सामान्य शब्दोंका उसका उपयोग होता दिग्वाई नहीं दे रहा है। भाषा-विज्ञान- प्रयोगभी इन ग्रन्थों में है ही। यहाँ एक बात और उल्लेबकी दृष्टिसे तो जैनसाहित्यका अध्ययन अभी जैन या अजैन नीय है । वह यह कि जबकि सब जैन तीर्थकर उत्तर भारतमें विद्वानोंके द्वारा प्रारम्भ भी नहीं हुआ है। यह बहुत ही हुए, तब जैन समाजके विशेषकर प्रसिद्ध दिगम्बर जैन खेदकी बात है। प्राचार्य दक्षिणमें हुए है। इस उल्लेग्यसे यह बात इस लेखमें जैन साहित्यके भाषा-विज्ञानकी दृष्टिसे बतानी है कि जबकि प्राकृत या जैन संस्कृत पारिभाषिक शब्द अध्ययनकी आवश्यकता, महत्व, कार्य विधि और ढंग ग्रादि- जैन श्राचार्योंके द्वारा दक्षिणकी ओर गये होंगे, तब दक्षिणी के बारे में संक्षेपसे कुछ बताया जायगा। भाषाओंके शब्द भी उनके द्वारा उनकी ओर अवश्य पाये भाषा विज्ञानका अभिप्राय भाषाका विश्लेषण करके होंगे। पर शब्दोंके इस विनिमयकी ओर आजतक किसने उपका दिग्दर्शन कराना है। उसके मुख्य अग निरुक्ति थाशन्न ध्यान दिया है ? उदाहरण के तौरपर यहाँ यह बताना अनुचित व्युत्पति, वाक्य विज्ञान, पद-विज्ञान, ध्वनि विज्ञान और न होगा कि फारसी भाषामें एक तिहाई अरबी भाषाक शब्द अर्थ-विज्ञान हैं। यों तो प्राचीनकाल में भी भाषाका अध्ययन तुकाम मा उनका बालबाना है। एस हा पिछल छ: होता था, पर उसका वैज्ञानिक ढंगसे अध्ययन अठारवीं मात सौ वर्षोमें अरबी फ़ारसी और हिन्दीके सहस्रों शब्द शताब्दिमें हुआ और तबसे बढते-बढ़ते यह विषय इतना दक्षिणकी भाषायों तामिल, नेलग, कन्नड़ और मलयालममें बढ़ गया है, कि अब इसने भाषाओंके तुलनात्मक अध्ययनका पहुँच गये हैं और दक्षिणकी गह मराठी आदिके माध्यमसे विशाल क्षेत्र अपना लिया है। पिछले चार सौ वर्षोमें सौ सवा सौ पुतगाली शब्द हिन्दीमें यहां यह बतानेकी आवश्यकता नहीं है कि जैनोंका पहुँच गये और हिन्दी में रच पच गये। तब यह कैसे हो प्राचीनतम या मादि-साहित्य प्राकृतभाषा में है। पर उन्होंने सकता है, कि जैनोंके द्वारा शब्दोंक लाने लेजानेका काम किसी भी भाषाविशेषका गुलाम न बनकर सभी भारतीय सब दिशाओं में न हुमा हो। इतना ही नहीं, उनके रूपों, भाषाओंको अपनाया । अपभ्रश, तामिल और कबद ध्वनियों, हिज्जे (SPellings) और अर्थोमें भी कुछ न भाषाभोंकी मींव डालने वाले भी जैन ही हैं। इन भाषाओं के कुछ परिवर्तन अवश्य हुभा होगा। क्या किमीने इस ओर अतिरिक संस्कृत, हिन्दी, मराठी, गुजराती, राजस्थानी आदि ध्यान दिया था। इन बातोंका पता लगानेके लिए जैन में भी जैन साहित्यकी खूब रचना हुई है और ज्ञान साहित्यका अध्ययन किया ? विज्ञानका कोई ऐसा क्षेत्र नहीं, जिसमें जैन विद्वानों, + पुरातन जैन-वाक्य-सूचीकी भूमिका पृ०२। Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [वर्ष १३ जैन साहित्यका भाषा-विज्ञान-दृष्टि से अध्ययन [२११ ___ यहाँ मैं एक दो उदाहस देकर इस अध्ययमका महत्व भाषा विज्ञानको दृष्टिसे अध्ययन जरूरी है। भाषा विज्ञानके बताना चाहता है। श्री कुनकु'दाचार्य विक्रमकी पहली विना उसका ठीक अर्थ करना असम्भव नहीं तो कठिन सदीके प्रसिद्ध भाचार्य माने जाते है। उन्होंन बहुतसे जन अवश्य है। ग्रंथोंकी रचना की है। उनके एक ग्रन्थका नाम 'बारम इमसे माफ कि जैन साहित्यका भाषा विज्ञानकी दृष्टिप्रणवेक्या है। इस बारससे ही 'स' का 'ह' होकर बारह से अध्ययन न क्वल जैन समाजके लिए आवश्यक है तथा बना है। इस प्रकार इस बारह शब्दकी जड़ें दो हजार वर्षसे महत्वपूर्ण है, यरन ममस्त भारत और विशेषकर हिन्दी भी अधिक पुरानी हैं । बारमका बारह का हुश्रा क्या हिंदीके अगतक लिए अत्यन्त आवश्यक है। जैन समाजने अपने जानकारों के लिए यह जानना भावश्यक नहीं है ? इसी प्रकार साहित्यकी उपेक्षा करके बई वार गलती की है। पर इस 'बारस' में जो है और जिसका अर्थ दो है, उससे ही समय सबसे बडा आवश्यकता यह है कि जनसाहित्यका भाषा बेला शब्द बना है, जिसका अर्थ दो दिनका उपवास है। विज्ञानको दृष्टिम अध्ययन किया जाय और उसके फलस्वरूप यह शब्द आज भी जैन समाजम-स्त्रियों तकमें-बोलनेमें प्राप्त होने वाली बान और निष्कर्ष विद्वानों और भाषाभाता है। पर हममें कितने जानते हैं, कि बेला शब्द पहले शानियों के सामने रखे जाये, जिसमे ममम पर उसका ढोक पहन कब कियने साहित्य में प्रयुक्र किया ? इसी प्रकार दूसर उपयोग हो सके। गौर पूंकि उपयोगका समय दूर नहीं है, सहस्रों शब्दों की बात है । हर एक पारिभाषिक शब्दका ही इसलिए इस कामको शीघ्र में शीघ्र हाथ खेने की आवश्यनहीं बल्कि दूसरे शब्दोंका भी इतिहास होता है, जिसका कता है। यदि यह कहा जाय कि इसे आवश्यकता नम्बर एक जानना भाषाविज्ञानकी दृष्टिम जरूरी है। माना जाय तो कोई अतिशयोक्ति न होगी । जब शब्दाका व्युत्पत्ति, रूप परिवर्तन और अर्थ विकास- अब यह काम कैस होना चा। उसकी कार्य विधि की बातें आ ही गई और वे पानी अनिवार्य धीं, तब यहाँ और ढंग यहाँ बनाये जाते है:मंसारको जीवित भाषा अंग्रेजी के बारेमें एक-दो बातें उदा- (१) भागे प्रकाशित होने वाले एक महत्वपूर्ण ग्रन्थहरणरूपमे लिखनकी इच्छाको रोकना कठिन है। अंग्रेजीका के अन्तमें पारिभाषिक अर्धपारिभाषिक शब्दोंकी अनुक्रमणिका प्रसिद्ध कोश 'आक्सफोर्ड इंग्लिश डिक्शनरी है। अंग्रेजी होनी चाहिये। डा. हीरालालजीने सावयधम्म दोहा, दोहपाहुड शब्दोंकी संख्या छः लाख मानी जाती है। इस कोशमें हर और धवलग्रन्थक सब खरडोकेअन्नमें ग्यास शब्दोंको अनुक्रमएक शब्दको व्युत्पत्ति, रूप परिवर्तनका काल और उदाहरण णिकाएँ दी हैं। ऐसे ही पं० मावलान जाने भी नवार्थसूत्रकी तथा समय महिन शब्दके अर्थमें परिवर्तन दिया हुआ है। अपनी टोकामें शब्द सूची दी है। यशोधरचरित्र और आज गष्ट्रभाषा हिन्दी अपने अभ्युदयके नये मोड और वरांगचरित्र हिन्दी में भी शट अनुक्रमणिकाएँ है। आगे भी नई दिशापर चल रही है। वह अपने ममुत्थानके लिए यह काम होना चाहिये। मबारसे प्रकाशशाली तथा राह पानेका प्रयत्न कर रही (२) द्रव्यानुयोग, करमानुयोग, चरणानुयोग और प्रथमाहै। उसकी रूप-रेखा बदलनेके लिए ग्वींचतान हो रही नयोग और प्रमाण-नयकं ग्रंथोंके लेखक प्रसिद्ध-प्रसिद्ध प्राचाहै। हिन्दीका शन्न भंडार अगले पांच-सात वर्षो में लाखोंकी योक ग्रन्थों परमे उन प्राचार्योकी शब्दावली तय्यारकी जानी संख्यामें पहुँच जायगा। इसके नये-नये कोष तैयार हो रहे चाहिये । उदाहरण के तौरपर अभी नुलसी-शब्दावली, हिन्दु. हैं, नये-नये शब्द बन रहे हैं। आगे और भी कोष और स्तानी एक्डेमी, इलाहाबादसे प्रकाशित हुई है । इमी ढंग शब्द बनेंगे। तब उसके बहुनसे शब्दोंके रूपों, व्युत्पत्तियों पर ममंतभद्-शनावली, कुन्दकुन्द-शब्दावली, अकलंकऔर अर्थ-परिवर्तनोंको जाननेके लिए जैन सा हत्यमें मिलने शब्दावली, सिद्धसेन-शब्दावली, बनारसी-शब्दावली आदि वाली मामग्रीकी सहायताकी आवश्यकता पड़ेगी। नये तैयार होनी चाहिये । इससे हर एक प्राचाय के कालमें शब्दों शब्दोंकी रचनामें भी जैन माहित्यसे सहायता मिल सकती के जो रूप और अर्थ श्रादि तुलनात्मक तंगम विद्वानोंक सामने है। पर वह सामग्री हिन्दी जगतको कौन देगा? अवश्य ही आजायेंगे । अंगरेजीमें अनुमान लगाया गया है कि यह काम जैनोंका है, अजैनोंको तो उसका पता भी नहीं। शेक्सपीयरके सभी प्रन्यों में कुल १५... शब्द हैं, मिलटनके स्वयं जैनग्रन्थोंके अर्थ समझनेके लिए जैन साहित्यका साठ हजारकं लगभग और प्रसिद्ध यूनानी महाकवि होयरके Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२] अनेकान्त [वर्ष १३ काव्यों में कुल नौ हजार शब्द हैं। इस काम को करनेका यह जायेगा और वे भावी भाषाके मूल शम्न मान लिये जाएंगे। तरीका है कि बारबार पाने वाले एक शब्दको एक गिना जाय (७) यदि हर एक ग्रन्थके अन्तमें भाषा विज्ञानकी दृष्टिसे और यदि एक ग्रन्थकार बहु भाषा जानकार है, तो एक ही अध्ययन सम्बन्धी कोई परिशिष्ट हो, तो उससे भाषाके विकास विचारको जताने वाले कई शब्दोंको एक माना जाय, बाकीको पर बड़ा प्रकाश पडेगा । ऐमी एक उपयोगी भेंट डाक्टर छोड़ देना चाहिए । हाँ, यदि कोई विदेशी शब्द नये विचार होरालालजी द्वारा सम्पादित साययधम्मदोहा अन्तमें मेरे या अर्थको प्रकट करता हो तो उसे दूसरा शब्द गिना जाय। देखनेमें श्राई है। (३) जैन-द्रव्यानुयोग शब्दकोश, करणानुयोग शब्दकोश, यह काम सभी सम्प्रदायोंके विद्वानों द्वारा शुद्ध वैज्ञाजैन प्रमाणनय शब्दकोश, आदि भी तैयार होने चाहियें। निक दृष्टिमे करने योग्य है । जैन समाजमें कई-कई भाषाओं के (e) जैन साहित्यमें आनेवाले व्यक्तियों नामों नथा जानकार विद्वान बहुतसे हैं । डा. हीरालाल और मुनि श्री स्थानोंक कोश अलग अलग तैयार होने चाहिये। जिनविजयजी और डा. ए. एन. उपाध्याय, तो अखिल (१) प्रांतीय भाषाओंके जैन साहित्यके शब्दकोश अलग भारतीय ख्यातिके भाषा शास्त्री माने जाते हैं । पं० सुखलाल तैयार होने चाहिये। जी, पं० बेचरदास जी, पं० जुगलकिशोर मुख़्तार, पं० नाथू(६) प्राकृत और अपभ्रश भाषाके उन सभी शब्दोंकी रामजी प्रेमी और दूसरे कई विद्वान इस कामको अपने सूचियाँ अर्थ सहित तैयार होनी चाहिये जो उत्तर भारत और हाथोंमें लेकर इस कामको प्रगति दे सकते हैं। इस दिशामें दक्षिण भारतकी भाषाओं में ज्यों के त्यों या कुछ रूप बदल किया हुआ प्रयत्न और लगा हुश्रा धन भविष्यमें बहुत कर चालू हैं। इससे उन शब्दोंकी सर्वव्यापकताका पता लग लाभ दंगा । अस्पृश्यता विधेयक और जैन-समाज (बाबू कोमलचन्दजी जैन एडवोकेट ) यह विधेयक जैनोंकी धार्मिक स्वतन्त्रताको प्रत्यक्ष रूपये जैनियोंको कितनी हानि पहुँचेगी. इसकी कल्पना नहीं की चुनौती है। जैन वैदिक-धर्मके किसी रूप या इसकी शाग्याकं जा सकती। यह निश्चित है कि जैनमन्दिगें और जैन मानने वाले नहीं है । जैन-धर्म प्राचीन और स्वतन्त्र धर्म है, संस्थाश्रामें हरिजनोंको भेजनेसे, जब कि वे जैनधर्म का अनुयह सब स्वीकार करते हैं । राष्ट्रीय कार्योंके लिए जैनियोंने मरण नहीं करते उनकी हालत नहीं सुधरेगी या उनका सदा अपना अंश दान दिया है और वे भारतीय मङ्घके सदा सामाजिक दर्जा ऊँचा न होगा . राजनिष्ठ प्रजा रहे हैं। इस विधेयक द्वारा जैन मन्दिरों और जैम धार्मिक विधेयक २०१४ का उद्देश्य हरिजनोंका सामाजिक दर्जा संस्थानों में प्रवेश करने और उनका व्यवहार करनेका श्रधिऊँचा करना है । जैनियोंको इससे कोई आपत्ति नहीं है, यदि कार प्रतिरोधक दण्डका प्रत्येक जैनके मन में आनत उत्पन्न कर इस पिछड़े समाजकी उन्नतिके लिए कोई कदम उठाया जाता दिया गया है । इस कारणसं वह अपने धार्मिक स्थानोंका है । जैन केवल इतना ही चाहते हैं कि ऐमा अनिश्चिन और दुरुपयोग होने पर भी किसी प्रकारकी आपत्ति उठानेका म्वप्न दण्डकारी कानून न बनाया जाय, जो अल्प मंग्ख्यक जेन में भी विचार नहीं कर सकता। दण्डकी धाराओंकी शब्दासमाजको सदा परेशान करने वाला सिद्ध हो। वली इतनी अनिश्चित और लचकीली एवं व्यापक है कि __भारतकी वर्तमान और पिछली मर्दुमशुमारीसे यह मिन्ह हरेक जैन इसको जैसाका तैमा माननको विवश कर दिया हो गया है कि 'जैन धर्मावलम्बियों में एक भी हरिजन नहीं गया है। यदि कोई हरिजन किमी मजिस्ट्रेट के सामने किमी है। इन अवस्थाओं में यदि सब किस्मकी जैन संस्थानोंमें जैनके विरुद्ध कोई शिकायत करना है तो उस जनको अपनी उनको प्रवेश करने और उसका इस्तेमाल करनेका अधिकार निर्दोषता साबित करनी होगी । दण्ड-विधानका पहला सिद्धादेनेके लिए दण्डात्मक उपबन्ध बनाये जाते हैं, तो इससे न्त यह है कि अदालत द्वारा अभियुक्त उस समय तक Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण] अस्पृश्यता विषेयक और जैन-समाज [२१३ निर्दोष और निरपराध माना जाता है जब तक इसके विपरीत है और यह अनुच्छेद केवल सार्वजनिक मन्दिरोंके लिये कानून और उल्टा प्रमाणित न हो जाय । यह विधेयक इस सिद्धान्त बनानेका अधिकार देता है। 'सार्बजनिक पूजाका स्थान' के विरुद्ध है और यह अदालतको माननेके लिवे अवसर देता इसकी परिभाषा हम विधेयकमें जिस रूपमें की गई है, उसमें है कि अभियुक्र उस समय तक अपराधो है, जब तक कि वे सब मन्दिर आ गये हैं, जो कि किमो एक धर्मके अत्यन्त वह अपनी निर्दोषता प्रमाणित नहीं कर देता। छोटे समुदायके हैं, या जिनका व्यवहार एक अत्यन्त छोटा दण्डात्मक कानून एक कठोर उपाय है। इसको बड़ो वर्ग करता है, परन्तु किसी भी दृष्टिसे इस प्रकारके मन्दिर सावधानीके साथ और निश्चित रूपमें बनाना चाहिये । यह सार्वजनिक मन्दिर नहीं कह जा सकते । जैन मन्दिर कुछ इतना अधिक कठोर या प्रतिरोधक न होना चापिए कि इस- श्वेताम्बरोंक हैं और कुछ दिगम्बर जैनोंके हैं, पर दिगम्बर का उन लोगोंके विरुद्ध दुरपयोग किया जा सके, जो इसके जैनोंके मन्दिगे श्वेताम्बर भोर श्वेताम्बर जैनियोंके मन्दिरमें कारण भयत्रस्त हो गये हैं। दुर्भाग्यसे इस विधेयकमें ये सब दिगम्बर जैन नहीं जा सकते । जिन जन मन्दिरोंके सम्बन्धमें खरावियाँ हैं । हरिजन जैन धर्म को मानने वाले नहीं हैं, इस प्रवेग करने और उनका व्यवहार करनेके श्वेताम्बरों और कारण यह बहुन सम्भव है कि जैन मन्दिरों और जैन संस्था- दिगम्बर जैनियों में विवाद था, उनका फैसला अदालत द्वारा ओंमें वे इस दंगस प्रवेश करें, जिससे जैनियोंके हृदयको किया गया और प्रत्येक सम्प्रदाय द्वारा उनकी सतर्कनाले चोट पहुँचे । दुर्भाग्यसे विधेयक अन्दर ऐसी स्थितिसं बचाव रक्षा की जाती है। क्या इस प्रकारके मन्दिर सार्वजनिक मंदिकरनेके लिये कोई व्यवस्था नहीं की गई है। जैनियोंक रोमें शुमार किये जा सकते है ? कानू की परिभाषाका शब्ददुश्मन और दोस्त दोनों है, यह विधेयक बदला लेनेके लिये कोष इस प्रकार की इजाजत नहीं देता। उनक हाथमें एक अच्छा हथियार देता है। इस विधेयके दण्डात्मक उपबन्धोंमें कहा गया है कि जैन अत्यन्त अल्पसंख्यामें हैं । बहु व्यक समाज द्वारा किमी मन्दिर या धार्मिक मस्थामें हरिजनके प्रवेश करने या जो भिन्न-धर्मावलम्बी है, उसको पूर्ण संरक्षण मिलना चाहिए, उसका व्यवहार करने में यदि कोई बाधा देगा तो उसको किन्तु न मन्दिरों और अन्य जैन धार्मिक संस्थाओं में हरि दण्ड मिलेगा। पर हरिजन कौन हैं, यह जाननेका कोई जनोंको उन संस्थाओं में प्रचलित प्रथाओं और विधियों एवं उपाय नहीं है । यह कैम मालूम होगा. कि प्रवेशकी इच्छा स्यवहागंको माननकी पाबन्दी लगाय-वगैरह प्रवेश करनेका रखने वाला हरिजन है? दण्डात्मक उपबन्ध कभी भी अनुमति देनेका नतीजा यह होगा कि हर किस्मक अप्रतिष्ठा अनिश्चित न होने चाहिये। जनक और अनुचित कामोंकी खुली छुट मिल जायगी जो जैनियोंकी ऐसी धार्मिक संस्थायें हैं जिनमें उच्चतर कि संस्थायीक पुजारियों, उपदशकों, ध्यानस्थों, प्रबन्धकों धार्मिक व्यवस्था विभिन्न दर्जाक लोग जनधर्मका पालन अन्याको विक्षुब्ध, उद्विग्न और परेशान करनेका कारण ठीक शास्त्रोक्र विधियांक अनुसार करते हैं। विधेयक हरिजनों होगा। समेत सब गर जौनयाँको सस्थाओंमें प्रवेश करने और इनका इस विधेयकको भारताय सविनका अविगेधी बनाने व्यवहार करनेका अधिकार देता है. यद्याप व जैनधर्मका विफल प्रयत्नमें पूजा स्थानका परिभाषा बड़ी कल्पना और अनुसरण करनेसे इन्कार करते है और जो कोई उनको रोकता चतुरईस की गई है। इस परिभाषाकं सरसरी नजरम देख- है, उनको भारी दण्ड देनको व्यवस्था करता है । यह हुत है, उन नमे भी यह मालूम हो जायेगा कि यह न केवल सावजनिक ६ ही अनर्थकारी उपबन्ध है । इसका प्रभाव यह होगा कि मन्दिरों पर ही, वरन निजी पार वयनिक मन्दिरों पर भी शान्तिपूर्वक अपने कनव्य पालन करने वाले अल्पसंख्यक लागू होता है। काई भा साम्प्रदायिक मन्दिर, जिसमें उम समाजको निरुद्द श्यरूपस व्यथम परशान होना पड़ेगा। साम्प्रदायक अनुयायियोंके सिवाय और कोई दूसरा व्यकि मंयुक्त प्रवर समितिन जिसको यह विधेयक भली प्रकार नहीं जा सकता, कैपे सार्वजनिक मन्दिर कहा जा सकता है? जांच करने और उचित संशोधन करनेक लिये दिया गया था, भारतीय मम्बिधानका अनुच्छेद २६ एक ऐमा उपबन्ध है, इस विधेयकके शरारत-भरे प्रभावोंपर ध्यान नहीं दिया। जो विशेष रूपस इस विषयके साथ सम्बन्धित है, और हम इसके दुरुपयोगके विरुद्ध मावश्यक बचावकी व्यवस्था करनेक विषयों में विधान के अन्य सब सामान्य अनुच्छेदोंसे सर्वोपरि बजाय उन्होंने इसको और भी अधिक उम्र बना दिया है । Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष १३ डावर जो कि प्रत्येक दर्शकको अपनेको छूनेसे रोकता है, किया जायगा और जेल भेजा जायगा? यदि जैन दण्डित धर्माचार्य अपनी महिला शिष्याओंका जब वे मासिकधर्म की अवस्थामें हों मन्दिर में जानेसे रोकेगा तो यह प्रस्तावित कानून उसको दह देगा? हरिजन महिलायें भी जैन मन्दिरमें जाने देनेसे न रोकी जा सकेंगी, जबकि वे मासिकधर्मकी अपस्थायें होंगी। परिवार में जब कोई एक व्यक्ति मर जाता है तब उस परिवारके कुछ लोग अस्पृश्यताका पालन करते हैं जिसको कि सूतक कहते हैं। सूतकका पालन एक निश्चित अवधि तक किया जाता है। ये लोग और जो लोग इनको ऐसा करने की सखाह देंगे वे इस विधेयक अधीन इसके पात्र होंगे । विधेयक नं० १४ के विरुद्ध जैनांकी शिकायत न्याय संगत और उचित है । प्रस्तावित कानूनसे उनको बाहर रखा जाप इसके वे सब तरहले पात्र हैं। २१४ ] यदि यह विधेयक इमी रूपमें जैसा कि इस समय है, कानून बन गया तो यह विभिन्न समाजों और समुदायकि मध्य मेत्री और सौहार्द बहाने बाले लड़ाई मायोका कारण होगा और कमजोर धार्मिक अल्पसंख्यकोंके विरुद्ध अन्दरूनी गड़ों और मुकद्दमे करनेके लिये आम जनता उतेजित और भड़कानेका कारण होगा। इस विधेयक ने 'अस्पृश्यता' क्या है, इसकी परिभाषा वहीं की और यह सर्वथा मौन है, जबकि अस्पृश्यताका प्रचार करना या व्यवहार दण्डनीय ठहराया गया है जबकि दीवानी अदालतोंचो किसी ऐसी रीति-रिवाज या प्रथा या विधिको स्वीकार करनेसे रोका गया है, जो कि अस्पृश्यताको स्वीकार करती है, तब इस विधेयक बनाने वालोंके लिये यह आवश्यक हो जाता है कि वे इसकी परिभाषा करते, विशेष स्थितियों में स्पृश्य भी अस्पृश्य हो जाते हैं । क्या मौजमाबादके जैन समाजको ध्यान देने योग्य रहा मौजमाबाद जयपुर से करीब ४२ मील दूर है। यह जयपुर राज्यका एक पुराना कसबा है जो आज भी तहसीलका एक मुकाम है। यह कपबा किसी समय खूब सम्पन है | पर आज यहां अनेक विशाल मकान खण्डहरके रूपमें विद्यमान है । कहा जाता है कि वहीं दो सौ घर जैनियोंके थे। परन्तु आज ४०-४५ पर बतलाए जाते हैं। यहाँ का एक विशाल जैन मन्दिर सम्वत १६६४ से पहले बना है जो बड़ा ही मजबूत है, उसमें नीचे दो बिलाल त घर बने बड़ा हुए हैं जिनमें बडी बडी विशाल मूर्तियाँ विराजमान है। वे मूर्तियाँ छोटे जी कर यहां विराजमान की गई, जीनेसे तरह यह एक आश्चर्यका विषय है। ये अंधेर स्थानमें विराजमान है, जिनका दर्शन पूजन भी ठोक तरहसे नहीं होता है । इस विशाल मन्दिर में संवत् १६६४ की प्रतिष्ठित २३२ सुन्दर मूर्तियाँ विराजमान हैं, परन्तु उनका प्रक्षालन ठीक ढंगले न होनेके कारण पकेद्र पाषाणमें जगह जगह दाग लग -हैं वे मलिन हो गई हैं, मालूम होता है कि उनका माल करते समय सावधानी न वर्तनेके कारण उनपर पानीका अंश रह जाता है बादमें उनमें धूलिक का चिपक गए है जिससे उनका अंग मलिन दिखाई देता है। इतनी अधिक सघन रूपमें रखी हुई मुनियोंका प्राली ढंगले नहीं हो गए पाता । और लोगोंमें पूजन प्रचालकी कोई रुचि भी नहीं ज्ञान होती । इन इसी तरह दूसरे प्राचीन मन्दिरमें भी मूर्तियों विरा मान हैं। इसमें शास्त्रभवहारकी जो दुईशा हुई है उसका बयान करते हुए लेखनी धरांती है वहां संस्कृत- आकृतभाषाके अनेक प्रत्यये पुष्पदमाके यशोधर चरित्रकी सचित्र प्रतियों थी, किन्तु वे आज चारों ही स्खण्डित हैं, और उनके चित्रादि भी मिट गये हैं। उनमें एक भी प्रति पूरी नहीं हो सकती। इसी तरह अन्य दूसरे माल है। कहा । ग्रन्थोंका तो उत्तर मिला हम संस्कृतप्राकृतको नहीं जानते इससे ग्रन्थोंका यह हाल हुआ है। परन्तु छलक सिद्धिसागर जीने व भक्तिश रातदिन परिश्रम करके उन अपूर्ण ए श्रुत खंडित ग्रन्थों की सूची बनाई और उन्हें बेठनों में बांधा, उन पर प्रधोंका नामादि भी अंकित करदिया है। इतना कर देने से उक्त भगडारके कुछ प्रथ जानकारीमें अवश्य श्रागए हैं। परन्तु वे अधूरे ग्रन्थ ऐसी स्थिति में सुरक्षित भी नहीं रह सकते। हाँ, हिन्दी-भाषा सहित ग्रन्थ प्रायः सुरक्षितरूपमें विद्यमान है। यहाँ लोगों में कोई धार्मिक प्रेम नहीं है। क्योंकि वहाँ तुल्लक सिद्धिसागरजी मौजूद हैं, जो उत्कृष्ठश्रावक होनेके साथ साथ निस्पृह और उदासीन वृत्तिको एव Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिये हुए हैं, बाल-ब्रह्मचारी हैं। वे रात दिन ज्ञानाभ्याम और ३००० के ग्रन्थ थे। कुचामन शास्त्र-भण्डारकी सूचीका प्रात्मध्यानमें लीन रहते हैं। ऐसे विद्वान तुललकके वहाँ रहने कार्य भी आपसके मन-भेदके कारण स्थगित हो गया है। पर भी वहांकी जनता उनस ज्ञानार्जनका लाभ नहीं उठाती। जैन समाजकी यह लापर्वाही जैन संस्कृतिक लिए अत्यन्त अस्तु समाजकी लापर्वाहीसे जो ग्रन्थ ग्वगिद्धन हो गए है घातक है | प्राशा है समाज और समाजके नेतागण इस तरह उनका पूर्ण होना कठिन है, अतः वहांको समाजको चाहिए कि । श्रत सम्पत्तिको विनष्ट हार से बचानका यत्न करें। पर वहांके वह उक्र क्षुल्लकजीक निर्देशानुसार उन अपूर्ण ग्रन्यों को जयपुर जैनियोंका इस श्रुत सम्पनिको विनष्ट हो जाने पर भी कोई या वीरमवा मन्दिर दहलीम भिजवा दें. जिम उनका बंद नहीं है। उन्हें समाजकी इम शूनसम्पत्तिक नष्ट करनेका संरक्षण हो सक। हम तरह ममाज का लापवाहास ग्रन्थ क्या हक था ? इस संबन्धमें ममाजक मान्य नेताओंन भी भण्डागमें महलों ग्रंथ नष्ट हो गए हैं । नरा-वीस पंथक झगडों. कुछ विचार नहीं किया । में भी मारोठका ग्रन्थभहार विनष्ट हो गया है. जिसमें लगभग -परमानन्द जैन वीर मेवान्दिरके मुरुचिपूर्ण प्रकाशन (१) पुरानन-जनवाक्य-सूची-प्राकृनक प्राचीन ६४ मृल-ग्रन्थाको पद्यानुक्रमणी, जिसके साथ ४८ टीकादिग्रन्यामें उद्धन दृमर पद्योंकी भी अनुक्रमणी लगी हुई है । सब मिलाकर २१३५३ पद्य-वाक्योकी सूची। संयोजक और सम्पादक मुख्तार श्रीजुगलकिशोरजी की गबंपणापृा महत्वकी ७० पृष्ठ की प्रतावनाम अलंकृत, डा. कालीदास नागर एम. ए. डी. लिट् के प्राक्कथन ( nod) और डा. ए. एन. · उपाध्याय एम. ए. डी. लिट की भूमिका (Introduction) में भूपिन है. शोध-ग्वाजकं विद्वानों के लिये अतीव उपयोगी, बडा साइज, जिल्द । जिसकी प्रस्तावनादिका मूल्य अलगम पांच रुपये है) (२ आप्न-परीक्षा-श्रीविद्यानन्दाचायकी म्बापज मटीक अपूर्वकृति,श्राप्तांकी पगेना द्वारा ईश्वर-विषयके सुन्दर परम और मजीव विवेचनको लिए हा न्यायाचार्य पं. दरबारीलालजी के हिन्दी अनुवाद नथा प्रस्तावनादिसे युक्त, जिल्द। (३) न्यायदीपिका-न्याय-विद्याकी मुन्दर पाथी, न्यायाचार्य पं. दरबारीलाल जीक सम्वृनटिप्पण, हिन्दी अनुवाद, विस्तृत प्रस्तावना और अनेक उपयोगी परिशिष्टाम अलंकृत, जिल्द । ... (४) म्वयम्भून्नात्र-- समन्तभद्रभारतीका अपूर्व ग्रन्थ, मुख्तार श्रीजुगलकिशारजीक विशिष्ट हिन्दी अनुवाद छन्दपार चय. समन्तभद्र-परिचय और भक्तियोग. जानयोग तथा कर्मयोगका विश्लेषण करती हुई महत्वकी गवेषणापूर्ण १०६ पृष्टको प्रम्नापनाम मुशाभिन । (५) तृतिविद्या-म्बामी समन्तभद्रकी अनोग्बी कृति, पापांक जीननकी कला, मटीक, मानुवाद और श्रीजुगलकिशार मुग्नारकी महन्वकी प्रस्तावनादिम अलंकृत सुन्दर जिल्द-हित । " ॥) (६) अन्यान्मकमलमानगड-पंचाध्यायीकार कवि गजमलकी सुन्दर श्राध्यात्मिक रचना, हिन्दीअनुवाद-सहित और मुख्तार श्रीजुगलकिशोरकी ग्वांजपूर्ण ७८ पृष्ठको विस्तृत प्रस्तावनाम भृषिन । (७) युक्त्यनुशासन-तत्वज्ञान परिपूर्गा समन्तभद्की असाधारण कृति, जिसका अभी तक हिम्दी अनुवाद नहीं हुअा था। मुख्तारश्रीक विशिष्ट हिन्दी अनुवाद और प्रस्तावनादिल अलंकृत, जिल्द । १) (८) श्रीपुरपाश्वनाथम्नात्र-प्राचार्य विद्यानन्दरचित. महत्वकी स्तुनि, हिन्दी अनुवादादि महिन। ... ॥) (E) शासनचतुम्निशिका-(तीर्थपरिचय)-मुनि मदनकीनिकी १३ वी शताब्दा की मुन्दर रचना, हिन्दी अनुवादादि-हित । ज्यवस्थापक 'वीरसंवामन्दिर-ग्रन्थमाला' वीरसेवामन्दिर, जैन लाल मन्दिर, चाँदनी चौक देहली। Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Regd. No. D. 211 अनेकान्तके संरक्षक और सहायक संरक्षक १०१) बाल शान्तिनाथजी कलकत्ता १५००) वा० नन्दलालजी सरावगी. कलकत्ता १.१) बा. निर्मलकुमारजी कलकत्ता २५१) बाछोटेलालजी जैन सरावगी ०१) बा०मोतीलाल मक्खनलालजी, कलकत्ता २५१) बा. सोहनलालजी जैन लमंचू , १०१) बा. बद्रीप्रसादजी सरावगी, २५१) ला० गुलजारीमल ऋषभदामजी , १०१) बा० काशीनाथ जी, ... , ५१) बा० ऋषभचन्द (B.R.C. जेन , १०१) बा० गोपीचन्द रूपचन्दजी २५१) बा०दीनानाथजी मरावगी १.१) बाल धनंजयकुमारजी २५१) बा० रतनलालजी झांमरी १०१)बाजीतमल जो जैन २५१) बा० बल्देवदासजी जैन सरावगी १०१) बा०चिरंजीलालजी सरावगी , २५१) सेठ गजराजजी गंगवाल १०१) बा० रतनलाल चांदमलजी जैन, रांचा २५१) सेठ सुआलालजी जैन १०१) ला० महावीरप्रसादजी ठेकेदार, देहली २५१) वा० मिश्रीलाल धर्मचन्दजी १०१) ला० रतनलालजी मादीपुरिया, देहली २५१) सेठ मांगीलालजी १०१) श्री फतेहपुर जैन समाज, कलकत्ता २५१) सेठ शान्तिप्रसादजी जैन , १०१) गुमसहायक, मदर बाजार, मेरठ २५१) बा० विशनदयाल रामजीवनजी, पुरलिया १०१) श्री शीलमालादेवी धर्मपत्नी डा०श्रीचन्द्रजी, एटा: २५१) ला० कपूरचन्द धूपचन्दजी जैन, कानपुर १०१) ला० मक्खनलाल मोतीलालजी ठेकेदार, देहली २५१) बा० जिनेन्द्रकिशोरजी जैन जौहरी, देहली १०१) बा० फूलचन्द रतनलालजी जैन, कलकत्ता २५१) ला० राजकृष्ण प्रेमचन्दजी जैन, देहली १०१) बा० सुरेन्द्रनाथ नरेन्द्रनाथजी जैन, कलकत्ता २५१) बा० मनोहरलाल नन्हेंमलजी, देहली १०१) बा० वंशीधर जुगलकिशोरजी जैन, कलकत्ता २५१) ला० त्रिलोकचन्दजी, सहारनपुर १०१) बा. बद्रीदास आत्मारामजी सरावगी, पटना २५१) सेठ छदामीलालजी जैन, फीरोजाबाद १०१) ला० उदयराम जिनेश्वरदासजी सहारनपुर ५ २५१) ला० रघुवीरसिंहजी, जैनावाच कम्पनी. देहली १०१) बा० महावीरप्रसादजी एडवोकेट, हिसार २५१) रायबहादुर सेठ हरखचन्दजी जैन, रांची १०१) ला० बलवन्तसिंहजी, हांसी जि० हिसार २५१) सेठ वधीचन्दजी गंगवाल, जयपुर १८१) सेठ जोखीरामबैजनाथ सरावगी, कलकत्ता १०१) बाबू जिनेन्द्रकुमार जैन, सहारनपुर सहायक १०५) वैद्यराज कन्हैयालालजो चद औषधालय,कानपुर * १.१) बा. राजेन्द्रकुमारजी जैन, न्यू देहली । १०१) ला. प्रकाशचन्द व शीलचन्दजी जौहरी, देहलो १०१) ला० परसादीलाल भगवानदासजी पाटनी, देहली। ।, १६ला १०१) ला• रतनलाल जी कालका वाले, देहलो १०१) बा० लालचन्दजी बो० मेठी, उज्जैन १०१) बा० घनश्यामदास बनारसीदासजी, कलकत्ता अधिष्ठाता 'वीर सेवामन्दिर' १०१) वा० लालचन्दजी जैन सरावगी , __सरसावा, जि. सहारनपुर -का-परमाननजी शान्त्री द. जैन बालमंदिसती माक-सवाणी प्रिटिग हाडस २५, दरियागंज, रेकी Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का त जनवरी १९५५ - - - विषय-सूची सम्पादक-मण्डल जुगलकिशोर मुख्तार छोटेलाल जैन जयभगवान जैन एडवोकेट परमानन्द शास्त्री m arimmam SweepewBANNERemes Papaka समन्तभद्र भारती (देवागम)- [युगवार १६. पं. जयचन्द और उनकी माहिन्य-संवा परमानन्द्र शास्त्री 12 ३ अमंजी जीवोंकी परम्पग [डा० हीरालाल जैन एम० ए०:५५ ४ भव्य मागापदंश उपासकाध्ययन [च० मिद्धिमागर १७६ - कुमुदचन्द्र भट्टारक- [व. भुजबली शाम्बी १७८ ६ पृथ्वी गोल नहीं चपटी है एक अमेरिकन विद्वान १७६ पार्श्व-जिन-जयमाल (निन्दा स्तुनि) (कविता) म्व. पं. ऋषभदाय चिलकानवा १८. पं. दीपचन्द्रजी शाह और उनकी रचनाएँ (परिशिष्ट)-[परमानन्द जैन १८३ * मुगल कालीन सरकारी कागज [मंग्रहालयमें सुरक्षिन ८४ 1.निश्चयनय ब्यवहारनयका यथार्थ निर्देश -[क्षुल्लक गणेशप्रमादजी वर्णी १८५ " श्रावकोंका प्राचार-विचार-[क्षुल्लक मिद्धि मागर १८६ 10 श्री हीराचन्द्रजी बोहराका नम्र निवेदन और कुछ शंका-[जुगल किशोर मुख्तार १८० '१३ महापुराण-कलिका और कवि ठाकुर .. [पं० परमानन्द शास्त्री १९ --- अनेकान्त वर्ष १३ किरण ७ -- - -- - - - Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [श्री रामचन्द्रजी डाल्टनगंज वालोंका एक पत्र मुख्तार साहबके पास भाया है जिसे नीचे ज्यों का त्यों दिया जा रहा है। इस पत्रके साथ एक शिलालेखकी नकल भी भेजी है जिसमें उतारते समय कुछ अक्षरोकी गड़बड़ी हो गई है. इससे वह ठीक नहीं पढ़ा जा सका, उसका फोटो भाने पर वह ठीक ढंगसे पढ़ा जा सकेगा । उस लेख में मूर्तिको प्रतिष्ठित कराने वालेका उल्लेख है। और लेख एक हजार वर्षसे भी अधिक प्राचीन है । पत्र से ज्ञात होता है कि वहां पार्श्वनाथका प्राचीन मन्दिर रहा है। उस मन्दिरके पुरातन भवशेषोंकी खोज करनी चाहिये, सम्भव है वहां जैन संस्कृतिका कोई पुरातन अवशेष और उपलब्ध हो जाय।। -परमानन्द जैन श्रद्धेय श्री पं० जुगलकिशोर जी साहब, करीब १. रोज हुए मैं अपने भतीजे चिरंजीव ज्ञानचन्दकी शादीमें रफीगंज गया था। रफीगंजसे करीब ३ मील दूर पर एक पहाड़ है। उस पहाड़ में एक गुफा है जिसमें श्री पार्श्वनाथ भगवानकी एक प्रतिमा विराजमान है। हम लोगोंने उस प्रतिमाके दर्शन करनेकी इच्छा प्रकट को तथा हमारे सम्बन्धी श्रीमान् चांदमल जी साहबने इक्केका तुरन्त प्रबन्ध कर दिया। हम लोग इक्केसे पहाड़की तलहटीमें बसे 'पंचार' नामक प्राम तक गये। तथा वहांसे एक लड़केको लेकर मन्दिरकी ओर रवाना हुए। पहाड़की चढ़ाई कोई विशेष नहीं है। तथा प्राचीनकालमें वह मन्दिर एक बहुत विशाल मन्दिर रहा होगा। क्योंकि जितनी दूरकी चढ़ाई है, उतने दूरमें पत्थरों के अलावा पुराने जमाने की ईटोका ढेर पड़ा है। तथा कहीं कहीं तो ऐसा मालूम पड़ता है कि भोतर कोई पोलो जगह हो । गुफाका प्रवेश द्वार अभी तक ज्यों का त्यों खड़ा है। उसके खम्भों पर नक्काशी इत्यादि बनी हुई है। अन्दर श्री पार्श्व प्रभुको प्रतिमा विराजमान है । जो आसन तक जमीनमें धंस गई है। प्रतिमा पद्मासन अवस्थामें है। फन किसी विधर्मीने तोड़ दिये हैं। वहांके देहात वाले इस प्रतिमाको 'लका बोर' कह कर पूजते हैं। तथा प्रतिमा पर सिन्दूर वगैरह लगा दिया है। इसी गुफासे एक प्रतिमा रफीगंज के श्रावक ले गये थे जो वहांके मन्दिरजीमें विराजमान है। उस गुफामें एक और प्रतिमा हम लोगोंके देखने में आई। इसमें एक पत्थरके ऊपर पांच अरहत प्रतिमा उकेरी हुई है। तथा प्रतिमाओंके नोचे एक यक्षणीको मूर्ति है। तथा उसके नाचे पाली भाषाका एक शिजालेख है। एक ही पत्थर पर तोनों चीजें बनी हुई हैं। उस शिलालेखको नकल आपके पास भेज रहे हैं। कृपया इसे आप 'अनेकान्त' में प्रकाशित करने की कोशिश करेंगे। इस शिलालेख वाले पत्थर के लिये हमारे भतीजे चि० कमलकुमारने जिद की कि इसे हम लोग डालटनगंज ले चलेंगे। इसलिये हम तथा भाई गुलाबचन्द जी तथा धर्मचन्द और कमलकुमार बड़ी कोशिशके साथ पहाडसे इसे उतारकर रफीगंज तक लेते आये। लेकिन यहांके पंचोंको जब इसके बारे में पता लगा तो वे झगड़ा करनेके लिये तैयार हो गये तथा लाचार होकर उस प्रतिमाको रफीगंजके पंचोंके ही हवाले कर दिया है। सुनने में आया है कि एक पाली भाषाका शिलालेख रफीगंजमें पंडित गोपालदासजी जैन शास्त्रीके पास भी है जिसमें सम्राट् श्रेणिक उल्लेख है। अगर ऐसी बात होगी तो हमारे समझसे यह शिलालेख भी २५०० वर्षे पहलेका होना चाहिये । आप इस विषय पर पूरा उल्लेख अपने पत्र 'अनेकान्त' में प्रकाशित करें ऐसी हमारी इच्छा है। ____ इस गुफामें घुसते वक्त दाहिने हाथकी ओर देवनागरी भाषाका एक लेख पत्थर पर उकेरा हुआ है। जिसमें नीचे लिखे वाक्य हैं: माणिकभद्र नमः...... .........."श्री पार्श्वनाथ..... डालटनगंज मापका ता०१६-१२-५४ रामचन्द्र जैन Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * अहम . धस्ततत्त्व-संयोत : विश्वतत्व-प्रकाशक ARTHRIT वार्षिक मूल्य ६) एक किरण का मूल्य ॥) Hatta - नीतिविगेधध्वंसी लोकगवहारवर्तकःसम्यक् । परमागमस्य चीज भुवनेकगुर्जयत्यनेकान्त वर्ष १३ किरण वारसेवामन्दिर, Coहिजेन लालमन्दिर, चांदनी चौक, देहली माघ, वार नि० संवत २४८१, वि० संवत २०११ जनवरो समन्तभद्र-भारती देवागम अनपेक्ष्ये पृथक्त्वैक्ये ह्यवस्तु द्वय हेतुतः । तदेवैक्यं पृथक्त्व च स्वभेदैः साधनं यथा ।। ३३ ।। 'एक दूसरे की अपेक्षा न रम्बने पाले पृथक्त्व और एकत्व चूकि हनुद्वयमे अवस्तु हैं-एकत्व निरपेक्ष होनेसे पृथक्वका और पृथक्व-निरपेक्ष होनेसे एकत्वका कहीं कोई अम्निच नहीं बनना-अनः एकत्व और पृथक्त्व सापेक्षरूपमं विरोधको प्राप्त न होनेसे उसी प्रकार वस्तुत्वको प्राप्त है जिस प्रकार कि साधन (हेतु)-माधन अपने पक्षधर्मत्व, सपसमें सच और विपक्षसे व्यावृत्तिरूप भेदों तथा अन्यय-व्यतिरकरूप भेदोंके साथ सापेक्षताक कारण विरोधको न रखते हुए वस्तुत्वको प्राप्त है।' सत्सामान्यात्त सर्वेक्यं पृथग्द्रव्यादि-भेदतः। मेदाम्मेद-विवक्षायामसाधारण-हेतुवत् ॥ ३४ ॥ ___(यदि यह कहा जाय कि पुकन्चके प्रत्यक्ष-वाशित होनेक कारण और पृथक्त्वक सहाथात्मकतासे बाधित होने के कारण प्रतीतिका निविषयपना है सब मन पदार्थोंमें पाव और पृथक्वको कै अनुभूत किया जा सकता है? तो यह कहना ठीक नहीं है; क्योंकि ) सत्ता-अस्तित्वमें समानता होनेकी दृष्टिस तो सब (जीवादि पदार्थ) एक है-इसलिये एकत्वकी प्रतीतिका रिपय मत्सामान्य होनम वह निविषय नहीं है-और द्रव्यादिक भेदकी दृष्टिस-इन्य, गुण और कर्मको अथवा द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी जुड़ी जुदी अपेक्षाको लेकर-सव ( जीवादि पदार्थ ) पृथक् हैं-इसलिये पृथक्त्वकी प्रतीतिका विषय म्यादि भेद होनेसे वह निविषय नहीं है । जिस प्रकार असाधारण हेतु अभेदकी दृष्टिसे एक रूम और भेदकी दृष्टि से अनेकरूप है उसी प्रकार सब पदार्थो में भेदकी विवक्षास पृथक्त्व और अभेदकी विवक्षासे एकत्व सुटित है।' Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त । वर्ष १३ विवक्षा चाऽविवक्षा च विशेष्येऽनन्त-धर्मिणि । सतो विशेषणस्याऽत्र नाऽमतस्तैस्तदभिः ॥३५॥ (यदि यह कहा जाय कि विवक्षा और अविवक्षाका विषय तो अमनरूप है तब उनके आधार पर तत्वकी व्यवस्था कैसे युक्त हो सकती है तो ऐसा कहना ठीक नहीं है; क्योंकि ) अनन्तधर्मा विशेष्यमें विवक्षा तथा अविवक्षा जो की जाती है वह सत् विशेषणकी ही की जाती है असन्को नहीं और यह उनके द्वारा की जाती है जो उस विशेषणके अर्थी या अनर्थी हैं-अर्थी विवक्षा करता है और अनर्थी अविवक्षा | जो सर्वथा असत् है उसके विषय में किसीका अर्थीपना या अनर्थीपना बनता ही नहीं-वह तो सकल अर्थक्रियासे शून्य होनेके कारण गधेके सींगके समान होता है। प्रमाण-गोचरौ सन्तौ मेदाभेदौ न सवृती । तावेकत्राऽविरुद्धौ ते गुण-मुख्य-विवक्षया ॥३६॥ ___(हे वीर जिन ! ) भेद (पृथक्त्व ) और अभेद ( एकत्व-अद्वैत ) दोनों ( धर्म ) सतरूप हैं-परमार्थभूत है-संवृतिके विषय नहीं-कल्पनारोपित अथवा उपचारमात्र नहीं हैं। क्योंकि दोनों प्रमाण के विषय हैं। (इसीसे) आपके मनमें वे दोनों एक वस्तुमें गौण और मुख्यकी विवक्षाको लिये हुए एकमात्र अविरोध रूपसे रहते हैंफलतः जिनके मतमें भेद और अभेदको परस्पर निरपेक्ष माना है उनके यहां वे विरोधको प्राप्त होते हैं और बनते ही नहीं ।' (ऐसी स्थितिमें (१) सर्वथा भेदवादी बौद्ध, जो पदार्थोके भेदको हो परमार्थ सत्के रूपमें स्वीकार करते हैंभमेदको नहीं, अभेदको संवृति ( कल्पनारोपित) सत् बतलाते है और अन्यथा विरोधकी कल्पना करते हैं। (२) सर्वथा भमेदवादी ब्रह्माती आदि, जो पदाथोके अभेदको ही तात्विक मानते हैं-भदको नहीं, अवको कल्पनारोपित बतलात है और अन्यथा दोनोंमें परस्पर विरोधकी कल्पना करते हैं: (३) सर्वथा शून्यवादी बौद्ध, जो भेद और अभेद दोनांमसे किसीको भी परमार्थ सन्न रूपमें स्वीकार नहीं करते किन्तु उन्हें संवृति-कल्पनाका विषय बतलाते हैं। और (४) उभयवादी नैयायिक, जो भेद और पभेद दोनोंको सत् रूपमें मानते तो हैं परन्तु दोनोंको परस्पर निरपेक्ष बतलात हैं, ये चारों ही यथार्थ वस्तु-तत्वका प्रतिपादन करनेवाले सत्यवादी नहीं है। इन सबकी दृष्टिसे इस कारिकांक अर्थका स्पष्टीकरण निम्न प्रकार है:-) 'भमेव सत् स्वरूप ही है-संवृति ( कल्पना ) के विषयरूप नहीं क्योंक वह भेदकी तरह प्रमाणगोचर है । भेद सत् रूपही है-संवृतिरूप नहीं, प्रमाण गोचर होनेसे अभेदकी तरह । भेद और अभेद दोनों सत् रूप हैं-संवृतिके विषय रूप नहीं, प्रमाणगोचर होनेसे, अपने इष्ट तत्त्वकी तरह क्योंकि उन दोनोंको संवृतरूप बतलाने वालों (शून्यवादियों) के यहाँ भी सकलधर्म-विधुरत्वरूप अनुमन्यभावका सद्भाव पाया जाता है। (यहाँ इन दोनों पक्षोंके अनुमानोंमें जो बो उदाहरण हैं वह साध्य-साधन धर्मसे विकल ( रहित ) नहीं हैं। क्योंकि भेद अभेद और अनुभय एकान्तोंके मानने वालोंमें उसकी प्रसिद्धि स्याद्वादियोंकी तरह पाई जाती है । ) इस तरह हे वीर भगवन् ! आपके यहाँ एक वस्तुमें भेद और अभेद दोनों धर्म परमार्य सत्के रूपमें विरुद्ध नहीं हैं, मुख्य-गौणको विवक्षाके कारण प्रमाणगोचर होनेसे अपने इष्टतत्वकी तरह । और इसलिये सामर्थ्यसे यह अनुमान भी फलित होता है कि जो भेद और अमेद परस्पर निरपेक्ष हैं वे विरुद ही है, प्रमाणगोचर होनेसे भेदैकान्तादिकी तरह। इति द्वितीयः परिच्छेदः। • यह स्पष्टीकरण श्री विद्यानन्दाचार्यने अपनी अष्टसहस्ही-टीकामें "इति कारिकायामर्थसंग्रहः" इस वाक्यके साथ दिया है। Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पं० जयचन्द और उनकी साहित्य-सेवा (परमानन्द शास्त्री) हिन्दी जैन-साहित्यके गद्य-पद्य लेखक विद्वानों और इन परिचय-पद्योंसे मालूम होता है कि प्राप 'फागी' टीकाकारों में पं० जयचन्दजीका नाम भी उल्लेखनीय है। नामक ग्रामके निवासी थे। यह ग्राम जयपुरसे डिग्गीमाजपुरा आप उस समयके हिन्दी टीकाकारों में सर्वश्रेष्ठ विद्वान थे। रोर पर ३० मोलकी दूरी पर बसा हुआ है। वहां आपके श्रापका प्राकृत और संस्कृत भाषा पर अच्छा अधिकार था, पिता मोतीरामजी 'पटवारी' का कार्य करते थे। इसीखे यही कारण है कि आप उनको टीका करते हुए उन ग्रन्थोंके पापका वंश 'पटवारी नामसे प्रसिद्ध रहा है। दूसरे आपका प्रतिपाच-विषय पर अच्छा प्रकाश डालनेमें समर्थ होसके घराना वहां प्रसिद्ध और प्रतिष्ठित समझा जाना था। उक्त हैं । जैनसिद्धान्तके माथ-साथ आपका अभ्यास दर्शन, काव्य, प्राममें आपने ११ वर्षकी अपनी अवस्था व्यतीत हो जाने व्याकरण और चन्दादि विषयका भी अच्छा जान पड़ता है। पर जैनधर्मकी ओर ध्यान दिया और उसीमें अपने हितको प्रापका अध्ययन, अध्यापनसे विशेष प्रेम रहा है। आपके निहित समझकर आपने अपनी श्रद्धाको सुदृढ़ बनानेका टीका-ग्रन्थों में विषयका स्पष्टीकरण और भाषाकी प्रांजलिता यत्न किया। अतएव जैनधर्मके महत्वपणं सैद्धान्तिक ग्रंथोंका देखते ही बनती है। आपने तत्वार्थसूत्रपर लिखी जानेवाली अभ्यास करनेका निश्चय किया; क्योंकि बिना किसी अध्यदेवनन्दी अपर नाम पूज्यपादकी तत्त्वार्थवृत्ति (सर्वार्थसिद्धि) यन, मनन अथवा परिशीलनके वस्तुतत्त्वके अन्नःरहस्यका की हिन्दी टीका समाप्त करते हुए अन्तिम प्रशस्तिमें अपना परिज्ञान होना अत्यन्त कठिन है। साथ ही, जैनधर्म-विषयक परिचय निम्न पद्यों में व्यक्त किया है : भद्धाके शैवल्य अथवा कमजोरीको, जो आत्महितमें बाधक थी, और जिमसे संसार परिभ्रमणका अन्त होना संभव नहीं 'काल अनादि भ्रमन संसार, पायो नरभव मैं सुग्वकार । था, उसका परित्याग करदिया । उन्हीं दिनोंके लगभग जन्म फागई लयौ सुथानि, मोतीराम पिताकै आनि । सं० १८२१ में जयपुर नगरमें 'इन्द्रध्वजपूजामहोत्सव' का पायो नाम तहां जयचन्द, यह परजाय तणू मकरंद। विशाल प्रायोजन किया गया था। उस समय यह उत्सव द्रव्यदृष्टि में देख जवै, मेरा नाम श्रातमा कयै ॥१२ गजपूतानेमें सबसे महत्वपूर्ण और चित्ताकर्षक था। उत्सवमें गोत लावडा श्रावक धर्म, जामें भली क्रिया शुभ कम। दर्शनीय रचना प्राचार्य नेमिचन्द्रसिद्वान्तचक्रवर्तीके ग्यारह वर्ष अवस्था भई, तब जिन मारगकी सुधि लही ॥१३ : त्रिलोकपारके अनुसार बनाई गई थी और मण्डपको विविध प्रान इष्टको ध्यान अयोगि अपने इष्ट चलन शुभ जोगि। उपकरणोंसे सजाया गया था। उक्त विशाल मण्डपमें पं. तहां दूजो मंदिर जिनराज, तेरापंथ पंथ तहां साज ॥५४ टोडरमल जी जैसे प्रखर विद्वान वक्ताके प्रवचन सुननेका देव-धर्म-गुरु सरधा कथा, होय जहां जन भाई यथा । खाम भाषण जो था। इसीसे उक्त उत्सवमें दूर-दूरसे तब मो मन उमग्या तहा चला,जो अपना करनाह भला५ जन-समृह उमड पड़ा था। अत: उक्त उत्सव में पं0 जयचंद जाय तहां श्रद्धा दृढ़ करी, मिथ्याबुद्धि सबै पारहरी। जी भी अवश्य ही पधारे होंगे और उस समय वहां जैननिमित्त पाय जयपुर में अाय, बड़ी जु शैली देखी भाय ॥१६ का जो उयोत या उसका महत्वपूर्ण प्रभाव गणी लोक साधर्मी भले. ज्ञानी पंडित बहुते मिल। हृदय-पटलमें अवश्य अंकित हुआ होगा और उससे उन्हें पहले थे बंशोधर नाम, धरै प्रभाव भाव शुभ ठाम ।।१७ जयपुर जैसी सुन्दर जगहमें रहकर अपने अभिमतको पूर्ण टोडरमल पंडित मति खरी, गोमटसार व नका करी। नेको प्रेरणा भी जल पीने ताकी महिमा सब जन करें, वाचे पढ़े बुद्धि विस्तरै ।।१८ उपके तीन-चार वर्ष बाद जयपुर अवश्य ही रहने लगे होंगे। दौलतराम गणी अधिकाय, पंडितराय राजमैं जाय। क्योंकि उस समय जयपुरमें गुणीजनोंका सुयोग मिलना ताकी बुद्धि लसै सब खरी, तीन पुराण वर्षानका करी ।।१६ स्वाभाविक था। वहाँ उस समयसे पूर्व विद्वगोष्ठीका अच्छा रायमल्ल त्यागी गृह वास, महाराम व्रत शील निवास। अमाव था और जैनग्रन्थोंके पठन-पाठन तथा तत्वचर्चादि मैं ह इनकोसंगति ठानि, बुधसारू जिनवाणी जानि ॥२० रा धर्मकेगास्यको समझने तथा are -सर्वार्थसिद्धि, नयामंदिरप्रति होनेका अवसर भी था, साधर्मीजनोंमें धर्मवत्सलता विद्य Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० ] अनेकान्त वर्ष १३ मान थी। यद्यपि उस समय उन्हें ६० टोडरमल जी नहीं बनानेकी प्रेरणा की इमस पगिद्धत ज्ञानचन्दजीकी विद्वत्तामिले होंगे क्योंकि उनका दुग्बद-वियोग सं. १८०४ में का महज हो अनुमान लगाया जा सकता है। वास्तवमें किमी समय हो गया था, जो जयपुग्वामियों के लिए ही नहीं पण्डितजीका पुत्र भी उन्हीं जैसा ठोस विद्वान था। और किन्तु समस्त जैनसमाजके लिये दुर्भाग्यपूर्ण था: अस्तु, वह गो-वत्सके समान प्रेम रखकर बालकोंको विद्याध्ययन फिर भी जयपुरमें ५० दौलतरामजी काशलीवाल, ब्रह्म राय- कराता था । मलजी और शीलवती महारामजी, आदि विद्वज्जन थे ही मनालाल, उदयचन्द और माणिकचन्द उनके प्रमुख जिनका सत्सङ्ग बड़ा ही लाभदायक था, उनसे तन्वचर्चादि शिप्य थे। जिनका परिचय फिर कभी कराया जायेगा। द्वारा वस्तुतत्वक अन्नः रहस्यको समझने या परिशीलनादि पं. नन्दलालजीकी शास्त्राथमें विजय द्वारा उसके गुप्त मारके महत्वको प्रगटरूपम जाननेका सुअवसर प्राप्त था। अतः ५० जयचन्द्रजीने जयपुग्म रह पण्डित नन्दलालजीक सम्बन्धमें कहा जाता है कि एक कर सद्धान्तिक ग्रन्थोंके अध्ययन एवं मनन द्वारा अपने बार एक बड़ा विद्वान जयपुरके विद्वानोंको पराजित करनेकी ज्ञानको वृद्धि करनेका प्रयत्न किया और उक्त विद्वानांकी इच्छास जयपुरमें आया।, परन्तु नगरका कोई भी विद्वान् गोष्ठीस जो लाभ मिल सकता था उसका भी पूरा लाभ उससे शाम्बार्थ करनेके लिये प्रस्तुत नहीं हुआ। अनाव उठाया। और इस तरह अपनी ज्ञान-पिपासाको शान्त करने जयपुरके विद्वानोंकी अर्कीर्ति न हो और राज्य-कीर्तिके साथ का उपक्रम किया। और कुछ वर्षोक पतन परिश्रम तथा विद्वानोंकी विद्वत्ताकी छाप भी बनी रहे, इसके लिये कुछ मध्यवयाय द्वारा प्रापन जैन-सिद्धान्तके रहस्यका यथेष्ट राज्य कर्मचारियों और विद्वान् पंचोंने 40 जयचन्दजीस परिज्ञान कर लिया। और वे अब समाजक शास्त्र-पभादि उक्र विद्वानस शास्त्रार्थ करनेकी प्रेरणा की, और कहा कि कार्यों में भी यथेष्ट भाग लेने लगे थे। ६० जी क म्वभावमें आप ही विजय पा सकते हैं, और नगरकी प्रतिष्ठाको जहां सरखना और उदारता थी, वहां उनका चारित्र भी अनु कायम रख सकते है। अतः शास्त्रार्थक लिये श्राप चलें करणीय था, उनका रहन-सहन वेष-भूपा सीधा-मादा और अन्यथा नगरकी ही ताहीन (बदनामी) होगी। क्योंकि खान-पानादि व्यवहार श्रावकाचिन था। वे विद्या-व्यसनी थे, इस ननरको एक विदेशी विद्वान पगित कर चला जायगा, उमसे इस नगरके विद्वानांकी प्रतिष्ठाको भी धक्का लगेगा। तब अतः उनके मकान पर विचारे इच्छुक विद्यार्थियोंका तांता पलिनजीने उत्तर दिया कि में जयपगजयको दृष्टिस लगा रहता था। उनके कई प्रमुग्व शिष्य थे, जिन्होंने पंडित किमान शास्त्रार्थ करने नहीं जा सकता, किन्तु श्राप लोगोंजीसे अच्छा ज्ञान प्राप्त किया था। प० जी मद्गृहस्थ थे और अपने पद एवं कर्तव्यका मदा ध्यान रखते थे। वा यदि ऐसा ही अाग्रह है तो श्राप मेरे पुत्र नन्दलालको ले जाइये, यह उससे शास्त्रार्थ करेगा। इस पर उपस्थित पुत्र ज्ञानचन्द्र लोग पं० नन्दलालजीको ले गये। शास्त्रार्थ हुया और आपने अपने पुत्र ज्ञानचन्दको भी अच्छी तरह पढ़ा तब नन्दलालजीन उस विदेशी विद्वानको युक्रि बलसे पगलिग्वा कर मुयोग्य विद्वान बना दिया था। और वह स्वयं जित कर दिया। उसके परिणाम म्परूप राज्य तथा नगर पण्डित जी के साथ पठन-पाठनादि कार्योंमें महयोग देने पंचोंकी अोरपे पं० नन्दलालजीको कुछ उपाधि मिली थी। लगा था, और समाजमें धीरे-धीरे उसकी विद्वत्ताकी छाप जमने लगी थी। उसके ज्ञानका विकास इतना अच्छा जैसा कि प्रमेयरत्नमाला प्रशस्तिके निम्न दोहे से प्रकट हैहो गया था कि वह अपने प्रतिवादीसं कभी पराजित नहीं लिखी यहै जयचन्दनै सोधी सुतनन्दलाल । हो सकता था। वह उन धार्मिक कार्योमें केवल पहयोग हा बुधलखि भूलि जुशुद्धकरि बांची सिखैवो बाल ॥१६॥ नहीं देता था किन्तु उनके द्वारा रचित टीका-प्रन्थोंके संशो- नन्दलाल मेरा सुत गुनी बालपनेते विद्यासुनी। धन कार्यों में भी अपना पूरा सहयोग प्रदान करता था। पण्डित भयो बड़ी परवीन, ताह ने यह प्ररणकीन ॥ चुनांचे पण्डितजीने स्वयं ही अपने पुत्र द्वारा टोकाओंके -सर्वार्थसिद्धि प्रशस्ति संशोधनकी बात स्वीकार की है । और उस गुणी एवं बड़ा x तिनसम तिनके सुत भये बहुज्ञानी मन्दलाल । प्रवीण पण्डित भी बतलाया है। उसने भी टोक-ग्रन्थोंके गायवल्स जिम प्रेमको बहुत पढ़ाये बाल ॥-मूला. प्र. Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण] प० जयचन्द और उनकी साहित्य-सेवा [१७१ उसके सम्बन्धमें पं० जयचन्दजीने आवश्यक कर्तव्यमें प्रति पण्डितजीने जिन ग्रन्थोंका अध्ययन अपनी ज्ञान वृद्धि के फलस्वरूप उपाधि वगैरह का लेना उस कर्तव्य की महन्वा लिये किया था उनके नामादिकोंका उल्लेख उन्होंने सर्वार्थको कम करना है। इन्यादि वाक्य कहकर उस पदवीको सिद्धिकी टीका-प्रशस्तिमें कर दिया है। आपका शास्त्र ज्ञान वाधिम करा दिया। इससे पाटक पं. नन्दलालजीकी योग्य- अब विशेषरूपमें परिपक्व होगया-तभी आपने टीकाग्रन्थोंक ताको समझ सकते है कि वे कितने ठोस विद्वान थे। रचनेका उपक्रम किया, उपसे पूर्व वे उक्र ग्रन्थोंके अध्येता ही निष्काम कार्य करना ही मानव जीवनको महत्ता एवं बने रहे। श्रादर्श है । किमो दिन मुअवमर देखकर दोबान नमरचन्दजी- ग्रन्योंकी भाषा ने ६० नन्दलालजीमं कहा कि कानदोषम जीवोंकी बुद्धि, साप टोका-ग्रन्थोंकी भाषा परिमार्जित है और यह श्राधुनित्य क्षीण होती जा रही है। अतः माधु-प्राचारको व्यत्र निक हिन्दी भाषाके अधिक निबट है, यद्यपि उममें ढूंढाहड करने वाले अन्यकी अब नक कोई भाषा टीका नहीं देशवो भाषाका भी कुछ प्रभाव लक्षित होता है फिर भी है। इसलिये यदि मूलाचार (आनारांग) की हिन्दी उसका वि .सतम्प हिन्दीका ही यमुज्वल रूप है। यदि टोका बनाई जाय तो लोगोंका बहुत उपकार होगा। चुनांचे उसमस क्रियापदको बदल दिया जाता है तो उसका रूप म्व-पर-हितकी भावना रखकर यापन मूलाचारकी हिन्दी अाधुनिक हिन्दी भाषाम भी ममाविष्ट हो जाता है। पं. टीका बनानेका उद्यम किया । टीकाक लिखनेका काम उन्होंने जयचन्दजीक टीका ग्रन्थोंक दो उद्धरण नीचे दिये जारहे हैं अपने प्रिय शिष्यों पर (मुन्नालाल उदयचन्द माणिकचन्द पर) जिन प ठक उनको भाषाम परिचित हो सकेंगे। मांग, श्राप बोलते जान थे और वे लिखत जान थ। इस "बहुर वचन दोय प्रकार हैं, द्रव्य चेन, भाववचन । तरह ५१६ गाथायां तकको टीका हो पाई थी कि पं० महा वीर्यान्तराय मात श्रुनिज्ञानावरण कर्मक क्षयोपशम होत नन्दलालजीका असमयमें ही देवलोक होगया। उनके अस- अंगोपांगनामा नामकर्मके उदयतें प्रान्मा बोलनकी सामर्थ्य मयमें वियांग होनस पण्डितजी और सभी साधी भाहयांको होय, मो नी भाववचन है । मो पुद्रलकर्मक निमित्त से भया बड़ा दुख हुआ। बाद में उस टीकाको उनक सहपाठी शिप्य सातें पद्गलका कहिये । बहुरि तिम बोलनकी सामर्थ्य सहित ऋपभदामजी निगात्याने उसे पूरा किया। पण्डितजीक पुत्रका प्रा-मार कंठ तालु वा जीभ थादि स्थाननिकरि परे जे नाम घासाराम था, संभवतः वह भी अन्छे विद्वान रहे होंगे। पुदगल, ते वचन रूप परिण ये ने पुद्गल ही है । ते श्रोत्र पर उनके सम्बन्धमें मुझे कुछ विशप ज्ञात नहीं हो सका। इन्द्रियक विषय है, श्री इन्द्रियक ग्रहण योग्य नाही हैं। * तिनमा निज परहन लम्बि कही दीवान प्रवीन । जमैं घमाइन्द्रियका विषय गंध द्रव्य है, तिम घ्राणक रसादिक याण योग्य नाही हे तस।"-पर्वार्थसिद्धिीका ५-१६ कान-दीपनै नग्नको. होत बुद्धि नित बीन ॥ माधुतणों श्राचारको, भाषा ग्रन्थ न कोय । "जैसे इस लोकांवर सुवर्ण अर रूपा गालि एक ताने मृलाचारकी, भाषा जो जब होय ॥ किय एक पिडया व्यवहार होय है. न श्रामाक पर शरीर. तब उद्यम भापातणों, करन लगे नन्दलाल । के परम्पर एक गावगारको अवस्था हो.. एक पणाक। मन्नालाल श्ररु, उदयचन्द, माणिकचन्द जुबान ॥ प्याहार है, ऐम न्याहारमात्र ही करि अामा पर शरीरका नन्दलाल तिनमी कही, भाषा लिखो बनाय । मुकपणा है। बहुरि निश्चयतें एकपणा नाहीं है, जानें कहाँ अरथ टीका सहित, भिन्न भिन्न समझाय ॥ पाला गर पांडुर है स्वभाव जिनि का प्रया सुवर्ण भर रूपा है, पूरन षट् अधिकार कराय, पन्द्रह गाथा अस्थ लिग्वाय । तिनक जम निश्चय विचारिये नय अभ्यम्न भिन्नपणा करि सोलह अधिक पांच सही, सब गाथा यह संख्या लही। एक एक पदार्थपणाकी अनुपपनि है, नात नानापना ही है। अायुप पूरन करि गये, ते परलोक सुजान । से ही प्रात्मा पर शरार उपयोग अनुपयोग स्वभाव हैं। विरह बचनिकामें भया, यह कलिकाल महान् ॥ तिनिकै अन्यन्त भिनपणाने एक पदार्थपणाकी प्राप्ति नाहीं सब साधरमी लोककै, भयो दु.ख भरपूर । वाते नानाणा ही है। ऐसा प्रगट नय विभाग है।" अथिर लग्थ्यो संसार जब, भयो शोक तब दूर ॥ -समयसार २८ -मूलाचार प्रश. इन दो उद्धरणांस पण्डितजीकी हिन्दी गयभाषाका Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२] अनेकान्त [वर्षे १३ परिचय मिल जाता है। आपकी रचनाओं में प्रादि अन्त तात जुसार विन कर्ममल शुद्धजीव शुधनय कहें। मालके साथ ग्रन्थमें प्रत्येक अध्यायके अन्तमें वर्णित इस प्रन्थमाहिकथनीसबै, समयसार बुधजनगहै। विषयका सार खींचते हुए जो सबैया या दोहा कवित्स आदि इसी तरह ज्ञानार्णव ग्रन्थकी टीका करते हुए उसके पथ दिये हुए हैं उनके भी दो तीन नमूने नीचे दिये जारहे अन्तमें निम्न पद्य दिया है जिसमें ज्ञानावर्णवग्रन्थकी महत्ताहै जिनसे उनकी पद्य-रचनाका भी आभास मिल जाता है। का उल्लेख करते हुए लिखा है कि जो व्यक्ति ज्ञान समुद्रका पण्डितजीने अपनी सर्वार्थासद्धि टीकाके वें अध्यायके विचार करता है वह संसार-समुद्रसे पार हो जाता है। जैसा शुरूमें निम्न मङ्गल-दोहा दिया है। कि उनके निम्न सवैयाले स्पष्ट है:आस्रव रोकि विधानते. गहि संवर सुखरूप । 'ज्ञानसमुद्र नहां सुखनौर पदारथ पंकतिरत्न विचारो. पूर्वबन्धकी निर्जरा, करी नमू जिनभूप ॥१॥ राग-विरोध-विमोह कुजंतु मलीन करो तिनदूर विदारो। अध्यायको समाप्तिके बादका निम्न इकतीसा सवैया भी शक्ति सभार करो अवगाहन निर्मलहोय सुतत्त्व उधारो, पढ़िये जिसमें उक्त अध्यायमें चर्चित होनेवाले, संवर-नि, ठानक्रिया निजनेम सबै गुन भोजनभोगन मोक्षपधारो।' गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय और चारित्रका म्य- ज्ञानावर्णके छठवें अधिकारके अन्तमें एक छापय छन्दमें रूप निर्दिष्ट किया गया है। और उनके स्वरूप निर्देशके माथ उन अधिकारमें चचित विषयका सार कितने सुन्दर शब्दों में उनके स्वामित्वादि विषयका संक्षिप्त सार दिया हश्रा है- व्यक्त किया है: आस्रव निरोधरीति संवर सुबाधनीति कारण सप्ततत्त्व पढ्द्रव्य, पदारथ नव मुनि भाखे । विबोधगीत जानिये सुज्ञानतें । गुपति समिति धर्म जानू अस्तिकाय सम्यक्त्व, विषय नीक मन राखे । अनुप्रेक्षा मर्म, सहन परीषह परीस्या श्रम ठानिये उठा तिनको सांचे जान. आप-पर भेद पिछानहु । नतें । संयम संभारि करौ तप अविकार धरो उद्यम उपादेय है आप, आन सब हेय बखानहु ।। विचारि ध्यान धारिये विधानत । नवमां अध्याय यह सरधा सॉची धारकै मिथ्याभाव निवारिये। मांहि भाषे विधिरूप ताहि जानि धारि कर्मटारि पाची तब सम्यग्दर्शन पाय थिर है मोक्ष पधारिये ॥१ शिवमानते ॥१॥ इस तरह प्रायः सभी ग्रन्थों अधिकारान्तमें दिये हुए को कालोप तद्गत ग्रन्थके विवेच्य विषयका सार छोटेसे पद्यमें बड़ी खूबीमें सार खींचकर रखनेका उपक्रम पाया जाता है जिससे उन- के साथ अंकित करनेका प्रयत्न किया गया है। इन सब की कविता करनेकी प्रवृत्तिका भी सहज ही बोध हो जाता है। उद्धरणोंसे पाठक पंडितजीकी काव्य-प्रतिभाका सहज ही यद्यपि पदमंग्रहको छोड़कर उनका कोई स्वतंत्र पद्यात्मक ग्रन्थ अनुमान कर सकते है । वे हिन्दीकी तरह संस्कृत भाषामें भी अच्छे पद्योंकी रचना कर सकते थे। जो किसी प्रन्थके अनुवाद रूपमें प्रस्तुत न किया गया हो रचा पंडित जयचन्दजाके इन टीका-ग्रन्थोंका अध्ययन करके हुमा मालूम नहीं पड़ता | और रचा भी गया हो तो वह मेरे सामने नहीं हैं। फिर भी समयसार टीकाके मङ्गल पद्यका सैकड़ों व्यक्तियोंने लाभ उठाया है और उठा रहे हैं। इससे चतुर्थ 'छप्पय' छन्द ध्यान देने योग्य हैं जिसमें 'समय' पंडितजी द्वारा महा उपकारकी बात और कौन सी हो शब्दके अर्थ और नामोंका बोध कराते हुए समयमें मार भूत सकता ह?. जीव पदार्थको सुननेको प्रेरणा की गई है और जिम कर्म जीवनचयो और परिणति मलसे रहित शुद्ध जीव रूप सारको शुद्धनय कहता है उसी पंडितजी गृही जीवनसे सदा उदास और जिनवाणीकी का कथन उक्त समयसार नामक ग्रन्थमें किया गया है सेवामें अनुरक रहे हैं। पंडितजीकी जीवन-चर्याका उल्लेख जिसे बुधजन ग्रहण करते हैं । वह छप्पय इस प्रकार है:- करते हुए उनके शिष्य श्री ऋषभदासजो निगोत्याने मूला 'शन्द अर्थ अरुज्ञान समयत्रय आगम गाये। चार प्रशस्तिमें निम्न पद्य दिये हैं जिनसे पंडितजीकी परिमत सिद्धान्त अरु काल-भेदत्रय नाम बताये॥ यतिका सच्चा आभास मिल जाता है:इनहिं आदि शुभअर्थ समय वचके सुनिये बहु । 'तिनकी मति निरपक्ष विशाल, अर्थ समयमें जीव नाम है सार सुनहु सहु ।। जिनमत ग्रन्थ लखे गुणमाल । Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण.] पं० जयचन्द और उनकी साहित्य-सेवा [१७३ विषय-भोगसौं रहें उदास, जयचन्द्र इति ख्यातो जयपुर्यामभूसुधीः । , जिन आगम को करें अभ्यास ॥ दृष्ट्वा यस्याक्षरन्यासं मादृशोऽपीडशी मतिः ॥१ न्याय छंद व्याकरण अरु, अलंकार माहित्य । यया प्रमाण-शास्त्रस्य संस्वाद्य रसमुल्वणं । मतकनीकै जानिक, कहें वैन जे सत्य ।। नैयायिकादिसमया भासन्ते सुष्ठु नीरसाः॥२ न्याय अध्यातम ग्रन्थकी, कथनी करी रसाल। -प्रमाणपरीक्षा टीका टीका भाषामय करी, जामै सममैं बाल ॥ यहाँ यह बात विचारने योग्य है कि जब पं. जयचन्द्र भव-भोगोंके प्रति वे केवल उदासीन ही नहीं रहे; जी अपना उदासीन जीवन विताने हुए समाज-सेवाके साथ किन्तु उनकी दृष्टि इन्द्रिय-जयके साथ आन्तरिक रागादिक जिनवाणोके उद्धार एवं प्रचारकार्यमें संलग्न थे, तब उनके शत्रुओंके जयकी ओर रही है । वे सांसारिक कार्योंसे परान्मुख गृहस्थ-सम्बन्धि खर्चकी पूर्ति कैसे होती होगी ? इस प्रश्नका रहकर घरमें जल-पकवत् अलिप्त एवं निस्पृह रहे हैं। उठना स्वाभाविक ही है; परन्तु इस प्रश्नका ममाधान कारक उनकी प्रात्म-परिणति अत्यन्त निर्मल थी और वह विभाव- वाक्य भी उपलब्ध है जिससे इस प्रश्नको कोई महत्व नहीं भावोंकी मरिताको शोषण करनेकी ओर रही है। प्राध्या- दिया जा सकता । यद्यपि पं० जी अत्यन्त मितम्ययी और बड़े त्मिकता तो उनके जीवनका अंग ही बन गई थी वे वस्तुतत्त्वका ही निस्पृह विद्वान थे। उनमें याचकजनों जैमी दीनवृत्तिका कथन करते हए अन्म-विभोर हो जाते थे। और समयसार सर्वथा अभाव था, उनका व्यक्रित्व महान और चरित उदार की सरस वाणीमें सराबोर हो उठते थे। वे इस बातका मदेव था। मालूम होता है कि जयपुरमें उस समय अनेक समृद्ध ध्यान रखते थे कि मेरी किमी परिणति अथवा व्यवहारसे जैनी थे। जो बड़े ही धर्मनिष्ठ उदार और राजकार्यमें दर किसी दूसरे साधर्मी या मानवको वाधा न पहुंचे। यही थे। यह बात खास तौरसे ध्यान देने लायक है कि उस समय कारण है कि उस समय तेरा-बीम गंथकी चल रही कशम- जयपुरमें राजा जगतसिंहजीका राज्य था, और कई जैनी कश रूप कर्दमके असहिष्णु तीव्र प्रवाहमें वे नहीं वहे, घे राज्यकीय दीवान (आमात्य) जैसे उच्च पदोंपर आसीन थे। सदा वस्तुस्थितिका विवेचन करते हुए विवादसे कोसों दूर उन्हीं दिनों दीवान बालचन्दजी छावड़ाके सुपुत्र रायचन्द्रजी रहे । उसके प्रति उनकी भारी उपेक्षा ही तेरा वीस-पंथ-भेद- चावड़ा दीवान पद पर प्रतिहित थे। और अमरचन्दजी सम्बन्धी कटुताको कम करनेमें सहायक हुई है। यद्यपि दीवान भी अपने पिता शिवजीलालजी दीवानके पद पर दूसरे लोगोंने अपने पंथके व्यामोहवश अकल्पित एव प्रकर- प्रतिष्ठित थे, जो बड़े ही धर्मात्मा, विद्वान, उदार और णीय अनोंके करानेमें जरा भी हिचकिचाहट नहीं ली। परन्तु दयालु थे। उनके अार्थिक सहयोगसे कई बालक विद्या उस विषम परिस्थितिमें भी तेरा-पंथके अनुयायियोंने बड़ी अध्ययन करते थे। इतना ही नहीं; किन्तु वे दीन दुखियोंशान्ति और सहिष्णुताका परिचय दिया । यही कारण है कि की हमेशा महायता किया करते थे। इसी तरह रायचन्दजी वे उत्तरोत्तर वृद्धि पाते गए । और उनकी रचनाएँ भी उभय छावड़ा भी धर्मवत्सलतामें कम न थे। इन्होंने . १ पंथमें लोकप्रिय होती गई। इससे विरोधाग्निकी धधकतो में एक जिनमन्दिर बनवाया था और उसमें चन्द्रप्रभु भगहुई वह भीषण ज्वाला बिना क्मिी प्रयासके शान्त हो गई। वानकी मूर्ति प्रतिष्ठित की थी। कहा जाता है कि उन दीवानयद्यपि उसके लिये कितनोंको अपने जीवनकी होली में जीके साथ पंडितजीकी घनिष्ठ मित्रता थी। बहुत सम्भव है कि मुलसना पड़ा । परन्तु उत्तरकालमें शान्तिके सरस एवं सुखद पंडित जीको उनसे कुछ आर्थिक सहयोग मिलता हो. क्योंकि वातावरणने उसे सदाके लिये भुला दिया। ___पंडित जयचन्दजीने स्वयं ही सर्वार्थसिद्धिकी टीकाप्रशस्तिमें आपके द्वारा विनिर्मित 'प्रमेयरत्नमाला' आदि दार्शनिक लिखा है कि उन रायचन्द्रजी छावड़ाके द्वारा स्थिरता प्राप्त टीका-ग्रन्थोंको देखकर पं० भागचन्दजी जैसे विद्वानोंको भी कर हमने यह वचनिका लिखी है। यथा .. साहित्यिक कार्य करनेकी प्रेरणा मिली है और दूसरे विद्वानों "नृपके मंत्री सबमतिमान् . राजनीतिमें निपुण पुराण। को भी गति-दान मिला है। पं. भागचन्द्रजीने तो उनके सबही नृपके हितकों चहें, ईति-भीति टारे सुख ल॥४ प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हुए जो पद्य दिये हैं इस प्रकार तिनमें रायचन्द गुण धरै, तापरि कृपा भूप अति करें। ताकै जैन धर्मकी लाग, सब जैननिसूअति अनुराग । Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त । वर्ष १३ करो प्रतिष्ठा मंदिर नयो, चन्द्रप्रभजिन पापन थयौ। में समाप्त की है । इस ग्रन्थका दोहामय, पद्यानुवाद ताकरि पुण्य पढौ यश भयो सब जैनिनको मन हरखयो।॥ भी उपलब्ध है जो अभी तक अप्रकाशित है। ताके ढिंग हम थिरता पाय, करी वनिका यह मन लाय। चौथी टीका 'स्वामीकार्तिकेयानुप्रेक्षा की है, इसके कर्ता स्वामिकुमार है। यह ग्रन्थ भी प्राक्कत भाषाका है, इस रेखांकित पंक्रिसे स्पष्ट ध्वनित होता है कि पंडितजी इस ग्रन्थमें बारह भावनाओंका सविस्तार वर्णन है। यह की आर्थिक स्थिरता कारगा दीवन रायचन्द्रजी थे। इसीसे टे'का भी सं० १८६३ में बनी है । . निश्चिन्त होकर वे टीकाका कार्य करनेम प्रवृत्त हो सके हैं। पांचवीं टीका 'समयमार मूल और प्राचार्य अमृतचन्द अस्तु । कृत श्रामण्यानि नामक संस्कृत ठीकाकी वनिका है। यह टीका कार्य टीका कितनी मुन्दर और विषयका स्पष्ट विवेचन करती है। पंडित जयचन्दजीने अनेक ग्रन्थोंकी टीकाएँ बनाई है। टीकाकाग्ने मूल और टीकाके अभिप्रायको भावार्थ आदि जिनका रचनाकाल मं० १९६१ में मं. १८७० नक पाया दाग बोलने का प्रयत्न किया है। ग्रन्थान्तमें टीका समाप्तिका जाता है। इन दश वर्की भीतर पंडितजीने अपनी संचित काल सं० १८६४ दिया हुया है। ज्ञानराशिके अनुभवको इन टीकाग्रन्थों में बडे भारी परिश्रम- संवत्सर विक्रमतरणू अष्टादश शत और । के माथ रग्बनेका उपक्रम किया है। इन सब टीकाग्रन्थों में चीसठि कातिक बदि दशै, पूरग्म ग्रन्थ गुठौर ॥३ सबसे पहली टीका मर्यार्थमिद्धि की है जो दवनन्दी अपरनाम छठवीं टीका 'देवागम' स्तोत्र या पानामांमा की है। पूज्यपादकी 'तत्त्वार्थवृत्ति' की है। इस संस्कृत भाष की जिस पंडितजीने बड़े ही परिश्रमसे अष्टसहस्री आदि संक्षिप्त, गूढ़ एवं गम्भीर वृत्तिका कंवल अनुवाद ही नहीं महान नर्क ग्रन्थोंका मार लेकर मं० १८६६ में बना है। किया किन्तु उसमें चर्चित विषयोंके स्पष्टीकरणार्थ तत्वार्थ- मातवीं टीका श्राचार्य कुन्दकुन्दके अष्टपाहुड नामक श्लोकवार्तिक आदि महान ग्रन्थों पर आवश्यक सामग्रीको प्रन्थ की है जिसके कर्ता प्राचार्य कुन्दकुन्द है। इनमें षट दे दिया है जिससे जिज्ञासुओंको वस्तु तत्त्वका यथार्थ बोध पाहुडकी संस्कृत टीका श्रुतसागर मूरिकी थी उसके अनुसार हो सके । इम टीकाको उन्होंने वि० सं० १८६१ में चैत्रसुदि और शेप दो पाहुड ग्रन्थोंकी-लिंगपाहाड और शानपंचमीके दिन समाप्त किया है। जैसा कि उनके निम्न पाहडोकी-बिना किसी टिप्पणके स्वयं ही की। और दोहेसे स्पष्ट है: अन्तमें अपनी लघुता व्यक्त करने हए विद्वानोंमेंशाधनकी संवत्मर विक्रमतणू, शिखि रम-गज शशि अंक प्रेरणा की है। आपने यह टीका वि. म. १८६७ भादों चैत शुक्ल तिथि पंचमी, पूरगा पाठ निशंक ॥३७॥ मुदि १३ को बना कर समाप्त की है यथादूसरी टीका प्रमेयरत्नमालाकी है जो प्राचार्य माणियय संवत्सर दश आठ सत सतठि विक्रम राय । नन्दिक 'परीक्षामुख' नामक ग्रन्थकी टीका है और जिसके मास भाद्रपद शुक्ल तिथि तेरसि पूरन थाय ।। १५ ।। कर्ता लघु अनन्तर्य है, जिसे उन्होंने बदरीपाल वंशके सूर्य आठवीं टीका 'ज्ञानार्णव' ग्रन्थकी है जिम्मक कर्ता बैंजेय और नाणाम्बा पुत्र हीरपके अनुरोधसे बनाई थी। प्राचार्य शुभचन्द्र हैं। यह योगका बड़ा ही सुन्दर एवं यह टीका भी न्यायशास्त्रके प्रथम अभ्यासियोंके लिये सरस ग्रन्थ है। इस ग्रन्थकी घचनिका सं०१८६६ में उपयोगी है। इस टीकाको उन्होंने वि० सं० १९६३ में बनाई गई है। नौमी टीका भक्तामरस्तोत्रकी है जिसे उन्होंने सं० आषाढ सुदि चतुर्थी वुधवारको बना कर समाप्त किया है । । १८७० में पूर्ण किया है। ___ तीसरी टीका 'द्रव्यसंग्रहकी है, जिसके कर्ता नेमिचन्द्रा- -- चार्य हैं इस ग्रन्थमें छह द्रव्योंका सुन्दर कथन दिया हुश्रा १-संवत्सर विक्रमतणू, अठदश शतपय माठ । है। इस ग्रन्थ को टोका भी उन्होंने वि० सं० १८६३ श्रावणवदि चौदसि दिवस, पूरण भयो सुपाठ ॥५॥ २-संवत्सर विकमतणू, अष्टादश शत जानि। * अष्टादशशत साठि त्रय, विक्रम संवत माहिं। ब्रेसठि सावण तीजवदि, पूरण भयो सुमानि ॥ १२॥ सुकल असाढ सुचौथि बुध, पूरण करी सुचाहि । -स्वामि कार्तिकेयानुप्रेक्षा Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ] असंज्ञो जीवोंकी परम्परा १७५ इनके सिवाय, सामायिक पाठ (संस्कृत प्राकृत) यह ग्रंथ उसे सूचीमें अपूर्ण बतलाया है। भी अनतकीर्ति ग्रंथमाला बम्बईसे मुद्रित हो चुका है। शेष इन सब टीका ग्रन्थोंसे पंडित जयचन्दजीको साहित्यनिम्न ग्रन्थ अभी अप्रकाशित ही हैं। पत्र-परीक्षा, चन्द्रप्रभ- संवाका अनुमान लगाया जा सकता है। और उससे समाजचरित्रके द्वितीय न्यायविषयकसर्गकी टीका बनाई हैं। को क्या कुछ लाभ मिला या मिल रहा है यह बात उन पं० जयचन्द्र जीके पदोंकी पुस्तकका भी उल्लेख मिलता है। ग्रन्थोंकी स्वाध्याय करने वाले सज्जनोंसे छिपी हुई तथा उसका रचनाकाल सूचीमें १८७४ दिया हुआ है। पर नहीं है। नोट:-इस लेखमें पृष्ठ १७० के प्रथम कालममें पुत्र नन्दलालकी जगह ज्ञानचन्द छप गया है कृपया उसे सुधार कर पढ़ें असंज्ञी जीवोंकी परम्परा (डा० होगलाल जैन एम० ए०) (गत किरण ४-५-से आगे) विशेषावश्यक भाप्य (जिनभद्रगणि कृत ७वीं शताब्दि) परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, श्रोध और लोक ) कही में एकेन्द्रियादि जीवोंके अल्प मनका सद्भाव सुस्पष्ट ही गई है। किन्तु संज्ञी जीवोंमें इस थोड़ी सी विशेषता रहित स्वीकार किया गया है व द्वीन्द्रियादि जीवोंगे उसका तर- संज्ञाकी प्रधानता नहीं दी गई, क्योंकि जिसके पास एक तमभाव कहा गया है। इसके लिये निम्न गाथाएँ ध्यान देने पैसा रूप धन हो उले धनवान नहीं कहते और न मूतं शरीर योग्य हैं होने मानस किसीको रूपगन् कहते। जिसके पास खूब जइ सरणासंबंधेण सरिणणो तेण सरिणणो सव्वे द्रव्य हो उसे ही धनवान कहा जाता है और रूपवान् भी एगिदियाइयाणवि जे सएगा दसबिहा भणिया ॥५८८।। वही कहलाता है जिसका रूप प्रशंसनीय होता है। इसी थोवा न सोहणाऽविय जे सा तो नाहिकीरए इहहं। प्रकार जिम जीवक महती और 'शोभना' अर्थात् सुविकसित करिसावणे धणवं न रूवयं मुत्तिमेत्तेणं ।। ५०६ ।। और विशंपनायुक्र संज्ञा होती है वही जीव ज्ञान संज्ञाकी जइ बहुदब्बो धणवं पसंथरूबो य रूबवं होड। अपेक्षा संशी माना गया है। जैसे-जिमकी प्रांखें खूब महईए सोहणाए य तह सरणी नाणसरणाए ॥५१॥ साफ न हों और प्रकाश भी कुछ मन्द हो तो उसे अविसद्धचक्खुणो जह णाइपयासम्मि रूवबिण्णाणं रूपका अर्थात् वस्तुकं रंग आदिका साफ-साप. शान नहीं हो असणिणो तहऽत्थे थोवभणोदव्वलद्धिमओ ॥१४॥ सकता, उसी प्रकार जिसको थोड़ीसी ही मनाद्रव्यलब्धि जह मुच्छियाइयाणं अव्वतं सविसयविएगाणं प्राप्त है ऐसे असंज्ञी जीवको वस्तुका अस्पष्ट बोध होता है। एगिदियाण एवं सुद्धयरं बे इंदियाईणं ॥ ५१५॥ तथा जिम प्रकार मुक्ति अर्थात् बेहोश हुए संज्ञी जीवोके तुल्ले छेयगभावे जं सामत्थं तु चक्करयणस्स । सब विषयोंका विशेष ज्ञान अव्यक्त होता है, उसी प्रकार तु जहक्कमहीणं न होइ सरपत्तमाईणं ॥ ५१६॥ एकन्द्रिय जीवोंके जानना चाहिये। उनसे कुछ शुद्धवर ज्ञान इय मणोविसईणं जा पडुया होई उम्गहाईसु। द्वीन्द्रिय जीवोंके पाया जाता है और इसी क्रमस वह ऊपरके तल्ले चेयणभावे अस्सएगीणं न सा होइ ॥५१७॥ जीवोंके बढ़ता हुआ पाया जाता है।' जे पूण संचितेउं इट्ठाणिट्ठसु विसयवत्थूसु। इन गाथाओंमें आगम, युक्ति और दृष्टान्तों द्वारा न वहति णियट्रति य सदेहपरिपालणाहेउं ।। ५१८ ॥ वल एकेन्द्रिय जीवोंमें भी अल्पसज्ञाका सद्भाव स्वीकार 'अर्थात् यदि संज्ञाका सम्बन्ध होनेसे ही जीव संज्ञी किया गया है, किन्तु स्पष्ट रूपसे उनके "थोक्मणोकहे जावें तो समस्त जीव संज्ञो होंगे, क्योंकि, एकेन्द्रियादिक दव्यलद्धी" अर्थात् थोड़े द्वन्य मनका अस्तित्व भी माना जीवोंके भी दश प्रकारकी संज्ञा (पाहार, भय, मैथुन, गया है। Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भव्य मार्गोपदेश उपासकाध्ययन (तुल्लक सिद्धिसागर) मौजमाबाद (जयपुर) के शास्त्र भण्डारमें कवि जिनदेव प्रन्थ कर्ताने उन यशोधर कविके सान्निध्यसे सिद्वाम्ब, द्वारा रचित 'मार्गोपदेश उपासकाध्ययन' नामका एक संस्कृत आगम, पुराण चरित प्रादि अन्योंका अध्ययन किया । प्रन्थ अपूर्णरूपसे उपलब्ध है, क्योंकि उसका ११वां और अपने ज्ञानकी वृद्धि की थी इससे स्पष्ट है कि जिनदेवके विद्या १५वां पत्र उपलब्ध नहीं है और प्रति अत्यन्न जीर्णदशामें गुरु यशोधर कवि थे । और कवि अपने बनाये हुए ग्रंथको है। १४ पत्र तक ही प्राप्त हैं । इस ग्रन्थमें ७ परिच्छेद या मुनियों और भव्योंके द्वारा शोधनीय बतलाया है। जैसा कि अध्याय उपलब्ध हैं जिनके नाम इस प्रकार हैं:- उसके निम्न पद्यसे प्रकट है:____ व्यसन परित्याग, सप्ततत्त्वनिरूपण, दर्शनाचार, व्रत- एतानि अन्यानि मया श्रुतानि यशोधरश्रे-िठमुदाहृतानि । निर्देश, सामायिक व ध्यानपद्वति विचार, एकादशपतिमा तद्बोधबुद्धनकृतमायं तं शोधनीयं मुनिभिश्चभव्यैः ।। वर्णन और ग्रंथकार व गुरु वंशपरिचयादि । इन परिच्छेदोंमें कविके गरु यशोधरका वंश परिचय अधिकारक्रमस विषयका कथन संक्षिप्नरूपमें दिया हुआ है। पाक्षानरूपम दिया हुआ है। यशोधरक वशका शांत-कुन्थ और अरहनाथ तीर्थकर चक्रग्रन्थका आदि मंगल पद्य इस प्रकार है वर्ती राजाचोंके वंशके साथ कुछ सम्बन्ध रहा है । उस वंशमें 'नत्वा वीरं त्रिभुवनगुरु देवराजाधिवंद्यं, वद्धमान नामका एक राजा हुया जिसने अपनानित एवं दुखी काराति जगति सकलां मूलसंघ दयालु । होकर अपने देश ग्राम और राज्यादिका परित्यागकर और ज्ञानः कृत्वा निखिलजगतां तत्त्वमादीपु वेत्ता, कुटुम्बियों, मित्रों, सेनापतियों और मंत्रिगणोंसे क्षमा मांगी, धर्माधर्म कथयति इह भारते तीर्थराजः ॥ और उन सबको उसने भी क्षमा किया। और कहा कि मैं ग्रन्थके छटवें अध्याय या परिच्छेदका अन्तिम पुप्पिका- जंगल में जिन दीक्षा लेने जा रहा हूँ। वाक्य निम्न प्रकार है : यह सब ममाचार जानकर कुछ लोगोंने कहा कि श्रापने हारक श्रा जिन- योग्य बिचार नहीं किया है। क्योंकि भिक्षा वृत्तिसे मान चन्द्रनामादिने जिनदेव विरचिते धर्मशास्त्र एकादश प्रतिमा और पाखामी व्रतोंका अनुष्टान । विधानकथनं नाम षष्ठमः परिच्छेदः ॥ सकता और उसके फलसे म्फर्मा इककी प्राप्ति भी की का इस ग्रन्थके कर्ना कवि जिनदेव हैं, जो नागदेवके सकती है। पुत्र थे । और जो दक्षिणापथके 'पल्ल' नामक देशमें अनन्त बद्धमान अपने वंशकी वृद्धिके लिये, सौराष्ट्र स्थित भामर्दकपुरक निवासी थे । वह गर बहुन देशकभी नगरीमें पहुंचे, और वहां वणिक् वृत्तिसं तथा ऊँचे-ऊंचे ध्वज प्रासादों और उङ्ग जि मन्दिरोसे चक्रेश्वरी देवींक वर प्रसाद विपुलधन उपार्जन किया और मुशोभित था, और गम्भीर चंचल लहरों वाले विशाल जिन मंदिर बनवाया. और उसमें शांतिनाथकी मूर्ति स्थापित तालाबोंसे अलंकृत था । उस नगरका राजा बल्लाल की। परंत वहाँक राजा पृथ्वीराजने कहा कि मंदिरादिके निर्माणनामका था। कवि जिनदेवने उसारके देहभागीले विरक्त का तम्हारा यह यश ध्रव नहीं हो सकता-वह पुगर को नहीं होकर सजनोंके लिये इस ग्रंथकी रचना की है। कविने यह * लीलया यशाधेन व्याख्यानं कथितं जन । प्रय यशोधर श्रेप्टीके प्रसादसे बनाया है। तेन बोधेन बुद्धवानां कवित्वं च प्रजायते ॥ २७४ ॥ x भरतक्षेत्र मध्यस्थं, देशं तु दक्षिणापथं । तस्य प्रसादन महापुराणं रामायणं भारत-वीर काव्यं । विषयं विधं पल्लाख्यं श्रामर्दकपुर ततः ॥१२॥ सुदर्शनं सुन्दर काव्य युक्त, यशोधरं नागकुमार काव्यं । चरित्रं वसुपालस्य चन्द्रप्रभु जिनस्य च । उत्तु'गैर्बहुभिश्चैव प्रासादैर्धवलगृहः । चक्रिणः शान्तिनाथस्य वद्ध मानप्रभस्य च ॥ २६ ॥ शोभितं हमार्गेपु बल्लालनृपरच्यतां ॥१॥ चरित्रं च परांगस्य श्रागमं ज्ञानमर्णवम् । तत्र वाम्मदके रम्ये जिनदेवो वणिग्वरः । श्रात्मानुशामनं नाम समाधिशतकं तथा ॥ २७७ ॥ बर्द्धमानवरे गोत्र नागदेवांगसंभवः ॥१२॥ पाहुडत्रय विख्यातं संग्रह द्रव्य-भावयोः । Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण] भव्य मार्गोपदेश उपासकाध्ययन [१७७ दे सकता, और तुम उसे छोड़कर बनमें चले जाओगे । इसके धारा नगर्या वर राजवंशे वीरालयालंकृत वीरभद्र। पश्चात् वर्द्धमानने क्रुद्ध होकर कहा कि राजा लोग धनश्री ज्ञात्वा-गजेन्द्रारव्यपुराधिपोऽयं सपृजितो मानधनैश्चरत्न।। के मदमें चूर रहते हैं। परन्तु में इस तरहका अहंकारी नहीं निजनामांकितं तत्र पुरागोत्रज्ञयान्वितम । हूँ। और उस शहरमें अपना रहना अयोग्य समझकर अपने कृतं तं वर्ततेऽद्यापि बर्द्धमान पुरं महत् ।। २१२॥ बन्धुओंके लिये स्वतन्त्र नगर बसानेका निश्चय किया । और तस्मिन् वंशे महाशुद्धे दुर्गसिंहनरोत्तमः वह कुद्ध होकर वहां से अपने पूर्वजोंके साथ निकल पड़ा। उग्रादित्योहितज्जातस्तत सुनो देवपालकः ॥२६॥ और मालव दशमें स्थित धारानगरीमें पहुँचा। वहांके राजा देवपालसुतो जातः स्थानपेः श्रेष्ठिरुच्यते । गजेन्द्रसिंहने उनका सन्मान किया और वहां उसने अपने तत् प्रसूता त्रयो पुत्रा धनशो पोमणस्तथा ॥ २६४ ।। नामसे 'बर्द्धमान' नामका एक नगर बमाया । उसी वंशमें दुर्ग- लाखण श्रेष्ठि विख्यातो इन्द्रो शीलंयुतान्वित । सिंह, उग्रादित्य, देवपाल, जो वहांक प्रसिद्ध धेठी कहलाते नन सुनोहि महाप्राज्ञः यशोधर'........॥५॥ थे। देवपालक तान पुत्र थे, धनश पोमण और लाग्वण । उत यशोधर श्रेष्ठी बड़ा भारी विद्वान , राजमान्य वक्रा इनमें लाखण श्रेष्ठी इन्द्रक समान वैभवशाली था । और कवि और वैद्यनाथ था-वद्द जैनागमका तत्ववेत्ता और उसका पुत्र यशोधर उक्त कवि हुया है ! जैसा कि ग्रन्थ गत शास्त्रदान अभयदानका दनेवाला था। उसने सप्ततत्त्व निरूउनके निम्न पद्योंसे प्रकट है : पण' नामका एक ग्रन्थ भी बनाया था, जो अभी तक अनुपतद्वंशजातो वरवर्द्धमान, सनिजितो बन्धुजनैरुदारः लब्ध है । और जिसकी खोज होनेकी जरूरत है । जैसाकि तेन स्वयं लज्जितमानसेन, त्यक्त स्वराज्यं पुरदेशयुक्त ग्रन्थके निम्न पद्योंसे प्रकट है :म्वगोत्र-मत्रवभिः शनैश्च.द्विगुणश्वसेनापति,मंत्रिवर्गः भव्यः पितृव्यो वरभव्यबन्धुभव्येश्वरो भव्यगणापणीयः सर्वे क्षमंत क्षमयामि सर्व, अहं वने प्रबजिनो भवामि इंद्रत्वये इंद्रतरो विधिज्ञः पामर्दक श्रेष्ठ यशोधराख्यः।। तत्मर्वमाकर्ण्य तपाभव ये,स्वलजया स्नेहवशाच्चकचित् स एव वल्ला सच राजपूज्यः स एव वैद्यः सच वैद्यनाथः सर्व मिलित्वा भणितं अयोग्य,नत्यंचभिक्षाटनमानभंगात् स एव नागनतत्त्ववेत्ता, स एव शास्त्राभय दानदाता ।। त्वया सह प्रबजिता भवंति,म्वगोत्र मित्रा गुरु बन्धुवर्गा: यशोधरकवेः सत (शुद्ध) सप्ततत्वनिरूपणम् । तदा च देशे प्रसरेतिबार्ता,अशक्तभावाञ्च तपो वनस्थाः वसंततिलका प्रोक्त दृष्ट वा तं पि कृतं मया ॥ ग्रहस्थिनैलंबितमात्मतत्वैः, मम्यक्त्वशीलवतसंयुतैश्च ग्रन्थका चूकि अन्तिम १५वा पत्र उपलब्ध नहीं है। स्वोऽपि माशी भवति क्रमेण,निःसंशय पूर्वेजिनोतमेतत् संभव है उसमें उसका रचनाकाल भी दिया हुश्रा हो, परन्तु निज वंशोद्धरणार्थ च वणिग्वृत्तिश्च तैर्वना उसके अभावमें यह निश्चित रूपसे नहीं कहा जामकता कि शरावयं इति ज्ञात्वा प्राप्ता सौराष्ट्र मंडलम यह ग्रन्थ रमुक समयमें रचा गया है। सौराष्ट्र बलभीनगर्या वाणिज्यरूप कृतमादरेण प्रस्तुत ग्रन्थ कवि जिनदवने भट्टारक जिनचन्द्रक नामांचक्रेश्वरी देविवर-प्रसादात् मुमाधको मिद्धरसाऽपि सिद्ध किन किया है । जिससे ज्ञात होता है कि भट्टारक जिनचन्द्र द्रव्येणेव जिनेन्द्र-मन्दिरवरं स्थापितं सुन्दरम् । ऋविक दीक्षागुरु रहे हो। और उनके उरकारसं उपकृत होनक तं दृष्ट वा खरवैरि दर्पमथना पृथ्वाश्वरी जल्पते। लिये यह प्रथ उनके नामांकित किया गया हो । सं० १२२६ यत्पुण्यं वर शांति देव निलकाज्जातं तदेवाध्र वम । के विजोलियाके शिलालेखमें भहारक जिनचन्द्रका उल्लेख पुण्यं नैव ददाति यास्यसि वनं त्यक्त्वा च देश पुरम् ।। किया गया है। तं ज्ञात्वा वरवर्द्धमानवणिको, क्रुद्धोप्यं जल्पते । हां, ग्रन्थमें भामर्दकपुरके राजा बल्लालका नामोल्लग्य राजन-राजकुले धनश्रियमदे तिष्ठामि नोहं सदा। जरूर किया गया है। यदि प्रस्तुत राजा बल्लाल मालवाना कर्तव्यं निजनामसुन्दर पुरमाज्ञाश्वगोत्रान्वितम् । राजा है, जिसकी मृत्यु सन् ११११ वि० सं० १२०८ से उवासं सम मिश्रितेन भवने देशं मदीयं पुरम ||२८१ पूर्व हुई थी। तब यह ग्रन्थ १२वीं शताब्दीके अन्तिम समय इति क्रु द्धो तदाकाले नि सृतो पूर्वजेः सह । में और १३वीं शताब्दीके प्रारम्भमें रचा हुआ हो सकता है प्राप्तो मालवं देशं रसधामपुरान्वितम् ।। २६०॥ और यदि भामर्दकपुरके राजा बल्लाल कोई दूसरे ही हैं Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [ वर्षे १३ तब इस प्रथका रचनाकाल विचारणीय है। इसी तरहक अनेक ग्रन्थ अभी ग्रन्थ भण्डारमें पड़े हुए हैं, जिनके उद्धारार्थ समाजका कोई लक्ष्य नहीं है। उसे इंट चूना और पत्थर आदि अन्य कामोंमें रुपया लगानेसे अवकाश भी नहीं है, फिर वह ग्रन्थोद्धार जैसे महान कार्यमें कैसे खर्च करे। समाजकी लापरवाहीसे बहुतसा बहुमूल्य साहित्य विनष्ट हो चुका है। अतः समाजको चाहिए कि वह अपनी गादनिद्राका परित्याग करे और जिनवाणीके संरक्षण एव जैन-ग्रंथोंके उद्धारार्थ अपनी शक्नुसार धनका सदुपयोग करे। कुमुदचन्द्र भट्टारक (के. भुजबली शास्त्री) 'प्र.कान्न' वर्ष १३, किरण ४ (४-५ संयुक्त किरण) रकदेव कारकलके भट्टारक नहीं थे। क्योंकि कारकलमें उस से 'चन्देल युगका एक नवीन जैन प्रतिमालेग्व' शीर्षकसे समय भट्टारककी गद्दी ही स्थापित नहीं हुई थी। वहाँ पर प्रो० ज्योतिप्रसाद जैन. एम पु०, एल० एल० बी०, लखनऊ गद्दी मन् १७६२ में (हिग्य भैरवदेवके शासन कालमें) का एक लेख प्रकाशित हुश्रा है। इस लेख में आपने विन्ध्य स्थापित हुई। साथ ही साथ कारकल गद्दीका स्थायी नाम प्रदेशान्तर्गत अजयगढ़के अजयपाल सरोवरक पश्चिमी तट पर ललितकीनि है। दूसरी बात है कि उक्त शान्तिनाथ जिनालय बने हुए इंटोंके एक ध्वम घेरेके भीतर लखनऊ विश्वविद्या- प्राचार्य कुमुदचन्द्र के द्वारा निर्मित नहीं हुआ था। किन्तु लयक इतिहास प्राध्या क डा. आर० के० दीक्षितको लग- स्थानीय श्रावकोंके द्वारा । यह शान्तिनाथ देवालय जिमक भग तीन वर्ष पूर्व प्राप्त एक खण्डित तीर्थकरकी प्रतिमा शासनकालमें निर्मित हुआ था, वह लोकनायरस नहीं; भासन पर वि० सं० १३३९ ई. १२७४ के एक लेख पर परन्तु लोकनाथ अरम और इसका वंश साबार नहीं; किन्तु विचार किया है। प्रस्तुत लेखमें प्रो. साहबने लेखान्तर्गत सांतर था । यह सांतर वंश लगभग ७वीं शताब्दीसं ही प्रतिष्ठा कार्य से सम्बन्धित प्राचार्य धनकीर्ति और श्राचार्य हंबुजमें शासन करने लगा था। कुमुदचन्द्र इन दोमेंसे प्राचार्य कुमुदचन्द्रको ढूंद निकालन- एक निशिष्ट बात यह है कि कारकल में हिरियगडिक का प्रयग्न करते हुए पाँच कुमुद चन्द्रोंका संक्षिप्त परिचय हानेके भीतर बायीं ओर दक्षिण दिशामें आदिनाथ अनन्त. 'अनेकान्त' के पाठकोंक समक्ष जो रखा है उन पांचोमसे नाथ और धर्म-शान्ति-कुथु तीर्थकरोंके तीन मन्दिर हैं। पांचवें कुमुदचन्द्रक सम्बन्धमें आपका यह मत है। अन्तिम मन्दिरके बगल में बहुत छोटा एक और मन्दिर है। इसमें क्रमशः निम्नलिम्वित व्यकियोंकी मूर्तियां और उन ___'पांचवें कुमुदचन्द्र भट्टारकदेव सम्भवतया कारकलके मूर्तियों के नीच नाम दिये गये है। मूर्तियों इस प्रकार हैभट्टारक थे। वे मूलसंघ कानूग्गणके प्राचार्य थे और भानु (१) कुमुदचन्द्र भट्टारक (२ हेमचन्द्र भट्टारक (३) चारुकीर्ति मलधारीदेव के प्रधान शिष्य थे। इनके द्वारा निर्मित कीर्ति पण्डितदेव (४) श्रुतमुनि (५) धर्मभूषण भट्टारक शान्तिनाथ बमदि नामक जिनालयको कारकलके सान्न र (६) पूज्यपाद स्वामी । नीचेकी पनिमें क्रमशः (१) विमलनरेश लोकनायरसके राज्यकालमें सन् १३३४ ई० में राजा सूरि भट्टारक (२) श्रीकीति भट्टारक (३) मिहान्तदेव (४) की दो बहिनों द्वरा दान किये जानेका उल्लेख एक शिला चारुकीर्तिदेव (१) महाकीति (६) महेन्द्रकीर्ति । लेखमें मिलता है। इस प्रकार उपयुक इन व्यकियोंकी मूर्तियाँ छह-छह प्रो० साहबकी उपयुक पंक्रियों में जो त्रुटियां रह गई के हिसाबसे तीन-तीन युगलके रूपमें बारह मूर्तियाँ खुदी हैं उन त्रुटियोंको सहृदयभावसे बताना हो मेरी निम्नलिखित मिलती है। इन बारह मूर्तियोंमें प्रथम मूर्ति ही प्रो० साहबपंक्तियांका एकमात्र उद्देश है । आशा है कि मान्य प्रो० साहब के द्वारा 'अनेकान्त' में प्रतिपादित कुमुदचन्द्र भट्टारककी इससे असन्तुष्ट नहीं होंगे। मेरा अभिप्राय, कुमुदचन्द्र भट्टा- मालूम होती है। - : Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक अमेरिकन विद्वान्की खोज पृथ्वी गोल नहीं चपटी है SH कारण कन्दुका कटिबंधके निकलवार होती हैं। हम पृथ्वीकी गोलाईमे इतने अधिक परिचित हो गये हैं दक्षिणी ध्र वमें भी होती। "वास्तवमें उत्तरी ध्रवके इर्दगिर्द कि इतके विरुद्ध कही जाने वाली किसी भी बात पर हम २०० मीलके भीतर कई प्रकारकी वनस्पतियां पाई गई हैं। सहसा विश्वास नहीं कर सकते । इस कारण कन्दुकाकार ग्रीनलैंड, आइसलैंड, साइबेरिया आदि उत्तरी शीतपृथ्वीको चपटी कहकर एक अर्वाचीन सिद्धांतने सचमुच हमें कटिबंध के निकटस्थ प्रदेशमें भालू , जई, मटर, जौ, तथा आश्चर्य में डाल दिया है। हो सकता है, भविष्यमें किसी चनेकी फसल तैयार होती है। इसके विपरीत दक्षिणमें ७० दिन पृथ्वी 'रकाबी' श्राकारकी बताई जाने लगे। "श्री जे. अक्षांश पर पोरकेनी, शेटलैंण्ड मावि टापुत्रोंपर एक भी मेकडोनाल्ड नामक अमेरिकन वैज्ञानिक" ने अपने एक लेख- जीव नहीं पाया जाता। में अनेक दृढ प्रमाण देकर यह सिद्ध करनेका प्रयत्न किया है यदि पृथ्वी गोल होतो तो उत्तम जिस अक्षांश पर कि पृथ्वी नारंगीके समान गोल नहीं है। जितने समय तक उषःकाल रहता है। उतने ही अक्षांश पर ___उसने कहा है कि यदि पृथ्वीको अन्य ग्रहोंकी भांति एक दक्षिण में भी उतनी ही देर उषःकाल रहता । किन्तु वास्तवग्रह माना जाय, तो निश्चय ही जो सिद्धान्त दूसरे नक्षत्रों में ऐसा नहीं है। उत्तरमें ४० अक्षांस पर ६० मिनट तक एवं ग्रहोंके अध्ययन स्वीकृत किये गये है; वे हमारी उषःकाल रहता है और सालके उसी समय भूमध्य रेखा पर पृथ्वी पर भी लागू होंगे। ऐसी दशामें जिन आधारों पर केवल १५ मिनट और दक्षिणमें ४० अक्षांश पर तो केवल इस मिन्द्वान्तको स्थापना की गई है, वे सब अकाट्य और ही मिनट । मेलबोर्न, ऑस्ट्रेलिया आदि प्रदेश दक्षिणमें अप्रत्यक्ष हैं । इसमें सन्देह नहीं कि यह खोज निकट भविष्य उसी अक्षांशपर हैं, जिनपर उत्तरमें फिलाडेल्फिया है। में समस्त वैज्ञानिक जगतमें उथल-पुथल मचा देगी। पाठकों- यहांके एक पादरी फादर जोन्सटनने इन दक्षिण के मनोरंजनार्थ कुछ चुने हुए प्रमाण नीचे दिये जाते हैं- अक्षांशोंकी यात्राक सिलसिले में लिखा है कि-"यहाँ उषः प्रत्येक आधुनिक वैज्ञानिक इस बानको स्वीकार करता काल और सन्ध्याकाल केवल ५ या ६ मिनट के लिये होते है कि चन्द्रमा और अन्य ग्रहोंका एक ही मुख सदैव पृथ्वी- हैं। जब सूर्य क्षिनिजके उपर ही रहता है, तभी हम रातका की ओर रहता है । यदि ये ग्रह कंदुकाकार होते और अपनी सारा प्रबन्ध कर लेते हैं। क्योंकि जैसेहो सूर्य डूबता है, धुरीपर घूमने तो निश्चय ही प्रत्येक दिवस अथवा प्रत्येक तुरन्त रात हो जाती है। इस कथनसे सिद्ध है कि यदि माम या प्रत्येक साल में उनके भिन्न-भिन्न धरातल पृथ्वीकी पृथ्वी गोल होती तो भूमध्य रेखाके उत्तरी-दक्षिणी भागोंमें ओर होते । इमस सिद्ध है कि चन्द्रमा और अन्य ग्रह उपःकाल अवश्य समान होता। रकाबीकी भांति है, जिनके किनारे केन्द्रकी अपेक्षा कुछ ऊंच केप्टन जे० राप सन् १९३८ ई. में कैप्टन क्रोशियरके उठे हैं। यदि सचमुच पृथ्वो भी एक ग्रह है नो अवश्य ही साथ यात्रा करते हुए जितनी अधिक दक्षिणकी ओर अटलांउसका श्राकार इस रकाबीक समान है। टिक (गटार्शर्टिक) सरकिल तक जा सके, ये । उनके वर्णनसे यदि पृथ्वी गोल होती तो सनातन हिमश्रेणियोंकी ज्ञात होता है कि उन्होंने वहां पहाड़ोंकी ऊँचाई १०,... ऊँचाई भूमध्य रेखासं दक्षिण में उतनी ही होती जितनी कि से लेकर १३,००० तक नापी और ४५० फुटसे लेकर उत्तर में । दक्षिणी अमेरीकामें सनातन हिमश्रेणियोंकी ऊँचाई १००० फुट क ऊँची एक पक्की बर्फीली दीवार खंज १६००० फुट है और जैसे हम उत्तरको ओर बढ़ते जाते हैं, निकालो। यह ऊंचाई क्रमशः कम होती जाती है। यहां तक कि थला- इस दीवारका ऊपरी भाग चोरम था और उस पर स्का पहुंचने पर यह केवल २००० फुट ही रह जाती है। किसी प्रकारको दरार या गड्ढा न था । यहाँस पृथ्वीके चारों अधिक उत्तरकी ओर जाने पर यह ऊँचाई समुद्र तलसे ओर चक्कर लगानेमें चार वर्षका समय लगा। और ४०,... केवल ४०० फुट नापी गई है। पृथ्वी गोल होती तो उत्तरी मोलकी यात्रा हुई । किन्तु दीवारका कहीं अन्त न हुआ । यदि ध्र के समीप जैसी बनस्पतियां उत्पन्न होती है, वैसे ही पृथ्वी गोल होती, तो इसी सांश पर पृथ्वीकी परिधि केवल Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० अनेकान्त [ वर्ष १३ १०,८०० मील होती, अर्थात् ४०,००० मीलके बजाय केवल कह सकते हैं कि उन्होंने वहां ३०० पौंडसे ४०० पौड तक१०,८०० मीलकी यात्रा पर्याप्त होती। का भार सरलतासे उठाया है। यदि पृथ्वी गोल होती तो यदि उपयुक्त सिद्धांत ठीक है तो भूमध्यरेखा निश्चय दक्षिणी ध्रुव भी उत्तरी ध्रवके समान ही प्रबल होता। ही भू की मध्यरेखा ही है। क्योंकि भूमध्यरेखा दक्षिणमें समुद्रादिमें लोहचुम्बक पहाद ऐसे हैं कि होकायंत्रकी समस्त देशांतर रेखायें उत्तरी भागके समान सँकरी न होकर चुम्बक सूईके भरोसमें हम भ्रममें रहकर पृथ्वी गोल होनेका चौड़ाई में बढ़ती ही जाती हैं। यहां कोई काल्पनिक आधार भ्रम और इतनी करीब ८०.. मील होनेका मान लिया नहीं, किन्तु अवलोकनीय सत्य है । कर्करखा ( २३॥ अंश है। हमारी पृथ्वीको बहुत बड़ा चुम्बक माना गया है और उत्तर, का एक अंश ४० मोलके लगभग है, किन्तु इसके इसीको चुम्बक शकिसे प्रभावित होकर चुम्बक सूई उत्तर विपरीत मकर रेखा २३॥ अंश दक्षिण) पर वही अंश ७५ ध्रुवके आकृष्ट होती है। मोलके लगभग होता है। यही नहीं, दक्षिगकी एटलांटिक ऐसी दशामें यदि पृथ्वी गोल हो तो भूमध्य रेखाके सरकिल पर तो यह आप बढ़कर १०३ मील हो जाता है। दक्षिणमें जाने पर चुम्बककी सूईको दक्षिणी ध्रुवकी ओर उत्तरी ध्रुवका समुद्र १०,००० से लेकर १३००० फुट घूम जाना चाहिये, पर ऐसा नहीं होता। इससे सिद्ध होता तक गहरा है, किन्तु पृथ्वी तल कहीं भी ५०० फुटसे उँचा है कि पृथ्वी अवश्य चपटी है, क्योंकि चुम्बककी सूई कहीं नहीं है। यदि केप्टन रामके वर्णनसे इसकी तुलना की जाय भी रहे, मध्य मार्गका निर्देश करती रहती है। साथ ही साथ तो ज्ञात होगा कि दचिणी ध्रुवके पहाड़ १०,००० से यह भी कह देना उचित होगा कि पृथ्वीके गोलेकी सबसे १६,.०० फुट तक उँचे हैं और समुद्रकी गहराई ४२३ बड़ी परिधि भूमध्यरेखाके नीचे है और सबसे छोटी उत्तरी फुट है। इस प्रमाणसे सिद्ध होता है कि पृथ्वी मध्यकी ध्रव पर। अपेक्षा उसका किनारा अधिक उन्नत है, पृथ्वीकी तुलना यदि पृथ्वीको गोल माने और उसकी परिधि २४,००० रकाबीसे की जाती है। मील माने तो २४ घंटेक हिमाबसे उसे अपनी धूरी पर एक इन्हीं सब बातों पर विचार करनेसे भूगर्भशास्त्रियोंने घंटेमें १००० मोल घूम जाना चाहिये, किंतु यह तीव्र गति नाशपाती (पीयर) से पृथ्वीकी उपमा दी है। क्योंकि उन्होंने इतनी प्रबल है कि धरातलकी प्रत्येक वस्तु चिथड़े होकर जान लिया है कि यह उत्तरी ध्रुव पर चिपटी है और दक्षिण छितरा जायगी।। ध्र वकी ओर खिंची हुई है । वे लोग स्पष्टतः क्यों नहीं यदि यह कहा जाय कि पृथ्वीको आकर्षण शक्रि ऐसा कहते कि पृथ्वीका प्राकार रकाबीके समान है। नहीं करने देती तो न्यूयार्कसे शिकागो तक (लगभग १००० पृथ्वीके चपटेपनका एक और प्रमाण सूर्यग्रहण है। मील) कोई भी मनुष्य बलूनमें घण्टेभर भी यात्रा कर उदाहरणार्थ ३० अगस्त सन् १९०५ ई. का ही ग्रहण सकता है। इसी प्रकार दो-तीन घंटेमें शिकागांसे लीजिये । यह पश्चिमी और उत्तरी अफ्रीका, उत्तरी अन्ध- सान्फ्रांसिसको तक यात्रा कर सकता है जो नितांत असमहासागर, ग्रीनलेण्ड, प्राइमलेगड, उत्तरी एशिया (साइ- म्भव है। बेरिया) और ब्रिटिश अमेरिकाके पूर्ण भागोंमें स्पष्ट दिखाई पृथ्वी घूमती हो तो पृथ्वीमेंसे अमुक स्थानसे सीधी पड़ा था। यदि पृथ्वी गोल होती तो अमेरिका और एशिया- ऊर्य एक मील तक बन्दुक द्वारा गोली छोड़ी। गोली एक में कभी एक साथ यह ग्रहण दिम्बाई न पड़ता। पृथ्वीका मिनट बाद नीचे पड़े, तो पृथ्वीको गति ८ मील चली गई गोला लेकर इस सरल समस्या पर स्वयं ही विचार किया माना है। तो गोली उसी स्थान पर क्यों गिरती है ? जाता है या जाना जा सकता है । और देखिये- अब उदाहरणके लिये 'ऐरिक' नामक नहरको ही लीजिथे। प्रयोगोंसे सिद्ध है कि ज्यों-ज्यों हम उत्तरी ध्रुबकी यह नहर लौकपोप्टसे रोचेटर तक ६० मील लम्बी है। ओर बढ़ते त्यों-त्यों पृथ्वीको आकर्षण शक्रि भी उत्तरोत्तर 'पृथ्वी गोल है। इस सिद्धान्तके अनुसार इस नहरके उभारकी बढ़ती प्रतीत होती है । उत्तरी ध्रुवके अन्वेषकोंका यह गोलाई, ६१० फुट होनी चाहिये । सिरोंकी अपेक्षा मध्यका कहना है कि ये वहाँ कठिनतासे १०० पौडका भार उठा उठाव २५६ फुट होना चाहिये। किन्तु स्टेट इंजीनियरकी सकते थे, किन्तु दक्षिणी ध्र वके अन्वेषक इसके विपरीत यह रिपोर्ट अनुकूल या अनुसार यह ऊँचाई ३ फुटसे भी कम है। Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ] पृथ्वी गोल नहीं चपटी है [१५१ स्वेजकी नहर लीजिये दोनों ओर समुद्र है, लेवल समान होती है। इसके विपरीत उत्तरके मार्कटिक प्रदेश में ऐसा क्यों ? यदि पृथ्वी गोल है तो उसकी स्वाभाविक गोलाईमें नहीं है। किनारोंकी अपेक्षा बीचका भाग १६६६ फुट ऊँचा होना केप्टन हाल नामक अन्वेषकका कहना है कि वहां बंदूकचाहिये । इसे दृप्टिमें रखकर यदि 'लाल सागर' से भूमध्य- की आवाज २० फुटकी दूरी पर मुश्किलसे सुनी जा सकती सागरकी तुलना करें तो भूमध्यसागर लालसागरसे केवल है। केप्टन मिल एक स्थान पर अपनी यात्राके प्रसंगमें ६ इंच ऊँचा होगा। लिखते हैं कि अटार्कटिक प्रदेशमें ४० मील अधिकसे साधारण पाठशालाओंमें पृथ्वीके गोल होनेका सबसे लोकप्रिय मनुप्यकी दृष्टि नहीं पहुँच सकती। उत्तरी ध्रुवके अन्वेषक उदाहरण समुद्रमं दूर जाते हुए जहाजसे दिया जाता है। इसके विपरीत कहते हैं कि वे १५० से २०० मील तक इस उदाहरणमें जहाज क्षितिजके पार छिपने जानेसे और मार्कटिक प्रदेशोंमें सरलतासे देख सकते थे। कवल मस्तूलके ऊपरका भाग दिखाई देनेसे पृथ्वीको गोलाई एक अमेरिकन साप्ताहिक पत्र 'हारपर्स वीकली' के प्रमाणित की जाती है, किन्त यह सचमच मिश्राम २. वीं अक्टूबर सन् १८६४ ई. के अङ्कमें सरकारी विषयके अपनी अखि गोल होनेसे दूरको वस्तु नुछ विपरीत हो अन्वेषणोंके विषयमें लिखा है कि उत्तरमें 'कोलोरेटो इलेदिखती हैं। क्शेन' से माऊँट उनकगी (१४४१८ फुट) से 'माउन्ट दृष्टभ्रमके कई उदाहरण हैं जिसे 'पपेक्टिव' कहते हैं। एलेन' (१४४१० फुट) तक अर्थात् १८३, मीलकी दूरी रेलकी पटरियों श्रागे भागे मिली हुई देखकर क्या कोई पर वे लोग हेलयोग्राफ (पालिश चढ़ाये शीशे) की सहायताअनुमान कर सकता है कि वे क्षितिजा पार जाकर मुड गई से समाचार भेजनेमें सफल हुए। हैं । वास्तव में यह बिन्दु जो दोनों परियोंको जोडता है, यदि पृथ्वी गोल होती तो उपयुक्त प्रयोग मिथ्या होता। इतना सृचम होता है कि हमारी साधारण दृष्टि उसके पार क्योंकि १८३ मीलकी दुरीमें मध्य भागसे पृथ्वीकी ऊँचाई नहीं पहुँच सकती। (गोलाईके कारण ) २२३०६ फुट हो जाती, जो सर्वथा असम्भव है । यदि पृथ्वी गोल होती तो इंगलिश चैनलके इस कारण यदि शक्तिशाली दूरवीरण यन्त्रसे दबा बीचमें खडे हए जहाजकी छत परसे फ्रांसीसी तटके और जाय तो निश्चय ही पूरा जहाज दिग्बाई देगा | क्या पानीकी ब्रिटिश तटके प्रकाशस्तम्भ ( लाइट हाउस) दोना हो स्पष्ट सतह गोल होने पर ऐमा दृष्टिगत होना ? यदि थी गोल दिखाई न देते । इसी प्रकार बैलूनमें बैठे हुए मनुष्यको होती तो भूमध्यरेग्याके नीचक भागोंम ५ बनाग कदापि पृथ्वी उन्नतोदर दिखाई पड़ती, किन्तु इसके विपरीत वह दिम्बाई न देता परन्तु दक्षिणमें ३० अक्षांशतक धनाग पृथ्वीको रकाबीकी भांति समान देखता है। मरलतापूर्वक देग्या गया है। यदि पृथ्वी गोल होनी तो सच पूछिये तो अब तक जितने मानचित्र बनाये गये हैं श्रार्कटिक और एटलांटिक सर्कलमें सामान परी नीन की कोई दोष अवश्य है और उनकी प्रणालियां महीनेको रान और तीन महीनेका दिन होता । किन्तु भी अपूर्ण हैं। वॉशिगटनक 'यूरो पाव नविगेशन' द्वारा प्रकाशिन 'नोटिकल- मर्केटर प्रोजेक्शन-यह काफमेन नामक जर्मन एलमैनक' नामक चांगके अनुसार दक्षिण ७० अक्षांश पर द्वारा प्राविकृत प्रणाली है। इसमें उत्तरी भाग अपने स्थित 'शेटलैंड' टापू पर सबसे बड़ा दिन १६ घगटे ५३ वास्तविक प्राकारसे बहुत बड़े हो जाते हैं। मिनट का होता है। उत्तरकी और ना में ७० अक्षांश पर (२) पोलबीड प्रणाली-यह प्रणाली मार्केटरसे 'हेमरफास्ट' नामक स्थानमें पूरे तीन महीनेका सबसे बड़ा बिलकल उलटी है। इसमें भिन्न-भिन्न भागोंका क्षेत्रफल तो दिन होता है। दिखाई पड़ता है किन्तु आकार बदल जाते हैं। यदि पृथ्वी गोल होती तो उत्तरी तथा दक्षिणी ध्र वोंमें (३) कोनीकल प्रोजेक्शन-इससे ध्रुबके निकटवर्ती व्यक्तिविषयक भिन्नता न होती। 'एटार्कटिक' प्रदेशमें ऊँचे प्राक्षांशोंका ठीक नकशा नहीं बन पाता और ध्रुवको पिस्तौलकी साधारण अावाज तोपकी आवाजकं ममान गूजती बिन्दु रूपमें नहीं दिखलाया जा सकता। लोनप्रणालोमें भी है और चट्टान टूटनेकी आवाज तो प्रलयनादसे भी भयंकर यह दोष है कि ध्र के समीप पृथ्वीके भाग परस्पर निकट Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ अनेकान्त वि५५७ हो जाते हैं और भूमध्य रेखा पर बहुत दूर। भी प्रोजेक्शन प्रसिद्ध है किन्तु वे सब भी दोषपूर्ण है। (४) प्रार्थोग्राफिक प्रोजेक्शन-इसमें कक्शेके बीचका किमी क्षेत्रफल, किसी में आकार और किसीमें स्थिति ही भाग तो ठीक बनता है, किन्तु किनारके भाग घने हो जाते गलत है। ऐसी दशामें पृथ्वी नारंगीके समान गोल है यह हैं। ऊपर नीचेके भागों में भी त्रुटि रहती है। कहना कहाँ तक युक्रमंगत है ? जो कुछ भी हो 'श्री जे. (५) स्टोरियोग्राफिक प्रोजेक्शन-इसमें किनारोंका मेकड नाल्डकी वह नयी खोज ( जो जैनधर्मानुसार है क्षेत्रफल असली क्षेत्रफलसे बहुत बढ़ जाता है। शीघ्र ही वैज्ञानिक जगतमें उथल पुथल पैदा करेगी। इनके अतिरिक्र पोलीकोनिक और सेन्सन प्लेमन्टीडके -'जीवन' से। पार्श्व जिन-जयमाल (निन्दा-स्तुति) (स्व०६० ऋषभदाम चिलकानबी) यह जयमाल उसी 'पंचवालयति पूजा पाठ' के अन्तर्गत पार्श्वनाथ पूजाकी जयमाल है जिसका एक 'पूजा विपयक शंका समाधान अंश पिछला किरणमें प्रकाशित किया जा चुका है। यह अंश प्राय. निन्दामें स्तुतिके अलंकारकी छटाको लिये हुए है और स्व०पं. ऋषभदाम जीक रचना कौशलका है। -जुगलकिशोर मुख्तार . दोहा मह-पापिन हूँ को मंगलदा, या अन्यायी भी हैं महा। मणि-दीपन हरि-सुर जज, पारस-नख झलकांहि। फुन अनौपम्प प्रभु हिंसक है, रिपुकर्म अनन्त विध्वंसक हैं नख प्रति जड़े मणि प्रचुर, इम निभूषण प्रभु नाहि ॥१ निर्बाध वचन जो है जिनको, ताने अति दुःख ह वादिनको । त्रोटक छन्द दुखदावच असत कहावत है. प्रभुमें इम सतहुन मावन है ॥ जय प्रभु गुणगणपति कह न सकें,हम अल्पवुन्द्रि बस भक्ति बकें। सुर-नर-पशु-चित हर हो चोरा, है नाम मनोहर ही तारा । जय प्रभु असमान सरागी हैं, सहु जन्तु दया चित जागी हैं। सब ज्ञेय त्रिकाल-त्रिलोक लखो, ब्रह्मचर्य हूं नात नाहि रग्वा फुन अद्वितीय जिन द्वेष धरै, निज अघनासे भविपाप हरें। कछु कहन-गम्य जिनगज नहीं, समवमृत श्रादि समाज सही अज्ञानी हैं इम जानपरी, तज छता अगम-सुख श्रास करी॥ बस येही कही भगवान बने, जिन परिग्रह हैं अत्यन्त पने ॥ इन्द्रीय दरससे होने हैं, सुख कहाँ परिश्रम कीने हैं। ऐसे पण पाप मुहावन है, चारित्रको हह कहावत है। नहिं भोगसके कोई वस्तु छती,कृतकृतको मिस नहिंसक्ति रती सुर-असुर-खगाधिप आदि जज, चक्री हरि-प्रतिहरि काम भजें फुन प्रभु अपूर्व ही क्रोध धरा, वय बालहि मन्मथ दूर करा। प्रभु मानी अति छदमस्थपने, निज अनुभवसिद्ध-समान बने । महा पुरुषनके इम दोष सबै, गुणगणतै दिव्य विशेष फबै । ज्यों कालिम निन्ध है स्वच्छनमें, पर अनि सोहै वह अक्षनमें मायावी हु प्रभु मुखिया हैं, बने बाह दुखी हिय सुखिया हैं। गज-व्याघ्र कपी तोहे वन्द तिरे, अब बार मेरी हम भक्त निरे लोभी तृष्णा अत्यन्त धरी, हूँ त्रिभुवनपति यह चाह करी ॥ संवरसे मदमत तारे हैं, हम हूँ बहु भ्रमते हारे हैं । अति तुष्ट कुदेवन निन्द रहे. सब हास्य-कषाय-विशेष गहे। रति सहजानन्दमें ठानी है, कर भरति हेच तिय मानी है। तो विरद निकृष्ट उधारन है, अब ढील करी को कारन है। अति भूक भ्रमणका शोककिया,विधि-बन्धनसों भयो भीतहिया निज पास मुझे अब ले लीजै, अविचल थल झटपट दे दी जिन मानव रोके संवरसे, अरु अनुपजुगुप्सा अम्बरसे ॥ मैं भक्त नमूं तुम चरणनको, नहीं पार मिलै गुण-वर्णन को कामी वल्लभ शिवनारि प्रती, यह अचरज है तोउ बाल-यती अब पार करो को खटका है, प्रभु दास ऋषभ बहु भटका है ।। ऐसे कपाय प्रति धारक हैं, तउ इन्द्र जजै दुख-हारक हैं। दोहाप्रभु विषयी त्रिभुवन-विषयनके, तोउ,स्वामि कहावें ऋषियनके सुनियत है प्रभु तुम कियो, राग द्वेषको नास । त्यागेस बहु ऐश्वर्य गयो, व्रत-भंगको दोष जिनेन्द्र बहो ताते तारो दाव मोहि, तोहि सम दुर्जन दास ॥२०॥ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पं० दीपचन्द जी शाह और उनकी रचनाए परिशिष्ट अनेकान्तकी गत किरया ४-५ में डित दीपदवी शाह नामका एक परिचय लेख प्रकाशित किया गया था । उसमें उनके जीवन-परिचयके साथ उनकी उपलब्ध रचनाओंका परिचय भी दिया गया था। उस समय तक मुझे उनका 'भावदीपिका' नामका कोई ग्रन्थ देखनेमें नहीं आया था, अन्यथा उसका परिचय भी दे दिया जाता; किन्तु ० मिलापचन्दजी मिलची बटारिया केकड़ी पत्र गत संकेतानुसार धर्मपुरा के नये मन्दिरजीसे भावदीपिका लाया और उसका परिचय परिशिष्टके रूपमें यहाँ दिया जा रहा है। यह प्रन्य उदामीनाश्रम इन्दौर से प्रकाशित भी हो चुका है। इस ग्रन्थका नाम 'भावदीपिका' है। इसमें स्वभावभाव, विभाव भाव, चीर सुभाषका विवेचन किया गया है। इसीसे इसका 'भावशेषिका' नाम सार्थक जान पड़ता हे मन्याने इमी अभिप्रायको स्वयं निम्न दोहे में व्यक्र । किया है। स्व-परभाव-विभावकों शुद्धभाव जुत सोय । करि प्रकाश परगट किया भावदोप यह सोय ।। इतना ही नहीं; किन्तु उन्होंने स्वयं इस प्रन्थकी महलाको निम्न पथमें व्यक्र किया है जिससे ग्रन्थकी महत्ता पर अच्छा प्रकाश पडता है । भावदीपको शरण ने ज्ञान खडग गहि धीर कर्म-शत्रुक्षय करें जे जोधा वर बीर ॥ इससे प्रकट है कि यह ग्रन्थ मिथ्यात्वरूप अज्ञान अन्धकारका विनाश कर शुद्ध आत्मीय भावके प्रकट करानेमें समर्थ है। ग्रन्थ जीव भावोंकी संख्या, प्रश कार्य फल और उनकी हेयोपादेयताका सुन्दर विवेचन किया गया हे जीवके प्रेपन भावमिंग कीन भाव हेम है और कौन I १५ भाव, दो उपशमभाव, क्षायिक सम्यक्त्व, ' और शायिकचारित्रये उनीस भाव उपादेय है— ग्रहण करने योग्य है। क्योंकि आत्मा अनादि कालसे कजन्य रूप विभाव भावोंकी प्रवृत्ति द्वारा अपनेको ससारका पात्र बनाता हुआ चतुर्गतिके दुःखभारसे अत्यन्त सन्तप्त रहा है । यह जीव कर्मफलचेतना, और कर्मचेतनाके संस्कारों द्वारा स्वकीय उपार्जित शुभाशुभकर्मक परिपाकका भोका रहा है. कर्म कर्मफलका उपभोग करता हुआ एकेन्द्रियादिको हीन पर्याय में अनन्तकाजक्रिय रहने हुए हेयोपादेयके विज्ञानसे शून्य रहा है क्योंकि उनमें अपनी शक्रिको विकसित करने और दुःखोंको दूर करने की सामर्थ्यका अभाव है, इसीसे वे उपदेश भी पात्र हैं। किन्तु कर्मचेतना धारक दो इन्द्रियोंको आदि लेकर पंचेन्द्रिय संज्ञी पर्यन्त जो जीव हैं वे सांसारिक सुम्बकि कारण गटाने और दुःखोंके दूर करनेके प्रयत्नकी क्षमताको प्राप्त है। परन्तु वे भी चाट- दाइकी भीषया ज्याठामें अपनेको भस्मसात किये हुए हैं, उनमें हेयोपादेयका विवेक करनेकी मात्र है, यदि वे कदाचित् अपनी र ध्यान दें तो भव-दुःखका कारण परात्मबुद्धिको छोड़करबहिरामादस्थाका परित्याग कर अपने अन्दर ज्ञानतनाको जागृत कर सकते हैं और अन्तरात्मा बनकर भव-दुःखके मेटने में समर्थ हो सकते हैं। ज्ञानचेतनाका जागरण होने पर आत्मा अपने स्वरूपको पिछान करनेका प्रयत्न करता है । और वह अपने ज्ञानचेतनाका पूर्ण विकास करनेमें समर्थ हो सकता है । पर विभाव-भावोंकी होली जलाये बिना स्वरूपमें स्थिरता पाना कठिन है। शानचेतनाका पूर्व विकास योगयोग होता है, और उसका पूर्व विकास करना ही इस जीवात्माका प्रधान लक्ष्य है। इन्हीं सब भाव उपादेय है, किन-किन भावेकि अवलम्बनसे यह जीवभावका इसमें कथन किया गया है। . अपना विकास करने में समर्थ हो सकता है । स्वभाव भाव और विभाव भाव कौन हैं और शुद्ध भावोंकी प्राप्ति कब और कैसे हो सकती है ? यही इस ग्रन्थका विषय है जिसका इसमें आठ अध्यायों द्वारा सुन्दर विवेचन किया गया है । भाका स्वरूप निर्देश करते हुए प्रन्धकारने यह बताया है कि इक्कीस औदायिक भाव, और कुमति, कुश्रुत तथा कुअवधि इन तीन क्षयोपशमभावों को मिलाकर कुल २४ भाव हो जाते हैं। ये सभी कर्मज भाव व है—स्थाने हेय योग्य हैं। उक्त तीन क्षयोपशमभावोंको छोड़ कर अवशिष्ट प्रथम कर्ताने अपनी लघुताको व्यक्त करते हुए जिला है कि यदि मेरेसे प्रमाद यश कोई अशुद्धि रह गई हो। या अन्यथा ( अलाप विरुद्ध ) लिखा गया हो तो विद्वज्जन उसे शुद्ध करलें । मुद्रितसंस्करण अशुद्धियोंसे भारा हुआ है । ग्रन्थकर्ताने ग्रन्थमें कहीं भी अपने नाम और रचनाकालादिका कोई उल्लेख नहीं किया, भले ही श्लेषरूपले दीपचन्दजीको उक्त ग्रन्थका कर्ता समझ लिया जाय, पर ग्रन्थसंदर्भकी दृष्टिसे भी यह प्रन्ध उन्हींकी रचना जान पड़ती है। परमानन्द जैन Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुगलकालीन सरकारी कागज संग्रहालयमें सुरक्षित डा० जी० एन० सालेतोरने हाल में 'इंडियन सूचना प्रणाली भारकाईब्ज' पत्रमें मुगलोंके जमानेके कागजातके सूबेकी सभी खबरें वकिया-नवीस, खुफिया नवीस बारे में एक लेख प्रकाशित किया है मुगलोंके जमाने में और हरकारोंके जरिये बादशाहके पास पहुँचती थी। सभी सरकारी कार्रवाई कागजों पर लिखी जाती थी बादशाह स्वयं अखबार नवीसोंकी नियुक्ति करता था। और उनकी जिल्द बंधवाकर केन्द्र तथा सुबोंके संग्रहा- ये अखबार नवीस किसी वजीरके मातहत नहीं होते लयों में रखवा दी जाती थी। सभी कागज विधिवत थे। सूबोंके शासनकी सारी खबर बादशाहके पास गिनकर बमसे लगाकर, बंडलोंमें रखे जाते थे। पहुँचाई जाती थीं। हफ्ते में दो बार सवाना निगार, कागजोंको नत्थी करके, बंडलोंके दोनों तरफ लकड़ीकी और हफ्तेवारी खबर वाक्या नवीस लिखकर भेजते तख्ती लगा दी जाती थी। फिर उन्हें कपड़ोंके बस्तोंमें थे। महीनेवारी रिपोर्टको "अखबार' कहा जाता लपेटकर रख दिया जाता था। इन सब कागजोंसे था और उन्हें "हरकारे' तैयार करते थे। बादशाही व्यवस्था पर अच्छा प्रकाश पड़ता है। वकिया-नवीस या वकिया-निगार शासनके सरमुगल अभिलेख कारी सम्वाददाता होते थे। ये हर फौज हर बड़े मुगल बादशाहोंके अभिलेख संग्रहमें सरकारी नगर और हर सूबे में तैनात किये जाते थे । इनके कार्रवाईके अभिलेख, सरकारी चिट्ठी-पत्री, माल, फाज आदमी परगने और अफसरोंकी खबरें इन्हें रोज देते और अदालतोंके कागजात तथा हुक्म, दरबारके फरमान थे। विदेश-स्थित दूतावासोंमें वकिया-नवीस और और सूचनाएं, सरकारी वकिया नवीसोंकी भेजी खबरें खुफिया-नवीस भेजे जाते थे। कभी-कभी एक ही व्यक्ति तथा हिसाब-किताब सम्बन्धी अन्य फुटकर आलेख, बक्शी और वकिया-नवीस होता था। वसीयतनामे आदि कागजात सुरक्षित हैं। इन अभि- सवाने-निगार या खुफिया-नवीस गुप्त भेषमें रहते लेखोंमें खास तरहकी स्याही और कागजात इस्तेमाल थे । महत्वपूर्ण मामलों में ये विशेष अफसरका काम किये गये हैं। इनका आकार प्रकार, लिखावट मुहर करते थे और ये वकिया-नवीसके गुप्त वरका काम भी और लिफाफे भी खास किस्मके हैं। मुगल बादशाह करते थे। इन अभिलेखोंको अपने पास ही रखते थे। अकबर- वकिया नवीसके नाचे, कुछ उसी तरहका पदाधिने जब काबुल पर चढ़ाई की तो अपने साथ कागजात कारी हरकारा होता था। हरकारेके अखबार में कहाभी ले गया था। सन् १६६२ में काश्मीर पर चढ़ाई सुनी या हुई सभी बातें झूठी या सच्ची, कामकी चाहे करते समय औरंगजेब ने भी ऐसा ही किया। बकार, सब दर्ज की जाती थीं। वह खबरोंको मुलायम अभिलेखोंके दफ्तर कलमसे लिखता था। हरकारेस ऊँचा अफसर दरोगा ए-हरकारा होता था। दफ्तरखानेकी व्यवस्था एक दरोगाके अधीन रहती थी, जो दीवान ए-आला (वजीर) को खास मात डाकखाने हतोमें रहता था। कभी-कभी दफ्तर खाना वजीरके दरबारको सब खबर डाकखानेके अध्यक्ष, रोगा महलमें ही रखा जाता था। सूबोंके कागजात इसी ए-डाक-चौकीके मार्फत भेजी जाती थी । बाबरने १५प्रकार सुबोंके दीवानोंके अधीन रहते थे। २८में यामों (डाकघरों) की व्यवस्था की थी, जहाँ घोड़े कभी कभी दूसरे देशोंके कागजोंकी प्रतियां भी और हरकारे रखे जाते थे। अकबरके १०.. डाक मुगल दफ्तरखानों में रखी जाती थी। ऐसे ही कागजातों- मेवरा थे। खफी खां के अनुसार ऐसे डाकिये सब में अकबरके श्रागरा स्थित संग्रहालयमें ईरानके शाह जगह नियुक्त थे। ताहमस्पके स्मार्च १५४४ के एक फरमानकी प्रति विदेशी यात्री पेलसर्टक कथनानुसार १६२७ में भी है। हर ४-५ कोसके बाद ऐसे डाकिये थे जो हाथों हाथ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निश्चयनय व्यवहार नयका यथार्थ निर्देश (श्री क्षुल्लक गणेशप्रसादजी वर्णी) निश्चयनय और व्यवहारनय क्या है, इनका क्या है। और यह व्यवहारका अवलम्बन लेकर ही होगा । जैसे स्वरूप है, और उनकी क्या दृष्टि है तथा पदार्थके मनन या कोई तुम्हारे पास यदि देहाती पुरुष भावे और वह सौदा अनुभव करने में उनसे क्या कुछ सहायता मिलती है। वे करने लग जाय तो जब तक तुम उससे देहाती न बोलोगे हमारे जीवनके लिये कितने उपयोगी है, साथही, उनका तब तक तुमसे पट नहीं सकता । अंग्रेजी भाषा भाषीले हमारी जीवन प्रवृत्तिसे क्या कुछ खास सम्बन्ध है या नहीं, अंग्रेजीमें ही बोलना पड़ेगा अन्यथा उसका पटना दुस्तर आदि सब बातें विचारणीय हैं । वास्तबमें निश्चय नय है। उसी प्रकार जब तक इन व्यवहारिक जनोंको व्यवहार वस्तुके यथार्य स्वरूपका ग्राहक है, वस्तुका वास्तविक स्वरूप नय द्वारा नहीं समझाया जायगा तब तक वे उस शुद्ध उससे ही ज्ञात होता है । निश्चयनय वस्तुके स्वरूपको प्रात्म तत्त्वको नहीं समझ सकने । यही कारण है कि व्यवअभेद, शुन्द्ध निर्लिप्त तथा निरपेक्षदृष्टिसे कहता है। किन्तु हार नयसे उस अभेदामक तत्वमें भेद-कल्पना की गई है। व्यवहारनय उममें भेद कल्पना कर उपचारसे कथन करता अतः निश्चनयका ज्ञान अनिवार्य है । विना निश्चयका भवहै। इस तरह अात्म-ज्ञान-प्राप्तिके लिये दोनों नयोंका यथार्थ लम्बन लिये केवल व्यवहार कार्यकारी नहीं है। जिस प्रकार परिज्ञान होना अत्यन्त जरूरी है । अनादि कालसे यह किसी मनुष्यको मार्गमें लुटा हुआ देखकर लोग कहते हैं कि मंमारी प्राणी व्यवहारमें मग्न है। अतः इनको अपने स्वरूप- यह मार्ग लुटता है। परन्तु विचारो, कहीं मार्गभी लुटा का कुछ भी बोध नहीं है। प्राचार्य कहते हैं कि जब तक करता है। उस मार्ग परसे चलने वाले यात्री लोग लुटा यह प्राणी निश्चयनयका आश्रय नहीं लेता, तब तक वह करते हैं किन्तु व्यवहारसे प्रेम कहा जाता है कि यह मार्ग मोक्षका अधिकारी नहीं होता । समयमारमें कहा है:- लुटता है । उसी तरह जीव वर्णादिवान् है ऐसा व्यवहार ववहारोऽभूयत्थो भूयत्थो देसिदो दु सुद्धणो । होने पर भी जीवनमें वर्णादि नहीं हैं । वह तो केवल ज्ञान भूयस्थ मस्सिदो खलु मम्माइट्ठी हवई जीवो ।। धन ही है। इस प्रकार दोनों नयोंको यथार्थ समझ लेना - व्यवहार नय अभूतार्थ है - असत्यार्थ हैं और शुद्ध नय सम्यक्त्व है । और सर्वथा एक नयावलम्बी हो जाना भूतार्थ है-सत्यार्थ है। अतः जो शुद्ध नयाश्रित है वह मिथ्यात्व है। निश्चय सम्यग्दृष्टि है। अब प्रश्न यह उपस्थित होता है कि 'शुद्ध नय' क्या यदि हम इन दोनों नयोंकी यथार्थ दृष्टिका उपयोगकर है? इसी बातका स्पष्टीकरण अग्रिम गाथा द्वारा प्राचार्य अपनी श्रद्धाको तदनुकूल बनालें तो भइया अपना कल्याण करते हैं : होना कोई बड़ी बात नहीं है। किन्तु हम एकका अवलम्बन जो पस्सदि अप्पाणं अबद्धपुट्ट अगएणयं णियदं। कर दूसरे को बिल्कुल ही छोड़ बैठते हैं, इससे हमारी दृष्टि अविसेसमसंजुत्तं तं सुद्धणयं वियाणीहि ।। दूषित हो जाती है वह एकान्तकी तरफ चली जाती है। जो नय इस आत्माको प्रबद्ध, अस्पृष्ट, अनन्यनिश्चल, और हम प्रारमहिनसे वंचित रह जाते हैं। प्रत. हमें केवल प्रविशेष तथा दसरेके संयोगसे रहित देखता है उसे ही शुद्ध एक नयका ही पाश्रय लेना उचित नही। किंतु उभयनयोंका नय कहते है। यथार्थ परिज्ञान कर वर्तना अात्महितका साधक है। यही ___ यहां पर प्राचार्यको शुद्ध निश्चय नयका ज्ञान कराना श्रद्धा जीवन में उपयोगनीय है। -(दिर ली प्रवचनसे) ८० कोस तक चौबीस घण्टेमें फरमान पहुंचा देते किया जाता था, इन्हें 'कबूतर नाम बार' कहते थे थे। प्रोविंगटनके कथानुसार ये पैदल या पट्टामार और मण्डसे बरहानपुर तक वर्षा में ये कबूतर डेढ़से डाकिये' राज्यके कोने-कोने तक डाक पहुँचाते थे। ढाई पहरमें पहुँच जाते थे। वैसे साफ मौसम में एक ऐसा उल्लेख है कि जहांगीरके समयमें एक स्थानसे पहर या चार घड़ीमें ही पहुँच जाते थे। दूसरे स्थानको डाक भेजनेमें कबूतरोंका प्रयोग -(नवभारतसे) Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रापको आचार-विचार (पुजक सिद्धिसागर) जो दर्शन मोहादिकको गलाता है, और सदृष्टिको प्रात या सग्रन्थको धर्म गुरु मानता है-वह वास्तवमें श्रावक नहीं कर पारमस्वरूपकी प्रतीति करता है, विश्वास करता है वह है-चूकि दर्शनमोहादिकको नहीं जलाने वाला या नहीं श्रावक कहलाता है-अथवा जो श्रद्धापूर्वक गुरुओंसे धर्मो- बहाने वाला भावक नहीं है-सम्यग्दर्शनादिकसे युक्त ही सुनता है वह श्रावक कहलाता है। और वह अल्प सावद्य- वास्तवमें श्रावक हैं शेष तो नाम मात्रसे या श्रावक धर्मोन्मुख आर्य और सावध आर्यके भेस दो प्रकारका है-जब तक उपचरित श्रावक हैं-यदि वे सचाईकी ओर या महिमाकी वह देश संयम या देश व्रत प्रहण नहीं करता है, तब तक मोर मुकना चाहते हैं तो उन्हें हिंसादि जैसे पाप कर्मोंका वह सम्यग्दृष्टि हिंसाको हेय समझते हुए भी सावध आर्य छोड़ना आवश्यक है । और अपनी “दा या विश्वासको नामका श्रावक कहलाता है किन्तु जब वह सागरधर्मको आगमानुकूल बनाना भी जरूरी है। बिना इसके वे श्रावक दर्शन प्रतिमा दकके रूपमें धारण करता है । तब वह अल्प नहीं कहला सकते । सावध आर्य नामके श्रावकोंमें परिलक्षित होता है कि वह श्रावक धर्मका विवेचन सबसे पहले हमें गौतम स्वामी संकल्पी हिंसाका जन्म भरके लिए नव कोटासे परित्यागकर देता के प्रतिक्रमणसूत्रमें मिलता है-इससे यह पता चलता है-वह इरादतन अस जीवोंकी हिंमा नहीं करता और ध्यर्थ है कि प्रचलित श्रावकधर्म कुछ हेर-फेरके साथम अक्षुण्ण स्थावर जीवोंका भी वध नहीं करता है-जब तक वस्त्रादिक रूपसे चला आ रहा है-वह संहननके अनुकूल भी हैंका त्याग नहीं होता है तब तक वह श्रावक-धर्म या ससंग दिगम्बर दर्शनके अनुसार श्रावकके आचार-विचार १२ प्रत सागार या विकल प्राचारवान या दशवती होता है या ११ प्रतिमा इत्यादिक रूपसे कुछ नामोंके हेर-फेरसे ज्यों का असंयमी किसी भी जीवकी हिंसा नहीं करनेका पक्ष प्रत्येक त्यों बतलाया गया है-श्रापकके मूलधर्ममें अहिंसाका प्राशय श्रावकको होता है किन्तु संकल्पी या इरादतन हिंसा और ज्यों त्यों के रूपमें अक्षुण्ण बना हुआ है स्वामी समन्तभद्रका व्यर्थ स्थावर हिंसाको छोड़कर शेष हिमासे बह चर्याय बच श्रावकाचार जो वि.कीलगभग दूसरी तीसरी शताब्दीके प्रारंभ नहीं पाता । यद्यपि उससे वह बच ।। भी चाहता है और की रचना है बेजोड़ ग्रंथ हैं-वह अपनी शानी नहीं रखता हैबचनेके लिए यथा शक्य प्रयत्न भी करता है किसी भी यद्यपत्राशयमें शंष श्रावकाचारभी उसी प्राशयके अनुकूल हैंप्राणीको दुःख देने या संताने जैसा परिणाम वह नहीं करता: कोई भी श्रावकाचार अहिसाचार और सम्यग्ज्ञानके विरुद्ध किन्तु प्रारम्भ सभारम्भमें होने वाली अनिवार्य हिंसासे वह नहीं है। फिर भी कथनकी दृष्टिसे जो मौलिकता, प्रौढता बच भी नहीं पाता । उसके तो जैनधर्मकी ही पक्ष होती है गम्भीरता रत्नकण्डमें झलकती है। वह अन्य श्रावकाचारोंमें इसीसे वह पाक्षिक श्रावक कहलाता है । परन्तु नैष्ठिक लक्षित नहीं होती, फिर भी उनमें चर्चित विषय अपनी-अपनी श्रावक अपनी निष्ठामें सुरद रहता है और व्रतोंका निष्ठा विशेषताओं के कारण मौलिक रूपमें मानना अनुचित नहीं है। पूर्वक अनुष्ठान करता है-उनका निर्दोष पालन करता हुआ वे अपन दश कालकी अपेक्षास व अपने देश कालकी अपेक्षासे श्रावकाचार पर विशद प्रकाश अपना जीवन यापन करता है वह नैष्ठिक श्रावक या अल्प डालतं ही हैं। इससे स्पष्ट है कि आचार-विचारसे शुद्ध सावध मार्य भी वहा जाता है। आर्यको श्रावक कहा जाता ह-यह आचार-विचार किसी न किसी क्षेत्रमें अवश्य अनादिकालसे अक्षुण्ण बना हुआ है आर्य श्रावक धार्मिक विचारके अधीन या अनुसार गृहस्थ सेकि सर्य-चांद अनादिसे पाये जाते हैं भले ही वे कहीं भाचरणको अहिंसामय बनानेका प्रयत्न करता है-विचार अप्रकट भी रहें। का सुधार ग़लत विश्वासके हटानेसे होता है-जो पदार्थ ढाई हजार वर्षके वीचमें भी श्रावक धर्मका प्रभाव कर जैसे अवस्थित है उस से मान लेने पर वह निरस्ताग्रह विचारों और दराचारको चोट पहुँचाता रहा। अब भी वह सम्यग्दृष्टिसे युक्त होनेके कारण अपने विचारको सुधार लेता । सुधार लता जीता जागता किसी न किसी उत्तम रूपमें हम लोगोंके टि है तब सम्यज्ञानी या सुधारक कहा जाता है। गत हो रहा है-यदि श्वावक धर्म न होता तो भारतकी सभ्यजो हिंसामें धर्म मानता है-उसमें हितकी कल्पना करता तकी रक्षा वास्तवमें न होती यह श्रमणोंके निग्रन्थधर्मका है और सदोष रागीद्वेषी अज्ञानीको भात (देव) मानता है उपासक धर्म है-इसे श्रावक धर्म भी कहते हैं Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री हीराचन्दजी बोहराका नम्रनिवेदन और कुछ शंकाएँ (जुगलकिशोर मुस्वार) [गत किरयासे आगे] श्री बोहराजीने कानजीस्वामीके कुछ बाक्योंका भी (आत्मधमं वर्ष के ४ थे अंकसे ) प्रमाणरूपमें उपस्थित किया है और अपने इस उपस्थितीकरणका यह हेतु दिया है कि इससे मेरी तथा मेरे समान अन्य विद्वानोंकी धारणा कानजीस्वामी के सम्बन्धमें ठीक सीर पर हो सकेगी। मैंने आपकी प्रेरणाको पाकर आपके द्वारा उद्धृत कानजीस्वामीके वाक्योंको कई बार ध्यानसे पढ़ा परन्तु खेद है कि वे मेरी धारणाको बदलने में कुछ भी सहायक नहीं हो सके; प्रत्युत इसके वे भी प्रायः असंगत और प्रकृत-विषय के साथ असम्बद्ध जान पड़े। इन वाक्यों को भी श्रीमोहराजीले डबल इन्वर्टेड कामाज़ -" के भीतर रक्खा है। और वैसा करके यह सूचित किया तथा विश्वास दिलाया है कि वह कानजीस्वामी उन वाक्योंका पूरा रूप है जो श्रात्मपृष्ठ १४१-१४२ पर मुद्रित हुए हैंउसमें कोई घटा-बढ़ी नहीं की गई है। परन्तु जाँचनेसे यह भी वस्तुस्थिति अन्यथा पाई गई, अर्थात् यह मालूम हुआ कि कानजीस्वामी वाक्योंको भी कुछ काट-छाँट कर रक्खा गया है— कहीं 'तो' शब्दको निकाला तो कहीं 'भी', 'डी' तथा 'और' शब्दों किया, कहीं शब्दोंको आगे-पीछे किया तो कहीं कुछ शब्दोंको बदल दिया, कहीं देश (-) को हटाया तो कहीं उसे बढ़ायाः इस तरह एक पेअके उद्धरण में १५-१६ जगह काट-छाँटको कम लगाई गई हो सकता है कि कार का यह कार्य कान स्वामीकं साहित्यको कुछ सुधार कर रखनेकी दृष्टिसे किया गया हो; जब कि वैसा करनेका लेखकको कोई अधिकार नहीं था क्योंकि उससे उद्धरणकी प्रामाणिकताको बाधा पहुँचती है। कुछ भी हो, इस काट-छोटके चक्कर में पड़ कर उद्धरणका अन्तिम वाक्य सुधारकी जगह उलटा विकारग्रस्त हो गया है, जिसका उष्टत रूप इस प्रकार है "जीवको पापसे खुराकर मात्र पुण्यमें नहीं लगा देना है, किन्तु पाप और पुरुष दोनोंसे रहित हायकस्वभाव बत जाना है। इसलिये पुण्य-पाप और उन दोनोंसे रहित ,— उन सबका स्वरूप जानना चाहिए ।" हम वाक्यसे रेखादि जानेके कारण बोहराजीके द्वारा उद्धृत वाक्य कितना बेढंगा बन गया है, इसे बतलानेकी ज़रूरत नहीं रहती । अस्तुः अब में कानजी - स्वामीके वाक्यों पर एक नज़र डालता हुआ यह बतलाना चाहता हूँ कि विषयके साथ वे कहाँ तक संगत है और काम जोस्वामी की ऐसी कौनसी नई एवं समीचीन-विचारधाराको उनके द्वारा सामने लाया गया है जो कि विद्वानोंकी चारथाको उनके सम्बन्धमें बदलनेके लिये समर्थ हो सके। धर्म; अपना प्रकृत विषय जिनशासन अथवा जैनधर्मके स्वरूपका और उसमें यह देखनेका है कि पूजा-दान वतादिके शुभ भावोंको अथवा सम्यग्दृष्टिके सरागचारित्रको वहां धर्मरूपसे कोई स्थान प्राप्त है या कि नहीं। श्री कुन्दकुन्द और स्वामी समन्तभद-जैसे महान धाचायों के ऐसे क्यों को प्रमाण में उपस्थित किया गया था जो साफ तौर पर पूजादान व्रतादिके भावों एवं सम्यग्दृष्टिके सरागचारित्रको 'धर्म' प्रतिपादन कर रहे हैं, उन पर तो श्री बोहराजीने 1 नहीं डाली अथवा उन्हें यों ही नज़रसे ओझल कर दिया-और कामजीस्वामी ऐसे वाक्योंकी उत करने बैठे हैं जिनसे उनकी कोई सफाई भी नहीं होती और इससे ऐसा मालूम होता है कि आप उन महान आचार्योंक वाक्यों पर कानजी स्वामीकं वाक्यों को बिना किसी हेतु ही महत्व देना चाहने हं । यह श्रद्धा-भक्तिकी अति है और ऐसी ही मनिके वश कुछ भक्तजन यहाँ तक कहने लगे है कि 'भगवान् महाबारक बाद एक कानीस्वामी ही धर्मकी सच्ची दशना करनेवाले पैदा हुए है, ऐसा सुना जाता है, मालुम नहीं यह कहाँ तक ठीक है । यदि ठीक है तो ऐसे भक्तजन, उत्तरवर्ती केवलियों तलियों तथा दूसरे धारी एवं भाषलिंगी महान् आचार्यों की अवहेलना अपराधी हैं। अस्तु “जीवको पापसे छुड़ा कर मात्र पुण्यमें नहीं लगा देना है किंतु पाप और पुण्य इन दोनोंसे रहित धर्म उन सब का स्वरूप जानना चाहिए।" जब कि कानजीस्वामी उक्त लेखमें वह निम्न प्रकारले कानजीस्वामीके जिन वाक्योंको उद्धृत किया गया है वे पाया जाता है पुण्य पाप और धर्मके विवेक सम्बन्ध रखते हैं। उनमें Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८] श्रनेकान्त [ वर्ष १३ वही एक राग अलापा गया है कि पुण्यकर्म किसी प्रकार धर्म नहीं होता, धर्मका साधन भी नहीं, बन्धन होनेसे मोल मार्ग में उसका निषेध है, पुरुष और पाप दोनोंसे रहित है वह धर्म है । कानजीस्वामीने एक वाक्यमें व्यवहारसे पुण्यका निषेध न करनेकी बात तो कहदी; परन्तु उसे 'धर्म' कहकर या मानकर नहीं दिया, ऐसी एकांत धारणा समाई है! जब कि श्री कुन्दकुन्दाचार्य, जिन्हें वे अपना श्राराध्य गुरुदेव बताते हैं, उसे धर्म भी प्रतिपादन करते हैं अर्थात् पूजादान-यतादिके वैसे शुभ भावोंको पुण्य और धर्म दोनों नामोंसे उल्लेखित करते हैं, जिसका स्पष्टीकरया पहले उसमें किया जा चुका है जिसके विरोध में ही बोहराजीके विचारप्रस्तुत लेखका अवतार हुआ है और जिसे उनकी इच्छानुसार अनेकान्तकी गत किरण श्में प्रकाशित किया जा चुका है। वह वाक्य इस प्रकार है कहा जाय कि वह जिनशासनकी ही प्रतिपाद्य वस्तु है तो फिर कानजीस्वामीके द्वारा यह कहना कैसे संगत हो सकता है कि पूजा-दान-यतादिके रूपमें शुभभाव जैनधर्म नहीं है जो ?दोनों बातें परस्पर विरुद्ध पड़ती हैं। इसके सिवाय, कानजी स्वामीका मोक्षमार्गमें पुण्यका निषेध बतलाना और उसे धर्मका साधन भी न मानना जैनागमोंके विरुद्ध जाता है; क्योंकि जैनागमोंमें मोक्षके उपाय श्रथवा साधन रूपमें उसका विधान पाया जाता है, जिसके दो नमूने यहां दिये जाते हैं(१) असमत्रं भावयतो रत्नत्रयमस्ति कर्मबन्धो यः । विपक्षकृतोऽवश्यं मोक्षोपायो न बन्धनोपायः ।। २११ - पुरुषार्थसिद्धय पाय इसमें श्री अमृतचन्द्राचार्यने बतलाया है कि 'रत्नत्रय की विकल रूपसे (एक देश या आंशिक) श्राराधना करनेवाले के जो शुभभावजन्य पुरायकर्मका बन्ध होता है वह मोकी साधनायें सहायक होनेसे मोहोपाय (मोमार्ग) के रूपमें ही परिगहिन है, बन्धनोपायके रूपमें नहीं ।' "पुश्य बंधन है इसलिये मोषमार्गमें उसका निषेध है—यह बात ठीक है; किन्तु व्यवहारसे भी उसका निषेध करके पापमार्ग में प्रवृत्ति करे तो वह पाप तो कालकूट विषके समान है; अकेले पाप तो नरक-निगोदा यहाँ यह प्रश्न पैदा होता है कि इस वाक्य जय विषयका प्रतिपादन किया गया है वह प्रतिपाद्य वस्तु कानजी स्वामीकी अपनी निजी है या किसी अन्य मतसे ली गई है अथवा जिनशासनका भंग होनेसे जैन चमके अन्तर्गत है? यदि यह कहा जाय कि वह कानजीस्वामी की अपनी निजी वस्तु है तो एक तो उसका यहाँ विचारमें प्रस्तुत करना असंगत है; क्योंकि प्रस्तुत विचार जिनशासनके विषय सम्बन्ध रखता है, न कि कानजीस्वामीको किसी निजी मान्यतासे । दूसरे, कानजीस्वामीके सवज्ञादिरूप कोई विशिष्ट ज्ञानी न होनेमे उनके द्वारा नरक-निगोद में जानेके की बात भी माथमें कुछ बनती नहीं— निराधार ठहरती है। तीसरे, पुण्यरूप विकारकार्य इस तरह करने योग्य होजाता है और कानजीस्वामीका यह कहना है कि 'विकारका कार्य करने योग्य -ऐसा मानने वाला जीव विकारको नहीं हटा सकता ।” तब फिर ऐसे विकार - कार्यका विधान क्यों जिम्मसे कभी छुटकारा न हो सके ? यह उनके विरुद्ध एक नई श्रापति खड़ी होती है। यदि उसे श्रन्यमको वस्तु बतलाया जाय तो भी यह उसका प्रस्तुतीकरण असंगत है; साथही जैनधर्म एवं जिनशासन से बाह्य ऐसी वस्तुके प्रतिपादनका उन पर आरोप आता है जिसे वे मिथ्या और अभूतार्थं समझते हैं'। और यदि यह श्री अमृतचन्द्राचार्य जैसे परम आध्यात्मिक विद्वान् भी जय सम्पष्टिके पुण्य-बन्धक शुभभावोंको मोोपायके रूपमें मानते तथा तिपादन करते हैं तब कानजीस्वामीका वैसा मानने से इनकार करना और यह प्रतिपादन करना कि 'जो कोई शुभभावमय पुण्य कर्मको धर्मका साधन माने उसके भी भवन कम नहीं होंगे उनकी आध्यात्मिक एकातताका यदि सूचक समझा जाय तो शायद कुछ भी अनुचित नहीं होगा। (२) मोक्ष हेतुः पुनर्द्वैधा निश्चय व्यवहारतः । तत्राद्यः साध्यरूपः स्याद्वितीयस्तस्य साधनम् ॥८ -तत्त्वानुशासन हमें श्रीरामसेनाचार्यने यह निर्दिष्ट किया है कि मोलमार्ग दो भेदोंमें विभक्त हैमार्ग दो मेरो भिन्न है-एक नियमोपमार्ग और दूसरा व्यवहार-मांसमार्ग निश्चय योषमार्ग माध्यरूपमें स्थित है और 1 व्यवहार-मोक्षमार्ग उसका साधन है। साधन साध्यका विरोधी नहीं होता, दोनों में परम्पर अविनाभाव-संबंध रहता है और इसलिये एकको दूसरेसे अलग नहीं किया जा सकता | ऐसी स्थितमें निश्चय मोक्षमार्ग यदि जिनशासनका चंग है तो व्यवहार-मोषमार्ग भी उमीका अंग है, और इसलिए जिन शासनका यह लक्षण नहीं किया जा सकता कि 'जो शुद्धश्रात्मा वह जिनशासन है' और न यही कहा जा सकता कि 'पूजा-दानवतादि शुभभाव जैनधर्म नहीं है। ऐसा विभाग Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ] महापुराण कालका और कवि ठाकुर (१८९ भीर प्रतिपादन दृष्टिविकारको लिए हुए एकान्तका द्योतक है। निम्न गाथासे जाना जाता हैक्योंकि पवहार-मोक्षमार्गमें जिस सम्यकचारित्रका प्रहण है असुहादो विनिवित्ती सहे पवित्तीय जाण चारित्त। वह अशुभसे निवृत्ति और शुभमें प्रवृत्तिको लिए हुए प्रायः वद-समिदि-गुत्तिरूवं व्यवहारणया दुजियमणियं ४५ अहिंसादिब्रतों, ईर्यादि-समतियों और सम्यग्योग-निग्रह इस गाथामें स्पष्ट रूपसे यह भी बतलाया गया है कि लच्या-गुप्तियोंके रूपमें होता है । जैसा कि द्रव्यसंग्रहकी चारित्रका यह स्वरूप व्यवहारनयकी दृष्टिले जिनंद भगवानन * इस सम्यक्त्वारित्रको 'सरागचारित्र' भी कहते हैं और कहा है। जब जिनेन्द्रका कहा हुआ है तब जिनशासनसे उसे निश्चयमोक्षमार्गमें परग्रहीत 'वीतरागचारिखका उमो अलग कैसे किया जा सकता है ? अतः कानजी स्वामीके ऐसे प्रकार साधन है जिस प्रकार कांटको कांटेसे निकाला जाता। वचनोंको प्रमाणमें उद्धृत करनेसे क्या नतीजा, जो जिनअथवा विषको विषसे मारा जाता है। परागचारित्रका भूमि शासनको दृष्टिस बाह्य एकान्तके पोषक हैं अथवा अनेकान्ताकामें पहुंचे बिना वीतरागचारित्र तक कोई पहुँच भी नहीं भासके रूपमें स्थित हैं और साथही कानजीस्वामी पर घटित सकता । वीतरागचारित्र यदि मोक्षका मासात साल होने वाले आरोपोंकी कोई सफाई नहीं करते। (क्रमशः) सरागचारित्र परम्पग साधक है। जैसा कि द्रव्यसंग्रहके टीका- "स्त्रशुद्धात्मानुभूतिरूप-शुद्धोपयोगलक्षण-वीतरागचारित्रकार ब्रह्मदेवके निम्न वाक्यसे भी प्रकट है स्य पारम्पर्येण साधकं सरागचारित्रम् ।" महापुराण-कलिका और कवि ठाकुर (परमानन्द जैन शास्त्री) हिन्दी जैन साहित्यमें अनेक कवि हुए हैं । परन्तु अभी अनेक कवियोंके विजेता थे। और जिनका पट्टाभिषेक सम्मेद तक उनका एक मुकम्मिन परिचयात्मक कोई इतिहास नहीं शिखर पर सुवर्ण कलशोंसे किया गया था। इन्हीं प्रभाचन्द्र लिखा जा सका, जो कुछ लिखा गया है वह बहुत कुछ के पट्टधर भ० चन्द्रकीर्ति थे इनका पट्टाभिषेक भी सम्मेद अपूर्ण और अनेक स्थूल भूलोंको लिये हुए है। उसमें किसने शिखर पर हया था | और उन्हींके समसामयिक भ. ही हिन्दी के गद्य-पद्य लेखक विद्वानों और कवियों के नाम विशालकीर्ति थे, जिनका कविने गुरु रूपसे उल्लेखित किया छूटे हुए हैं। जिनके सम्बन्धमें विद्वानोंको अभी कोई जान- -- कारी नहीं है । आज ऐसे ही एक अन्य और ग्रन्थकारका ॐ तत्पहोदयभूधरेजनि मुनिः श्रीमत्प्रभेन्दुवंशी, परिचय नीचे दिया जा रहा है। आशा है अन्वेषक विद्वान हेयादयविचारणकचतुरो देवागमालंकृतौ। अन्य विद्वान कवियोंका परिचय खोज कर प्रकाशमें लानेका मेयाम्भोज-दिवाकरादिविविध तक्कै च चचुश्चयो, प्रयत्न करेंगे। जैनेन्द्रादिकलक्षयाप्रणयने वक्षोऽनुयोगेषु च ॥१२ प्रस्तुत प्रन्थका नाम 'महापुराण कलिका' वा 'उपदेश- त्यक्त्वा सांसारिकी भूतिं किंपाकफलसलिभाम् । रत्न माला' है जिसके कर्ता कवि शाह ठाकुर हैं जो मूलसंघ चिन्तारत्ननिभा जैनी दीवां संप्राप्य तत्त्ववित् ॥३३ सरस्वतिगच्छके भट्टारक प्रभाचन्द्र पद्मनन्दी, शुभचन्द्र जिन- शब्दब्रह्मसरित्पति स्मृतिबालदुत्तीर्य यो लीलया, चन्द्र, प्रभाचन्द्र, चन्द्रकीर्ति और विशालकीर्तिके शिष्य थे। पटतर्कावगमार्ककर्कशगिरा जिस्वाखिलान-वादिनः । इनमेंसे भ० जिनचन्द्रका पट्टाभिषेक सं० १९०७ में दिल्लीमें प्राच्यां दिविजयी भव व विभुजैनप्रतिष्ठां कृते, हुना था। ये बड़े प्रभावशाली और विद्वान थे। इनके द्वारा श्रीसम्मेदगिरी सुवर्णकलशैः पहाभिषेकः कृतः ३५ प्रतिष्ठित भनेक मूर्तियां सं० १९४१, ११४५ और संवत्- श्रीमाभाचन्द्रगणीन्द्रपट्टे भहारकश्रीमुनिचंद्रकीर्तिः। १५४८ की मौजूद मिलती हैं। उनके पट्टपर प्रभाचन्द्र प्रति- संस्नापितो योऽवनिनाथवृन्दैः सम्मेवनाम्नीह गिरीद मूनि ॥ ष्ठित हुए थे। जो षट्तर्कमें निपुण तथा कर्कश वाग्गिराके द्वारा -मूलसंघ द्वितीय पहावली भास्कर भाग 1,कि. ३-४, Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० अनेकान्त । वर्ष १३ है। विशावकीर्ति नामके कई भहारक हो गये हैं। उनमेंसे ये पालइ पंच महाव्रतं समितियों पंचैव गुप्तित्रयो, “ कौनसे विशालकीर्ति हैं यह जानना आवश्यक है। अन्धकारने मूलं मूलगुणा सुसाधनपरो श्रीनेमिचन्द्रो जयो॥" अपनी प्रशस्तिमें विशालकीतिके साथ एक मेमचन्द्र यतिका इस ग्रन्थमें २७ संघियां हैं, उनमेंसे अन्तिम संधिमें भी मामोल्लेख किया है जो विशालकीर्तिके शिष्य जान पड़ते कविने अपनी वंश परिचयास्मिका विस्तृत प्रशस्ति दी है हैं उनमें प्रथम म० विशालकीर्ति के हैं जिनका उल्लेख भट्टा- जिसमें वरा परिचयके साथ-साथ उस समयको परिस्थिति स्क-शुमचन्द्रकी गुर्वावलीमें .वें नम्बर पर पाया जाता है और राज्यादिके समयका उल्लेख करते हुए तत्कालीन कुछ और जो असन्तकीर्तिके शिष्य प्रख्यातकी के पद पर प्रतिष्ठित नगरोंके नामोंका-आगरा, फतेपुर-गदगुलेर, रुहितासगढ़, हुए थे. विविद्याधीश्वर और बादी थे और शुभकीर्तिके पटना-हाजीपुर, दुढाहर, अवेर,दी, टोडा, अजमेर, दौसा, गुरु थे । मेवति, वैराट, अलवर, और नारनौर आदिका-उल्लेख मनोभाक पसनदी किया है । इन नगरोंमें अधिकांश नगर राजपूताना (राजके पदृश्वर थे, और जिनके द्वारा सं 0 में प्रतिधित स्थान) में पाये जाते हैं। उक्त कलिका ग्रन्थका महत्व बतलाते हुए कविने ५वीं २६ मूर्तियों ज्येष्ठ सुदि एकादशीको टोंकमें प्राप्त हुई थी और जिनमेंसे अधिकांश मूर्तियों पर लेख भी उत्कीर्णित थे। संधिके शुरूमें निम्न संस्कृत पद्य दिया है जिससे प्रन्थमें चर्चिन कथाको-सठ शलाका पुरुषोंकी पुराण कथानोतीसरे विशालकीर्ति वे हैं जिनका उल्लेख नागौरके अज्ञानका नाशक, शुभारी और पवित्र उदघोषित किया है। भट्टारकोंको नामावलीमें दिया हया है और जो धर्मकीर्तिके पट्टधर थे। जिनका पहाभिषेक सं० १६०१ में हुआ था x या जन्माभवछेदनिर्णयकरी, या ब्रह्मब्रह्मश्वरी, इनमेंसे प्रथम दो विशालकीर्ति शाह ठाकुरके गुरु रहे हों। या संसारविभावभावनपरा, या धर्मकामा परी। या ये कोई जुदे ही विशालकीर्ति हों। अज्ञानाढथ ध्वंसिनी शुभकरी, झेयासदा पावनो. .: शाह ठाकुरने महापुराण कलिका नामक ग्रन्थकी संधियों या तेसट्ठिपुराणउत्तमकथा भव्या सदा पातु नः ।।" ग्रन्थमें जैनियों के प्रथम तीर्थंकर ऋषभ देवका तो मांगोंमें जो संस्कृत पद्य दिये हुए है, उनसे कई पथों में विशाल पांग परिचय दिया हुआ है, उसमें उनके ज्येष्ठ पुत्र भरत, कीर्ति, और एक पचमें नेमिचन्द्रका आदर पूर्वक स्मरण किया है। जैसा कि २३वीं सैधिके २ प्रारम्भिक पद्योंसे स्पष्ट है : जिनके नामसे इस देशका नाम भारतवर्ष पड़ा है, उनका और उनके सेनापति जयकुमार और उनकी धर्मपत्नी सुलोकल्याणं कोर्तिलोके जसुभवतिजगे मंडलाचार्यपट्टे, चना तथा भरतके लघुभ्राता बाहुबलीके साथ होने वाली नंद्याम्नाये सुगच्छे सुभगश्रुतमते भारतीकारमूर्त। युद्ध-घटना और उममें विजय लाभके अनन्तर दीक्षा लेकर मान्यो श्रीमलसंघे प्रभवतु भुवनो सार सौरव्याधिकारी, कठोर तपश्चर्या करनेका सुन्दर कथानक दिया हुआ है। सोऽयं मे वैश्यवंशे ठकुरगुरुयते कीर्तिनामा विशालो॥" किन्तु अवशिष्ट तेईस तीर्थकरों, चक्रवर्तिवों, नारायणों, "पट्ट श्री भुविनाधिकारि भुवनो कीर्तिविशालायते, बलभद्रों और प्रतिनारायणों उनके नगर ग्राम, माता पिता, राज्य काल और तपश्चरणादिका भी संक्षिप्त परिचय अंकित तस्याम्नायमहीतले सुदिनी चारित्रडामणे । किया गया है। सम्भव है इस प्रन्थमें पुष्पदन्त कविके महातस्य श्रीवनभसिनस्त्रिभुवन प्रख्यातकीर्तेरभूत् । पुराणसे कुछ कथानक लिया गया हो, दोनों ग्रन्थोंके मिलान । शिष्योऽनेकगुणालयः समयमध्याना प्रगासागर । करने पर यह जाना जा सकेगा। । वादीन्द्रः परवादि-वारणगण-प्रागल्भ-विद्राविणः कवि ठाकुर शाहने प्रन्थके अन्तमें अपने वंशका परिचय सिंहः श्रीमति मवेति विदितस्त्रविचविचास्पदम् ॥ देते हुए लिखा है कि उनकी जाति खंडेलवाल और गोत्र विशालकीर्तिः ................ ...................॥ लुहादिया था, यह पंश राज्यमान्य रहा है शाह ठाकर सीहा -शुभचन्द्र गुर्वावली के प्रपुत्र और साहू खेताके पुत्र थे जो देव-शास्त्र-गुरुके भक्त ४.विडयन ऐटिक्वरी में प्रकाशित नन्दिसंघके प्राचार्यों और विद्या विनोदी थे। उनका विद्वानोंसे विशेष प्रेम था, को नामावली (शेष टाइटिव पृष्ठ ३ पर) Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (1 .का शेषांश) संगीत, शास्त्र, छन्द, अलंकार मादिमें निपुण थे और किया है जो परमवंशके थे। प्रत्यराज नामके एक विद्वान कविता करने में उन्हें.मानन्द माता था। उनकी पत्नी पति कई प्रन्थोंके कर्ता भी हुए है क्या यही है या इनसे मिल और श्रावकोंका पोषण करने में सावधान थी। पाचक जम यह अन्वेषणीय है। उसकी कीतिका गुण गान किया करते थे । उसले दो पुत्र शाह ठाकुरने अपने इस ग्रन्थको संवत् १९१० में राजा उत्पबाए थे, गोविन्ददास और धर्मदास । उनके भी पुत्रा मानसिंह, जो उस समय भामेर (जयपुर) के शासकये। और दिक थे, इस तरह शाह ठाकुरका परिवार एक सम्पस परि. चकत्ताशके हुमायूं के पुत्र अकबर बादशाह के शासन काल में वार था। इनमें धर्मदास विशेष धर्मश और सम्पूर्ण कुटुम्ब बनाकर समाप्त किया था। कविकी बनाई हुई अन्य क्या के भारका वहन करने वाला विनयी और गुरु भक्त था। रचनाएं हैं, यह कुछ ज्ञात नहीं हुआ । प्रन्थकी अन्तिम करिने प्रशस्तिमें खैराज नामके एक व्यक्तिका भी उल्लेख प्रशस्ति अगले अंकों दी जावेगी। वीरसेवामन्दिरके सुरुचिपूर्ण प्रकाशन (१) पुरातन-जैनवाक्य-सूची-प्रतके प्राचीन ६४ मूबनान्योंकी पद्यानुक्रमणी, जिसके साथ ४८ टीकाविप्रन्योंमें उद्धृत दूसरे पडोकी भी अनुक्रमणी लगी हुई है । सब मिलाकर २५३५६ पद्य-वाक्योंकी सूची । संयोजक और सम्पादक मुख्तार श्रीजुगलकिशोरजी की गवेषणापूर्ण महत्वकी ७० पृष्ठको प्रस्तावनासे प्रसंकृत, डा. कालीदास नागर एम. ए,डी. लिट् के प्राथन (Foreword) और डा. ए. एन. । उपाध्याय एम. ए.डी.लिट की भूमिका (Introduction) से भूषित है, शोध-खोजके विद्वानों के लिये प्रतीष उपयोगी, बड़ा साइज, सजिल्द (जिसकी प्रस्तावनादिका मूल्य अलगसे पांच रुपये है) (२) प्राप्त-परीक्षा-श्रीविद्यानन्दाचार्यको स्वोपज्ञ सटीक अपूर्वकृति,प्रामोंकी परीक्षा द्वारा ईश्वर-विषयके सुदर सरस और सजीव विवेचनको लिए हुए, न्यायाचार्य पं० दरबारीलालजी के हिन्दी अनुवाद तथा प्रस्तावनादिसे बुक्क, सजिल्द । (३) न्यायदीपिका-न्याय-विद्याकी सुन्दर पोथी, भ्यापाचार्य पं.दरबारीलालजीके संस्कृतटिप्पण, हिन्दी अनुवाद, विस्तृत प्रस्तावना और अनेक उपयोगी परिशिष्टोंसे अलंकृत, सजिल्द । .. (४) स्वयम्भूस्तात्र-समन्तभद्रभारतीका अपूर्व ग्रन्थ, मुख्तार श्रीजुगलकिशोरजीके विशिष्ट हिन्दी अनुवाद पन्दपरि चय, समन्तभद्र-परिचय और भक्तियोग, ज्ञानयोग तथा कर्मयोगका विश्लेषण करती हुई महत्वकी गवेषणापूर्ण १०६ पृष्ठकी प्रस्तावनासे सुशोभित। ... (४) स्तुतिविद्या-स्वामी समन्तभद्रकी अनोखी कृति, पापोंके जीतनेकी कला, सटीक, सानुवाद और श्रीजुगलकिशोर मुख्तारकी महत्वकी प्रस्तावनादिसे अलंकृत सुन्दर जिल्द-सहित। .. (६) अध्यात्मकमलमार्तण्ड-पंचाध्यायीकार कवि राजमल्लकी सुन्दर प्राध्यात्मिक रचना, हिन्दीअनुवाद-सहित और मुख्तार श्रीजुगलकिशोरकी खोजपूर्ण ७८ पृष्ठकी विस्तृत प्रस्तावनासे भूषित । (७) युक्त्यनुशासन-तत्त्वज्ञानसे परिपूर्ण समन्तभद्रकी असाधारण कृति, जिसका अभी तक हिन्दी अनुवाद नहीं हुमा था । मुख्तारश्रीके विशिष्ट हिन्दी अनुवाद और प्रस्तावनादिसे अलंकृत, सजिल्द । " ) () श्रीपुरपार्श्वनाथस्तोत्र-आचार्य विद्यानन्दरचित, महत्वकी स्तुति, हिन्दी अनुवादादि सहित। .. ) (8) शासनचस्त्रिशिका-(तीर्थपरिचय)-मुनि मदनकीर्तिकी १३ वीं शताब्दीकी सुन्दर रचना, हिन्दी अनुवादादि-सहित । व्यवस्थापक 'वीरसेवामन्दिर-ग्रन्थमाला' वीरसेवामन्दिर,१ दरियागंज, देहली Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 अनेकान्तके संरक्षक और सहायक १०१) बा० शान्तिनाथजी कलकत्ता १०१) बाः निर्मलकुमारजी कलकत्ता १०१) बा० मोतीलाल मक्खनलालजी, कलकत्ता १०१) बा० बद्रीप्रसादजी सरावगी, १०१) बा० काशीनाथ गं. १०१) बा० गोपीचन्द रूपचन्दजी १०१) बा०. धनंजयकुमारजी १०१) बा० जीतमलजी जैन १०१) बा० चिरंजीलालजी सरावगी " १०१) बा० रतनलाल चांदमलजी जैन, राँची १०१) ला०] महावीरप्रसादजी ठेकेदार, देहली १०१) ला०] रतनलालजी मादीपुरिया, देहली १०१) श्री फतहपुर जैन समाज, कलकत्ता १०२) गुप्तसहायक, सदर बाजार, मेरठ १०१) श्री शीलमालादेवी धर्मपत्नी ढा०श्रीचन्द्रजी, एटा १०१) ला० मक्खनलाल मोतीलालजी ठेकेदार, देहली १०१) बा० फूलचन्द रतनलालजी जैन, कलकत्ता १०१) बा० सुरेन्द्रनाथ नरेन्द्रनाथजी जैन, कलकत्ता १०१) बा० वंशीधर जुगलकिशोरजी जैन, कलकत्ता १०१) बा० बद्रीदास आत्मारामजी सरावगी, पटना १०१) ला० उदयराम जिनेश्वरदासजी सहारनपुर १०१) बा० महावीरप्रसादजी एडवोक्ट, हिसार १०१) ला० बलवन्तसिंहजी, हांसी जि० हिसार १५१) संठ जोखीमबैजनाथ सरावगी, कलकत्ता १०१ बाबू जिनेन्द्रकुमार जैन, सहारनपुर १०९) वैद्यराज कन्हैयालालजी चद औषधालय, कानपुर, संरक्षक १५०० ) बा० नन्दलालजी सरावगी, कलकत्ता २५१) बा० छोटेलालजी जैन सरावगी २५१) बा० सोहनलालजी जैन लमेचू २५१) ला० गुलजारीमल ऋषभदासजी ५१) श्र० ऋषभचन्द (B. R. C. जैन २५१) बा० दीनानाथजी सरावगी २५१) बा० रतनलालजी झांझरी २५१) बा० बल्देवदासजी जैन सरावगी २५१) सेठ ग्रजराजजी गंगवाल २५१) सेठ सुआलालजी जैन २५१) बा० : मिश्रीलाल धर्मचन्दजी. 39 २५१) सेठ, मांगीलालजी. २५१) सेठ शान्तिप्रसादजी जैन २५१) बा० विशनदयाल रामजीवनजी, पुरलिया २५१) ला० कपूरचन्द धूपचन्दजी जैन, कानपुर २५१) बा० जिनेन्द्रकिशोरजी जैन जौहरी, देहली २५१) ला राजकृष्ण प्रेमचन्दजी जैन, देहली २५१) बा० मनोहरलाल नन्हेंमलजी, देहली २५१) ला० त्रिलोकचन्दजी, सहारनपुर २५१) सेठ छदामीलालजी जैन, फीरोजाबाद २५१) ला० रघुवीर सिंहजी, जैनावाच कम्पनी, देहली २५१) रामबहादुर सेठ हरखचन्दजी जैन, रांची २५१) मेठ ववीचन्दजी गंगवाल, जयपुर सहायक · १०१) बा० राजेन्द्रकुमारजी जैन, न्यू देहली १०१) ला० परसादीलाल भगवानदासजी पाटची, देहली १०१) बा० लालचन्दजी बो० सेठी, उज्जैन १०१) बा० घनश्यामदास बनारसीदासजी, कलकत्ता १०१) मा० लालचन्दजी जैन सरावगी 19 11 .?" "" H 19 " Regd. No. D. 211 99 " "1 " ". १०१) ला० प्रकाशचन्द व शीलचन्दजी जौहरी, देख्ली १०१ ) ला० रतनलाल जी कालका वाले, देहली अधिष्ठाता 'वीर सेवामन्दिर' सरसावा, जि० सहारनपुर प्रकाशक- परमानन्दजी बास्त्री दि० जैन ज्ञानमंदिर रेहली । मुद्रक-रूप-थायी प्रिंटिंग हाऊस २१, दरियागंज, देहली Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कान्त दिसम्बर १९५४ सम्पादक-मण्डल जुगलकिशोर मुख्तार छोटेलाल जैन जयभगवान जैन एडवोकेट परमानन्द शास्त्री विषय-सूची १ समन्भद्रभारती ( देवागम )... .. [युगवार १४७ २ अपभ्रंशभाषाका जम्बूस्वामी चरिउ और महाकवि वीर [ परमानन्द जैन शास्त्री १४६ ३ भरतकी राजधानीमें जयधवल महाधवल ग्रन्थराजोंका आपूर्व स्वागत- ... ... [परमानन्द जैन १५८ । ४ रोपड़की खुदाई में महत्वपूर्ण ऐतिहासिक वस्तुओंकी उपलब्धि ... ... ५ अतिशय क्षेत्र बजुराहा- ... [परमानन्द जैन १६० ६ श्री हीराचन्दजी बोहराका नम्रनिवेदन और - कुछ शंका- ... ... [जुगलकिशोर मुख्तार १६२ ७ पूजाराग समाज ना. जैनिनयोग किन ? (कविता)-[ ... ... [स्व. पं० ऋषभदासजी १५॥ anemameemeone अनेकान्त वर्ष १३ किरण ६ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुख्तार श्री जुगलकिशोरजीकी ७८वीं वर्षगाँठ प्रीति-भोजके साथ सम्पन्न जैन समाजके सुप्रसिद्ध ऐतिहामिक विद्वान और सबसे पुराने साहित्य-तपस्वी प्राचार्य श्री जुगलकिशोर जी मुख्तार की आयुके ७७ वर्ष पूरे होजाने पर गत मंगशिर सुदी एकादशी संवत् २०११, ता. ६ दिसम्बर सन् १९५४ को उनकी ७८वीं वर्षगांठ दि. जैन लालमन्दिर-स्थित वीरसवामन्दिरमें सानन्द मनाई गई, जिसमें प्रीतिभोजको भी सुन्दर प्रायोजन किया गया था। प्रीतिभोजके लिये देहलीके प्रायः सभी गण्यमान जैन बन्धुओंको आमन्त्रित किया गया था, जिनमेंसे अधिकांश बन्धुषोंने मके साथ भोजमें भाग लिया। अनेक सज्जन फूलोंको सुन्दर मालाएं लेकर पाए थे और उन्हें मुख्तारश्री के गले में डालकर उन्होंने उनके शतायु होनेकी कामना की थी। इस अवसरपर मुख्तारधी ने अपने लिये सुरक्षित रखे हुए देहली क्लॉथ मिलकं शेयर्समें से ३० शेयर अपने तीनो भतीजों-डा० श्रीचन्द बा. रिखबचन्द और बा. प्रद्युम्नकुमारको और ५० शयर्स बहन जयवन्तीको दिये । और इस तरह अपने वर्तमान परिग्रह से तीन हजारसे उपरके परिग्रहको कम किया । साथ ही, ४०) रुपये निम्न प्रकारस पत्रादिकांको प्रदान किये ५) श्री दिगम्बर जैन लालमन्दिर, ११) अंग्रेजी जैनगजट, ११) अनकान्त, ५) अहिंसावाणी और वॉइस अाफ़ अहिंसा, २) अहिसा (जयपुर), २) जैनमित्र, २) जैनसन्देश, २) पहियोंकि अस्पताल को । -परमानन्द जैन आचार्यश्री का दीक्षादिवस श्राचार्य श्री नमिसागरजीका ३०वां दीक्षा समारोह जैन कालेज बड़ौत ( मेन्ठ ) की पारस सानन्द सम्पन्न होगया। प्राचार्य नमिसागर जी चिरजीवी हों यही हमारी हार्दिक कामना है । समाधितन्त्र और इष्टोपदेश । वीर सेवामन्दिरसे प्रकाशित जिस 'समाधितन्त्र' ग्रन्थके लिये जनता असेंस लालायित थी वह ग्रन्थ इष्टोपदेशके साथ इसी सितम्बर महीनेमें प्रकाशित हो चुका है । आचार्य पूज्यपादकी ये दोनों ही आध्यात्मिक कृतियाँ अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं । दोनों ग्रन्थ सस्कृत टीकाओं और पं० परमानन्दजी शास्त्रीके हिन्दी अनुवाद तथा मुख्तार जुगलकिशोरजीको खोजपूर्ण प्रस्तावनाके साथ प्रकाशित हो चुका है । अध्यात्म प्रेमियों और स्वाध्याय प्रेमियों के लिये यह ग्रन्थ पठनीय है। ३५० पेजकी सजिन्द प्रतिका मूल्य ३) रुपया है। दुःखद वियोग !! यह लिखते हुए अन्यन्त दुग्व होता है कि लाला जुगलकिशोर जी फर्म धूमीमलधर्मदास जी कागजी चावड़ी बाजार के ज्येष्ठभ्राता दरोगामल जी का ना० १८ दिसम्बर को सवेरे बिना किसी खास बीमारी के स्वर्गवास होगया। यद्यपि उनके दिमागमें कुछ अर्सेसे खराबी थी परन्तु वे बहुत ही मिलनमार थे। और सबसे प्रति उनका प्रेमभाव था। वे अपने पीछे अच्छा परिवार छोड़ गए हैं। अनेकान्त परिवारकी हार्दिक भावना है कि दिवंगत आत्मा परलोकमें सुख-शान्ति प्राप्त करे और कुटुम्बीजनोंको इष्टवियोग जन्य दुःख सहनेकी शक्रि एवं सामर्थ्य प्राप्त हो। -परमानन्द जैन Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महम विश्व तत्व-प्रकाश वार्षिक मूल्य ६) एक किरण का मूल्य ) patta नीतिविरोधसीलोकव्यवहारवर्तकसम्यक् । परमागमस्यबीज भुवनेकगुर्जयत्यनेकान्त ॥ वर्ष १३ । वारसेवामन्दिर,C/दि. जैन लालमन्दिर, चाँदनी चौक, देहली दिसम्बर किरण६ । पौष, बीर नि० संवत् २४८१, वि० संवत २०११ १६५४ समन्तभद्र-भारती देवागम हेतोरद्वैत-सिद्धिश्चेद्वैतं स्यातु-साध्ययो । हेतुना चेद्विना सिद्धिद्वैतं वाङ्मावतो न किम् ॥२६॥ (इसके सिवाय यह प्रश्न पैदा होता है कि अवतकी सिद्धि किमी हेतुसे की जाती है या विना किसी हेतुके 'वचनमानसे हो ? उत्तरमें) यदि यह कहा जाय कि अद्वैतको सिद्धि हेतुसे की जातो है तो हेतु (साधन) और माध्य दोको मान्यता होनेसे द्वैतापत्ति बड़ी होती है-पर्वथा अद्वतका एकांत नहीं रहता-और यदि बिना किसी देखके ही सिद्धि कही जाती है तो क्या वचनमात्रसे द्वैतापत्ति नहीं होती?-साध्य पद्धत और वचन, जिसके द्वारा साध्यकी मिद्धिको घोषित किया जाता है, दोनोंके अस्तिबसे अद्वतता स्थिर नहीं रहती । और यह बात तो बनती ही नहीं कि जिसका स्वयं अस्तित्व न हो उसके द्वारा किसी दूसरेके अस्तित्वको सिद्ध किया जाय अथवा उसकी सिद्धिकी घोषणा की जाय । अतः अत एकांतकी किसी तरह भी सिद्धि नहीं बनती, वह कल्पनामात्र ही रह जाता है। अद्वैतं न विना द्वैतादहेतुरिव हेतुना । संज्ञिनः प्रतिषेधो न प्रतिषेच्याहते क्वचित् ॥२७॥ (एक बात और भी बतला देनेकी है और वह यह कि) द्वैतके विना-अद्वैत उसी प्रकार नहीं होता जिस प्रकार कि हेतुके विना अहेतु नहीं होता; क्योंकि कहीं भी संज्ञोका-जामवालेका-प्रतिषेध प्रतिषेध्यके विनाजिसका निषेध किया जाय उसके अस्तित्व-विना नहीं बनता। न शब्द एक संज्ञी है और इसलिये उसके निषेधरूप जो प्रवत शब्द है वह इतके अस्तित्वकी मान्यता-विना नहीं बनता।'प्रकार प्रत एकांतका पक्ष लेनेवाले ब्रह्माद्वैत, संवेदनाद्वैत और शब्दात जैसे मत सदोष एवं बाधित ठहरते हैं। पृथक्त्वैकान्त-पक्षेऽपि पृथक्त्वादपृक्तु तौ। पृथक्त्वे न पृथक्त्वं स्यादनेकस्यो यसौ गुणः ॥२८॥ "पत एकांतमें दोष देखकर) यदि पृथकपनका एकांत पक्ष लिया जाय-यह माना जाय कि वस्तुतत्व पर सरेसे सर्वथा भित है तो इसमें भी दोष माता हे और प्रश्न पैदा होता है कि पृथक्व गुणसे द्रव्य और Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुख्तार श्री जुगलकिशोरजीकी ७८वीं वर्षगाँठ प्रीति-भोजके साथ सम्पन्न जैन समाजके सुप्रसिद्ध ऐतिहामिक विद्वान और सबसे पुराने साहित्य-तपस्वी प्राचार्य श्री जुगलकिशोर जी मुख्तार की श्रायुके ७७ वर्ष पूरे होजाने पर गत मंगशिर सुदी एकादशी संवत २०११, ता० ६ दिसम्बर सन् १९५४ को उनकी ७८वीं वर्षगांठ दि जैन लालमन्दिर-स्थित वीरसंवामन्दिरमें सानन्द मनाई गई, जिसमें प्रीतिभोजको भी सुन्दर प्रायोजन किया गया था। प्रीतिभोजके लिये देहलीके प्रायः सभी गण्यमान जैन बन्धुओंको श्रामन्त्रित किया गया था, जिनमेंसे अधिकांश बन्धुओंने मके माथ भोजमें भाग लिया। अनक सज्जन फूलोंको सुन्दर मालाएं लेकर आए थे और उन्हें मुख्तारश्री के गले में डालकर उन्होंने उनके शतायु होनेकी कामना की थी। इस अवसरपर मुख्तारश्री ने अपने लिये सुरक्षित रखे हुए देहली क्लॉथ मिलक शेयर्समें से ३० शेयर अपने तीनो भताजां-डा० श्रीचन्द बा० रिखबचन्द और बा० प्रद्युम्नकुमारको और १० शयर्स बहन जयवन्तीको दिये। और इस तरह अपने वर्तमान परिग्रहां से तीन हजारसे ऊपरके परिग्रहको कम किया। साथ ही, ४०) रुपये निम्न प्रकारस पत्रादिकाको प्रदान किये - ५) श्री दिगम्बर जैन लालमन्दिर, ११) अंग्रेजी जैनगजट, ११) अनकान्त, ५) अहिसावाणी और वॉइस आफ़ हिमा. २) अहिमा (जयपुर), २) जैनमित्र, २) जैनसन्देश, २) पक्षियोंक अस्पताल को । -परमानन्द जैन आचार्यश्री का दीक्षादिवस प्राचार्य श्री नमिमागरजीका ३०वां दीक्षा समारोह जैन कालेज बडौत (मेरठ) की ओरस सानन्द सम्पन्न होगया। प्राचार्य नमिसागर जी चिरजीवी हों यही हमारी हार्दिक कामना है । समाधितन्त्र और इष्टोपदेश वीरसेवामन्दिरसे प्रकाशित जिस 'समाधितन्त्र' ग्रन्थके लिये जनता असेंसे लालायित थी वह ग्रन्थ इष्टोपदेशके साथ इसी सितम्बर महीनेमें प्रकाशित हो चुका है । आचार्य पूज्यपादकी ये दोनों ही आध्यात्मिक कृतियाँ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। दोनों ग्रन्थ सस्कृत टीकाओं और पं० परमानन्दजी शास्त्रीके हिन्दी अनुवाद तथा मुख्तार जुगलकिशोरजीको खोजपूर्ण प्रस्तावनाके साथ प्रकाशित हो चुका है। अध्यात्म प्रेमियों और स्वाध्याय प्रेमियोंके लिये यह ग्रन्थ पठनीय है। ३५० पेजकी सजिन्द प्रतिका मूल्य ३) रुपया है। दुःखद वियोग !! यह लिम्बने हुए अन्यन्त दुःस्त्र होना है कि लाला जुगलकिशोर जी फर्म धूमीमलधर्मदास जी कागजी चावडी बाजार के ज्येष्ठभ्राता दगेगामल जी का ना० १८ दिसम्बर को मवर बिना किमी ग्वाम बीमारी के स्वर्गवास होगया । यद्यपि उनक दिमागमें कुछ अर्सेस ग्बराबी थी परन्तु व बहुत ही मिलनसार थे। और सबसे प्रति उनका प्रेमभाव था। वे अपने पीछे अच्छा परिवार छोड़ गए हैं। अनेकान्त परिवारकी हार्दिक भावना है कि दिवंगत आत्मा परलोकमें सुख-शान्ति प्राप्त करे और कुटुम्बीजनोंको इप्टवियोग जन्य दुःख सहनेकी कि एवं सामर्थ्य प्राप्त हो। -परमानन्द जैन Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वार्षिक मूल्य ६) वर्ष १३ किरण ६ ॐ अर्हम न क विश्व तत्व-प्रकाशक | नीतिविरोधध्वंसी लोकव्यवहारवर्तकः सम्यक् । परमागमस्य बीजं भुवनैकगुरुर्जयत्यनेकान्त ! वारमेवामन्दिर, C/o दि० जैन लालमन्दिर, चाँदनी चौक, देहली पौप, बीर नि० संवत् २४५१ वि० संवत् २०११ एक किरण का मूल्य II) दिसम्बर १६५४ समन्तभद्र-भारती देवागम हेतोरद्वैत-सिद्धिश्चेद्द्वैतं स्याद्ध ेतु-साध्ययोः । हेतुना चेद्विना सिद्धिद्वैतं वाङ्मात्रतो न किम् ||२६|| ' (इसके fare यह प्रश्न पैदा होना है कि इतकी सिद्धि किसी हेतुसे की जाती है या विना किसी हेतुके 'वचनमात्रसे ही ? उत्तरमें) यदि यह कहा जाय कि अद्वैतकी सिद्धि हेतुसे की जानी है तो हेतु (साधन ) और माध्यदोको मान्यता होनेसे द्वैनापति खड़ी होती है-पर्वथा श्रतका एकांत नहीं रहता और यदि बिना किसी हेतु ही सिद्धि कही जाती है तो क्या ववनमात्र से द्वैतापत्ति नहीं होती ?-- साध्य श्रद्धत और वचन, जिसके द्वारा rathata किया जाता है, दोनोंके अस्तिम्बसे श्रद्धतता स्थिर नहीं रहती। और यह बात तो बनती ही नहीं कि जिसका स्वयं अस्तित्व न हो उसके द्वारा किमो दूसरेके अनिवको सिद्ध किया जाय अथवा उसकी सिद्धिकी घोषणा की जाय । श्रतः श्रत एकांतकी किसी तरह भी मिन्द्धि नहीं बनतो, वह कल्पनामात्र ही रह जाता है ।" श्रद्वैतं न विना द्वैतादहेतुरिव हेतुना । संज्ञिनः प्रतिषेधो न प्रतिषेध्याहते क्वचित् ||२७|| ' (एक बात और भी बतला देनेकी है और वह यह कि द्वैत के विना अद्वैत उसी प्रकार नहीं होता जिस प्रकार कि हेतुके विना हेतु नहीं होता; क्योंकि कहीं भी संज्ञीका - नामवालेका-प्रतिषेध प्रतिषेध्य के विनाजिसका निषेध किया जाय उसके अस्तित्व-विना नहीं बनता । द्वत शब्द एक संज्ञी है और इसलिये उसके निषेधरूप जो शब्द है वह इतके अस्तित्वको मान्यता- विना नहीं बनता ।'-- [इस प्रकार अद्भुत एकांतका पक्ष लेनेवाले ब्रह्माद ेत, संवेदनाद्व ेत और शब्दात जैसे मत सदोष एवं बाधित ठहरते हैं । ] पृथक्त्व कान्त-पक्षेऽपि पृथक्त्वादपृक्तु तौ । पृथक्त्वे न पृथक्त्वं स्यादनेकस्यो हासौ गुणः ॥२८॥ ' (अत एकांत में दोष देखकर) यदि पृथकपनका एकल पक्ष लिया जाय-- यह माना जाय कि वस्तुतस्व एक दूसरेसे सर्वथा भिन्न है तो इसमें भी दोष भाता है और प्रश्न पैदा होता है कि पृथक्त्व गुणसे द्रव्य और Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुण पृथक हैं, या अपृथक ? यदि अप्रथक हैं तब तो पृथक्त्वका एकांत ही न रहा- वह बाधित हो गया । और यदि प्रथक है तो पृथक्त्व नामका कोई गुण हो नहीं बनता (जिसे वैशेषिकोंने गुणोंकी २४ संख्यामें अलग गिनाया है ) क्योंकि वह एक होते हुए भी अनेकों में स्थित माना गया है और इससे उसकी कोई पृथग्गति नहीं हैपृथक् रूपमें उसकी स्थिति न तो दृष्ट है और न स्वीकृत है अतः पृथक् कहने पर उसका प्रभाव ही कहना होगा ।' [ यह कारिका वैशेषिकों तथा नैयायिकों के पृथक्त्वैकांत पक्षको लक्ष्य करके कही गई है, जो क्रमशः ६ तथा १६ पदार्थ मानते हैं और उन्हें सर्वथा एक दूसरेसे पृथक् बतलाते हैं। अगली कारिकामें क्षणिकान्तवादी बौद्धोंके पृथक्त्वकांत । संतानः समुदायश्च साधर्म्यश्च निरंकुशः । प्रेत्य भावश्च तत्सर्वं न स्यादेकत्व - निन्दवे ॥२६॥ 'यदि एकत्वका सर्वथा लोप किया जाय - पामाम्य, मादृश्य, तादात्म्य अथवा सभी पर्यायोंमें रहने वाले द्रव्यत्वको न माना जाय तो जो संतान, समुदाय और साधर्म्म तथा प्रेत्यभाव ( मर कर परलोकगमन ) निरंकुश है - निबंध रूपसे माना जाता है-वह स नहीं बनता - प्रर्थात् क्रमभावी पर्यायों में जो उत्तरोत्तर परिणाम प्रवाहरूप अन्वय है वह घटित नहीं होता, रूप-रसादि जैसे सहभावी धर्मोंमें जो युगपत् उत्पाद-व्ययको लिये हुए एकत्र अवस्थानरूप समुदाय है वह भी नहीं बनता, सहधर्मियों में समान परिणामको जो एकता है वह भी नहीं बनती और न मरकर परलोकमें जाना अथवा एक हो जीवका दूसराभव या शरीर धारण करना ही बनता है। इसी तरह बाल-युवा-वृद्धादि अवस्थाओं में एक हो जीवका रहना नहीं बनता और (चकार से) प्रत्याभिज्ञान जैसे सादृश्य तथा एकत्वके जोढरूप ज्ञान भी नहीं बनते ।' सदात्मना च भिन्नं चेज्ज्ञान ज्ञेयाद् द्विधाऽप्यसत् । ज्ञानाऽभावे कथं ज्ञेयं वहिरन्तश्च ते द्विषाम् ||३०|| ' (इसी तरह) ज्ञानको (जो कि अपने चैतन्यरूपसे शेय- प्रमेयसे पृथक है) यदि सत्स्वरूपसे भी ज्ञेयसे पृथक् माना जाय - अस्तित्वहीन स्वीकार किया जाय - तो ज्ञान और ज्ञेय दोनोंका हो अभाव ठहरता है - ज्ञानका अभाव तो उसके अस्तित्व-विहीन होनेसे हो गया और शेयका अभाव - ज्ञानाभावके कारण बन गया; क्योंकि ज्ञानका जो विषय हो उसे ही ज्ञेय कहते हैं - ज्ञानके अभाव में बाह्य तथा अंतरंग किसी भी ज्ञेयका अस्तित्व ( हे वीर जिन !) आपसे द्वेष रखनेवालोंके यहाँ — सर्वथा पृथक्त्वैकांतवादी वैशेषकादिकों के मनमें— कैसे बन सकता है ? --उनके मतमें उसकी कोई भी समीचीन व्यवस्था नहीं बन सकती । सामान्याऽर्था गिरोऽन्येषां विशेषो नाऽभिलप्यते । सामान्याऽपावतस्तेषां मृषैव सकला गिरः ॥ ३१ ॥ 'दूसरों के यहाँ - बौद्धों मतमें - वचन सामान्यार्थक हैं; क्योंकि उनके द्वारा (उनकी मान्यतानुसार) विशेषका - याथात्म्यरूप स्वलक्षणका - कथन नहीं बनता है । ( वचनों के मात्र सामान्यार्थक होने से वे कोई वस्तु - नहीं रहते - बौद्धों के यहाँ उन्हें वस्तु माना भी नहीं गया और विशेषके अभाव में सामान्यका भी कहीं कोई aer नहीं बनता ऐसी हालत में सामान्यके भी प्रभावका प्रसंग उपस्थित होता है ) सामान्यका अवस्तुरूप अभाव होने से उन (बौद्धों) के सम्पूर्ण वचन मिध्या ही ठहरते हैं - ये वचन भी सत्य नहीं रहते जिन्हें वे सत्यरूपसे प्रतिपादन करते हैं ।" विरोधानोभयैकात्म्यं स्याद्वादन्याय-विद्विषाम् । श्रवाच्यतैकां तेऽप्युक्तिर्नाऽवाच्यमिति युज्यते ॥ ३२ ॥ ' (अद्वैत और पृथक्त्व दोनों एकांतोंकी अलग-अलग मान्यतामें दोष देखकर) यदि अद्वैत (एक) और पृथक्त्व दोनोंका एकात्म्य (एकांत) माना जाय तो स्याद्वाद न्याय के विद्वेषियों के यहाँ उन लोगोंके मतमें जो पृथक्त्वादि सप्रतिपक्ष धर्मोमें पारस्परिक अपेक्षाको न मानकर उन्हें स्वतंत्र धर्मोंके रूपमें स्वीकार करते हैं और इस तरह स्याद्वाद न्यायके शत्रु बने हुए हैं वह एकात्म नहीं बनता ( उसी प्रकार जिस प्रकार कि अस्तित्व- नास्तित्वका एकात्म नहीं बनता ); क्योंकि उससे (वन्ध्या पुत्रकी तरह ) विरोध दोष आता है - श्रद्व तेकांत पृथक्त्वैकांतका और पृथक्त्वकांत कांता सर्वथा विरोधी होनेसे दोनों में एकात्मता घटित नहीं हो सकती ।" '(अद्वैत, पृथक्त्व और उभय तीनों एकांतोंकी मान्यतामें दोष देखकर ) यदि अवाच्यता (अवक्रन्यता ) एकांत को माना जाय -- यह कहा जाय कि वस्तुतत्त्व एकत्व या पृथक्त्वके रूपमें सर्वथा अवाच्य (अनिर्वचनीय या श्रवक्रव्य है - तो 'वस्तुतत्त्व 'अवाच्य है' ऐसा कहना भी नहीं बनता - इस कहनेसे ही वह 'वाच्य' हो जाता है, अवाच्य नही रहताः क्योंकि सर्वथा 'अवाच्य' की मान्यतामें कोई वचन व्यवहार घटित ही नहीं हो सकता ।" — 'युगवीर' Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश भाषाका जंबूसामिचरिउ और महाकवि वीर ( परमानन्द जैन शास्त्री ) भारतीय साहित्य में जैन-वाङ्मय अपनी खास विशेषता रखता है। जैनियोंका साहित्य भारतको विभि भाषाओं में देखा जाता है । संस्कृत, प्राकृत, अर्धमागधी शौरसेनी, महाराष्ट्री, अपभ्रंश, तामिल, तेलगू, कनाड़ी, हिन्दी, मराठी, गुजराती, राजस्थानी और बंगला आदि विविध भाषाओं में ऐसी कोई प्राचीन भाषा अवशिष्ट नहीं है जिसमें जैनसाहित्यकी सृष्टि न की गई हो। इतना ही नहीं अपितु दर्शन, सिद्धान्त, व्याकरण, काव्य, कोप, वैद्यक, ज्योतिष, छन्द, अलंकार, पुराण, चरित तथा मंत्र तंत्रादि सभी विषयों पर विपुल जैन साहित्य उपलब्ध होता है । यद्यपि राजविप्लवादिकं कारण बहुतमा प्राचीन साहित्य विनष्ट हो गया है फिर भी जो कुछ प्रथमं दीमका रह गया है उसकी महानता और विशालता स्पष्ट है । जैनियोंकि पुरा चरित एवं कबान्थोंका निर्माण अधिकतर अपभ्रंश भाषामें हुआ है। वहाँ अपभ्रंश भाषा ११वीं शादी एक चरित प्रन्थका उसके कर्तादिके साथ परिचय देना ही इस लेखका प्रमुख विषय है। इस भाषाका अभी तक कोई इतिहास नहीं लिखा गया, जिससे इस विषय में निश्चितरूपसे कुछ नहीं कहा जा सकता । पर यह कहनेसें संकोच भी नहीं होता कि इस भाषाका साहित्य विक्रमकी छडी शब्द १७वीं शताब्दी तक निर्मित होता रहा है। परन्तु जिस समय इस ग्रन्थकी रचना हुई है वह इम भाषाका मध्यान्हकाल था। मुझे इस भाषा अनेक प्रत्योकि देखनेका सुअवसर मिला है। उससे स्पष्ट फलित होता है कि उस कालमें और उसके पश्चाद्वर्ती समय में विविध प्रन्य रचे गए हैं जिनका साहित्य-संसार में विशिष्ट स्थान है और साहित्यिक जगतमें उनके सम्मानित होनेका स्पष्ट संकेत भी मिलता है। भाषामें मधुरता सौष्ठवता, सरसता, अर्थगौरवठा और पलाहित्यकी कमी नहीं है। यही इसकी लोकप्रियता निर्देशक हैं। प्रस्तुत ग्रन्थका नाम 'जंबूसामीचरिड' जम्बूस्वामी चारित है। इसमें जैनियोंकि अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीरके बाद होने वाले अन्तिम केवल स्वामीचे जीवनचरित tear चित्रण किया गया है। यह ग्रन्थ उपलब्ध साहित्य में अपभ्रंश भाषाका सबसे प्राचीन चरितग्रन्थ है। अब तक इससे पुरातन कोई चरित ग्रन्थ, जिसका स्वतन्त्ररूपमें निर्माण हुआ हो, देखनेमें नहीं आया। हां, आचार्य 'बुणभद्र और महाकवि पुष्पदन्तके उत्तरपुरायामें जंबुस्वामी के चरित्रपर संक्षिप्त प्रकाश डाला गया है। श्वेताम्बरीय सम्प्रदाय में भी जंतूस्वामीके जीवनपरिचायक ग्रन्थ लिखे गए हैं। जैन 'प्रथापली' से मालूम होता है कि उन सम्प्रदाय में 'जम्पयचा' मामका एक ग्रन्थ है जो डेक्कन कालेज पूनाके भण्डारमें विद्यमान है । आचार्य हेमचन्द्रने अपने परिशिष्ट पर्य जंबूस्वामीके चरितका संचित चित्रण किया है और १२वीं शताब्दी के विद्वान् जयशेखसूरिने ७२६ पथोंमें अंधूस्वामीके चरित्रका निर्माण किया है, इसके सिवाय पद्मसुन्दर आदि विद्वानोंने भी उसपर प्रकाश डाला है इनमें 'जंबूपयक्षा' का काल अनिश्चित है और वह ग्रन्थ अभी तक भी प्रकाशमें नहीं आया है। इसके सिवाय, शेष सब ग्रन्थ प्रस्तुत - स्वामी चरित अर्वाचीन है-बादकी रचनाएं हैं। उभय सम्प्रदायके इन चरितग्रन्थोंमें वर्णित कथामें परस्पर कुछ मेद जरूर पाया जाता है जिसपर यहां प्रकाश डालना उचित नहीं है। ग्रन्थका विशेष परिचय इस ग्रन्थका दूसरा नाम 'श्रगारवीर महाकाव्य' भी है। कविने स्वयं ग्रन्थकी प्रत्येक सन्धि-पुष्पिकाओंमें उतनाम व्यक्त किया है । और साथ ही इस काव्यको 'महाकाव्य' भी सूचित किया है जो उसके अध्ययनसे सहज ही परिक्षित होता है । ग्रन्थमें ११ संधियों अथवा अध्याय हैं जिनमें उक्त चरितका निर्देश किया गया है। इस चरितन्यके चित्रामें कविने महाकाव्यों में विहित रस, छल्कारोंका वह सरस वर्णन करके ग्रन्थको अत्यन्त आकर्षक और पठनीय बना दिया है। कथाके पात्र भी उत्तम हैं जिनके जीवनपरिचयसे ग्रन्थकी उपयोगिताको अभिवृद्धि हुई है। श्रृंगार, वीररम और शान्तरसका यत्र-तत्र विवेचन दिया हुआ है, प्रयोग भी दो प्रकारका पाया जाता है एक चमत्कारिक दूसरा कहीं-कहीं 'गारमूलक वीर रस है। प्रथमें स्वाभाविक प्रथमका उद्धरण निम्न प्रकार है : ड्य जंबू सामिचरिए सिंगारवीरे महाकवे महाकह देवयत्तस्य 'वीर' विरइए सामि उत्पत्ती कुमार- विजय नाम चडत्यो संधी समतो 1 Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५.1 अनेकान्त, वर्षे १३ "भारह-रण-भूमिव स-रहभीम,हरिप्रज्जुण रणउलसिहंडिदीस 'अक्क मियंक सक्ककंपावणु, गुरु३ बासस्थाम कलिंगचार, गयगज्जिर४ ससर महीससार । हा मुय सीयह कारणे रावणु । खंकायापरी वस-रावणीयर, चंदणपहिः चार कलहावरणीय।' दलियदप्प दप्पिय मइमोहणु, सपलास सकंचण अक्खघट्ट,स विहीसणम्कइकुल फल रमह । कवणु अणत्थु पत्तु दोज्जाहणु। इन पद्योंमें विंध्याटवीका वर्णन करते हुए श्लेष प्रयो तुज्झ ण दोसु दइव किउ घावइ. गमे दो अर्थ ध्वनित होते हैं-स-रह-रथ सहित और एक अणउ करंतु महावइ पावइ । भयानक-जीव हरि-कृष्ण और सिंह, अर्जुन और वृक्ष, जिह जिह दंड करंविउ जंपइ, नहुल और नकुल जीव, शिखंडि और मयूर आदि । तिह तिह खेयरू रोसहिं कंपइ । घट्ट कंठसिरजालु पलित्तउ, प्र-थकी इस पांचवीं संधिसे श्रृंगार मूलक वीररसका चंडगंड पासय पसित्तउ। प्रारम्भ होता है । केरलनरेश मृगांककी पुत्री विलासवतीको दट्ठाहरु गुंजजलुलोयणु, रत्नशेखर विद्याधरसे संरक्षित करनेके लिए जंबूकुमार अकेले पुरु दुरतणासउड भयावणु । ही युद्ध करने जाते हैं। युद्ध वर्णनमें कविने वीरके स्थायीभाव पेक्खेवि पहु सरोसु सरणामहि, 'उत्माह' का अच्छा चित्रण किया है । पीछे मगधके शासक वुत्तु वोहरू मंतिहिं तामहि । श्रेणिक या बिम्बसारकी सेना भी सजधजके माथ युद्धस्थल में अहोअहा हृयहूय सासस गिर, पहुँच जाती है, किन्तु जम्बूकुमार अपनी निर्भय प्रकृति और जंपइ चावि उद्दण्ड गम्भिउ किर । असाधारण धैर्य के साथ रत्नशेखरके साथ युद्ध करनेको प्रोत्ते अण्णहो जीहएह कहो वग्गए, जन देनेवाली वीरोक्रियाँ भी कहते हैं तथा अनेक उदात्त भाव खयर वि सरिस णरेस हो अग्गए। नामोंके साथ सैनिकोंकी पत्नियां भी युद्ध में जानेके लिये उन्हें भणइ कुमारू, एहु रइ-लुद्धउ, प्रेरित करती हैं । युद्धका वर्णन कविके शब्दोंमें यों पढ़िए । वसण महएणवि तुम्हहि छुद्धउ । रथसमन्विता भीसा भयानका , विध्याटवीपक्षे रोसंते रिउहि यच्छु वि ण सुरणइ, सरभैरप्टापदैर्भयानका। २ वासुदेवादयः दृश्याः, विंध्याटव्यां कज्जाकज्ज बलाबलु ण मुणइ ।' हरिः सिंहः, अर्जुनो वृक्षविशेषः वकुलः प्रसिद्धः सिखंडी युद्ध में रोषाविष्ट होनेके कारण योद्धा कभी कार्य-अकार्यमयूरः । ३ भारतरण-भूमौ गुरु द्रोणाचार्यः तत्पुत्रः अश्व- का विक नहीं करता, रोषकी तीव गरिमास विवेक जोलुप्त हो त्थामा, कलिंगा कलिंगदेशाधिपतिः राजा एतेषां चारा श्रेष्टाः जाता है। इस तरह युद्ध भयंकर होता है और विद्याधर विंध्याटम्यां गुरुः महान्, श्रावन्यः पिप्पलः बामः पादः विद्याबलसे माया युद्ध करता है, कभी झंझावायु चलती है कलिंगवल्यचारः वृक्षविशेषाः । ४ भारतरणभूमौ गजर्जित- कभी प्रलय जल वरसता है, और रत्नशेखर विद्याधर राजा ससरबाणसमन्विताः महीसाः राजानः तैः साराः भवंति, मृगांकको अपना बन्दी बना लेता है, परन्तु जम्बूकुमार युद्ध विंध्याटव्यां तु गजगजिराः ससरा सरोवरसमन्यिताः महीससा- करत करते हुए मृगांकको बन्धनसे मुक्त कर लेता है, विद्याधरोंको स महिषा सारा यस्यां । ५ रावणसहिता पक्षे रयणवृत्त पराजित कर भगा देता है । इस तरह जम्बूकुमारकी वीरता सहिता ६ लंकानगरी चन्द्रनखा चारेण चेष्टाविशेषण कलह . और पराक्रमको देखकर अानदातिरेकस नारद नाचने लगताहै । कारिणीपक्षे चन्दनवृक्षविशेषः मनोज्ञलघुहस्तिभियुका। इतनेमें विद्याधर गगनगति प्रकट होता है और वह ७ पलासैः राक्षसै. युका सकांचन अक्षयकुमारो रावणपुत्र राजा मृगांकसे कुमारका परिचय कराता है । इस तरह इस तेन युक्रा, पक्षे पलापवृक्ष सकांचन मदनवृक्ष अक्ष विभीतकवृक्षा सन्धिमें वीररसके निर्देशानन्तर ही शृंगार रसका अवतरण ते तका यत्र । ८ लंकानगरी विभीषणेन कपीना बानराणां हो जाता है। अर्थात् राजा मृगांक कुमारको केरल नगरी कुलैः समन्विता, फलानि रसाख्यानि यत्र-नानाभयानकानां दिखाता है, नगरकी नारियाँ कुमारको देखकर विलासवतीके बानराणां संघातैः फलरसाच्या च। जीवनको धन्य मानती है, और कुमारका विलासवतीके साथ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण अपभ्रंश भाषाका जंबूसामिचरिउ और सहाकवि वीर [१५१ - विवाह भी हो जाता है। इस तरह श्वीश्वों संधियोंमें युद्धा- करना साधुनोंका कर्तव्य है। और सब साधुगण निश्चल दिका वर्णन किया गया है, जो कान्यकी दृष्टिसे प्रत्युत्तम है। वृत्ति हो वहां स्थिर होकर तपश्चर्या में उग्रत हो गए । रात्रि कविने ग्रन्थमें केवल जम्बूस्वामीका ही जीवन परिचय में वहाँ भयंकर उपसर्ग हुए-भयानक रूपधारी भूतपिशाचोंने नहीं दिया है किन्तु विद्य चर चोरका भी संक्षिप्त जीवन घोर उपसर्ग:किये, वेदनाएं पहुंचाई, उन साधुगोंने दंशमसपरिचय देते हुए उसका जम्बूस्वामीके साथ अपने पांचसौ कादिकी उन असहनीय वेदनाओंको सहते हुए चार प्रकारके साथियों सहित दीक्षा लेने द्वादश भावनाओं को भाने और सन्यास द्वारा निम्पृह रत्तिसे शरीर छोड़े। विद्यु रचर सर्वायथेष्ट मुनिधर्मका प्राचरण करते हुए तपश्चर्या करनेका थसिद्धि गये और अन्य साधुओंने भी अपने अपने परिणामाउल्लेख भी किया है और उसके फलसे उसे सर्वार्थसिद्धिको नुसार गति प्राप्त की। उस समय विद्यु च्चरने अनित्यादि प्राप्त करना बतलाया है । और तपश्चर्याक समयको एक बारह भावनाओंका चिन्तन किया, कविने उनका बहुत हीx खास घटनाका उल्लेख भी क्रिया है जो इस प्रकार है :- संक्षिप्त स्वरूप दिया है और बताया है कि गिरनदीके पूर और सुधर्मस्वामी निर्वाण और जम्बूस्वामीको केवलज्ञान पके हुए फलके समान यह मानव जीवन शीघ्र ही टूटने वाला तथा परिनिर्वाणके अनन्तर ग्यारह अंगधागे विद्य रचर ससंघ है। म जुलिजलके समान जीवन अनित्य है अल्मा अजर विहार करता हुआ ताम्रलिप्ति में पहुँचा और नगरके समीप अमर है, दर्शन-ज्ञान-चारित्र अपनी निधि हैं, उन्हींकी प्रगतिउद्यानमें ठहरा, सूर्यास्त हो चुका था, इतनेमें वहां कंकालधारी का उद्यम करना चाहिए | जिस तरह हरिणको सिंह मार कंचायण भद्रभारी नामक एक पिशाच पाया और उसने देता है उसी तरह जीवन कालके द्वारा कवलित हो जाता है । विद्यु चरसे कहा कि आजसे पांच दिन तक यहां मेरी यात्राका जितना जिसका श्रायुकर्म है वह उतने समयतक भोग भोगता महोसव होगा, उसमें भूत समूह आवेंगे और उपद्रव करेंगे और दुख उठाता रहता है, परन्तु संसारसे तरनेका उपाय अतः श्राप कहीं नगरमें अन्यत्र चले जाय, यहां यह कहना महीं करता, जिनशासन हो शरण है और वही जीवको उससे उचित नहीं है. विधु चरने अन्य साधुओंसे पूछा, साधुओंने पार कर सकता है। अतः हमें जिनशासनकी शरण लेकर कहा कि सूर्यास्तके ममय हम कहीं नहीं जासकते, उपसर्ग महन आत्मकल्याण करना चाहिए। इस तरह उनका विवेचन किया है वह सब लेख वृद्धिके भयस नहीं दिया जा रहा है। उप.इस घटनाका उल्लेख पांडे राजमल्लजीने मथुराम सर्गादिका वर्णन कविके निम्न उल्लेखसे स्पष्ट है:होना सूचित किया है। उन्हें इसका क्या श्राधार मिला था। घत्तायह कुछ ज्ञात नहीं होता, बुध हरिषेणने अपने कथा कोपमें अह सवणसंघ सजउ पवरु एयारसंगधर विज्जुचरु । वीरकविके समान इस घटनाके ताम्रलिप्तिमें घटित होनेका विहरंतु तवेण विराइउ पुरे तामलित्ति संपराइयउ ।।२४ उल्लेख किया है। (देखो० श्लोक ६६ से ७२)। नयराउनियडे रिसिसंघे थक्के, ब्रह्म नेमिदन्तके कहे अनुसार ताम्रलिप्ति नामका अथवणहो टुक्कए सूरे चक्के एक प्राचीन नगर गौडदशमें था। यह नगर बंगदेशके अह आय ताम कंकालधारि, व्यापारका मुख्य केन्द्र बना हुआ था। यह प्रसिद्ध बन्दरगाह कंचायणनामें भद्दमारि । था । यह जैनसंस्कृतिका महत्वपूर्णकेन्द्र रहा है। प्राचार्य आहासय सिविणय दिवस पश्च, हरिषेणने अपने कथाकोषमें इसका कई स्थलों पर उल्लेख महु जत्त हवेसई सप्पवंच। किया है। उससे भी यह जैनसस्कृतिका केन्द्रस्थल आवंतिय भूयावलि रउद्द, - जान पड़ता है विधु वर महामुनिने अपने पांचसौ साथियोंके उक्सग्गकरेसइ तुम्ह खुद्द । साथ इसी नगरके उद्यानमें भूत-पिशाचोंके भयानक दंशमश x अथविद्यु चरो नाम्ना पर्यटकह सन्मुनिः। कादि उपद्रवोंको सहकर उत्तमस्थानकी प्राप्ति की थी। यह एकादशांग विद्यायामधीती विदधत्तपः ॥१२५ नगर कब और कैसे विनष्ट हुआ, इसका इतिवृत्त प्रकाशमें अथान्येद्यः स निःसंगो मुनिपंचशतवृतः। लाना चाहिए । वर्तमानमें मेदिनीपुर जिलेका होतमुलक मथुरायां महोचानप्रदेशेवगमन्मुदा ॥१२॥ नामक स्थान ताम्रलिप्ति कहा जाता है। अम्बस्वामीवित Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष १३ इय कज्जें अएणहि कहिमि ताम, परन्तु हरिषेण कथाकोशके निम्न पथमें उनका निर्वाण पुरिमेल्लिवि गच्छह जन्त जाम । होना बतलाया है। जो विचारणीय है। गय एम कहे वि तो जयवरेण, नाना दंशोपसर्ग तं सहित्वा मेरुनिश्चलः। मुणि भणिय एम वि ज्जुच्चरेल । विद्युच्चरः समाधानानिर्वाणमगमद्र तम ।।७।। लइ जाहु पमेल्लहु एह यत्ति, परन्तु अपने जम्बूस्वामिचरितमें कवि राजमलजीने तो तेहि चविउ परिगलिउ रत्ति। सर्वार्थसिन्हिमें जाने का ही उल्लेख किया है। वीहतह कोकिर धम्मलाहु, इस चरित्रग्रन्थकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उवसग्ग सणु साहूण साहु। जम्यू स्वामीकी नवपरिणीता चारों पत्नियां-कमलश्री, इय वयणु दिढव सव्वे वि थक्क, निक्कंपिर निवमु करिवि थक्कु । कनकश्री, विनयश्री, और रूपश्री, कथा प्रसंगसे भी जम्बू. स्वामीको राग उत्पन्न करनेमें समर्थ नहीं हो सकी, और संजाय रबणि मसिकसण पह, अंधारिय दसदिसि कूरगह इसमें आधी रातका समय व्यतीत हो गया। नगरमें घूमता गयणंगगुयहिएक्काहमिलइ, खयकालसरिमु जगुरुमुगिलइ 3 हुआ विद्यु स्चर चोर जम्बूस्वामीके घर पहुंचता है, जम्बू समुद्धाइया ताम भिउडी कराला, कुमारकी माता शिवदेवी उस समय तक सोई नहीं थीं। कपालेसु पसरंत कीलाललीला। उसने विद्यु चरसे जम्बूके वैराग्यकी बात कही, तब विद्यु श्वरसमुल्ला लवंता महा मासखंडा ने उसके सामने यह प्रतिज्ञा की कि वह या तो जम्बूकुमारके स-धूमग्गि पसुक्क फेक्कार चंडा। हृदयमें विषय-रति उत्पन्न कर देगा, और नहीं तो स्वयं उसके साथ दीक्षा ले लेगा । जैसा कि उसके निम्न वाक्यसे गलाबद्ध कंकालवेयाल-भूया । कयाणेय दुप्पिच्छ वीहत्थरूपा । प्रकट है:थिया केवि मसिया लहुं वडयमारणा, बहु वयण-कमल-रसलंपुड भमरु कुमारु ण जद्द करमि। तहा मंकुणा केवि कुक्कड पमाणा। आएण समाणु विहाणए तो तब चरणु हविसरमि।।१६ रिसोणं सरीराण बाउं पउत्ता, अर्थात् वनों वदन कमलमें कुमारको रस लंपट-भ्रमर सहंताण ते वेयणं जोयचत्ता। यदि नहीं करूं तो मैं भी इसीके समान प्रातः काल पर्य पंति दुक्खं सहेङ गरिह तपश्चरण ग्रहण करूंगा। अहो तप्पलं के कत्थेव दिव। ग्रन्थकी दशवी सन्धीमें जम्बू और विद्यु च्चरके कई अधीरातो केवि मुणिणो अयाणा, मनोहर पाख्यान हुए है, परन्तु उनसे भी जम्बू कुमारके तणुकुंडयं ताव राया पलाणा । वैराग्यपूर्ण हृदयमें रागका प्रभाव अंकित नहीं हो सका है। सरे केवि कूवम्मि बीया हु वासि, उममें जम्बूने विषय-भागोंको निःसार बतलाया और विद्यविवरणा पडेऊण तरुवेल्लियासि । रचरने वैराग्यको निरर्थक बतलानेका भारी माहस किया है ठिओ नवर विजुच्चरो जो बलीणो, पर वह जम्बूको अपने कथनसे आकर्षित करने में किसी तरह महाघोर उवसग्ग सग्गे श्रदीणो। भी समर्थ नहीं हो सका, और उसके साथ ही दीक्षा लेनेके पत्ता लिये विवश हुआ । इस तरह ग्रन्थका चर्चित कथन बदाही सरणासु चउव्विहु संगहे विवयखग्गे मोहवइरिवडेवि। मार्मिक और अत्यन्त रोचक बन पड़ा है, यह कविकी संठिउ राहण सुद्धमणु एक्कल वीरु इंदियदवरण ।।२६ आन्तरिक विशुद्धताका ही प्रभाव है। (संधि १०) ग्रन्थ रचनाको महत्ताइस घोर उपसर्गको सहकर विद्य च्चर महामुनि समाधि ग्रन्थकी रचना किसी भी भाषामें क्यों न की गई हो, मरण द्वारा सर्वार्थ सिद्धिको प्राप्त करते हैं। परन्तु उस भाषाका प्रौद विद्वान कवि अपनी आन्तरिक Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ६] अपभ्रंश भाषाका जंबूसामिचरिव और महाकवि वीर राजधानी रायगिह' (राजगृह ) कहलाती सरस्वत्यप्याग्निगदनविधौ विशुद्धता, चयोपशमकी विशेषता और कवित्व शलिसे उस उसके बाद दोनोंमें मतभेद पाया जाता है । जम्बूस्वामी प्रन्थको इतना प्राकर्षिक बना देता है कि पढ़ने वाले व्यक्केि अपने समयके ऐतिहासिक महापुरुष हुए हैं। ये कामके हृदयमें उस ग्रन्थ और उसके निर्माता कविके प्रति आदर असाधारण विजेता थे। उनके लोकोत्तर जीवनकी पावन भाव उत्पन्न हुप बिना नहीं रहता। ग्रन्थको सरस और झोंकी ही चरित्र-निष्ठाका एक महान भादर्श रूप जगतको साशकार बनाने में कविकी प्रतिभा और पान्तरिक चित्त- प्रदान करती है। इनके पवित्रतम उपदेशको पाकर ही शुद्धि ही प्रधान कारण है। विद्युच्चर जैसा महान् चोर भी अपने चौरकर्मादि 'जिन कवियोंका सम्पूर्ण शब्दसन्दोहरूप चन्द्रमा 'दुष्कर्मोंका परित्यागकर अपने पांचसौ योदामोंके साथ मतिरूप स्फटिकमें प्रतिविम्बत होता है उन कवियोंसे भी महान् तपस्वियोंमें अग्रणीय तपस्वी हो जाता है और व्यंतऊपर किसी ही कविकी बुद्धि क्या अदृष्ट अपूर्व अर्थमें स्फरित रादि कृत महान् उपसौको ससंघ साम्यभावसे सहकर नहीं होती है ? जरूर होती है। सहिप्ताका एक महान प्रादर्श उपस्थित करता है। स कोप्यंतर्वेद्यो वचनपरिपाटी गमयतः उस समय मगध देशका शासक राजा भेशिक था, - जिसे विम्बसार भी कहते हैं। उसकी राजधानी 'रायगिह' कवेः कस्याप्यर्थः स्फुरति हृदि वाचामविषयः। (राजगृह) कहलाती थी, जिसे वर्तमानमें लोग राजगिरके सरस्वत्यप्यर्थानिगदनविधौ यस्य विषमा- नामसे पुकारते हैं। प्रन्यकर्ताने मगधदेश और राजगृहका मनात्मीयां चेष्टामनुभवति कष्टं च मनुते॥ वर्णन करते हुए, और वहाँके राजा श्रेणिकका परिचय देते अर्थात् काव्यके विषम अर्थको कहनेमें सरस्वति भी हुए, उसके प्रतापादिका जा सॉरप्त वणन किया है, उस अनारमीय चेप्टाका अनुभव करती है और कष्ट मानती है। तीन पथ यहाँ दिये जाते हैंकिंतु वचनकी परिपाटीको जनाने वाले अन्तर्वेदी किसी कविके 'चंड भुजदंड स्वसिय पयंडमंडलियमंडली वि सड्ढ़ें। हृदय में ही किसी-किसी पद्य या वाक्यका अर्थ स्फुरायमान धारा ग्वंडण भीयत्व जयसिरी वसइ जस्स खरगंके ॥१॥ दोता है, जो वचनका विषय नहीं है। लेकिन जिनकी रे रे पलाह कायर मुहई पेक्खइन संगरे सामी। भारती (वाणी) लोकमें स्पष्ट रसभावका उद्भावन तो इय जस्स पयावधोमणाप विहडंति वइरिणो दूरे ॥२॥ करती है परन्तु महान प्रबन्धक निर्माणमें स्पष्ट रूपसे जस्स रक्खिय गोमडलस्म पुरसुत्तमस्स पद्धाए। विस्तृत नहीं होती, ग्रन्थकारको दृष्टिमें, वे कवीन्द्र ही के के मवा न जाया समरे गय पहरणा रिउणो ।।३।। नहीं है +। अर्थात् जिनके प्रचंड भुजदंडके द्वारा प्रचंड मांरखिक प्रस्तुत ग्रन्थकी भाषा बहुत प्राञ्जल, सुबोध, मरम राजाश्रांका समूह बंडित हो गया है, ( जिसने अपनी और गम्भीर अर्थकी प्रतिपादक है और इसमें पुष्पदन्नादि भजाांक बलगे मांडलिक राजाओंको जीत लिया है) महाकवियोंक काव्य-ग्रन्थोंकी भाषाके समान ही पीढता और और धाग-बंडनके भयसे ही मानो जयश्री जिसके खाकमें अर्थगौरवकी छटा यत्र-तत्र दृष्टिगोचर होती है। बमती है। जम्बूस्वामी अन्तिम केवली हैं । इसे दिगम्बर- राजा श्रेणिक संग्राममें युद्धमे मंत्रस्त कायर पुरुषोंका श्वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदाय निर्विवाद रूपसे मानते हैं और मुग्य नहीं देखते, रे, रे कायर पुरुषो! भाग जाश्रो'-इस भगवान महावीरके निर्वाणसे जम्बूस्वामीके निर्वाणतककी - परम्परा भी उभय सम्प्रदायों में प्रायः एक-सी है, किन्तु x दिगम्बर परम्परामें जम्बूस्वामीके पश्चात् विष्णु, नन्दी मित्र, अपराजित, गोवर्द्धन और भद्रबाहु ये पाँच * 'जाणं समग्गसंदोह ब्मेंदु उरमइ मइ फडक्कमि | श्रुतकेवली माने जाते हैं किन्तु श्वेताम्बरीय परम्परामें __ ताणं पिहु उवरिल्ला कस्स व बुद्धी न परिप्फुरई ॥' प्रभव, शश्यंभव, यशोभद्र, भार्यसंभूतिविजय, और + 'मा होतुते कईदा गरुयपबंधे विजाण निम्बूढा। भद्रबाहु इन पांच श्रुतकेवलियोंका नामोल्लेख पाया रसभावमुनिरंती वित्थरहन भाई भुवणे॥ जाता है। इनमें भद्रबाहुको छोड़कर चार नाम एक -जम्बूस्वामी-चरित संधि दूसरेसे बिल्कुल भित्र हैं। Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त - प्रकार जिसके प्रताप वर्णनसे ही शत्रु दूर भाग जाते हैं। स्वरूप कुष्ट रोगसे पीड़ित हो गया और जीवनसे निराश गोमंडल (गायोंका समूह) जिस तरह पुरुषोत्तम विष्णुके होकर चिता बनाकर अग्निमें जल मरा। सोमशर्मा भी अपने द्वारा रक्षित रहता है, उसी तरह यह पृथ्वीमंडल भी प्रिय विरहसे दुःखित होकर चितामें प्रवेश कर परलोकवासिनी पुरुषोंमें उत्तम राजा श्रेणिकके द्वारा रक्षित रहता है। राजा हो गई। कुछ दिन बीननेके पश्चात् उस नगरमें 'सुधर्म' श्रेणिकके समक्ष युद्ध में ऐसे कौन शत्रु-सुभट हैं, जो मृत्युको मुनिका आगमन हुथा। मुनिने धर्मका उपदेश दिया, प्राप्त नहीं हुए, अथवा जिन्होंने केशव (विष्णु) के भागे भवदत्तने धर्मका स्वरूप शान्तभावसे सुना भवदत्तका मन भायुध रहित होकर प्रात्म-समर्पण नहीं किया. संसारमें अनुरक्र नहीं होता था, अतः उसने प्रारम्भ परिग्रह से ग्रन्थका कथा भोग बहुत ही सुन्दर, सरस और र रहित दिगम्बर मुनि बननेकी अपनी अभिलाषा व्यक की। मनोरंजक है और कविने उसे काव्योचित सभी गुणोंका और वह दिगम्बर मुनि हो गया। और द्वादशवर्ष पर्यन्त ध्यान रखते हुए उसे पठनीय बनानेका यत्न किया है. उसका तपश्चरण करनेके पश्चात् भवदत्त [क बार मंधके साथ संक्षिप्त सार इस प्रकार है अपने ग्रामके समीप पहुँचा। और अपने कनिष्ठ भ्राना भवदेवको संघमें दीक्षित करनेके लिए उक वर्धमानप्राममें कथासार प्राया । उस समय भवदेवका दुर्मर्षण और नागदेवीकी पुत्री जम्बूद्वीपके भरत-क्षेत्रमें मगध नामका देश है। उपमें नागवसुसे विवाह हो रहा था। भाईके श्रागमनका समाचार श्रेणिक नामका राजा राज्य करता था । एक दिन राजा पाकर भवदेव उमसे मिलने पाया, और स्नेहपूर्ण मिलनके श्रेणिक अपनी सभामें बैठे हुए थे कि वनमालीने आकर पश्चात् उसे भोजनके लिये घरमें ले जाना चाहता था परन्तु विपुलाचल पर्वत पर महावीर स्वामीके समवसरण आनेको भवदत्त भवदेवको अपने संघमें लेगया और वहाँ मुनिवरसे सूचना दी । श्रेणिक सुन कर हर्षित हुआ और उसने सेना माधु दीक्षा लेनेको कहा । भवदेव असमंजसमें पड़ गया। प्रादि वैभव के साथ भगवानका दर्शन करनेके लिये प्रयाण क्योंकि उसे विवाह कार्य सम्पन्न करके विषय-सुखोंका पाककिया। श्रेणिकने समवसरणमें पहुंचनेसे पूर्व ही अपने पण जो था, किन्तु भाईको उस सदिच्छाका अपमान करनेका समस्त वैभवको छोड़ कर पैदल समवसरणमें प्रवेश किया उसे साहस न हुसा। और उपायान्तर न देख प्रवज्या और वर्द्धमान भगवानको प्रणाम कर धर्मोपदेश सुनकी (दीक्षा) लेकर भाईके मनोरथको पूर्ण किया, और मुनि जिज्ञासा प्रकट की, और धर्मोपदेश सुना। इसी समय एक होनेके पश्चात् १२ वर्ष तक संघके साथ देश-विदेशों में भ्रमण तेजस्वी देव अाकाशमार्गसे प्राता हुआ दिखाई दिया । गजा करता रहा। एक दिन अपने ग्रामके पाससे निकला । उसे श्रेणिक द्वारा इस देवके विषयमें पूछे जाने पर गौतम स्वामीने विषय चाहने आकर्षित किया, और वह अपनी स्त्रीका बतलाया कि इसका नाम विद्युन्माली है और यह अपनी स्मरण करता हुआ एक जिनालयमें पहुंचा, वहाँ उसने एक चार देवांगनाओंके साथ यहाँ बन्दना करनेके लिये बाया है। अर्जिकाको देखा, उससे उन्होंने अपनी स्त्रीके विषयमें कुशल यह पाजसे वें दिन स्वर्गसे चयकर मध्यलोकमें उत्पन्न वार्ता पूछो । अर्जिकाने मुनिके चित्तको चलायमान देखकर होकर उसी मनुष्य भवसे मोक्ष प्राप्त करेगा । राजा श्रेणिकने उन्हें धर्म में स्थिर किया और कहा कि वह आपकी पत्नी इस देवके विषयमें विशेष जाननेकी अभिलाषा व्यक्त की, में ही हूँ। आपके दीक्षा समाचार मिलने पर मैं भी दीक्षित तब गौतम स्वामीने कहा कि-'इम देशमें वर्ल्ड माम नामका हो गई थी। भवदेव पुनः छेदोपस्थापना पूर्वक संयमका एक नगर है। उसमें वेदघोष करने वाले, यज्ञमें पशु बलि अनुष्ठान करने लगा। अन्तमें दोनों भाई मरकर सनत्कुमार देने वाले, सोमपान करने वाले, परस्पर कटु वचनोंका नामक स्वर्गमें देव हुए। और सात सागरको आयु तक वहाँ व्यवहार करने वाले अनेक प्राह्मण रहते थे। उसमें अत्यन्त वास किया। गुणज्ञ एक ब्राह्मण-दम्पति श्रुतकण्ठ आर्यवसु रहता था। भवदत्त स्वर्गसे चय कर पुण्डरीकिनी मगरीमें वज्रदन्त उसकी पन्नीका नाम-सोमशर्मा था। उनसे दो पुत्र हुए थे राजाके घर सागरचन्द्र नामका और भवदेव बीतशोका भवदत्त और भवदेव । जब दोनोंकी प्रायु क्रमशः १८और नगरीके राजा महापन चक्रवर्तीकी वनमाला रानीके शिव१९ वर्षकी हुई, तब आर्यवसु पूर्वोपार्जित पापकर्मके फल- कुमार नामका पुत्र हुभा। शिवकुमारका १०५ कन्याओंसे Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करण ६ ] I विवाह हुआ, और करोड़ों उनके अंगारक थे, जो उन्हें बाहर नहीं जाने देने नगरी चारव सुनियोंसे अपने पूर्व जन्मका वृतान्त सुनकर देश-भोगों चिरक हो मुनि दीक्षा ले ली और प्रयोदश प्रकार परियका अनुष्ठान करते हुए ये भाईको सम्बोधित करने भीतशोका नगरीमें पधारे। शिवकुमारने अपने महलोंके ऊपरसे मुनियोंको देखा, उसे पूर्वजन्मका स्मरण हो थाया, उसके मनमें देह-से निभाव उत्पन्न हुआ उससे राजमालाइ कोलह मच गया और उसने अपने माताI पदने अनुमति माँगी पिताने बहुत समझाया और कहा कि घरमें ही तप और व्रतोंका अनुष्ठान हो सकता है, दीक्षा लेनेकी श्रावश्यकता नहीं, पिता के अनुरोधवश कुमारने तरुणीजन मध्यमे रहते हुए भी विर मानव का महान किया और दूसरोंसे भि लेकर तपका आचरण किया और आयुके में विन्माली नामका देव हुआ। वहाँ दस सागरकी धत्यु तक चार देवांगन और साथ सुख भोगता रहा। अब यही विम्माली यहाँ पाया था जो मातवें दिन मनुष्य रूप अवतरित होगा। राजा विद्यमालीकी उन चार देवांगनाओंके विषयमें भी पूछा। तब गौतम स्वामीने बताया कि चंपानगरी में सूरसेन नामक सेठकी चार स्त्रियाँ थीं जिनके नाम थे जयभद्रा, सुभद्रा धारिणी और यशोमती । वह सेठ पूर्वसंचित पापक "के उदय कुष्टरोगले पीड़ित होकर मर गया, उसकी चारों स्त्रियों अर्जिकाएँ हो गईं और तपके प्रभावसे वे स्वर्गमं वियन्मालीकी चार देवियों हुई । 1 । पश्चात् राजा श्रेणिक विद्युच्चरके विषय में जानने की इच्छाकी सब म स्वामीने कहा कि मगध देश में दस्तिमपुर ननक नगर राज सिन्वर और नारानीका पुत्र विद्युच्चर नामका था। वह सत्र विद्याओं और कवायांमें पारंगत था एक और विद्या हो ऐसी रह गई थी जिसे उसने नखा था राजाने विशुध्वरको बहुत समझाया, पर उसने चोरी करना नहीं छोड़ा। वह अपने पिताके घरमें ही पहुँच कर चोरी करता था और राजाको करके सुषुप्त उसके कटिहार आदि आभूषण उतार लेता था और विद्या बलसे चोरी किया करता था । श्रब वह अपने राज्यको छोड़कर राजगृह नगर था गारा, धीर वहाँ कामलता नामक वेश्या के साथ रमण करता हुआ समय व्यतीत करने लगा । गौतम गणधरने बतलाया कि उक्त विद्युन्माली देव राजगृह अपभ्रंश भाषाका जंबूमामिचरिउ और महाकवि वीर [ १५५ नगर में घास नाम अटिका पुत्र होगा जो उमी भवसे मोच श्रेष्ठिका प्राप्त करेगा। यह कथन हो ही रहा था कि इतने में एक यक्ष वहाँ आकर नृत्य करने लगा । राजा श्रेणिकने उस पक्षके नृत्य करनेका कारण पूछा। तब गौतम स्वामीने बतलाया कि यह यह डास सेठका लघु भ्राता था। वह सप्तम्यसनमें रत था। एक दिन जुए में सब द्रव्य हार गया और उस द्रव्यको न दे सकनेके कारण दूसरे धारियोंने उसे मार मार कर अधमरा कर दिया। सेठ दासने इसे अन्य समय नमस्कार मन्त्र सुनाया, जिसके प्रभावसे वह मर कर प हुआ । यक्ष यह सुन कर इसे नृत्य कर रहा है कि उसके भाई सेठ धईदासके अन्तिम केवलीका जन्म होगा । अन्य मेर इस ग्रन्थकी रचनाएँ जिनकी में रणाकी पाकर कवि प्रवृत्त हुआ है, उसका परिचय ग्रंथकारने निम्न रूपसे दिया है : मालवदेशमें धरूड या धर्कट वंशके तिलक महासूदनकै पुत्र ताखहु श्रेष्ठी रहते थे । यह अन्धकारके पिता महाकवि देवदत्तके परम मित्र थे । इन्होंने ही वीर कविसे जंबूस्वामीतवड श्रेष्ठीके श्वरितके निर्माण करने प्रेरणा की थी और कनिष्ठ भ्राता भरतने उसे अधिक संक्षिप्त और अधिक रूपसे न कहकर सामान्य कथा वस्तुको ही कहने का आग्रह अथवा अनुरोध किया था और नक्सले टीने भर कथनका समर्थन किया और इस तरह ग्रन्थकर्ताने ग्रन्थ बनानेका उद्यम किया । ग्रन्थकार इस अन्य कर्ता महाकवि चोर हैं, जो चिनपशीख यह वंश १०वीं 11वीं और १२वीं १३वीं शताब्दियोंमें खूब प्रसिद्ध रहा। इस वंश में दिगम्बर श्वेताम्बर दोनों हो संप्रदायोंकी मान्यता वाले लोग थे। दिगम्बर सम्प्रदायके कई दिगम्बर विद्वान् ग्रंथकार इस वंशमें हुए हैं जैसे भविष्यदूध पचमीका कर्ता कवि धनपाल, और धर्मपरीचा कर्ता हरिवेने अपनी धर्मपरीचा वि० सं० १०५४में बनाकर समाप्त की थी। अतः यह धर्कट या धक्कड़ वंश इससे भी प्राचीन जान पड़ता है। देलवाडा वि० सं० १२८० के तेजपाल वाले शिलालेखमें भी धर्कट या धड जातिका उल्लेख है । Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ ] विद्वान और कवि थे । इनकी चार स्त्रियाँ थीं । जिनवती, पोमावती, लीलावती और जयादेवी तथा नेमचन्द्र नामका एक पुत्र भी थार । महाकवि वार विद्वान और कवि होनेके साथ-साथ गुणग्राही न्याय-प्रिय और समुदार व्यक्ति थे । उनकी गुणग्राहकताका स्पष्ट उल्लेख ग्रन्थकी चतुर्थ सन्धि के प्रारम्भमें पाये जाने वाले निम्न पद्यसे मिलता है :अगुणा ण मुणंति गुणं गुणणो न सर्हति परगुणे दट्ठ' । लहगुणा व गुणणो विरलाकइ वीर - सारिच्छा | अनेकान्त अर्थात् - " गुण अथवा निर्गुण पुरुष गुणोंको नहीं जानता और गुणीजन दूसरेके गुणों को भी नहीं देखतेउन्हें सहन भी नहीं कर सकते, परन्तु वीरकविके सदृश कवि विरले हैं, जो दूसरे गुणों को समादरको दृष्टिसे देखते हैं ।' कविने अपनी लघुता व्यक्त करते हुए लिखा है कि" सुकवित्त करणमणघावडे - १ - ३ । इसमें कविने अपनेको काव्य बनानेके अयोग्य बतलाया है। फिर भी कविने अपनी सामर्थ्यानुसार काव्यको सरस और सालंकार बनानेका यत्न किया है। और कषि उसमें सफल हुआ है कविका वंश और माता-पिता 1 [ वर्ष १३ जा सकता है। इनके पिताका नाम देवदत्त था । यह 'महाकवि' विशेषणले भूषित थे और सम्यक्त्वादि गुणोंसे अलंकृत थे। और उन्हें सरस्वति देवीका वर प्राप्त था । उन्होंने पद्धदिया छन्दमें 'वरांग- चरित' का उद्धार किया था । और कविगुणोंको अनुरंजित करनेवाली वीरकथा, तथा 'अम्बादेवीरास' नाम की रचना बनाई थी, जो ताल और लयके साथ गाई जाती थी, और जिनचरणोंके समीप नृत्य किया जाता था। जैसा कि कविके निम्न वाक्योंसे प्रकट है। -- “सिरिलाडवग्गुतहिविमल जसु, कइदेवयत्तु निव्वुड्ढकसु बहुभावहिं जें वर्गचरिउ, पद्धडिया बंधे उद्धरिउ । विगु-रस-रंजिय विउससह, वित्त्यारिय सुद्दयवीरकह तच्चरिय बंधि विरइउ सरसु, गाइज्जइ संतिउ तारूजसु नचिज्ज जिपयसेवयहिं किउ रासउ अंबा देवयहिं । सम्मत्त महाभरघुरधरहो, तो सरसइदेवि-लद्भवरहो ॥” कविवर देवदत्तकी ये सब कृतियां इस समय अनुपलब्ध हैं, यदि किसी शास्त्रभंडारमें इनके अस्तित्वका पता चल जाय, तो उससे कई ऐतिहासिक गुत्थियोंके सुलझनेकी श्राशा है कविवर देवदत्तकी ये सब कृतियों संभवतः १०५० या इसके आस-पास रची गई होंगीं, क्योंकि उनके पुत्र वीर कवि सं० १०७६ के ग्रन्थ में उनका उल्लेख कर रहे हैं । अतः इनकी खोजका प्रयत्न होना चाहिए, सम्भव है प्रयत्न करने पर किसी शास्त्र भण्डार में उपलब्ध हो जांय । वीरकविकी माताका नाम 'सन्तु' अथवा 'सन्तुव' था, जो शीलगुणसे अलंकृत थी। इनके तीन लघुमहोदर और थे जो बड़े ही बुद्धिमान् थे और जिनके नाम 'सीहल्ल' लक्खणंक, और जसई थे, जैसा कि प्रशस्तिके निम्नपद्योंसे प्रकट है : कविवर वीरके पिता गुडखेडदेशके निवासी थे और इनका वंश अथवा गोत्र 'लालबागड' था । यह वंश काष्ठासंघकी एक शाखा है । इस वंश में अनेक दिगम्बराचार्य और भट्टारक हुए हैं, जैसे जयसेन, गुणाकरसेन, और महासेनx तथा सं० ११४५के दूबकुण्ड वाले शिलालेखमें उल्लिखिन देवसेन आदि । इससे इस वंशकी प्रतिष्ठाका अनुमान किया २ जाया जस्स मणिट्टा जिणवद्द पोमावइ पुगो बीया । लीलावइति तईया पच्छिम भज्जा जयादेवी ॥ ८ ॥ पढमकलतं गरुहा संताण कयत्त विडवि पा रोहो । विण्यगुणमणिहाणां तराश्र तह ऐमिचन्दो ति ॥६॥ — जंबूस्वामीश्चरित प्रशस्ति काष्ठासंघो भुवि ख्यातो जानन्ति नृसुरासुराः । अत्र गच्छाश्च चत्वारो राजन्तं विश्रुता क्षितौ || श्रीनन्दितटसंज्ञश्च माथुराबागडाभिधः । लाड वागड इत्येते विख्याता क्षितिमण्डले । — पट्टावली भ० सुरेन्द्र कीर्ति । x देखो, महासेन प्रद्युम्नचरित प्रशस्ति जैनग्रन्थ प्रशस्ति संग्रह प्रथम भाग वीरसेवा मन्दिरसे प्रकाशित | जरस कइ देवयत्तो जयो सच्चरियलद्धमाइयो । सुहसीलसुद्धवंसो जरणी सिरि संतुया भरिया || ६ || जम्स य पसरणवयरणा लहुरंगी सुमइ ससहोयरा तिरि‍ । सीहल्ल लक्खणंका जसइ णामेत्ति विक्खामा ||७| चूंकि कविवर वीरका बहुतसा समय राज्यकार्य, धर्म. थे और कामकी गोष्टीमें व्यतीत होता था, इस लिए इन्हें इस जम्बूस्वामी चरित नामक ग्रंथके निर्माण करनेमें पूरा एक वर्षका समय लग गया था १ । कवि 'वीर' केवल कवि हो १ बहुरायकज्जधम्मत्थकाम गोट्ठी विद्दत्तसमयस्स । वीरस्स चरियकरणे इक्को संघच्छरो लग्गो ॥५॥ जंबू० च० प्र० Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ५] अपभ्रंश भाषाका जंबूसामिचरिउ और महाकवि वीर नहीं थे, बल्कि भक्तिरसके भी प्रेमी थे इन्होंने मेषवना में कालको उत्पत्ति होती है और विक्रमकालके १०७६ वर्ष पत्थरका एक विशाल जिनमन्दिर बनवाया था और उसी व्यतीत होने पर माघ शुक्ला दशमीके दिन इस जम्बुस्वामी मेघवन पट्टणमें बईमान जिनकी विशाल प्रनिमाकी प्रतिष्ठा चरित्रका प्राचार्य परम्परासे सुने हुए बहुलार्थक प्रशस्त भी की थी२ । कविने प्रशस्तिमें मन्दिर-निर्माण और प्रतिमा- पदों में संकलित कर उद्धार किया गया है। जैसा कि ग्रन्थप्रतिष्ठाके संवतादिका कोई उल्लेख नहीं किया । फिरभी प्रशस्तिके निम्न पद्यसे प्रकट है:इतनातो निश्चित ही है कि जम्बू-स्वामि-चरित ग्रंथको रचन' रिसाण सयचउक्के सत्तरिजुत्ते जिणेंदवीरस्स। से पूर्वही उन दोनों कार्य सम्पन्न हो चुके थे। णियाणा उववरणा विक्कमकालस्स उप्पत्ती॥१॥ पूर्ववर्ती विद्वानोंका उल्लेख विक्कमणिवकालाओ छाहत्तर दससएसु वरिसाणं। ग्रन्थमें कविने अपनेसे पूर्ववर्ती निम्न विद्वान कवियोंका माहम्मि सुद्धपक्ख दसमी दिवसम्मि संतम्मि ॥२॥ उल्लेख किया है, शान्तिकवि३ होते हुए भी वादीन्द्र थे और सुणियं आयरिय परंपराए वीरेण वीरणिढ़ि। जयकविः जिनका पूरा नाम जयदेव मालूम होता है, जिनकी बहुलत्थ पसत्थपयं पचरमिणं चरियमुद्धरियं ॥३॥ वाणी अदृष्ट अपर्व अर्थमें स्फुरित होती है। इस प्रकार यह ग्रन्थ जीवन-परिचयके साथ-साथ अनेक यह जयकवि वही मालूम होते हैं, जिनका उल्लेख जय- महत्वपूर्ण एतिहामिक व्यक्रियोंके उल्लेखों और उनके कौनिने अपने छन्दानुशासनमें किया है। इनके सिवाय, सामान्य परिचयोंसे परिपूर्ण है। इससे भगवान महावीर स्वयंभूदेव, पुष्पदन्त और देवदत्तका भी उल्लेख किया है। और उनके समकालीन व्यनियोंका परिचय उपलब्ध होता ग्रन्थका रचनाकाल है, जो इतिहासज्ञों और अन्वेषण-कर्ताओंके लिये बड़ा हो भगवान महावीर के निर्वाणके ४७० वर्ष पश्चात विक्रम- उपयोगी होगा। प्रयत्न करने परभी 'मेघवन' का कोई विशेष परिचय ग्रन्थका लिपि समय उपलब्ध नहीं हो सका। यह ग्रन्थ-प्रति भहारक महेन्द्रकीर्ति अम्बेर या भामेर २ सो जयउ कई वीरो वीरजिणंदम्म कारियं जेण । (जयपुर ) के शास्त्रभंडार की है, जो पहले किसी समय पाहाणमयं भवणं विइरूहेसेण मेहवणे ॥१०॥ जयपुर राज्यकी राजधानी थी । इस प्रतिको लेखक-प्रशस्तिके इन्थेवदिणे मेहवणपणे वाढमाण जिणपडिमा। तीन ही पद्य उपलब्ध है; क्योंकि ७६, पत्रसे भागेका तणा वि महाकइणा वीरेण पट्टिया पवरा ॥५॥ ७७वां पत्र उपलब्ध नहीं है। उन पद्योंमेंसे प्रथम व द्वितीय जबूम्वामि चरित प्रा। पद्यमें प्रतिलिपिक स्थानका नाम-निर्देश करते हुए 'मुमुना' ३ मंति कई वाई बिहु वएणुरिसेपु फुस्थिविण्णाणो । के उत्तुंग जिन-मन्दिरोंका भी उल्लेख किया है और तृतीय रस-सिद्धि मंचियस्था विरलो वाई कई एक्को ॥३॥ पद्यमें उसका लिपि ममय विक्रम संवत् १५१६ मगसिर ४ विजयन्तु जए कइणो जाणंवाणं अइ पुब्बस्थे । शुक्ला त्रयोदशी बतलाया है, जिससे यह प्रनि पांच सौ उज्जोइय धरणियलो साहइ वहिव्व मिव्ववडई ॥४॥ वर्षके लगभग पुरानी जान पड़ती है । इस ग्रन्थ प्रति पर जम्बूम्वामी-चरित प्रशस्ति एक छोटा सा टिप्पण भी उपलब्ध है जिसमें उसका मध्य५ माण्डव्य-पिंगल-जनाश्रय-सेतवाख्य, भाग कुछ छूटा हुआ है। श्रीपूज्यपाद-जयदेव बुधादिकानाम् । छन्दामि वीक्ष्य विविधानपि सत्प्रयोगान् ॐ मन्ये वयं पुण्यपुरी बभाति, सा झुझणेति प्रकटी बभूव । छंदोनुशासनमिदं जयकीतिनोत्रम् ॥ प्रोत्तुगतन्मंडन-चैत्यगेहाः सोपानवदृश्यति नाकलोके ॥१॥ -जैसलमेर-भण्डार प्रन्थमूची पुरस्मराराम जलप्रकृपा हाणि तत्रास्ति रतीव रम्याः। संते सयंभू पए वे एक्को कइत्ति विधि पुणु भणिया। श्यन्ति लोका घनपुण्यभाजो ददातिदानस्य विशालशाजार जायम्मि पुप्फयंते तिरिण नहा देवयत्तम्मि॥ श्री विक्रमार्केन गते शताब्दे षडेक पंचक सुमार्गशीर्षे। -देखो, जंबूस्वामि चरित, संधि का प्रादिभाग। त्रयोदशीया तिथिसर्वशुद्धाः श्रीजंबूस्वामीति च पुस्तकोऽयं ॥३ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतकी राजधानीमें जयधवल महाधवल ग्रन्थराजोंका अपूर्व स्वागत श्री जयधवल महाधवल ग्रन्थराजोंकी मूल ताब- ग्लास केशके दोनों ओर सामने चाँदीके सुन्दर अष्ट पत्रीय प्रतियां जो तुलु या तौलब देश में स्थित मूडबिद्रीके मंगल द्रव्य रक्खे गये थे और चाँदीके बड़े गुलदस्ते मठसे कहीं बाहर नहीं जाती थी और जिन्हें श्रीअण्णा जिनमें विविध प्रकारके फूल खिल रहे थे। मन्दिरके श्रेष्ठी तथा श्रीमती मल्लिकादेवी द्वारा अपने पंचमी चारों ओर सुन्दर पुष्प मालाएं लटक रही थी और व्रतके उद्यापनार्थ लिखवाकर श्री मेषचन्द्रव्रतीके शिष्य चार घंटे भी बंधे हुए थे जो अपनी आवाजसे दर्शकोंश्री माधनन्दी आचार्यको समर्पित किये गये थे और को अपनी ओर केवल आकर्षित हो नहीं करते थे जो हजार वर्षके लगभग समयसे वहां सुरक्षित थीं अपितु उनका आह्वानन भी कर रहे थे। सरस्वती उन्हें बीरसेवामन्दिरके अध्यक्ष श्रीबाबू छोटेलाल जी मन्दिरको यह शोभा देखते ही बनती थी। यह सब उन कलकत्ताकी सत्प्रेरणा एवं अनुरोधसे उनका जीर्णोद्धार प्रन्थराजोंका ही महात्म्य एवं प्रभाव था इस रथोत्सवमें करानेके लिए देहली लाया गया, जो ता०८ दिसम्बर सबकी दृष्टि इस नूतन बने हुए सरस्वती मन्दिरकी की रातको जनता एक्सप्रेससे दिल्ली पहुँची। उस ओर जाती थी, जो दर्शकोंके लिये अभिनव या अपूर्व समय देहलीके रेल्वे स्टेशनपर स्थानीय प्रतिष्ठित वस्तु थी। जयधवल और महाधवल ग्रन्थराजोंकी जयसजनों ने उनका स्वागत किया, मालाएं पहिनाई। ध्वनिसे अम्बर गूंज रहा था। उक्त मन्दिरके दोनों उक्त जनता एक्सप्रेसके । घण्टे लेट हो जानेके कारण ओर अगल बगल में एक तरफ श्री धर्मसाम्राज्य जी जुल्स आदि की सब योजना रोक देनी पड़ी और और पं० मक्खनलालजी प्रचारक तथा दूसरी ओर उन ग्रन्थराजोंको श्री धर्मसाम्राज्यजीके साथ कारमें प्रसिद्ध ऐतिहासिक विद्वान पं० जुगलकिशोर जी पं० लाकर श्री दि० जैन लाल मंदिर स्थित वीरसवामन्दिरमें परमानन्द शास्त्री और उनका लघु पुत्र गुलाबचन्द् विराजमान किया। भी बठा हुआ था। पं० मक्खनलाल जी, मुख्तार सा. भारतकी राजधानी दिल्ली में पौषवदी दोयज और मैं, बारी २ से उक्त जयधवलादि इन ग्रन्थोंका रविवार ता० १२ दिसम्बर को जैनियोंके वार्षिक रथो- परिचय भी कराते जाते थे। सक्के पुनोत अवसरपर एक विशाल ठेलेपर जिसका ग्रन्थ परिचय में इन ग्रन्थराजोंकी उत्पत्ति का और संचालन टेक्टरके द्वारा होता है, उसपर प्राचीन कारी- कैसे हुई ? इनके रचयिता कौन थे, इनकी भाषा और गिरी को लपमें रखते हुए एक नवीन सरस्वती मन्दिर- लिपि क्या है, इनका रचनाकाल क्या है और इनमें का निर्माण किया गया था और उसे विविध प्रकारसे किन-किन विषयोंका कथन दिया हुआ है और इन सुसज्जित किया गया था। सरस्वती मन्दिरके मुख्य प्रन्थोंके अध्ययनसे हम क्या लाभ है ? आदि प्रश्नोंका द्वारपर एक सुन्दर बोर्ड लगा हुआ था, जिसपर भगवान संक्षिप्त एवं सरल रूपसे विवेचन लाउड स्पीकर द्वारा महावीरका दिव्य सन्देश 'जियो और जीने दो' अंकित किया जा रहा था। था । इस मन्दिरमें दोनों ओर सोने-चाँदीकी सुन्दर जिनेन्द्र भगवानका अश्वारोही रथ भी अपनी दो वेदियाँ विराजमान की गई थी। ऊपरके सफेद अनुपम छठा दिखा रहा था और दर्शकजन नमस्कार चंदोये के नीचे मनोहर जरीदोज चंदोयके मध्यमें कर अपने कर्तव्यको जाननेक मार्गमें लग रहे थे। सुवर्णके बड़े तीन छत्र फिर रहे थे और बगलोंमें रथोत्सवमें अजमेरकी प्रसिद्ध भजन मण्डली भी इन्द्रचमर डोल रहे थे। चंदोयेके ठीक मध्यमें नीचे बुलाई गई थी जो नृत्य वादित्रादिके साथ जिनेन्द्रके सुन्दर ग्लास केशमें विराजमान उक्त ग्रंथराज दूरसे ही गुणगान कर रही थी। श्री जैनयुवकमण्डल सेठके दृष्टिगोचर होते थे । उक्त ग्लासकेशके अंदर और बाहर कृचाकी नाटक मंडलीने भी अपनी अभिनय रुचिके चारों ओर नया मंदिर धर्मपुरा और पंचायती मंदिरके साथ ठेलेको सजाया था और उसके अन्दर ड्रामाका शास्त्र भंडारोंके अन्य सचित्र, सुवर्णाहित ग्रन्थोंको अभिनय दर्शनीय रूप में किया जा रहा था। कहा जाता भी विराजमान किया गया था जो दर्शकोंके हृदयमें है कि रथोत्सवमें इतनी अधिक भीड़ पहले कभी आनन्द और उत्साहकी लहर उद्भावित कर रहे थे। नहीं हुई। Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिल्ली स्थात्मवमें नवनिर्मित मरस्वती-मन्दिरका भव्य दृश्य । पछिका दृश्य ) २ 44 RAAT alya TH ४ hen HOMEOPA ENRIAHARA WINSrint MARAN .. AMRAPoint MAA Himan-TION . . REER - - बीचमे ग्लासक्श श्री जयधवन-महाधवनग्रन्थ नया अन्य मुवणांड्डिन चित्र ग्रन्थ विराजमान है। नीन इन्द्र चमर होन रहे है। श्री धर्मपाम्राज्या, पं. मनलानजी. याचायं जगत केशारजी मुग्नार और पं० पम्मानन्द शास्त्री अपने लवपत्रको गोदी में नियं के हैं । Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकाल दिल्ली रथोत्सव में नवनिर्मित सरस्वती मन्दिरका भव्य दृश्य ( आगेका दृश्य ) २ इस चित्र सरस्वतामन्दिर के साथ ग्योत्सवका तरीका सुहावना दृश्य अंकित Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ६] रोपड़की खुदाईमें महत्वपूर्व ऐतिहासिक वस्तुओंकी उपलब्धि [१५४ - - - जैन अनाथाश्रमकी ओरसे भी कई दर्शनीय वस्तु- जनताने किया होगा। इसी तरह रथोत्सव पहाड़ोसे ओंका आयोजन किया गया था, सब छात्र भी शामिल वापिस पाने में भी जनताका पूर्ववत उत्साह बना रहा थे। उत्सव में कई बैण्डवाजे भी अपनी स्वर-लहरी और मारा कार्य व्यवस्थित और सुन्दर रहा। बखेर रहे थे। उक्त रथोत्सव ठीक ८ बजेसे प्रारम्भ सरस्वती मन्दिरका सारा प्रायोजन, उसका निर्माण हा गया था और एक बजेके लगभग पहाड़ी पहुंचा। और सजाना आदि सब कार्य लाला रघुवीरसिंह जी दरीबासे लेकर पहाड़ी धीरज तक जनताका अपूर्व जैनावाचकी स्वाभाविक कल्पनाका परिणाम है, उनका समारोह था, रविवारकी छुट्टी पड़ जानेसे जनता और उत्साह और लगन प्रशंसनीय है। रथोत्सव कमेटीकी भी अधिकाधिक रूपमें उपस्थित थी। अनुमानतः व्यवस्था भी सराहनीय थी। सरस्वती मन्दिर में विराज मन्थराजोंका दर्शन दो लाख -परमानन्द जैन, शास्त्री रोपड़की खुदाई में महत्वपूर्ण ऐतिहासिकवस्तुओंकी उपलब्धि पंजाबमें सतलजके उपरकी ओर रोपड़में भारत सरकारके विशेष प्रकारके वर्तन पुरानव विभाग द्वारा हुई खुदाईसे हड़पा सभ्यता तथा ये वर्तन पंजाब और उत्तरप्रदेशके प्राचीन ऐतिहासिक बौद्धकालके बीचके अंध युगपर निश्चित रूपसे प्रकाश पड़ा है। स्थानोंमें प्राप्त हुए है और कुछ अगामें पूर्वमें बंगाल में स्थित इम खुदाईसे ईमासे २ सहस्रब्दी पूर्वसे लगभग श्राज गौड़ नक तथा दक्षिणमें अमरावती तक पाये गये हैं। इस तकके मारे राज्याधिकारोंमें तारतम्य स्थापित हो गया है तथा स्तर पर छेद वाले सिक्के बहुतायतसे मिलते हैं। शुग, उत्तरी भाग्नमें सभ्यताको विकास श्रृंखलाकी मोटी रूप रेखा कुशन तथा गुप्त कालीन कलाका प्रभाव यहां. सिक्कों तैयार हो गई है। अब पुरातत्व विभाग उन व्यौरोंपर विचार तथा वर्तनों पर हो नहीं २०० ईसा पूर्वसे ६०० ईस्वी तक कर रहा है। के मुन्दर देश कोटा पर भी अवलोकित होता है। ___ कहते हैं सिन्धु लिपिमें लिखी हुई एक छोटीसी मुहरके खुदाई करने वालोंको यहां बहुतसे भारत-यूनानी तथा मिलनेस इन विषयमें कोई सन्देह नहीं रहा है कि सांस्कृ- कवायली पिकं ६०० कुशन कानके तांबे के सिक्के तथा एक निक रूपमे बलू चम्नान ऊपरी मतलज • तकका प्रदेश एक चन्द्रगुप्तकी स्वर्ण मुद्रा भी मिली है। था। हडप्पा निवासियों के प्रारम्भिक मकान कंकड़ी तथा ऐसा जान पड़ना कि मध्यकाल के प्रारंभमें बस्ती इस कच्ची ईटोंसे बनते ये, पर उसके कुछ समय बाद ही पकाई स्थान पर एक जगहसे दूसरी जगह हटती रही हैं। क्योंकि हुई इंटे काममें लाई जाने लगी। बर्तमान नगरके स्थान पर ऐसे मिट्टीके वर्तन तथा इंटोंक मकान ईमासे पूर्व दुसरी सहस्राब्दीक अन्तमें हड़प्पा निवा- निकले हैं जो पाठवीं तथा दसवीं ईस्त्रीके हैं। यहां मुगलसियों विनाशक बाद ईमासे पूर्व पहली सहस्राब्दी के प्रारंभ कालको मुद्राएं भी प्राप्त हुई हैं। में एक नयी सभ्यताके लोग यहां आकर बसे । काली रेवाओं कहा जाता है कि पुरातत्व विभाग कुछ समयसे मतलज तथा बिन्दुओंसे चित्रित भूरे रंगके मिटीके वर्तन इस सभ्यनाके के ऊपरी भाग पर अधिक ध्यान दे रहा है । इन वोजोसे अवशेष हैं। सम्भवतः ये लोग प्राय थे । तथा ३००-४००वर्ष रूपडके अतिरिक्र और भी हड़प्पा युगके स्थानोंका पता लगा तक ये रोपड़में रहे भी हैं परन्तु पाश्चर्य यह है कि अभी है। शिवालिक में कुछ स्थानों पर भी पथरके औजार श्रादि तक इनके द्वारा बनाया हुश्रा कोई भवन नहीं मिला है। भी मिले हैं ये ऐतिहासिक युगसे पूर्वके जान पड़ते हैं परन्तु ___ कुछ समय बाद बुद्धकालमें रोपड़में एक नयी सभ्यता इनका गम्भीर अध्ययन एवं मननके पश्चात् ही किसी हदित हुई जो ईसाके बाद दूसरी सदी तक वर्तमान रही। निश्चित परिणाम पर पहुंचा जा सकेगा। इस समय तक लोहा काममें आने लगा था परंतु इस सब मारनमें अनेक स्थानों पर ऊँचे टीले विद्यमान हैं जिनके का मुख्य उद्योग एक प्रकारके चमकदार वर्तन होते थे तथा नीचे बहुत ही मूल्य तिहासिक अवशेष दोपो है। परातत्ववेत्ता जिन्हें उत्तरी काले पालिशके वर्तन कहते हैं। आशा है भारत कोई बालक बोगा देगी। -(नव भारतसे) Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतिशय क्षेत्र खजुराहा भारतीय पुरातत्त्वमें 'खजुराहा'का नाम विशेष उल्लेख- में वर्तमानमें पाई जाती है जिनसे पता चलता है कि इसमीय है। वहां जानेके झांसीसे दो मार्ग हैं एक मार्ग झांसी कालमें खजुराहा और उसके पास-पासवतीं प्रदेशों में जैनधर्म मानिकपुर रेलवे लाइन पर हरपालपुर या महोवासे छतरपुर अपनी ज्योतिचमका रहा था। जाना पड़ता है, और दूसरा मार्ग झांसीसे बीना-सागर होते खजुराहा और महोवामें चन्देलवंशी राज्यकालीन उत्कृष्ट हुए मोटर द्वारा छतपुर जाया जाता है। और छतरपुरसं सत- शिल्प कलासे परिपूर्ण मन्दिर मिलते हैं। खजुराहा किसी मा वाली सड़कपरसे बीस मील दूर बमीठामें एक पुलिस समय जेजाहूति की राजधानी था । यह नाम राजा गंडके थाना है वहाँसे राजनगरको जो दशमील मार्ग जाताहै उसके सं० १०५६ के लेखमें उपलब्ध होता है। ७ मील पर खजुराहा अवस्थित है। मोटर हरपालपुरसे इस क्षेत्रका 'खजूर पुर' नाम होनेका कारण वहां खजूरके तीस मील छतरपुर और वहांसे खजुराहा होती हुई राजनगर वृक्षोंका पाया जाना है । भारतको उत्कर्ष संस्कृति स्थापत्य और जाती है। इस स्थानका प्राचीन नाम 'स्वर' पुर था । महोवा वस्तुकलाके क्षेत्रमें चन्देलसमयकी दैदीप्पमान कलाअपना स्थिर छतरपुर राज्यकी राजधानी थी, महोवाका प्राचीन नाम 'जेजा- प्रभाव अंकित किये हुये है। चन्दल राजाओंकी भारतको हनि' जेजाभुक्ति' जुझौति या जुझाउती कहा जाता है । यह यह असाधारण देन है । इनराजाओंके समयमें हिन्दू संस्कृतिके नाम क्यों और कब पड़ा? यह विचारणीय है। चीनीयात्री साथ जैनसंस्कृतिको भी फलने फूलनेका पर्याप्त अवसर मिला । हुएनसांगने भी अपनी यात्रा विवरणमें इसका उल्लेख है। उसकाल में संस्कृति, कला और साहित्यके विकासको किया है। प्रश्रय मिला जान पड़ता है। यही कारण है कि उसकालके महोवा भी किसी समय जैन संस्कृतिका केन्द्र रहा है। कला-प्रतीकोंका यदि संकलन किया जाय, जो यत्र तत्र विखरा फलस्वरूप वहाँ अनेक प्राचीन जैन मूर्तियाँ उपलब्ध होती हुश्रा पड़ा है, उससे न केवल प्राचीन कलाकी ही रक्षा होगी हैं धंग, गंड, जयवर्मा, मदनवर्मा और परमाल या पर- बल्कि उस कालकी कलाकं महत्व पर भी प्रकाश पड़ेगा। मादिदेव इन पांच चन्दलवंशी राजाओंके राज्यकालमें निर्मित नोकराज्यकाल में निर्मित और प्राचीन कलाके प्रति जनताका अभिनव अाकर्षण भो मन्दिर और अनेक प्रतिष्ठित मूर्तियां खण्डित-अखण्डित दशा- होगा । क्योंकि कला कलकारक जीवनका सजीव चित्रण है --- उसकी अन्म-मधना और कठोर छेनी तत्स्वरूपके निखारनेका महोवा या महोत्सवपुरमें २० फुट उंचा एक टोला है दायित्व हो उनकी कर्तव्य निष्ठा एवं एकाग्रताका प्रतीक है। वहां से अनेक खण्डित जन मूर्तियों मिली हैं। महोवाके उसके भावांकी अभिव्यंजना ही कलाकारक जीवनका मौलिक प्रास-पास ग्रामों व नगरमि अनेक थ्स जनमन्दिर और रूप है, उससे ही जीवन में स्फूर्ति और आकर्षक शक्तिकी मूर्तियों पाई जाती हैं । महोवामें उपलब्ध खण्डित उनमृनि- जागृति होती है। उच्चतम कलाका विकास प्रात्म-साधन.का योंक- आमनोंपर छोटेछोटे बहुतसे उन्कीर्ण हुयं लेख मिलते विशिष्ट रूप है। उसके विकाससे तत्कालीन इतिहासके हैं। उनमें से कुछका सार निम्नप्रकार है: निर्माणमें पर्याप्त महायता मिल सकती है। १-संवत् ११६६ गजा जयवर्मा, २-पवन १२.३, बुन्देलखण्उमें चन्दल कलचूरि प्रादि राजवंशोंके शासन ३–श्रीमन मदनवदिवराज्ये, सम्बत् १२१॥ अषाढ सुदि कालमें जैनधर्मका प्रभाव सर्वत्र व्याप्त रहा है और उस समय ३ गुरौ । ५-सम्बत् १२२० जेठसुदी ८ रवी माधु देवगण अनेक कलापूर्ण मूनियां तथा सं कड़ों मन्दिरोंका निर्माणभी तस्य पुत्ररत्नपाल प्रणमति निन्यम् । ६-पुत्राः साधु श्री हुआ है । खजुराहेकी कला तो इतिहासमें अपना विशिष्ट रत्नपाल तथा वस्तुपाल तथा त्रिभुवनपाल जिननाथाय प्रण- . स्थान रखती ही है । यद्यपि खजुराहामें कितनी ही खण्डित मति नित्यम् । -सं० १२२४ प्राषाढ सुदी २ रखौ, काल मूर्तियों पाई जाती हैं, जो साम्प्रदायिक विद्वं षका परिणाम पाराधियोति श्रीमत् परमाद्धिदेवपाद नाम प्रबर्द्धमान कल्या- जान पड़ती हैं। ण विजय गज्ये ... इस लेखमें चन्देलवंशी राजाओंके यहाँ मन्दिरोंके तीन विभाग हैं, पश्चिमीय समूह शिवनाम मयसमयादिके अंकित हैं, जिन्हें वृद्धिक भयसे यहां विष्णु मन्दिरोंका है। इनमें महादेव का मन्दिरही सबसे प्रधान नहीं दिया है। है। और उत्तरीय समूह में भी विष्णुके छोटे बड़े मन्दिर हैं। Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण६] अतिशय क्षेत्र खजुराहा [१६१ दक्षिण पूर्वीयभाग जैनमन्दिरोंकेसमूहसे अलंकृत है। यहाँ डाल देतो है, इन अलंकरण और स्थापत्य-कलाके नमूनोंमें महादेवजीकी एक विशाल मूर्ति ८ फुट ऊँची और ३ फुटसे मन्दिरोंका बह्य और अन्तर्भागविभूषित है । जहां कल्पनामें अधिक मोटी होगी। वराह अवतार भो सुन्दर है उसको सजीवता, भावनामें विचित्रता तथा सूचम-विचारोंका चित्रण ऊँचाई सम्भवतः ३ हाथ होगी। वंगेश्वरका मन्दिर भी सुन्दर इन तानोंका एकत्र संचित समूह ही मूर्तिकलाके प्रादर्शका और उन्नत है कालीका मन्दिर भी रमणीय है, पर मूर्तिमें नमूना है । जिननाथ मन्दिरके बाएं द्वार पर सम्बत् १०॥ माँकी ममताकाः अभाव दृष्टिगत होता है। उस भयंकरतासे का एक शिलालेख अंकित है जिससे ज्ञात होता है कि यह आच्छादित जो कर दिया है जिससे उसमें जगदम्बाको मन्दिर राजा धंगके राज्यकालसे पूर्व बना है। उस समय कल्पनाका वह मातृत्व रूप नहीं रहा । और न दया क्षमता ही मुनि वासवचन्दके समयमें पाहिलवंशके एक व्यक्ति पहिलेने को कोई स्थान प्रात है, जो मानवजीवनके खास अंग हैं। यहाँके जो घंग राजाक द्वारा मान्य था उसने मन्दिरको एक बाग हिन्दू मन्दिर पर जो निरावरण देवियों के चित्र उत्कीर्णित दखे भेंट किया था, जिसमें अनेक वाटिकाएं बनी हुई थी। वह जाते हैं उनसे ज्ञात होता है कि उस समय विलास प्रियताका लेख निम्न प्रकार है:अत्यधिक प्रवाह वह रहा था, इसीसे शिल्पियोंकी कलामें भी भी १ओंऽ [ux] संवत् १०११-समय।।निजकुल धवलोयंदि me ओ. ययेप्ट प्रश्रय मिला है। बजुराहक नन्दोकी मूर्ति , २ व्यमूर्तिस्वसी (शी) ल म श) मदमगुणयुक्तसर्वदक्षिण के मन्दिरों में अंकित नन्दी मूर्तियोंस बहुत कुछ साम्य ३ सत्वा (त्त्वा) नुकंपो [ix] स्वजनिततोषो धांगराजेन रखती है । यद्यपि दक्षिण को मूर्तियाँ श्राकार-प्रकारमें उससे ४ मान्यः प्रणमति जिननाथा यं भव्य पाहिल (ल्ज) कहीं बड़ी हैं। ५ नामा । (11) १।। पाहेल वाटिका १ चन्द्रवाटिकर ___वर्तमानमें यहां तीन हिन्दू मन्दिर और तीन ही जैन- ६ लघुचन्द्रवाटिका ३ स (शं) करवाटिका ४ पंचाइमन्दिोंमें सबसे प्रथम मंदिर घण्टाई का है। यह मन्दिर खजु- ७ तलुवाटिका ५ आम्रवाटिका ६ घ(धं)गवाडी [ux] राहा ग्रामकी ओर दक्षिण-पूर्व की और अवस्थित है इसके पाहिलवंसे(शे)तु क्षये क्षोणे अपरवेसी (शा) यःकोपि स्तम्भोंमें घण्टियोंकी बेल बनी हुई है। इसाम यह घंटाईका तिष्ठिति[rx]तस्य दासस्य दासायं ममदत्तिस्तु पालमन्दिर कहा जाता है। इस मन्दिरको शोभा अपूर्व है। १०येत् ॥ महाराज गुरु स्त्री (श्री) वासचन्द्र [ax] दूसरा मन्दिर आदिनाथ का है यह मन्दिर घटाई मन्दिरके चैप (शा) प (ख) सुदि ७ सोमदिने ॥ हाते में दक्षिण उत्तर पूर्व की ओर स्थित है। यह मन्दिर भी स्थित है। यह मान्दर भा शान्तिनाथका मन्दिर-इम मन्दिरमें एक विशाल दर्शनीय और रमणीय है । इस मन्दिरमें मूल नायकको जो मति जनियाक १६ ताथकर भगवान शान्तिनाथ की है, जो मूर्ति स्थापित थी वह कहां गई, यह कुछ ज्ञान नहीं होता। १४ फुट ऊंची है । यह मति शान्तिका प्रतीक है, इसकी नीसरा मन्दिर पाश्वनायका है। यह मन्दिर पत्र मन्दिरोंसे कला देखते ही बनता है। मूनि मांगोपांग अपने दिव्य विशाल है, इस मन्दिरमें पहले आदिनाथकी मूर्ति स्थापित था, रूपमें स्थित है। और एमी ज्ञात होती है कि शिल्पीने उसे उसके गायब हो जानपर इसमें पार्श्वनाथ की मूर्ति स्थापित की अभी बनाकर तैयार किया हो । मृति कितनी चित्ताकर्षक है गई है। इस मन्दिरकी दीवालोंक अलंकरणाम वैदिक देवी- यह लेखनीस परकी बात है। दर्शक उसे देख कर चकित देवताको मूर्तियां भा उकाणित की गई हैं । यह मन्दिर हा अपनी ओर दखनका इंगित प्राप्त करता है। अगलअत्यन्त दर्शनीय है। और मम्भवतः दशवीं शताब्दीका पना बगल में अनेक सुन्दर मूतियाँ विराजित हैं जिनकी संख्या हुमा हे। इसके पास ही शान्तिन थका मन्दिर है। इन सभी अनुमानतः २५ से कम गहीं जान पड़ती। यहां सहस्त्रों मन्दिरोंके शिखर नागर शलोके बने हुए हैं। और भी जहाँ मूर्तियाँ खारडत है । महस्त्रकूट चैत्यालयका निर्माण बहुत तहाँ बुन्देलखएइक मन्दिरोंके शिखरमा नागर शैलोके बने ही बारीकोंके साथ किया गया है। इस मन्दिरके दरवाजे हुए मिलते हैं । ये मन्दिर अपनी स्थापन्य कजा नूतनता और पर एक चौंतीसा यन्त्र है जिसमें सब तरफसे अंकोंको विचित्रताके कारण प्राषिक बने हुए हैं। यहांको मूर्ति-कला जोड़ने पर उनका योग चौंतोस होता है। यह यन्त्र बड़ा अलंकरण और अतुलरूप-राशि मानवकल्पनाको आश्चर्यमें ही उपयोगी है। जब कोई बालक बीमार होता है तब उम Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६.1 अनेकान्त विषे १३ यन्त्रको उसके गले में बांध दिया जाता है ऐसी प्रसिद्धि है। 'संः १२१५ माघसुदि ५रवो देशीयगणे पंडितः भगवान शान्तिनाथकी इस मूनिके नीचे निम्न लेख अंकित नाइ (ग) नन्दी तच्छिष्यः पंडित श्रीभानुकीर्ति है जिससे स्पष्ट है कि यह मूर्ति विक्रमको ११वीं शताब्दी आणिका मेरुश्री प्रतिनन्दतु । के अन्तिम चरण की है: ___ इस तरह बजुराहा अतिशय क्षेत्र स्थापन्यकलाकी दृष्टिसे 'सं० १०८५ श्रीमान् श्राचार्य पुत्र श्री ठाकुर देवधर अत्यन्त दर्शनीय है। परन्तु जनताका ध्यान इस क्षेत्रकी सुत सुत श्री शिवि श्रीचन्देय देवाः श्री शान्तिनाथस्य व्यवस्थाको अोर बहुत कम है । जवकि भारतके दूसरे क्षेत्रोंमें प्रतिमाकारितेति । तीर्थक्षेत्रोंकी तरक्की हुई है, उनमें सुविधानुसार विकास और खखुराहे को खरिडत मुनियों में से कुछ के लेख हुया है । तब बुन्देलखण्डका यह क्षेत्र अत्यन्त दयनीय निम्न प्रकार है-१ सं० ११४२ श्री आदिनाथ स्थितिमें पड़ा हुआ है। यहांके मन्दिर कलापूर्ण और लाखोंप्रतिष्ठाकारक श्रेष्टी बीवनशाह मायों सेठानी पद्मावती! की लागतके होते हुए भी वर्तमानमें उनका बन सकना सम्भव चौथे नं० की घेदीमें कृष्ण पाषाणको हथेली और नहीं है। अतः समाजका कर्तव्य है कि इस क्षेत्र की व्यवस्था नासिकासे खंडित जैनियोंके बीसवें नीर्थकर मुनि मुव्रतनाव सुचारु रूपसे होनी चाहिए। और ऐसा प्रयत्न होना चाहिये की एक मूर्ति है उसके लेखसे मालूम होता है कि यह जिससे जनताका उधर आकर्षण रहे । यदि हम अपने मूर्ति विक्रमकी १३ वी शताब्दीके शुरूमें प्रतिष्ठित हुई है। पूर्वजोंकी कीर्तिका मरक्षा नहीं कर सके वो जनता एमाले लेख में मूलसंघ देशीय गणके पण्डित्त नागनन्दीके शिष्य योग्यताका उपहास करेगी। पाशा है धर्मत्र मी सज्जन पं० भानुकीति और मार्यिका मेरुश्री द्वारा प्रतिष्ठित कराये इस पोर विशेष ध्यान देनेकी कृपा करेंगे। अने का उल्लेख किया गया है । वह लेख इस प्रकार है -परमानन्द जैन श्रीहीराचन्दजी बोहराका नम्र निवेदन और कुछ शंकाएँ (जुगलकिशोर मुग्तार) गत किरणसे आगे पं० टोडरमलजी-कृत मोक्षमार्गप्रकाशकके जो वाक्य इसमें बतलाया है कि मोहान्धकाररूप अज्ञानमय मिथ्याप्रमाणरूपमें उपस्थित किए गए हैं वे प्रायः सब अप्रासंगिक वका अपहरण होने पर-उपशम. क्षय या क्षयोपशकी दशाको असंगत अथवा प्रकृत-विषयके साथ सम्बन्ध न रखनेवाले हैं। प्राप्त होने पर-पम्यग्दर्शनकी-निर्विकार दृष्टिकी-प्राप्ति होती है, क्योंकि वे द्रव्यलिंगी मुनियों तथा मिथ्याष्टि-जैनियोंको और उम दृष्टिकी प्राप्तिसे सम्यग्ज्ञानको प्राप्त हुआ जो माधुलक्ष्य करके कहे गये हैं, जबकि प्रस्तुत पूजा-दान-वनादिरूप पुरुष है वह गग-द्वेषकी निवृत्तिके लिए सम्यक्चारित्रका सराग-चरित्र एवं शुभ-भावोंका विषय सम्यचरित्रका अंग अनुप्ठान करता है। इससे स्पष्ट है कि जिस चारित्रका उकहोनेसे वैसे मुनियों तथा जैनियोंसे सम्बन्ध नहीं रखता, अन्थमें श्रागे निधान किया जा रहा है वह सम्यग्दर्शन तथा बल्कि उन मुनियों तथा जैनश्रावकोंसे सम्बन्ध रखता है जो सम्यक्ज्ञान-पूर्वक होता है-उनके विना अथवा उनसे शून्य सम्यग्दृष्टि होते हैं। इसीसे पंचमादि-गुणस्थानवर्ति-जीवोंके नहीं होता-और उसका लक्ष्य है राग-दूषकी निवृत्ति । लिये उन पूजा-दान व्रतादिका पविशेष रूपसे विधान है। अर्थात् राग-द्वेषकी निवृत्ति साध्य है और व्रतादिका पाचरण, स्वामी समन्तभद्रने,सम्यक्चारित्रक वर्णनमें उन्हें योग्य स्थान जिसमें पूजा-दान भी शामिल हैं, उसका साधन है। जबतक देते हुए, उनकी दृष्टिको निम्न वाक्यके द्वारा पहले ही स्पष्ट साध्यकी सिद्धि नहीं होती तबतक साधनको अलग नहीं किया करदिया है जासकता-उसकी उपादेयता बराबर बनी रहती है । सिद्धत्वमोहतिमिरापहरणे दर्शनलाभादवाप्तसंज्ञानः । की प्राप्ति होने पर रगधनकी कोई आवश्यकता नहीं रहती और राग-द्वेपनिवृत्यै चरणं प्रतिपद्यते साधुः॥ इस दृष्टिसे वह हेय ठहरता है। जैसे कोठेकी छत पर पहुंचने Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ६] श्रीहीराचन्दजी बोहराका नम्र निवेदन और कुछ शंकाएँ - - पर यदि फिर उतरना न हो तो सौदी (निसेनी) बेकार हो एक शत्रुको उपकारादिके द्वारा अपनाकर उसके सहारेसे जाती है अथवा अभिमत स्थानपर पहुँच जानेपर यदि फिर दूसरे महाहानिकारक प्रबल शत्रुका उन्मूलन (विनाश) किया लौटना न हो तो मार्ग बेकार होजाता है। परन्तु उससे पूर्व जाता है। राग-दू'ष और मोह ये तीनों ही प्रात्माके शत्रु हैं, अथवा अन्यथा नहीं। कुछ लोग एकमात्र साधनोंको ही साध्य जिनमें राग शुभ और अशुभके भेदसे दो प्रकार है और समझ लेते हैं-असली साध्यकी और उनकी दृष्टि ही नहीं अपने स्वामियों सम्यग्दृष्टि तथा मिथ्यार्मिक भेदसे और भी होती-ऐसे साधकोंको लक्ष्य करके भी पं० टोडरमल जीने भेदरूप हो जाता है। सम्यग्दृष्टिका राग .पूजा-दान-प्रतादिकुछ वाक्य कहे हैं। परन्तु वे लोग दृष्टिविकारके कारण चूंकि रूप शुभ भावोंके जालमें बँधा हुआ है और इससे वह मिथ्यादृष्टि होते हैं अतः उन्हें लक्ष्य करके कहे गये वाक्य अल्पहानिकारक शत्रुके रूपमें स्थित है, उसे प्रेमपूर्वक भी अपने विषयसे सम्बन्ध नहीं रखते और इसलिये वे प्रमाण अपनानेसे अशुभगग तथा •ष और मोहका सम्पर्क छूट कोटिमें नहीं लिये जासते-उन्हें भी प्रमाणबाह्य अथवा जाता है, उनका सम्पर्क छूटनेसे आत्माका बल बढ़ता है प्रमाणाभास समझना चाहिये । और उनसे भी कुछ भोले और तब सम्यग्दृष्टि उस शुभरागका भी त्याग करनेमें भाई से ठगाये जा सकते हैं-दृष्टिविकारसे रहित आगमके समर्थ हो जाता है और उसे वह उसी प्रकार त्याग देता है ज्ञाता व्युत्पड पुरुष नहीं। जिस प्रकार कि पैरका कांटा निकल जाने पर हाथके कांटेको टोडरमल्लजीके वाक्य जिन रागादिके सर्वथा निषेधको त्याग दिया जाता अथवा इस प्राशंकासे दूर फेंक दिया जाता लिये हुए हैं वे प्रायः वे रागादिक हैं जो दृष्टिविकारके शिकार है कि कहीं कालान्तरमें वह भी पैरमें न चुभ जाया क्योंकि हैं तथा जो समयसारको उपर्युल्लिखित गाथा नं० २०१, उप शुभरागसे उसका प्रेम कार्यार्थी होता है, वह वस्तुतः २०२ में विवक्षित हैं और जिनका स्पष्टीकरण स्वामी उसे अपना सगा अथवा मित्र नहीं मानता और इसलिए समन्तभद्रके युक्त्यनुशासनकी 'एकान्तधर्माभिनिवेशमला कार्य होजाने पर उसे अपनेसे दूर कर देना ही श्रेयकर रागदयोऽहंकृतिजा जनानाम्' इत्यादि कारिकाके श्राधार समझता है । प्रन्युत इसके, मिथ्यादृष्टिके रागकी दशा दूसरी पर पिछले लेखमें, कानजीस्वामी पर आनेवाले एक होनी है, वह उसे शत्रुके रूपमें न देख कर मित्रके रूपमें आरोपका परिमार्जन करते हुए, प्रस्तुत किया गया था-वे देखता है, उससे कार्यार्थी प्रेम न करके सच्चा प्रेम करने रागादिक नहीं हैं जो कि एकान्तधर्माभिनिवेशरूप मिथ्या- लगता है और हमी भ्रमके कारण उसे दूर करनेमें समर्थ दर्शनके अभावमें चारित्रमोहके उदयवश होते हैं और जो नहीं होना । यही सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टिके शुभरागमें ज्ञानमय होनेसे न तो जीवादिकके परिज्ञानमें बाधक है और परम्पर अन्तर है-एक गगढ़पका निवृत्ति अथवा बन्धनन समता-वीतरागकी साधनामें ही बाधक होते। इमोसे से मुक्रिमें सहायक है तो दूसरा उममें बाधक है। इसी जिनशासनमें परागचारित्रकी उपादेयताको अंगीकार किया दृष्टिको लेकर सम्यग्दृष्टिके सरागचारित्रको मोक्षमार्ग में गया है। परिगणित किया गया है और उसे वीतरागचारित्रका साधन यहाँ पर एक प्रश्न उठ मकता है और वह यह कि माना गया है । जो लोग एकमात्र वीतराग अथवा यथाख्यातजब सम्यक्चारित्रका लक्ष्य 'रागद्वेषको निवृत्ति' है, जैसा चारित्रको हो मम्यक्रचारित्र मानते हैं उनकी दशा उस कि उपर बतलाया गया है, तब सरागचारित्र उसमें सहायक मनुष्य जैसी है जो एकमात्र उपरके डंडेको ही सीढ़ी अथवा कैसे हो सकता है ? वह तो रागसहित होनेके कारण लक्ष्य- भूमिके उस निकटतम भागको ही मार्ग समझता है जिससे की सिद्धि में उल्टा बाधक पड़ेगा। परन्तु बात ऐसी नहीं है, अगला कदम कोठेकी छत पर अथवा अभिमत स्थान पर इसके लिये 'कंटकोन्मूल' सिद्धान्तको लक्ष्यमें लेना चाहिये। पड़ता है, और इस तरह बीचका मार्ग कट जानेसे जिस जिस प्रकार पैरमें चुभे हुए और भारी वेदना उत्पस करने प्रकार वह मनुष्य अपरके डंडे या कोठेकी छत पर नहीं पहुँच वाले कांटेको हाथमें दूसरा अल्पवेदनाकारक एवं अपने सकता और न निकटतम अभिमत स्थानको ही प्राप्त कन्ट्रोलमें रहनेवाला कांटा लेकर और उसे पैरमें चुभाकर, कर सकता है उसी प्रकार वे लोग भी न तो यथाख्यातउसके सहारेसे, निकाला जाता है उसी प्रकार अल्पहानिकारक चारित्रको ही प्राप्त होते हैं और न मुनिको ही प्राप्त कर Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६४] अनेकान्त [वर्ष १३ सकते हैं। ऐसे लोग वास्तवमें जिमशासनको जानने-समझने पुण्यात्रव भी मानना और संघर निर्जरा भी मानना सो भ्रम और उसके अनुकूल आचरण करनेवाले नहीं कहे जा है। सम्यग्दृष्टि अवशेष सरागताको हेय अदह है, मिथ्याटि सकते, बल्कि उसके दूषक विधातक एवं खोपक ठहरते हैं। सरागभावविष संवरका भ्रम करि प्रशस्तराग रूप कर्मनिको क्योंकि जिनशासन निश्चय और व्यवहार दोनों मूलमयोंके उपादेय अब है।" कथनको साथ लेकर चलता है और किसी एक ही नयके इस उद्धरणका रूप पं० टोडरमलजी की स्वहस्तलिखित बक्रव्यका एकान्त पक्षपाती नहीं होता। पं. टोडरमलजीने , प्रति परसे संशोधितकर छपाये गये सस्ती ग्रन्थमालाके संस्कदोनों नयोंकी दृष्टिको साथमें रक्खा है और इसलिये ___ रणमें निन्न प्रकार दिया हैकिसी शब्दचलके द्वारा उसे अन्यथा नहीं किया जा सकता। हाँ, जहाँ कहीं वे चूके हों वहां श्री कुन्दकुछ और "जे अंश वीतराग भए तिनकरि संवर है पर जे अंश स्वामी समन्तभन्न-जैसे महान् प्राचार्योके वचनोंसे हो उसका सराग रहे तिनकरि बंध है। सो एक भावतें तो दोयकार्य समाधान हो सकता है। . टोडरमलजीने मोक्षमार्गप्रका- बनै परन्तु एक प्रशस्त रागहोते पुण्याभव भी मानना और शकके में आपकारमें ही यह साफ लिखा है कि- संवर निर्जरा भी मानना सो भ्रम है। मिश्रभाव विषै भी "सो महानतादि भए ही वीतरागचारित्र हो है ऐसा यह सरागता है, यह वीतगगता है ऐसी पहचानि सम्यसम्बन्ध जानि महावतादिविष चारित्रका उपचार (व्यवहार) दृष्टि होके होय तातै प्रवशेष सरागताको हेय श्रद्धहे है किया है। मिथ्यारष्टीके ऐसी पहचानि नाहीं तात सरागभाव विष "शुभोपयोग भए शुद्धोपयोगका यत्न करे तो (शुद्धोपयोग) होय जाय बहुरि जो शुभायोगही को भला जानि ताका संवरका भ्रम करि प्रशस्तरागरूप कार्यनिको उपादेय श्रद्धहै है।" साधम किया करे तो शुद्धोपयोग कैसे होय।" श्रीबोहराजीके उद्धरणको जब इस उद्धरणसे तुलना इन वाक्यों में वीतरागचारित्र के लिए महावतादिके पूर्व कान न की जाती है तो मालूम होता है कि उन्होंने अपने उद्धरण अनुष्ठामका और शुद्धोपमोगके लिए शुभोपयोग रूप पूर्व में उन पद-वाक्यों को छोड़दिया है जिन्हें यहाँ रेखाङ्कित किया परिणतिके महत्वको ख्यापित किया गया है। गया है और जो सम्यग्दृष्टि तथा मिथ्यादृष्टिकी वैसी श्रद्धाके ऐसी स्थितिमें जिस प्रयोजनको लेकर ५० टोडरमलजी सम्बन्धमें हेतु उल्लेखको लिये हुए हैं। उनमेंसे द्वितीय तथा के जिन वाक्योंको उद्धत किया गया है उनसे उसकी सिजि तृतीय रखाङ्कत वाक्योंके स्थान पर क्रमशः सम्यग्दृष्टि' तथा नहीं होती। 'मिथ्याष्टि' पदोंका प्रयोग किया गया है और उद्धारणकी पहली ग्रहाँ पर में इतना और प्रकट कर दना चाहता पनिमें 'संवर हे' के प्रागे 'ही' और दूसरी पंक्तिमें 'बन्ध' के है कि श्रीबोहराजीने प० टोडरमल्नजाक वाक्योंको भी डबल पूर्व 'पुण्य' शब्दको बढ़ाया गया है । और इस तरह दमरेइन्वर्टड कामाज " के भीतर रक्या है और वैसा करक के वाक्यों में मनमानी काट-छाँट कर उन्हें असली वाक्योंके यह सूचित किया तथा विश्वास दिलाया है कि वह उनके रूपमे प्रस्तुत किया गया है, जो कि एक बड़े ही खेदका विषय वास्यों का पूरा रूप ह-उसमें काई पद-वाक्य छोड़ा या है ! जो लोग जिज्ञासुकी दृष्टिसे इधर तो अपनी शंकाओंका घटाया-बढ़ाया गया नहीं है । परन्तु वस्तुस्थिति ऐसी मालूम समाधान चाहे अथवा वस्तुतत्त्वका ठीक निर्णय करनेके नहीं होती-वाक्योंके उद्ध्त करनेमें घटा-बढ़ी की गई है. इच्छुक बनें और उधर जान-बूझकर प्रमाणोंको गलत रूपमें जिसका एक उदाहरण यहाँ प्रस्तुत किया जाता है। बोहराजी प्रस्तुत करें, यह उनके लिये शोभास्पद नहीं है। इससे का वह उद्धरण, जो मिश्र-भावक वर्णनसे सबंध रखता है, तो यह जिज्ञासा तथा निर्णयबुद्धिकी कोई बात नहीं रहती, निम्न प्रकार है - बल्कि एक विषयकी अनुचित वकालत ठहरती है, जिसमें "जे अंश वीतराग भए तिनकरि संबर है धी-पर जे झूठे-सच्चे जाली और बनावटी सब साधनोंसे काम लिया अंश सराग रहे तिनकरि पुरयबन्ध है-एकप्रशस्त रागहीते जाता है। (क्रमश.) Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूजा राग-समाज, तातें जैनिन योग किम ! (पूजा-विषयक रोचक शंका-समाधान ) [स्व० ५० ऋषभादसजी चिलकानवी] [ यह कविता उस 'पंचवालयलिपूजापाठ' का एक अंश है जिसे चिलकाना जिला सहारनपुर निवासी पं० ऋषभदासजी अग्रवाल जैनने, अपने पिता कवि मंगलसेनजी और बाबा सुखदेव तथा विवुध सन्तलालजी की आज्ञानुसार लिखा था और जो उनके प्राथमिक जीवनकी कृति है तथा मधुशुक्ला अष्टमी विक्रम सं० १६४३को बनकर समाप्त हुई थी। आप उर्दू-फार्सी भाषाके बहुत बड़े विद्वान थे और बादको आपने उर्दू में मिथ्यात्वनाशक नाटक' नामका एक बड़ा ही सुन्दर मनोरंजक एवं ज्ञानवर्धक ग्रन्थ लिखा है, जिसके कुछ भाग प्रकट हुए थे परन्तु यह पूरा प्रन्य अभीतक प्रकट नहीं हो पाया। उस ग्रन्थसे आपकी सूझबूझ और प्रतिमाका बहुत कुछ पता चलता है। खेद है कि भापका ३४-१५ वर्षकी युवावस्थामें ही स्वर्गवास हो गया था। अन्यथा आपके द्वारा समाजका बहुत बड़ा काम होता। -जुगलकिशोर मुख्तार] सोरठा-जो यह संकैकोय, जिंह सिंह जिन-सूत्रन-विर्षे । राग-द्वेष ये दोय, बन्ध-मूल तजने कहे ॥१॥ इम सोचत टुक दृष्टि चतुर्दिस धारतो। लन्यो अहेरी-जाल-बध्यो मंजार तो॥ चतुराईसों धैर्य धार ता विंग गयो। पूछो तिनकरि हर्ष केम प्रावन भयो ॥७॥ पूजा राग-पमाज़, है बाहुल्यपने सही। सो करि होय काज, तातै जैनिन योग किम ॥२॥ तिनको उत्तर-रूप, कहूँ प्रथम दृष्टान्त यह। जिनमत परम अनूप, अनेकान्त सत्यार्थ है॥३॥ बोल्यो सुन मंजार ! बंध्या तोहि जानकै। यद्यपि नटतो सरस इरस चित ठानकै।। तद्यपि काढू बध माज सर्व मैं तेरे। पर जले हो स्वीकार वचन तोकों मेरे॥८॥ (ममाधानात्मक कथा)अडिल्ल-इक दुमतल वनमाहि, एक मूपक रहै । दीरघदरमी विज. विचक्षण, गुण गहै ॥ बिलने निसरो नैवयोग मो एकता। भोजन-हेरन-काज फिरत थो जिम सदा ॥४॥ मम भरि वायम नकुल तके मम मोर हो। तिमसे लेहु बचाय भापहूँ छोर ही। मार्जार कहि मीत चतुर ! सो विध कहो । है मोहि सब स्वीकार बच्चन सच सर्द हो ॥६॥ आगे लख मंजार चकित-चित हो फिरो। पोछे दखो नकुल निजासामें निरो॥ ऊपर वायस दल मरण निश्चय किया। लाग्यो करन विचार बर्च अब किम जिया ॥५॥ मूसक बोल्यो यार ! आऊँ जब तो कने। तू कीजो सम्मान वचन हिनके घने ॥ तब वे तज मम पास भ6 वायस-नकुल । जो प्रागे पग धरूं बिलाई भखत है, हटत नकुल उत टले न मम दिस लखत है। पर जो ठैरूं यहीं काक बोर्ड नहीं। हाय ! सरण-थल दृष्टि परत कोउ ना कहीं ॥६॥ मम हिय पुलकित होय जेम अम्बुज-बकुल ॥१॥ तब काहूँ सब बन्ध नरे विश्वास गह। है दोउनके प्राण-वचनका यतन यह ॥ ® इस ग्रन्थको हिन्दी में अनुवादित कर 'अनेकान्त' में निकालने का विचार हो रहा है। Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त वर्ष १३ सुन बिलाव स्वीकार कियो इम चिन्तियो। मूसक बिन जीतव्य दृष्टि भावै गयो॥११॥ लिंग बुलाय सन्मान कियो बहु प्रेमसों। काक-नकुल भज गये मूस रह्यौ मलों ॥ पुन निजवच-अनुसार बँध काटन लग्यो । पर निज रक्षण संक फेर इम हिय जग्यो ॥१२॥ मम दारुण परि जाति-विरोधी यह सही। किम छोड़ेगो छुटत एम चिन्ता लही॥ मार्जार कहि मीत । सिथल कैसे भये। कहा द्रोहकी ठई विसर निजवच गये ॥१३॥ मूस कही मंजार ! अनल वारिज जनै। तथपि ठान द्रोह कदें यह ना बने । तोते उपजै संक सिथल तातें रहूँ। पर कार्टू सब बन्ध धीर रख सच कहूँ ॥ १४ ॥ कहि बिलाव सौं खाय गही मैं मित्रता । तो चितते तोऊ नाहिं गई यह चित्रना। किम काटेगो बन्ध चित्त संकित रहे। अविश्वास तज मान वचन नीक कहे ॥१६॥ मुम कही कार्यार्थि म हमने किया। निश्चय तू मम जाति-विरोधी निर्दया । सो कार्यार्थी प्रीति कार्य-परिमित हनी। तात मोहे कर्तव्य है रक्षा निज तनी॥१५॥ फुन निजवचन-निर्वाह हु मोहे करना सही। दोउ विषमता बनी चिंति यह विधि लही॥ एक कठिन बैंध छार और काढूँ सभी। जब ताहे पकडन वधिक यहाँ श्रावै अभी॥१७॥ तू मोहे विसरै व्याकुन्ज मोहे अति कष्ट है। तब वह बन्धहु काटू भजे दुख नष्ट है। पुन ऐसा ही कियो मूल धीधारने । हं प्रसन्न स्वीकार, कियो मंजारने ॥१८॥ दोहा-एते पायो बधिक तिह, श्रोतु देखि हर्षाय। कार्य-सिद्धिको दखिक, सबको चित उमगाय ॥१६॥ पकड़न पायो निपट ढिंग, व्याकुल भयो बिलाव । मूसक उत बँध काटियो, भागे लख निज दाव ॥२०॥ भो भव्य! विचारहू ज्यों सब निवरै भ्रान्त । तिस ही प्रश्नको समझिये उत्तर यह दृष्टान्त ॥२१॥ भाव-अर्थ यह यद्यपि रिपु सब तजने योग । तद्यपि बहु मैं एककी पक्ष गहै सुमनोग॥ २२॥ कार्य भये सोहू तजै, पर कर प्रति-उपकार । निज-रक्षा रख मुख्य जिम मूस तज्यो मंजार ॥२३॥ फुन विशेष कछु कहत हूँ, सुनन-योग्य मतिमान । वाद-बुद्धि तज भ्रम मिटै, खोज-बुद्धि चित पान ॥२४ अडिल्ल-मूस ममम जिय, जगत महाबिल जानिये। नकुल द्वेष अरु काग, मोहको मानिये ॥ राग महा मंजार, बँध्यो वृष-जालमें ! पूजा अरु दानादि, बन्ध-विकरालमें ॥२४॥ जिय सुख-भोजन-काज मनुष-गति नीसरो। दो रिपुते डर मिल्यो बँध्यो लख तीसरो॥ पूजन-राग-प्रभाव द्वेष-मोह आय भये । इत्यादिक दुख दोष शेष अरि सब गये ॥ २६॥ फुन जिय मोचो याका हू विश्वास जो। गहूँ न छाडे अधिक करै भव-वाम को । पर मोहे निश्चय करना प्रति-उपकार भी। पर न सके जब मोहि ये भवमें डार भी॥२७॥ इम विधि चिन्तत दाव तकत निस-दिन रह्यो । बल मुग्व दृग पर ज्ञान अखिल जब यि लयो । तब सब श्रारज दम विहर उपदेमियो। ' जिन-पूजन-प्रस्ताव सातिशय जग कियो ॥२८॥ जो है व्युत्पन्न मोक्षपद ते लहैं। सठमति राग-द्वेष मोह-मुखमें रहें। जो जिन-भरचन-राग-सरण नाहीं गहैं। ममझ न किम भव-मांहि शत्रु-कृत दुख सहैं ॥२॥ दोहा-तातें जिनपूजा जिया, नित करनी जुत चाव । नरगति श्रावक-कुल मिल्या, नहीं चूकना दाव ॥३०॥ लघु-धी-सम उत्तर कहा, संसय रहै जु शेष । ऋषभदास जिनशास्त्र बहु, देखहु भव्य विशेष ॥३१ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीरसेवामन्दिरके सुरुचिपूर्ण प्रकाशन (१) पुरातन-जैनवावय-मृची-प्राकृतके प्राचीन ६४ मूल-ग्रन्थाको पद्यानुक्रमणी, जिसके साथ ४८ टीकादिग्रन्थोमें उद्धत दूसरे पोंकी भी अनुक्रमणी लगी हुई है । सब मिलाकर २५३५३ पच-चाक्योंको सूची । संयोजक और सम्पादक मुख्तार श्रीजुगलकिशोरजी की गवेषणापूर्ण महत्वको ७० पृष्ठको प्रस्तावनासे अलंकृत, डा० कालीदास नागर एम. ए., डी. लिट् के प्राकथन (Foremond) और डा. ए. एन. • उपाध्याय एम. ए. डी.लिट की भूमिका (IDuoduction) से भृषित है, शोधखोजके विद्वानों के लिये अतीव उपयोगी, बड़ा माइज, जिल्द ( जिसकी प्रस्तावनादिका मूल्य अलगमे पांच रुपये है) (२) आप्त-परीक्षा-श्रीविद्यानन्दाचार्यकी स्वोपज्ञ सटीक अपूर्वकृति,प्राप्तोंकी परीक्षा द्वारा ईश्वर-विषयके सु दर मरस और मजीव विवेचनको लिए हुए, न्यायाचार्य पं० दरबारीलालजी के हिन्दी अनुवाद तथा प्रस्तावनादिसं युक्त, मजिल्द । (३) न्यायदीपिका-न्याय-विद्याकी सुन्दर पाथी, न्यायाचार्य पं० दरबारीलालजीके संस्कृतटिप्पण, हिन्दी अनुवाद, विस्तृत प्रस्तावना और अनेक उपयोगी परिशिष्टांस अलंकृत, सजिल्द। ... (४) स्वयम्भूस्नात्र--समन्तभदभारतीका अपूर्व प्रन्थ, मुग्तार श्रीजुगलकिशारजीके विशिष्ट हिन्दी अनुवाद छन्त्रपरि चय, समन्तभद्र-परिचय और भक्तियोग, ज्ञानयोग तथा कर्मयोगका विश्लेषण करती हुई महत्वकी गवेषणापूर्ण १०६ पृष्ठकी प्रस्तावनासे सुशोभित । (५) स्तुतिविद्या-ग्वामी समन्तभद्रकी अनोखी कृति, पापोंके जीननेकी कला, सटीक, सानुवाद और श्रीजुगलकिशोर मुख्तारकी महत्वकी प्रस्तावनादिसे अलंकृत सुन्दर जिल्द-सहित । (६) अध्यात्मकमलमार्तण्ड-पंचाध्यायीकार कवि राजमलकी सुन्दर आध्यात्मिक रचना, हिन्दीअनुवाद-हित और मुख्तार श्रीजुगलकिशोरकी खोजपूर्ण ७ पृष्ठकी विस्तृत प्रस्तावनास भूषित । (७) युक्त्यनुशासन-तत्त्वज्ञानमे परिपूर्ण समन्तभद्रकी असाधारण कृति, जिसका अभी तक हिन्दी अनुवाद नहीं हुआ था । मुख्तारश्रीके विशिष्ट हिन्दी अनुवाद और प्रस्तावनादिस अलंकृत, सजिल्द। ) (८) श्रीपुरपाश्वनाथस्तोत्र-प्राचार्य विद्यानन्दरचित, महस्वकी स्तुति, हिन्दी अनुवादादि सहित। ... m) (६) शामनचतुस्त्रिशिका-(तीर्थपरिचय)-मुनि मदनकीनिकी १३ वीं शताब्दीको सुन्दर रचना, हिन्दी अनुवादादि-सहित। (१० सत्साधु-म्मरण-मंगलपाठ-श्रीवीर वर्द्धमान और उनके बाद के २१ महान् प्राचार्या के १३७ पुण्य-म्मरणांका महत्वपूर्ण संग्रह, मुख्तारश्रीक हिन्दी अनुवादादि-सहित । (११) विवाह-समुहश्य - मुख्तारश्रीका लिखा हुआ विवाहका सप्रमाण मार्मिक और तात्विक विवेचन ... .) ।१२) अनेकान्त-रस-लहरी-अनेकान्त जैसे गूढ गम्भीर विषयको अवती सरलतासे समझने-समझानेकी कुजी, मुख्तार श्रीजुगलकिशोर-लिखित । (१३) अनित्यभावना-पा० पद्मनन्दी की महत्वकी रचना, मुख्तारश्रीक हिन्दी पद्यानुवाद और भावार्थ सहित ) (१४) तत्त्वार्थसूत्र-(प्रभाबन्द्रीय)-मुख्तारश्रीके हिन्दी अनुवाद तथा व्याख्याने युक्त। " ।) (१५) श्रवणबेल्गोल और दक्षिणके अन्य जैनतोथ क्षेत्रला . राजकृष्ण जैनको सुन्दर मचित्र रचना भारतीय पुरातत्व विभागके डिप्टी डायरेक्टर जनरल डाल्टी०एन० रामचन्द्रनकी महत्व पूर्ण प्रस्तावनाम अलंकृत १) नाट-ये सब ग्रन्थ एकसाथ लेनवालोंका ३८॥) की जगह ३०) में मिलेंगे। ज्यवस्थापक 'वीरसेवामन्दिर-ग्रन्थमाला' वरसेवामन्दिर, १ दरियागंज, दहली Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Regd. No. D. 211 अनेकान्तके संरक्षक और सहायक ... थिजा, संरक्षक १०१) बाल शान्तिनाथजी कलकत्ता १५००) बा० नन्दलालजी सरावगी, कलकत्ता १०१) बा० निर्मलकुमारजी कलकत्ता २५१) बा० छोटेलालजी जैन सरावगी १०१) बा० मोतीलाल मक्खनलालजी, कलकत्ता २ २५१) बा० सोहनलालजी जन लमेचु , १०१) बा० बद्रीप्रसादजी सरावगी, २५१) ला० गुलजारीमल ऋषभदासजी १०१) बा० काशीनाथजी, *२५१) बा० ऋषभचन्द (B.R.C:. जैन , १०१) बा० गोपीचन्द रूपचन्दजी २५१) बा० दीनानाथजी सरावगी १०१) बा० धनंजयकुमारजी २५१) बा० रतनलालजी झांझरी १०१) बा जीतमलजी जैन २५१) बा० बल्देवदासजी जैन सरावगी १०१) बा० चिरंजीलालजी सरावगी २५१) सेठ गजराजजी गंगवाल १०१) बा० रतनलाल चांदमलजी जैन, राँची २५१) सेठ मुआलालजी जैन १०१) ला० महावीरप्रसादजी ठेकेदार, देहली २५१) बा. मिश्रीलाल धर्मचन्दजी , १०१) ला० रतनलालजी मादीपुरिया, देहली २५१) सेठ मांगीलालजी १०१) श्री फतेहपुर जैन समाज, कलकत्ता २५१) मेठ शान्तिप्रसादजी जैन , १०) गुमसहायक, सदर बाजार, मेरठ २५१) बा० विशनदयाल रामजोवनजी, पुलिया १०१) श्री शीलमालादेवी धर्मपत्नी डा०श्रीचन्द्रजी, एटा *२५१) ला० कपूरचन्द धूपचन्दजी जैन, कानपुर १०१) ला०मक्खनलाल मोतीलालजी ठेकेदार, देहली २५१) बा० जिनेन्द्रकिशोरजी जैन जौहरी, देहलो १०१) बा० फूलचन्द रतनलालजी जैन, कलकत्ता २५१) ला० राजकृष्ण प्रेमचन्दजी जैन, देहली १०१) बा० सुरेन्द्रनाथ नरेन्द्रनाथजी जैन, कलकत्ता २५१) बा० मनोहरलाल नन्हेंमलजी, देहली १०१) बा० वंशीधर जुगलकिशोरजी जैन, कलकत्ता 4 २५१) ला त्रिलोकचन्दजी, सहारनपुर १०१) बा. बद्रीदास आत्मारामजी सरावगो, पटना २५१) मेठ छदामीलालजी जैन, फीरोजाबाद १०१) ला० उदयराम जिनेश्वरदासी सहारनपुर * २५१) ला० रघुवीरसिंहजी, जैनावाच कम्पनी, देहली १०१) बा० महावीरप्रसादजी एडवोकेट, हिसार २५१) रायबहादुर सेठ हरखचन्दजी जैन, रांची १०१) ला० बलवन्तसिंहजी, हांसी जि० हिसार २५१) सेठ वधीचन्दजी गंगवाल, जयपुर १८१) सेठ जाखीरामबैजनाथ सरावगी, कलकत्ता १०१) बाबू जिनेन्द्रकुमार जैन, सहारनपुर सहायक १०१) वैद्यराज कन्हैयालालजी चद औषधालय,कानपुर *१०१) बा० राजेन्द्रकुमारजी जैन, न्यू देहली १०१) ला० प्रकाशचन्द व शीलचन्दजी जोहरी, देहलो १०१) ला० परसादीलाल भगवानदासजी पाटनी, देहली इला १०१) ला० रतनलाल जी कालका वाले, देहली १०१) बा० लालचन्दजी बो० सेठी, उज्जैन १०१) बा० घनश्यामदास बनारसीदासजी, कलकत्ता अधिष्ठाता 'वीर-सेवामन्दिर' १०१) बा० लालचन्दजी जैन सरावगी , सरसावा, जि. सहारनपुर प्रकाशक-परमानन्दजी जैन शास्त्री दि. जैन लालमंदिर देहली। बक-प-वाणी प्रिटिग हाऊस २३. दरियागंज, राखी Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- - अनेकाने अक्टूबर-नवम्बर १९५४ सम्पादक-मण्डल जुगलकिशोर मुख्तार छोटेलाल जैन जयभगवान जैन एडवोकेट परमानन्द शास्त्री marwasaamaan - RatanARAK . mamme MORamesnepmom meme विषय-सूची १ ममन्तभारती ( देवागम)... ... [युगवार १८ २ चन्दल युगका एक नवीन जैन प्रतिमा लेख [प्रो० ज्योतिप्रसादजी जैन एम. ए. ३ हिन्दी भाषा कुछ ग्रन्थोंकी नई खोज- [परमानन्द जैन ११ ४ किमकी जीत (कविता)- ... नेमिचन्द्र जैन 'विनम्र १०६ ५ वादीचन्द्र रचित अम्बिका कथामार-श्री अगरचन्द नाहटा 10 ६ मलयीति और मूलाचार- ... ... परमानन्द जैन १०६ ७ बागड़ प्रान्तक दो दिगम्बरजैन मन्दिर- [परमानन्द जैन ११२ ८ ५० दीपचन्दजी शाह और उनकी रचनाएँ - [परमानन्द शाम्बी ११३ ६ मम्यग्दृष्टि और उपका व्यवहार - [चुल्लक मिद्धिमागर ११७ १० पोमहराम और भ• जानभूषण- ... [परमानन्द जैन १६६ ११ मुत्रिगान ( कविता )- ... [श्री 'मनु ज्ञानार्थी १२० किरण - १२ ममन्तभद्र-भारती देवागम) ... [युगवीर १२१ १३ श्रीवीर जिनपूजाप्टक ( कविता )-[ जुगलकिशोर मुग्तार १४ हुबंड या हमडश और उसक महत्वपूर्ण कार्य [परमानन्द जैन शास्त्री १५ पंडित और पंडित-पुत्रोंका कर्तव्य-[पुल्लक मिद्धिसागर १६ असंगी जीवोंकी परमम्परा -[डा. होरालालजी एम.. १. माहित्य-परिचय और समालोचन-- [परमानन्द जैन १८ अभिनन्दन पत्र११ श्री धवल ग्रंथराजके दर्शनोंका अपूर्व प्रायोजन--परमानन्द जैन २. श्री होगचन्द बोहराका नम्र निवेदन और कुछ शंकाएँ [जुगलकिशोर मुख्तार २१ श्री. ८० मुख्तार मा. से नम्र निवेदन [श्री. होरावन्द बोहरा बी.ए. 4mrat. mramma अनेकान्त वर्ष १३ किरण ४-५ mkCWMMM r ANIMAL Horse Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन्म-जयन्ती जैन समाजके सुप्रसिद्ध ऐतिहासिक विद्वान प्राचार्य जुगलकिशोर जी मुख्तार, अपने जीवन के ७७ वर्षको पूरा कर, मंगशिर शुक्ला एकादशी दिन सोमवार ता० ६ दिसम्बर को ७८वे वर्ष में प्रवेश कर रहे हैं। हमारी हार्दिक कामना है कि मुख्तार साहच शतवर्ष जीवी हो । परमानन्द जैन समाधितन्त्र और इष्टोपदेश वीरसेवामन्दिरसे प्रकाशित जिस 'समाधितन्त्र' ग्रन्थके लिये जनता असेंसे लालायित थी वह प्रन्थ इष्टोपदेशके साथ इसी सितम्बर महीनेमें प्रकाशित हो चुका है । आचार्य पूज्यपादकी ये दोनों ही आध्यात्मिक कृतियाँ अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं । दोनों ग्रन्थ संस्कृत टीकाओं और पं० परमानन्दजी शास्त्रीके हिन्दी अनुवाद तथा मुख्तार जुगलकिशोरजीकी खोजपूर्ण प्रस्तावनाके साथ प्रकाशित हो चुका है। अध्यात्म प्रेमियों और स्वाध्याम प्रेमियों के लिये यह ग्रन्थ पठनीय है। ३५० पेजकी सजिन्द प्रतिका अन्य ३) रुपया है। अनेकान्तको सहायताके सात माग (1) अनेकान्तके 'संरक्षक'-तथा 'सहायक' बनना और बनाना । (२) स्वयं अनेकान्तके ग्राहक बनना तथा दूसरों को बनाना। (३)विवाह-शादी भादि दानके अवसरों पर अनेकान्तको अच्छी सहायता भेजना तथा भिजवाना। (४) अपनी ओर से दूसरोंको अनेकान्त भंट-स्वरूकर अथवा फ्री भिजवाना; जैसे विद्या-संस्थाओं लायब रिया, सभा-सांसाइटियों और जैन-बजैन विद्वानी।। (५) विद्यार्थियों आदिको अनेकान्त अर्ध मूल्यमें नेके लिये २५), २०) श्रादिकी महायता भंजना । २५ की सहायतामें १० को अनेकान्त अर्धमूल्यमें भेजा जा सकेगा। (६) अनेकान्तके ग्राहकाको अच्छे ग्रन्थ उपहारमेंदना तथा दिलाना । (७) लोकहितकी साधनामे सहायक अच्छे सुन्दर लेख लिखकर भेजना तथा चित्रादि सामग्रीको प्रकाशनार्थ जुटाना । सहायतादि भेजने तथा पत्रव्यवहारका पता:नोट-दस ग्राहक बनानेवाले सहायकोंको मैनेजर 'अनेकान्त' । 'अनेकान्त' एक वर्ष तक भेंटस्वरूप भेजा जायगा। वीरसेवामन्दिर, १, दरियागंज, देहली। समन्तभद्र विचार-दीपिका, सेवाधर्म और परिग्रहका प्रायश्चित इन तीनों पुस्तकोंमें से प्रथम पुस्तक बाँटनेके लिये १४) सैकड़ा और दूसरी दोनों पुस्तकें ७) सैकड़ा पर दी जाती हैं। मैनेजर-वीरसेवामन्दिर Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भईमः SHREE तत्व-सघात विश्व तत्व-प्रकाशक वार्षिक मूल्य ६) एक किरण का मूल्य 1) POS नीतिविरोधचसीलोकव्यवहारवर्तकः सम्यक् । परमागमस्यबीज भुवनेकगुरुर्जयत्यनेकान्तः। % 3D वर्ष १३ वीरसेवामन्दिर, दरियागंज, देहली अक्तूबर किरण कार्तिक वीर नि० संवत २४८०, वि. संवत २०११ • समन्तभद्र-भारती देवागम नास्त्विं प्रतिषेध्येनाऽविनामाव्येक धर्मिणि। और निषेधरूप नास्तित्वधर्म दोनोंको अपना विषय किए विशेषणत्वाद्वैधम्य यथाऽमेद-विवच्या ॥१॥ रहता है। क्योंकि वह शब्दका विषय होता है-जो जो शब्दका विषय होता है वह सब विशेषण विधेय-प्रतिषेध्या(इसी तरह) एक धर्ममें नास्तित्व धर्म अपने प्रति त्मक हुआ करता है । जैसेकि साध्यका जो धर्म (एक) घेध्य (अस्तित्व) धर्म के साथ अविनाभावी है-अस्तित्व विवक्षा से हेतु (माधन) रूप होता है वह (दुसरी विवधर्मके बिना वह नहीं बनता-क्योंकि वह विशेषण है- क्षासे अहंतु (असाधन) रूप भी होता है। उदाहरणके जो विशेषण होता है वह अपने प्रतिषेध्य (प्रतिपक्ष) धमके लिये माध्य जब अग्निमान है तो धूम उसका साधन-अनुसाथ अविनाभावी होता है-जैसे कि (हेतु प्रयोगमें) मान-द्वारा उसे सिद्ध करने में समर्थ होता है और साध्य वैधर्म्य (व्यतिरेक हेतु) अभेद-विवक्षा (माधर्म्य या अन्वय जब जलवान् है तो धूम उसका अमाधन-अनुमान-द्वारा हेतु) के साथ अविनाभाव सम्बन्धको लिए रहता है उसे सिद्ध करनेमें श्रममर्थ-होता है। इस तरह धूममें जिस अन्बय (साधर्म्य) के विना व्यतिरेक (वैधयं) और व्यतिरेक प्रकार हेतुत्व और अहेतुन्व दोनों धर्म है उसी प्रकार जो कोई के बिना अन्वय घटित ही नहीं होता। भी शब्दगोचर विशेष्य हैं वह सब अस्तित्व और नास्तित्व विधेयप्रतिषेध्यात्मा विशेष्यः शब्दगोचरः। दोनों धर्मोको साथमें लिए हुए होता है।' साध्यधर्मो यथा हेतुरहेतुश्चाप्यपेचया ॥१६॥ शेष भंगाश्च नेतव्या यथोक्त-नय-योगतः। 'नो विशेष ( धर्मी या पक्ष) होता है वह विधेय न च कश्चिद्विरोधोऽस्ति मुनीन्द्र ! तव शासने।२०। . तथा प्रतिषेध्य-स्वरूप होता है-विधिरूप मस्तित्व धर्म- 'शेष भंग जो प्रवक्तव्य, अस्त्यवक्तव्य, नास्त्यवक्तव्य Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८] अनेकान्त [ वर्षे १३ और अस्ति-नास्त्यवक्तव्य हैं वे भी यथोक्तनयके योगसे लिए हुए है। उन धर्मों में से किसी एक धर्मके अङ्गी नेतव्य है-हले तीन भंगोंको जिस प्रकार विशेषणत्वात् (प्रधान) होने पर शेष धर्मोंकी उसके अथवा उस हेतुसे अपने प्रतिपक्षीके साथ अविनाभाव सम्बन्धको लिए समय अंगता (अप्रधानता) हो जाती है-परिशेष सब हुए उदाहरण-सहित बतलाया गया है उसी प्रकार ये शेष धर्म उसके अङ्ग अथवा उस समय अप्रधान रूपसे विवक्षित भंग भी जानने अथवा योजना किये जाने के योग्य हैं। (इन होते हैं। भंगोंको व्यवस्था) हे मुनीन्द्रः-जीवादि तत्वोंक याथात्म्यका एकाऽनेक-विकल्पादावृत्तरत्राऽपि योजयेत। मनन करनेवाले मुनियोंक स्वामी वीरजिनेन्द्र ! -आपके शासन (मत) में कोई भी विरोध घटित नहीं होता है- प्रक्रिया मङ्गिनीमेनो नयनय-विशारदः ॥२३॥ क्योंकि वस्तु अनेकान्तारमक है। 'जो नय-निपुण है वह (विधि-निषेधमें प्रयुक) एवं विधि-निषेधाभ्यामनवस्थितमर्थकृत् । इस भंगवती ( सप्त भगवती) प्रक्रियाको आगे भी एक नेति चेव यशाकारितिरिका अनेक जैसे विकल्पादिकम नोंके साथ योजित कर जैसे सम्पूर्ण वस्तुतत्व कथचित् एकरूप है, कथंचित् अनेक • 'इस प्रकार विधि-निषेधमें जो वस्तु अवस्थित रूप है, कथंचित् एकाऽनेकरूप है, कथंचित् अवक्रव्यरूप है, (अवधारित) नहीं है-सर्वथा आस्तित्वरूप या सर्वथा कथंचित् एकावनव्यरूप है, कथंचिदनेकावक्रव्यरूप है और नास्तित्वरूपसे निर्धारित एवं परिगृहीत नहीं है-वह अर्थ कथंचिदेकाऽनेकाऽचक्रव्यरूप है। एकत्वका अनेकत्वके माय, कियाकी करनेवाली होती है। यदि ऐसा नहीं माना और अनेकत्वका एकत्वके साथ अधिनाभावमम्बन्ध है और जाय तो बाह्य और अन्तरंग कारणोंसे कार्यका निष्पन्न निष्पन्न इसलिये एकत्वके बिना अनेकत्व और अनेकत्वके बिना एकस्व होना जो माना गया है वह नहीं बनता-सर्वथा सत्रूप नहीं बनता। न वस्तुतत्त्व सर्वथा एकरूपमें या सर्वथा अनेकया सर्वथा असतूरूप वस्तु अर्थक्रिया करनेमें असमर्थ है, रूपमें व्यवस्थित ही होता है. दोनोंमें वह अनवस्थित है और चाहे कितने भी कारण क्यों न मिलें, और अर्थ-क्रियाके तब ही अर्थक्रियाका कर्ता एकत्वादि किमी एकधर्मके अभावमें वस्तुतः वस्तुत्व बनता ही नहीं।' प्रधान होने पर दूसरा धर्म अप्रधान हो जाता है। धर्म धर्मेऽन्य एवार्थो धर्मिणोऽनन्त-धर्मणः। [इसके आगे अद्वतादि एकान्तपक्षोंको लेकर, उनमें अङ्गित्वेऽन्यतमांतस्य शेषांतानां तदाता॥२२ दोष दिखलाते हुए, बस्नु-व्यवस्थाके अनुकूल विषयका स्पष्टी 'करण किया जायगा।] ___ 'अनन्तधर्मा धर्मी के धर्म-धर्ममें अन्य ही अर्थ इति प्रथमः परिच्छेदः।। संनिहित है-धर्मीका प्रत्येक धर्म एक जुद ही प्रयोजनको -'युगवार' का निष्पन्न बनता होता है. चन्देलयुगका एक नवीन जैन-प्रतिमालेख (सं०-प्रो. ज्योति प्रसाद जैन एम. ए. एल. एल. बी., लखनऊ) विन्ध्य प्रदेश में अजयगढ़ एक प्राचीन नगर है। इसे राजा इंटॉक एक ध्वंस रेके भीतर लम्बनऊ विश्वविद्यालयके इतिअजयपालने बसाया था। पर्वतके शिग्वर पर एक सुदृढ़ कोट हास प्राध्यापक डा० आर० के० दीक्षितको लगभग तीन वर्ष युक्त दुर्ग बना हुआ है । इस दुर्ग में प्रवेश करने के लिये एक हुए, प्रस्तुत लेख एक स्खण्डित तीर्थकर प्रतिमाके आसन पर के बाद एक, पांच फाटक पार करने पड़ते हैं । निलेके भीतर, अविन मिला था। प्रतिमाका ऊपरी भाग गायब था, खंडित पहाड़को काटकर दो कुण्ड बने हुए हैं, जिन्हें गंगा और अधोभाग एवं भासन ही अवशिष्ट था। श्रासन पर लेखके यमुना कहते हैं। इनमेंसे एक अजयपाल सरोवरके नामसे मध्य एक पक्षीका चिन्ह बना हुआ था। चौबीस तीर्थंकरों में प्रसिद्ध है। से पाँचवें तीर्थकर सुमतिनाथका ही लौछन एक पक्षी-अर्थात् अजयगढ़के इस अजयपालसरोवरके पश्चिमीतट पर बने हुए चक्रवाक् है । अतः यह प्रतिमा तीर्थकर सुमतिनाथको हो Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ४ ] अनुमानित की जाती है। चन्देलयुगका एक नवीन जैन प्रतिमा लेख नके साथ ही तीन पंक्रियोंका जो संक्षिप्त लेख है वह निम्न है प्रथम पंक्ति - ॐ सम्वत् १३२१ वर्षे फाल्गुवाद 11 बुधे श्री मूलमंधे प्रथित द्वितीय पंक्ति-मुनि कुन्दकुन्दः श्रीमद् वीरचर्मदेव राज्ये श्राचार्य घनकीर्त्तिः तृतीय पंक्ति श्राचार्य कुमुदचन्द्र प्रतिष्ठाका लेख नागरी लिपि तथा संस्कृत भाषाका है, संदिप्स और त्रुटिन है। किन्तु इससे इतना स्पष्ट है कि विक्रम सम्वत् १३३१ (सन् १२०४ ई०) को फाल्गुणवदि ११ बुधवारको उपरो जिनेन्द्र प्रतिमा की प्रतिष्ठा, संभवतः अजयगढ़में हो, सूत्रगंध कुम्कुम्दाम्ययके आचार्याने वीर बर्मदेव राज्य में कराई थी से सम्बंधित जिन दो आचार्योका नाम लेखमें पढ़ा जाता है वे प्राचार्य धनकीर्णि और आचार्य चन्द्र है। । ... , अजयगढ़ त्रिन्यभूमि -- वर्तमान बुन्देलखण्डके जिस भागमें अवस्थित है वह उस कालमें जेजाकभुक्तिके नामसे प्रसिद्ध था। वर्तमान मीति या जुम्झौत उमीका अपन है। जेजाकभुक्ति प्रदेश पर उसकालमें चन्देल वंशका राज्य था । चन्देलोंकी राजधानी खजुराहो (बजूरपुर ) अपनी सुन्दरता, समृद्धि तथा अपने अभूतपूर्व विशाल खूब उत्कृष्ट मनोरम कलापूर्ण जैन शैव और वैष्णव देवालयोंके लिये सर्व प्रसिद्ध थी। इस वंशकी नींव स्वीं शताब्दी ईस्वी पूर्वार्ध ( अनुमानतः ८३ ई० में) नन्नुक नामक चन्देल बीरने डाली थी। चन्देल अनिके अनुसार चंद राजपूत चन्द्रात्रेय ऋषिको सन्तान थे और चन्द्रब्रह्म उनका पूर्व पुरुष था । कन्नौज गुर्जर प्रतिहारोंकी श्रवनतिसे लाभ डठाकर चन्देलोंने विन्ध्य प्रदेश पर अपना राज्य स्थापित किया था। इस वशमें अनेक प्रतापी नरेश हुए और दशवीं शताब्दी स्त्रीके उत्तराध में जेजाकभुक्तिकी चन्देलशक्ति उत्तरीभारत की सर्वाधिक शक्तिशाली एवं सम्पन्न राज्य सत्ता थी। चंदल नरेश जहाँ विजयी वीर और कुशलशासक थे वहां वे कलाकौशल के भी भारी श्राश्रयदाता थे। खजुराहा धादिकं तत्कालीन यंत अन्य विशाल एवं कलापूर्ण जैन अजैन मंदिरोंक भग्नावशेषों को देखकर चाजभी कलाविशेषज्ञ चंदन शिल्पियोंके पूर्व कलाकौशलकी भूरि-भूरि प्रशंसा करते हैं, और यह कहा जाता है कि दलका ये नमूने उस युगकी [ भारतीय का सर्वोत्कृष्ट प्रतिनिधि है जबकि वह हिन्दू जैन कला अपने चरमोत्कर्ष पर थो । साथ ही यद्यपि अधिकांश चंदेल नरेश शेष या वैष्णव थे तथापि खजुराहो, अहार, देवगढ़, पपौरा और अज श्रादिके तत्कालीन जैन अवशेषोंको बहुलता, उत्कृष्ट कलापूर्णता एवं विशालता यह सूचित करती है कि जैनधर्मके प्रति वे अन्यन्त सहिष्णु थे, राज्य अनेक व्यक्ति जैनधर्मानुयायी भी रहे हों तो कुछ आश्चर्य नहीं, कमसेकम दिलराज्यमें उनकी संख्या समृद्धि एवं प्रभाव तो अवश्य अन्यधिक रहे प्रतीत होते हैं। मजुराहो से प्राप्त विक्रम सम्बत १०१२ (सन् १२२० के एक शिखाले देखिये - दि. १ १३२-६)ल नरेश जंग द्वारा सम्मानित पाहिल नामक एक दानशील धर्मात्मा न मम्जन द्वारा स्थानीय जिनमंदिरके लिये अनेकों दान दिये जाने उल्लेख है। खोज करने पर ऐसे और भी अनेक शिलालेख प्राप्त हो सकते हैं। 1 इस वंश में लगभग २२ या २३ नरेशोंके होनेका अ तक पता चला है। उपरोक्त धंग इस वंशका सातवाँ राजा था धौर पृथ्वीराज चौहानका समकालीन प्रसिद्ध (चंदेल नरेश परमादिदेव ) जिसके राज्यकालमें अहारकी प्रसिद्ध विशाल काय शान्तिनाथ प्रतिमाकी संवत् १२३० (सन् १८० ई०) में प्रतिष्ठा हुई थी, यह इस वंशका सोलहवाँ राजा था। । उसके पश्चात् लोक्यवर्मदेव सिंहासन पर बैठा। वीरवदेव चंदन हम वंशका वीस राजा था। इसके शिलालेख मंत्रत् १३११ से १३४२ (सन् १२५४ से १२८५ नकके मिलते हैं। प्रस्तुत प्रतिमा लेखमें उल्लेखित श्रीमद् धीरवदेव था इसमें सन्देह नहीं । हार आदि स्थानां से प्राप्त चन्देल कालकं अनगिनित जैन प्रतिमालेखोंमं (देखिये अनेकान्त वर्ष १०. किरण १४ ) सम्भवतया यही तक के उपलब्ध लेखोंमें एक ऐसा लेख है जिसमें मूलमंघ कुन्दकुन्दान्वय के उल्लेख सहित और आचार्य विशेषणले युक्र जैन गुरुयोंका उल्लेख है । अधिकांशले तो मात्र प्रतिष्ठा करानेवाले गृहस्थ स्त्री पुरुषों के नाम, जाति, वंश आदिका परिचय हे । कुछ लेखोंमें कतिपय आर्थिक तथा कुऋषिक गुहांक नाम हैं, जिनकी प्रेरयासे उन मूर्तियाँ प्रतिष्ठित कराई गई थीं। इन गुरु मंघ, गद्य चादिका कुछ पता नहीं चलना, न यही मालूम होता है कि वे निर्ग्रन्थ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १००] अनेकान्त [वर्ष १३ साधु थे अथवा भट्टारक थे अथवा त्यागी श्रावक-ऐल्लक शान्तिनाथ वसदि नामक जिनालयको कारकलके साधार खुल्लक आदि थे। किन्तु इस शिलालेखमें दक्षिणात्य शैली- नरेश लोकनायरसके राज्यकालमें, सन् १३३४ ई. में, के अनुरूप ही संघ, अन्वयकी सूचना सहित प्रतिष्ठाकारक राजाको दो बहिनों द्वारा दान दिये जानेका उल्लेख एक प्राचार्योका नामोल्लेख हुआ है। शिलालेखमें मिलता है। ( M. J.. p.361, S. I. 1. जिन धनकीर्ति और कुमुदचन्द्र नामक दो प्राचार्योका vii, 247, pp. 124-1253; 71 of 1901) लेखसे उल्लेख हुआ है उनमें भी परस्पर क्या सम्बन्ध था, यह . यह पता नहीं चलता कि ये कुमुदचन्द्र तत्कालीन भट्टारक थे और उन दानके समय विद्यमान थे अथवा उसके कुछ लेखके त्रुटित होनेके कारण जान नहीं पड़ता । प्राचार्य धनकीर्तिका नाम तो अपरिचित सा लगता है, किन्तु कुमुद समय पूर्व ही हो चुके थे। चन्द्र नाम परिचित है। इस नामके कई प्राचार्योंके होनेके ये पांचों ही कुमुदचन्द्र मूलसंघ कुन्दकुन्दान्त्रयके उल्लेख मिलते हैं। प्राचार्य थे इनमेंसे प्रथम चारमें कोई भी दो या तीन तक अभिन्न भी हो सकते हैं किन्तु मन् १२७४ ई० में बीरवर्मएक कुमुदचंद्र तो प्रसिद्ध कल्याणमन्दिर स्तोत्रके कर्ता देव चन्देलेके राज्ान्तर्गत उत्तर भारतमें स्थित अजयगढ़में के रूपमें विख्यात हैं । ये दसवीं और तेरहवीं शताब्दीके सुमतिनाथ तीर्थकरकी प्रतिमाकी प्रतिष्ठा करानेवाले इनमेंसे मध्य ही किसी समय हुए प्रतीत होते हैं। चौथे अथवा पाँचवें कुमुदचन्द्र ही हो सकते हैं। कारकलके दूसरे दिगम्बराचार्य कुमुदचन्द्र वे हैं जो श्वेताम्बराचार्य भट्ट रकके गुरु भानुकीर्ति भी कीर्तिनामांत थे अतः सम्भव हेमचन्द्र के समकालीन थे और जिन्होंने अन्हिलपुर पहनके है धनकीर्ति इन कुमुदचन्द्र भट्टारकदेवके कोई गुरुभाई रहे सोलंकी नरेश सिद्धराज जयसिहका राज-सभाम जाकर हों। निर्ग्रन्थ मुनियोंकी अपेक्षा मवस्त्र भट्टारकोंका जो गृहश्वेताम्बराचार्योक साथ शास्त्रार्थ किया था कहा जाता है। स्थाचार्य जैसे होते थे और प्रतिष्ठा आदि कार्योमें अधिक किन्तु यह घटना १२वीं शताब्दीके मध्यके लगभग की है। भाग लेते थे सुदूर प्रदेशोंमें गमनागमन भी अधिक सहज सम्भव है उन दोनों कुमुदचन्द्र अभिन्न हों। था। किन्तु यदि वे मन् १३३४ में जीवित थे तो प्रस्तुन तीसरे कुमुदचन्द्र आचार्य माघनन्दि सिद्धान्तदेवके प्रतिष्ठाकार्यमें उनका योग देना असम्भव सा लगता है । गुरु थे। द्वार समुद्र के होयसल नरेश नरसिंह तृतीयके हल- इसके अतिरिक्त, माघनन्दि सिद्धान्तदेवके शिष्य कुमुदचन्द्र बीड नामक स्थानसे प्राप्त सन् १२६५ ई. के बेन्नेगुड्डे पंडितका भारी विद्वान एवं वाप्रिय होनेके कारण सुदूर शिलालेख ( M.A.R. for 1911, p. 49, Mad. उत्तरमें विहार करना और प्रतिष्ठाकार्य सम्पादन करना भी J.np.84-85) के अनुसार उक्र होयसल नरेशने अपने नितान्त सम्भव प्रतीत होता है, विशेषकर स्वसमयकी दृष्टिगुरु माघनन्दी सिद्धान्तदेवको दान दिया था। ये प्राचार्य से वही एक ऐसे कुमुदचन्द्र है जो मन् १२.४ ई. में मलमंघ बलात्कारगणके थे और इनके गुरुका नाम कुमु- अवश्य ही विद्यमान रहे होंगे। देन्द योगी था। कुमुदेन्दु और कुमुदचन्द्र पर्यायवाची हैं, मलसंघ कन्दकन्दान्वयक अन्तर्गत नन्टिसंघ. बलात्कार और इस प्रकार पर्यायवाची नामोंका एक ही गुरुके लिये गण, सरस्वतीगच्छके भट्टारकोंकी गहियोंका उज्जयनि, बहुधा उपयोग हुआ है। मेलसा, ग्वालियर, बारा, कुण्डलपुर और स्वयं बुन्देलखण्डइन्हीं माधनम्दी सिद्धान्तदेवके प्रधान शिष्य भी एक के चन्देरी नामक स्थानमें भी इस कालमें स्थापित हो जाना कमदचन्द्र पंडित थे जो चतुर्विध ज्ञानके स्वामी और भारी पाया जाता है, किन्तु समस्त स्थानोंकी पट्टावलियोंमें १३वीं हामी एवं वाद-विजेता बताये गये हैं। (देखिये वही शि० शताब्दी ई० में और उसके आगे पीछे भी पर्याप्त समय लेख) ये चौथे कुमुदचन्द्र हैं। तक कुमुदचन्द्र या घनकीर्ति नामके किसी गुरूका होना नहीं पांचवें कुमुदचन्द्र भट्टारकदेव सम्भवतया कारकलके पाया जाता। भधारक थे। वे मूलसंघ कानूरगणके प्राचार्य थे और भानु- यदि किसी विद्वानको इस सम्बन्धमें कुछ विशेष जानकीर्ति मनधारीदेवके प्रधान शिष्य थे। इनके द्वारा निर्मित कारी हो तो प्रकाश डालनेकी कृपा करेंगे। Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी-भाषाके कुछ ग्रन्थोंकी नई खोज भारतीय वाङ्मयमें जैनसाहित्यकी प्रचुरता और विशा- जिसने शास्त्रोंका अच्छा अभ्यास किया था और जिनपूजादिमें लता उसकी महत्ताकी द्योतक है । संस्कृत प्राकृत अपनश, रत रहती थी। चिन्तामनकी जाति खरेलवाल थी और गोत्र मराठी, गुजराती, राजस्थानी कनाडी, बंगाली तामिल आदि था 'सावदा'। इन्होंने इस ग्रंथकी रचना विक्रम संवत् 1501 विविध भाषाओंमें जैनसाहित्यकी रचना की गई है। में कूरमवंशके राजा गजसिंहके पुत्र छत्रमिंधके राज्यमें की है। व्याकरण, छन्द काव्य कोष, अलंकार, श्रायुर्वेद ज्योतिष, पद्यानुवादके कुछ दोहे मूल गाथाओंके साथ दिये जा रहे हैं। सिद्धान्त, साहित्य, दर्शन, कथा, पुराण चरित्र इतिहास और दसणमलो धम्मो उवइहो जिणवेरहिं मिस्माणं । धानु-रत्न-मुद्रादि विषयों पर जैनसाहित्य प्रचुर मात्रामें लिखा तं सोऊणसकरण देसणहीणो ण बंदिव्वो ॥१॥ गया है। कितना हो साहित्य राज्य विप्लव और साम्प्रदायिक मूल धम्म दंसन अमल, सुनो भव्य निज कान । विद्वेष आदिके कारण विनष्ट हो गया है। फिर भी जो कुछ दंसन हीन न दिए, भाष्यो श्रीभगवान ||२|| किसी तरह अवशिष्ट रह गया है वह विविध शास्त्रभंडारों दमण भद्रा भद्रा दंसगाभट्टरस पत्थि रिणव्वाणं । में छितरा पड़ा हुया अपने जीवनकी सिसकियाँ ले रहा है। मिज्झति चरिय भट्टा दसणभट्टा ण मिझति ॥३॥ यदि उनसे उसका समुन्द्वार नहीं किया गया, तो फिर हमें दंसन भ्रप्ट सुभ्रष्ट है, ताकों मुकति न होइ। उसके अस्तित्वसे सदा के लिए वंचित रहना पड़ेगा। संस्कृत तिरे भ्रष्टचारित्र फिर दंसण भ्रष्ट न कोइ ।। ३।। प्राकृतादिके साहित्यको छोड़कर हिन्दी भाषाका बहुतसा सा- सम्मत्तरयण भट्टा जाणता बहुविहाई सत्थाई। हित्य अभीतक विद्वानोंकी दृष्टिसे अोमल पड़ा हुआ है, आराहणा विरहिया भमंति तत्त्थेव तत्त्थेव ।।४॥ जिसके प्रकाशमें लानेका कोई ठोस प्रयन्न नहीं हो रहा है। सत्य-रतन आराधना इनसौं जे नर भ्रष्ट।। खासकर गुच्छक ग्रन्थों में प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश और हिंदी जबपि बह विधि- पर्दै तिनको भवभव नष्ट की अनेकों अभुतपूर्व रचनाएँ उपलब्ध होती है। हिन्दी x x x भाषादिको ऐसी कुछ अज्ञात रचनाओंका परिचय देना ही इस रिहर तल्लो वि गारो ममा गच्छेह एइ भवकोड़ी। लेखका प्रमुख विषय है। आशा है विद्वान इस प्रकारके नृतन तहविण वावद सिद्धि संसारत्थो पुणो भणिदो ॥८॥ प्राज्ञात एवं अप्रकाशित साहित्यको प्रकाशमें लानेका यन्न इरिद्वरसम नर स्वर्ग प्रति फिरिफिरि आवे जाइ। करेंगे। लहें न शिव भवकोटिलौं मंसारी अधिकाय ॥ षट प्राभृत पद्य णिचेल पाणिपनं उबट्ट परम जिणवरिंदेहि । प्राचार्य कुन्दकुन्द बहुश्रुत विद्वान थे। उनकी उपलब्ध ___एको विमोवग्वमग्गो सेसा य श्रमग्गया मचे ॥१०॥ रचनाओंमें षट्पाहुड ग्रन्थ अपनी खास विशेषता रखता है। षट् पाहुडपर ब्रह्मश्रु तसागरकी संस्कृत टीका भी मुदित हो जिनसेवक जिनदाम मुत, देवीसींध मुजान। चुकी है और पं० जयचंदजी कृत हिन्दी टीका भी प्रकाशित गोत सावडा प्रकट है, खंडेल बाल सुख धाम ॥ है । देहलीके पंचायती मन्दिरमें उसका हिन्दी दोहा पद्यानु- कवित्तछन्द-जिनपदनमों चिंतामनि ममनाम । वाद उपलब्ध हुआ है जिसकी पत्रसंख्या ३५ है । और प्रति- भाष देवी सींध सब रूदमाम जगकाम ॥ लिपि मम्वत् १८१६ कार्तिक शुक्ला द्वितियाकी लिग्बी हुई नवलसिंघ भाई भनौ जिनचरणनिको दाम । है। जिसका परिचय नीचे दिया जाता है जिससे पाठक वाई तुलमा बहिनने कीनों श्रुत अभ्याम ॥ पद्यानुवादके रहस्यसे सहज ही परिचित हो सकेंगे। जिन पूजाश्रुत दयामय उभय पढ़त दिन रैन । इस पद्यानुवादके रचयिता जिनदासके पुत्र देवीसिंह थे भाषा षट्पाहुड सुनै धरै सुउरमें चैन । जिनका दूसरा नाम चिन्तामनि था । इनके भाईका नाम छत्रमिंध नरवर पती राजत कामवंश। नवलसिंब था। और तुलसाबाई नामकी एक बहिन भी थी बुद्धिवान गजसिंघ मुन, निजकुल को प्रवतंश । Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२] अनेकान्त [वर्ष १३ - पाणिपात्र ताको कहो जो नागो सरवंग ।। अप्रकाशित ग्रन्थ मिल सकते हैं। जिनमें बहुमूल्य सामग्री यही एक मारग मुकत और अमारग संग। पाई जाती है। देहलीके इसी गुच्छकमें विक्रमकी १५वीं शताब्दीके बालम्गि कोडिमत्तं परिगह गहणं ण होड साहूर्णा ।, उत्तरार्ध और १६वीं शताब्दीक पूर्वार्धके कवि रइधूकी 'साह' जेह पाणिपत्ते दिएणणं इक्कठाणम्मि ॥१७॥ नामकी एक सुन्दर निम्न रचना प्राप्त हुई है जिसे ज्यों की बालश्रम सम वस्तुको, साधु ना राखत पास । त्यों नीचे दी जाती है :दिनमें भोजन बार इक, पानि-पात्र विधि तास ।। मोऽहं सोऽहं सोऽहं अरण न बीयर कोई। x . xxx पापु न पुरण न माणु न माया अलख निरंजणु सोई। संजमसंजुत्तस्स य सुज्माणजोयस्स मोक्वमग्गस्स। सिद्धोऽहं स-विसद्धोह हो परमानन्द सहाउ । खाणेण लहदि लक्खं तम्हाणाणं च णायव्वं ।।२०॥ देहा भिएणउणाणमोहं गिम्मल सासय भाउ । बांध पा. सण-णाणु-चरित्तणिवासो फेडिय भव-भव-पासो । संजम सम्यक ध्यानके साधे मुकतिको पंथ । केवलणाणु गुणेहिं अखंडो, लोरालोयपयासी । इनको कारण ज्ञान है साधत गुरु निन्थ ।। रूपण फाण गंधु ण सहो चेयण लक्खणु णिच्चो। पुरिसणणारिणबालुणबूढउ जम्मा जासुण मिच्ची। देहादिचत्तसगा माणकसारण कलुसिओ धार। काय वसंतु वि काय विहीणउ, भुजंता विणभजइ । अन्नावणेण जादो वाहुबली कित्तियं काले ॥४४ सामि ण किंकर ईसु न रको के भुवि एहु निवज्जइ । भाव पा० जणणो जणण जि पुत्तु जि मित्त भामिणि सयलकुडंबा देह आदि सब संग्रह तज्यौ छुट्यो मान कषाय । कोइ न दीसइ तुझ सहाई एहु जि मोहविडंबो। बाहुबलि कछु काल तक लियो न ज्ञान अघाय।। हउं संकप्प-वियप्प-विवज्जिउ सहजसरूपसलीणउ । महुपिंगो णाम मुणी देहाहारादि चत्त वावारो। परम अतींदिय सम-सुख-मंदिरुसयल विभाउ-विहीण। सवणतणं ण पत्तो णियाणमित्तण भवियगुव ।।४५ सिद्धहं मज्झिजि कोइ म अंतर णिच्छयणय जियजाणी भाकपाल ववहारें बहुभाव मुणिज्जइ इम मणि झावहुणाणी। मधपिंग मुनिने तजि दिये तनु आहार व्यापार । चिणिराहति इंदिय जंतउ झाबहि अंतरि अप्पा । श्रमण भावना विन सतो भटक्यौ भव संसार ।। 'रइधू' अक्खइ कम्मदलेरिणु जिमि तुझु होहि परमप्पा ___ ऊपर जिन पद्योंका दोहानुवाद बतौर नमूनेक दिया गया मोहं नामको एक दूसरी जयमाला भी गुटक्में अवित है है उससे पाठक दोहानुवादके पद्योंकी भाषादिका परिज्ञान जिसके कर्ताका नामादिक उपलब्ध नहीं है । रचना सहज कर सकते हैं । इस तरहके गद्य पद्य रूप अनेक ग्रंथ माधारण है। अभी अन्य भंडारोंमें उपलब्ध होते हैं। स्वप्नावली (रामा)-इम ग्रन्थका विषय उसके दिल्लीके पंचायती मन्दिरके शास्त्र भंडारका अवलोकन आया अथवा रास परम्परा बहुत पुरानी है। जैन करते हुए एक गुच्छमें जिसकी पत्र संख्या १६६ है, गुटक्की समाजमें गमा साहित्य अधिक तादाद में पाया जाता है। मरम्मत करके जिल्द बंधाई गई है। गुटकेमें १९६ पत्रके नृत्य वादित्र, ताल और उच्च लयकं माथ जो गाया जाता था दूसरी लिपिसे अपनश भाषाकी एक रचना खण्डित पाई उसे राम अथवा रासक कहा जाता है विक्रमकी १०वीं सदीमें जाती है। इस गुटकेमें ५८ ग्रन्थोंका संग्रह पाया जाता है दिगम्बर कवि देवदत्त ने जो वीर कविक पिता थे 'अम्बा जिनमें से प्रायः प्राधी रचनाएं नई हैं। इनमेंसे यहाँ कुछ देवीरास' नामकी रचना रची थी जिसका उल्लेख सं० १०७६ रचनाओंका संक्षिप्त परिचय नीचे दिया जा रहा है और शेष में निर्माण होने वाले 'जम्बूसामीचरिउ' में वीर कविने किया रचनाओंका केवल नामोल्लेख किया गया है ।इसी तरह अन्य है। विक्रमकी १२वीं तथा १३वीं से १६वीं तक रासाका अनेक ज्ञानभंडारोंमें उपलब्ध गुच्छकोंमें सैकड़ों अज्ञात एवं बहुत प्रचार रहा है। श्वेताम्बर सम्प्रदायमें १२वीं शताब्दीसे Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ४ नामसे स्पष्ट है। इसमें भगवान आदिनाथ की माता मरुदेवी को दिखाई देने वाले सोलह स्वप्नोंका नाम और उनके फलका कथन किया गया है। इसके रचयिता मुनि प्रतापचन्द्र हैं। प्रतापचन्दन इस ग्रन्थकी रचना कब की, यह ग्रन्थ परसे कुछ भी ज्ञात नहीं होता। चूंकि यह गुच्छक सं० १५०० के बाद लिखा गया है। अतः उसका रचनाकाल उससे पूर्व का होना ही चाहिये | की रचना सामान्य है । उसका आदि ग्रन्त भाग निम्न प्रकार है आदि भाग :नाभिरायहं घरेमरुदेवी राणी तुरंग तालांग सोतालिमतले नीदमरे सोयंत सुपिनडे देखाइ पच्छिमर वणिहि विगय-म 1 अन्त भाग : सो यह जो गावइ सो मणि भाव, एकुचित इकमणि जो सुखइ अवि-पाव उम प्रतापचंद मुनि भए दूसरी रचना 'नेमिनाथ रासा है- यह नौ पद्योंकी एक छोटी-सी रामा रचना है। जिसके कर्ता काष्ठामंत्री मुनि मुन्द्र हैं, जो मुनिके शिष्य थे उकृतिमें भी त्रिमल । गुरु परम्परा और रचनाकालका कोई उल्लेख नहीं है। रचना का आदि अन्त भाग निम्न प्रकार है : - हिन्दी भाषा के कुछ प्रन्थोंकी नई खोज । तप जपु संज लांच मोसगु लंपण आइ णिरुते होइ न मोक्यहं कारण वातू जामख पेखइ अप्पें ॥ इनकी नीमरी कृति 'आदिनाथ बीनती है जिसमें आदि ब्रह्मा आदि जिनकी स्तुति की गई है। उसक एक पथमें कविने अपना नाम निम्न शब्दों व्यक्र किया है। उसका श्रादि और नाम वाला वह पद्य निम्न प्रकार परविवि आदि जिन्दु त्रिभुवण तारण जगतगुरु । पूर्वका कोई रामा देखने में नहीं श्राया । कविवर देवदत्तका उक्त अम्बादेवी राम अभी अनुपलब्ध हैं । खोज करने पर सम्भव है यह मिल जाये। उनके अन्य कई प्रथम अभी प्राय हैं जो अपभ्रंश भाषा में लिखे गए हैं, जैसे वरांग आदि [०१०३ इन्द्र नरेन्द्र नर्मति पाव पणासण सुख करण | तु कइलासह राज कर्म कलंक अवहरि | मुक्ति वरंगण साह, मग्ररण महाभट मारियउ । X X X X काण्ठ संघ मुणिसार कुमुदचंदु जति इम भइ माम भाव घरे वि आगर जिनवर वीनतिय ॥ मनमोरा नामकी एक चार इन्दों वाली छोटीसी रचना है जिसमें चाग्मा को पराधीन एवं पलित करने वाले पाय विषय, हिंसा और निष्ठुरता आदि दोपस बचा कर भ्रमवनरूपी सरोवरमें मोते हुए श्रात्मा को जगानेका उपक्रम किया गया है। इसके रचयिता कवि पंडिजिनदास हैं। इस नामके अनेक विद्वान व्यक्ति हो गए हैं उनमें से यह कौन है और इनकी गुरु परम्परा क्या है यह रचना परले कुछ शात नहीं होता। इनकी दूसरी कृति 'इन्द्र नाम की है जिसमें भगवान आदिनाथके जन्मोत्सवका कथन दिया हुना है | रचनाका अन्तिम भाग इस प्रकार है :जिन कुमइ पाय न पामु पनहि चित्त पुरिस करे। घल्लहि साहु विसन चूरि खितकार रयातिरिण समुधरे । संतोष करिदय धम्मु संजम, दुगइ शिवारगु तुहु वरु हरि-कन्तु वंभु-जिगिंद साहु मोरु अस्थि कलावरु ॥ बिनवररास- हम रामकं कर्ता महाचारी 'उ' हैं। प्रस्तुत रासमें ४० पद्य अहित है उनमें ३२ पद्य कविने किया है कि हमा उसे शुद्ध करनेकीरारचना साधारण हे ब्रह्मचारि ऊदू' किसके भी अज्ञात है : १०७६ श्री नाटा १२वीं १३वीं शताब्दी अपने उपलब्ध रासा साहित्यको प्राचीन बताते हैं परंतु जब सं 100 के ग्रन्थ में 'अम्बादेवीराम' का उल्लेख मिलता है तब दिग स्वरसम्पदाय उससे पूर्व रामपरम्परा होने की सूचना मिलती है। डा० वासुंदवरजी अशलने 'म' के द्वारा 'रासा' का उल्लेख करना बतलाया है । अत राम परम्परा प्राचीन जान पड़ती है। होने पर भी की है। शिष्य थे, यह रचनाका यादि अन्त भाग इस प्रकार है ग्रादि भाग-जिगुनबहु जिगुव जिगु मोर हियइ समाढ दोस अठारह रहियउ ताकइ लाग उपाइ ॥ १ सुरनर जा कहु सेर्वाह, मुनिगण सेव कराहिं । दानव मेवहि पग नवहि, पानगडि करि जाहि ॥ :-- भचारि कब ऊदू जिनगुण नाहीं अतु । सिद्ध वधू जिण रानड विलमद्द मग्सु वसतु ॥ ३३ X X X X यह रासउजड़ गाय हम जिन दीजहु खोडि । अधिक हो जइ कोयड कइयण लोजहु जोडि ॥३६ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४] अनेकान्त [वर्ष १३ अन्त भाग सोरठ देसु सुहावणउ बहु मंगल सादो, जइ दुज्जण मुंह वंका, तो हम एहु सहाउ। घरि घरि गावइ कामिणी णं कोमल नादो। जे जिण सासण लीणा, ते हम करहु पसाउ॥४० अन्त भाग: इनकी दूसरी कृति 'बारह मामा' है जिसका प्रादि अंत काठसंघ मुणि कुमदचंदु इहु रासु पयासइ, भाग निम्न प्रकार है: भणतहं गुणतहं भवियणह धरि संपइ होसइ । आदि भाग-- णेमिणाथ कउ रासु एहु जो परिकरि गावइ, पलिंगिवई जेठ दुइजण करहिं मोहर बाता। जाण तणउ फलु होइ तासु जो जिणवर भावइ । चइतिहिं चित्तु उमाहिट पिय चालहु जिण जाता ॥ इनकी दूसरी कृति 'जोगी आर्या' नाम की है जिसका आदि अन्त भाग इसप्रकार है :अन्त भाग आदि भाग :धनि जननी धनि बापु जेण सुह लक्खण जाइ। धणि कणि पुत्तहं पागली धनि जिनलाइ ॥१२ हउ जोगी जिनमारग जोगी मुभगुरु 'विमल मणिंद, माथुर संघह तिमिरु विहंडइ भविय कुमुदसिरिचंदू ॥१ बोन्हणदे गुण आगली फागुण पूनी आसा। ज्ञान-खडग करि रइवरु जीता पंच महावत लीता, बंभयारि कवि ऊदू गाए बारह मासा ॥१३।। पंच मारि दिदुआसणु कीना, सील-कछोटा कीता ।। सरणावली-यह एक छोटी सी रचना है जिसमें चतु अन्त भाग:विंशतितीर्थकरोंको स्तुति की गई हैं। इसके कर्ता कवि माहण- . सम्यग्दर्शन पाथडी-इसका पादित भाग निम्न है:पाल है। उक्र कृति परस इनका कोई परिचय उपलब्ध नहीं ३ श्रादि भाग घत्ताहोता। इसका प्रादि अन्त भाग निम्न प्रकार है भव-भय निरणासणो सिवपय सासणो कुणय 'सरणुसरणुसिरिरिसहजिणिंदा, मरुदेवी नाभिनरेसरनंदा ' विणासणु सुहकरणे । दसण सुपवित्तउ, मलसु चयत्तउ अजितसरण महु तेरे पाय पइपहु जीते विषम कषाय । तजि एकु दीसइ सरणे ।। संभवसामि सदा तव सरणु, हउंपायउ तह मारिउ मरणु सम्मादसणु सह सम निहाणु, सम्मादसणु अह अभिनंदन सरणागत राखे मुझहि मुकतितियको तिमिरमाणु । सम्मा दंसणु तव-वय-पहाणु, सम्मादसणु मुहु दावहि॥ भव-उहि जाणु ॥ अन्तभागअणुदिणु भणहु भवियधरि आउ यह हह भयभंजण:- अन्त भाग: उत्पाउ। ण एयहिं तित्तिकयाई वि जाय, जिणेसर एवहि साहणपालभणइकरजाडि, वियहं सरणु बहोड़ि वहोड़ि तुम्हह पाय । णियस्थि विमएिगउ अप्पउ धएणु, घउअह-निसु सरणु रहहु हो पाइ, यह कीरति गुणकीरति- गइ दुक्खह पाणिउ दिएणु। जगत्तय सामिय दुल्लह पाई। बोहि, दुहक्खउ उत्तम देहि समाहि ॥ घत्ता-पइवंदहि यशोधर पाथड़ी-इम पाथदी का रचयिता कौन है अप्पर गिदहि, जेणरवियलिय भव-दुहए । दुरिय यह रचना पर से ज्ञात नहीं होता। इसमें सिर्फ दो कडवक डझतो हंसु समन्भई, कणकित्ति सासुय सुहई॥२ हैं, यह रचना अपभ्रंश भाषा की है। आणंदा विधि-इसके कर्ता कवि महानन्दिदेव जान नेमिनाथरासा-इस रचनाके कर्ता मुदचन्द्र काष्ठा पड़ते हैं। इस रचनामें ४३ पद्य दिये हैं जो धारमसम्बोधनकी संधी है। इसमें भगवान नेमिनाथका गुन गान रासेमें किया। स्प्रिट को लिये हुए हैं । उसका आदि अन्त भाग इस गया है। उसका भादि पन्त भाग निम्न प्रकार है:- । प्रकार है :मादि भाग: आदि भागपहले पणमउ नेमिनाहु सरस घणिहि वासो, चिदाणंदु साणंदु जिणु सयल सरीरह सोइ । सामल बरण सरीरु तासु बहु गुणह सहासो। महाणंदि सो पूजियइ आणंदा गगन मंडलु थिरु होइ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ४] रिंज मूढ कुदेव न पूजियइ आणंदा गुरु विणु भूषण अंधु way जिउ, अप्पा परमादु । अन्त भाग:-- सदगुरु वारणि जाउ हउँ भइ महाणंदी देउ | आणंदा जाणि पाणियां करमि चिदानंद सेउ ॥ मे मे दोहा हिन्दी भाषाके कुछ ग्रन्थोंकी नई खोज [ १०५ आदि भाग : ॥ फिरत-फिरत संसारमा हि जिया दुहुकौ हो, दुहुकौं भेदु न जाणियोरे । इस कृतिका कर्ता कौन है, यह रचना परसे कुछ शात नहीं होता । इसमें चालीस दोहें दिये हुए हैं जो श्रात्मसम्बोधी भावनाको लिये हुए हैं और जिनमें पापोंसे छूटनेकी प्रेरणा की गई है। रचना सामान्य होने परभी कोई २ दोहा शिक्षाप्रद और सुमता हुआ सा है जो हृदयमें आत्म कल्याणकी एक टीस जागृत करता है। पाठकोंकी जानकारीके लिये आदि अन्तके कुछ दोहे नीचे दिये जाते हैं :आदि भाग : मे मे करते जगु भमिउ, तेरउ किछू न अस्थि । पापु कियs धनु संचियत, किछू न चालिउ सत्थ ॥१ इक कर जगु फिरिड, लखि चउरासी जोणि । समति किमु पाइयउ, उत्तम माणुस जो ि॥२॥ दया बिहार जीउ तुहु, बोलहि झूठ अपारु । इहु संसारु अगंधु जिया, किमि लंघहि भव पारु ||३|| अन्त भाग : गय ते जीव निगोद तुहु, सहियो दुक्ख महंतु । जामण मर करंत यह, कलि महि आदि न अंतु ॥४ सप्ततत्त्वभावना गीत - इस रचनामें २० पद्म दिये हुए हैं। इसका कर्ता कौन है यह रचना परसे मालूम नहीं होता। यहां बतौर नमूनेके आदि अंतका एक-एक पथ दिया जाता है जीव तत्त्व अजीउ न जाणियड, चेयणहो, छोडिर जडु तइ माणियोरे ॥१॥ जन्त भाग :--- जो नर इस कहु पढ पढावर तिसु कहु हो, दुरि न आवइ एक खिए । जो नरु सप्त तत्त्व मन भावइ सो नरु शिवपुर पावइ छोड़ि त ॥२०॥ पंचपाप संभाल गीत - इस छोटीसी कृतिका कर्ता भी प्रज्ञात है । आदि भाग :-- पांच पाप संभाल रेजिया, इनसम अवरु न हुआ कोई । जइ सुहु लोडहि जीव तुहुँ, इन तर्हि विरहि होई ॥१ हिंसा, पाप, झूठ, दुखु, दाता, चोरी, बंध दाब | जोरु कुशील कलंक संज्ञातड परिगह नरक पठावर ॥२॥ अन्त भाग : परिगह मोहिउ श्रपु न जाणइ हित किसकहु कारीजइ जो परु सो अप्पाड जाणइ नरक जंतु किन बारीबइ ॥६ इनके अतिरिक्र, यशोधर पाथदी, आर्जवपाथदी, गयाधर आरती, रत्नत्रयपाथदी, मायंगतुरङ्गजयमाल, बडतीसिया पाथड़ी, फूलया गीन, जिवदा हो जगतके राथ गीत, नेमीश्वर रासा आदि रचनाएं हैं। जिनका कोई भी कर्ता ज्ञात नहीं होता, रचनाएं भी अत्यन्त साधारण हैं। आशा है विद्वद् गया दूसरे भंडारोंसे भी हिन्दी भाषाकी अन्य रचनाओंको प्रकाशमें लानेका यत्न करेंगे । परमानन्द जैन शास्त्री संशोधन - पेज नं० १०३ की १६ वीं पंक्तिके बादका मैटर पेज नं० १०४ के पहले कालमके नीचे भूलसे दिया गया है। 'अनेकान्त' की पुरानी फाइलें 'अनेकान्त' की कुछ पुरानी फाइलें वर्ष ४ से १२ वे वर्षतक की अवशिष्ट हैं जिनमें समाजके लब्धप्रतिष्ठ विद्वानों द्वारा इतिहास, पुरातत्व, दर्शन और साहित्यके सम्बन्धमें खोजपूर्ण लेख लिखे गये हैं और अनेक नई खोजों द्वारा ऐतिहासिक गुत्थियोंको सुलझानेका प्रयत्न किया गया है । लेखोंकी भाषा संयत सम्बद्ध और सरल है । लेख पठनीय एवं संग्रहणीय हैं। फाइल थोड़ी ही शेष रह गई हैं । अतः मंगाने में शीघ्रता करें। प्रचारकीदृष्टिसे फाइलोंको लागत मूल्य पर दिया जायेगा । पोस्टेज खर्च अलग होगा । -- मैनेजर - 'अनेकान्त', वीरसेवामन्दिर, दिल्ली I Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किसकी जीत हिंसा और हिंसा इन्द] (जेमिचन्द्र जैन 'विनम्र') एक दिन धीमन बीच, जगा निज बढका प्रवक्ष प्रमाद। दिखाऊँ प्रतिद्विन्दनको आज, असीमित विक्रमका प्रासाद ॥१॥ सोच मह, भट्टहास कर बोर, चली यह शहरों पर प्रालीन । मिली वासंतिक पवन सुशीघ्र, दिखो जो मधुर धुनोंमें लीन ॥२ मृदुलता, मंजुलता श्रौ सौम्य, किये थे मुख-सरोजको भव्य । माह हो आत्म-संतोष, उसे कम डिगा सके मद हय? ॥३ जिसे प्रगटेकर अपना चिर अभिमान, मदांधा बोली कर तिरस्कार । 'नचाई क्या तू बस मुझ तुल्य, रही क्यों नमनशीलता धार ॥४ मौनही रही बसंती वायु, न मुखसे बोली कोई बात । देख पुर, फिरसे कहा सक्रोध, 'सुनो तुम मेरा मल पुन ॥ फैल जाता भयका साम्राज्य, उठा करती हूँ मैं जिस काल । पक्षक रचक कर संत चतुर्दिक में कह देते हाल ॥६॥ गृहत जलयानकि मस्तूल, गिरा देती तिनकों सा तोड़ । महा मेरे पौरुष समकप, लगा सकते क्या पलभर होड़? ॥७ सिंधुकी भी अगाध अक्षराशि, पूजती मेरे चरण कठोर। लगाते ही डोकर बस एक चीखतीं गिरती करतीं शोर ॥ 2 सांससे करती बद्र विनष्ट, असीमित मेरी गौरव-शान । रहीहूँ 'विश्व-विजयनि' मान्य, कौन है सुमसा शौर्य-प्रधान ॥१३ कि गूँजे तेरे भी जय-गीत, नहीं क्या अब भी इच्छावान १ धार ले मुझसा हिंसक रूप, तान दे निज आतङ्क वितान" ॥१४ जहाजों को कर देती ध्वस्त, एकही करके तीच्या प्रहार और फिर से टुकड़े जय-चिन्ह बना बिखरा देती हर बार ||१० आगमन मेरा बस जी छोड़ में छिपते मानव शूर !! बचा लेने को अपने प्राय, भागते पशुपक्षी भय-पूर ॥33॥ मकानोंके छप्पर भी, सुनो, उड़ा ले जाती मीलों दूर । राम महलोंके भी मुकुट, गिरा देवी भूपर बन॥१२ न मुखसे बोली कोई बात हुई चुप चलनेको तैयार । 'साथ चलने का कर संकेत, बसंती वायु चली सुकुमार ॥११॥ देखकर उसका शांत स्वरूप, गये उपवन मस्ती में दूष झूमने लगे खेत जी खोल, भला क्या इससे सकने अब १ ॥ १६ ॥ , प्रफुलित हो जहरें अविराम उछलने लगीं गगनी ओर। नृत्य करती थीं वे मुद मग्न, हर्षसे थी निस्सीम विभोर ॥१॥ काननों में बहारका साज, पक्षकमें दिखने लगा विशाल । महकने लगे पुष्प मद मस्त, बिछ गया मौरमका मधु जाला ॥१८ भ्रमर-दल कलि-प्रेयसिगण संग, किलोलें करने लगे अबाध । छेड़कर मधुगीतों की तान, मिटाती कोयन निज उर साथ ॥१३ किया शिखियोंने मनहर नृत्य, हुआ अधरों पर शोभित हाल । जहां छाया था भयका राज्य, यहां पर छाया दर्प-विलास ॥२० खगोंने कलरव ध्वनि कर शीघ्र किया था मधुसमीर जय गान । उठा ऊँचे देती जब पटक, प्रलय सा करतीं हाहाकार । अबाधित मेरा तांडव नृत्य, सदा छाई है विजय बहार ॥१॥ प्रकृति भी हो सुषुमा सम्पन्न, भेंटती थी श्राशीश महान ॥ २१ इन्दु करता उसका अभिषेक, पुष्पसे पूजन करते कुज सूर्य सी कब बरसाठी साप ? अहो! थी वह शीतलता- ॥ २२ 'तुम्हारा अभिनंदन हे देवि हमारे करते व्याकुख प्राथ दानवी अांधी के प्राघात, तुम्हींसे पस पाने हैं आया ॥ २३ हुई धांधी लज्जानत घोर, हुआ खण्डित उसका अभिमान । प्रेमसे गल जाते पाषाण, शाहिसे तनता कुयश वितान ||२४ 'हमेशा शासकले बलवान, गिना जाता माता जग बीच एक है निर्मल सरिता-धार, दूसरा उत्पीडककी ॥२२ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वादीचन्द्र रचित अम्बिका कथासार (श्री अगरचन्द्रजी नाहटा) जैन तीर्थकरों के साथ शासनदेव देवियोंका अधिष्ठापकके पत्रोंकी प्रति जो रचना समयकी ही प्रतीत होती है। रूपमें कबसे सम्बन्ध स्थापित हुमा, निश्चिततया नहीं कहा भट्टारक मेरूपन्द्र शिष्य महकीर्तिसागरके द्वारा प्रति जा सकता, क्योंकि इस सम्बन्धमें जैसी चाहिए शोध नहीं लिखित है। हुई है। प्राचीन जैनागमोंमें तो इसका कहीं उल्लेख एक पंच षकांक, वर्षे नमसि मासके। देखनेमें नहीं पाया । अतएव यह देवी देवियोंका सम्बन्ध मुदास्फाची कथा मेला, वादीचन्द्रो विदावर। अवश्यही पीछेसे जोड़ा गया है। अधिष्ठायक शासनदेवीके से इति श्री अम्बिका क्या समास रूपमें जिन देवियोंका सम्बन्ध है उनमें सबसे प्राचीन शायद उपयुक्त अम्बिका कथाका सार इस प्रकार है:अम्बिका देवी है। पीछेसे तो इसे नेमीनाथकी अधिष्ठायक ____ भारतके सौराष्ट्र प्रान्तके जूनागढ़के राजा भूपाल थे। देवी मानली गई है पर प्राचीन मूर्तियोंके अध्ययनसे वह उनकी रानीका नाम कनकावती था । इस नगरी में राज्य सभी तीर्थंकरोंकी मनदेवी प्रतीत होती है। इस देवीकी पुरोहित सोमशर्मा रहता था । जो कुलीन होने पर मिथ्यास्वतन्त्र प्रतिमाएं भी काफी मिलती है और स्तुति स्तोत्र दृष्टि था इसकी अग्निला नामकी बुद्धि मति पत्निी थी, वह भी अम्बिका देवीके बहुतसे पाये जाते है। जैनधर्मानुयायी थी। पति शैव और स्त्री जैन । इस श्वेताम्बर जैन जातियोंमें से प्राग्वाट-पोरवाद जातिकी धार्मिक भेदके कारण कुछ बैमनस्य रहना स्वाभाविक या कुल देवी ही अम्बिका है। विमनवसई में इस देवीकी देव एक वार पितृ श्राध्यके दिन सोमने ब्राह्मणोंको निमन्त्रित कुलिका है ही, पर अम्माजीके नामसे जो प्रसिद्ध सर्व साधा किया संयोगवश प्राक्षणों के मानेसे पूर्वही जैन मुनि शान सागर रण तीर्थ है वह भी श्राबूसे दूर नहीं है। पोरवाई जातिकी जी उसके घर भिक्षार्थ पधारे, अग्निजाने हर्ष पूर्वक उन धनी वस्ती भी इसी प्रदेशके पास-पास रही है। अतः उस प्रासुक बहार दिया । मुनि महारकर रैवताचबकी गुफामें जातिकी कुलदेवी अम्बिकाका होना सकारण है। धर्म साधन करने लगे। इधर किसी इालु मामायने श्वेताम्बर साहित्यमें तो अम्बिकाका जीवनचरित्र कई अनिलाको मनिको प्रहार देते देखा था उसने निमंत्रित ग्रन्थों में पाया जाता है। सुप्रसिद्ध प्रभावक चरित्रके विजयसिंह आता है। सुप्रसिद्ध प्रभावक चरित्रक विजयसिंह ब्राह्मणों के समक्ष द्वेष खुखिसे उसे अनौचित्यपूर्ण बतलाया। सरि चरित्रमें अम्बिकाकी कथा प्रसंगवश दी गई है। इस ब्राहमणोंक भोजनसे पूर्व मुनिको प्रहार दिया गया। इसलिए अन्धकी रचना सम्बत् ११३४ में हुई है। पुरातन प्रबन्ध ब्राह्मण बिना भोजन किये ही गाली देते दुए ले गये। संग्रह में भी देख्या प्रबन्ध मिलता है। सोमशर्मा निमन्त्रित ब्राह्मणोंको इस तरह भूखे जाते देख लोक भाषा-प्राचीन राजस्थानीमें रचित वीं शता- अग्निला पर कुपित हुभा । वह उसे मारने को दोबा इससे ब्दीकी एक अम्बिका देवी चौपई भी मुझे १५वीं शताब्दी- भयभीत होकर अग्निता अपने शुभंकर विभंकर दोनों पुत्रों की पूर्वाई की लिखित प्रतिमें प्राप्त हुई है। अतः उसका को एक कमर में और एक को हृदय में लेकर रैवताचनको मध्यका एक पत्र नहीं मिलनेसे रचना श्रुटित हो गई है। चली। वहां ज्ञानसागर मुनि विराज रहे थे। उन्हें नमस्कार दिगम्बर समाजमें अभी तक अम्बिकाकी कथा संबंधी कर बैठ गई । मुनिने उससे भय-भीत होने का कारण पूजा कोई स्वतन्त्र रचना ज्ञात मी। दो वर्ष हुए मेरा भतीजा पर बतलाने पर कुखद पतिकी निन्दा होगी जानकर मवरखाल देहलीसे बीकानेर पा रहा था, तब लखनऊके भी न कहा। श्रीपूज्यजी विजयसेनसूरि और यति रामपालजीके पास इधर उसके पुत्र पुधावश रोने लगे । वहाँ वह उन्हें अम्बिका कथाको प्रति उसके देखने में आई। कथा संस्कृत क्या देवदी चिन्ता हुई। पर इसी समय मुनि दानके पुरुष भाषामें १ से ३ श्लोकोंमें दी हुई है। संवत् १६५के प्रसादसे निकटवर्ती भान हर प्रकासमें ही फोंसे परिपूर्व भावन मासमें वादीचन्दने इस कथाकी रचना की है। इसके हो गया। उसकी जुम्बिकाएँ नीचे बटको भागी। जिनमें पके Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८] अनेकान्त [वर्षे १३ हुए कल थे। अग्निलाने उन पात्रोंसे पुत्रोंकी भूख शांत गये। सुभंकरने द्वारिकामें बौद्ध पण्डितको जोता। शानप्रभाव की। श्लोक ३२.। इधर कुपित भूखे ब्राह्मणोंने अपने घर देख कामदेव (प्रद्युम्न) ने कन्याओं द्वारा उनकी पूजा को। जाकर पत्नियोंसे भोजन मांगा । पर उन्होंने निमन्त्रणकं कुछ काल बाद नेमिनाथ वहां पधारे उनसे यह जानकर कारण भोजन नहीं बनाया था मनः कहा ठहरिये-भोजन की द्वारिकाका विनाश होने वाला है। प्रद्युम्न आदिने दीक्षा अभी बना देती हैं। संयोगवश इसी समय भाग लगी ली। शुभंकर और विभकरने भी दीश लेकर परम पद प्राप्त और पण भरमें अग्निलाके घरको छोद नगरके सब घर जल किया। गये। तब वे ब्राह्मण धनधान्य व घरसे हीन होकर वादीचन्द्रकी अम्बिका कथाका सार यहाँ समाप्त होता है। भूखे और थके हुए सोमके वापिस पहुंचे। उन्होंने सोममे अब तुलनात्मक अध्ययनके लिए प्रभावक चरित्र को कथाका कहा कि तुम्हारी भार्या धन्य है और उसकी प्राप्तिसे तुम भी सार दिया जा रहा है। धन्य हो । मुनिदानके प्रभावसे तुम्हारा घर बच गया। यदि कणाद मुनिक स्थापित काशहिद नगरके सर्वदेव ब्राह्मण भोजन तैयार हो तो हमें दो । सोमने प्रागत सब ब्राह्मणोंको की देवी सत्यदेवी थी। उसकी पुत्री अम्बाकोटिनगरके सोमभर पेट भोजन कराया। फिर भी वह अक्षय भण्डार हो भट्टको विवाही गई। विभाकर और शुभंकर दो पुत्र हुए। गया (श्लोक ४३) एक समय नेमिनाथके शिष्य सुधर्मसूरिक आहावर्ती दो सोम शर्मा अपनी गुणवती पत्नीक सत्कार्यको याद कर मुनि अम्बिकाके घर पधारे, अम्बिकाने उन्हें प्राहार कराया। अब उसे मनाने को रैवताचलकी ओर चला | अग्निलाने इन इनने में ही सोमभट या पहुंचा और उसने बिना महादेवके उसे रैवताचलकी ओर आते दम्ब कि वह मारनेको आरहा भाग लगाये भाजनका स्पर्श क्या किया गया कहा । और है-अब क्या करूं। उसके हाथसं मारे जानेको अपेक्षा श्राक्रोशवश उयं मारा व दोनों पुत्रों का एक गोदमें और स्वयं मर जाना अच्छा है। वह झटस ऊँच शिखर पर चढ- एक अंगुली पकड़ कर रैवताचल पहुँची । नेमिनाथको वन्दन कर नेमिनाथका ध्यान करते हुए कूद पड़ी। जिनेश्वरक शुभ कर आम्रवृक्षके नीचे विश्राम किया। भूखे बच्चोंको अाम्रफल ध्यानसे मरकर वह अम्बिका नामक नमिनाथको यक्षिणी दकर पुत्रों सहिन शिखर पर झम्पापान किया। नेमिनाथके हुई। जिसके स्मरणसे आज भी विघ्न दूर होते हैं। म्मरणसे देवी हुई। (रनोक ४८) इधर विप्रका क्रोध शान्त हुआ। वह भी रैवताचलको उसका पति हूँढता हुश्रा वहां पहुंचा और उसे मरा हुआ आया। और उन्हें मग देख पश्चाताप करता हुआ स्वयं भी देख विषाद करने लगा। इतने में अग्निला देवीक रूपमें पुत्रो कुण्डमें पढ़ कर मर गया ' व्यंतर होकर देवीका वाहन सिंह को लिए हुए दिखाई दी। सामने कहा-घर चलो अग्निला बना। अम्बादवी अब भी गिरी पर नेमिनाथके भनोंको ने कहा कि मैं तुम्हारी पनि नहीं देवी हूं सोम पत्निक सहाय करती है। पुगतनप्रबन्धसंग्रहका प्रबन्ध संक्षिप्तमें यही कथा विरहसे दुःखी होकर झम्पापात करके मर गया और मर कर बतलाता है। उपयुक दिगम्बर और श्वेताम्बर कथाएँ एक सिंह रूप देवीका वाहन हो गया । अम्बिका उस पर बैठ कर सो ही हैं प्राचीन प्राधार अन्वेषणीय है। घूमती है। ' अम्बिकाकी प्राप्त मृतियों में दो बच्चे और सिंह है ही। सोमशर्माका भाई शिवशर्मा वहां आया तो दवीन इसलिये अब कथाका मिलान खूब बैठ जाता है। अपने दोनों पुत्रोंको धनके साथ सौंप दिया। पर पुत्र मन्द- तर समाजमें भी अंबिकाकी मान्यता काफी है इसबुद्धि वाले थे। इसलिये पढ़नेका प्रयत्न करने पर विद्वान् लिये उनके प्रन्योंमें भी अवश्य ही कुछ जीवनचरित्र होगा नहीं बन सके। व दुखित होकर पहाड़ पर पहुंचे और अम्बि- उसकी खोज कर तुलनात्मक अध्ययन किया जाना चाहिये। काको याद किया तो अम्बिकाने उन्हें शारदा मन्त्र दिया और अम्बिकाको प्राप्त मूतियों में सबसे प्राचीन कौन सी भादवा सुदी से 11 तक उपवास सहित जाप करनेसे और यहाँ प्राप्त है और वह कितनी पुरानी है। इन सब बुद्धिमान बनोगे कहा उन्होंने वैसा ही किया और विद्वान हो बातोंकी जानकारी भी ज्ञानबर्द्धक होगी। Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मलयकीर्ति और मूलाचार प्रशस्ति मलयकीर्ति नामक अनेक विद्वान होगए हैं। उनमें से १४९३ की है, जो मधवकीर्तिके पट्टधर गुरु धर्मकीर्तिके प्रस्तुत मलयकोर्ति भिम ही जान पड़ते हैं। इनका समय स्वर्गवासके बादमें लिखी गई है। इस प्रशस्तिमें अंगविक्रमको १५वीं शताब्दीका अन्तिम चरण है। इनके गुरु पूर्वादिके पाठी विद्वानोंका उल्लेख करनेके अनंतर अपनेसे धर्मकीर्ति थे. जो त्रिभुवनकीर्तिके शिष्य और धर्म, दर्शन पूर्ववर्ती कुछ विद्वानोंके नामोंका समुल्लेख किया गया है साहित्य, व्याकरण और काव्य-कला आदिमें दक्ष थे। ये जिमका सम्बन्ध वागड संघको पट्टावलोसे है, इसी वागडाविद्वान होने के साथ-साथ उग्र तपम्बी भी थे । इन्होंने विक्रम न्वयमें अहंदली प्रादि भुतपारग विद्वानोंका उल्लेख किया संवत १४३ में केशरियाजीके मन्दिरका जीर्णोद्धार गया है। किन्तु उसमें कितने ही महत्वके विद्वानोंको छोड़ कराया था, जो खेलामण्डपमें लगे हुए शिलालेखसे स्पष्ट है। दिया गया है जिन्हें वागड संघका विद्वान नहीं समझा गया। सं. १४३३ में योगिनीपुर (दहली) के पास दिल्ली हां, इसमें धरसेन, भूतवली पुष्पदन्त जिनपालत और समन्तबादशाह फिरोजशाह तुग़लक द्वारा वसाये गए, केरोजाबाद भद्रादि दूसरे खाम विद्वानोंका नाम वांगद संघकी पट्टावसीमें नगरमें, जो उस समय जन धन, वापी, कृप, तडाग, उद्यान गिना दिया गया है. जो विचारणीय है। उक्त विद्वानोंके नाम आदिसे विभूषित था, उसमें अम्वाल वंशी गर्गगोत्री साह इस प्रकार है-धरसेन, भूतबली, पुष्पदन्त, योगीराज जिनलाम्य निवास करते थे। उनकी प्रेमवती नामकी एक धर्म पालित, समन्तभद्र, सिद्धसेन, देवसूरि, वज्रसूरि, महासेन, पत्नी थी, जो पातिव्रत्यादि गुणोसे अलंकृत थी। इनके दो रविषेण, कुमारसेन, प्रभाचंद्र, अकलंक, वीरसेन, अमितसेन, पुत्र थे साहु खेतल और मदन । खेतलकी धर्मपत्नीका नाम जिनसेन, वासवसेन, रामसेन, माधवसेन, धर्मसेन, विजयपरी था जो सम्पत्ति संयुक्त तथा दानशीला श्री। खेतन सन, संभवसन, दायसेन, कशवसेन, चरित्रसेन, महेन्द्रसेन और सगेसे फेरू पल्ह और बीधा नामक पुत्र थे और इन अनन्तकीर्ति, विजयसेन, जयसेन, केशवसेन हुए । उनके पट्टतीनोंकी काकलेही माल्हाही और हरीचन्दही नामकी क्रमशः धर पद्मसन हुए । पद्मसेनके पट्टधर त्रिभुवन कीर्ति हुए, नीन धर्म पत्नियों थी । खेतलक द्वितीय पुत्र मदनकी धर्म- और उनके पट्टधर अनेक विरुदावली विभूषित धर्मकीर्ति हए। पत्नीका नाम रता था, उससे हरधू नामका पुत्र हुआ था इनके शिष्य प्रस्तुत मलयकीर्ति है, हेमकीर्ति और उनसे छोटे और उसकी स्त्री का नाम मन्दोदरी था। खेतल के द्वितीय सहस्त्रकीर्ति हैं, ये तीनों हो यति गुर्जर देशका शासन उस पुत्र पल्हुक मडन, जाल्हा, घिरीया और हरिश्चन्द्र नामक समय कर रहे थे अर्थात् भट्टारकीय गही पर आसीन थे। चार पुत्र थे । इस पार ही परिवार लोग विधिवत जैनधर्म उज प्रशस्ति निम्न प्रकार है:का पालन करने थे. और आहार, औषध, अभय और ज्ञान प्रशस्ति दानादि चारों दानोंका उपयोग करते थे । माह खेनलने गिर प्रणम्य वीरं सर्वज्ञ वागीशं सर्वदर्शिनां । नारका यात्रोत्सव किया था। वह अपनी धर्मपत्नी काकलेही. मयाभिधास्यते रम्यां सुप्रशस्तां प्रशस्तिकाम ॥१॥ के साथ योगिनीपुर (दिल्ली) में पाया था । कुछ समय स्वम्ति रवींदु धात्रीसुनबुधसुरगुरुभार्गवच्छायातनय सुस्व पूर्वक व्यतीत होने पर साहू फेरूकी धर्मपत्नीने कहा विधंतुदक्वादि नवग्रहोहद प्रौढ पंचास्यासनं अष्टमहापत्प्रानिकि स्वामिन ! श्रुन पञ्चमीका उद्यापन कराइये। इसे सुनकर हापितद्वादशकोष्टकरम्यं रमणीयताविराजमान समवमफेरू अन्यन्त हर्षित हुए, तब साहू केरूने मूलाचार नामका रणापविष्ट निग्रन्थ कल्यांगनाभि भौमोरुगवनिताभवनभौम प्रथ श्रुत पबमीके निमित्त लिम्बाकर मुनि धर्मकीर्ति के लिये मकल्पनिलिपमनुजतीर्थककुतस्तस्वपरंपरानंदित शुभजगअर्पित किया। उन धर्मकीर्तिके स्वर्ग चले जाने पर उन ग्रंथ यानिवासिजनं अष्टादशदोष वनिमुक भन्यजनप्रबोधन यम-नियममें निग्न तपस्वी मलयकीतिको सम्मान पूर्वक वितीर्णानन्तमा तन्दुमुदं श्रीवीरजिनेन्द्रं प्रणुल्या व्यासन अपित किया गया। पाठकोकी जानकारीके लिये मलयकीर्ति भन्यजन लिखापितं श्रीमूलाचार पुस्तकस्य प्रशस्तिं चकार द्वारा लिखी गई उक्त ग्रन्थ प्रशस्ति ऐतिहासिक अनुसन्धाता मलयकोतिः ।। विद्वानोंके लिये बड़ी ही उपयोगी है, यही जानकर उसे यहां एकांगधारी योगीशो लोहाचार्य श्रियं क्रियात् । ज्यों की न्यों रूप में नीचे दी जाती है। यह प्रशस्ति संवत युष्माक दानिना मृदयारिदमादानुसारया ॥२॥ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त ११० ] पूर्व श्रीसिद्धार्थ क्षोणीशतनूजस्य दुष्टद्विष्टनिकृष्टाष्टाभिः कर्मभिर्निरस्तशर्मभिरतस्य सिद्धस्वरूपप्राप्तेरजस्थानघवतो भगवतः श्रीमहावीरस्य धीरस्य वामचरणकनिष्टकापीडनात् नमस्कारं प्रतिपाद्य दातृणां श्रोतॄणां पात्राणां च मगलासयेsभिमतकार्यसिद्धये स्वस्वगोत्रवृद्धये च त्रिषु केवलिषु पंचसु चतुर्दशपूर्विषु एकादशसु दशपूत्रिषु पंचसु दशांगधारकेषु त्रिष्येगधारकेषु इन्द्रभूति-सुधर्म जन्बू - विष्णुनंदि-मित्रापराजितगोवद्ध नभद्रबाहु विशाखप्रोष्ठिह्मचत्रियजयनागसिद्धार्थष्टति - -विजय बुद्धिलगंगदेव-धर्मसेन - - नक्षत्र- यश: पाल पाण्डुध्रुवसेनकंसाचार्य सुभद्रयशोभद्र भद्रबाहुष्वातीतेषु मुनिं गत श्रीवद्ध मानजिनेश्वरे वैकांगधारकेषु चतुर्थेन भगवता लोहाचार्येण समुद्भूत ं भगवत्शासनं यतस्ततोस्याशीर्वाद प्रकाषं ॥ शासन शब्देन गृहीता वक्रप्रीवगृदपिच्छाचार्य्यं लोहाचार्यादयो विनबंवरः श्रीदत्त अल्हदत्ताश्चत्वारः । पूर्वांगदेशधराः ऋषयः तेन परमभट्टारकेश्वरेण यत्कृतं तदित्याह चतुष्पयोधिपर्यन्तां धात्रीं विहरता सता । भूमीशानपि भव्यांश्च जग्मे संबोध्यमुत्तरम् ॥३॥ यतिना येन तेनास्मिश्चक्र े च वटपद्रकं । वागडाख्यां दधाने स्वं संधं वागडसंज्ञकम् ॥४॥ तस्यान्वये यतीशानास्तपतर्जितचित्तजाः । श्रद्वल्लादयोऽभूवन श्रुतसागरपारगाः ॥५॥ तेषां नामानि वच्मीतः श्रुणु भद्र महान्वय । भद्रो भद्रस्वभावश्च धरसेनो यतीश्वरः ॥६ भूतबली पुष्पदन्ता जिनपालितयोगिराट । समन्तभद्रो धीधर्मा सिद्धसेनो गणामणी ॥७ देवसूरिः वज्रसूरिर्महासेनो मुनीश्वरः । रविषेणो गुणाधारः षडंगांगोपदेशकः ॥८ कुमारेशः प्रभाचन्द्रोऽकलको यमिनां विभुः । सिंहनिष्क्रीडितं तेपे तपः कल्मषसूदनम् ॥ वीरसेनामितसेनी जिनसेनो दयार्द्रधीः । मुनींद्र वासवसेनश्च रामसेनो यशोधनः ॥ १० मुनिर्माधवसेनश्च धर्मसेनो जितेन्द्रियः । यतीन्द्रोर्विजयसेनस्तु जयसेनोऽत्र तत्त्ववित् ॥११ सिद्धान्तनीरघेः पारं प्राप्नो दिग्वाससां पतिः । सिद्धसेनो गणींद्रेशो धृतसद्व्रतकौशलः ||१२ ततो विजयसेनोऽपि लाडवागडसंघपः । ख्यातः संभवसेनोऽभूद्दामसेनो दयापरः ||१३ केशवचरित्रसेनौ त्रैलोक्यस्थितिदेशकौ । [ वर्ष १३ ततो महेन्द्रसेनोपि विख्यातस्तपसां निधिः ॥१४ मुनीन्द्रोऽनंत कीर्तिस्तु धुर्यो विजयसेनकः । जयसेनो गणाध्यओ वादिशुन्डालकेशरी ।। १५ प्रमाण -नय-निक्षेप र्हेत्वाभासादिभिः परैः । बिजेता वादिवृन्दस्य सेनः केशवपूर्वकः ||१६ चरित्रसेनः कुशलो मीमांसावनितापतिः । वेद-वेदांगतत्त्वज्ञो योगी योगविदांवरः ॥ १७ तस्य पट्टे बभूव श्रीपद्मसेनो जितांगभूः । स्मयुक्त सरस्वत्या विरुदं यस्य भासते ||१८ तत्पट्टे व्योमतारेशः संसृतेर्धर्मनाशकृत् । तपसा सूर्यवर्चस्को यमिनां पदमुत्तमम् ॥ १६ प्राप्तः करोत्वेते त्रिभुवनोत्तर कीर्तिभाक् । कल्याणं सम्पदः सर्व्वाः सर्व्वामरनमस्कृताः ॥ २० श्रीधर्म कीर्तिभुवने प्रसिद्धिस्तत्परत्नाकर चंद्ररोचिः । घट तर्कवेत्ता गतमानमायक्रोधारिलो भोऽभवदन्त्रपुण्यः।।२१ तस्य पादसरोज गुणमूर्तिर्विचक्षणः । मलयोत्तरकोर्तिर्वा मुदं कुर्यादिगम्बरः ॥ २२ कीर्तिगुणज्येष्ठो ज्येष्ठो मत्तः कुशाप्रधीः । धर्मध्यानरतः शान्तो दान्तः सूनृतवाग्यमी ॥२३ ततोऽनुजो मुनींद्रस्तु सहस्रोत्तर कीर्तियुक् । गुर्जरीं जगतीं श स्तो द्वौ यती महिमोदयौ ॥२४ वयं त्रयोऽपि धीमन्तः साधीयांसो निरेनसः । धर्मकर्तर्भगवतः शिष्या इव रवेः करः ॥२५ एते ध्यानाग्निप्रदग्धकर्मकांतारा: संबोधितानेक चमापालनिकुरंबकृत सेवावताराः तर्कन्या करणेतिहासच्छंदोलं कारागमवाग्नदीप्रौदप्रवाहोच्छलितमिलितसूक्ष्ममीकर सेकसुखितगात्राः - अनवरतसप्ततत्वविचारामृतास्वादाला कनाल्लब्धस्वर्गर्मोक्षलक्ष्मीदक्षवनिताकरावलंबनाश्लेष सम्मानितसौख्या तिशायतपुण्यपवित्राः श्रब्याजधर्मोपदेशदातारो वीरवत् संसृतेस्त्रातारः संग्रामाशुशुणिनदी दायताष्ट महामयमृगतिरिक्षचित्रकायव्या घोरिंगा - जरानेकेपस ( प ) त्नं पश्यतो हरारिमारिविषाभिचार करटितुरंगमगोमहिषनिरस्ताशस्तभया भव्यजनोपरि विहितकृपा समुदयाः मंगल यशः श्र ेयः सौभाग्यमूर्तयोऽर्हद्वल्लादयः श्रीधर्मकीत्यंता मुनिपाः सकृपा ॥ प्रन्थदातृप्रशस्ति अथ दातृतॄणामन्वयः सह नगरवर्णनेन व्याख्यायते । श्रनेकits- गुर्जर -मालव- महाराष्ट्र-द्वारसमुद्र-तिलगांगवगकालिंग- पंचाल -मगधांध वरुण-लाट कर्णाटक- जनपदायातभू-भृन्द Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ४] मलयकीर्ति और मूलाधार प्रशस्ति [१११ भृत्यानीतपूर्वोत्तर - दक्षिणपश्चिदिग्नागतुरंगमवाहनाथनन्त- दानशीलगुणाव्या रोहिणी ॥३० दुक्तमुजागरून्मणिहेमरौप्यप्रभृतिसमस्तप्राभृतावलोकनरंजित पण्यै गैगरूणां च पादपूजाभिरन्वहं। पौरवनितामीयमानसौंदर्यगुणेषुयुनिवहरेषारवद्विगुणितहरिण - कालं गमयतोरेक्मनयोः कुलमंडनम् । ३१ लोचनकुलांगनागानगर्जद्गमनमहाराजाधिराज-श्रीसुरत्राणश्री बभूवुः क्रमत फेल-पाल्हू-बीधाख्यमांगजाः । पेरोजशाहिशकराप्रयाणदुन्दुभिस्वनश्रवणभीतकृतांतसेवकगणे शौचाचारविदां मान्या मार्तडकिरणा इव ॥३२ करटिकपोलहिमवालिस्तमदजलसुरवाहिनीप्रवाहप्लावितरथ्यामरवनितानिवहेम्योमकषानेकनिष्कदुर्वर्णमणिमयजिनप्रासाद - काकलेही च माल्हाही क्रमतो हरिचन्दही। पंक्रितोद्य तिवैजयंतीप्रगुणगणतर्जितान्यदेशजयगोमिनीनि - तेषां ता जानयो नृणां विभांति गृहमेधिनाम ॥३३ कायोल्लसद्वाहेवापीकूपतडागोद्यानावमितानिमिषवल्लभा- मदनेन रतो कांतोपनीता सर्वसुन्दरी। सहसम्मिलितविचित्राभरणभूषितपौरयुवनीपुजकृतगीतनृत्यवा- विभाति पुण्यमान् धीमान हरधूतनयोऽनयोः ॥३४ धरवश्रवणायाततपितविहितपरम्परसंभाषणालापरंजितसर्वदि- मंदोदरी वधूटी च रावणस्यास्य भूभुजः । गा-तपांथसाथैछन्दालंकारातिहासतर्कव्याकरणागमज्योतिपर्व - जाता मंदोदरी जानिर्देकुंदेवेडिवांगजः ॥३५ चकविद्विबुधजनविवर्यमानसम्यगर्थसाथै यत्र च दोषाकरवं चद्रमसि नान्येषु चतुर्विधदाननिरतेषु जिनपूजा पुरुहूतेषु प्राण सुतो मंडननामधेयो, जाल्हा द्वितीयो घिरीया तृतीय भृत्सु, दोषाभिलाषो केषु नान्येषु य तादि सप्तव्यसनरहितेषु तुर्यो हरिचंद्र इमे प्रसिद्धा धर्मार्थकामा इव भांति भासः।३६ मन्सु, अकुलीनता तारागणेषु नान्येषु गुरुपितृचरणाराधन- समाचरितानि पुण्यकार्याणि तथा च-स्वर्गापवर्गप्रापतत्परेषु मनुजेपु, वृत्तभंगः काव्येषु न द्वादशवतभूषितंषु कानि लक्ष्मीतनयतनृजापरिणयनाम्युदय-चितारकाणिसर्वसुजश्रावकषु, रोधी व्यसनाभिभूतानां शत्रूणां च द्वारे न कीति- नमनःपोषकानि घृतदुग्धदधिशर्कराक्षसोडवारुद्राक्षाम्बराजातनपात्रेषु याचकजनेषु, दंडो जिन प्रसाद वैजयंतीषु नान्येतरपु- कादलत्रपुत्रत्रयुषवायन-नारंग-जंबीरलकुचबीजपूरककवटकमंडनृपाज्ञाप्रतिपालकेषु साधुषु, पटहेषु मृदंगेषु च बंधः, न कमोदकोदनसूपपूपपक्वाभग्वज्जकमांडीमरूकीघेवर • माठी शिष्टाचारप्रवृत्तेपु मलामात्येषु, हाव-भाव-विलाम-युकानां रभो- मुहाली इघिददीधिगर्भितान्याहारदानानि शुठीमागधिकारूणां, केशकलापेषु भंग न समस्तकरवितारिषु ग्रामदेशेषु, भयाजमोद-हरिद्वाजीरक-मरिचविभीतकधात्रीफलर्तितणीक . विरोधः पंजरेंपु न कुलजानेषु मानवेषु, कुटिलत्वयोगश्चाहिषु भूनिवनिंब-विडंग-पुष्करजटाप्रभृतोन्यौषधदानानितर्कव्याकरणन मप्ततत्वविचारतत्परेषु भव्येषु, भीरूशब्दः करभोरूणां ममा- छंदोलंकारेतिहासागमाचार - भरत-वैद्यकज्योतिषादीनि . जेषु न नान्यप्रवृत्तेषु सौंडीरक्षत्रियपुजेषु । पुस्तकदानानि एकेंद्वियादिपंचेंन्द्रियप्रभृति-स्वज नदुर्जनोपर्यअन्यच्च-यवर्णनासु वृहस्पतिरपि नवच्छात्रायने तस्मि- भयदानानि दुकूलचौमकोशेयकासिकचीनमहाचीनाथानि समरपुरप्रख्ये श्रीयोगिनीपुरनिकटनिवासि श्रीपेरोजावादाव्ये वस्त्रदानानि चमरचन्द्रोपक-कमंडुलु-कुडिकादीनि यत्युपकरवरे नगरे निवमद्भिरेतैः। णानि सयपूगानि मलवणानि मोपस्काराणि सकृपानि सबहुगर्गगोत्रनभश्चन्द्रो व्यंके यद्वारिमाणिके। मानानियच्छन्यथायोग्यमेवमादीनिदानानिबंदिदजमयाचकजनेभ्यो मुद्रिकादानानि कंकणा-केयूर-सुवर्णरूप्यप्रभृतिकं यच्छन् कृतश्रीदानैय॑क्कृतनागेशो धीशो लक्ष्म्यास्तु विष्णुवन ।। शत्रुजयरैवतकयात्रोत्सवः साध्वाचारप्रवृत्तया सुशीलया निरअग्रोत्कान्वये साधुः साधूनामाणिगुणी। स्तपापाचारया देवशास्त्रगुरूभक्तित्परया रस्या काम इव पर्णो यशोभिरव्यप्रेग्वि धीमानभूदू भुवि ।। ७ रुक्मिण्या विष्णुरिव भवान्या शंभुरिव शच्या पुरुहूत इव नस्य प्रेमवती साध्वी पत्नी 'वीरो' गरीयसी। प्रभया तपन इव रोहिण्या विधुरिव संपदा नय इन च नया स्त्रैणगुणैरभूत्ख्याता पौलोमीव ? शतक्रतोः ॥२८ पुण्यवस्या काकलेहीति स्वं नाम दपत्या संप्रातः श्रीयोगिनीअनयोरनंतभोगां कुर्वन्तो क्रमशः सुतौ।। परं नाम नगर, सुखेन यातेषु कषुचिहिवसंपु संजातश्रेयोधि खेतलो मदनो जातौ भारतीतनयाविव ।।२६ षणयासत्कर्मनिपुणया विज्ञप्तोंदयत: माधुफेरू स्ववचोभिरिति खेतलो दयिता नाम्ना सरो संपत्समन्विता। म्वामिन् विधीयते श्रीश्रुतपंचम्या उद्यापनमिनीरित श्रन्या Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ % ११२ ] अनेकान्त सप्रमोदः श्रीधर्मकीर्तिमुनिपाय' तसिमितं श्रीमूलाचारपुस्तकं लेखयांचकार, पश्चात् तस्मिन्मुनिपती नाकलोकं प्राप्ते सति तच्छिष्याय यम-नियम-स्वाध्यायध्यानाध्ययननिरताय-तपोधन भीमलयकीर्तिये तत्सबमानं सोत्सव सविनयमर्पयत् । [ वर्ष १३ आचंद्रार्क स्थिरं स्थयात्पुस्तकं भुवने परं। यशः पुण्यवतां शुभ्र गुणिनामिव दुर्लभम् । इदं मूलाचार पुस्तकं । सं० १४१३ । परमानन्द जैन वागड प्रान्तके दो दिगम्बर जैन-मन्दिर (परमानन्द जैन) राजपूतानेका वागडप्रान्त भी किसी समय ममृद्ध और विक्रम सम्बत् १५७१ कार्तिक शुक्ला दोयजक दिन प्रतिष्ठा शक्रियाली प्रान्त रहा है। बागरको वाग्वर भी कहा जाता कराई थी। है, दंगरपुर और बांसवाडाके पास-पासका क्षेत्र प्रायः बागड कालिजर-यह नगर वांसवाडे से १६ मील दक्षिण नामसे प्रत्यावहै। वागड प्रान्तमें दिगम्बर सम्प्रदायकी पश्चिम में हारन नदीके किनारे बसा हुआ है यहां विशाल पच्चीस्वाति रही है, उन स्थानोंके मन्दिर और ग्रंन्य शिखर बंध पूर्वाभिमुख एक जैन मंदिर है इस मन्दिरके दोनों रचनाचोराव होता है कि विक्रमकी १५वीं १६वीं पाश्वमें और पीछे एक एक मन्दिर और भी बना हुआ है पाताम्दीमें बहा जैनियोका खास महन्व रहा है। यहां तक और उसके चारों ओर देवकृलिकाए बनी हुई हैं, यह मंदिर कि महाके राजा महाराजा मी भट्टारकीय प्रभावसे अछूते नहीं भी दिगम्बर जैनोंका है । और ऋषभदेवक नामसे प्रसिद्ध रहे हैं। यही कारण है कि राज्योंसे भट्टारकोंकी गद्दीके लिये है। इस मन्दिरमें छोटी बड़ी अनेक तीर्थकर मूर्तियों प्रतिभी सरकारसे कुछ आर्थिक सहयोग मिलता रहा है। हम हम प्ठित हैं। एक मन्दिरमें खड़गासन भगवान पार्श्वनाथकी लेखमें दो जैन मंदिरोंका संक्षिप्त परिचय दिया जा रहा है। सुन्दरमूर्ति प्रतिष्ठित है जिसक श्रासन पर सम्बत् १५५८ आशा है विद्वान उधरके मन्दिरों और भंडारोंका परिचय फाल्गुणसुदी ५ का एक लेख उत्कीर्णित है। पार्श्वनाथकी भिजवा कर अपनी कर्तव्य निष्ठाका परिचय देंगे। एक दुसरी मूर्ति पद्मासन विराजमान है जिस पर सं० १६६० नोगामा-यह एक पुराना गांव है जो वांसवाड़ेस १३ श्रमन्त श्रावणवदि मोका एक लेख अंकित है। निज . मील दक्षिण पश्चिममें बसा हुया है। शिलालेखोंमें इस मंदिरमें मुख्यमूर्ति श्रादिनाथ की है जो पीछेसे अर्थात् वि. का नाम 'नूतनपुर' उल्लिखित मिलता है। यहां शान्तिनाथ सं० १८६१ वैशाग्वमुद्री ३ की प्रतिष्ठित है। इसका परिकर का एक बड़ा दिगम्बर जैनमन्दिर है जिसे वागड (हंगरपुरके पुराना है जिस पर सम्बत् १६१७ अमांत माधवदि २ का राजा महारावल उदयसिंहके राज्यकाल) में मूलसंघ सरस्वति एक लेख उत्कीणित है नीचेका श्रासन भी पुराना है जिसपर गच्छ बलात्कारगणके भट्टारक प्राचार्यविजयकीर्ति के उपदेश पम्वन १५५८ फाल्गन सुदी ५ अंकित है। से बडजातिके खैरज गोत्री दोशी चांपाके वंशजोंने बनवाकर निज मन्दिरके सामनेक मंडपमें पाषाण और पीतलकी ® प्रस्तुत विजयकीर्ति भट्टारक मकलकीतिकी परम्पराम छोटी छोटी मूर्तियाँ हैं जिनमें सबसे पुरानी मूर्ति सं० १२३५ होने वाले भट्टारक भुवनकीर्तिके प्रशिष्य और शानभूषणके वैशाख सुदी की प्रतिष्ठत है। और दूसरी मूर्ति वि० सं० शिष्य थे। यह भट्टारक शुभचन्द्र के गुरू थे। इनका समय १४४५ वैशाम्बसुदी ५ की है। जान पड़ता है कि इस मंदिर विक्रमकी सोलहवीं शताब्दी है इन्होंने अनेक जैन मन्दिरों का समय समय पर जीर्णोद्धार भी किया जाता रहा है। का निर्माण कराया और सैकड़ों मूर्तियोंकी प्रतिष्ठा भी कराई --- --- थी। इनका कोई अन्य अभी तक मेरे देखनेमें नहीं पाया। xदेखो राजपूतानेका इतिहास बांसवाडा पृ. २२ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पं. दीपचन्दजी शाह और उनकी रचनाएँ (परमानन्द शास्त्री) दीपचन्दजी शाह विक्रमकी १८ वीं शताब्दीके प्रतिभा सिद्धान्त और तत्वचर्चासे जनसमूह बाजभी शून्य होता। उसे मम्पस विद्वान और कवि थे। उनकी परिणतिमें सरलता अपने धर्मका यथार्थ परिज्ञान भी नहीं हो पाता। इससे सबसे और व्यवहारमें भद्रता थी, उनका स्वभाव भोला था, परन्तु अधिक लाभ तो यह हुआ, कि जनशास्त्रों का अध्ययन एवं अध्यात्म-चर्चामें वे अन्यन्त कुशल थे। उनकी प्रामा पठन-पाठन जो एक अर्सेसे रुकया गया था, पुनः चालू हो अध्यात्मरूप सुधामृतसे सराबोर रहती थी, वे श्रात्मानु- ___ गया। और आज जनशास्त्रोंके मर्मज जो विद्वान देखने में भूतिके पुजारी थे। उसी रसिक थे, और एकान्तमें उसीके आरहे है यह सब उमीका प्रतिफल है। इस पन्था श्रेय रसमें निमग्न होने की चेष्टा करते थे। वे अध्यात्मकी चर्चा जयपुरके उन विद्वानोंको प्राप्त है जिन्होंने अपनी निम्बार्थ. करते हुए उसी में ग्रान-प्रोन होकर अपनी सुध-बुध भूल जाते सेवा एवं कर्तव्यनिष्ठा द्वारा इस पल्लविन किया है। थे वे जनसम्पर्कमें कम पाते थे. परंतु उनका अधिकांश समय शाहजी की रचनाओका अध्ययन करनेसे स्पष्ट मालूम प्रारम-चिन्तन, आत्म-निरीक्षणा, अान्म-निन्दा, गहां तथा होता है कि प्रापर्क पावन हृदय में मंसारी जीवोंकी विपरीनाअपने अनुभवको कविता रूप परिणत करनेमें व्यतात होता भिनिवेश मय परिणनिको देखकर अत्यन्त दुश्व होता था। आपकी जाति खंडेलवाल, और गोत्र था कामली- था, और वे चाहने थे कि संसार सभी प्राणी-स्त्री-पुत्र-मित्र वाल। आप पहले सांगानेरक निवासी थे किन्तु पीछस धन-धान्यादि वाद्यपदार्थोंमें आत्म बुद्धि, न करें, उन्हें भ्रमजयपुरकी राजधानी अामेरमें पा बस थे। आपने अपनी वश अपने न मानें, उन्हें कर्मोदय प्राप्त समझ तथा उनमें कृतियों में इससे अधिक परिचय देने की कृपा नहीं की। अतः कन्वबुद्धिस ममुन्पन्न अहंकार-ममकार रूप परिणति न होने उनके जीवन-परिचय, माता-पिता नया गुरु परम्परीक सम्बन्धमें हैं। ऐसा करने से ही वे जीव अपने जीवनको आदर्श, प्रकाश डालगा संभव नहीं है। खोज करने पर भी उस मन्तोषी एवं मुखी बना सकते हैं। मुम्बका मार्ग परके सम्बन्धमें काई विशेष जानकारी नहीं मिली । पर इतना ग्रहणमें नहीं है किन्तु उनके त्यागमें अथवा उनसे उपेक्षा अवश्य ज्ञात होना है कि आपका वेष-भूषा और रहन-महन धारण करने में है । यही कारण है कि आपने अपनी प्राध्याअत्यन्त मादा था। श्राप तरह पंथक अनुयायी थे । यद्यपि मिक गद्य-पद्य-रचनाओं में भव्यजीवोको पर-पदार्थोम प्रान्मउस समय तरह और बीमपंथका उदय हो चुका था, परन्तु बुद्धि न करनेकी प्रेरणा की है और उससे होने वाले दुर्विपाकअभी उसमें क्लुपनाकी विशेष अभिवृद्धि नहीं हुई थी किन्तु को भी दिग्बलानेका प्रयत्न किया है। उनकी पी भावना माधारणमी बातों पर कभी कभी बींचतान हो जाया करती ही ग्रन्थ-चनाका कारण जान पड़ता है, इसीसे उन्होंने थी। परन्तु एक दृमके मध्यमें उतभेद मूलक दीवार जरूर अपने ग्रन्थोंमें जीवी उस भृलको मुधारनेकी वार वार बड़ी होगई थी। प्रेरणा की है। पं. दीपचन्दजी शाहका उस अपर कोई ग्वाम लक्ष्य रचनाएँ और उनका परिचय नहीं था, उनका एक मात्र लक्ष्य सदष्टि बनना, स्व-स्वरूप- हम ममय आपकी गद्य-पद्य रूप निम्न रचना उपलब्ध को पिछान कर अनादिकालीन अपनी भूलको मेंटना था, है। अनुभवप्रकाश, चिदिलाम, प्राभावलोकन, परमात्मइसीसे वे उससे प्रायः उदासीन रहकर म्वानुभवको ओर पगण, उपदंशरन्नमाला, ज्ञानदर्पण, बरूपानन्द और विशेष लक्ष्य देते थे। परन्तु उस समय परम्परमें कलपना- मया टीका । अापकी ये मभी कृतियाँ आध्यात्मिक रमसे की गहरी पुट जम नहीं पाई थी। जैसी कि भविष्यमें श्रोत-प्रोत हैं और उनमें जीवात्माको वस्तुनत्त्वका प्राध्यामिक तीन तनातनी बढ़ी, उन पंथोंक व्यामोह वश अनेक कागा और दृष्टिम बोध करानका ग्वामा प्रयत्न किया गया है । इन रचनासमस्याएँ वहां घटित हुई, जिनके कारण दोनोंको हानिक ओंमें ज्ञानदर्पण. म्वरूपानन्त, उपदशमिद्धान्त रत्नमाला इन सिवाय कोई लाभ नहीं हुआ। परन्तु इतना जरूर हुश्रा तीनोंको छोड़कर शेप सभी रचनाए हिंदी गयमें हैं जो 'ढारी कि भाहारकीय तानाशाहीके बावजूद भी तेरहपंथ विशेषरूपसे भापाको लिये हए हैं जैसा कि अनुभवप्रकाशक निम्न पाति पाता गया, और अनुयायियोंकी संख्या अभिवृद्धि ग्रंशसे प्रकट है:होती गई। यदि उस समय इस पंथका जन्म न होता तो "महामुनिजन निरन्तर स्वरूप सेवन करें हैं तातें अपना Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४] त्रैलोक्यज्य सव उच्चपद लोक कार्य करना है। कर्म - घटामें मेरा स्वरूप- सूर्य छिपा है। कछु मेरा स्वरूप सूर्यका प्रकाश कर्म-घटा करि हण्या न जाय, श्रावस्या हेडका हुआ हैपराका जोर है (सो) मेरे स्वरूप ह न सके। heat rear न करिमके मेरी ही भूल भई, स्वपदभूला, भूलि मेड़ी जब ही मेरा स्वपद ज्योंका न्यों बना है।" पृष्ठ १२ x X x 'जघन्यज्ञानी मैं प्रतिति करें ? तो कहिए है- मेरा दर्शन ज्ञागका प्रकाश मेर प्रदेश उठे है । जानपना मेरा मैं ही ऐसी प्रतीति करना आनन्द हो सो निर्विकल्प है। ज्ञान उपयोग यावरण में गुप्त है। ज्ञानमें श्रावरण नहीं। वहाँ जेता श्रंश श्रावरण गया, तेता ज्ञान भया ताज्ञानावरण न्यारा है, सो अपना स्वभाव है। जेना ज्ञान प्रगव्या तेना अपना स्वभाव खुल्या, सो थापा है ।" अनेकान्त [ वर्ष १३ कालसे परकी मंगतिसे होने वाली विकार परिक्षति और सज्जन्य दुःग्योंका अनेक दृष्टान्तोंके द्वारा स्वरूप बतलाया गया और पद-पद पर जीवकी भूलसे होने वाली बन्ध परिणिति, तथा उससे छूटनेका और स्व-पर स्वरूपके पिछाननेके उपायका निरूपण किया गया है। पृष्ठ १७ यह भाषा अठारहवीं सदीके अन्तिम चरण की है, क्योंकि पं० दीपचन्द्रजीने अपना 'चिद्विलाम' नामका ग्रंथ वि० सं० १७७६ में बनाकर समाप्त किया है । इससे यह भाषा उस समयकी हिन्दी गय है, बादको इसमें काफी परिवर्तन और विकास हुआ है और उसका विकमितरूप आचार्यकल्प पनि टोडरमलजी 'मांचमार्ग प्रकाश' यदि प्रयोका भाषासे स्पष्ट है। यह भाषा 'डारी और ब्रजभाषा मिश्रित है; परन्तु यह भाषा उस समय बड़ी ही लोकप्रिय समझी जाती थी । श्राज भी जब हम उसका अध्ययन करते है तब हमें उसकी सरसता और मरलताका पदपद पर अनुभव होता है । यद्यपि प्रस्तुत ग्रन्थकर्ताकी भाषा जननी परिमार्जित नहीं है जितना कि परिमार्जित रूप पं० टोडरमलजी की और पं० जयजन्दजी आदि विद्वानोंके टीकाथोकी भाषा में पाया जाता है। फिर भी, उसकी लोकप्रियता और माधुर्यमें कोई कमी नहीं हुई इस भाषा का साहित्य भी प्रायः दिगम्बर जैनियोंका अधिक जान है 1 पड़ता aarat रचनाओंका यथाक्रम से परिचय दिया जा रहा है जिससे पाठक उनके विषयसे परिचित हो सके । 5 अनुभव प्रकाश इसका विषय उसके नामसे ही प्रगट है। प्रन्थकी भाषाका उद्धरण पहले दिया जा चुका है, उससे अन्धकी भाषा और उसमें पथित आध्यात्मिक विषयका दिग्दर्शन हो जाता है। प्रन्थ जीवात्माकी धनादि बहित्माकी दशाका चित्रण करते हुए उसकी परिणतिका भी उल्लेख किया है और बतलाया है कि जब यह श्रात्मा परमें श्रात्मकल्पना करता है- जड़ शरीरादिको आत्मा मानता है, उस समय यदि शरीरका कोई अंग सड़ जाता, गल जाना या विनष्ट हो जाता है। तब यह कितना विलाप करता है, रोना है जिस तरह बन्दरको कोई कंकर पत्थर मारे तो वह भी रोता है, ठीक उसी प्रकार यह भी रोताचिल्लाना है, हाय हाय, मैं मरा, मेरा यह अंग भंग हुआ है । इस दुबका कारण जड शरीरमें ग्रात्माकी कल्पना करना हे परको हो अपना मानकर दुग्बी हो रहा है। फिर भी जड़की संगतिमें सुत्रकी कल्पना करता है। अपनी शिव नगरीका राज्य भूला हुआ है जो गुरु उपदेशानुसार अपने स्वरूपकी संभाल करे तो शिवनगरीका स्वयं राजा होकर विनाश राय करे जैसाकि की निम्न पंक्रियोंसे प्रकट है : 1 वानर एक कोकराके परोया देहका एक तो बहुशरो मेरे और में इनका छोजें । ये जनप सुग्व मान 1 अपनी शिवनगरीका रज्य भूल्या, जो श्री गुरुके कहे शिवपुरीकों संभाले, तौ वहांका श्राप चेतन राजा अविनाशी राज्य करें ।' इस तरह यह ग्रन्थ मुमुक्षुत्रोंके लिए बड़ा ही उपयोगी है अंग भी टही २ चिद्विलास इस ग्रंथ में भी अध्यात्मदृष्टिसे चम न्यके विलासका वर्णन किया गया है, उसमें द्रव्यगुण पर्यायका स्वरूप दिखलाते हुए, सत्ताक स्वरूपका निरूपण किया है। और प्रभु विभुम् आदिशक्रियों का विवेचन करते हुए समाधिके १३ भेदों द्वारा परमात्मपदके साधनका उपाय बतलाया है। जिन्हें परमारमपदके अनुभवकी इच्छा हो वे इस ग्रन्थका मनन एवं श्रवधारणकर परमात्म पद प्राप्त करनेका प्रयत्न करें। इस थको शाहजीने सं० १७७३ में फाल्गुन बदि पंचमीको आमेर में बनाकर समाप्त किया है। ३ आत्मावलोकन- इसका विषयी उसके नामसे स्पष्ट है इसमें पहले देव-गुरु- धर्मका निरूपण करते हुए हेयउपादेयरूप यचका विवेचन किया है और सात तत्वोंका Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ४ ] निर्देश करते हुए सम्यक्दर्शन, ज्ञान और चारित्रका स्वरूप दिया है और बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मरूप ध्रुवस्थाओंका विवेचन करते हुए धमकी अवस्था ज्ञान दर्शन मम्यश्वाचरण और चारित्राचरण की रीति निर्दिष्ट की है उसका अपने परिणामोंस मंतुलन करते हुए अपने स्वरूपकी ओर दृष्टि करनेका स्पष्ट संकेत किया है अर्थात ज्ञानीI at श्रात्मावलोकन की ओर प्रेरित किया है। क्योंकि सदृष्टिमें हो अहम्मालोकन होता है, स्वानुभव प्रत्यक्ष द्वारा ही उस अचिन्त्य महिमावाले टंकोत्कीर्ण ज्ञायकभावरूप श्रात्माक दर्शन होते है। उसीको करानेका विशुद्ध लय पकर्ताका है। ४ परमात्मपुराण- इस ग्रंथ में शाहजीने चाध्यामिक दृष्टिसे अनन्तमहिमायुक शिव (मोक्ष) को एक द्वीपसंज्ञा प्रदान कर उसमें श्रात्मप्रदेशरूप श्रसंख्य देशोंकी कल्पना की है जिसमें एक एक देशको अनन्त गुण-पुरुषोंक द्वारा व्याप्त बतलाते हुए उन गुण-पुरुषोंकी गुणपरिणति नामक नारीका नामोल्लेख किया है। उस शिवद्वीपका राजा परमात्मा चेतना परिणति रानी दर्शन-ज्ञान- चाररूपीन मंत्री सम्यक्त्व फौजदार (सेनापति) और स्वदेशांक परिणामको कोटवाल संज्ञा दी गई है। परमात्मराजांक अनन्त उमराव (सरदार) हैं उनके प्रभुत्व, विभुत्व, तत्त्वनाम यदि कतिपय नामोंका भी उल्लेख किया है और उन सबके कार्योका जुदा ख़ुदा कथन दिया हुआ है। आत्मप्रदेशरूप देशमें अवस्थित गुण-पुरुषोंको ब्राह्मण, क्षत्री, वैश्य, शूद्र, ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ गृहस्थ, साधु, ऋषि मुनि और यति कहनेका सकारण उल्लेख किया है। और इस तरह शिवद्वीपक शासक परमात्मा, चितपरिणति रानी, श्रात्मप्रदेशवासी गुण- पुरुषों, गुण परिणतिरूप पत्नियों, उनके संयोगसे 'ग्रानन्द' नामक पुत्रकी उत्ति दर्शनादि मंत्रियों सम्यक्वरूप संनापति और परिणाम कोटपाल द्वारा देशकी रचाका अलंकारिक रूपमें सुन्दर चित्रण किया है और उनके कयों का दिग्दर्शन कराने हुए परमात्म राजा राज्यको शास्वत बनलाया गया है। दूसरे शब्दोंमें इसे इस रूपमें कहा जा सकता है कि शाहजीने बड़ी चतुराईस परमात्मा और चेतना परिणतिरूप शनीक कार्योंका दिग्दर्शन कराते हुए उनकी 'स्वरमप्रवृत्ति' रूप क्रियाका भी उल्लेख किया है। उनकी इस अपूर्व कल्पनाका गुणीजन सदा चादर कोंगे और उसके अर्थका विचार करते हुए उस श्रात्मसारको हृदयंगम करेंगे, बही अपने चिदानन्द भूषको पहिचानने में समर्थ हो सकेंगे। अन्तमें निम्न ३३ यां सनैया और एक दोहा देकर ११५ इस ग्रन्थका परिचय समप्त किया जाता है जिसमें भगवान परमात्मा के प्रति रुचि उत्पन्न करनेकी प्रेरणा की है। पं० दीपचन्दजी शाह और उनकी रचनाएँ परम पुराण लखे पुरुष पुराण पाले सही है, स्वज्ञान जाकी महिमा अपार है। ताके कियें धारण उधाररणास्वरूप का है सितारणासी लहै भवपार है । राजा परमात्माको करत बखाण महा दीपको सुजस बढै सदा अधिकार है। अमल अनूप चिदरूप चिदानन्दभूप, तुरत ही जाने करे अरथ विचार है ॥१॥ । परम पुरुष परमात्मा, परम गुणनकी थान । ताकी रुचि नित कीजिये पाये पद भगवान ॥ इनके अतिरि आपकी तीन पद्य रचनाएँ ज्ञानदर्पण, उपदेशम्नमाला और स्वरूपानन्द- उपलब्ध हैं जो साध्यात्मिक होनेके साथ मात्र बड़ी ही सुन्दर और भावपूर्ण जान पड़ती है। उनके अवलोकनसे यापकी कवित्वशत्रिका सहज ही अनुमान हो जाता है, कविता सरल और मनमोहक हैं। यद्यपि जैन समाज में कविवर बनारसीदाम भगवतीदाम, भूधराम, चानतराय, डीलतराम आदि अनेक प्रसिद्ध कवि हुए है, जिनकी काव्य-कला अनुपम है, उनकी रचनाएँ हिन्दी-साहित्यकी पूर्व देन है, उनकी कविताओं में जो माहजिक मरसता और मधुरता है वह इनमें प्रस्फुरित नहीं है। फिर भी शाहजी की कविता भी मध्यम दर्जेकी है; और वह कविता भी आन्तरितिनाका प्रतीक है। | ज्ञानदर्पण - शटकोंकी जानकारी लिए उन शानद नामक रचनाके दो चार पद्य उद्धृत किए जाते हैंअलवरूपी अज आतम अमित तेज, एक अविकारसार पद त्रिभुवन में चिरौं सुभाष जाको समै हु सम्हारो नांदि, परपद आपो मानि भग्यो भव वनमें फरम फलोलनिमें मिल्यो है निशङ्क महा, पद-पद प्रतिरागी भयो तन तन में ऐसी चिरकालको बहु विपति पिलाय जाय नेक हू निहार देखो आप निजधनमें ||४६ || निचें निहारत ही आत्मा अनादिसिद्ध, आप निजभूल ही है भयो बिवहारी है, शायक सर्कात यथाविधि सो वा गोप्य दुई प्रगट अज्ञानभाव दशा बिसनारी है। अपनों न रूपजाने और ही सी और माने, ठाने भय-खेद् निज रीति न सँभारी है। ऐसे ही अनादि Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ अनेकान्त वर्ष १३ कहो कहा सिद्धभई, अब नैकहू निहारी निधिचेतना गुण अनंतके रस सबै अनुभौरसके मांहि । तुम्हारी है ॥४७॥ यार्ने अनुभवसारिखो और दूसरो नांहि ॥१२॥ इन पद्योंमें बनलाया गया है कि-'एक प्रान्मा ही कविवरने इन पद्योंमें कितना मार्मिक उपदेश दिया है, मंमारके पदार्थों में मारभूत है, वह अलख है, अरूपी, अज, इसे बतलानकी आवश्यकता नहीं, अध्यामरसके रसिक मुमुक्षुऔर अमित तेजवाला है। परन्तु इस जीवने कभी भी जन उमस भलीभांति परिचित है । इस तरह यह सारा ही उसकी संभाल नहीं की, अतएव परमें अपनी कल्पना कर ग्रंथ उपदेशात्मक अनेकभावपूर्ण सरम पद्योंसे श्रोत-प्रोत है। भव-वन भटकता रहा है। कर्मरूपी कल्लोलामें निश्शक इम ग्रन्थका रमाम्पादन करते हुए यह पद पद पर अनुभव डालना हा पदपदमें रागी हुया है-कर्मोदयसे प्राप्त होता है कि कविकी श्रान्तरिकभावना कितनी विशुद्ध है शरीरों में प्रामक रहा है। यदि यह जीव अपने म्वरूपका और वह अात्मतत्वक अनुभवसं विहीन जीवोंको उसका भान करने लग जाय तो क्षणमात्रमें चिरकालको बड़ी भारी महज ही पथिक बनाने का प्रयत्न करती है। विपत्ति भी दूर हो सकती है। म्ब का अवलोकन करते ही उपदेशरत्नमाला-इम ग्रन्थमें भी कविने सैद्धान्तिक अनादि सिद्ध प्रान्माका माक्षात अनुभव होने लगता है। उपदशांको पद्योंमें अंकित कर जीवात्माको भववामकी परन्तु यह जीव अपनी भूलसे ही व्यवहारी हुआ है। हमने कीचडस निकालनका प्रयत्न किया है, साथ ही, श्रान्मतत्वअपनी ज्ञायक (जाननकी) शक्रिको गुप्त कर अज्ञानावस्थाको को परम्पनं उसकी प्रतीति करनेकी प्रेरणा की है। जान विस्तृत किया है। यह अपने चैतन्यम्वरूपको नहीं जानता पडता है कविको जीवोंकी परपरिणतम होने वाली दुग्वदा किन्तु अन्यमें अन्यकी कल्पना करता रहता है। अनाव अवस्थाका भान है, उन्हें परपरणनिमें निमग्न जीवोंकी खेद खिन्न होता हुआ भी अपनी रीतिको नहीं संभालता है। दुखपरम्परा अमझ हो रही है इसी कारण उसक दर करने इस तरह करते हुए इस जीवको अनादिकाल व्यतीत हो की बारम्बार चतावनी दी है-जीवात्माकी भूल सुझानेका गया परन्तु स्वामिलब्धिकी प्राप्ति नहीं हुई। कविवर कहते उगम किया है जैसा कि ग्रन्थक निम्नपद्यों से प्रकट हैहैं कि है अान्मन ! तू अब भी परपदार्थोमं श्रान्मन्वबुद्धिका परित्याग कर, अपने स्वरूपकी ओर दव, अवलोकन करत अतुल अविद्या वमि परे, धरैन श्रातमज्ञान। ही माक्षात चनाका पिड एक अखण्ड ज्ञान-दर्शन-स्वरूप पर परिणति में पगि रहे, कैस है निरवान ॥५॥ पारमाका अनुभव होगा वही तरी प्रात्म-निधि है। मानि पर आपी प्रेम करत शरीरसती, कामिनी कनक कविन अनुभवकी महत्ताका गुणगान करते हुए बतलाया मांहिकर मोह भावना । लोकलाज लागि मूढ आपनी है कि-अनुभवरय रूपी छम्बरड धाराधर (मेघ) जहां जाना। अकाज करे. जानैं नहीं जे जे दुख परगति पावना । हो जाता है वहीं दुःवरूपी दावानल ग्चमात्र भी नहीं परिवार प्यार करि बांधैं भव-भार महा, बिनु ही विवेक रहता । वह कर्मनिवासरूपी भव-वाम-घटाको दूर करनेके लिए करें काल का गमावना। कहै गुरुज्ञान नावबैठ भवप्रचण्ड पवन है ऐसा मुनिजन कहते हैं। इस अनुभवरसके सिन्धतरि, शिवथान पाय सदा अचल रहावना ॥६॥ पीनेके बाद अन्य रसके पीनेकी कभी इच्छा भी नहीं होती। यहीरम जगमें मुग्यदाता है। यही श्रानन्दका स्थान है और म्वरूपानन्द-इसमे अचल, अनुपम, अज, ज्ञानानन्द, मन्त पुरुषों के लिए अभिराम है, इसके धारक शाश्वतपद प्राप्त श्रान्माके चितस्वरुपका अनुभव करनमें जो निर्विकल्प करते हैं, जैसा कि उनके निम्न पद्मस प्रकट है श्रानन्द पाता है, उमीमें रत रहने, विकारी भावोंको छोड कर निज स्वरूपमें स्थिर होनेकी प्रेरणा करते हुए उसका अनुभौ अखण्डरस धागधर जग्यौ जहां तहां,दुःखदावा फल शिवपद बतलाया गया है। जैसा कि ग्रन्थक निम्न दोहे नल रंच न रहतु है। करमनिवास भववास-घटा भानवकों. परम प्रचण्ड पौन मुनिजन कहतु हैं । याको से प्रकट हैरसपियें फिरि काहूकी न इच्छा होय, यह मुग्वदानी अचल अखण्डित ज्ञानमय, आनन्दघन गुणधाम । सदा जगम महत हैं। यानंदको धाम अभिराम यह अनुभी ताको कीजिये, शिवपद ह अभिराम ||७६। संतनको याहीके धरैया पद सासतौ लहतु हैं ॥१२॥ अन्तिम ग्रन्थ एक सवैया' की विस्तृत टीका है। जिसमें Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ४। सम्यग्दृष्टि और उसका व्यवहार [११७ वस्तुके स्वरूपका विस्तृत विवेचन किया गया है और नट तथा उसकी कलाके दृष्टान्त द्वारा विषयका स्पष्टी करण किया गया है। ग्रन्थ कर्ताकी अन्य क्या कृतियां हैं। यह कुछ ज्ञात नहीं होता । प्राप्त होने पर उनका भी परिचय बादको दिया जावेगा। सम्यग्दृष्टि और उसका व्यवहार (क्षुल्लक सिद्धिसागर जी) नेत्र में पीडा वगैरहके रहने पर जैसे दष्टि ठीक नहीं होती करनेके लिए भी दिया है . ये कहते हैं कि :-व्यवहार है वैसे ही जीवकी श्रद्धा जब तक निरपेक्षावादक रोगले अभूतार्थ है और निश्चय भृतार्थ है इस प्रकारका दुरभिनिवेश युक्त होती तब तक वर श्रद्धा वास्तविक श्रदा नहीं होती है नहीं रखना चाहिए कि यथार्थ बोध या स्याद्वादका आश्रय किन्तु जब वह उससे रहित म्याद्वादसे युक्त होनी है नब वही करनेवाला जीव ही मिथ्यान्टिसे सम्यग्दृष्टि हो सकता दृष्टि सम्यग्दृष्टि हो जाती है। उस सापेक्षवाद युक्त श्रद्धा है-अथवा अभूतार्थको अभृतार्थ और भूतार्थको भूतार्थ आत्मा कञ्चन अभिन्न है अतः वह पाल्मा भी सम्यग्दृष्टि मानने वाला मम्यग्दृष्टि है ऐसा अर्थ लेने पर वह 'दु' शब्द कहलाती है। दुरभिनिवेशके कारण जीय नीव्रतम अनंतानु- संयोजक भी है३। अभिनिवेशसं युद्ध व्यवहार प्रभूतार्थ है बन्धी कपायस महिन होना है उसमे उसके मनमें अममत्व तथा शुद्धनय - सम्यग्नय - दुर्राभानवेशरहितनय-मापेक्षनय रूप पीड़ा रहनी है - वह पीडा उसकी श्रद्वारूप दृष्टि ज्ञान मापे सयुक्रि या सापेक्षन्याय भूतार्थ है. इस प्रकारसे और आचरणको मिथ्या बना देता है - किन्तु उस दुरभि- प्रमाण-नयामक युक्रिका या भूतार्थका प्राश्रय करनेवाला निवेशके दूर होने पर मनको समत्व होता है, पीडा दूर हो जीव सम्यग्दृष्टि होना है। जानी, दृष्टिमें समाचीनता पा जाता है। ज्ञान सच्चा ज्ञान हो सम्यग्दृष्टिको दुर्गतिका भय नहीं होना चूकि वह जाना है, और याचरण अपने योग्य मदाचारमें परिणत हो सम्यक्त्वकी अवस्थामें दुर्गानका बन्ध नहीं करता है किन्तु जाता है। सम्यक्त्वरूपी मुल धनका संरक्षण हो वैस प्रयत्न करता है. ___ कोई जीव निश्चयको भृनार्थ और व्यवहारको अभू- वि उसके छटने पर दुर्गतिका बन्ध भी हो सकता है. नार्थ मानना है किन्तु दुभिनिवेशके होनेसे वह भृनार्थका- वह इन्द्रिय नोइन्द्रियके विषयों और श्रम-स्थावरकी हिंमास यथार्थ वस्तुस्थितिको-नहीं मानता है अतः प्रायः वह संसार विरक्र नहीं है और न उममें प्रवृत्त ही होता है। वह युक्र हे - मिथ्यादृष्टि है । विषयामा भी होता है महा प्रारंभमें भी लगा रहता है व्यवहार और निश्चय दोनों प्रकारके समीचीन नयोंको नो भी वह उनको हेय मानता है . अतः न्यायोचित विषयाअकलङ्क निश्चय-प्रात्मक बतलाते हैं - इस विषयमें न्याय- सक्रि और प्रारंभमें हेय बुद्धि होनेसे अन्याय और अभच्य कुमुदचन्द्रका नय-सम्बन्धी विवेचन मनन करने योग्य है। को भी सेवन नहीं करता है और उन्हें हेय मानता है"। भगवान् कुन्दकुन्दनं ममयमारकी ग्यारहवीं गाथामें यह अर्थ जीवकाण्ड५ की २९वीं गाथाके अपि शब्दसे जो 'दु' शब्दका प्रयोग किया है वह दुरभिनिवेशके निषेध- (३) व्यवहारोऽभूयत्थो भूयायो देसिदो दु सुद्धणो । (१) एकान्तधमाभिनिवेशमूला रागादयोऽहंकृतिजा जनानाम् भूदयमम्मिदो खलु सम्माइटी हवह जीवो ॥११॥ एकान्तहानाच्च म यत्तदेव, स्वाभाविकत्वाच्च सममनस्ते । प्रमाणनयामिका युक्रिया॑ यः शुद्धनयः । -युक्त्यनुशामने, स्वामिसमन्तभद्रः (४) णो इंदियेसु विग्दो णो जीवे थावर तसे वापि । (२) निश्चयमिहभूतार्थ व्यवहारं वर्णयन्त्यभूतार्थ । जो महहदि जिणुतं मम्माइट्ठी अविरदो सो ॥२६॥ . गो. जीवकाण्ड भूतार्थ बोधविमुखः प्राय: सर्वोऽपि संमारः। (१) विमयामत्तोवि. सया मम्बारंभेसु बट्टमायो वि, -पुरुषार्थसिन्द्व युपाये अमृतचन्द्रः (इदि) मन्वं हेयं मण्यादे, एमो मोहविलामो इदि । मृदयमा Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८] अनेकान्त [वर्ष १३ व्यक्त होती है-सम्यग्दृष्टि पापके कारणों और धूर्ततासे भी उदय रहित होता है इसलिए त्याग न होते हुए भी मद्य, मांस, अपकार करता हैमधु और उदुबर फलोंका भक्षण नहीं करता है दुरितायतनकेर सम्यग्दृष्टि उत्तमगुणानुरक्त, उत्तममाधुओंका भक्त और बर्जन करनेसे वह जैनधर्मकी देशनाका पात्र होता है। साधर्मीका अनुगगी है वह उत्तम सम्यग्दृष्टि है-(का. अनु.) सम्यग्दृष्टि यदि व्रत रहित है तो भी वह देव इन्द्र और नरेंद्रोंके द्वारा वन्दनी होता है और स्वर्गके सखको पाता है। सम्यग्दृष्टि यह विश्वास करता है कि उपशम और .-(कातिकेय द्वादश-अनुप्रक्ष गा. ३२६)। क्षयोपशम सम्यक्त्व असंख्यातवार भी हो सकता है-पं० बनावह रत्नोंमें सम्यक्त्यको महारत्न, योगोंमें उत्तमयोग, रसीदासक दृष्टान्तानुमार वह लुहारकी संडासोक समान हैरिद्धियोंमें महारिन्द्वि और सम्पूर्ण सिद्धियोंको करनेवाला चूकि लुहारको मन्डामी क्षणमें श्रागमें गिरती है तो क्षण मानता है। -का. अनु. गा. ३२५ में पानीमें वैसे ही उपशम या क्षयोपशम सम्यक्त्व भी कभी द्रव्य थे, हैं और रहेंगे इस मान्यतासे वह सात प्रकारके मिथ्यात्वरूप और कभी सम्यक्वरूप हो सकते हैं- उसके भयोंसे रहित होता है कि किसी भी द्रव्यको निबध्वंस अन्तःकरणमें यह तीव्र अहंकार नहीं है कि शरीरसे प्रेम करनेकी योग्यता किसीभी द्रव्य या पर्यायमें नहीं है। ही नहीं होता है या कोई भय होता ही नहीं है भले ही सर्वज्ञ सर्वव्यों और उनकी पर्यायोंको मर्व प्रकारसे सम्यग्दृष्टिके शरीर आदिक परवस्तु पर अनंतानुबन्धीसे विधिवत जानते हैं इस प्रकार वह पागमक द्वारा सब द्रव्य सम्बन्धिन भय ममत्वादिक न रहें-किन्तु शेष २१ कषायोंऔर पर्यायोंको संक्षिहमें मान लेता है-अविश्वास नहीं का किपीरूपमें सद्भाव हो भी सकता है पोर नहीं भी। करता है वह मदृष्टि है. गले ही प्रत्यक्ष रूपसे सर्व द्रव्योंकी जो जीव सम्यक्त्वस रित होता है व्यर्थ अत्यन्त श्राग्रही पर्यायोंको उसने न जाना हा३ । होता है किन्तु सम्यग्दृष्टिके युक्ताहार विहार आदिक हानेयदि व्यंतर देव ही लक्ष्मी देता है तो धर्म क्यों किया से बाह्म प्रकृतिमें बड़ा भारी अन्तर पड़ जाता है-अपूर्व जावे १ वह तो विचार करता है कि अपने शुभ या अशुभ परिणाम आत्मिक प्रसन्नता और अनाकुलता पर प्रेम भी उसका रूप अपराधसे जो इसने पुण्य या पाप संचित किया है उसके अनूठा ही होता है वन उपवन सुन्दर दृश्य और शहरों में - सुख या शान्ति नहीं है किन्तु जो श्रात्माके प्रदेशोंमें अपने (१) अप्टावनिष्टदुस्तरदुरितायतनानि अमूनि परिवर्त्य । ज्ञानादिक गुणोंको अनुभव करते हुए यथाशक्य सम्पूर्ण जिनधर्मदेशनायाः भवन्ति पात्राणि शुद्धधिया । इच्छाओंसे रहित रहनेमें सुख मानता है-पहले अशुभ -पुरुषार्थसिद्ध्युपाये अमृतचन्द्रः परिणामका त्याग कर पुनः शुभ परिणामका यद्यपि वे (२) सुरा-मत्स्यान् पशोमांसम् , द्विजातीनां बलिस्तथा दोनों युगपद हेय है-अशुभस निवृत्त होना और शुभमें धूतः प्रवर्तितं ह्येतत् , नैतद् वेदपु विद्यते। महाभारत शांतिपर्वमें पितामह भीष्म धर्मराज प्रवृत्त होना क्रमको रखता है-अत: व्रत समिति और युधिप्टिरस कहते है गुप्तिकी प्रवृत्तिको प्राप्त होनेवाला पापसे निवृत्त होता है (३) एवं जो णिश्चयदो, जाणदि दवाणि सव्वपज्जाए। पुनः शुभसे भी संयमी ध्यानी आत्मसात हाते हुए शुद्ध सोसट्टिोद्धो, जो संकदि सोहु कुटिटो ॥३२३॥ निरपराध-रत्नत्रयरूप परिणत होते हुए-सहकारी कारण के पूर्ण होने पर मुक्त होता है-(१०) क्रमके बिना शुद्धोपसुहजोगेसु पवित्ती संवरणं कुणदि असुहजोगस्य सुहजोगस्स गिरोहो सुद्धवजोगेण संभवदि ॥३॥ योग और मुक अवस्थाको आत्मा नहीं पा सकता है। -कुन्दकुन्द द्वादशनुप्रेक्षा न्यायोपात्तधनो यजन् गुणगुरून सद्गी:इत्यादि सागारधर्मामृत Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोसहरास और भ० ज्ञानभूषण (परमानन्द जैन) इस ग्रन्थ का आदि अन भाग श्री क्षुल्लक मिद्धिमागर- और मूलसंघका विद्वान सूचित किया है। जीने मोजमाबाद (जयपुर) के शास्त्रभंडारसे भेजा है जिसके मूलसंघे महामाधुर्लचमीचन्द्रो यतीश्वरः। लिये मैं उनका आभारी हूँ। प्रन्थमें प्रत्येक अष्टमी और तस्य पट्टच वीरेन्दु विबुधो विश्ववंदितः ॥१॥ चतुर्दशीको उपवास करनेका उल्लेख किया गया है। तदन्वये दयाम्योधिनिभूषो गुणाकरः।। ग्रन्धका श्रादि अन्त भाग निम्न प्रकार हैं। चूंकि भुवनकीर्तिके शिष्य ज्ञानभूषणने वि० सं० १५६० आदि भाग में तत्त्वज्ञानतरंगिणी बनाकर समाप्त की है। इनके द्वारा सरमति चरण युगल प्रणमी सहित गुरूमनि श्राणु । प्रतिष्ठित मूर्तिलेखोंमें इनका समय वि० सं० १५३४ से बारह वरत महि सारवरत, पोसह वरत बखाणु ॥३॥ १५६० तक पाया जाता है। जिससे वे विक्रमकी १६ वीं अट्टमी चउटसनीसहित, नित पोसह लीजइ । शताब्दीके मध्यवर्ती विद्वान जान पड़ते हैं। किन्तु द्वितीय उत्तम मध्यम अधम मेद, तिहुविधि जाणिजइ ॥ २ ॥ ज्ञानभूषणका समय इसमें कुछ बादका है। क्योंकि भट्टारक अन्त भाग लक्ष्मीचन्द्रके गुरु मल्लिभूषणका समय सं० १५३० से वरइ रमणी मुकतीजस नाम, १५५० के लगभग है उससे कमसे कम ३० वर्षके बादका अनुपम सुख अनुभव इह ठाम | समय भ० ज्ञानभूषणका होना चाहिये। यद्यपि ३० वर्षका पुन रपि न प्रावह नेह वउ-फलु, यह समय दोनों विद्वानोंका अधिक नहीं है। अर्थात् द्वितीय जम गमइ ते नर पोसह कारन भावइ । ज्ञानभूषण सं० १५८०के बाद के विद्वान जानना चाहिये । साथ दोहा-राणी परिपोमहु धरहु, जे नर नारि सुजाण । ही जिन ग्रन्थोंमें उन्हें लचमीचन्द्र वीरचन्द्रका शिप्य सूचित श्रीज्ञानभूषण गुरु इम भणइ, ते नर करउ बम्वाण ॥ किया गया है वे पब रचनाएँ द्वितीय ज्ञानभूपणकी माननी इस प्रोपधगम कर्ना भ. ज्ञानभूपण हैं। ग्रन्थों में ज्ञान चाहिए। इन्होंने कुछ ग्रन्थोंकी टीकाएँ अपने प्रशिष्य और भूपण नामके दो विद्वान भट्टारकोंका उल्लेग्य मिलता है। भ० प्रभाचन्द्रक शिष्य भ० मुमतिकीर्तिके माथ भी बनाई जिनका समय, गुरु शिष्य परम्परा भी भिन्न-भिन्न है, जिस हैं। उदाहरणके लिये कम्मपयडी (कर्मकायड) टीका जिसे पर किसी विद्वानने अब तक कोई प्रकाश डाला ज्ञान नहीं जानभपण नामांकित भी किया गया है। सुमतिकीर्तिके होता। अभी तक ज्ञानभूपणक नामसं एक विद्वानका ही विद्वानका हा माथ बनाई गई है। उल्लंग्य बराबर देखनेमें पाता है। जैन ग्रन्थप्रशस्ति- इस सब विवेचनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि ज्ञानभूषण संग्रहकी प्रस्तावना लिखते समय मेरा ध्यान भी उस ओर नामके दोनों विद्वान उन दोनों परम्पराओंमें हुए हैं, जिनका नहीं गया. किन्तु अब उस पर दृष्टि जाते ही उन दोनोंकी समयादिक मब भिन्न है। इनमेंसे प्रथम ज्ञानभूषणकी निम्न पृथकताका श्राभास सहज ही हो गया। इन दोनों ज्ञान- कृतियोंका पता चला है जिनके नाम इस प्रकार हैंभूषणोंमस प्रथम ज्ञानाभूपण वे हैं जो भ० मकलकीर्तिके तत्त्वज्ञान तरंगिणी स्वो० टीका युक, २ आदिनाथ काग, पट्टधर शिप्य भुवनकीर्तिक शिष्य थे । और दूसरे ज्ञानभूषण ३ नेमिनिर्वाणकाव्य पंजिका, ४ परमार्थोपदेश, ५ सरस्वती वे हैं जो भ. देवेन्द्रकीर्तिकी परम्पराओं में होने वाले भट्टारक स्तवन, ६ श्रारम-सम्बोधन। लक्ष्मीचन्द्र के प्रशिष्य और वीरचन्द्र पट्टधर शिप्य थे। दूसरे ज्ञानभूपणकी निम्न रचनाएँ हैंयही कारण है कि प्रस्तुत ज्ञानभूषणने भ० लक्ष्मीचन्द्र और १ जीबंधरराम २ सिद्धान्तमारभाप्य ३ कम्मपयडी वीरचन्द्रका अपने टीका-ग्रन्थोंमें स्मरण किया है जैसा कि टीका ( कर्मकाण्ड टीका) जिनचन्द्र के सिद्धान्तसारभाप्यके मंगल पद्यसे स्पष्ट है:- इन तीन कृतियोंके अतिरिक्र प्रस्तुत 'पोसह रास' श्री सर्वज्ञं प्रणम्यादी बक्ष्मी-वीरेन्दुसवितम् । (प्रोपधराम) भी इन्हींको कूति जान पड़ती है। अन्य क्या भाप्यं सिद्धान्तसारस्य वच्ये ज्ञानसुभूपणम् ॥ ११॥ क्या रचनाएँ इन दोनों विद्वानों द्वारा यथा समय रची गई हैं वीरचन्द्र के शिष्य ज्ञानभूषणको कर्मकाण्ड (कर्म प्रकृति) उनकी खोज अन्य-भण्डारोंसे करनेकी जरूरत है। आशा है टीकाका अन्तिम प्रशस्तिमें सुमतिकीर्तिने बीरचन्द्रका अन्वयी विद्वद्गण इस ओर भी ध्यान देनेकी कृपा करेंगे। Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुक्ति-गान मनु 'ज्ञानार्थी' 'साहित्य - रत्न' राही ! तू अभिशापों को वरदान बनाता चल । जीवन है; उत्थान-पतन तो होते हैं पल-पल में ; सागर है; इसमें ज्वार-भाट तो उठते हैं क्षण-क्षण में ; यहां प्रणय में सदा विरह की पीर छुपी रहती है ; और सुखों के निर्भर से भी व्यथा-सरित् वहती है : यह सुख-दुख का घटी यन्त्र चलता है; तू भी चल ; राहो ! तू अभिशापों को वरदान बनाता चल । मान और अपमान यहाँ की रीति यही निश्चल ; दुर्बल को पद-घातः सबल को होता है पद-दान यहां पर यहां व्यक्ति को प्रगतिः व्यक्ति में द्वेष-भाव जनती है ; यहां व्यक्ति की शक्ति कुचलती श्रान्त पथिक के पर है ; जग के छल को नमस्कार कर; निश्छल बनता चल राही ! तू अभिशापों को वरदान बनाता चल । जग की उलझन युग-युग से चलती आयी है यों ही ; स्वार्थ व्यक्ति में जगा रहा है 'अहं' सदा से यों ही ; तू अपना पथ देख; जन्म के बाद बालपन आता ; चल-यौवन; फिर शुभ्र - केशः फिर मृत्यु बुलावा आता ; श्रो नौजवान ! अनमिल यौवन का मोल चुकाता चल ; राही! तू अभिशापों को वरदान बनाता चल । आज तुझे हग-ज्ञान-चरण की नाव मिली सागर में; मनन और चिन्तन के दृढ़ पतवार मिले ज्वारों में: कर्म-बन्ध को खोल; तोड़ झककोर, अरे ! तू शक्तिमान है; चल दे आत्म-विभोर पन्थ का पास अरे! अवसान है ; अगम पन्थ को सुगम बनाः शिव-नगरी में पद धर ; राही! तू अभिशापों को वरदान बनाता चल । Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वार्षिक मूल्य ६) विश्व तत्त्व-प्रकाशक वर्ष १३ किरण ५ ॐ अर्हम् का नीतिविरोधसी लोकव्यवहारवर्तकः सम्यक् । | परमागमस्य बीजं भुवनैकगुरुर्जयत्यनेकान्त ॥ वस्तुतत्त्व-संघोतक एक किरण का मूल्य | ) वीर सेवामन्दिर, C/o दि० जैन लालमन्दिर, चाँदनी चौक, देहली मार्गशीर्ष, वीर नि० संवत २४८१ वि० संवत २०११ समन्तभद्र- भारती देवागम द्वैकान्त-पक्षेऽपि दृष्टो मेदो विरुध्यते । कारकाणां क्रियायाश्च नैकं स्वस्मात्प्रजायते ॥ २४ ॥ 'यदि अद्वैत एकान्तका पक्ष लिया जाय-यह माना जाय कि वस्तुतत्त्व सर्वथा दुई ( द्वितीयता ) से रहित एक ही रूप है - तो कारकों और क्रियाओंका जो भेद ( नानापन ) प्रत्यक्ष प्रमाणसे जाना जाता अथवा स्पष्ट दिखाई देनेवाला लोकप्रसिद्ध ( सत्य ) है वह विरोधको प्राप्त होता ( मिथ्या ठहरता ) हे -कर्ता, कर्म, करणादि रूपमें जो सान कारक अपने असंख्य तथा अनन्त भेदों को लिये हुए हैं उनका वह भेद-प्रभेद नहीं बनता और न क्रियाओं का चलना-ठहरना, उपजना-विनशना, पचाना-जलाना, सकोडना पम्पारना, खाना-पीना और देखना- जानना आदि रूप कोई विकल्प ही बनता है: फलतः सारा लोक-व्यवहार बिगड़ जाता है । ( यदि यह कहा जाय कि जो एक है वही विभिन्न कारकों तथा क्रियाओंकं रूपमें परिणन होता है तो यह कहना ठीक नहीं है; क्योंकि) जो कोई एक है- सर्वथा अकेला एवं महा हैं - वह अपने से ही उत्पन्न नहीं होता । - उपका उम रूपमें जनक और जन्मका कारणादिक दूसरा ही होता है, दूसरेके अस्तित्व एवं निमित्तके बिना वह स्वयं विभिन्न कारकों तथा क्रियाओंके रूपमें परिणत नहीं हो सकता । कर्म- द्वैतं फल- द्वैत लोक- द्वैतं च नो भवेत् । विद्याऽविद्या-द्वयं न स्याद्बान्ध मोच द्वयं तथा ॥ २५ ॥ '( सर्वथा श्रद्ध ेन सिद्धान्तके माननेपर) कर्म- द्वैत-शुभ-अशुभ कर्मका जोड़ा, फल- द्वैत पुण्य-पापरूप अच्छे-बुरे का जोड़ा और लोक द्वैन- फल भोगनेके स्थानरूप इहलोक - परलोकका जोड़ा नहीं बनता । इसी तरह ) विद्याविद्याका द्वैत (जोड़ा ) तथा बन्ध-मोक्षका द्वैत ( जोड़ा ) भी नहीं बनता । इन द्वौनों (जोड़ों) मेंसे किसी भी इतके मानने पर सर्वथा अद्वेतका एकान्त बाधित होता है। और यदि प्रत्येक जोड़ेकी किसी एक वस्तुका लोप कर दूसरी वस्तुका हो ग्रहण किया जाय तो उस दूसरी वस्तुके भी लोपका प्रसंग आता है; क्योंकि एकके बिना दूसरीका अस्तित्व नहीं बनता, और इस तरह भी सारे व्यवहारका लोप ठहरता है ।" नवम्बर १६५४ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीर - जिन-पूजाष्टक ( जुगल किशोर युगवीर ) वीर-वन्दना शुद्धि-शक्तिकी पराकाष्ठा, को अतुलित-प्रशांति के साथ | पा, सतीर्थ प्रवृत्त किया जिन, नम् वीरप्रभु साऽञ्जलि -माथ ॥ १ ॥ पूजन-प्रतिज्ञा आज वीरप्रभु पूजा करने, श्राया हूँ तज कर सब काम; मृति सातिशय अनुपम तेरी, राजत है सम्मुख अभिराम । उसके द्वारा ध्यान लगाकर, आराधू में अपना राम आओ तिष्ठ हृद् मन्दिर में, खुला द्वार है हे गुण धाम ॥२॥ पूजाऽप्रक केवल - ज्योति - स्वरूप, त्रिभुवन नायक हैं ॥२॥ गुण विकास बलवान, अक्षय-पद प्रगटे । केवल- ज्योति स्वरूप, त्रिभुवन- नायक हैं ||३|| जल मलहारी विख्यात, अन्तर्मल न हरे; हो वह समता-रस प्राप्त, कर्म-कलंक धुले । समता-रस-घर श्रीवीर, मंगल-दायक हैं; जय केवल - ज्योति स्वरूप, त्रिभुवन-नायक हैं ||१|| चन्दन शीतल पर नाहिं अन्तर्दा हरे; प्रगटे अकषाय-स्वभाव, भव- आताप टरे । भव-दुख-हारी श्रीवीर, मंगल-दायक हैं; जय क्षत सेवत दिन-रात, अक्षय गुण न करें; हो अक्षय-गुण प्राप्त सुवीर, मंगल-दायक हैं; जय प्रभु, कुमुम-शरों की मार, मनको व्यथित करे; हो अनुभव-शक्ति प्रदीप्त, मन्मथ दूर भगे । मन्मथ - विजयी जिन वीर, मगल दायक हैं: जय केवल ज्योति स्वरूप, त्रिभुवन-नायक हैं ||४|| नानाविध खाद्य पदार्थ, खाते हम हारे; नहिं क्षुधा हुई निर्मूल आए तुम द्वारे | लुत्त-नाशक श्रोवीर, मंगल दायक हैं; जय केवल- ज्योति स्वरूप, त्रिभुवन- नायक हैं ||५|| दीपक तम हर सुप्रसिद्ध, अन्तर्तम न हरे में खाजू आत्म-स्वरूप, ज्ञान- शिखा प्रगटे । अज्ञान तिमिर हर वीर, मंगल-दायक हैं; जय केवल ज्योति-स्वरूप, त्रिभुवन-नायक हैं ||६|| धूप, हि निज काज सरे; कर्मेन्धन - दाहन-हेत, योगाऽनल प्रजरे । योगेश्वर वीर सुधीर, मंगल-दायक हैं; जय केवल- ज्योति स्वरूप, त्रिभुवन-नायक हैं | ७|| फल पाए भोगे खूब, पर परतन्त्र रहे; हो शिघ्र फल प्राप्ति अनूप, निज स्वातन्त्र्य लहें । शिव-मय स्वतन्त्र श्रीवीर, मंगल-दायक हैं; जय केवल-ज्योति स्वरूप, त्रिभुवन-नायक हैं । इन जल-फला दिसे नाथ, पूजत युग बीते; नहिं हुए विमल 'युगवीर', अब तुम ढिंग आए । मल-दोष-रहित श्रीवीर, मंगल-दायक हैं; जय केवल - ज्योति - स्वरूप, त्रिभुवन नायक हैं ॥६॥ आशीर्वाद मंगलमय जिन वीरको, जो ध्यावें युग-वीर । सब दुख -संकट पार कर, लहें भवोदधि तीर ॥१॥ - 3-100-KHES Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुंबड या हूमडवंश और उसके महत्वपूर्ण कार्य ( परमानन्द जैन शास्त्री ) जैनसमाजमें खंडेलवाल, अग्रवाल जैसवाल, पद्मावतीपुरवाल, वघेरवाल परवार और गोलापूर्व श्रादि ८४ उप जातियोंका उल्लेख मिलता है। इन जातियोंमें कुछ जातियाँ ऐसी भी हैं जिनमें जैनधर्म और वैष्णवधर्मकी मान्यता है, ये जातियां किसी समय जैनधर्मसे ही विभूषित थी; किन्तु परिस्थितिवश वे आज हमसे दूर पड़ी हुई हैं। बुन्देलखण्ड में फूलमालाकी बोली बोलते समय एक जयमाला पढ़ी जाती है जिसे 'फूलमाल पच्चीसी' कहा जाता है, उसमें जैनियोंकी उन चौरासी उपजातियों के नामोंका उल्लेख किया गया है। इन जातियोंका क्या इतिवृत्त है और वे थ और कैसे उदय को प्राप्त हुई ? इसका कोई इतिहास नहीं मिलता। इन्ही ज. तियोंमें एक जाति 'हुम्बड' या 'हूमड' कहलाती है। इस जातिका उदय कब और कैसे हुआ और उसका 'हुड' या 'हमड' नाम लोकमें कैसे प्रथित 'हुधा इसका प्राचीनतम कोई प्रामाणिक उल्लेख मेरे देखने में नहीं आया। हो सकता है कि जिस तरह खण्डेलवाल, जैसवाल, श्रादि जातियोंका नामकरण ग्राम और नगरोंके आधार पर हुआ है । उसी तरह हुम्बड जातिका नामकरण भी किसी ग्राम या नगरक कारण हुआ हो । अतः सामग्री प्रभावसे उसके सम्बन्धमें विशेष विचार करना इस समय संभव नहीं है । इस जातिका निवासस्थान गुजरात और बम्बई प्रान्त रहा है किन्तु ईडरमें मुसलमानों के श्रा जाने और राज्यमत्ता राष्ट्रकूटों (राठों के पास चली जाने पर हम प्रतिष्ठित जन वहांसे वागड़ प्रान्त और राज थानमें भी बस गए थे। प्रतापगडमें इनकी संख्या अधिक है। यह जति दो विभागो में बटी हुई है दस्मा और बीमा । यह दस्मा बीसा भेद केवल हुम्बड जातिमें नहीं है किन्तु श्रग्रवालोंमें भी उसका प्रचार है । इम जाति इन दोनों नाम वाले विभागोका कब प्रचलन हुआ. यह विचारणीय है। इस जातिमें अनेक प्रतिष्ठित और धर्मनिष्ठ व्यक्ति हुए हैं और उन्होंने राजनीतिमें भाग लेकर अनेक राज्याश्रयों को प्राप्त कर महामात्य और कोपाध्यक्ष शादिकं उच्चतम पड़ोंको पाकर जनताकी सेवा की हैx | यह धन-जनसे जैसे सम्पन्न x ईडरके राठौर राजा भानुभूपांत ( रावभाण जी) जो रावपु'जोजीके प्रथमपुत्र और राव नारायणदासके भाई थे । रहे हैं वैसे ही वे उदार भी रहे हैं। इनके द्वारा प्रतिष्ठित एवं सम्पन्न धार्मिक कार्यो को देखकर इनकी महत्ताके और उनके बाद राज्य गद्दी पर श्रासीन हुए थे। इनके दो पुत्र हुए थे सूरजमल और भीमसिंह । इन्होंने सम्वत् १५०२ से १५५२ तक राज्य किया है। इनके राज्यसमय में हुबंडवंशी भोजराज उनके महामात्य थे, उनकी पत्नीका नाम विनयदेवी था, उससे चार पुत्र उत्पन्न हुए थे, कर्मसिंह, कुलभूपण, श्रीघोपर और गङ्ग । इनकी एक बहिन भी थी, जो सीता के समान शीलवती थी। उसने ब्रह्म श्रुतसागरके साथ गजपंथ और तुरंगीगिरकी यात्रा की थी । जैसा कि पल्ल 'विधान कथाके निम्न पद्योंसे स्पस्ट है:--- श्री भानुभूपतिभुजाऽसि जलप्रवाह निर्मग्नशत्रु-कुलजात ततः प्रभावः । सद्वृद्धहुम्बडकुले वृहतील दुर्गे श्री भोजराज इति मंत्रिवरो वभूव ॥ ४४ ॥ भार्याऽस्य सा विनयदेव्यभिवा सुधोपसोद्गार वाककमलकांतमुखी सखीव । लक्ष्म्याः प्रभोजिनवरस्य पदाब्जभृंगी, साध्वीपतित्रतगुणा मणिवन्महार्घ्या ||४५|| सासूत भूरिगुणरत्नविभूषितांगं श्री कर्मसिंहमित पुत्रमनू करत्नम् । कालं च शत्रु-कुल- कालमनूनपुण्यं श्री घोषरं घनतरार्घागरींद्रवज्रम् ॥ ४६ ॥ गंगाजल प्रविमलोचचमनोनिकेतं तुय च वर्यंतर मंगजमत्र गंगम् । जातापुरस्तदनु पुतलिकास्वमैषां वक्त्र सज्जनवरस्य सरस्वतीव ।। ४७ ।। सम्यक्त्ववदाकलिता किल रेवतीव सीतेव शीलसलिलांक्षितभूरिभूमिः । राजीमतीव सुभगा गुण रत्नराशिलासरस्वति इवांचति पचली ॥ ४८ ॥ यात्रां चकार गजपन्थ गिरौ ससंघाहो तत्तपो विदधती सुहाना सा । सच्छान्तिकं गणसमचं नमर्हदीश नित्यार्चनं सकल संघ मनु त्तदानम् ॥ ४६ ॥ ( देखो जैनमंथप्रशस्ति संग्रह पृ० २१६ ) Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४] अनेकान्त [वर्ष १३ - सम्बन्धमें कोई सन्देह नहीं रहता। इनके द्वारा निर्मित भट्टारक सकलचन्द्रकं द्वारा दीक्षित थी, उसने संवत् १६६८ विशाल मन्दिर-मूर्तियाँ और शास्त्रभण्डार इनकी धर्म- में सागपत्तन (सागवाडा) में उन सकलचन्द्रक उपदेशसे प्रियताके ज्वलन्त उदाहरण हैं। बागड़ प्रान्तमें तीन म. सकलकोनिक वर्धमानपुराणकी प्रति लिखवा कर उन्हीं जातियोंके अस्तित्वका पता चलता है, नरसिंहपुरा, नागदा सकलचन्द्रको भेंट की थी। और हुम्बड। हुम्बड़ोंमें काप्ठासंघी और मुलसघी पाये जाते हम वंश द्वारा निर्मित मन्दिरों में सबसे प्राचीन मन्दिर हैं । परन्तु मूलसंघियों की संख्या कम पाई जाती है । नागदा झालावाडस्टेटमें निर्मित झालरापाटनका प्रसिद्ध वह शान्ति जिस नागदह भी कहा जाता है और जो 'नन्दियड' का नाथका मन्दिर है जिसे हुमडवंशी शाहपीपान बनवाया था अपभ्रंश है। हमडों में शाग्वा और गच्छ भी पाये जाते हैं। और जिसकी प्रतिष्ठा विक्रम सम्बत् ११०३में भावदेवसूरिके इनमें लघुशाखा, बृहन्शाखा और वर्षावतशाखा आदिक द्वारा सम्पन्न हुई थी। यह मन्दिर बहुत विशाल है और नौ उल्लेख भी मिलते हैं । परन्तु गच्छ मबका प्रायः 'परस्वति' मी वर्षका समय व्यतीत हो जाने पर भी दर्शकोंक हृदयमें कहा जाता है। इनमें १८ गोत्र प्रर्चालन है। परन्तु उनमें धर्म संवनकी भावनाको उल्लासित कर रहा है । इस मन्दिरमंत्रेश्वर, कमलेश्वर, बुद्ध श्वर और काकडेश्वर आदि गोत्र में जो मूलनायककी मूर्ति है वह बड़ी ही चित्ताकर्षक है। वाले अधिक संख्यामें पाए जाने हैं। कारोबारक अनुसार कहा जाता है कि साह पीपाने इस मन्दिरके निर्माण करनमें इन्हें कोटड़िया, शाह और गांधी आदि नामोंसे भी पुकारा विपुल द्रव्य म्वर्च किया था। और उसकी प्रतिष्ठाम तो उमस जाता है। दस्सा हमड़ोंका बीसा हुमड़ोंसे कोई सम्बन्ध भी अधिक व्यय हुआ था | शाहपीपा जितने वैभवशाली नहीं है। इनके १८ गोत्रोंक नाम इस प्रकार है थे उतने ही वे धर्मनिष्ठ और उदारमना भी थे। इनकी १. खेरजू, २. कमलेश्वर, ३. काकडेश्वर. ४. उत्तर- समाधि उसी मन्दिरके पापके अहातेमें बनी हुई है। श्वर, ५. मंत्रेश्वर, ६. भीमेश्वर, ७. भद्रेश्वर, 5. गंगेश्वर, इस मंदिरमें एकपुराना शास्त्रभण्डार है जिसमें । क १. विश्वेश्वर, १०. संखेश्वर, ११. प्राम्बेश्वर, १२. चाचन हजार हस्तलिम्वित ग्रन्थोंका अच्छा संग्रह पाया जाता है। श्वर, १३. सोमेश्वर, १४. राजियानो, १५. ललितश्वर, चूकि यह मन्दिर नौ सौ वर्ष जितना प्राचीन है अतः हुम्बद्ध १६. काशवेश्वर, १७. बुद्ध श्वर और १८. संघेश्वर । जातिका अस्तित्व भी नी मौ वर्ष से पूर्वका है कितन पूर्वका इन गायोंक अनावा एक 'वजीयान' गोत्रका उल्लेख यह अभी विचारणीय है। पर सम्भवतः उसकी मीमा १५० और भी पाया जाता है। इस गोत्रधारी बाई हीरोने, जो वर्ष तो और है ही। एमडवंश द्वारा प्रतिष्ठित मन्दिर और मूर्तियाँ बागड प्रान्त और गुजरातमें पाई जाती हैं । सुप्रसिद्ध * हुमड़ोंकी वर्षावन शाखाका उद्गम वर्षाशाहके नामसे हुआ जान पड़ता है। वर्षाशाह महारावल हरिसिंहक समय उनका सवत १६६८ वर्षे भाद्रपदमास शुक्लपक्ष द्वादस्यां रविवासरे मन्त्री था। उसने महारावतकी आज्ञानुसार एक हजार एमड श्रीमद्बागडमहादेश श्रीसागपत्तनं श्रीमूलसंधे प्राचार्य श्री कुटुम्बोंको मागबाडास जाकर कांठल में श्राबाद किया था यह कुन्दकुन्दाचार्यान्वये भहारक श्रीपद्मनन्दिदेवास्तत्प भट्टारक बात शिलालेखों, दान-पत्रों और पुस्तकोंसे ज्ञात होती है। श्रीपकलकीर्तिदेवास्तत्प? भट्टारकश्रीभुवनकीतिदेवास्तत्पट्टे वर्षाशाहने धर्मभावनाम प्रेरित होकर देवलियामें एक भट्टारक श्रीज्ञानभूषणदेवास्तत्पपर्ट मण्डलाचार्य श्रीज्ञानदिगम्बरमन्दिर बनवाना प्रारम्भ किया था जो उसकी कीर्तिदेवाम्तत्प? मण्डलाचार्य श्रीरत्नातिदवास्तत्पट्टे मृत्युक बाद पूर्ण हुआ और उसकी प्रतिष्ठाका कार्य उसके मण्डलाचार्य श्रीयश:कीर्तिदेवास्तत्पर्ट मण्डलाचार्य श्रीपुत्र वद्धमान और पौत्र दयालन सं० १७७४ माघ सुदी श्रीगुणचन्द्रदेवास्तस्प? मण्डलाचार्यजिनचन्द्रर्दवास्तत्प? १३ को सम्पन्न किया था । वद्ध मान और उसका छोटा भाई मण्डलाचार्य श्रीसकलचन्द्रदेवोपदेशात हुम्बडजातीय वजीयाण. उदयभान प्रतापसिंहक समय मन्त्री थे। बाद में उदयभान- गोत्रे पासडोतमाह जीवा भार्या जीवादे मुत शाह नाका भार्या ने मन्त्री पद छोड दिया था किन्तु वर्द्धमान महारावत वाई श्रीतइनायके तया इदं शास्त्रं (बद्ध मानपुराणं) पृथ्वीसिंहके समय तक प्रधान मन्त्री पद पर रहा था। स्वज्ञानावरणी कर्मक्षयाय सत्पात्राय श्रीसकलचन्द्राय तद्दी (देखो प्रतापगढका इतिहास पृ० ३८३) क्षिता बाई हीग लिग्वाप्य दत्तं । Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ५ ] केशरियाजी आदिनाथ मन्दिरका जीर्णोद्वार भी उग्रवंश प्रतिष्ठित जनों द्वारा हुआ है। यह यहांके लेखों परसे प्रकट है । हो सकता है कि सम्वत् ११०३स भी पुरातन मन्दिर हम वंशके द्वारा निर्मित रहे हों, पर इस समय इससे पुरातनमदिरा उल्लेख मेरी जानकारीमें नहीं है। क्योंकि उन मन्दिर निर्माता पीपा साहूका कुटुम्ब ११वीं शताब्दीका था । हुवड या हूमडवंश और उसके महत्वपूर्ण कार्य हमके द्वारा प्रतिष्ठित अनेक मन्दिर और मूति] मूर्तियों बागढ़ और गुजरातमें पाई जाती है। इस वंश ने वैभव ! वंशमें अनेक सम्पन्न पुरुष हुए हैं जिन्हा उपनेता धार्मिक कार्यो में लगाया है। मटशन कवल मन्दिर धार मूर्तियां हा निर्माण नहा कराया किन्तु अनेक ग्रन्थाका निर्माण और उनकी प्रतिया लिखा-लिखाकर मुनियों महारको और विद्वानो को भेंट दी हैं। जिन अनेक प्रशस्ति-उल्लम्ब श्राज भी पाये जाते है । इनके द्वारा लिखाये गये ग्रंथो में सबसे पुरातन प्रति 'धर्मशर्माभ्युदय' की संकाक द्वारा लिखित प्रति संघवीपाडावे श्वेताम्बरीय भंडारमें पाई जाती है। यद्यपि उसमें उसका लिपिकाल दिया हुआ नहीं है किन्तु उनमें कुन्दकुन्द के वंश में होने वाले मुनिरामचन्द्र उनके राज्य शुभकीर्ति चोर शुभकीर्तिके शिष्य विशालकीर्तिका और उनके शिष्य विजय सिंहका उल्लेख किया गया है। ये मुनिरामचन्द्र वे हा प्रतीन होते है जिनका उल्लेख 'वृक्षगिरी' के सम्वत् १२२२ ख किया गया है। इससे कीर्ति और विशाल कीर्तिका समय यदि ५० वर्ष मानलिया जाय तो भी विशालकीर्तिका अस्तित्व मं० १२७२ या १२८४ में पाया जाना असम्भव नहीं है। इससे उक्त प्रति सं० १२६४के लगभगकी लिखी हुई होना चाहिए | दूसरी प्रति सं० १२८ की लिखी हुई उम्र भण्डारमें मौजूद ही है। इस जानिमें अनेक विद्वान और महारक भी हो गए हैं। यह जाति काष्ठासंघ मूल संघ दोनोंकी अनुगामी रही है । सरस्वति गच्छ दोनोंमें पाया जाता है। विक्रम की १७वीं शताब्दी पूर्वका कोई ग्रन्थकार इनमें हुआ हो ऐसा मुझे शात नहीं हुआ हो, शादी दो तीन कां का संक्षिप्त परिचय यहा दिया जाता है। १ ब्रह्म रायमल हमडवंश भूषण थे। इनके पिताका X देखो, अनेकान्त वर्ष १२ किरण में प्रकाशित 'हमारी तीर्थयात्रा संस्मरण' नामका लेख पृ० १६२ [१२५ नाम 'मा' और माताका नाम चम्पा था । यह जिन चरणोंके उपासक थे। इन्होंने महासागर के तटभागमें समाश्रित 'ग्रीवापुर के चन्द्रप्रभजिनालय वर्षी कर्मसीके वचनोंसे भक्तामरस्त्रोत्र वृत्तिकी रचना वि० सं० १६६७ में आषाढ शुक्ला पंचमी दिन की थी । ब्रह्म रायमल मुनि अनन्तकीर्तिके शिष्य थे जो रत्न कीर्ति पट्टधर थे । भक्रामरस्तोत्रवृत्तिके अतिरिक इनकी निम्न रचानाएँ और उपलब्ध हैं। नेमिश्वराम ( सम्बत १६२२) हनुवन्तका (१६१६) प्ररित (१६२८) ), सुदर्शनराय (१६२०), श्रीपालराम (१६३०) और भविष् दत्तकथा ( १६३३ में बनाकर समाप्त किये है। ये सब रचना हिन्दी गुजराती भाषाको लिए हुए है २ - भट्टारकरतन चन्द्र हुंबडजातिकं महीपाल वैश्य और चम्पादेवी पुत्र थे। यह मूल निगमहारक पद्मनन्दीक अन्यमें होनेवाले सकलचन्द्र भट्टारकके शिव्य I इन्होंने सम्बत १६८३ में 'सुभीमपचरित' की रचना बुध तेजपालकी सहायता से की थी । ३- भट्टारक गुणचन्द्र मूलम'घ सरस्वती गच्छ बलाकारगयाचे महारक रनकीतिक प्रशिष्य और उन्होंक द्वारा दीक्षित यशः कीर्तिकं शिष्य थे। इन्होंने सागवाडा निवासी हमवंशी सेठ हरखचन्द दुर्गादासकी प्रेरणा श्रनन्तव उद्यापनार्थ सं० १६३३ में अनन्तजिन पूजा' की रचना की थी। इन सब जातिकी ममृदिका मि दिग्दर्शन हो जाता है । हूमडोंमें कुछ श्वेताम्बर सम्प्रदाय के भी अनुयायी रहे हैं। यहां उनके द्वारा प्रतिष्ठित कुछ मूर्तिलग्योंका उल्लेख किया जाना है । यद्यपि उनके द्वारा प्रतिष्टित मूर्तियोंकी संख्या सहस्रों है, फिर भी यहां पाठकोंकी जानकारीके लिए कुछ मूर्ति-लेग्बों तथा पुस्तक प्रशस्ति लेखोंकी दिया जाता है मूर्तिलेख 'संवत् १३०४ वर्ष चैत्र सुदी स्त्री सूरततीथवास्तव्य प्रसादी हुम्बडव्यानां श्राल्हाशाहका जूरा सेगल" कर्तव्या यह लेख धातुको पद्मावतीकी मूर्ति सूरतका है । 'सम्वत १३३० वर्षे माव सुदी १३ सोमे श्री काष्ठामधे श्री लाडवागड गणे श्रीमत् श्राचार्यतिहु (च) कीर्ति गुरूपदेशे हुम्बज्ञातीय व्या० बाइड भार्या लच्छी, सुत व्या। वोमा भार्या राजूदेवी श्रेयोधं सुत दिवा भार्या सम्भवदेवी नित्यं प्रणमति ॥ ' - जैनलेखमंग्रह ॥१३५॥ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ 7 'सं० १४७२ वर्षे फाल्गुनवादी २ शुके श्रीमुलगंधे बदज्ञातीय उत्तरेश्वर गोत्रे ४० असपाल भा० स्थायी सुत आज विजद, धजद भार्या मेपूकी जा भा० यानू श्री पारवनाथ विग्यं कारितं मयसे श्रीपद्ममंदि उपदेशेन । श्राजद अनेकान्त मनावर सं० १४७२ वर्षे फाल्गुन वदि १ शुक्रवासरे हुंबड ज्ञातीय श्रेष्ठी मलखमा भार्या सलखमादे सुत श्रे० उदयसी भार्या सागरादे पुत्र थापा भार्या साथी पूर्वज श्रेषोऽश्री शान्तिनाथत्रियं कारितं श्रीमूलसंधे मुनिपद्मनन्दि शिष्य नेमचन्द । 'सम्वत् १४८० वर्षे माघवदि ५ गुरौ श्रीमूलम घे नन्दि सरस्वति कुन्दकुन्दाचार्य सन्ताने भट्टारक श्री पद्मनन्दी उत्पई श्री. उपदेशात् शाति ० नाना भा० हारिल सु० तरमा भा० सुदव सु० पुराभात् अर्जुन भा० मही पद्मप्रभ प्रतिमा कारापिता । घे मुनि कान्तिमागर डायरीसे 'सम्वत् १४६० वैशाख सुदिशनी श्रीलय नंदि सबस्कारगो सरस्वतीमध्ये श्री कुन्दकुन्दाचार्यान्यये भट्टारक श्री पद्मनन्दिदेवास्तत्पट्टे भ० शुभचन्द्रस्तस्य भ्राता जगत्रय विख्यात मुनि श्री सकलकीर्ति उपदेशात जातीय डा० नरबद भार्या बालयोः दुप्राः डा० देवपाल अर्जुन भीमा कृपा तथा चपाका श्री आदिनाथ प्रतिमेयं कारिता' 'म १७२० मृस श्रीसीता शाह कर्णा भार्या भोजी सुता सोमा आश्री मोदी भार्या पायी आदिनाथं प्रणमति ० १ [सं०] १४६५ वर्षे देशासवदी मोमे सूरत श्री सूजसचे म० श्रीपद्मनन्दित भली म जातीय .....| स ं० १४६० वर्षे माघ वदि १२ गुरौ भ० श्रीसकलकीर्तिदेव हम दोषी शेषश्रेष्ठी अति 1 [ वर्ष १३ सं० १५२५ वर्षे फाल्गुण सुदि ७ शनौ श्रीमूलसंघे सरस्वती गच्छे बलाकारगये श्री कुन्दकुन्दाचार्यान्वये ४० श्रीपद्मनंदिदेवास्तत्य भ० श्रीपद्मनंदिदेवास्तत्पट्टे भ० श्री सकलकीर्तिदेवास्तत्पह म० श्री विमलेन्द्रकीर्तिगुरुपदेशात श्री शान्तिनाथ, हुंबढ ज्ञातीय साह वाटू भार्या ऊमल सुत सा०कान्हा भा० सुमति सुत लम्बराज भा० भजी, भ्रा० जैसङ्ग, भा० जसमादे भ्रा० गांगेज भा० पद्मा मुत श्रीराज ... नित्यं प्रणमति । - जैन लेख संग्रह, भा० १. पृ० १६३ झालरा पाटन सं० १४८७ श्राषाद वदि ६ श्री मृलसधे भट्टारक रुकलकीर्तिती गांधी गोविन्दकी माता श्रीमाला प्रतिष्ठित । यह लेख गिरनारकी वाटते हुए यूके दिगम्बर मंदिरकी मूर्तिपरसे नीट किया था । [सं०] १४६६ वर्षे वैशाख वदी १ गुरुवारे काष्टा गये हुंड शाख्यं सं० जगपाल भा० संति सुन नरपालेन श्रीपार्श्वनाथ विम्बं करापितं । मं० १४३२ वर्षे चैत्र वदी १ श्रीमूलस घे भ० श्रीपद्मनन्दि भ० श्रीसकलकीन्युपदेशात् हुंबडज्ञातीय श्रे० चांपा भार्या सारू सुन लग्बमसी भी० लगु श्रीशान्तिनाथं नित्यं प्रणमति । संवत् १२२७ वैशाल गुदी १२ म० देवेन्द्रकीर्ति स्वपट्टे भ० विद्यानन्द हम ज्ञातीय श्रेष्ठीचांपा......" | २०१२१३ वर्षे देशाख सुदी १० बुधे श्रीमूलस पे प्राचार्य श्रीविद्यानन्दी गुरुपदेशात् बदज्ञातीय दोशी दुगर भा० मोनी देवलदे सुत दोशी शंखा भार्या वासुदवी fao ० भा० भटक्का तेन श्री जिनबिम्बं कारिता । (यह लेख पंच परमेष्टीकी धातुप्रतिमाका है ) सम्वत १५४४ वर्षे वैशाख सुदी ३ सोमे श्री मूलस घे भ० श्री भुवनकीर्तिस्तत्पट्टे भ० श्री ज्ञानभूषण गुरुपदेशात् हुबह शाह रामा भार्या कमीत कर्णा भार्या साथीमुन मना एतं नित्यं प्रणमंति श्री महावीर जिनम् । सन् १९१८ वर्षे श्रीमूलस आचार्य श्री विद्यानंदी गुरोपदेशान् हुंबड वंशे दोशी साइया भार्या श्रहीवदे तयोः पुत्राः हुया विम्बं रत्नत्रयं सदा प्रथमंति - सूरत (यह रत्नत्रयका मन्त्र है ) संवत १४३३ वर्षे वैशाम्य वदो २ सोमे श्री सुल सरस्वतिगच्छे मुनि देवेन्द्रकीर्तितत्शिष्य श्री विद्यानन्दी देवगुरूपदेशात् श्री हुंबडवंश शाह खेता भार्या रूढ़ी तो पुत्र शाह राजा भाषां गौरी द्वितीय गयो त्योः सुत अामद श्रदावदां राजा भानी राणी श्रेया चतुर्विशंतिका करापिता ।' ( यह चौबोसी मूर्ति धातु की है। ) संवत् १६२१ वर्षे माधयदि २ सोमे श्री मूलचे श्री भट्टारक कीर्तिस्तत्पद्दे भट्टारक श्री वादिभूषण गुरूपदेशात् ईडर वास्तम्य मद दोशी सा भार्या लक्ष्मी सुना बाई मिला श्री नेमिनाथं प्रतिष्ठितं नियं प्रणमति । Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुंबड या हूमडवंश और उसके महत्वपूर्ण कार्य [ १२७ सं०१६६१ वर्षे वैशावयदि ५ बुधे शाके १५७१ भ. श्री २ सकलकीर्तिस्लप भ० पभनन्दी तप? भ. प्रवर्तमाने मूलसंघे सरस्वतिगच्छे बलात्कारगणे श्री कुन्दकुन्दा- सुरेन्द्रकीर्ति नत्प? भ. श्री क्षेमकीर्ति गुरुपदेशात् सरथवास चार्यान्वये भ० सकलकीर्तितन्पट्ट श्री भुवनकीर्ति तत्पभ०श्री हुंबडज्ञाती म दिगलदास म. माणक जी म. नेमिदास ज्ञानभूषण तत्पर्ट भ. विजयकीर्ति नप भ. श्री शुभचंद्रदेव स अनन्तदाम स मामृदाम सं. रतन जी एते श्री तत्प? सुमतिकोति भ७ श्री गुणकार्ति तत्प भ. श्रीभूषण शान्तिनाथं निन्यं प्रणमति । तत्प? भ० रामकीर्ति तत्पट्ट भ. पद्मनंदि गुरुउपदेशात् शाह (द.नों लेख तीर्थ यात्रामें क्सरियाजीके मन्दिरसे नोट श्री शाहजहाँ विजयराज्ये श्री गुर्जरदेश अहमदाबाद नगरे किए गए थे। इस जातिक और भी कितने ही लेख मेरे श्री हुंबड ज्ञातीय वृहच्छाखीय वाग्वरदेशान्तरीय नगर नौतन पाम हैं. पर उन्हें लग्ब वृद्धिक भयसे छोड़ा जाना है। सुसाटोद्धरणनाज्ञा मं० सोजा भा० सं० लक सुत ब्रह्मच बत पुस्तक-प्रशस्ति पालनेन पवित्रीकृत निजांगमप्तक्षेत्रारोपि स्वकीयविन मं० अथास्नि गुजरो देशो विख्यातो भुवनत्रये। लक्खण सं० भा० ललिताद तयोः मुत निजकुल कमल धर्मचक्रभृतां नीर्धनाढय मानवैरपि ॥१॥ दिवाशरनकमूर्यावतार बानगुणेन नृपति श्रेयांमसमः श्री विद्यापुरं पुर तत्र विद्याविभवसंभवम् । जिनबिंब प्रतिष्ठाता यात्रादिकरणोत्सुक चित्तमघपनि श्री पद्मःशर्करयाख्यानः कुल हुंबडमंज्ञक ॥ २ ॥ रन्नगये श्री भा० सं० घबीरूपादे द्वितीया भा० सं० मोहणदे तम्मिन वंश दादनामा प्रसिद्धी तृतीय भार्या नवरङ्गद द्विनीय सुत सी गमजी भा. म. भ्राता जातो निर्मलाख्यस्तदीयः । ममताद.............। सम्बत् १८६३ वर्षे माघ सुदि २ वार चन्द्रवासरे श्री सर्वज्ञेभ्यो यो ददौ सुप्रतिष्ठां मृलम'चे बलात्कारगणे सरस्वति गन् कुन्दकन्दाचार्यान्वये तंदातारं को भवेत्स्तोतुमीशः ॥ ३॥ भ. श्री पद्मननदिदवास्तपदे भ० श्रीबेन्द्रकीर्तिस्तन्प भ. दादस्य पत्नी भुवि मापलाच्या विद्यानन्दि तत्पट्ट भ० मल्लिभूपण तत्पट्ट भ. लक्ष्मीचन्द्र शीलाम्बुराशेः शुचिचन्द्र रेग्बा। ताप? भ. श्री वीरचन्द्र तापट्ट भ. श्री ज्ञानभूषण तत्प? तन्नंदनश्चाहनि देवि भता भ. प्रभाचन्द्र नन्पर्ट भ० वादिचन्द्र तत्पर्ट भ० महीचन्द्र देपाल नामा महिमेक धामा ॥४॥ तत्पर्ट भ• मेरुचन्द्र नन्पह भ० जिनचन्द्र नन्प? भ. विद्या ताभ्यां प्रमूतो नयनाभिरामो नन्दि तत्पर्ट भ. श्री विद्यानन्दि तत्पर्ट भ० श्री देवेन्द्र कार्ति झंझाकनामा तनयो विनीतः । तत्प भ. श्री विद्याभूषण उपदेशन संघवी धनजी तन्त्र श्री जैनधर्मेण पवित्रदेहो नन्ददाम त-पुत्र गुलाबचन्द्र नन्भार्या स्तुशलवउ प्रतिष्टतं ज्ञाति दानेन लक्ष्मी सफ्लां करोति ।। ५ हुबड विरयजुवर्राज भ. श्री धर्मचन्द्र प्रणमनि । हामू-जामनमजकऽस्य सुभगे भार्ये भवेना द्वये, ये दोनों लेख तीर्थ यात्रा के समय शत्रुजयके दिगम्बर मिथ्यवद्रमदाहपावकशिखे सद्धर्ममार्गे रते । मन्दिरकी मूर्तियों परसे नोट किए गये हैं। मागावतरक्षणेक निपुणे रत्नत्रयोद्भासक, १-सम्बत् १७६४ चैत्रयदि ५ वार चंद्र श्रीमत रुद्रस्येव नभीनदी-गिरिमुते लावण्य लीलामुते ।। ६ काप्टासंघे नन्दि तटगच्छे विद्यागणे भट्टारकश्री। श्री कुंदकुंदस्य बभूग वंशे श्रीरामचन्द्रः प्रथिनःप्रभावः । ___ २-रामसेनान्वये तदनुक्रमेण भट्टारक श्रीरजयकार्नि गिष्यम्नदीय शुभकीर्तिनामा तपोऽङ्गनावक्षसिहारभूतः तदनुक्रमेण भट्टारक सुमतिकीर्ति तत् । प्रधानत संप्रति तस्य पट्टविद्याप्रभावेण विशालकीर्ति : ३-अनुक्रमण हुँबड ज्ञातिय बुध (बुद्धश्वर) गोत्र शिप्यैरनकै रुपसेव्यमानःएकांतवादाद्रि विनाशवनम् । संघवी श्री ५ सायजी भार्या सिंदूरद धर्माप्टे श्री शान्तिनाथ जयति विजयमिहः श्री विशालस्य शिष्यो, विम्बं । ४-प्राचार्य श्री प्रतापकीर्ति स्वहस्तेन प्रतिष्ठितम्। जिनगुणमणिमाला यम्य कंटे सदैव । -संवत् १७४६ वर्षे फागुणसुदि ५ सोमे श्री मूल- अमित महिमगशे धर्मनाथस्य कण्ठे, सघे सरस्वतिगच्छे बलाकारगणे श्री कुन्दकुन्दाच यन्वये निजमकृत निमित्तं तेन तस्मै वितीर्णम ॥ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ अनेकान्त [ वर्ष १३ तैलाद्रक्ष जलाद्रक्ष रक्ष शिथिल बंधनात् । ३ सम्बत १६६१ वर्षे भादवा वदि ३ शुक्रे श्रीमूलया परह तगतां रक्ष एवं वदति पुस्तिका ।। १० सरस्वतीगच्छे बलात्कारगणे श्रीकुन्दकुन्दाचार्यान्वये भ. भग्न पृष्टि कटिग्रीवा एक दृष्टि रधोमुखम् । श्री मकलकीर्तिदेवास्तदन्वये भ० वादिभूषणदेवास्ताप भ. कप्टेन लिखितं शास्त्रं यत्नेन परिपालयेत ॥ ११ गमकीर्तिदेवास्तन्पट्ट भ. पननन्दितदाम्नाये श्री गुर्जरदेश यादृशं पुस्तके दृष्टं तादृशं लिखित मया । श्रीसूरत बन्दरे श्री वासुपूज्यचैत्यालये हुंबडज्ञातीय माह यदि शुद्धमशुद्ध वा ममदोषो न दीयते ॥ १२॥ श्री सन्तोषी भ्रातः माह जीवराज तयोः जननी आर्यिका वाई -पटन भण्डारस्थित धर्मशर्माभ्युदयलिखित प्रशस्ति करमा नया स्थविराचार्य श्री नरेन्द्रकीर्तिस्तरिछप्य ब्रह्म श्री २ मम्बत् १५६० स्वस्ति श्री मन्स्वसमयपरममयमकल लाड्यका तच्छिप्य अमीकामराज जयपुरणं लिखाप्य दत्तं । विद्याकाविनवादिवृन्दारिकवेदितः पदद्वन्द्व श्रीमत् कुन्दकुन्दा इन प्रशस्तियों के अतिरिक्र अन्य अनेक प्रशस्तियां हंबड चार्यवर्यान्वयं श्री मरस्वनिगच्छ बलात्कारगणे भट्टारक श्री ज्ञाति द्वारा प्रतिलिपि कगए गए ग्रंथोंकी मौजूद हैं जिन्हें ज्ञानभूषणदेवाः तच्छिष्याचार्यवयं श्रीनिर्गन्थविशालकीर्तिदवाः यहाँ लेख वृद्धिक भयस छोडा जाना है उन्हें फिर किसी तच्छिप्या लघुविशालकीर्तयः श्री मज्जिनधर्मध्यान धनधान्या- अवसर पर प्रकट किया जाएगा। दिभिरनिसुन्दरे गन्धारमन्दिरे हुंबडवंशे श्रावक परभाइया श्वताम्बर सम्प्रदायमें भी हुंबड वंशकी अवस्थिति रहो कीका तस्य भार्या वाऊ तयोः पुत्री माणिकवाई तस्या पुत्री हैं। यद्यपि उनकी संख्या अल्प भले ही हो । पर उनके यहाँ चगाई तत्र प्रशस्त सम्यक्त्वधारी दयाकरी ममस्तजीवेषु मन्दिरमूर्तियोंके निर्माण कर्ता और ग्रंथ लिग्वानेक रूपमें सुकुलजाति मुन्दरी दानादिक म्ब मनानुकारिणी माणिक्य- प्रमिन्द्वि रही है। सम्बन १९६२ में हुम्बड वंशी ईलक बाई वरवृत्तिधारिणी तया सद्भावनापूर्व लेखयिन्वेदमुत्तमं श्रावकने सवृत्तिकावश्यकसूत्रको लिखवाया था। और जिसे गोमटसार पंजिका पुस्तकं मुदादत्तं लघुविशालकीतिभ्यः महराजने लिखा था। यह ग्रन्थ पाटनके सङ्घची पाढा ज्ञानकर्मछित्तए, प्राप्तये मुक्रि सम्पतेः सुखम्बानः पुनः स्फुटमिति ॥ भंडारमें सुरक्षित है। पण्डित और पण्डित-पुत्रोंका कर्तव्य (श्री क्षुल्लक सिद्धिसागर) जैन पण्डितोंके पाम जैन भण्डार या अन्यत्रसे शिन कोई ग्रन्थ उनके पास हो तो वे उसकी सूचना प्राप्त जैन शास्त्र (हस्त लिखित) भी रहते हैं । पिता मरम्वनी भवन या अन्य किमी संस्थाको भेजदें कि पण्डित होते हैं तो पुत्र पण्डित नहीं भी होते हैं । जो अमुक-अमुक ग्रन्थ हमारे पास हैं । अप्रकाशित माहित्य अप्रकाशित अमूल्य प्रन्थ घरमें रहते हैं प्रायः असाव- नष्ट न हो इसके लिये सुव्यवस्था शीघ्र करें । बहुत , धानी होने पर नष्ट हो जाते हैं । अच्छा तो यह है सा साहित्य अप्रकाशित और जीर्ण होता जा रहा है। कि वे उन अप्रकाशित ग्रन्थोंको जैन सरस्वती भण्डार- मूल ग्रन्थोंके गुच्छक यदि प्रकाशित हो जावें तो में या जैन मन्दिर में विराजमान करदें। जिससे कि वे थाड़े खर्च में अनेक ग्रन्थोंका संरक्षण हो सकेगा और सुरक्षित रह सकें । पिता जिमकी अमूल्य समझ अपूर्व सामग्री भी अध्ययनको प्राप्त होगी। इस सग्रह करता है पुत्र उसके महत्वको न समझ कर मोह- योजनाको सफल बनाने के लिये पण्डित गण और के कारण उसे नष्ट होने देता है या प्रकाशमे नहीं धनिक वर्ग समर्थ है । विलम्ब करने पर अनेक ग्रन्थ आने देता है या उसका सद् उपयोग नहीं करता है नष्ट हो जावेंगे फिर उन पंक्तियोंको निर्माण न कर या उमे रहीमें या अन्यका बेंच देता है तो यह श्रुतके सकेंगे । मंदिर या मूर्तिके नष्ट हो जाने पर उसका प्रति अन्याय है। अल्प-लाभके लोभमें पड़ कर ग्रन्थ- निर्माण हो सकता है किन्तु जो आर्ष वाक्य नष्ट हो को नष्ट होने देना उचित नहीं है। पण्डितोंको चाहिये जाते हैं उनका बनाना आप के बिना संभव कैसे हो कि वे अपने दिवंगत होनेसे पहिले उनकी व्यवस्था सकता है। दुर्लभ बाह्य वस्तु आर्ष है उसकी पाहले करदें या मन्दिर में विराजमान कर दें। यदि अप्रका- रक्षा करें पुनः शेष की। Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असंज्ञी जीवोंकी परम्परा (डा. हीरालाल जैन एम० ए०, नागपुर) जैनसिदान्तानुसार जीवोका विभाजन संझी और इस प्रकार हम देखते हैं कि मति और श्रुत ये दोनों असंही इन दो विभागोंमें भी किया गया है जैसा कि निम्न ज्ञान सम्यक्त्वके अभाव महित, असंज्ञी जीवोंमें व उनकी प्रामाजिक उल्लेखोंसे स्पष्ट है निम्नतम श्रेणिके निगोदिया जीवोंमें भी स्वीकार किये गये १ सरिणयाणुवादेण अस्थि सरणी असएगी। हैं। यह बात गाम्मठसार जीवकाण्डमें इस प्रकार स्पष्ट कर (षट्खडागम १, १, १७२) दी गई है१ समनस्काऽमनस्काः । (तत्त्वार्थ सूत्र १,११) अब हमें इस बातकी खोज करना है कि इन जीव सुहुमणिगोदअपज्जत्तयस्थ जादस्स पढममयम्हि जातियोंमें किस प्रकारके ज्ञानका होना संभव है। इस संबधमें फासदियमदिपुव्वं सुदणाणं लाद्धअक्खरयं षट्खण्डागम सत्प्ररूपणाके निम्नलिखित सूत्र ध्यान देने ॥गो. जी०३२१ ॥ योग्य है यहां हमारे मन्मुख यह एक प्रश्न उपस्थित होता है कि मदि अण्णाणी सुद-अएगाणी एईदियप्पदि जाव असंज्ञी जीवों में मनके विना मति और श्रुतज्ञान कैसे सम्भव सासणसम्माइट्टि ति ॥ ११६॥ हैं ? इन दोनों ज्ञानोंका जो स्वरूप बतलाया गया है और विभंगणाणं सण्णिमिच्छाइट्ठीणं वा सासणस तत्सम्बन्धी जो उल्लेख शास्त्रोंमें पाये जाते हैं उनसे निःसंदेह म्माइट्ठीण वा ॥११७ ॥ उन ज्ञानांकी प्राप्तिमें मनकी सहायता अनिवार्य सिद्ध होती है। आभिणिवाहियणाणं सुदणाणं अोहिणाणमसं जैसे-मतिज्ञानके चार अंग हैं। प्रथमतः किसी एक इंद्रियके अपने जदसम्साइद्विप्पहडि जाव खीणकसाय - वीदराग विषयभूत पदार्थक सम्पर्कमें पाने पर वस्तुकी सामान्य सत्ताका छदुमत्था ति ॥ १२०॥ ग्रहण होता है। यह मतिज्ञानका प्रथम अंग है जिसे अवग्रह मणपज्जवणाणी पमत्तसंजदप्पहडि जाव खीण- कहत है । तत्पश्चात् प्रस्तुत पदार्थक विषय में जाननेकीला कसाय-वीदराग-दुमस्था त्ति ।। १२१॥ होती है जिसे ईहा कहते हैं। यह ईहा मानसिक क्रिया ही केवलणाणी तिस हाणेसु सजोगिकेवली अजोगि- हा सकती है। इसके पश्चात् पदार्थका निश्चय होता है जो केवली सिद्धा चेदि । १२२॥ अवाय कहलाता है और जो पुनः मन द्वारा ही हो सकता ___संक्षेपतः इन सूत्रोंमें व्यवस्थित रूपसे यह बतलाया है, क्योंकि, इसमें पदार्थके गुण-धर्मोका ग्रहण व निषेध किया गया है कि जैनमिद्धान्तमें जो पाठ प्रकारके ज्ञान माने गये जाता है। अन्ततः पदार्थको कालान्तरमें स्मृतिकी अवस्था हैं उनमेंसे प्रथम दो अर्थात् मति अज्ञान और श्रुत अज्ञान पाती है जिसे धारणा कहते हैं। इसीके द्वारा जीवमें अनुकूल एकेन्द्रिय जीवोंसे लेकर पंचन्द्रिय तकके असंही जीवोंमें होते . या प्रतिकूल प्रतिक्रिया होती है जिसे उसकी हिताहित प्रवृत्ति हैं, और शेष सब ज्ञान केवल संजी जीवों में ही सम्भव हैं। कहत । यहां यह बात ध्यानमें रखने योग्य है कि मति अज्ञान और मतिः स्मृतिः संज्ञा चिन्ताभिनिबोध इत्यनर्थान्तरम। श्रुत अज्ञानसे तात्पर्य मति और श्रुत ज्ञानके प्रभावसे नहीं, तदिन्द्रियानिन्दियनिमित्तम् । अवाहेहावायधारणाः। किन्तु उनके सद्भावसे ही है, कंवल उनमें सम्यक्त्वका (तत्त्वार्थसूत्र १-१३-१५) प्रभाव पाया जाता है। इसका स्पष्टीकरण षट्खंडागमके विषय-विषयिसन्निपाते सति दर्शनं भवति । तदनटीकाकारके शब्दोंमें इस प्रकार है न्तरमथस्य ग्रहणमवग्रहः । यथा चक्षुषा शुक्लं रूपमिति "भूतार्थप्रकाशकं ज्ञानम् । मिथ्यादृष्टीनां कथं । ग्रहणमवग्रहः । अवग्रहगृहीतेऽर्थे तद्विशेषाकांक्षणमीहा भूतार्थप्रकाशकमिति चेन्न, सम्यङ्-मिथ्यादृष्टीनां प्रकाशम्य समानतोपलम्भात् । कथं पुनस्तेऽज्ञानिन ® अखिल भारतीय प्राच्य सम्मेलनके १६वें अधिवेशनके इति चेन्न, मिथ्यात्वोदयात्पतिभासितेऽपि वस्तुनि समय लखनउमें प्राकृत और जैनधर्म विभागमें पढ़ा संशय-विपर्ययानध्यवसात्यानिवृत्तितस्तेषामज्ञानितोक्तः गया निबन्ध | मूल निबन्ध अंग्रेजीमें है और अभी (भा०१पृ०१४२) मूल निवन्ध जनधर्म विभाजनके प्रकाशित Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० अनेकान्त । वर्ष १३ यथा शुक्लं रूपं किं बलाका पताक वेति । विशेपनि- कथमेकेन्द्रियाणां श्रुतज्ञानमिति चेत् कथं चन भवति ? आनाद्याथात्म्यावगमनमवायः । उत्पतन-निपतन-पक्ष श्रोत्राभावान शब्दावगतिस्तदुभावानशब्दार्थावगय विक्षेपदि.भर्वलाकैवेयं न पतकेति । अवेतस्य काला- इति ? नष दोपः, यतीनायमेकान्तोऽस्ति शब्दार्थावबोध न्तरे अविस्मरणं धारणा । यथा सैवेयं बलाका पूर्वाह एवं श्रुतमिति । अपि तु अशब्दरूपादपि लिंगाल्लिगियामहमद्राक्षमिति । एषामवग्रहादीनामुपन्यासक्रम-उत्प- ज्ञानमपि श्रुतमिति । अमनमां तदपि कथमिति चेन, त्तिकमकृतः। (सर्वार्थसिद्धि टीका) मनोऽन्तरेण वनस्पतिषु हिताहितप्रवृत्ति-निवृत्त्युपलम्भ तोऽनेकान्तात ॥ जब हम श्रुतज्ञान पर आते हैं तब वह तो पूर्णतः मनः (षट्वंडागम टीका १,१,११६ पृ० १, ३६१) साध्य हो माना गया है, क्योंकि वह, द्वारा ग्रहण किये गये यहां स्वामी वीरसेनने दो प्रश्न उठाकर उनका उत्तर पदार्थसे प्रारम्भ होकर लिग-लिंगिव्यवहारसे अनुमान द्वारा देनेका प्रयत्न किया है। एक तो उन्होंने यह पूछा है कि एक अन्य ही पदार्थका बोध कराता है। इस सम्बन्धमें निम्न जब एकन्द्रिय जीवांके श्रोत्रेन्द्रिय ही नहीं होती तब उनके उल्लेख ध्यान देने योग्य है श्रुतज्ञान कैसे हो सकता है। इसका उन्होंने यह समुचित श्रुतं मतिपूर्व द्वधनेक-द्वादशभेदम । उत्तर दिया कि श्रुतज्ञान श्रोग्नेन्द्रियसे ग्रहण किए गए पदार्थ श्रुतमनिन्द्रियग्य। (तत्वार्थसत्र १-२०,२.२१) द्वारा ही उत्पन्न हो, ऐसा कोई नियम नहीं है। किंतु किसी श्रतज्ञानविषयार्थः श्रतम् । स विषयोनिन्द्रियस्य। भी इन्द्रिय द्वाग ग्रहण किए गए पदाथके श्राधयसे पदार्थापरिप्राप्त-श्रु तज्ञानावरणक्षयोपशमस्यात्मनः श्रुतस्यार्थे- न्तरके बोधरूप श्रुतज्ञान उत्पन्न हो सकता है। दूसरा प्रश्न निन्द्रयावलम्बनज्ञानप्रवृत्तेः। अथवा श्रुतज्ञानं श्रुतं प्रकृत विषयके लिए बहुत महत्त्व पूर्ण है। वह प्रश्न हैतदनिन्द्रियस्यार्थःप्रयोजनमिति यावत ! स्वातन्त्र्यसाध्यमिदं “लिङ्गसे लिङ्गीके बोधरूप श्रुतज्ञान मनरहित जीवोंके किस प्रयाजनमनिन्द्रियस्य । प्रकार होगा?" इस प्रश्नका उत्तर स्वामी वीरतनने केवल (सर्वार्थसिद्धि टीका) यह दिया हैश्रुतं श्रोत्रेन्द्रियस्य विषय इति चेन्न, श्रोत्रेन्द्रियग्रहणे "नहीं, क्योंकि वनस्पतियों में भी मनके बिना हितकी श्रुतस्य मतिज्ञानव्यपदेशात् ........ 'यदा हि श्रोत्रेण ओर प्रवृत्ति और श्रहितकी ओरस निवृत्ति देखी जाती है, ग्रह्यते तदा तन्मतिज्ञानमवग्रहादि व्याख्यातम , तत अतएव यह एकान्तनियम नहीं है कि मनसे ही श्रुतज्ञानकी उत्तरकालं यत्तत्पूर्वकं जीवादिपदार्थस्वरूपं तक तमनि- उत्पत्ति हो ।' यही प्रश्न धनलाकारके मनमें संज्ञी और न्द्रियस्येत्यवसेयम् । (तत्त्वार्थराजवार्तिक) असंज्ञो जीवाद स्वरूपका विचार करते समय उत्पक्ष हुमा सुदणाणं णाम मदिपुव्वं मदिणाणपडिगहियमत्थं था। सूत्र १,१,३५की टीका करते हुए वे कहते हैंमात्तणण्णाम्ह वावदं सुदणाणावरणीयवियोवसम- अथ स्यादर्थालोक-मनस्कार-चतुर्व्यः सम्प्रवतमाने जणिद। (धवला भा०१पृ. १३) रूपज्ञानं समनस्केपूपलभ्यते, तस्य कथममनस्केष्वाचि रूपज्ञान समनरत इस प्रकार वस्तुस्थितिपरसे एक असमंजसता उत्पन र्भाव हात ? नेप दोषः, भिन्नजातित्वात्।। होती है। जैनागममें मति और श्रुत-ज्ञानके जो लक्षण बत (पद् खं० १पृ० २६१) लाये गए हैं उनसे उनके उत्पन्न होने में मनको सहायता अर्थात् 'पदार्थ, प्रकाश मन और चतु इस सबके अनिवार्य पाई जाती है। अतः जिनके मन नहीं माना गया संयोगसे उत्पन्न रूपका ज्ञान मन सहित प्राणियोंमें तो पाया ऐसे असंज्ञी जीवोंमें उनका सद्भाव नहीं माना जाना चाहिए। ही जाता है, किंतु मन रहित जोवोंमें वह किस प्रकार सम्भव किन्तु यदि असशी जीवोंमें मति और श्रुत ज्ञानका सदभाव हो सकता है ? इसका वे उत्तर देते हैं कि 'इसमें कोई दोष स्वीकार किया जाता है तो फिर यह कहना अयुक्तसंगत होगा नहीं है। क्योंकि असंज्ञी जीवों द्वारा ग्रहण किया गया कि उनके मन नहीं है। षट्खंडागमकी धवला टोकाके विद्वान् रूपका ज्ञान एक भित्र जातिका होता है। लेखकको इस:असामन्जस्यका प्रतिभास था तभी तो उन्होंने यहाँ धवलाकारने असंज्ञी जीवोंके मति और श्रुतज्ञानका श्रुतज्ञानके स्वरूपको समझाते हुए यह प्रश्नोत्तर किया है कि- सदभाव स्वीकार करनेमें उत्पन्न होनेवाली कठिनाईका अनुभव Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ५] असंझी जीवोंकी परम्परा [१३१ करके उसका जो समाधान किया वह विचार करने योग्य है। किया है। जैसेभूतज्ञानके लिए उन्होंने मनके सद्भावको अनिवार्य स्वीकार तदिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तम । (तसू.१-१४) नहीं किया । किन्तु यह बात सिद्ध नहीं होती, क्योंकि, श्रुत- न चतुरनिन्द्रियाभ्याम् । (त० सू. १-१४) ज्ञान तो मानसिक व्यापार माना जाता है, जैसा कि ऊपर श्रुतमनिन्द्रयस्य । (त० सू०२-२१) बतलाया जा जुका है । शास्त्रमें श्रुतज्ञानको मनका ही विषय तत्त्वार्थसूत्र १, २४में प्रयुक्त हुए अनिद्रिय शब्दका अर्थ कहा है-'श्रुतमनिन्द्रियस्य' (तत्वार्थसूत्र २-११)। हम समझाते हुए सर्वार्थसिद्धि टीकाके कर्ता पूज्यपाद देवनंदि उपर यह भी देख चुके हैं कि मतिज्ञानकी विविध दशायें प्राचार्य लिखते हैंमनोव्यापारके बिना मिट्ट नहीं हो सकतीं। धवलाकारका यह अनिन्द्रियं मनः अन्तःकरणमित्यनर्थान्तरम। समाधान कि असंज्ञी जीवोंका मतिज्ञान एक भिन्न जातिका कथं पुनरिन्द्रियप्रतिषेधेन इन्द्र लिङ्ग एवं मनसि होता है, उन कठिनाईको हल नहीं करता क्योंकि यदि यह अनिन्द्रियशब्दस्य प्रवृत्तिः? ईषदर्थस्य नत्रः प्रयोभिन्न जाति मतिज्ञानके शास्त्रोक प्रकारों में ही समाविष्ट होती गाद ईषदिन्द्रयमनिद्रियमिति । यथाअनुदरा कन्याइति । हैं, तब तो उसके लिये मनकी सहायता भी आवश्यक कथमीपदर्थः? इमानीन्द्रियाणि प्रतिनियत-देशविषसिद्ध है। और यदि वह उन भेदोंमें समाविष्ट नहीं होती याणि कालान्तरावस्थायीनि च, न तथा मनः।। तो या तो उसके अन्तर्भाव योग्य मतिज्ञानका क्षत्र विस्तृत अर्थात् अनिद्रिय, मन और अन्तःकरण ये पर्यायवाची किया जाना चाहिये। अथवा एक और पृथक ज्ञानका सद्भाव शट । यदि हा जाय किटके चित - स्वीकार करके उसका स्वरूप भी निर्धारित होना चाहिए। प्रतिषेधवाची अनिद्रिय शब्दका प्रयोग क्यों किया गया है? जब तक ऐसा नहीं किया जाता तब तक उन कठिनाईका तो इसका उत्तर समाधान करनेके लिए किए गए पूर्वोक्न प्रयत्न असफल सिद्ध अर्थात् अल्पके अर्थ में किया गया है-'ईषदिद्रियमानिद्रियहोते हैं। मिति । जैसे कन्या 'अनुदरा' कहनेका तात्पर्य यह नहीं है कि अब हमारे सन्मुख प्रश्न यह है कि उन शास्त्रीय उसके उदर ही न हो, किंतु उसका अर्थ अल्पोदरा समझना . अमामाजम्यको किस प्रकार सुलझाया जाय ? जो भी समा चाहिये मनको भी ईपदिन्द्रिय कहनेका अभिप्राय यह है कि धान किया जाय उसमें दो बातोंका सामञ्जस्य होना श्राव वह इंद्रिय होते हुए भी जिस प्रकार अन्य इंद्रियां प्रतिनियत श्यक है। एक नो अमंज्ञी जीवोंकी सत्ता और दूसरी देशविषयात्मक हैं तथा काला रम स्थित रहती हैं वैसा मन उनमें मति और ध्रुतज्ञानकी योग्यता । मेरी दृष्टिमें नहीं है। इसका केवल एक ही हल दिखाई देता है। वह (२) तत्वार्थ सूत्र ८, ६ में अकपाय शब्दका प्रयोग यह कि श्रापंजी व श्रमनस्कका अर्थ · मनरहित' न 'करके अल्प मनसहित' किया जाय । इस अर्थक लिए हम 'अ' उपसर्गको निषेधवाची न मानकर अल्पतावाची ग्रहण 'दर्शन-चारित्रमोहनीयाकपाय - कषाय-वेदनीय कर सकते हैं । 'अ' उपसर्ग 'न' का अवशिष्ट रूप है, और ........."आदि। 'न' का अल्पतावाची अर्थ संस्कृत कोषकारों द्वारा स्पष्टतः इस सूत्रमें 'पाय'का अर्थ समझाते हुए पूज्यपादचार्य कहते हैं--चारित्रमोहनीयं द्विधा अकषाय-कपाय भेदात् । स्वीकार किया गया है, जैसा कि निम्न श्लोकसं सिद्ध है ईषदर्थे नमः प्रयोगाद् ईषत्कषायोऽकषाय: । तत्सादृश्यमभावश्च तदन्यत्वं तदल्पता। अप्राशस्यं विरोधश्च नबर्थाः पदप्रकीर्तिताः ॥ अर्थात् चारित्रमोहनीय कर्मक दो भेद हैं-- अपाय नाव 'अ' उपसर्गका यह अर्थ जैन शास्त्रकारोंको अप- और कषाय। यहां प्रकपायमें ना का प्रयोग 'पद' अल्पके रिचित नहीं, क्योंकि, उन्होंने उसका इसी अर्थमें अपने अनेक अर्थमें होनेसे उसका अभिप्राय है 'इपकपाय' या अल्प पारिभाषिक शब्दों में प्रयोग किया है। ऐसे प्रयोगके यहां कपाय । कुछ उदारण उपस्थित कर देना उचित होगा। (३) यही बात 'अप्रन्यान्यान' शब्दके सम्बन्ध में है। (७) मनके लिए अनेक वार अनिन्द्रिय शब्दका उपयोग अप्रत्याख्यानावरण कषायका वयोपशम पांचवें गुणस्थानमें Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२] अनेकान्त [वर्ष १३ होकर जीवमें जो अप्रत्याख्यान रूप परिणाम उत्पन्न होते हैं शको ग्रहण कर सके वह सही। तथा इसके समर्थनमें उन्होंने उनमें प्रत्याखानका प्रभाव नहीं, किंतु उसकी संयमासंयम एक पुरानी गाथा भी उपस्थित कर दी। रूप अल्पता पायी जाती है, जिसके कारण पाँचवाँ गुणस्थान इस व्याख्यानसे सुस्पष्ट है कि उक्त चार प्रकारको मानप्रत्याख्यानाभावरूप चौथे गुणस्थान तथा पूर्ण प्रत्याख्यानरूप सिक क्रियाके अतिरिक अन्य हीन प्रकारका मानसिक व्यापार छठे गुणस्थानसे पृथक माना गया है। असंज्ञी जीवोंमें भी होता है। • इस प्रकार एक भोर मतिज्ञान और श्र तज्ञानके स्वरूप इसी प्रकार तत्त्वार्थसूत्र २, २५ (संज्ञिनः समनस्कार) तथा दूसरी ओर असंज्ञो जीवोंके स्वभावपर विचार करनेसे पर श्रुतसागरकृत टीका ध्यान देने योग्य है। वहां कहा 'अमनस्क' व 'असंज्ञी' शब्दों में 'घ' का अर्थ 'ईषद' व गया है'मल्प्य' करना ही उचित दिखाई देता है जिससे इन संज्ञा- सज्ञिनां शिक्षालापग्रहणादि लक्षणा क्रिया भवति । घोंका तात्पर्य उन जीवोंसे हो सकता है जिनका मन अल्प असज्ञिनां शिक्षालापग्रहणादिकं न भवति । असंव अपूर्ण विकसित है, तथापि जिसके द्वारा उन्हें प्रथम दो झिनामपि अनादिकालविषयानुभवनाम्यास दाादाप्रकारका ज्ञान होना सम्भव है ? किन्तु इन जीवोंमें मनका हार-भय-मैथुन-परिग्रहलक्षणोपलक्षिताश्चतस्रः संज्ञाः संझी जीवोंके समान इतना विकास नहीं होता कि जिपके अभिलाषप्रवृत्यादिकश्च संगच्छत एव, किन्तु शिक्षालापद्वारा उन्हें शिक्षा, क्रिया, पालाप व उपदेशका ग्रहण हो ग्रहणादिकं न घटते। सके। इस विषयपर धवलाकारका निम्न-निम्न स्पष्टीकरण अर्थात संझी जीवों में शिक्षा, पालाप आदिके ग्रहण ध्यान देने योग्य है : रूप क्रिया होती है, असंज्ञी जीवोंमें वह क्रिया नहीं होती। सम्यगजानातीति सझं मनः, तदस्यास्तीति संज्ञी। तथापि अनादिकालसे जो उन्हें विषयोंका अनुभवन होता नैकेन्द्रियादिनातिप्रसंगः, तस्य मनसोऽभावात् । अथवा चला पाया है उसके अभ्यासकी दृढ़ताके कारण उनके भी श्राहार, भय, मैथुन व परिग्रह रूप चार संज्ञाए तथा अभिशिक्षाक्रियोपदेशालापग्राही संज्ञो । उक्त च लाष और प्रवृत्ति प्रादि होती हैं । किन्तु उनके शिक्षा व सिक्खा-किरियुबदेसालावगाही मणोवलंवेण । अलापका ग्रहण श्रादि क्रिया घटित नहीं होती। जो जीवो सो सरणी तब्विवरीदो असरणी दु॥ टीकाकारोंके इस प्रकार व्याख्यानोंसे सिद्ध होता है कि (षट्खं० १ पृ. १५२) निम्नतम श्रेणिके जीवोंमें भी मति व श्रत ज्ञानके लिए अनिवार्य यहाँ स्वामी वीरसेनने 'संज्ञा' का अर्थ किया है वह कुछ मानसिक व्यापार अवश्य होता है। तो भी उन्हें इन्द्रिय, जिसके द्वारा भलं प्रकार जानकारी हो सके, अर्थात असंही कहनेका अभिप्राय यही है कि उनका मानसिक मन और वह संज्ञा इन्द्रिय जिसके हो वह संज्ञी। किन्तु विकास इतना नहीं होता जितना शिक्षा, क्रिया, पालाप व इस व्यत्पत्तिसे एकेन्द्रिय आदि जीवोंमें भी सजित्वका प्रस ग उपदेशके ग्रहण करनेके लिये आवश्यक है। इस प्रकार उपस्थित होता हुआ देखकर उन्होंने कह दिया 'नहीं' ए- असंज्ञी जीवोंमें मनके सर्वथा अभावकी मान्यता घटित नहीं न्द्रिय जीव संज्ञी नहीं हो सकते, क्योंकि उनके मनका होती, और यह स्वीकार किये बिना गति नहीं है कि असंही प्रभाव होता है । इस परस्पर विरोधी व्याख्यानकी अयुक्ति- जीवों में भी मति और श्रुत-ज्ञानके योग्य व्यापार करने वाले संगतताको मिटानेके लिए उन्होंने संज्ञोकी दूसरी परिभाषा मनका सदभाव होता ही है। दी। वह यह कि जो जीव शिक्षा, क्रिया, पालाप और उपदे [शेष प्रगले पक में ] साहित्य परिचय और समालोचन १. समायिक पाठादिसंग्रह (विधिसहित)-संकल- रिया, श्री दि. जैन युवकसंघ, केकदी (अजमेर)। पृड संख्या यता और अनुवादक पं. दीपचन्द जी जैन पायख्या, सब मिला कर १३८ मूल्य दस आना। साहित्य-शास्त्री, केकड़ी। प्रकाशक कुवर मिश्रीलाल कटा- प्रस्तुत पुस्तकका विषय उसके नामसे ही स्पष्ट है Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ४] साहित्य परिचय और समालोचना [१३३ इसमें जैन परम्परा सम्मत सामायिकका स्वरूप, वह कब ज्ञान तथा आदिनाथके अन्तिम दो कल्याणकोंका सुन्दर और कैसे की जाती है, सामायिकके कितने दोष है उन्हें विवेचन दिया है। अन्यकी भाषा सरल और मुहावरेदार है। किस तरह टालना चाहिए आदिका संक्षिप्त विवेचन दिया अन्तमें भागवतमें उपलब्ध अषभ चरितको भी दे दिया गया हुआ है। अलोचना, वन्दना प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, कृति- है। जिससे पुस्तक उपयोगी हो गई है। यदि इस ग्रंथकी कर्म भादि क्रियाओंका स्वरूप निर्दिष्ट करते हुए उनके करने प्रस्तावना भी ऐतिहासिक दृष्टिसे लिखी जाती, तो पुस्तकमें का यथास्थान निर्देश किया गया है। कुछ स्तोत्र और भकि चार चांद लग जाते । अस्तु, इस उत्तम प्रयासके लिये लेखक पाठ आदिका हिन्दीमें अनुवाद भी दे दिया गया है। जिससे महानुभाव धन्यवादके पात्र हैं। ' पुस्तक उपयोगी बन पड़ी है। इसके संकलन और प्रकाशन- ३-बनारसी विलास-लेखक, कविवर बनारसीदास, का एक ही अभिप्राय ज्ञात होता है और वह यह कि गृहस्थ सम्पादक पं. भंवरलाल न्यायतीर्थ, और पं० कस्तूरचन्द्रजी जैनोंमें विस्मृत हुई सामायिककी वास्तविक विधिका प्रचार कासली वाध एम. ए. । प्रकाशक केशरवाल बख्शी मंत्री हो, वे उसकी महत्ता और आवश्यकताका अनुभव करे। नान स्मारक ग्रन्थमाला न्यू कालोनी, जयपुर । पृष्ठ संख्या क्योंकि सामायिक ही ऐसी वस्तु है जिसका समुचित आचरण सब मिलाकर ३१७, मूल्य सवा रुपमा। . करने पर प्रान्मा अपने स्वरूपको पिछाननेका उपक्रम करता इस ग्रन्थमें कविवर बनारसीदास द्वारा समय-समय पर हुआ अपनेको कर्म-कलंकसे बचानेका उपाय करता है, वैर, रची गई फुटकर कविताओंका एकत्र.सग्रह है। जिसे 'बनाविरोध दूर करने वाला तथा मैत्री और निर्भयताका मसूञ्चक रसी विलास' नामसे उल्लेखित किया जाता है। कविवर है, शम-सुखमें मग्न करने वाला इसके बिना अन्य साधन बनारसीदास उच्चकोटिके आध्यात्मिक कवि थे। उनमें नहीं हैं। कविताका प्रवाह स्वाभाविक था। यही कारण है कि उनकी जाप जपना, या माला फेरना सामायिक नहीं है। सामा-कविता उच्चकोटि की होते हुए भी सर्व साधारण लिये यिक करने वालोंको पार्त-रौद्ररूप कुध्यानोंके परित्यागपूर्वक प्रिय बनी हुई है। वे तुलसीदासके समकह कवि थे। इनकी मात्मामें समताभावोंके लाने और बाह्यअभ्यम्तर जल्पों द्वारा कविताओं में अध्यात्मवादकी पुटके साथ रहम्यवादका विचलित होने वाली मनः परिणतिको सुस्थित करनेका उपक्रम मौलिक रूप भी अन्तनिहित है। जिस पर प्रस्तावनामें करना है। इसीलिए सामायिक करनेवाले सद्गृहस्थको साम्य- विशेष प्रकाश डालने की आवश्यकता थी। भावमें निष्ठ रहनेकी ओर विशेष ध्यान दिया गया है। इस प्रारम्भमें ४६ पृष्ठोंकी प्रस्तावनामें कस्तूरचन्द्रजी ने उपयोगी पुस्तकका घरघरमें प्रचार होना चाहिए। इसके कविवर की कृतियोंका सामान्य परिचय कराते हुए उनका लिए संग्राहक महानुभाव धन्यवादाई है। संक्षिप्त जीवन-परिचय भी दे दिया है। इस संस्करण को २. भगवानऋषभदेव-लेखक पं. कैलाशचन्द्रजी यदि कोई विशेषता है तो वह यह है कि अन्तमें कठिन सिद्धान्तशास्त्री, प्राचार्य स्याद्वादमहाविद्यालय, बनारस, प्रका- शब्दोंका संक्षिप्त अर्थ भी परिशिष्टके रूपमें दे दिया है। शक भारतवर्षीय दि. जैन सङ्घ । पृष्ठ संख्या १४२ मूल्य किन्तु छपाई साधारण है। ऐसी महत्वपूर्ण कृतिमें न्यूजसजिल्द प्रतिका सवा रुपया। प्रन्ट जैसा घटिया कागज लगाया गया है, जो उस प्रन्थके इस पुस्तक के विद्वानलेखकसे जैन समाज भली भांति परिचित योग्य नहीं है । प्रस्तावनामें अन्य लेखकों की भांति स्वयंभूको है। प्रस्तुत पुस्तकका विषय उसके नामसे प्रकट है। इसमें प्रथम कवि लिखा गया है जबकि उनसे पूर्ववर्ती कवि 'चउजैनियोंके प्रथम तीर्थकर श्री श्रादि ब्रह्मा ऋषभदेवका जीवन- मुह' हुए हैं। जिनकी कृतियोंका उल्लेख स्वयंभूने स्वयं परिचय दिया हुआ है। जिसमें उनकी जीवन घटनागोंके किया है। प्रस्तु, ग्रन्थ उत्तम है, और इसके लिये सम्पादकसाथ उनके पुत्र भरतकी दिग्विजय, जीवन-घटनाओं, भरत प्रकाशक महानुभाव धन्यवादके पात्र है। बाहुबली युद्ध, बाहुबलीका बैराग्य, तपश्चर्या और केवल -परमानन्द जैन Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमान राजकुलदीपक जिनवाणीभक्त धर्मनिष्ठ श्रीधर्मसाम्राज्यजी मूडबिद्री । के करकमलों में अभिनन्दन-पत्र . श्रीमन्महोदय अन्तिम तीथङ्कर भगवान महावीरके विश्वहितङ्कर वाङ्मयको सुदीर्घ कालतक सुरक्षित रखने के लिये लोकहितकारी सद्भावनासे श्रीधरसेनाचार्यने परममेधावी श्रीपुष्पदन्त । तथा भूतवली प्राचार्यको सिद्धान्तग्रन्थ पढ़ाया और उन दोनों प्राचार्याने उस सिद्धान्तको । पट्खएडगमके रूपमें प्रथित किया तथा श्रीगुणधर आचार्यने श्री कषायपाहुड़की रचना की, उन्हीं! आगम ग्रंथों पर बीवीरसेनाचार्य ने क्रमश: धवला, जयधवला नामक विशाल टीकाएं लिखीं, और महाबन्धका, जिसे महायवल भी कहा जाता है, सत्कर्मनामक पंजिकाके साथ सुरक्षित रखा। तीनों आगमग्रन्थ महविद्री-स्थित गुरुगल सिद्धान्तवसदिमें लगभग एक हजार वर्षसे सुरक्षित रहे हैं उस सिद्धान्तभण्डारके भाप प्रमुख ट्रष्टी हैं. अतः इन सिद्धान्त ग्रन्थोंकी सुरक्षामें आपका प्रमुख हाथ रहा है इसके लिये आपको कोटिशः धन्यवाद है । जिनधर्मप्रभावक ! श्री वीरसेवामन्दिरकी ओरसे उसके अध्यक्ष श्री बा० छोटेलालजी कलकचानिवासोकी प्रमुखतामें जब आपकी सेवामें दिल्ली से एक शिष्टमण्डल पहुँचा तब आपने बाबू छोटेलालजी की विशेष प्रेरणाको पाकर उक्त तीनों सिद्धान्तग्रंथोंका फोटो लेनेकी अनुमति प्रदान कर उक्त ग्रंथोंका मूलरूप दीर्घकालके लिए सुरक्षित बना दिया । और धवलग्रंथका आधुनिक । ढंगसे जीर्णोद्धार करानेकी कृपा की, यह आपकी जिनवाणी भक्तिका उच्च आदर्श है। राजकुल दीपक ! आप मचिद्रीक शासक राजकुलके वर्तमान उत्तराधिकारी है। जिस प्रकार आपके पूर्व वंशधर शासकोंने मूडबिद्रीके रत्नमय जिनविम्बों तथा सिद्धान्तग्रन्थों की सुरक्षा । । में उत्कट धर्मभावनासे प्रेरित हो योग दिया तदनुसार ही आप भी अपने जीवन में करते रहें। धर्मप्रिय घोष्ठिन! आपका वंश परम्परासे परम धार्मिक रहा है। आपका मातेश्वरी॥ श्रीमती चौट्ट ( पद्मावता देवी) प्रतिदिन सिद्धान्तग्रंथोंकी नियमसे पूजा करती हैं। आपकी । स्वर्गीया धर्मपत्नी श्रीमती लक्ष्मीमती भी ऐसी ही धर्मपरायणा थीं, उनकी सदिच्छानुसार मापने धवलग्रंथका जीर्णोद्धार कराया है, जो उनकी अतमक्तिका परिचायक है। इस प्रकार भापका समस्त परिवार धर्मप्रेमी एवं जिनवाणी भक्त है। आज आपका अभिनन्दन करते हुए हमें अपार आनन्द हो रहा है। श्राप दीर्घ समय तक | प्रसन्न जीवनके साथ धर्म-सेवा करते रहें, ऐसी हमारी भावना है। । मंगसिर वदि , ) आपका गुणानुरागी वीरसेवा-मन्दिर वीर नि:सं० २४८० दि.जैन लालमन्दिर, दिल्ली २१-१-१४ Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त १ प्रथम चित्रमें-लालमन्दिरजी के हालमें चाँदीकी सुन्दर बंदीमें सिंहासन पर जीर्णोधारित धवलग्रन्थराज की प्रतिक कुछ पत्र रखे हुए हैं। और वदी मामने शा-कशमें शेष ग्रन्थ चाँदीकी चौकियों पर विजन हैं। और उनका मोन्माह पूजन हो रहा है 10 SEdi: बैटे हुए बाएं से दायें पं० दरबारीलाल, पं० जुगलकिशोर मुख्तार, धर्मसाम्राज्य (अवनग्रन्थको लिए हुए) वैद्य महावीर प्रसाद, ला० जुगलकिशोर कागजी । म्खडे हए-६० जयकुमार, दलीपसिंह, बांकेलाल, प्रेमचन्द, १० परमानन्द, पक्षालाल और प्रेमचन्द Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त -) - - ANNE Eminentatio - SHETORITRA - चित्रमें-श्री धवलग्रन्थगजको समुद्घारिन ( Revising ) प्रतिक पत्र हैं। उन ताडपत्रोक बागे और पारदर्शी स्फेट कपरा चमक रहा है जो उस नाइपोंक दोनों ओर लगाया गया है। - - - Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री धवलग्रन्थराजके दर्शनोंका सफल आयोजन श्री दि. जेन बाल मन्दिरमें ता०२१ रविवारके दिन श्रीमती लचमीमती राणीके सुरत संकल्पानुसार उठाया है जीर्णोद्धारको प्राप्त हुए श्री धवल ग्रन्थके दर्शनोंका वीर मेवा- जिसके लिये वे धन्यवादके पात्र हैं। मन्दिरकी पोरसे प्रायोजन किया गया था। ग्रन्थराजको रात्रिको ८ बजे वीर सेवामन्दिरकी पोरसे बाल मन्दिर लालमन्दिरके विशाल हालमें शोकेशके अन्दर चांदीकी जोके विशाल हालमें एक सभाका प्रायोजन किया गया, जो चौकियों पर विराजमान किया गया था। और प्रन्थका कछ ला० जुगलकिशारजी कागजी फर्म लामीमल धर्मदास भाग चांदीकी सुन्दर वेदामें खचित कमल पर रक्खे हए चावड़ी बाजार दिल्लीकी अध्यक्षतामें सानंद सम्पन्न हुश्रा । प्रथम रजतमय सिंहासन पर विराजमान किया था। इस ग्रन्थराजके ही वयोवृद्ध साहित्य तपस्वी पं० जुगलकिशोरजीने षट्खण्डादर्शनों के लिए जनता उमड़ पडी,-प्रातःकालसे लेकर गमकी उत्पत्ति और धवलाटीकाके निर्माणका इतिवृत्त रात्रिको ८ बजे तक जनताने बडी भक्ति और श्रद्धाके साथ बतलाते हुये ग्रन्थराजकी महत्ता पर प्रकाश डाला और दूसरे दर्शन किये और समारोहके साथ पूजा भी की। महासन्धादि सिद्धान्त ग्रन्थोंके समुद्धारकी भावना व्यक्त की। धवल ग्रन्थराजकी यह प्राचीन ताडपत्रीय प्रनि नुलु या पश्चात पं. अजितकुमारजी शास्त्रीने भी उक्त सिद्धान्त तौलब देशमें स्थित मूडबिद्री नगरके गुरु गल सिद्धान्त- ग्रन्थको महत्ताका उल्लेख करते हुए उनके समुदार कार्यको वस्ति नामक जिन मन्दिरमें हजार वर्षक, करीब समय- श्रावश्यक और प्रशंसनीय बतलाया। अनंतर वयोवृद्ध से सुरक्षित रही है। इसके साथ ही उक्त वस्तिमें कपाय पं० मक्खनलाल जी प्रचारकने भी प्रन्योंके जीर्णोद्धाके जरूरी प्राभृतको टोका 'जयधवला' और महाबन्ध भी सत्कर्म प्रकट करते हुए धवलग्रन्थके जीर्णोद्धार कार्यको प्रशंसा की। पंजिकाके साथ सुरक्षित रहे हैं। इन ग्रन्थराजोंकी ये बह पश्चात् पं० दरबारीलाल जो कोठिया न्यायाचार्यने बतलाया मूल्य प्रतियाँ अत्यन्त जीर्ण-शीर्ण हो गई थीं, अनेक पत्र कि जिनवाणी और जिनदेवों कोई अन्तर नहीं है अतएव त्रुटित हो गये थे और महाबन्धक तो कितनेक पत्र भी अम्त- जिनदेवके समान ही हमें उसकी पूजा उपासनाके साथ व्यस्त होकर अप्राप्त हो गए हैं। ऐसी स्थितिमें इन ग्रन्थोंके उनकी सुरक्षाका समुचित प्रयत्न करना चाहिये। इस तरह जीर्णोद्वार होनेकी बड़ी जरूरत थी। उनमें धवलके सिवाय सबही भाषण महत्वपूर्ण हुए। भाषणोंके अनन्तर निम्न तीन शेष ग्रन्थोंका जीर्णोद्वार होना अभी बाकी हैं जो जल्दी ही ___ प्रस्ताव सर्वसम्मतिसे पास हुए, उसके बाद पं० परमानन्द सम्पन्न होगा। अतः कलकत्ता नियामा बा. छोटेलालजी शास्त्रीने वीर-सेवा-मन्दिरकी पोरसे एक अभिनन्दन पत्र अध्यक्ष वीरसंवा मन्दिरको प्रमुग्वतामें एक शिष्टमण्डल इन पढ़कर सुनाया और उसे श्री धर्मसाम्राज्यजीको सादर ग्रन्थराजा फोगेकार्यके लिये मूडबिद्री गया था और उनकी कायालय मूडाबद्रगो गया था और उनकी समर्पित किया। अनन्तर पं. मक्खनलाल जी प्रचारकने प्रेरणाके फल-रू वहांक पचों और भट्टारक जीकी स्वीकृति अपनी यह भावना व्यक्त की, कि दिल्लीको वार्षिक रथयात्रा से फोटोका काय यानन्द सम्पन्न हुआ था। उसी समय इन पोप वदि दोयज ता. १५ दिसम्बरको होने वाली है मेरी ग्रन्थराजोंके जीर्णोद्वार करानेके लिये भी प्रेरणा की गई थी इच्छा है कि यदि इस ग्रन्थराजको रथमें विराजमान किया परिणाम स्वरूप वहाँके ट्रस्टोगण और भधारक जीके श्रादेशा- जाय तब तक श्री धर्मसाम्राज्यजी यहाँ ही ठहरें, पंडित जीकी नुमार धवलग्रन्थकी उक्र प्राचीन प्रति दिल्ली लाई गई और इस भावनाका समर्थन ला. प्रेमचन्द्र जी जैनावाच कम्पनीने भारत सरकार के National Archives of India, किया। उत्तरमें श्री धर्मसाम्राज्यजीने कहा कि मुझे घरसे मन्थरक्षागार नामक विभागके डायरेक्टर जनरल डा. भास्करा चले हुए करीब १५ दिनका समय हो गया है अब और नन्द सालेतूर पी०एच०डी० की सुरक्षामें उसका जीर्णोद्धारका अधिक ठहरना यहाँ सम्भव नही है। हाँ उस समय तक मैं कार्य बहुत ही सुन्दर तरीके पर सम्पन्न हुआ है। 'जयधयल' यहां लानेका प्रयत्न करूंगा। उस समय दिल्ली ____ इस ग्रन्थराजके जीर्णोद्धाका कुल खर्च मूडबिडीके उक्र समाजकी अोरसे उसका जीर्णोद्धार करानेकी घोषणा की गुरुगल सिद्धान्तवस्तिके ट्रस्टी और बाबू छोटेलाल जीके गई। अर्थात् उसके जीर्णोद्धारका कुल खर्च दिल्ली समाजकी अनन्य मित्र श्री धर्मसाम्राज्यजीने अपनी स्वर्गीया धर्मपत्नी ओरसे किया जायगा । इसके बाद अध्यक्ष श्री जुगलकिशोर Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अनेकान्त [वर्ष १३ जीका प्राध्यारिस्पार्मिक भाषण हुआ। और भगवान जैनियोंको यह सभा श्री धर्मसाम्राज्यजी और उनकी धर्ममहावीर और जिनवाणीकी जयध्वनि पूर्वक सभा समाप्त पस्नीके इस शुभ संकल्पके लिये उन्हें हार्दिक धन्यवाद भेंट -परमानन्द जैन करती है और श्रीधर्मसाम्राज्यजोने वृद्धावस्था में दोबार उक्त तीनों प्रस्ताव निम्न प्रकार है इतनी लम्बी यात्रा करके जो कष्ट उठाया है तथा वीरसेवाप्रस्ताव नं.१ मन्दिरको इस ग्रंथराजको Negative and Positive देहली जैन समाजको यह सभा मूडबिद्रीके पंचों और दोनों फिल्म प्रदान की है उसके लिये उनके सेवामय सत्लाश्री भट्टारक चारुकीर्तिजीको हार्दिक धन्यवाद देती है, इसकी प्रशंसा करती हुई उन्हें विशेष धन्यवाद अर्पण करती जिनक समयानुकूल उदार विचारके फलस्वरूप श्री धवल वाली है और साथ ही आशा करती है कि वे भविष्यमें दूसरे ग्रन्थराजजी देहली पा सके, उनका जीर्णोद्धार हो सका। जयधवलादि सिद्धान्त ग्रंथोंको भी शीघ्र देहली भिजवाकर और देहली वासियोंको उनके पावन दर्शनोंकी प्राप्ति हो उनके जीर्णोद्धार जैसे पुण्यकार्यमें वीरसेवामन्दिर एवं दिल्ली सकी। साथ ही, यह निवेदन भी करती है कि वे दूसरे जैन समाजको हाथ बटानेका अवसर प्रदान करेंगे। प्राचीन जयधवलादि सिद्धांत ग्रंथोंकी जीर्ण-शीर्ण प्रतियोंको प्रस्तावक-जुगलकिशोर मुख्तार भी शीघ्र दिल्ली भिजवाकर उनका जीर्णोद्धा करानेकी कृपा समर्थक-ला. महावीरप्रसाद वैद्य करें। श्रीधवलकी जीर्णोद्धारित प्रतिको देख कर बड़ा हर्ष अनुमोदक-श्री वनवारीलाल होता है कि इस जीर्णोद्धार कार्यसे ग्रन्थराजकी आयु बढ प्रस्ताव नं. ३ गई है और वे अब सैकड़ों वर्ष नक हमें अपने दर्शनोंसे श्रीमान् डाक्टर भास्कर आनन्द सालेतूर डायरेक्टर अनुप्राणित करते रहेंगे। Natial Archives of India देहलीने भी श्रीधवल प्रस्तावक-ला. प्रेमचन्द्र जी अंधराजकी इस अति प्राचीन बहुमूल्य प्रतिका जीर्णोद्धार समर्थक-ला० जुगलकिशोरकागजी अध्यक्ष बहुत ही सावधानीसे निजी तत्त्वावधानमें सम्पन्न कराया है। अनुमोदक-पं. अजितकुमार, पं० मक्खनलालजी प्रचारक अतः दहलीक जैनियोंकी यह सभा डा. साहबको इस पवित्र प्रस्ताव नं. २ सेवा कार्यके लिये हार्दिक धन्यवाद देती है और उनसे निवेदन ___दिल्ली जैन समाजके अनेक महानुभावों की यह इच्छा करती है कि वे सिद्धांत ग्रन्थोंकी अन्य प्राचीन प्रतियोंका भी थी कि श्री धवलग्रंथराजके जीर्णोद्धारमें जो बर्च हा है जीर्णोद्धार इसी उत्तमताके साथ सम्पस करायें। साथ ही, उसको वे स्वयं उठा। परन्तु मूडबिद्री गुरुगलवस्तिक ट्रस्टी भारत सरकारका भी ऐसे उपयोगी विभागके लिये धन्यवाद श्रीधर्मसाम्राज्यजीका यह दृढ़ संकल्प मालूम करके कि करती है। इस खचको वे अपनी स्वर्गीया धर्मपत्नी श्री लक्ष्मीमती प्रस्तावक-ला० रघुवीरसिह जैना वाच क. गट्टे मारकी प्रबल इच्छाके अनुसार स्वयं उठा रहे हैं, उन्हें समर्थक-पं० दरबारीलाल कोठिया अपनी इच्छानोंका संवरण करना पड़ा । अत: दिल्लीके अनुमोदक-पं० मन्नूलाल, पं० सुमेरचंद, पं०मक्खनलाल जेनग्रन्थ प्रशस्तिसंग्रह __ यह ग्रन्थ १७१ अप्रकाशित ग्रन्थोंकी प्रशस्तियोंको लिए हुये है। ये प्रशस्तियाँ हस्तलिखित ग्रन्थों पर नोट कर संशोधनके साथ प्रकाशित की गई है। पं० परमानन्दजी शास्त्रीकी ११३ पृष्ठकी खोजपूर्ण महत्त्वकी प्रस्तावनासे अलंकृत है, जिसमें १.४ विद्वानों, प्राचार्यों और भट्टारकों तथा उनकी प्रकाशित रचनाओं का परिचय दिया गया है जो रिसर्चस्कालरों और इतिसंशोधकोंके लिये बहुत उपयोगी है। मून्य ५) रुपया है। मैनेजर वीरसेवा-मन्दिर, दि. जैन लालमन्दिर, चाँदनी चौक, दिल्ली । Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीहीराचन्दजी बोहराका नम्र निवेदन और कुछ शंकाएँ न है" इन शब्दों-हारानी एकत्व प्रतिपादन मेरने 'श्री पं० मुना (जुगलकिशोर मुख्तार) 'समयसारकी १५ वी गाथा और श्रीकानजी स्वामी' शुद्ध आत्मा वह जिनशासन है।' इन शब्दों-द्वारा दोनोंका नामक मेरे लेखके तृतीय भागको लेकर बा० हीराचन्दजी एकत्व प्रतिपादन कर रहे हैं। शुद्धात्मा जिनशासनका एक बोहरा बी. ए. विशारद अजमेरने 'श्री पं० मुख्तार सा. विषय प्रसिद्ध है वह स्वयं जिनशासन अथवा समप्र जिनसे नम्र निवेदन' नामका एक लेख अनेकान्तमें प्रकाशनार्थ शासन नहीं है। जिनशासनके और भी अनेकानेक विषय हैं। भेजा है, जो उनको इच्छानुसार 'अविकल रूपसे इसी अशुद्धास्मा भी उमका विषय है, पुद्गल धर्म अधर्म प्राकाश किरणमें अन्यत्र प्रकाशित किया जा रहा है। लेखपरसे और काल नामके शेप पाँच द्रव्य भी उसके अन्तर्गत है। ऐसा मालूम होता है कि बोहराजीने मेर पिछले दो लेखों- वह सप्ततत्वों, नवपदार्थों, चौदह गुणस्थानों चतुर्दशादि लेखके पूर्ववर्ती दो भागों को नहीं देखा या पूरा नहीं जीवममामों. षट्पर्याप्तियों, दस प्राणों, चार संज्ञाओं चौदह देखा, देखा होता तो वे मेरे ममूचे लेखकी दृष्टिको अनुभव मार्गणाओं, विविध चतुर्विध्यादि उपयोगों और नयों तथा करते और तब उन्हें इस लेखक लिखनेकी ज़रूरत ही पैदा प्रमाणोंकी भागे चर्चाओं एव प्ररूपणाओंको आत्मसात् किये न होती । मेरा समग्र लेख प्रायः जिनशासनके स्वरूप-विषयक अथवा अपने अंक (गोद) में लिए हुए स्थित है। साथ ही विचारसे सम्बन्ध रखता है और कानजी स्वामीके 'जिन- मोक्षमागकी देशना करता हुआ रत्नत्रयादि धर्मविधानों, शामन' शीर्षक प्रवचन-लेखको लेकर लिया गया है, जो कुमार्गमथनों और कर्मप्रकृतियोंके कथनोपकथनसे भरपूर है। 'शात्मधर्म के अतिरिक्र अनेकान्त' के गत वर्षकी किरण संक्षेपमें जिनशासन जिनवाणीका रूप है, जिसके द्वादश अंग ६ में भी प्रकाशित हुआ है। जिनशासन' को जिनवाणीकी और चौदह पूर्व अपार विस्तारको लिए हुए प्रसिद्ध है।" तरह जिनप्रवचन, जिनागम-शास्त्र, जिनमत, जिनदर्शन, इस कथनकी पुष्टिमें ममयसारकी जो गाथाएँ उद्धत को जिनतीर्थ, जिनधर्म और जिनोपदेश भी कहा जाता है- जा चुकी हैं उनके नम्बर हैं-४६, ४८, १६, १६, १०, जैनशा-नन, जैनदर्शन और जैनधर्म भी उसीके नामान्तर हैं. ६७ ७०, १०७, १४१, १६१ १६२, १६३, १६१, जिनका प्रयोग स्वामीजीने अपने प्रवचन-लेखमें जिनशासनां ११८, २५१. २६२, २७३. ३५३, ४१४ । इन गाथाश्रोंको स्थान पर उम्पी तरह किया है जिस तरह कि 'जिनवाणी' उद्धृत करनेके बाद प्रथम लेखमें लिखा थाऔर 'भगवानकी बागी' जैसे शब्दोंका किया है। इससे जिन "इन पब उद्धरणोंसे तथा श्रीकुन्दकुन्दाचार्यने अपनेप्रवभगवानने अपनी दिव्य वाणी में जो कुछ कहा है और जो चनमाग्में जिनशामनके साररूपमें जिन जिन बातोंका उल्लेख तदनुकूल बने हुए सूत्रों-शास्त्रोंमें निबद्ध है वह सब जिन अथवा संसूचन किया है उन सबको देखनेसे यह बात शासनका- अंग है, इसे खूब ध्यानमें रखना चाहिये।" ऐसी बिल्कुल स्पष्ट हो जाती है कि "एकमात्र शुद्धामा जिनशासन स्पष्ट सूचना भी मेरी प्रोग्से प्रथम लेखमें की जा चुकी है, नहीं है। जिनशासन निश्चय और व्यवहार दोनों नयों तथा जो अनेकान्त के गत वर्षको उसी छटी किरणमें प्रकाशित हुश्रा उपनयोंके कथनको साथ-साथ लिए हुए ज्ञान, ज्ञेय और है। और इस सूचनाके अनन्तर श्री कुन्दकुन्दाचार्य-प्रणीत चारित्ररूप सारे अर्थममूहको उसकी सब अवस्थाओं सहित समयसारके शब्दों में यह भी बतलाया जा चुका है कि 'एकमात्र अपना विषय किये हुए है।" शवात्मा जिनशासन नहीं है, जैसा कि कानजी स्वामी "जो माथ ही यह भी बतलाया था कि "यदि शुद्ध आत्माको अविकल रूपसे प्रकाशित करनेमें बोहराजीके लेखमें कितनी ही जिनशासन कहा जाय तो शुद्धात्माके जो पांच विशेषण ही गलत उल्लेवादिके रूपमें ऐसी मोटी भूलें स्थान पा गई प्रबद्धस्पृष्ट, अमन्य, नियत, अविशेष कौर असंयुक्त कहे जाते हैं जिन्हें अन्यथा (सम्पादित होकर प्रकाशनकी दशामें) हैं वे जिनशासनको भी प्राप्त होंगे, और फिर यह स्पष्ट स्थान न मिलता; जैसे 'क्या शुभ भाव जैनधर्म नहीं किया गया था कि जिनशासन उक्र विशेषयोंके रूपमें परिइसके स्थान पर 'क्या शुभभाव धर्म नहीं? इसे मेरे लेखका लक्षित नहीं होता वे उसके साथ घटित नहीं होते अथवा शीर्षक बतलाना। संगत नहीं बैठते और इसलिए दोनोंकी एकता बन नहीं Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ अनेकान्त [ वर्ष १३ सकती। इस स्पप्टीकरणमें स्वामी समन्तभद्र, सिद्धसेन और व्यक्तिबके प्रति मेरा बहुमान है-आदर है और मैं आपके अकलंकदेव जैसे महान् प्राचार्योंके कुछ वाक्योंको भी उद्धत सल्मंगको अच्छा ममझता हूं, परन्तु फिर भी सत्यके अनुरोध किया गया था, जिनसे जिनशासनका बहुत कुछ मूल स्वरूप से मुझे यह मानने तथा कहने के लिये बाध्य होना पड़ता है सामने प्राजाता है, और फिर फलितार्थरूपमें विज्ञपाठकोंसे कि आपके प्रवचन बहुधा एकान्तकी ओर ढले होते हैं--उनमें यह निवेदन किया गया था कि जाने-अनजाने वचनानयका दोष बना रहता है। जो बचन"स्वामी समन्तभद्र, सिद्धसेन और अकलंकदेव जैसे व्यवहार समीचीननय-विवक्षाको साथमें लेकर नहीं होता महान् जैनाचार्योंके उपयुक्त वाक्योंस जिनशासनकी विशेष- अथवा निरपेक्षनय या नयोंका अवलम्वन लेकर प्रवृत्त किया ताओं या उसके सविशेषरूपका ही पता नहीं चलता बल्कि जाता है वह वचनानयके दोषमे दृक्षित कहलाता है।" उस शासनका बहुत कुछ मूल स्वरूप मूर्तिमान होकर सामने साथ ही यह भी प्रकट किया था कि-"श्री कानजीपाजाता है। परन्तु इस स्वरूप-कथनमें कहीं भी शुद्धामाको स्वामी अपने वचनों पर यदि कहा अंकुश रक्खें, उन्हें निरजिनशासन नहीं बतलाया गया, यह देखकर यदि कोई पेच निश्चय नयके एकान्तकी ओर ढलने न दें, उनमें निश्चयसज्जन उक्त महान् प्राचार्योको, जो कि जिनशामनके स्तम्भ- व्यवहार दोनों नयोंका समन्वय करते हए उनके वक्तव्योंका स्वरूप माने जाते हैं, 'लौकिजन' या 'अन्यमती' कहने लगे सामंजस्य स्थापित करें, एक दूसरेके वक्रव्यको परस्पर उपकारी और यह भी कहने लगे कि उन्होंने जिनशासनको जाना मित्रों के वक्तव्यको तरह चित्रित करें-न कि स्व-परप्रणाशीया सममा तक नहीं तो विज्ञ पाठक उसे क्या कहेंगे, किन शत्रुओंके वक्रव्यकी तरह-और साथ ही कुन्दकुन्दाचार्य के शब्दोंसे पुकारेंगे और उसके ज्ञानकी कितनी सराहना 'ववहारदेसिदा पुण जे दु अपरमेोहदा भावे' इस वाक्य करेंगे (इत्यादि)" को खास तौरसे ध्यानमें रखते हुए उन लोगोंको जो कि अपकनजी स्वामीका उक्त प्रवचन-लेख जाने-अनजाने से रमभावमें स्थित हैं-वीतराग चारित्रकी सीमातक न पहुँच महान् प्राचार्योंके प्रति बैसे शब्दोंक संकतको लिए हुए है, जो कर साधक-अवस्थामें स्थित हुए मुनिधर्म या श्रावकधर्मका मुझे बहुत ही असह्य जान पड़े और इसलिए अपने पाम पालन कर रहे हैं-व्यवहारनयक द्वारा उस व्यवहारधर्मका समय न होते हुए भी मुझे उक्त लेख लिखनेके लिए विवश उपदेश दिया करें जिस तरणोंपायके रूपमें 'तीर्थ' कहा होना पड़ा, जिसकी सूचना भी प्रथम लेख में निम्न शब्दो जाता है, तो उनके द्वारा जिनशासनकी अच्छी संवा हो द्वारा की जाचुकी है मकनी है और जिनधर्मका प्रचार भी काफी हो सकता है। " जिनशासनके रूपविषयमं जो कुछ कहा गया है अन्यथा, एकान्तकी ओर ढलजानेसे तो जिनशासनका विरोध वह बहुत ही विचित्र तथा अविचारितरम्य जान पड़ता और तीर्थका लोप हो घटित होगा।" है। सारा प्रवचन आध्यात्मिक एकान्तकी और ढला इसके सिवा समयसारकी दो गाथाओं नं० २०१, २०२ हुआ है, प्रायः एकान्तमिथ्यात्वको पुष्ट करता है और जिन- को लेकर जब यह समस्या खड़ी हुई थी कि इन गाथाओंके शासनके स्वरूप-विषयमें लोगोंको गुमराह करनेवाला है। अनुसार जिसके परमाणुमात्र भी रागादिक विद्यमान हैं वह इसके सिवा जिनशासनके कुछ महान् स्तम्भोंको भी इसमें प्रात्मा अनात्मा (जीव-जीव) को नहीं जानता और जो "लौकिकजन" तथा "अन्यमती" जैसे शब्दों से याद किया पाल्मा अनात्माको नहीं जानता वह सम्यग्दृष्टि नहीं हो है और प्रकारान्तरसे यहां तक कह डाला है कि उन्होंने सकता । कानजी स्वामी चूकि राग-रहित वीतराग नहीं और जिनशासनको ठीक समझा नहीं, यह सब असह्य जान पड़ता उनके उपदेशादि कार्य भी रागसहित पाये जाते हैं, तब क्या है। ऐसी स्थितिमें समयाभावके होते हुए भी मेरे लिये यह रागादिकके सद्भावके कारण यह कहना होगा कि वे प्रात्मा आवश्यक हो गया है कि में इस प्रवचनलेख पर अपने अनात्माको नहीं जानते और इस लिए सम्यग्दृष्टि नहीं हैं विचार व्यक्त करूं (इत्यादि)" इस समस्याको हल करते हुए मैंने लिखा था कि 'नहीं कानजी स्वामीके व्यक्रिस्वके प्रति मेरा कोई विरोध नहीं कहना चाहिए' और फिर स्वामी समन्तभद्रके एक बाक्यकी है, मैं उन्हें आदरकी इप्टिसे देखता हूं: चुनांचे अपने लेखके सहायतासे उन रागादिकको स्पष्ट करके बतलाया था जो कुन्दवसरे भागमें मैंने यह व्यक्त भी किया था कि-"आपके कुन्दाचार्यको उक्त गाथाओं में विवक्षित हैं-अर्थात् यह प्रकर Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ५ ] किया था कि मिध्यादृष्टिशीयोंके मिध्यात्यके उदयमें जो कई कार-ममकारके परिणाम होते हैं उन परिणामोंसे उत्पन्न रागादिक यहाँ विवधित है— जो कि मिध्यापके कारण 'अज्ञानमय' होते एवं समतामें बाधक पडते हैं। वे रागादिक यहां विवचित नहीं हैं जोकि एकान्तधर्माभिनिवेशरूप मिथ्यादर्शनके अभाव में चारित्रमोहके उदय-वश होते हैं और जो ज्ञानमय तथा स्वाभाविक होने से न तो जीवादिकके परिज्ञानमैं बाधक है और न समता - जीतरागवाकी साधना ही बाधक होते हैं। और इस तरह कानजी स्वामीपर घटित होनेवाले आरोपका परिमार्जन किया था। श्रीहीराचन्द बोहराका नम्र निवेदन A इन सब बातों तथा इस बात से भी कि कानजीस्वामीके चित्रोंको अनेकान्त गौरव के साथ प्रकाशित किया गया है यह बिल्कुल स्पष्ट है कि कानजी स्वामीके व्यक्तित्वक प्रति अपनी कोई बुरी भावना नहीं, उनकी वाक्परिणति एवं वचनन्दति सदोष जान पड़ती है, उमीको सुधारने तथा ग़लतफहमी को न फैलने देने लिये ही सद्भावनापूर्वक उक लेख लिखनेका प्रयत्न किया गया था । उसी सद्भावनाको लेकर लेखके पिछले तृतीय भाग) में इस बातको स्पष्ट करके बतलाते हुए कि श्री कुन्दकुन्द धीर स्वामी ममन्तभद्र जैसे महान आचार्याने पूजा-डान प्रनादिरूपमाचार (सम्यक्चारित्र) पद्विषयक शुभभायोको धर्म बतलाया हैजैनधर्म अथवा जिनशासनके अंगरूपमें प्रतिपादन किया है। अतः उनका विरोध ( उन्हें निशान बाह्यकी वस्तु एवं जिनशासनमे अधर्म प्रतिपादन करना) जिनशासनका विरोध है, उन महान आचार्यका भी विरोध है और साथ ही अपनी उन धर्मप्रवृतियों भी वह विरुद्ध पड़ता है, जिनमें शुभभावोंका प्राचुर्य पाया जाता है, कानजी स्वामी सामने एक समस्या हल करनेके लिये रस्सी थी और उसके शीघ्र हल होने की जरूरत व्यक्त की गई थी, जिससे उनकी कथनी और करणी में जो स्पष्ट अन्तर पाया जाता है उसका सामंजस्य किसी तरह बिठलाया जा सके। साथ ही, उन पर यह प्रकट किया था कि उन्होंने जो ये शब्द कहे हैं कि "जो जीव पूजादिकं शुभरागको धर्म मानते हैं उन्हें 'लौकिक' और 'अन्यमती' कहा है" उनकी लपेट में जाने-अनजाने श्री कुन्दकुद, ममन्तभद्र, उमास्वाति, सिद्धसेन पूज्यपाद अकलंक और विद्यानन्दादि सभी महान् आचार्य का जाते है। क्योंकि उनमें से किसी भी शुभभावोंका जैनधर्म (जिन (१३६ शासन) में निषेध नहीं किया है, प्रत्युत इसके अनेक प्रकारसे उनका विधान किया है और इससे उनपर (कानजी स्वामीपर) यह श्रारोप आता है कि उन्होंने ऐसे चोटीके महान् जैनाचार्योंको 'लोकिकजन' तथा 'अन्यमती' कह कर अपराध किया है, जिसका उन्हें स्वयं प्रायश्चित्त करना चाहिये । इसके सिवा, उनपर यह भी प्रकट किया गया था "कि अनेक विद्वानोंका आपके विषय में अब यह मत हो चला है कि आप वास्तवमें कुन्दकुन्दाचार्यको नहीं मानते और न शमी समन्तभद्रजैसे दूसरे महान् जैन आचार्योको ही वस्तुतः मान्य करते हैं-यों ही उनके नामका उपयोग अपनी किसी कार्यसिद्धिके लिए उसी प्रकार कर रहे हैं जिस प्रकार कि सरकार अक्सर गांधीजीके नामका करती है और उनके सिद्धान्तों को मानकर नहीं देती; और इस तरह दूसरे बड़े आरोप की सूचना की गई थी। साथ ही अपने परिचयमें आप कुछ लोगोंकी उस श्राशंकाको भी व्यक्त किया गया था कानजी स्वामी और उनके अनुयाइयोंकी प्रवृत्तियों को देखकर हमें उठने लगी हैं और उनके मुखसे ऐसे शब्द निकलने लगे हैं कि 'कहीं जैन समाजमें यह चौथा सम्प्रदायनी कायम होने नहीं जा रहा है, जो दिगम्बर श्वेतास्वर और स्थानक वामी सम्प्रदायों की कुछ-कुछ ऊपरी बातों को लेकर तीनोंक मूलमें ही कुठाराघात करेगा' ( इत्यादि) । और उसके बाद यह निवेदन किया गया था : "यदि यह आशका ठीक हुई तो निसन्देह भारी चिन्ताका विषय है और इस लिए कानजी स्वामीको अपनी पोजीशन और भी स्पष्ट कर देनेकी ज़रूरत है। जहां तक में समझता हूं कानजी महाराजका ऐसा कोई आमाशय नहीं होगा जो उक्त चौथा जैन साम्प्रदायके जन्मका कारण हो। परन्तु उनको प्रपचन-शैलीका जो रुत चलरहा है और उनके अनुयायियों की जो मिशनरी प्रवृत्तियां प्रारम्भ हो गई हैं उनसे बैसी आशंकाका होना स्वाभाविक नहीं है और न भविष्य में जैसे समदायको सृष्टिको ही अस्वाभाविक कहा जा सकता है । श्रतः कानजी महाराजकी इच्छा यदि सचमुच चौथे सम्प्रदायको जन्म देने की नहीं है, तो उन्हें अपने प्रवचनों के विषयमें बहुत ही सतर्क एवं सावधान होने की जरूरत हैउन्हें केवल वचनों द्वारा ही अपनी पोजीशनको स्पष्ट करनेकी जरूरत नहीं है, बल्कि व्यवहारादिक द्वारा भी ऐसा सुख प्रयत्न करने की जरूरत है जिससे उनके निमित्तका पाकर बेसा चतुर्थ सम्प्रदाय भविष्य में न होने पाये, साथ ही बोक खड़ा Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष १३ दयमें जो आशंका उत्पन्नईहै वह दूर हो जाय और जिन और दूसरी भी कुछ कल्पनायोंको अवसर मिलता है। विद्वानोंका विचार उनके विषमें कुछ दूसरा हो चला है वह अस्तु उनका इस विषयमें यह मौन कुछ अच्छा भी बदला जाय । आशा है अपने एकप्रवचनके कुछ अंशों पर मालूम नहीं देता-उमसे भविष्यमें हानि होनेकी भारी सद्भावनाको लेकर बिखे गये इस आलोचनात्मक लेखपर संभावना है। भविष्यमें यदि वैसा कोई चौथा सम्प्रदाय कानजी महाराज सविशेष रूपसे ध्यान देनेकी कृपा करेंगे और स्थापित होने को हो तो स्वामीजीके शिष्य-प्रशिष्य कह उसका सत्फल उनके स्पष्टीकरणात्मक वक्रव्य एवं प्रवचन- सकते हैं कि यदि स्वामीजी को यह सम्प्रदाय इष्ट न होता शैली की समुचित तब्दीजोके रूपमें शीघ्र ही दृष्टिगोचर तो वे पहले ही इसका विरोध करते जब उन्हें इसकी कुछ होगा।" सूचना मिली थी। परन्तु वे उस समय मौन रहे हैं अतः मेरे इस निवेदन को पाँच महीनेका समय बीत गया; 'मोनं सम्मति-लक्षणं' की नीतिके अनुसार वे इस चौथे परन्तु खेद है कि अभीतक कानजीस्तामीकी अोरम उनका सम्प्रदायकी स्थापनासे सहमत थे, ऐसा समझना चाहिए। कोई वक्रव्य मुझे देखनेको नहीं मिला, जिससे अन्य बातोंको साथ ही किसी विषयमें परस्पर मत-भेद होने पर उन्हें यह छोड़कर कमसे कम इतना तो मालूम पड़ता कि उन्होंने अपनी भी कहने का अवसर मिल सकेगा कि स्वामीजी कुन्दकुन्दापोजीशन का क्या कुछ स्पष्टीकरण किया है, उस ममस्याका दिप्राचार्योका गुणगान करते हुए भी उन्हें वस्तुत: जैनधर्मी क्या हल निकाला है जो उनके सासने रखी गई है, उन प्रारो- नहीं मानते थे-'लौकिक जन' नथा, 'अन्यमती' समझते पोंका किसरूपमें परिमार्जन किया है जो उन पर लगाये गये हैं, थे, इसीस जब उनपर उन महान् प्राचार्यों को वैसा कहनेका और लोकहृदयमें उठी एवं मुह पर पाई हुई आशंका को अारोप लगाया गया था तो वे मान हो रहे थे-उन्होंने निमल करनेके लिए क्या कुछ प्रयत्न किया है। मैं उनका कोई विरोध नहीं किया था। बराबर श्रीकानजी महाराजके उत्तर तथा वक्रव्यकी प्रतीक्षा ऐसी वर्तमान और सम्भाव्य वस्तु-स्थिति में मेरे समूचे करता रहा हूँ और एक दो वार श्री हीराचन्द जी बोहराको लेखकी दृष्टिको ध्यानमें रखते हुए यद्यपि श्रीबोहराजीक लिये भी लिखा चुका हूं कि वे उन्हें प्रेरणा करके उनका बकवादि प्रस्तुत लेख लिखने अथवा उसको छापने का आग्रह करनेके शीघ्र भिजवाएं, जिससे लगे हाथों उसपर भी विचार किया लिए कोई माकल वजह नहीं थी फिर भी उन्नन उसको जाय और अपनेसे यदि कोई गलती हुई हो तो उसे सुधार लिखकर जल्दी आनकान्त छापलेका सो गाग्रा किया है यह दिया जायः परन्तु अन्तमें बोहराजीक एक पत्रको पढकर एक प्रकारने 'मुद्दई सुस्त और गवाह चुस्त' की नीतिको मुझे निराश हो जाना पड़ा। जान पड़ता है कानजीस्वामी __ चरितार्थ करता है। सब कुछ पी गये है-इतने गुरुतर धारापों की भी स कळ शंकानोका उठाकर मुझसे उनका अवांछनीय उपेक्षा कर गये हैं - और कोई प्रत्युत्तर, समाधान चाहा गया है और फिर सबूतक रूपमें कतिपय स्पष्टीकरण या वक्रव्य देना नहीं चाहतं । वे जिस प्रमाणोंको-अष्टपाडके टीकाकार पं० जयचन्दजी और पदमें स्थित है उसकी दृष्टिसे उनकी यह नीति बड़ी ही मोक्षमार्गक रचयिता पं. टोडरमलजीक वाक्योंको साथ ही घातक जान पड़ती है। जब वे उपदेश देते हैं और उसमें कुछ कानजी स्वामीक वाक्योंको भी उपस्थित किया गया है, दूसरोंका खण्डन-मण्डन भी करते हैं तब मेरे उक्त लेखके जिससे मैं शंकाओंका समाधान करते हुए कहीं कुछ विचलित विषयमें कुछ कहने अथवा अपना स्पष्टीकरण प्रस्तुत करने न हो जाऊँ इस कृपाक लिए में श्री बोहरा जी का के लिये उन्हें कौन रोक सकता था ? वक्तव्य तो गलतियों- प्राभारी हैं। उनकी शंकाओंका समाधान धागे चल कर गलतफहमियोंको दूर करने के लिये अथवा दूसरोंके समाधान किया जायगा, यहाँ पहले उनके प्रमाणों पर एक दृष्टि डाल की दृष्टिसे बड़बड़े मन्त्रियों, सेनानायकों, राजेमहाराजों, राष्ट्र- लेना और यह मालूम करना उचित जान पड़ता है कि वे पतियों और धर्म-ध्वजियों तक को देने पढ़ते हैं तब एक कहां तक उनके अभिमत विषयकं समर्थक होकर प्रमाण ब्रह्मचारी श्रावकके पदमें स्थित कानजी स्वामीके लिये ऐसी कोटिमें ग्रहण किये जासकते हैं। कौन बात उसमें बाधक है यह कुछ समझमें नहीं आता ! श्रीकुन्दकुन्दके भावपाहुडकी ८३वीं गाथाके ५० जयबाम्ब न देनेसे उल्टा उनके सहंकारका द्योतन होता है चन्दजीकृत 'भावार्थ को डबल इचर्टेडकामाज़ " -" Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ५] श्रीहीराचन्द बोहराका नम्र निवेदन [१४१ के भीतर इस ढंगस उद्धत किया गया है जिससे यह है कि शुभभार जैनधर्म या जिनशासनका कोई अंग नहीं, मालूम होता है कि वह उन गाथाका पूरा भावार्थ है - उसमें इस माधारण पाठक भी सहज ही समझ सकते हैं। कुछ घटा-बड़ी नहीं हुई अथवा नहीं की गई है। परन्तु इसके मिवा पं० जयचन्दजी ने उक्त भावार्थमें यह कहीं जाँचसे वस्तु-स्थिति कुछ दूसरी ही जान पड़ी। उदृत भी नहीं लिम्बा और न उनके किसी वाक्यसे यह फलित भावार्थका प्रारम्भ निम्न शब्दोंमें होता है होता है कि "जो जीव पू गदिके शुभरागको धर्म मानते हैं "लौकिकजन तथा अन्यमती कई कहें है जो पूजा आदिक उन्हें "लौकिकजन" और "अन्यमती" कहा है।" लौकिकशुभ क्रिया तिनिविर्ष अर व्रतक्रियासहित है सो जिनधर्म है जन आर अन्यमताक इस लक्षणका याद काइ भावाथक सो ऐसा नाही है । जिनमतमें जिनभगवान ऐसा कहा है जो उक्र प्रारम्भिक शब्दां परसे फलित करने लगे तो वह उसकी पूजादिक वि अरव्रत सहित होय सो तो पुण्य है।" कारी नासमझीका ही द्योतक होगा क्योंकि यहाँ 'लौकिक जन' तथा "अन्यमती" ये दोनों पद प्रथम तो लच्यरूपमें __इस अंश पर दृष्टि डालते ही मुझे यहाँ धर्मका 'जिन' प्रयुक्र नहीं हुए हैं दूसरे इनके साथ 'केई' विशेषण लगा विशेषण अन्यमतीका कथन होनसे कुछ खटका तथा असंगत हा है जिसके स्थान पर कानजी स्वामीके वाक्यमें 'कोई कोई' जान पड़ा, और इसलिये मैंने इस टीकाग्रन्थको प्राचीन प्रति विशेषणका प्रयोग पाया जाता है, जिसका अर्थ है कि कुछ को देखना चाहा । खोज करते समय दैवयोगसे दहलीके नये मन्दिरमें एक अति सुन्दर प्राचीन प्रति मिल गई जा थोड़े लोकिकजन तथा अन्यमती ऐसा कहते हैं-सब नहीं टीका निर्माणसे सवा दो वर्षवाद (सं० १९६६ पौष वदी कहना तब जो नहीं कहने उनपर वह लक्षण उनके लौकिक २ को) लिखकर समाप्त हुई है। इस टीका-प्रतिसे बहरा जन तथा अन्यमती होते हुए भी कैमे घटित हो सकता है ? जीक उद्धरणका मिलान करते समय स्पप्ट मालूम हो गया कि नहीं हो सकना, और इस लिए कानजीस्वामीका उक वहां धर्मके साथ 'जिन' या कोई दूसरा विशेषण लगा हुआ लक्षण अव्याप्ति दोष दूषित ठहरता है और चूंकि उसको नहीं है। साथ ही यह भी पता चला कि मोह-क्षोभसे गति उन महान पुरुषों तक भी पाई जाती है जिन्होंने सरागरहित आत्माके निज परिणामको धर्म बतलाते हुए भावार्थका चारित्र तथा शुभभावोंको भी जैनधर्म तथा जिनशासनका जो अन्तिम भाग "तथा एकदेश मोहक क्षोभकी हानि होय अंग बतलाया है और जो न तो लौकिकजन है और न है तातें शुभ परिणामहूँ भी उपचारसे धर्म कहिये है" इस अन्यमती, इसलिए उन लक्षण प्रतिव्याप्तिके कलंकसे भी वाक्यमे प्रारम्भ होना है उसके पूर्व में निम्न दो वाक्य छट गये कलंकित है? माथ ही उसमें 'धर्म स्थान पर 'जनधर्म' का गलन प्रयोग किया गया है । अतः उक 'भावर्थ' में 'लौकिअथवा छोड दिए गये हैं जन' तथा अन्यमती' शब्दोंके प्रयोगमात्रसे यह नहीं कहा ___"ऐसे धर्मका स्वरूप का है । अर शुभ परिणाम होय जा सकता कि "जो वाक्य श्रीकानजी स्वामाने लखे हैं वे तब या धर्मकी प्राप्तिका भी अवसर होय है।" इनके नहीं अपितु श्री पं० जयचंदजीके हैं।" श्रीवोहराजीने इस भावार्थमें पं० जयचन्दजीने दो दृष्टियोंसे धर्मकी यह अन्यथा वाक्य विग्वकर जो कानजी स्वामीकी वकालत बातको रक्खा है-एक कुछ लीकिकजनों तथा अन्यमतियों करनी चाही है और उन्हें गुरुतर आरोपसे मुक्त करनेकी चेष्टा के कथनको दृष्टिस और दूसरी जिनमत (जैनशामन ) की का है वह वकालत की अति है और उनसे विचारकोंको अनेकांतदृष्टिसे। अनेकान्तदृष्टिसे धर्म निश्चय और व्यवहार शोना नहीं देती। ऐसी स्थितिमें उक वाक्पके अनन्तर मेरे दोनों रूपमें स्थित है। व्यवहारके बिना निश्चयधर्म बन नहीं ऊपर जो निम्न शब्दोंकी कृपावृष्टि की गई है उनका प्राभार सकता, इसी बातको पं० जयचन्दजी ने “अर शुभ परिणाम किन शब्दों में व्यक्र करूं यह मुझे कुछ सूझ नहीं पड़ता(भाव) होय तो या धर्मकी प्राप्तिका भी अवसर होय है" इन विज्ञ पाठक तथा स्वयं बोहराजी इस विषय में मेरी असमर्थता शब्दोंके द्वारा व्यक्त किया है। जब शुभ भावके बिना शुद्ध- को अनुभवकर पकेंगे, ऐमी श्राशा है। वे शब्द इस प्रकार हैंभावरूप निश्चयधर्मकी प्राप्तिका अवसर ही प्राप्त नहीं हो . "तो क्या मुख्तार सा. की दृष्टिमें श्री पं० जयचन्द्रजी सकता तब धर्मकी देशनामें शुभभावोंको जिनशासनसे भी उन्हीं विशेषणोंके पात्र हैं जो पण्डितजीने इन्हीं शब्दोंके अलग कैसे किया जा सकता है और कैसे यह कहा जा सकता कारण श्रीकानजी स्वामीके लिये खुले दिवसे प्रयोग किये Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ५४२] अनेकान्त [वर्ष १३ हैं। यदि नहीं तो ऐसी भूलके लिए खेद प्रकट शीघ्र किया महान् प्राचार्योको "लौकिकजन" और "अन्यमती" बतला जाना चाहिए।" कर भारी अपराध किया है, जिसका उन्हें स्वयं प्रायश्चित्त करना चाहिए, उसका श्रीबोहराजीके उक्त प्रमाणसे कोई "हाँ यहाँ पर मैं इतना जरूर कहूंगा कि श्रीकानजी परिमार्जन नहीं होता-वह ज्योंका त्यों खड़ा रहता है। और स्वामी पर जो यह आरोप लगाया गया था कि उन्होंने अपने इसलिए उनका यह प्रमाण कोई प्रमाण नहीं, किन्तु प्रमाणाउक वाक्य-द्वारा जाने-अनजाने श्रीकुन्दकुन्दाचार्य, स्वामी भासकी कोटिमें स्थित है, जिससे कुछ भोले भाई ही उगाये समन्तभद्र, सिद्धसेन, अकलंकदेव और विद्यानन्दादि-जैसे जा सकते हैं। (क्रमशः) श्री पं० मुख्तार सा० से नम्र निवेदन (श्री हीराचन्द बोहरा बी० ए० विशारद अजमेर) अनेकान्त वर्ष १३ किरण १ (जुलाई ५४) में 'समय- -जैनधर्म या जिनशामनसे शुभभावोंको अलग नहीं सार की १५वीं गाथा और श्रीकानजी स्वामी' शीर्षक लेख किया जा सकता और न मुनियों तथा श्रावकोंके सरागचारिजो समाजके प्रसिद्ध साहित्य संवी एवं वयोवृद्ध विद्वान् श्री को ही उससे पृथक किया जा सकता है। ये सब उसके प० जुगलकिशोर जी सा. मुख्तार द्वारा लिखा गया है, उसके अंग हैं अंगोंसे हीन अंगी अधूरा या लंडुरा कहलाता है।' सम्बन्ध में मैं उनकी सेवामें उनके नम्र विचारार्थ अपने "शुभमें अटकनेसे डरनेकी भी कोई बात नहीं है। आदि द्वारा हृदयोद्गार उपस्थित करनेका साहस कर रहा हूँ। इसमें कोई यह सिद्ध करनेका प्रयत्न किया है कि शुभभाव जैनधर्म है। सन्देह नहीं कि श्रद्धय श्री मुख्तार सा० ने जैन साहित्यकी उपरोक लेख श्रीकानजी म्वामीके निम्न शब्दोंको लेकर अभूतपूर्व सेवा की है और इसीलिये उनके प्रति मेरे हृदयमें लिखा गया है-"कोई कोई लौकिक जन तथा अन्यमती भी पूर्ण आदर भाव है, लेकिन प्रस्तुत लेखमें जिस तर्कको कहते हैं कि पूजादिक तथा वन क्रिया सहित हो वह जैनधर्म लेकर श्री कानजी स्वामीके सम्बन्धमें जो कुछ लिखा गया है परन्तु ऐसा नहीं है । देखो, जो जोव पूजादिक शुभरागको है वह हृदयको खटक गया है। इसीलिए यहाँ मैं अपने धर्म मानते हैं उन्हें 'लौकिक जन' तथा अन्यमती' कहा है।' अल्प शास्त्रीय ज्ञानका आधार बनाते हुए अपनी भावनाओं- इसी प्रकरणको लेकर श्रीकानजी स्वामीके शब्दोंको को व्यक्त कर रहा हूं। श्राशा है, विद्वान् बन्धु एवं पाठक असंगत वस्तु स्थितिक विरुद्ध, अविचारित, वेतुकी वचनागण इस पर गंभीरता पूर्वक विचार करने को कृपा करेंगे और वलो बतलाते हुए उनके कृत्यको पृष्टतापूर्ण तथा दुस्साहस यदि मेरे अभिप्रायमें भागमष्टिसे विरोध पाता हो तो मुझे पर्ण ठहराया गया है तथा उनके द्वारा दिगम्बर जैनमन्दिरों सम्यक् मार्ग प्रदर्शित करनेकी कृपा करेंगे। ताकि मैं भी मूर्तियों के निर्माण, पूजा प्रतिष्ठादि विधानों में योग देनेके अपनो मान्यताकी भूल (यदि वास्तवमें भूल हो तो ) ठीक कृत्य में श्री मुख्तार सा.को मत विशेषके प्रचारकी भावना कर सकू। अथवा तमाशा दिखलानेको भावनाकी गंध पाई है, इसीलिए श्री मुख्तार सा० ने 'क्या शुभभाव धर्म नहीं ?' शीर्षक "उपसंहार और चेतावनी" शीर्षकमें अपनी उपरोक भावनाके अंतर्गत यह लिखा है कि "धर्म दो प्रकारका होता है, एक ओंको और भी स्पष्ट कर डाला है। समाचारपत्रोंमें इस वह जो शुभभावोंके द्वारा पुण्यका प्रसाधक है, और दूसरा प्रकारकी आशंकाओंके प्रकट किए जानेका मनोवैज्ञानिक रूपसे वह जो शुद्धभावोंके द्वारा अच्छे या बुरे किसी भी प्रकारके कितना विपरीत प्रभाव पड़ सकता है यदि हम पर गंभीरकर्मास्रवका कारण नहीं होता ।" आगे यह भी लिखा है कि तापूर्वक थोड़ा बहुत भी विचार किये जानेका कष्ट किया "पूजा तथा दानादिक धर्मके अंग है, वे मात्र अभ्युदय अथवा जाता तो सम्भवतः मुख्तार सा. सहश उच्च कोटिके विद्वान्पुण्यफलको फलनेकी वजहसे धर्मकी कोटिसे नहीं निकल को अपने पत्रमें ऐसी बातें लिखनेकी आवश्यकता नहीं होती, जाते। 'शुभभावोंका जैनधर्ममें निषेध नहीं किया गया है। इनकी परिमार्जित एवं अनुभवशील लेखनीसे इस प्रकार के Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ५] श्री मुख्तार सा.से नम्र निवेदन [ १४३ - - . लेखको पढ़ कर कमसे कम मेरे हृदयको तो काफी चोट पहुंची ६-यदि शुभमें अटके रहनेमें कोई हानि नहीं है तो है क्योंकि इन बातोंका असर व्यापक एवं गम्भीर हो सकता फिर शुद्धत्वके लिए पुरुषार्थ करनेकी आवश्यकता ही है। काश निष्पक्ष, मध्यस्थ, शान्त हृदयसे तथा दूरदर्शिता- क्या रह जाती है ? क्योंकि आपके लेखानुसार अब की दृष्टिसे इस पहलू पर विचार करनेका प्रयत्न किया जाता इनसे हानि नहीं तो जीव इन्हें छोड़नेका उद्यम ही तो कितना सुन्दर रहता ! अस्तु क्यों करे ? क्या आपके लिखनेका यह तात्पर्य नहीं हुवा __उपरोक लेखको पढ़कर मेरे हृदयमें जो शंकाए उठ खड़ी कि इसमें अटके रहनेसे कभी न कभी तो संसार परिहुई है, जिज्ञासुकी दृष्टिसे उनका समाधान करनेका श्री. भ्रमण रुक जावेगा? शुभ क्रिया करते २ मुकि मिल मुख्तार साहबसे मेरा नम्र निवेदन है। आशा है श्री मुख्तार जायेगी, ऐमा श्रापका अभिप्राय हो तो कृपया शास्त्रीय साहब अपने इसो पत्रमें इनका उत्तर प्रकाशित करनेकी कृपा प्रमाण द्वारा इसे और स्पष्ट कर देनेकी कृपा करें। करेंगे। -यदि पुण्य और धर्म एक ही वस्तु हैं तो शास्त्रकारोंने १-दान, पूजा, भक्रि शील, संयम, महाव्रत, अणुव्रत पुण्यको भिन्न संज्ञा क्यों दी? . आदिके परिणामोंसे कर्मोंका प्रास्रव बंध होता है या ८-यदि पुण्य भी धर्म है तो सम्यक्दृष्टि श्रद्धामें पुण्यको संवर निर्जरा? दंडवत क्यों मानता है ? -मोक्षमार्ग-अध्याय . २-यदि इन शुभभावोंसे कर्मोंकी मंवर निर्जरा होती है तो -यदि शुभभाव जैनधर्म है तो अन्यमती जो दान, पूजा, शुद्धभाव (वीतराग भाव) क्या कार्यकारी रहे ? यदि भकि आदिको धर्म मानकर उमीका उपदेश देते हैं, कार्यकारी नहीं तो उनका महत्व शास्त्रों में कैसे वर्णित हैं क्या वे भी जैनधर्मके समान हैं ? उनमें और जैनहुवा ? धर्म में क्या अन्तर रहा? -जिन शुभभावोंसे कर्मोका पास्त्रव होकर बंध होता है १०-धर्म दो प्रकारका है-ऐसा जो आपने लिखा है तो क्या उन्हीं शुभभावोंसे मुक्ति भी हो सकती है ? क्या उसका तात्पर्य तो यह हुआ कि यदि कोई जीव दोनों में एक ही परिणाम जो बंधके भी कारण हैं, वे ही मुनिका से किसी एकका भी आचरण करे तो वह मुक्तिका पात्र कारण भी हो सकते हैं। यदि ये परिणाम बंधके ही हो जाना चाहिए क्योंकि धर्मका लक्षण प्राचार्य समंतकारण है तो इन्हें धर्म (जो मुक्रिका देने वाला है) कैसे भदम्बामीने यही किया है कि जा उत्तम अविनाशी माना जाय ? सुखको प्राप्त करावे, वही धर्म है तो फिर द्रव्यलिंगी ४-उत्कृष्ट व्यलिंगी मुनि शुभोपयोगरूप उच्चतम निर्दोप मुनि मुनिका पात्र क्यों नहीं हुआ ? उसे मिथात्व क्रियाओंका परिपालन करते हुए भी (यहां तककि गुण स्थान ही कैस रहा ? आपके लेखानुसार तो उसे अनंतवार मुनिवन धारण करके भी) मिथान्व गुणा- मुक्निकी प्राप्ति हो जानी चाहिए थी। स्थानमें ही क्यों पड़ा रह जाता है ? श्रापके लेखानुसार १-धर्म मोक्षमार्ग है या संसारमार्ग ? यदि शुभभाव भी तो वह शुद्धत्वक निकट (मुक्रिके निकट) होना चाहिये। मोक्षमार्ग है तो क्या मोनमार्ग दो हैं। फिर शास्त्रकारोंने उसे असंयमी सम्यक्दृष्टिसे भी हीन आशा है श्री मुख्तार साहब शास्त्रीय प्रमाण देकर क्यों माना है ? उपरोक्त शंकाओंका समाधान करनेकी कृपा करेंगे ताकि मेरे ५-यदि शुभभावोंमें अटके रहनेमें डरनेकी कोई बात नहीं हो ममान यदि अन्यकी भी ऐसी मान्यता हो तो गलत है तो संसारी जीवको अभीतक मुक्ति क्यों नहीं मिली? मिद्ध होने पर वह सुधारी जा सके। अनादिकालसे जीवका परिभ्रमण क्यों हो रहा है? अष्टपाहुडजीका उद्धरण (श्री कुंदकंदाचार्य रचित) क्या वह अनादिकालसे केवल पापभाव हा करता पाया मेरी अब तक की थोड़ी बहुत स्वाध्यायमें निम्न प्रकरण है? यदि नहीं तो उसके भव भ्रमणमें पापके ही समान मेरे देखनेमें आए हैं और इनमें तथा श्री मुख्तार साहबने पुण्य भी कारण है या नहीं? यदि पुण्यभाव भी जो बातें लिखी हैं उनमें स्पष्ट विरोध है। बंध भाव होनेसे भव-भ्रमणमें कारण है तो उसमें भटके भावपाहुड-गाथा ८३-40 जयचंदजी भाषा वचनिका रहनेमें हानि हुई या खाम ? पूयादिसु..... शाहिस.......................... अप्पयो धम्मो सका Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ ] -अनेकान्त [ वर्षे १३ अर्थ :-जिन शासनविर्षे जिनेन्द्रदेव ऐसा कहा है या प्राचार्य श्री कुन्दकुन्दस्वामीने पुण्य और धर्मके भेदको इन गाथाओंमें अत्यन्त स्पष्टरूपसे व्यक्त किया है। श्री पं. जो पूजा भादिके विर्षे पर व्रतसहित होय सो तो पुण्य है। जयचन्दजीने स्वयं 'लौकिकजन तथा अन्यमती' शब्दोंका बहरि मोहके शोभकरिरहित जो आत्माका परिणाम है सो प्रयोग किया है और जो वाक्य श्रीकानजी स्वामीने लिखे हैं, वे उनके नहीं अपितु श्री पं० जयचन्दजीके हैं। तो क्या मावार्थ :-(प. जयचंदजी द्वारा) मुख्तार मा० की दृप्टिसे श्री पं० जयचन्दजी भी उन्हीं विशे"लौकिकजन तथा अन्यमती केई कहें हैं जो पूजा षणों पात्र हैं जी श्री पण्डितजीने इन्ही शब्र्दोके कारण श्री श्रादिक शुभक्रिया तिनिविषै अर व्रत क्रिया सहित है कानजी स्वामीके लिए खुले दिलसे प्रयोग किये हैं। यदि सो जिनधर्म हे सो ऐसा नांही है। जिनमतमें जिन नही तो जिन नहीं तो ऐसी भूलके लिए खेद प्रकट शीघ्र किया जाना भगवान ऐसा कहा है जो पूजादिक वि अर व्रत- बारा चाहिए। सहित होय सो तो पुण्य है-तह पूजा अर आदि शब्द श्री प्राचार्यकल्प ६० टोडरमलजीने मोक्षमार्ग प्रकाशक करि भति वंदना वैयावृत्य आदिक लेना यह तो देवगुरु शास्त्र ग्रन्थमें इसी विषयको अध्याय ७में स्थान-स्थान पर इतना के अर्थ होय है।बहरि उपवास श्रादिक व्रत है सो शुभक्रिया पलिया है कि प्रांताती स्पष्ट किया है कि शंकाको गुंजाइश ही नहीं रह जाती। है । इनि मैं आत्माका राग सहित शुभ परिणाम है निश्चयाभासी व्यवहाराभासी जैनोंके प्रकरणमें द्रव्यताकरि पुण्य-कर्म निपजै है ताते इनिपुण्य कहै हैं, हिंगोली प्रानव बंध. संवा. एय कह ह, लिंगीकी प्रास्त्रव, बंध, संवर, निर्जरा तथा मोक्ष तत्वकी याका फल स्वर्गादिक भोगकी प्राप्ति है। बहुरि मोहका भूल बतलाते हुए इन्होंने स्पष्ट लिखा है कि 'भनि तो रागक्षोभ रहित आत्माके परिणाम लेने तहाँ मिथ्यात्व तो रूप है-रागते बन्ध है, तात मातका कारण नाही' 'हिमाप्रतत्वार्थ श्रद्धान है बहुरि क्रोध-मान, अरति शोक भय, जुगुप्सा ये छह तो द्वेष प्रकृति है बहुरि माया, लोभ, हास्य, मानना' 'प्रशस्तराग बंधका कारण है-हेय है-श्रद्धानविर्षे रति पुरुष स्त्री नपुसक ये तीन विकार ऐसे ७प्रकृति रागरूप हैं. जोमसोमोना जो याको मोक्षमार्ग माने सो मिथ्यादृष्टि ही है।' 'संवरतत्व तिनिकै निमित्ततें आत्माका ज्ञान दर्शन स्वभाव विकार महित विप अहिंसादि विर्षे पुण्याश्रव भाव तिनको संघर जाने है सो शोभरूप चलाचल व्याकुल होय है यात इनिका विकारनित एक कारणते पुण्य बंध भी माने और संवर भी मान सो रहित होय तब शुद्ध दर्शन ज्ञान रूप निश्चल होय, सो बन नाही । आत्माका धर्म है । इस धर्मत आत्माकै अागामी कर्मका मुनीश्वक मिश्रभार्वोका वर्णन करते हुए लिखा हैतो श्रास्रवरूकि सवर होय ह और पूर्व बंधे कर्म तिनिकी "जे अंश वीतराग भए, तिनकरि संवर है हो–अर जे अश निर्जरा होय है-सम्पूर्ण निर्जरा होय तव मोक्ष होय है। सराम रहे तिनकरि पुण्यबन्ध है एक प्रशस्तराग ही ते पुण्यातथा एक देश मोहके होभकी हानि होय है। ताते शुभ स्रव भी मानना और संवर निर्जरा भी मानना सो भ्रम है। परिणाम कू भी उपचार करि धर्म कहिए है पर जे शुभ परि सम्यकदृष्टि अवशेष सरागताको हेय श्रद्ध है, मिथ्याष्टि णाम ही कू धर्म मानि सन्तुष्ट हैं तिनिकै धर्मकी प्राप्ति नाही सरागभाव विषै संवरका भ्रमकरि प्रशस्तरागरूप कर्मनिको है, यह जिनमत का उपदेश । उपादय श्रद्ध है।" गाथा ८४ में कहा है कि 'शुभ क्रियारूप पुण्य → इसी प्रकरणमें द्रन्य लिंगीकी तत्वोंको भूल बावत् धर्मजाणि याका श्रद्धान ज्ञान आचरण करै है ताकै पुण्यकर्म- लिखते हैं-'बहुरि वह हिंसादि सावद्यत्याग को चारित्र माने का बंध होय है-ताकरि कर्मका भय रूप संवर निर्जरा मोक्ष हैं तहां महावतादि रूप शुभयोगको उपादेयपनकरि ग्रहण न होय । माने है सो तत्त्वार्थसूत्रविर्षे प्रास्त्रव पदार्थका निरूपण करते गथा ८५-८६ में कहा गया है कि 'प्रात्माका स्वभाव- महाबत अणुव्रत भी प्रास्रव रूप कहे हैं, ए उपादेय कैसे रूप धर्म है सो ही मोक्षका कारण है । आत्मिक धर्म धारणा होय-अर प्रामवतो बन्धका साधक है-चारित्र मोक्षका बिना सर्व प्रकारका पुण्य आचरण करै तो भी संसार ही में साधक है-ताते महावतादि रूप मानव भावनिके चारित्र पनी संभवै नाही । सकल कषाय रहित जो उदासीन भाव Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ५ ] साहीका नाम चारित्र है जो चारित्रमोहने देशवासी सद कनके उदय महामन्द प्रशस्त ही है, सो चारित्रका मक है।' आगे लिखा है 'अशुभशुभ परिणाम बंधके कारण है-बीर शुद्ध परिणाम निर्जराके कारण है।' Hom निर्जरा तत्त्वकी भूल में लिखा है कि 'बहुत कहा इतना समझ लेना निश्चय धर्म तो वीतराग भाव है-सम्प नाना विशेष बाह्य साधन अपेक्षा उपचारले किए हैं- तिनकों व्यवहारमात्र धर्म संज्ञा माननी- इस रहस्यको न जाने वाले वानिका भी सांचा अज्ञान नहीं है। उसी प्रकणमें आगे है कि 'चारित्र है सो बीतराग भाव रूप है ता सगभावरूपसाधनको मोक्षमार्ग मानना मिथ्या बुद्धि है।' 'राम है सो चारित्रका स्वरूप नाहीं चारित्र विषै दोष है और भी कई स्थानों पर उलेख है अध्याय ७ से 'मोक्षमार्ग दो प्रकार है' ऐसी मान्यताको मिथ्या टहराते हुए लिखा है कि 'मोषमार्ग दो नही है मोक्षमार्गका निरूपण दो प्रकार है, सांचा निरूपण सो निश्चय और उपचार निरूपण मो व्यवहार — तातैं निरूपण अपेक्षा दो प्रकार मोक्षमार्ग जानना । ין श्री पं० मुख्तार सा० से नम्र निवेदन [ १४५ यत्न करे तो (योग) होय जाय बहुरि को दोपयोग ही को भला जानि ताका साधन किया करे तो शुद्धोपयोग कैसे होय ।" श्रध्याय ७ में उन्होंने स्पष्ट किया है—बहुरि व्रत नप श्रादि मोक्षमार्ग हैं नांही — निमित्तादिक की अपेक्षा उपचारने इनको मोक्षमार्ग कहिए है तानें इनको व्यवहार कह्या ।' 'बहुरि परद्रव्यका निमित्त मेटने की अपेक्षा बतशील संगमादिरुको मोमार्ग कला, सो इनहीकी मोदमार्ग न मानि सेना' 'निश्चयकरि वीरागभाव ही गोषमार्ग है। वीतरागभावनिके घर व्रतादिकके कदाचित् कार्यकारण पनो है श्री मुख्तार मा० का ध्यान में आत्मधर्म वर्ष ७ अंक ४ श्रावण २४७७ पृष्ठ १४१ में प्रकाशित श्रीकानजी स्वामी "पुण्य-पाप और धर्मके सम्बन्ध में श्रात्मार्थी जीवका विवेक कैमा होता है" शीर्षक लेखकी ओर दिखाना चाहता हूं जिससे उनकी तथा उन्हींके समान अन्य विद्वानों की धारणा उनके सम्बन्धमें ठीक-ठीक तौर पर हो सके । उद्धरण विकारका कार्य करने योग्य है ऐसा मानने याला जीव विकारको नहीं हटा सकता कोई जीव आत्माको एकान्त शुद्ध ही माने अज्ञानभावले विकार करे तथापि न माने तो विकारको नहीं हटा सकता । पुण्य बन्धन है इसलिए मोक्षमार्ग में उसका निषेध है- यह बात ठीक है; किंतु व्यवहारसे भी उसका निषेध करके पापमार्गमें प्रवृति करे तो वह पाप तो कालकूट विषके समान है; अकेले पापले तो नरक निगोडमें आयेगा। श्रद्धामें पुण्य-पाप दोनों हेय हैं. किन्तु वर्तमान में शुद्धभाव में न रह सके तो शुभमें युक्त होना चाहिये किन्तु अशुभ में तो जाना ही नहीं चाहिए पुण्यभाव जोड कर पापभाव करना तो किसी भी प्रकार ठीक नहीं है। और यदि कोई पुरवभावको ही धर्म मान ले तो उसे भी धर्म नहीं होता ।” इसी लेखमें श्रागे लिखा है कि “हे भाई! तू भी निर्विकल्प शुद्धभावको तो प्राप्त नहीं हुआ है और पुण्य भाव तुझे नहीं करना है तो तू क्या पापमें जाना चाहता है ?' 'इसलिये पुण्य पाप रहित आत्मा मान सहित वर्तमान योग्यता अनुसार सारा विवेक प्रथम समझना चाहिए । कोई शुभभावमें ही सन्तोष मानकर रुक जाये अथवा उससे धीरे-धीरे धर्म होगा—इस प्रकार पुण्यको धर्मका साधन माने तो उसके भी भव-चक्र कम न होंगे। धर्मका प्रारम्भ करनेकी इच्छा वालेको तीव्र आसक्ति तो कम करना हो चाहि किन्तु इससे तिर जाएगा। ऐसा माने वह भ्रम है। जीवको पापसे जुड़ा कर मात्र पुण्यमें नहीं लगा देना है किन्तु पाप और पुण्य इन दोनोंसे रहित धर्म- उन सबका स्वरूप जानना चाहिये ।" बादिको मोचमार्ग कहे, मो कहने मात्र ही हैं।' कि व्रतशील संयमादिका नाम व्यवहार नहीं इनको मोक्षमार्ग मानना व्यवहार है सो छोड़दे ।' श्रागे इसी प्रकरणमें लिखा है कि "बहुरि शुभउपयोगको बन्धका ही कारण जानना - मोक्षका कारण न जाननाजातैं बन्ध और मोक्षके तो प्रतिपक्षीपना है— तातें एक ही भाव पुण्यबन्धको भी कारण होय और मोक्षको भी कारण होय ऐसा मानना भ्रम है ।" "वस्तु विचारतें शुभोपयोग मोक्षका घातक ही है""योपयोगको ही उपादेय मानि ताका उपाय करना - जहां शुभापयोग न हो सके यहाँ शुमोपयोगको होड शुभ विप्रवर्तना ।" श्री कानजी स्वामी किसी भी प्रवचनमें "आत्मा एकान्ततः अबद्धस्पृष्ट है" हमारे तो सुनने अथवा उनके किसी आगे भी लिखा है कि “शुभोपयोग भये. शुद्धोपयोगका साहित्यमें कहीं भी देखनेमें नहीं आया। यदि श्री मुख्तार Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ । भनेकान्त वर्ष १३ D साके देखने में पाया हो तो क्रपया हमें भी बतलाने की सैद्धान्तिक मतभेद नहीं है? कृपा करें। श्री कानजी स्वामीका प्रवचन द्रव्यदृष्टि प्रधान एवम् श्री मुख्तार सा० ने उपसंहारमें एक ऐसा वाक्य लिखा अधिकारतः शुद्ध निश्चयनयको लिये हुए होनेके कारण उसमें है कि जिसे पढ़ कर मैं एकदम स्तब्ध रह गया। लिखा है- कभी-कभी एकान्तकी सी गन्ध भले ही झलकने लगती "यह चौथा सम्प्रदाय किसी समय पिछले तीनों सम्प्रदायों हो, क्योंकि लगभग सभी प्रवचनोंमें निश्चयनयकी मुख्यता(श्वे० दि० तथा स्थानकवासी) का हित शत्रु बनकर भारी को जिये हुए विवेचन होता है। लेकिन वहाँसे अब तक संघर्ष उत्पन्न करेगा और जैनसमाजको वह हानि पहुंचाएगा जो सिद्धान्त प्रन्थ प्रकाशित हुए है (समयसार-प्रवचनसारजो अब तक तीनों सम्प्रदायके संघर्षों द्वारा नहीं पहुंच सकी नियमसार-अप्टपाहुड जो आदि २) उसमें कहीं भी एकांत है क्योंकि तीनों सम्प्रदायोंकी प्रायः कुछ ऊपरी बातों में निरपेक्ष विवेचन हमारे देखने में तो नहीं पाया। अन्यधर्ममें ही संघर्ष है भीतरी सिद्धान्तकी बातों में नहीं।" भी कई बार पाप पुण्य व धर्मके अन्तरको स्पष्ट करते हुए कितने पाश्चर्यकी बात है कि जिन श्वे. तथा स्थानक- उन्होंने पुण्यको पापसे अच्छा बतलाते हुए यही लिखा है कि वासी सम्प्रदायके भागममें देवगुरु धर्म (रत्नमय) का स्वरूप बन्ध तत्वकी अपेक्षा दोनों समान होते हुए भी पाप भावसे ही अन्यथा वर्णित है और जिसका श्री टोडरमलजी सहश तो पुण्य भाव अच्छा ही है। इस पर भी यदि हमारी महान विद्वानने जोरदार शब्दों में लगभग ३२ पृष्ठोंमें खंडन समाजके विद्वानोंको उनके किसी भी प्रवचन तथा लेखमें किया है उसीके लिये यह लिखना कि तीनों सम्प्रदायोंमें एकान्तकी गन्ध पाती हो तो उन्हें इस विषयमें अवश्य प्रायः कुछ ऊपरी बातोंमें ही संघर्ष है-वस्तुस्थितिसे कितना लिखा जाय-लेकिन इस ढंगसे कदापि नहीं जैसा कि विपरीत है। यह पाठकगण विचार करें । जहाँ देवगुरु धर्म उपरोक्त लेखमें अपनाया गया है। व रत्नत्रयका स्वरूप ही अन्यथा हो वहाँ मूलमें ही भेदरहा इस लेखमें मुझसे यदि कोई त्रुटि रह गई हो तो में या उपरी बातोंमें ? क्या यह भेद नगण्य है क्या यह भारी क्षमा चाहता हूँ। हकीम श्रीकन्हैयालालजीका वियोग! आपका प्रमुख हाथ रहा आपका प्रमुख हाथ रहा है और उसके लिए उन्होंने कभी कष्टोंकी परवाह नहीं की। अनेक बार जेल यात्रा स्वयं की, हकीम श्री कन्हैयालालजी वैद्यराज कानपुरसे जैनसमाज और आपकी धर्म-पत्नी भी उससे अछूती नहीं रहीं। इस भलीभांति परिचित है। कानपुरक लोकप्रिय धाामक व्याक्त तरह समाज और देश-सेवामें श्रापका प्रमुख हाथ रहा है। थे। उन्होंने सबसे प्रथम दिगम्बर जैन समाजमें छात्रोंको कुछ वर्ष हुए जब आप कार्यवश सरसावा पधारे थे, तब आयुर्वेदकी परीक्षाओं में उत्तीर्ण कराकर अनेकों वैद्य बनाए आपने अपनी यह इच्छा व्यक्त की थी कि पंडित हरपाल कृत हैं। भाई सुन्दरलाल जो श्रादि उनके पुत्रोंके पत्रसे यह जान प्राकृत वैद्यक ग्रंथका हिन्दी अनुवादके साथ सम्पादन करनेका कर अत्यन्त खेद व दुःख हुआ कि उनका गत ५ नवम्बरको मेरा विचार है, और उसकी दो तीन गाथाओंका अर्थ भी स्वर्गवास हो गया है। उन्होंने मुझे सुनाया था, पर वे प्राकृत भाषासे विज्ञ वैद्यजी ख्यातिप्राप्त और अपने कार्य में निष्णात वेध नहीं थे। मैंने उन्हें उन गाथाओंका जब शुद्ध रूप बतलाया थे। उन्होंने स्वयं ही अपनी योग्यता और अध्यवसायसे तब उन्हें बबी प्रसखता हुई हुई, और १०-१५ दिन सरसावा अर्थोपार्जन किया। आपका 'चाँद औषधालय' कानपुरमें ठहरकर उस ग्रंथको सांगोपांग बनाने की इच्छा प्रकट की। प्रसिद्ध औषधालय है जिसमें उच्च कोटिका आयुर्वेदिक पर अन्य कार्यों में फंसे रहनेके कारण वे अपनी उस इच्छाको औषधियोंका निर्माण होता है । वैद्यजी बने ही सहृदय और पूरा नहीं कर सके। परोपकारी थे।, उनमें धर्मवत्सलता और स्नेह पर्याप्त मात्रामें विद्यमान था । आयुर्वेदमें उनकी अच्छी गति थी। भापके आपके निधनसे एक अनुभवी समाज-सेवी ब्यक्तिकी द्वारा शिषित अनेक वैद्य आज भी सफलता के साथ चिकि- कमी हो गई है हमारी भावना है कि दिवंगत प्रात्मा परलोक साका कार्य संचालन कर रहे हैं। पापको शिक्षाले विशेष में शुख-शान्ति प्राप्त करे, और पारिवारिक सज्जनोंको हार प्रेम था, यही कारण है कि मापने पुत्र-पुत्रियोंको उच्च वियोग जन्म दुःखको सहने की समता प्राप्त हो । शिक्षाले सम्पन किया है। देशके स्वतन्त्रता आन्दोलनमें भी -परमानन्द जैन Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीरसेवामन्दिरके सुरुचिपूर्ण प्रकाशन णापूर्ण कला, मटीक, सामन (१) पुरातन-जैनवाक्य-मृची-प्राकृतके प्राचीन ६४ मूल-ग्रन्थाको पद्यानुक्रमणी, जिसके साथ ४८ टीकादिग्रन्थोंमे उद्धन दृमरे पद्योंकी भी अनुक्रमणी लगी हुई है । सब मिलाकर २५३५३ पद्य-चाक्योकी सूची । संयोजक और सम्पादक मुख्तार श्रीजुगलकिशोरजी की गवेषणापूर्ण महत्वकी ७० पृष्ठको प्रस्तावनामे अलंकृत, दा० कालीदाम्प नागर एम. ए, डा. लिट् के प्राक्कथन (Foreword) और डा. ए. एन. उपाध्याय एम. ए. डी. लिट की भूमिका (Inuoruction) मे भूषित है, शोध-वांजके विद्वानों के लिये अतीव उपयोगी, बड़ा माइज, मजल्द ( जिसकी प्रस्तावनादिका मूल्य अलग पाच स्पर्य है) (२) आप्त-परीक्षा-श्रीविद्यानन्दाचार्यकी स्वांपज्ञ मटीक अपूर्वकृति प्राप्ताको परीक्षा द्वारा ईश्वर-विषयके मुन्दर मरस और मजीव विवेचनका लिए हुए, न्यायाचार्य पं० दरबारोलाल जी के हिन्दी अनुवाद तथा प्रस्तावनादिसे युक्त, सजिल्द। ... (३) न्यायदीपिका-न्याय-विद्याकी सुन्दर पोथी, न्यायाचार्य पं० दरबारीलालजीके संस्कृतटिप्पण, हिन्दी अनुवाद, विस्तृत प्रस्तावना और अनेक उपयोगी परिशिष्टांसे अलंकृत, सजिल्द । ... १४) स्वयम्भूम्तात्र-ममन्तभद्रभारतीका अपूर्व ग्रन्थ, मुग्य्तार श्रीजुगलकिशोरजीके विशिष्ट हिन्दी अनुवाद छन्दपार चय, समन्तभद्र-परिचय और भक्तियांग, ज्ञानयोग तथा कर्मयांगका विश्लेषण करती हुई महत्वकी गवेषणापूर्ण १०६ पृष्ठकी प्रस्तावनाम सुशोभिा। .. (५) स्तुतिविद्या-स्वामी समन्तभद्रकी अनोग्बी कृति, पापांके जीतनेकी कला, सटीक, मानुवाद और श्रीजुगलकिशार __मुख्तारकी महत्वकी प्रस्तावनादिस अलंकृत सुन्दर जिल्द-महित। (६) अध्यात्मकमलमार्तण्ड-पंचाध्यायीकार कवि राजमल्लकी सुन्दर आध्यात्मिक रचना, हिन्दीअनुवाद-सहित और मुख्तार श्रीजुगलकिशोरकी खोजपूर्ण ७८ पृष्ठको विस्तृत प्रस्तावनासे भूषित। (७) युक्त्यनुशासन-तत्त्वज्ञानस परिपूर्ण ममन्तभद्रकी असाधारण कृति, जिसका अभी तक हिम्दी अनुवाद नहीं हुआ था । मुख्तारश्रीके विशिष्ट हिन्दी अनुवाद और प्रस्तावनादिसे अलंकृत, सजिल्द। ... १) (८) श्रीपुरपाश्वनाथस्तोत्र-प्राचार्य विद्यानन्दरचित, महत्त्वकी स्तुति, हिन्दी अनुवादादि सहित। ... ॥) (E) शासनचस्त्रिशिका-(तीर्थपरिचय)-मुनि मदनकीतिकी १३ वीं शताब्दीको सुन्दर रचना, हिन्दी ___ अनुवादादि सहित । (१०) सत्साध-स्मरण-मंगलपाठ-श्रीवीर बर्द्धमान और उनके बाद के २१ महान श्राचार्यों के १३७ पुण्य -म्मरणांका महत्वपूर्ण संग्रह, मुख्तारश्रीक हिन्दी अनुवादादि-सहित । (११) विवाह-ममुहश्य - मुख्तारश्रीका लिम्बा हुआ विवाहका मप्रमाण मार्मिक और नाविक विवेचन ... ) (१२) अनेकान्त-रस-लहरी-अनेकान्त जेस गूढ गम्भीर विषयको अवनी मरलतास समझने-समझानेकी कुजी, मुख्तार श्रीजुगलकिशोर-लिग्वित । (१३) अनित्यभावना-प्रा. पद्मनन्दो की महत्वकी रचना, मुख्तार श्रीक हिन्दी पद्यानुवाद और भावार्थ सहित ) (१४) तत्त्वार्थसूत्र-(प्रभाचन्द्रीय )-मुख्तारश्रीके हिन्दी अनुवाद तथा व्याख्याम युक्त । (१५) श्रवणबेल्गाल और दक्षिणक अन्य जैनतोथ क्षेत्र-ला. राजकृष्ण जैनको मुन्दर मचित्र रचना भारतीय पुरातत्व विभाग डिप्टी डायरेक्टर जनरल डाल्टी०एन० रामचन्द्रनकी महत्व पूर्ण प्रस्तावनासे अलंकृत १) नोट-ये सब ग्रन्थ एकसाथ लेनेवालोको ३८॥) की जगह ३०) में मिलेंगे। व्यवस्थापक 'वीरसेवामन्दिर-ग्रन्थमाला' वीरसेवामन्दिर, १ दरियागंज, देहली Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Regd. No. D. 211 ___ अनेकान्तके संरक्षक और सहायक संरक्षक १०१) बा० शान्तिनाथजी कलकत्ता १५००) वा० नन्दलालजी सरावगी, कलकत्ता १०१) बा. निर्मलकुमारजी कलकत्ता २५१) बा० छोटेनालजी जैन सरावगी , १०१) बा० मोतीलाल मक्खनलालजी, कलकत्ता २५१) बा. सोहनलालजी जैन लमेचू , १०१) बा० बद्रीप्रसादजी सरावगी, २५१) ला० गुलजारीमल ऋषभदासजी , १०१) बा० काशीनाथ जी, ५१) बा० ऋषभचन्द (B.R.C. जैन , १०१) बा० गोपीचन्द रूपचन्दजी २५१) बा० दीनानाथजी सरावगी। १.१) बा० धनंजयकुमारजी २५१) बा. रतनलालजी झांझरी १०१) बाजीतमल जी जैन २५१) बा० बल्देवदासजी जैन सरावगी , १०१) बा० चिरंजीलालजी सरावगी ५१) सेठ गजराजजी गंगवाल १०१) बा० रतनलाल चांदमलजी जैन, राँची ) सेठ सुआलालजी जैन १०१)ला. महावीरप्रसादजी ठेकेदार, देहली ) बा. मिश्रीलाल धर्मचन्दजी १०१) ला० रतनलालजी मादीपुरिया, देहली ) सेठ मांगीलालजी १०१) श्री फतेहपुर जैन ममाज, कलकत्ता ५१) सेठ शान्तिप्रसादजी जैन १०१) गुप्तसहायक, सदर बाजार, मेरठ २५१) बा० विशनदयाल रामजीवनजी, पुरलिया १०१) श्री शीलमालादेवी धर्मपत्नी डा०श्रीचन्द्रजी, पटा * २५१) ला० कपूरचन्द धूपचन्दजी जैन, कानपुर १०१) ला० मक्खनलाल मोतीलालजी ठेकेदार, देहली ! २५१) बा० जिनेन्द्रकिशोरजी जैन जौहरी, देहली १०१) बा० फूलचन्द रतनलालजी जैन, कलकत्ता २५१) ला० राजकृष्ण प्रेमचन्दजी जैन, देहली १०१) बा० सुरेन्द्रनाथ नरेन्द्रनाथजी जैन, कलकत्ता २५१) बा० मनोहरलाल नन्हेंमलजी, देहली १०१) बा० वंशीधर जुगलकिशोरजी जैन, कलकत्ता २५१) ला० त्रिलोकचन्दजी, सहारनपुर १०१) बा० बद्रीदास आत्मारामजी मरावगो, पटना २५१) सेठ छदामीलालजी जैन, फीरोजाबाद १०१) ला० उदयराम जिनेश्वरदासजी सहारनपुर २५१) ला० रघुवीरसिंहजी, जैनावाच कम्पनी, देहली १०१) बा० महावीरप्रसादजी एडवोकट, हिसार ०५१) रायबहादुर सेठ हरखचन्दजी जैन, रांची १०१) ला० बलवन्तसिंहजी, हांसी जि. हिसार ५१) सेठ वधीचन्दजी गंगवाल, जयपुर १८१) सेठ जोखीरामबैजनाथ सरावगी, कलकत्ता १०१. बाबू जिनेन्द्रकुमार जैन, सहारनपुर सहायक १०१) वैद्यराज कन्हैयालालजी चाँद औषधालय,कानपुर १०१) बा. राजेन्द्रकुमारजी जैन, न्यू देहली १०१) ला० प्रकाशचन्द व शीलचन्दजी जौहरी, देहली १०१) ला० परसादीलाल भगवानदासजी पाटनी, देहली । १०१) ला• रतनलाल जो कालका वाले, देहली १०१) बा लालचन्दजी बो० सेठी, उज्जैन *१०१) बा० घनश्यामदास बनारसीदासजी, कलकत्ता अधिष्ठाता 'वीर-सेवामन्दिर ॐ१०१) बा० लालचन्दजी जैन सरावगी , सरसावा, जि. सहारनपुर ४. ४४ मायक-परमानन्दजी म पास्त्री, दरियागंज रेहली। मुहक-प-वाणी प्रिटिंग हाउस २३, दरियागंज, देखी Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Raकान्त सितम्बर १९५४ सम्पादक-मण्डल जुगलकिशोर मुख्तार छोटेलाल जैन जयभगवान जैन एडवोकेट परमानन्द शास्त्री अनेकान्त वर्ष १३ ॥ महामना पूज्य वर्णी जी भारत के ही अहिंसक सन्त नहीं हैं किन्तु वे दुनियाके आध्यात्मिक योगी हैं। वे शुल्लक पदमें स्थित होते हुए भी भाव मुनि हैं। आपने ८१वें वर्ष में प्रवेश किया है, यापकी जयन्ती ता० १६ सितम्बर १९५४ को समारोहके साथ ईसरीमें मनाई गई । इस अवसर पर अनेकान्त परिवार अपनी श्रदांजलि सादर समर्पित करता हुधा आपके शतवर्ष जोवी होनेकी कामना करता है। किरण ३ . Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची , समन्तभप्रभारती-देवागम-[ युगवीर ६५ . मौजमाबाद के जैन शस्त्र भण्डारमें उल्लेखनीय ग्रन्थ २ भगवान ऋषभदेवके अमर स्मारक [परमानन्द शास्त्री ८. _ [५० हीरालाल सिद्धान्त शास्त्री ६७ ८ श्रमण संस्कृति में नारी३ दिल्ली और योगिनीपुर नामोंकी प्राचीनता परमान्द शास्त्री [अगरचन्द नाहटा ७२ श्रामहितको बारें-लक मिद्धिमागर ८९ ४ निरतिवादी समता-सत्यभक - ७१ १० अहिंसा तत्व-[ परमानन्द शास्त्री ५ काक-पिक-परीक्षा-पं० हीरालाल सिद्धान्तशास्त्री ७८ ११ श्रद्धांजलि (कविता)-विनम्र ६ विश्वकी प्रशान्तिको दूर करनेके उपाय १२ राजस्थानमें दासी प्रथा परमानन्द जैन [परमानन्द जैन १ १३ साहित्य परिचय और समालोचन परमानन्द जैन २६ अनेकान्तके ग्राहकोंको भारी लाभ अनेकान्तके पाठकोंके लाभार्थ हाल में यह योजना की गई हैं कि इस पत्रके जो भी ग्राहक, चाहे वे नये हो या पुराने, पत्रका वार्षिक चन्दा ६) रु. निम्न पते पर मनोआर्डरसे पेशगी भेजेंगे वे १०) रु० मूल्यके नीचे लिखे ६ उपयोगी प्रन्थों को या उनमेंसे चाहे जिनको, वीरसेवामन्दिरसे अर्ध मूल्यमें प्राप्त कर सकेंगे और इस तरह 'अनेकान्त' मामिक उन्हें १) रु० मूल्यमें ही वर्ष भर तक पढ़ने को मिल सकेगा। यह रियायत सितम्बरके अन्त तक रहेगी अतः प्राहकोंको शीघ्र ही इस योजनासे लाभ उठाना चाहिये। ग्रन्थोंका परिचय इस प्रकार है:१. रत्नकरण्डश्रावकाचारसटीक -पं० सदासुखजीकी प्रसिद्ध हिन्दीटीकासे युक्त, बड़ा साइज, मोटा टाइप, पृ० ४२४, सजिल्द मूल्य ... २. स्तुविविद्या-स्वामी समन्तभद्र की अनोखी कृति, पापोंको जीतनेकी कला, सटीक, हिन्दी । टीकासे युक्त और मुख्तार श्रीजुगलकिशोरजी महत्वकी प्रस्तावनासे अलंकृत, पृ. २०० सजिल्द ॥) ३. अध्यात्मकमलमाताएड-पंचाध्यायीके कर्ता कविराजमल्लकी सुन्दर आध्यात्मिक रचना, हिन्दी अनुवाद सहित और मुख्तार श्री जुगलकिशोर की खोजपूर्ण पृष्ठ की प्रस्तावनासे भूषित, पृष्ठ २००, ... ४. भवणबेल्गोल और दक्षिणके अन्य जैनतीर्थ-जैनतीर्थोका सुन्दर परिचय अनेक चित्रों सहित पृष्ठ १२० ... ... ... ... १) ५. श्रीपुरेपार्वरनाथस्तोत्र-प्राचार्य विद्यानन्दकी तत्वज्ञानपूर्ण सुन्दर रचना, हिन्दी अनुवादादि ___ सहित, पृष्ठ १२५ ... ... ... ... ) ६. अनेकान्त रस-लहरी-अनेकान्त जैसे गूदगम्भीर विषयको अतीव सरलतासे समझनेसमझाने की कुखी " , " ) बीरसेवामन्दिर, १ दरियागंज देहली Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहमः विश्वतत्व-प्रकाशक वार्षिक मूल्य ६) एक किरण क नीतिक्रोिषवसीलोकव्यवहारवर्तकः सम्यक् । परमागमस्यबीज भुवनेकगुरुर्जयत्यनेकान्त सितम्बर वर्ष १३ वीरसेवामन्दिर, दरियागंज, देहली किरण ३ आश्विन वीर नि० संवत २४८०, वि. संवत २०११ १६५४ समन्तभद्र-भारती ढेवागम अभावकान्त-पक्षेऽपि भावाऽपह्नव-वादिनाम् । विरोधान्नोभयेकात्म्यं स्याद्वाद-न्याय-विद्विषाम् । बोध-वाक्यं प्रमाणं न केन साधन-दूपणम ॥ १२॥ अवाच्यतैकान्तेऽप्युक्ति नर्नाऽवाच्यमिति युज्यते ॥१३॥ 'यदि अभावकान्तपक्षको स्वीकार किया जाय-यह (भावैकान्त और प्रभाकान्त दोनोंकी अजग-अलग माना जाय कि सभी पदार्थ सर्वथा असत्-रूप है-तो मान्यतामें दोष देखकर) यदि भाव और अभाव इस प्रकार भावोंका सर्वथा अभाव कहने वालोंके यहाँ दोनोंका एकात्म्य (एकान्त ) माना जाय, तो स्याद्वाद(मतमें) बोध (ज्ञान) और वाक्य (भागम) दोनोंका न्यायके विद्वेषियोंके यहा-उन खोग के मतमें जो ही अस्तित्व नहीं बनता और दोनोंका अस्तित्व न अस्तित्व-नास्तिस्वादि सपतिपत धर्मों में पारस्परिक अपेक्षा बननेसे (स्वार्थानुमान, परार्यानुमान भादिके रूपमें) को न मानकर उन्हें स्वतन्त्र धर्मों के रूप में स्वीकार करते कोई प्रमाण भी नहीं बनता; तब किसके द्वारा अपने है और इस तरह स्थावाद-नीतिके शत्रु बने हुए है-वह अभावकान्त पक्षका माधन किया जा सकता और एकात्म्य नहीं बनता; क्योंकि उससे विरोध दोष आता दूसरे भाववादियों के पक्षमें दूषण दिया जा सकता है-भावैकान्त अभावैकान्तका और प्रभावकान्त भाषैहै?-स्वपक्ष-साधन और पर पक्ष-दूषण दोनों ही घटित कान्तका सर्वथा विरोधी होमेसे दोनोंमें एकात्मता घटित न होनेसे प्रभावकान्तपक्ष-वादियोंके पचकी कोई नहीं हो सकती।' सिद्धि अथवा प्रतिष्ठा नहीं बनती और वह सदोष ठहरता (भाव, प्रभाव और उभय तीनों एकान्तोंकी है। फलतः प्रभावकाम्तपरके प्रतिपादक सर्वज्ञ एवं महान् मान्यतामें दोष देख कर ) यदि अवाच्यता (प्रवक्तव्य) नहीं हो सकते। एकान्तको माना जाय-यह कहा जाय कि बस्तुतस्व Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - ६६] अनेकान्त । वर्ष १३ सर्वथा अवाश्य (निर्वचनीय या अवतव्य)है तो स्वरूपकी तरह यदि पररूपसे भी किमीको सत् मामा वस्तुतत्त्व 'अवाच्य' है ऐसा कहना भी नहीं बनता- जाय तो चेतनादिके अचेतनत्वादिका प्रसंग पाता है। और इस कहनेसे ही वह 'वाच्य हो जाता है, अवाच्य' नहीं पररूपकी तरह यदि स्वरूपसे भी असत् माना जाय, तो रहता; क्योंकि सर्वथा प्रवाश्यकी मान्यतामें कोई बचन- सर्वथा शून्यताकी आपत्ति खड़ी होती है। अथवा जिम व्यवहार घटित ही नहीं हो सकता।' रूपसे सत्व है उसी रूपसे असरवको और जिम रूपसे कथञ्चित्ते सदेवेष्टं कथञ्चिदसदेव तत् । असत्त्व है उसी रूपसे सत्वको माना जाय, तो कुछ भी तथोभयमवाच्यं च नय-योगान सर्वथा ॥ १४॥ घटित नहीं होता। अतः अन्यथा मानने में तत्त्व या वस्तुकी (स्याहाद-न्यायके नायक हे वीर मगवन् !) आपके कोई व्यवस्था बनती ही नहीं, यह भारी दोष उपस्थित शासनमें वह वस्तुतत्त्व कथबित् (किमी प्रकारसे होता है।' सत्-रूप ही है, कथञ्चित् असत्-रूप हो है, कश्चित् क्रमार्पित-द्वयाद् द्वैतं सहाऽवाच्यमशक्तितः। उभयरूप ही है, कश्चित् श्रवक्तव्यरूप ही है। प्रवक्तव्योत्तराः शेषास्त्रयो भङ्गाः स्वहेतुतः ।। १६ ॥ (सकारसे) कश्चित् सत् और अवक्तव्यरूप ही है; 'वस्तुतत्त्व कश्चिन क्रम-विवक्षित स्व-पर-चतुष्टयकश्चित् असत् और.अवक्तव्य रूप ही है, क्यश्चित् पाश्चत् की अपेक्षा द्वैत (उभय रूप-सदमदुरूप अथवा सदसत् और अवक्तव्यरूप ही है; और यह सब अस्तित्व-नास्तिस्वरूप-है और कश्चित युगपत् नयोंके योगसे है-वक्ताके अभिप्राय-विशेषको लिए हुए विवक्षित स्व-पर-चतुष्टयकी अपेक्षा कथनमें वचनकी जो समभंगात्मक नय-विकल्प हैं उनकी विषक्षा अथवा प्रशक्ति-असमर्थताके कारण अवक्तव्यरूप है। (इन इटिसे है-सर्वथा रूपसे नहीं-नयष्टिको छोष कर चारोंके अतिरिक्त) सत्. असत् और उभयके उत्तर में सर्वथारूपमें अथवा सर्वप्रकारसे एकरूपमे कोई भी अवक्तव्यको लिए हए जो शेष तीन भंग-सदवतन्य, वस्तुतत्व व्यवस्थित नहीं होता। असदवतव्य और उभयावक्तव्य-हैं वे (भी) अपने सदेव सर्व को नेच्छेत्स्वरूपादि-चतुष्टयात् । अपने हेतुसे कथञ्चित् रूपमें सुटित है- अर्थात् असदेव विपर्यासान्न चेन्न व्यवतिष्ठते । १५ ॥ वस्तुतस्त्र यद्यपि स्वरूपादि चतुष्टयकी अपेक्षा कञ्चत् (हे वीर जिन!) ऐसा कौन है जो सबको- अमितरूप है तथापि युगपत् स्व-पर-चतुष्टयकी अपेक्षा चेतन-पचेतनको, द्रव्य-पर्यायादिको, भ्रान्त-अभ्रान्तको कहा न जा सकनेके कारण अवकन्यरूप भी है और अथवा स्वयंके लिए इष्ट अनिष्टको-स्वरूपादिचतुष्टयकी इसलिए स्यादरत्यवक्तम्यरूप है इसी तरह म्याशास्स्यदृष्टिसे-स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, म्बकाल और स्वभावकी वक्तब्य और म्यादस्ति-नास्ति-प्रवक्तव्य इन दा भंगांकी अपेक्षासे-सत् रूप ही, और पररूपादिचतुष्टयकी भी जानना चाहिए।' दृष्टिसे-परद्रव्य, परक्षेत्र, परकास और परभावकी अपेक्षासे-असत् रूप ही अंगीकार न करे ? -कोई अस्तित्वं प्रतिपेध्ये नाऽविनाभाव्येक-धर्मािण । भी लौकिकजन, परीक्षक, स्थावादी.सर्वथा एकान्तवादी विशेषणत्वात्साधर्म्य यथा भेद-विवक्षया ।। १७ ।। अथवा सचेतन प्राणी ऐसा नहीं है, जो प्रतीतिका लंप एक धर्मी में अस्तित्वधर्म नास्तित्वधर्मके साथ करने में समर्थ न होनेके कारण इस बावको न मानता हो। अविनाभावी है-मास्तिस्वधर्मके विना अस्तित्व नहीं यदि (स्वयं प्रतीत करता हुमा भी कुनयके वध विपरीन- बनता-क्योंकि वह विशेषण है-जो विशेषण होता है बुद्धि अथवा दुराग्रहको प्राप्त हुमा) कोई ऐसा नहीं वह अपने प्रतिषेध्य (प्रतिपक्ष धर्म) के साथ अविनाभावी मानता है तो वह (अपने किसी भी इष्ट तत्वमें) होता है-जैसे कि (हेतु-प्रयोगमे) साधर्म (अन्वयव्यवतिष्ठित अथवा व्यवस्थित नहीं होता है-उसकी हेतु) भेद-विवक्षा (वैधयं अथवा व्यतिरेक-हेतु) के कोई भी तत्वव्यवस्था नहीं बनती। क्योंकि स्वरूपके साथ अविनाभाव सम्बन्धको लिए रहता है । व्यतिरेक ग्रहण और पररूपके त्यागकी व्यवस्थासे ही वस्तुमें (वैधयं) के बिना अन्वय (साधम्य) और मन्वयके वस्तुत्वकी व्यवस्था सुटित होती है, अन्यथा नहीं। बिना व्यतिरेक पारित नहीं होता। Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान् ऋषमदेवके अमर स्मारक (पं० हीरालाल जैन, सिद्धान्तशास्त्री ) जैन मान्यताके अनसार भर ऋषभदेव इस युगके ऋषभदेवके भरत । भरत अपने सौ भाइयों में सबसे आदि तीर्थकर थे। उन्होंने ही यहाँ पर सर्वप्रथम ज्येष्ठ थे। ऋषभदेवने हिमालयके दक्षिणका क्षेत्र लोगोंको जीवन-निर्वाहका मार्ग बतलाया. उन्होंने ही भरत के लिये दिया और इस कारण उस महात्माके स्वयं दीक्षित होकर साध-मार्गका आदर्श उपस्थित नामस इस क्षेत्रका नाम 'भारतवर्ष' पड़ा। किया और केवलज्ञान प्राप्त कर उन्होंने ही सर्वप्रथम यही वात विष्णुपुराण में भी कही गई है:मंसारको धर्मका उपदेश दिया । भ० ऋषभदेवने नामेः पुत्रश्च ऋषमः ऋषमाद् भरतोऽभवत् । लिपिविद्या और अंकविद्याका लिखना-पढ़ना सिम्ब- तस्य नाम्ना विदं वर्ष मारतं चेति कीयते ॥५७॥ लाया, ग्राम-नगरादिको रचना की और लोगोंको विभिन्न -(विष्णुपुराण, द्वितीयांश अ. १) प्रकारकी शिक्षा देकर वाँकी स्थापना की। इस प्रकार उपयुक्त उल्लेखोंसे जहां भरतके नामसे आज भारत में जो प्राचीन संस्कृति पाई जाती है, इस क्षेत्रका नाम भारतवर्ष' सिद्ध होता है, वहां उसके मूलकी छानबीन करने पर पता चलता है कि भरतके पिता होने के कारण भ. ऋषभदेवकी ऐतिहाउम पर भ. ऋपमदेवके द्वारा प्रचलित व्यवस्थाओं सिकता और प्राचीनता भी स्वतः सिद्ध हो जाती है। की कितनी ही अमिट छाप आज भी स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है और अक्षय तृतीया, अक्षयवट तथा इक्ष्वाकुवंशशिवरात्रि जैसे पर्व तो आज भी भगवानके अन्तिम ___ 'जैन मान्यताके अनुसार भ० ऋषभदेवके जन्मसे तीनों कल्याणोंके यमर स्मारकके रूपमें उनके ऐतिहा पूर्व यहां पर भोगभूमि थी और यहांके निवासी कल्पसिक महापुरुष होनेका स्वयं उद्घोष कर रहे हैं । इस वृक्षोंसे प्रदत्त भोग-उपभोगकी सामग्रीसे अपना जीवन निर्वाह करते थे। जब ऋषभदेवका जन्म हुआ, तब लेखमें संक्षेपरूपसे भ. ऋषभदेवके इन्हीं अमर वह व्यवस्था समाप्त हो रही थी और कर्मभूमिकी स्माकों पर प्रकाश डाला जायगा। रचना प्रारम्भ हो रही थी। भोगभूमिक समाप्त होते भारतवर्ष ही कल्पवृक्ष लुप्त हो गये और यहांक निवासी भूखभ० ऋषभदेवके ज्येष्ठ पुत्र आदि चक्रवती सम्राद प्याससे पीड़ित हो उठे। वे 'बाहि-त्राहि' करते हुए भरत सर्वप्रथम इस पट् खंड भूभागक स्वामी बने और ऋषभदेवके पास पहचे । लोगोंने अपनी करुण तभोसे इसका नाम 'भरतक्षेत्र' या 'भारतवर्ष प्रसिद्ध कहानी उनके सामने रखी। भगवान उनके कष्ट सुनहा। इस कथनकी पुष्टि जैन-शास्त्रोंसे तो होती ही है, कर द्रवित हो उठे और उन्होंने सर्वप्रथम अनेक किन्त हिन्द ओंके अनेक पुराणों में भी इसका स्पष्ट दिनोंसे भूखी-प्यासी प्रजाको अपने आप उगे हुए उन्लेख है । उनमेंसे २-१ प्रमाण यहाँ दिये जाते हैं:- इतुओं (गन्नों) के रस-पान-द्वारा अपनी भूख-प्यास अध जः। शान्त करनेका उपाय बतलाया और इसी कारण लोग ऋषमाद् भग्तो जज्ञे वीरः पुत्रशताद्वरः॥३६॥ आपको 'इक्ष्वाकु' कहने लगे। 'इतु इति शब्दं अकनीनि, अथवा इतुमाकरोतीति हिमा दक्षिणं वर्षे भरताय पिता ददा। इक्ष्वाकुः । अर्थात् भूखी-प्यासी प्रजाको 'इक्षु' ऐसा तस्मात्त भारत वर्ष तस्य नाम्ना महात्मनः ॥४१॥ शब्द कहने के कारण भगवान 'इक्ष्वाकु' कहलाये । (मार्कण्डेयपुराण अ०५०) मोमवंश, सूर्यवंश आदि जितने भी वंश हैं, उनमें अर्थात-नाभिराजके पुत्र ऋषभदेव हुए और 'इक्ष्वाकु वंश ही आद्य माना जाता है। Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६.] अनेकान्त [वर्ष १३ तदनन्तर भ. ऋषभदेवने प्रजाको असि, मषि, तदनन्तर वे आहारके लिए निकले । परन्तु उस समयकृषि, वाणिज्य, विद्या और शिल्पवृत्तिकी शिक्षा देकर के लोग मुनियोंको आहार देने की विधि नहीं जानते अपनी जीविका चलानेका मार्ग दिखाया और ग्राम- थे, अतः कोई उनके सामने रत्नोंका थाल भरकर पहुंनगरादिके रचनेका उपाय बताकर व्याघ्रादि हिंस्र चता, तो कोई अपनी सुन्दरी कन्या लेकर उपस्थित प्राणियोंसे आत्म-रक्षा करने और सर्दी-ार्मीकी बाधा होता। विधिपूर्वक आहार न मिलने के कारण ऋषभदूर करनेका मार्ग दिखाया। देव पूरे छह मास तक इधर-उधर परिभ्रमण करते भ० ऋषमदेवने ही सर्वप्रथम घड़ा बनानेकी विधि रहे और अन्त में हस्तिनापुर पहुंचे। उस समय वहांके बतलाई और कूप, बावड़ी आदि बनाने और उनसे राजा सोमप्रभ थे । उनके छोटे भाई श्रेयांस थे। पानी निकालकर पीनेका मार्ग बतलाया । इन सब उनका कई पूर्व भवों में भगवान से सम्बन्ध रहा है कारणोंसे भगवान् 'प्रजापति' कहलाये। और उन्होंने पूर्व भवमें भगवान के साथ किमी मुनिविक्रमकी दूसरी शताब्दीके महान् विद्वान स्वामी को आहार दान भी दिया था। भगवान के दर्शन करते समन्तभद्रने अपने प्रसिद्ध स्वयम्भूस्तोत्रम इन दोनों ही श्रेयांसको पूर्वभवकी सब बातें स्मरण हो आई बातोंको इस प्रकार चित्रित कर उनकी प्रामाणिकता और उन्होंने बड़ी श्रद्धा और भक्तिसे भगवानको प्रकट की है पडिगाह करके इक्षुरसका आहार दिया । वह दिन 'प्रजापतिर्यः प्रथमं जिजीविपुः वैशाखशुक्ला तृतीयाका था । भगवान्को पूरे एक वर्षके शशास कृप्यादिषु कर्मसु प्रजाः ॥२॥ पश्चात् श्राहार मिलनेके हर्ष में देवोंने पंचाश्चर्य 'मुमुचरिक्ष्वाकुकुलादिरात्मवान् किये श्रेयांसका जयघोष किया और 'तुम दान तीर्थके प्रभुःप्रवबाज सहिष्णुरच्युतः ॥३॥ श्राद्य प्रवर्तक हो।' यह कहकर उनका अभिनन्दन संक्षेपमें इतना ही कहना पर्याप्त है कि इस कर्म किया। इस प्रकार भगवानको आहार-दान देनेके मे-युगके प्रारम्भमें प्रजाकी सुव्यवस्था करनेके कारण योगसे यह तिथि अक्षय बन गई और तभीसे यह भऋषभदेव ब्रह्मा, विधाता, सृष्टा आदि अनेक 'अक्षयतृतीया' के नामसे प्रसिद्ध होकर मांगलिक पर्वके नामोंसे प्रसिद्ध हुए। रूपमें प्रचलित हुई छ। ब्राझीलिपि अक्षयवटभ० ऋषभदेवने सर्व प्रथम अपने भरत आदि भ० ऋषभदेव पूरे १००० वर्ष तक तपस्या करनेके पुत्रोंको पुरुषोंकी ७२ कलाओंमें पारंगत किया। ज्येष्ठ अनन्तर पुरिमतालपुर पहुंचे जो कि आज प्रयागके पुत्र भरत नाट्य-संगीत कलामें सबसे अधिक निपुण . नामसे प्रसिद्ध है। वहां पर नगरके समीपवर्ती शकट थे। आज भी नाल्यशास्त्रके श्राद्य प्रणेता भरत माने जाते हैं। भगवान्ने अपनी बड़ी पुत्रीको लिपिविद्या नामक उद्यानके वटवृक्षके नीचे वे ध्यान लगा कर अवस्थित हो गये और फाल्गुन कृष्णा एकादशीके अक्षर लिखनेकी कला-और छोटी सुन्दरी पुत्रीको दिन उन्हें केवलज्ञान उत्पन्न हो गया, वे अक्षय अनन्त अंक-विद्या सिखाई। ब्राह्मीके द्वारा प्रचलित लिपिका ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्यके धारक सर्वज्ञ, सर्वदर्शी नामही'ब्राह्मी लिपि प्रसिद्ध हुआ। भारतकी लिपियों बन गये। भगवानको जिस वट वृक्षके नीचे केवलमें यह सबसे प्राचीन मानी जाती है और प्रणेताके रूपमें भगवान ऋषभदेवकी अमर स्मारक है। ज्ञान उत्पन्न हुआ, वह उसी दिनसे 'अक्षय वट' के नामसे संसारमें प्रसिद्ध हुआ। अक्षयतृतीयाएक लम्बे समय तक प्रजाका पालन कर ऋषभ राघशुक्लतृतीयायां दानमासीत्तदच्यम् । देव संसारसे विरक्त होकर दीक्षित हो गये और दीक्षा पर्वाक्षयतृतीयेति ततोऽद्यापि प्रवर्तते ॥३०॥ लेनेके साथ ही छह मासका उपवास स्वीकार किया। (त्रि. ल.श. पर्व सर्ग ३) Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान ऋषभदेवके अमर स्मारक नंदिसंघकी गुर्वावली में 'अभयवट' का उल्लेख कृष्णा चतुर्दशीके दिन ही शिवरात्रिका उल्लेख पाया इस प्रकारसे किया गया है: 'श्रीसम्मेदगिरि-चम्पापुरी-उर्जयन्तगिरि-अक्षयवट- उत्तर और दक्षिण भारतवालोंकी यह मास-विभिआदीश्वरदीक्षासर्वसिद्धक्षेत्रकृतयात्राणां।' नता केवल कृष्णपक्षमें ही रहता है, किन्तु शुक्लपक्ष ___इस उल्लेखसे सिद्ध है कि 'अक्षयवट' भी जैनि- तो दोनोंके मतानुसार एक ही होता है। जब उत्तर योंमें तीर्थस्थानके रूप में प्रसिद्ध रहा है। भारतमें फाल्गुण कृष्णपक्ष चालू होगा, तब दक्षिण प्रयाग भारतमें वह माघ कृष्णपक्ष कहलाएगा । जैन पुराणोंभ० ऋषभदेवका प्रथम समवसरण इसी पुरिम के खास कर आदिपुराणके रचयिता आचार्य जिनसेन तालपुरके उसी उद्यान में रचा गया । इन्द्रने असंख्य दक्षिणके ही थे, अतः उनके ही द्वारा लिखी गई माघ देवी-देवताओंके साथ तथा भरतराजने सहस्त्रों राजाओं कृष्णा चतुदेशी उत्तरभारतवालोंके लिए फाल्गुणऔर लाखों मनुष्योंके साथ आकर भगवानके ज्ञान कृष्णा चतुर्दशी ही हो जाती है। कल्याणकी बड़ी ठाठ-बाटसे पूजा-अर्चा की । इस स्वयं इस मासवेषम्यका समन्वय हिन्दू पुराणों में महान् पूजन रूप प्रकृष्ट यागमे देव और मनुष्योंने ही। भी इसी प्रकार किया है। -कालमाधवीय नागरखंडनहीं, पशु-पक्षियों तक ने भी भाग लिया था और में लिखा है:सभीने अपनी-अपनी शक्तिके अनुसार महती भक्तिसे माघमासस्य शेषे या प्रथमे फान्गुणस्य च । पूजा-अर्चा की थी। इस प्रकृष्ट या सर्वोत्कृष्ट याग होनेके कृष्णा चतुर्दशी सा तु शिवरात्रिः प्रकीर्तिता ।। कारण तभीसे पुरिमतालपुर 'प्रयाग' के नामसे प्रसिद्ध अर्थात-दक्षिण वालोंके माघ मासके उत्तरपक्षकी हुआ। 'याग' नाम पूजनका है । जैन मान्यताके अनु- और उत्तर वालोंके फाल्गुण मासके प्रथमपक्षकी कृष्णा सार इन्द्रके द्वारा की जाने वालो 'इन्द्रध्वज' पूजन ही चतर्दशी शिवरात्रि मानी गई है। सबसे बड़ी मानी जाती है। इस प्रकार अक्षय तृतीया भ० ऋपभदेवके दीक्षाशिवरात्रि तपकल्याणककी, अक्षयवट ज्ञानकल्याणकका और शिवकेवलज्ञान उत्पन्न होने के पश्चात् भ० ऋषभदेव- रात्रि निर्वाणकल्याणककी अमर स्मारक है। ने आर्यावर्तक सर्व देशों में विहार कर धर्मका प्रसार शिवजी और उनका वाहन नन्दी बैलकिया और जीवन के अन्त में अष्टापद पहुंचे, जिसे कि आज बैलास पर्वत कहते हैं । वहां योग-निरोध कर . हिन्दुओंने जिन तेतीस कोटि देवताओंको माना आपने माघ कृष्ण चतुर्दशीके दिन शिव (मोक्ष) प्राप्त है उनमें ऐतिहासिक दृष्टिसे शिवजीको सबसे प्राचीन किया । अष्टापद या कैलाससे भगवानने जिस दिन या आदिदेव माना जाता है । उनका वाहन नन्दी बैल शिव प्राप्त किया उस दिन सर्व साध-संघने दिनको और निवास कैलाश पर्वत माना जाता है। साथ ही उपवास और रात्रिको जागरण करके शिवकी आराधना शिवजीका नग्नम्वरूप भी हिन्दुपुराणों में बताया गया की, इस कारण उसी दिनसे यह तिथि भी 'शिवरात्रि' है। जैन मान्यताके अनुसार ऋषभदेव इस युगके के नामसे प्रसिद्ध हई। उत्तरप्रान्त में शिवरात्रिका पर्व आदितीर्थकर थे और उनका वृपभ (बैल) चिन्ह था। फाल्गुण कृष्णा १४ को माना जाता है, इसका कारण वे जिनदीक्षा लेनेके पश्चात आजीवन नग्न रहे और उत्तरी और दक्षिणी देशांके पंचांगोंमें एक मौलिक अन्तमें कैलाश पर्वत शिव प्राप्त किया। क्या ये सब भेद है। उत्तर भारत वाले मासका प्रारम्भ कृष्ण माधे कृष्णचतुर्दश्यामादिदेवो महानिशि। पक्षसे मानते हैं, पर दक्षिण भारत वाले शुक्लपक्षसे शिवलिंगतयोद्भूतः कोटिसूर्यसमप्रभः ॥ मासका प्रारम्भ मानते हैं और प्राचीन मान्यता भी तत्कालव्यापिनी ग्राह्या शिवरानिवते तिथि: ॥ यही है। यही कारण है कि कई हिन्दू शास्त्रों में माघ (ईशानसंहिता) Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - % 3D ७.] अनेकान्त [वर्ष १३ बातें ऋषभदेव और शिवजीकी एकताकी द्योतक नहीं त्रिलोकसारके रचयिता आ. नेमिचन्द्र सिद्धान्तहैं। निश्चयतः उक्त समता अकारणक नहीं है और चक्रवर्तीने भी गंगावतरणके इस दृश्यको इस प्रकार उसकी सहमें एक महान तथ्य भरा हुधा । चित्रित किया है: शिवजीको जटाजूट युक्त माना जाता है भगवान सिरिगिहसीमद्वियंबुजकारणयसिंहासणंजडामउल। ऋषभदेवकी श्राज जितनी भी प्राचीन मूर्तियां मिली। जिणममिसित्तमणावा प्रोदिपणा मत्यए गंगा।५६० है, उन सबमें भी नीचे लटकती हुई केश-जटाएँ स्पष्ट दृष्टि गोचर होती हैं। प्रा०जिनसेनने अपने . अर्थात् - श्रीदेवीके गृहके शीर्ष पर स्थित कमलआदिपुराणमें लिखा है कि भ० ऋषभदेवके दीक्षा की कर्णिकाके ऊपर एक सिंहासन पर विराजमान जो लेनेके अनन्तर और पारणा करनेके पूर्व एक वर्षके जटामुकुटवाली जिनमूर्ति है, उसे अभिषेक करनेके लिये ही मानों गंगा हिमवान् पर्वतसे अवतीर्ण हुई है। घोर तपस्वी जीवन में उनके केश बहुत बढ़ गये थे और शिवजीके मस्तक पर गंगाके अवतीर्ण होनेका वे कन्धोंसे भी नीचे लटकने लगे थे, उनके इस तपस्वी रहस्य उक्त वर्णनसे स्पष्ट हो जाता है और किसी भी जीवनके स्मरणार्थ ही उक्त प्रकारको मूत्तियोंका निर्माण निप्पक्ष पाठकका ध्यान अपनी ओर आकृष्ट करता है। किया गया इस प्रकार शिवजी और ऋषभदेवकी शिवजीके उक्त रूपकका अर्थ इस प्रकार भी लिखा जटा-जूट युक्त मूर्तियां उन दोनोंकी एकनाकी ही परि जा सकता है कि इस युगके प्रारम्भमें दिव्यवाणीरूपी चायक हैं। गंगा भ० ऋषभदेवसे ही सर्वप्रथम प्रकट हुई, जिसने गगावतरण भूमंडल पर बसनेवाले जीवोंके हृदयोंसे पाप-मलको ___ हिन्दुओंकी यह मान्यता है कि गंगा जब आकाश- दूर कर उन्हें पवित्र बनानेका बड़ा काम किया। सीई, तो शिवजीकी जटाओं में बहुत समय तक्षशिला और गोम्मद श्वरकी मतितक भ्रमण करती रही और पीछे वह भूमण्डल पर भारतवर्षके आदि सम्राद भरतके जीवन में एक अवतरित हुई। पर वास्तवमें बात यह है कि गंगा हिमवान् पर्वतसे नीचे जिम गंगाकूट में गिरती है. वहां । ऐसी घटना घटी, जो युग-युगोंके लिये अमर कहानी बन गई । जब वे दिग्विजय करके अयोध्या वापिस पर एक विस्तीर्ण चबूतरे पर आदि जिनेन्द्रकी जटा लौटे और नगर में प्रवेश करने लगे, तब उनका सुदमुकुट वाली बज़मया अनेक प्रतिमाएँ हैं, जिन पर र्शनचक्र नगरके द्वार पर अटक कर रह गया। राजहिमवान पर्वतके ऊपरसे गंगाकी धार पड़ती है। इसका बहुत सुन्दर वर्णन त्रिलोक-प्रज्ञप्तिकारने किया है, जो पुरोहितनि इसका कारण बतलाया कि अभी भी कोई ऐसा राजा अवशिष्ट है, जो कि तुम्हारी आज्ञाको विक्रमकी चौथी शताब्दीके महान् श्राचार्य थे और नहीं मानता है। बहुत छान-बीनके पश्चात् ज्ञात हुआ जिन्होंने अनेक सद्धान्तिक ग्रन्थोंकी रचना की है। वे कि तुम्हारे भाई ही आज्ञा-वश-वर्ती नहीं हैं । सर्व उक्त गंगावतरणका वर्णन अपनी त्रिलोकज्ञप्तिक . भाइयोंके पास सन्देश भेजा गया। वे लोग भरतकी चौथे अधिकार में इस प्रकार करते हैं: शरणमें न आकर और राज पाट छोड़कर भ० ऋषभप्रादिजिमप्पांडमात्रा साया जडमउडसहारखाना। देवकी शरणमें चले गये, पर बाहुबलाने जो कि पडिमोवरिम्मगंगा अभिसित्तुमणा व सा पडदिा२३० भरतकी विमाताके ज्येष्ठ पुत्र थे-स्पष्ट शब्दोंमें भरत अर्थात्-उस कुण्डके श्रीक्ट पर जटा-मुकुटसे की आज्ञा माननेसे इन्कार कर दिया और दूतके मुखमशोभित आदिजिनेन्द्रकी प्रतिमाएं हैं। उन प्रति- मे कहला दिया कि जाओ और भरतसे कह दोमाओंका मानों अभिषेक करने के लिये ही गंगा उन 'जिस बापके तुम बेटे हो, उसीका मैं भी हूँ। मैं पिताप्रतिमाओंके जटाजूट पर अवतीर्ण होती है । (अभि- के दिये राज्यको भोगता हूँ, मुझे तुम्हारा आधिपत्य षेक जलसे यक्त होनेके कारण ही शायद वह बादको स्वीकार नहीं है।' भरतने यह सन्देश सुनकर बाहसर्वागमें पवित्र मानी जाने लगी।) बलीको युद्धका आमन्त्रण भेज दिया। दोनों ओरसे Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ३] भगवान ऋषभदेवके अमर स्मारक सैनिकगण समरांगणमें उतर आये । रण-भेरी बजने दित कर लिया ! इन दोनों ही घटनाओंकी यथार्थताही वाली थी कि दोनों ओरके मन्त्रियोंने परस्पर में को प्रमाणित करनेवाले जीते-जागते प्रमाण आज परामर्श किया-'ये दोनों तो चरम शरीरी और उपलब्ध हैं। कहते हैं कि जिस स्थान पर दोनों उत्कृष्ट संहननके धारक हैं, इनका तो कुछ बिगड़ेगा भाइयोंका यह युद्ध हुअा था और जहाँ पर चक्र नहीं। वेचारे सैनिक परस्परमें क्ट मरेंगे । इनका चलाया गया था, वह स्थान 'तक्षशिला' के नामसे व्यर्थ महार न हो, अतः उभयपक्षके मन्त्रियोंने अपने प्रसिद्ध हुआ। (तक्षशिलाका शब्दार्थ तक्षण अर्थात् अपने स्वामियोंसे कहा-'महाराज, व्यर्थ सेनाके काटने वाली शिला होता है।) तथा बाहुवलीकी उस संहारसे क्या लाभ ? आप दोनों ही परस्परमें युद्ध उप्र तपस्याकी स्मारक श्रवणबेलगोल (मैमूर ) के करके क्यों न निपटारा कर लें ?' भरत और बाहुबली विध्यगिरि-स्थित बाहुबलीकी ५७ फीट ऊँची, संसारको ने इसे स्वीकार किया। मध्यस्थ मन्त्रियोंने दृष्टियुद्ध, आश्चर्यमें डालनेवाली मनोज्ञ मूर्ति आज भी उक्त जलयुद्ध और मल्लयुद्ध निश्चित किये और भरत घटनाको सत्यता संसारक सामने प्रकट कर रही है। तीनों ही युद्धोंमें अपने छोटे भाई बाहुबलीसे हार तथा वहीं दूसरी पहाड़ी चन्द्रगिरि पर अवस्थित जड़गये । हारसे खिन्न होकर और रोषमें आके भरतने भरतकी मूर्ति उनकी किंकर्तव्यविमूढ़ताका आज भी बाहुबलीके ऊपर सुदर्शनचक्र चला दिया। कभी व्यर्थे स्मरण करा रही है। न जाने वाला यह अमोघ अस्त्र भी तद्भवमोक्षगामी भरत और बाहुबली दोनों ही भ. ऋषभदेवके बाहुबलीका कुछ बिगाड़ न कर सका, उल्टा उनकी पुत्र थे, अतएव उन दोनोंकी ऐतिहासिक सत्यताके तीन प्रदक्षिणा देकर वापिस चला गया। इस घटनासे प्रतीक स्मारक पाये जानेसे भ० ऋषभदेवकी ऐतिहा. संसारके श्रादि चक्रवर्ती भरतका अपमान हुआ और सिक प्राचीनता स्वतः सिद्ध हो जाती है। वे किंकर्तव्य-विमूढ़ हो गये। पर बाहुबलीके दिलको इस प्रकार हम देखते हैं कि आज विविध रूपोंमें बड़ी चोट पहुंची और विचार आया कि धिक्कार है भ० ऋषभदेवके अमर स्मारक अपनी ऐतिहासि इस राज्यलक्ष्मीको, कि जिसके कारण भाई भाईका ही कताकी अमिट छापको लिये हुए भारतवर्षमें सवत्र गला काटनेको तैयार हो जाता है। वे इस विचारके व्याप्त हैं, जिससे कोई भी पुरातत्त्वविद् इन्कार नहीं जागृत होते ही राज-पाटको छोड़कर बनको चले गये कर सकता। और पूरे एक वर्षका प्रतिमायोग धारण करके घोर आशा है महृदय ऐतिहासिक विद्वान इस लेख तपश्चर्या में निरत हो गये। इस एक वर्षकी अवधि में पर गम्भीरताक साथ विचार करनेकी कृपा करेंगे और उनके चरणोंके पाम चींटियोंने बामी बना डाली और उसके फलस्वरूप भ• ऋषभदेवके अमरम्मारक और सांपोंने उसमें डेरा डाल दिया। पृथ्वीस उत्पन्न हुई भी अधिक प्रकाश में आकर लोक मानसम अपना अनेक लताओंने ऊपर चढ़कर उनके शरीरको आच्छा- समुचित स्थान बनाएंगे। . सिक प्राचीनता देखते हैं कि ऐतिहासिः ___ 'अनेकान्त' की पुरानी फाइलें 'अनेकान्त' की कुछ पुरानी फाइलें वर्ष ४ से १२ वें वर्षतक की अवशिष्ट हैं जिनमें समाज के लग्ध प्रतिष्ठ विद्वानों द्वारा इतिहास, पुरातत्व, दर्शन और साहित्यके सम्बन्धमें खोजपूर्ण लेख लिखे गये हैं और अनेक नई खोजों द्वारा ऐतिहासिक गुत्थियोंको सुलझानेका प्रयत्न किया गया है। लेखोंकी भाषा संयत सम्बद्ध और सरल है। लेख पठनीय एवं संग्रहणीय हैं। फाइलं थोड़ी ही शेष रह गई हैं । अतः मंगानेमें शीघ्रता करें । प्रचारकीदृष्टि से फाइलोंको लागत मूल्य पर दिया जायेगा। पोस्टेज खर्च अलग होगा। -मैनेजर-'भनेकान्त', वीरसेवामन्दिर, दिल्ली Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिल्ली और योगिनीपुर नामोंकी प्राचीनता (लेखक-अगरचन्द नाहटा) अनेकान्तके वर्ष १३ अंक १ में पं० परमानन्दजी पूर्व भी दिल्ली नाम प्रसिद्ध व सिद्ध होता है। शास्त्रीका 'दिल्ली और उसके पांच नाम' शीर्षक लेख जोडशीपर या योगिनीपरकी प्राचीनताके सम्बन्धप्रकाशित हुआ है। उसमें आपने १ इन्द्रप्रस्थ २ दिल्ली में पं० परमानन्दजीने पंचास्तिकायकी सं० १३२६ की ३ योगिनीपुर या जोइणीपुर, ४ दिल्ली और ५ जहां- लिखित प्रशस्ति उधृत करते हुए लिखा है कि 'योगिनाबाद-इन पांच नामोंके सम्बन्धमें अपनी जानकारी नीपर का उल्लेख अनेक स्थलों पर पाया जाता है। प्रकाशित की है। इनमेंसे जहांनाबाद नाम तो बहुत 'जिनमें सं०१३२६ का उल्लेख सबसे प्राचीन जान पीछेका और बहुत कम प्रसिद्ध है और इन्द्रप्रस्थ पड़ता है। पर श्वेताम्बर साहित्यसे इस नामकी पुराना होने पर भी जनसाधारणमें प्रसिद्ध कम ही प्राचीनता सं०१००० के लगभग जा पहुचती हैं और रहा है। साहित्यगत कुछ उल्लेख इस नामके जरूर इस नामकी प्रसिद्धिका कारण भी भली भांति स्पष्ट मिलते हैं चौथा दिल्ली और दिल्ली वास्तवमें दोनों हो जाता है। इसलिए यहां इस नामके सम्बन्धमें एक ही नाम हैं। दिल्लीका उपभ्रंश हो जनसाधारण- विशेष प्रकाश डाला जा रहा है। के मुखसे बदलता-बदलता दिल्ली बन गया है। वास्तव में संवत् १३०५ में दिल्ली वास्तव्य साधु साहुलिके उसका भी कोई स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है। कई लोगोंकी पत्र हेमाको अभ्यर्थनासे खरतरगच्छीय जिनपति सरिके जो यह कल्पना है कि दिलू राजाके नामसे दिल्लीका शिष्य विदवर जिनपालोपाध्यायके 'युगप्रधानाचार्य " हुआ, पर वास्तवम यह एक भ्रातार मन- गुर्वावली' नामकर ऐतिहासिक ग्रन्थकी रचना की भारगढन्त कल्पना है। दिलू राजाका वहां होना किसी भी तीय साहित्यमें संवतानक्रम और तिथिके उल्लेखवार इतिहाससे समर्थित नहीं, अत एव दिल्ली और योगिनी-पोकताका सिलसिलेवार वर्णन करनेवाला यह पुर ये दोनों नाम ही ऐसे रहते हैं, जो करीब एक एक ही अपर्व प्रन्थ है। रचयिताके गरु जिनपतिसरिहजार वर्षों से प्रसिद्ध रहे हैं, अतः इनकी प्राचीनताके के गुरु जिनचन्दसूरि जो कि सुप्रसिद्ध जिनदत्तसूरिके सम्बन्धमें ही प्रस्तुत लेख में प्रकाश डाला जायगा। शिष्य थे , का जीवनवृत्त देते हुए संवत् १२२३ में दिल्ली नामकी प्राचीनताके सम्बन्धमें पं० परमा उनके दिल्ली-योगिनीपुर (वहांके राजा मदनपालके नन्द जीने संवत् ११८६ के श्रीधर-रचित पाश्वेनाथ- अनरोधसे) पधारनेका विवरण दिया है। यहां उसका चरित्र में इस नामका सर्व प्रथम प्रयोग हुश्रा है आवश्यक अंश उद्धृत किया जाता है:ऐसा सूचित करते हुए लिखा है कि "इससे पूर्व के साहि ततःस्थानात्प्रचलितान् पृष्ठगामे संघातेन सहात्यमें उक्त शब्दका प्रयोग मेरे देखने में नहीं आया।" गतान् श्रीपूज्यान् श्रुत्वा ढिल्लीवास्तव्य ठ• लोहर यद्यपि 'गणधरसार्द्धशतकबृहवृत्ति' जिसकी रचना सा० पाल्हण-सा. कुलचन्द्र सा• गृहिचन्द्रादि संघ सं० १२६५ में हुई है, उक्त पार्श्वनाथचरित्रके पीछेकी मुख्य श्रावका महता विस्तेरण वन्दनार्थ सम्मुखं प्रचारचना है, पर उक्त ग्रन्थमें ग्यारहवीं शताब्दीके वर्द्ध लिताः । मानसूरिका परिचय देते हुए उनके 'ढिल्लो, बादली' x पूर्ववर्ती तो तब होता, जब उसी समयके बने हुए आदि देशों में पधारनेका उल्लेख किया है। प्रथमें इन नामोंका उल्लेख हो, यों तो अनेक विषयों के -स्वाचार्याः नु ज्ञातः कतिपययतिपरिवृतः ढिल्ली- अनेक उल्लेख मिलते है। बादली-प्रमुखस्थानेषु समाययो ।' इसीसे ग्यारहवों अच्छा होता यदि लेखक महानुभाव सं० १०१० या शताब्दीमें भी इस नगरके पाश्ववतीं प्रदेशको दिल्ली उससे पूर्ववर्ती ग्रन्थमें उल्लिखित 'दिल्ली' शब्दके प्रयोगका प्रदेश कहते थे, ज्ञात होता है। आचार्य वर्तमानसूरि उल्लेख दिखलाते । -सम्पादक रचित उपदेशपदटीका सं० १०५५ की प्राप्त है और यह देखें भारतीयविद्या वर्ष, पृष्ठ । में प्रकाशित घटना उससे भी पहले की है। अतः सं० १०५० से हमारा लेख । हवी शतामा बादली में उनका Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ३ ] तांश्च प्रधानवेषान् प्रधानपरिवारान् प्रधानवाहनाधिरूढान् ढिल्ली- नगराद्वहिर्गच्छन्तो दृष्ट्वा स्वप्रसादोपरि वर्तमानः श्री मदनपालराजा विस्मितः सन्, स्वकीय राजप्रधानलोकं पप्रच्छ-' दिल्ली और योगिनीपुर नामकी प्राचीनता श्री पूज्यैरुक्तम्- 'महाराज ! युष्मदीयं नगरं प्रधानं धर्मक्षेत्रं । तर्हि उत्तिष्ठत चलत ढिल्ली- प्रति, न कोऽपि युष्मानंगुलिकयापि सज्ञास्यतीत्यादि । श्री मदनपाल महाराजोपरोधाद् 'युष्माभिर्योगिनीपुरमध्ये कदापि न विहर्तव्यमित्यादि श्रीजिनदत्तसूरिदत्तोपदेशत्यागे न हृदये दयमाना अपि श्री पूज्याः श्री ढिल्लीं प्रति प्रस्थिताः ।' यह गुर्वावली जिनचन्द्रमूरिजी के प्रशिष्यकी ही निर्मित है, इसलिये इसकी प्रामाणिकता में सन्देहकी गुंजाइस नहीं है । उपर्युक्त उद्धरणोंसे सम्वत् १२२३ में दिल्ली के राजा मदनपाल थे सिद्ध है । उस समयके प्रधान श्रावकों के नामोंके उद्धरणोंसे, वहाँ पार्श्वनाथ विधि चैत्य भी था, इसकी जानकारी मिलती है। जिन आचार्यश्री के दिल्ली में स्वर्गवासी होनेका उल्लेख है, वे मणिधारी जिनचन्द्रसूरि के नामसे प्रख्यात हैं और उनका स्तूप कुतुबमीनार के पास आज भी विद्यमान व पूज्यमान है । उनका अग्नि संस्कार इतने दूरवर्ती स्थान में क्यों किया गया, इसके सम्बन्ध में गुर्वावलीमें लिखा है कि ऐसी प्रसिद्धि रही है कि आचार्यश्रीका कथन है कि मेरा अग्नि संस्कार जितनी दूरवर्ती भूमि में किया जायगा, वहाँ तक नगरकी वस्ती बढ़ जाएगी " तदनन्तरं श्रावकैर्महाविस्तरेणाऽनेकमण्डपिका मण्डिते विमान आरोप्य यत्र क्वाप्यस्माकं संस्कारं करिष्यत यूयं तावतीं भूमिकां यावभगरवसितिः भवतीत्यादि गुरुवाक्यस्मृतरतीव दूरभूमौ नीताः ।" गुर्वावली में जिनचन्द्रसूरिजी को जिनदत्तसूरिजी ने योगिनीपुर जाना क्यों मना किया था ? और वहाँ जाने पर एकाएक छोटी उम्र में ही उनका क्यों स्वर्ग वास गया ? इसके सम्बन्धमें कुछ भी प्रकाश नहीं डाला पर परवर्ती पट्टावलियों व वृद्धाचार्य प्रबन्धावलीमें इस सम्बन्धमें जो प्रवाद था, उसका स्पष्ट उल्लेख किया है । प्रबन्धावली में लिखा है कि एक बार जिन दत्तसूरि अजमेर दुर्गं पधारे, वह चौसठ योगनियों [ ७३ का पीठ स्थान था । योगिनियोंने आचार्य श्रीके रहते अपना पूजा सत्कार नहीं होगा समझ उन्हें छलने के लिये वे श्राविकाके रूपमें व्याख्यानमें आयी । सूरिजी उन्हें सूर्यमन्त्र के अधिष्ठायक द्वारा कीलके स्तम्भित कर दी। वे उठ न सकीं तब सूरिजीसे प्रार्थना कर मुक्त हुई और कहा हमें एक वचन दीजिये कि जहां जहां हमारा पोठ स्थान है, आप नहीं जायं | हमारा पहला पीठ उज्जयनीमें, दूसरा दिल्ली, तीसरा अजमेर दुर्ग और आधा भरू अच्छ में है । वहाँ आपके शिष्य या पट्टधर न जायं । जाने पर मरण-बन्धनादि कष्ट होंगे इसीलिये जिनदत्त सूरिजीने वहां जानेका निषेध किया था पर भावी भाववश राजा व संघके अनुरोधसे वहां जाना हुआ । प्रबन्धावलिमें लिखा है'जोगिनीहिं छलिचो मत्र' अज्जवि पुरातन दिल्ली मज्मे तस्स थुभो अच्छाई । संघो तस्स जत्ता कम्मं कुणई' अर्थात् जिनचन्द्रसूरिजीका स्वर्गवास योगनियोंके छलके द्वारा हुआ । उनका स्तूप आज भी पुरानी दिल्ली में है, जिसकी संघ यात्रा किया करता है। प्रबन्धावलि १७वीं शताब्दी के प्रारम्भ या उससे पहलेकी रचना है । उस समय जिनचन्द्रसूरिके स्तूप स्थानकी संज्ञा 'पुरातन ढिल्ली मानी जाती थी । योगिनीपुर नामकरणका कारण हमें उपर्युक्त प्रबन्धावलि द्वारा स्पष्ट रूपमें मिल जाता है कि दिल्ली चौसठ योगिनियांका पीठ स्थान था और उनकी प्रसिद्धि के कारण ही दिल्लीका दूसरा नाम योगिनीपुर प्रसिद्ध हुआ । इस नामकी प्राचीनता सम्वत् १३०५ व १२२३ तक तो गुर्वावली से सिद्ध ही है और उसमें जिनदन्त सूरिके कहे हुए निषेध वाक्यमें भी 'योगिनीपुर' नाम ही दिया है, इसलिये बारहवीं शताब्दी तक इस नामकी प्राचीनता जा पहुँचती है। दिल्लीका जैन इतिहास भी अवश्य प्रकाशित होना चाहिए। उसके सम्बन्धमें काफी सामग्री इधर-उधर बिखरी पड़ी है उन सबका संग्रह होकर सुव्यवस्थित इतिहास लिखा जाना आवश्यक है। श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों सम्प्रदायोंका गत एक हजार वर्षसे यहां अच्छा निवास और प्रभाव रहा है । यहांके प्राचीन मन्दिरोंका विवरण भी संगृहीत किया जाना चाहिये । इस सम्बन्ध में मेरी सेवाएँ हर समय प्रस्तुत हैं । Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरतिवादी समता (स्वामी सत्यभक्क) समाजमें न सब मनुष्य सब तरह समान बनाये जा मुनाफा खा सकता है, जो अंधा विना नोकरके चल सकता सकते हैं, उनमें इतनी विषमता ही उचित कही जा सकती है उसमें पूंजी लगाकर आमदनी बढ़ा सकता है, बैंकों है जितनी बाज है। पर आज दोनों तरहके अतिवादोंका रुपया जमाकर व्याज खा सकता है। पोषण किया जाता है । अतिसमतावादी यह कहते हैं कि रूमी क्रांतिके प्रारम्भमें इतनी विषमता नहीं थी, क्रांतिमाहब, चीनमें कालेजके एक चपरासीमें तथा प्रिन्सिपलमें कारियोंकी इच्छा भी नहीं थी कि ऐसी विषमता आये । पर फरक ही नहीं होता । इस प्रकारके लोग अन्धाधुन्ध समताके अनुभवने, मानव प्रकृतिने, परिस्थितियोंकी विवशताने गीत गाते हैं। मानों विशेष योग्यता, विशेष अनुप- इस प्रकारके अन्तर पैदा करा दिये । निःसन्देह यह विषमता योगिता, विशेष सेवा या श्रमका कोई विशेष मुल्य न हो। भारतसे बहुत कम है। रूपमें जब यह एक और सोलहक ऐसी प्रतिवादी समता अन्यावहारिक तो होगी ही, पर बीचमें हैं तब भारतमें वह एक और चारसी के बीच में उसकी दुहाई देनेसे जो लोगोंमें मुफ्तखोरी अन्याय है। यहां किसीको परचीस रुपया महीना मिलता है तो कृतघ्नता प्रादि दोष बढ़ रहे हैं। उनका दुष्परिणाम समाज- किसीको दस हजार रुपया महीना । यह तो राजकीय क्षेत्रको और स्वयं उन लोगोंको भोगना पड़ेगा । यह तो अन्धेर का अन्तर है। आर्थिक क्षेत्रमें यह विषमता और भी नगरी होगी। अधिक है । क्योंकि अनेक श्रीमानोंको लाखोंकी आमदनी अन्धेर नगरी बेबूझ राजा। है। रूसने विषमताको काफी सीमित और न्यायोचित रक्खा टके सेर भाजी टके सेर खाजा।। है पर विमताकी अनिवार्यता वहां भी है। अतिसमता इस कहावतको चरितार्थ करना होगा। वहां भी अव्यवहार्य मानी गई है। दूसरी तरफ प्रतिवैषम्य है। एक पादमी मिहनत किये अतिसमतासे हानियां बिना या नाममात्रकी मिहनत या विशेषनासे हजारों लाखों बहुतसे वामपक्षी लोग और बहुतसे सर्वोदयवादी लोग कमा लेता है। दूसरी तरफ बौद्धिक और शारीरिक घोर श्रम जिस प्रकार प्रति समताकीबात करते हैं या दुहाई देते हैं उसे करके भी भरपेट भोजन या उचित सुविधाएं नहीं प्राप्त कर अगर व्यवहारमें लानेकी कोशिश की जाय तो वह अव्यहार्य पाता। इस प्रतिवैषम्पको भी किसी तरह सहन नहीं किया साबित होगी और अन्यायपूर्ण भी होगी इससे देशका घोर जा सकता। विनाश होगा। ये दोनों तरहके अतिवाद समाजके नाशक हैं। हमें अति १-एक आदमी अधिक श्रम करता है और दूसरा ममता और अतिविषमता दोनों के दोषोंको समझकर निरतिवादी कमसे कम श्रम करता है, यदि दोनोंको श्रमके अनुरूप ममताका मार्ग अपनाना चाहिये । इस बातमें मनोवैज्ञानिकता बदला न दिया माय, अर्थात् दोनोंको बराबर दिया जाय तथा व्यावहारिकताका भी पूरा ध्यान रखना चाहिये । तो अधिक श्रम करने वाला अधिक श्रम करना बन्द कर आर्थिक समताके मागमें रूसने सबसे अधिक प्रगति देगा, उसे श्रममें उत्साह न रहेगा। इस प्रकार देशमें श्रम की है और वहां जीवाद सबसे कम है विषमता भी सब रहते हुए भी श्रमका अकाल पड जायगा । उत्पादन क्षीण से कम है। फिर भी इतनी बातें तो वहां भी हैं। हो जायगा। -किसी को २५० रूबल महीना मिलता है और किसी कामकी योग्यता प्राप्त करनेके लिये वर्षों तपस्या किसीको ४००० रूबल महीना मिलता है । मतलब यह करना पड़ता है, और किपीके लिये नाममात्रकी तपस्या कि वहां सोलह गुणे तकका अन्तर शासन क्षेत्रमें है। करनी पड़ती है, प्रिन्सिपल बननेकी योग्यता प्राप्त करनेके श्रमिकोंमें यह अन्तर चौदह गुणा तक है। किसी-किसी लिये प्राधी जिन्दगी निकल जायगी और चपरासी बनने के श्रमिकको साढ़े तीन हजार रूबल मासिक तक मिलता है। लिये मामूली पढ़ना लिखना ही काफी होगा। दोनोंका २-रेलवे में वहाँ भारतकी तरह तीन श्रेणियां हैं। मूल्य बराबर हो तो प्रिन्सपल और प्रोफेसर तैयार ही न ३-मकान, पशु मादि व्यक्रिगत सम्पत्ति काफी है हों। इसी प्रकार इंजीनियर और मामूली मजदूर, वैज्ञानिक और इसमें भी विषमता है। और विज्ञान-शाला में झाडू देने वाला आदिके बारे में भी ४-अपना मकान भावेसे देकर मनुष्य पूजी पर होगा। Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण निरतिवादी समता ३-विशेष मानसिक काम करने वाले और साधारण अतिविषमतासे हानियां शारीरिक काम करनेवाले यदि समान सुविधा पायें तो मान- अतिविषमताकी हानियोंसे हम परिचित ही हैं। हावा सिक श्रम शीण होगा। मानसिक श्रमका काम करनेवाले किये हानियां प्रतिसमताके बराबर नहीं हैं फिर भी को पाव भर घी की जरूरत होगी और शारीरिक श्रम करने काफी हैं। वालेका काम आध पाव घी से चल जल जायगा । दोनोंको एक आदमीको गुणी सेवक होते हुए भी जब निर्गुण बराबर दिया जाय तो मानसिक श्रमवाला उचिन श्रम न प्रसेवकोंसे कम मिलता है तब उसके साथ अन्याय होता कर पायगा। है। इससे उसका ध्यान गुण बढ़ाने और सेवा करनेसे हटकर ४-एक आदमी पूरी जिम्मेदारीसे काम करता है, उन चालाकियोंकी तरफ चला जाता है जिनसे अधिक धन चारों तरफ नजर रखता है, दिनरात चिन्ता करता है, दूसर- खींचा जा सके। एक भी चालाक बदमाश आदमी जब धनी को ऐसी जिम्मेदारीसे कोई मतलब नहीं । दोनोंको पारि- बन जाता है तब यह कहना गहिये कि वह सौ गुणी और श्रमिक दिया जाय तो जिम्मेदारी रखनेवाला उस तरफ ध्यान सेवकों की हत्या करता है। अर्थात् उसे देखकर सौ गुणी न देगा । इस प्रकार कामकी मारी ब्ववस्था बिगड़ जायगी। और सेवक व्यक्ति गुण सेवाके मन्मार्गसे भ्रष्ट होकर चालाक ५-एक आदमीमें अपने क्षेत्रमें काम करनेके लिये बदमाश बननेकी कोशिश करने लगते हैं। भले ही वे सफल अमाधारण प्रतिभा है, असाधारण स्वर या सन्दरता है. हा या न हो। असाधारण शनि है, असाधारण कला है, इनका असाधारण समाजमें जो बेकारी है, एक तरफ काम पड़ा है दूसरी मूल्य यदि न दिया जाय नो इन गुणोंका उपयोग करनेके तरफ सामग्री पड़ी है तीसरी तरफ काम करनेवाले बेकार लिये उन गुणवालोंका उल्माह ही मर जायगा । इसका मनो बैठे हैं, यह सब अतिविषमताका परिणाम है। इस प्रकार वैज्ञानिक प्रभाव ऐसा पडेगा कि इनका सदुपयोग करनेके को यह अति-विषमता भी काफी हानिप्रद है। लिये जो थोडी बहुत साधना करनेकी जरूरत है वह साधना हमें अतिसमता और अतिविषमताको छोड़कर निरतिभी मिट जायगी। वादी समताकी योजना बनाना चाहिये। उसके सूत्र ये हैं। -हर एक व्यक्रिको भोजन वस्त्र और निवासकी ६--प्रतिममता का मारे समाज पर बहुत बुरा प्रभाव उचित सुविधा मिलना ही चाहिये । हां, इस सुविधाकी पड़ेगा। मारा समाज दुःखी अशान्त निकम्मा और मगहाल जिम्मेदारी उन्हींकी ली जा सकती है जो समाजके लिये हो जायगा । कामका या अपने मूल्यका विवेक किसी में न रहेगा। हर आदमी को यही चिन्ता रहेगी कि मुझे बगबर उपयोगी कार्य उचित मात्रामें करनेको तैयार हों। २-देशमें बेकारी न रहना चाहिये । देशब्यापी एक मिलता है या नहीं? दूसरोंको क्या मिला और मुझे क्या ऐसी योजना होना चाहिये जिससे हर एक व्यक्रिको काममें मिला इसी पर नजर रखने और चिन्ता करने में और झगड़ने लगाया जा सके। में हर एककी शक्ति बर्बाद होगी । विशेष योग्यतावाले विशेष काम न करेंगे और हीन योग्यतावाले बराबरीके लिये ३-ज्यायोचित या समाजमान्य तरीक्से जिसने जो सम्पत्ति उपार्जित की है उस पर उसकी मालिकी रहना दिनरात लड़ेंगे, थोड़ासा अन्तर रहेगा तो असन्तुष्ट होकर चाहिये । बिना मुवावजे की वह सम्पत्ति उससे ली न जा चोरी करेंगे, बदमाशी करेंगे, कृतघ्नताका परिचय देंगे विनय की हत्या करेंगे। इस प्रकार सारा समाज अनुत्साह, ईर्ष्या, सके। -साधारणतः ठीक आमदनी होने पर भी जो अपखेद, मुफ्तखोरी, चोरी, अविनय, आलस्य, कृतघ्नता, कलह, व्ययी या विलासी होनेसे कुछ भी सम्पत्ति नहीं जोड़ पाता अयोग्यता, असाधना, आदिसे भर जायगा, उत्पादन चौपट उसकी गरीबीको दयनीय न मानना चाहिये। हो जायगा, अव्यवस्था असीम हो जायेगी। ५-निम्नलिखित आठ कारणोंसे पारिश्रमिक या पुरअतिसमता जितनी मात्रामें होगी ये दोष भी उतनी म्कार अधिक देना चाहिये । (१) गुण (२) साधना मात्रामें होंगे। इस प्रकार अतिसमता अर्थात अन्याय्य समता (३) भ्रम (४) सहसाधन (१) कष्ट संकट (६) उत्पादन सर्वनाशका मार्ग है। (७) उत्तरदायित्व (5) दुर्लभता। Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ ] अनेकान्त [वर्ष १३ (1) गुण-प्रतिभा, सुन्दरता, शारीरिक शकि, आदि गाँवोंकी अपेक्षा नगर या महानगरमें सहसाधनोंकी ज्यादा जन्मजात गुण जिले कार्यमें अपनी विशेष उपयोगिता रखते जरूरत पड़ती है, महँगाई भी होती है इसलिये गांवकी हों उस कार्य में इनके कारण विशेष पारिश्रमिक मिलना अपेक्षा शहरका पारिश्रामिक अधिक होता है। चाहिये। उदाहरणके लिये साहित्य निर्माणमें, शामनमें, (३) कष्ट संकट-किसी काममें विशेष कष्ट हो, विशेष प्रबन्धमें, शिक्षणमें प्रतिभाका विशेष मूल्य है। सिनेमा संकट हो तो उसके कारण उसका मूल्य बढ़ जाता है । आदिमें सुन्दरताका मूल्य है । सेना पुलिस या शारीरिक साधारण मजदूरको अपेक्षा कोयले श्रादिको खदानमें काम मजदूरीके क्षेत्रमें शारीरिक शक्तिका मूल्य है। इन क्षेत्रों में करनेमें कष्ट और संकट अधिक है। हवाई जहाज चलानेमें इन गुणों पर विशेष पारिश्रमिक मिलना चाहिये। संकट अधिक है शारीरिक श्रमकी अपेक्षा वचन या मनके (२) साधना-किसी कामको करनेको योग्यता प्राप्त कार्यमें कप्ट अधिक है। इसलिये इनका मूल्य बढ जाता है। करनेमें कितने दिन कैसी साधना करना पड़ेगी इस परसे (६) उत्पादन-जो इस तरीकेसे काम करे कि अधिक उसका मूल्य निर्धारित करना पड़ता है। जैसे एक क्लर्क या अच्छा उत्पादन कर सके तो उसकी इस कलाका मूल्य बनने के लिये जितनी साधनाकी जरूरत है उससे कई अधिक होगा । जो अच्छा चित्र बना सकता है, अच्छी गुणो साधनाको जरूरत एक प्रोफेसर, लेखक, कवि या सम्पादक मूर्ति गढ़ सकता है, अच्छा लेख लिख सकता है उसका बननेमें है। इसलिये क्लर्ककी अपेक्षा इनके कार्यका मूल्य पारिश्रामिक अधिक होगा। इसी प्रकार जो परिमाणमें ज्यादा अधिक होगा। उत्पादन कर सकता है उसका मूल्य भी अधिक होगा। (२) श्रम-जिस काममें जितना अधिक श्रम करना (७) जिम्मेदारी-जिम्मेदारीका भी मूल्य होता है। पड़ता है उसका मूल्य उतना ही अधिक होता है। सब एक श्रादमीको अमुक समय काम करने के बाद उसके हानि कार्योमें शरीरिक श्रम बराबर नहीं होता और शारीरिक लाभसे कोई मतलब नहीं, दूसरेको हर समय हानि लाभका कार्योंकी अपेक्षा वाचनिक और मानसिक कार्यों में श्रम अधिक विचार रखना पड़ता है उसकी चिंता करनी पड़ती है। होता है। एक आदमी आठ घंटे घास खोदनेका काम वर्षो मैनेजरको जितना ध्यान रखना पड़ता है उतना साधारण कर सकता है। पर चार घंटे व्याख्यान देने का काम बहुत मजदूर या क्लर्क को नहीं रखना पड़ता । इसलिये मैनेजरका दिन नहीं कर सकता, उसका गला बैठ जायगा दिमागी मूल्य अधिक होगा। काम तो और भी कठिन है। शरीरको एक काम में भिड़ाये (८) दुर्लभता-जिस कामको करने वाले मुश्किलसे रखनेकी अपेक्षा मनको एक काममें भिड़ाये रखना काफी मिलते हैं उनकी भी कीमत बढ़ती है। तीर्थकर पैगम्बर कठिन है। शरीरको स्थिर रखनेकी अपेक्षा मनको स्थिर महाकवि, महान वैज्ञानिक, महान दार्शनिक, महान नेता, रखना काफी कठिन है। इसलिये मानसिक श्रमका मूल्य महान लेखक, महान कलाकार आदि काफी दुर्लभ होते हैं अधिक है। इसलिये इनकी कीमत काफी अधिक होती है । आर्थिक (४) सहसाधन-किसी कामको करनेमें जितने अधिक दृष्टिसे तो इनकी कीमत चुकाना अशक्य होता है इसलिये महसाधनोंकी जरूरत होगी उसका मूल्य उतना अधिक इनकी ज्यादतर कीमत यश प्रतिष्ठाके द्वारा चुकाना पड़ती होगा। दर्जीको सिलाईके काममें एक मशीनकी जरूरत है, है। पर इनके सिवाय साधारण क्षेत्रमें भी दुर्लभताका असर तो इस साधनके कारण भी उसके श्रमका मूल्य बढ़ जाता पड़ता है । पहिले मैट्रिक पास व्यक्ति भी बड़ा दुर्लभ था है। इसी तरह विशेष दिमागी कार्य करनेके लिये ठण्डे इसलिये उसकी भी काफी कीमत थी, अब बी.ए., एम.ए. वातावरणमें रहना, घी आदि विशेष तरावटी चीजें खाना भी हजारों लाखोंकी संख्यामें सुलभ है इसलिये उनकी भी आदि सहसाधन हैं। एक अभिनेत्रीको अपनी सुन्दरता कीमत काफी घट गई है। बाजारमें जिस चीज़ की जितनी बनाये रखना, हजारों प्रशंसकोंके पत्र आते हैं। उनको पढ़नेके मांग होती है उससे अधिक चीज आ जाय तो उसकी कीमत लिये प्राइवेट सेक्रेटरी रखना प्रादि सहसाधन हैं, धनकी गिर जाती है उसी प्रकार श्रादमीके बारे में भी है। पूजी मी सहसाधन है। हाँ! समाजको ऐसी व्यवस्था करना चाहिये कि प्रसाइन कारणों से विशेष पारिश्रामिक देना जरूरी है। धारण महामानवोंको छोड़कर साधारण क्षेत्रमें अतिदुर्लभता Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ३] निरतिवादी समता [७७ कारण किसीकी कीमत मूल्यसे अधिक न होने पाये और प्रति तरह अनुचित है। वह अन्यायपूर्ण भी है और अग्यावहासुलभता के कारण किसीकी कीमत मूल्पसे गिरने न पाये। रिक भी। मानिसको ६-प्रतिविषमता रोकनेके लिये प्रारम्भके दो नियम बताये गये पाठ कारणोंमें से प्रारम्भके सात कारणों के पाले जाने चाहिये, साथ ही विनिमय क्षेत्र में अन्तरकी सीमा आधारपर करना पड़ता है और कीमतके निर्णयमें दुर्लभता निश्चित कर देना चाहिये । हो ! उसमें देशकालका विचार सुलभता पादमीकी गरजका भी असर पड़ जाता है। जरूर करना चाहिये। साधारणतः भारतकी वर्तमान परिस्थिति मूरूपमें उसकी सामग्रीका विचार है. कीमतमें सिर्फ उसके के अनुसार यह अन्तर एक और पचाससे अधिक न होना बाजारू विनिमयका विचार है। उदाहरणके लिये उपयोगिता चाहिए। यदि साधारण चपरासीको ३०) मासिक मिलता की रप्टिसे पानी काफी मल्यवान है पर सलभताके कारण है तो प्रधानमंत्री तथा राष्ट्रपतिको इससे पचासगुणे १५००) उसकी कीमत कुछ नहीं है। सोने चांदीकी अपेक्षा अक्ष से अधिक न मिलना चाहिए। अधिक मूल्यवान है पर दुर्लभताके कारण सोने चाँदीकी -उपार्जित सम्पत्तिके संग्रह करने पर अंकुश रहना कीमत ज़्यादा है। कहीं-कहीं मूल्य और कीमतका अन्तर चाहिए । जीके रूपमें अधिक सम्पत्ति न रहना चाहिए, यों भी समझा जा सकता है कि मूल्य बताता है कि इसकी भोगोपभोगकी सामग्री के रूपमें रहना चाहिए। जो भादमी विनिमयकी मात्रा कितनी होना चाहिए, कीमत बताती है रुपया आदि जोड़ता चला जाता है वह भोगोपभोगकी चीजें कि इसकी विनिमय की मात्रा कितनी है। चाहिये और है कम खरीदता है इससे उन चीजोंको खपत घट जाती है का फर्क भी कहीं कहीं इन दोनोंका फर्क बन जाता है। और खपत घटजानेसे उन चीजों को तैयार करने वालोंमें मनुप्येतर वस्तुओंमें यह फर्क थोड़ी बहुत मात्रामें बना रहे बेकारी बढ़ जाती है । इसलिए व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए तो बना रहे पर मनुष्यके बारेमें यह अन्तर न रहना चाहिये। कि लोग जो पायें उसे या उसका अधिकांश भोग डालें। समाजको शिक्षण तथा बाजारमें सामञ्जस्य रखना चाहिये। अमुक हिस्सा संकटके समयके लिए सुरक्षित रक्खें, जिससे असाधारण महामानवों की बात दूसरी है क्योंकि आर्थिक संकटमें उधार न लेना पड़े। दृष्टिसे उनकी ठीक कीमत प्रायः चुकाई नहीं जाती। फिर भी यदि कोई पूजीके रूपमें या रुपयाके रूपमें अधिक संग्रह करले तो उसका फर्ज है कि वह अपनी बचतका खैर ! ये पाठ कारण हैं जिनसे पारिश्रमिक या पुरस्कार बहुभाग सार्वजनिक सेवाके क्षेत्रमें दान कर जाय या मृत्युकर अधिक देना चाहिये। द्वारा उससे ले लिया जाय । एक ही कारणसे विनिमयकी दर बढ़ जाती है। जहाँ इस नियमसे अतिविषमतापर काफी अंकुश पड़ेगा। जितने अधिक कारण होंगे वहां विनिमयकी दर उतनी ही अतिसमताके पासमानी गीत गाना स्वरपर वञ्चनाके अधिक होगी। यदि अतिसमताके कारण इनकी विशेष सिवाय कुछ नहीं है और अतिविषमता चालू रखना इन्सान कीमत न चुकाई जायगी तो इन विशेषताओंका नाश होगा को हैवान और शैतान मेंबांट देना है, इसलिए निरतिवादी और मिलना अशक्य होगा। इस प्रकार अतिसमता हर समताका हो प्रचार होना चाहिए। -संगम से मेरीमावनाका नया संस्करण 'मेरीभावना' एक राष्ट्रीय कविता है जिसका पाठ करना प्रत्येक व्यक्तिको अपने मानव जीवनको ऊँचा उठाने के लिए अत्यन्त आवश्यक है। वीरसेवामन्दिरसे उसका अभी हालमें संशोधित नया संस्करण प्रकाशित हुआ है। जो अच्छे कागज पर छपा है। बांटने या थोक खरीदने वालोंको ३२) सैकड़ाके हिसाबसे दिया जाता है। एक प्रतिका मूल्य एक पाना है। आर्डर देकर अनुग्रहीत करें। मैनेजर-वीरसेवा-मन्दिर ग्रंथमाला दरियागंज, दिल्ली Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काक-पिक-परीक्षा (पं०हीरालाल सिद्धान्त शास्त्री) काक (कौमा) और पिक (कोयब) दोनों तिग्गतिके अपने प्रति सबके दिलमें घृणा पैदा कर देती है। इस पंख वाले प्राणी है, दोनों ही काले हैं और दोनोंका समय काककी कटुता और पिककी प्रियताका पता चलता माकार-प्रकार भी प्राया एकसा ही है। कहा जाता है है। तुलसीदास जीने बहतही ठीक कहा:कि दोनोंके अंडोंका रूप-रंग और प्राकार एक ही होता है कागा कासों खेत है,कोयल काको देत । और इसलिए काकी श्रमसे कोयनके अंडेको अपना अंडा तुलसी मीठे वचनसो. जग अपनो कर खेत ॥ समझ कर पालने लगती है। समय पर अंडा फूटता है इस विवेचनका सार यह है कि काक और पिकमें और उसमेंसे पचा निकलता है, तो काकी उसे भी बोलीका एक मौखिक या स्वाभाविक अन्तर है, जो दोनों अपना बच्चा समझकर पालती-पोषती है और चुगा-चुगा- के भेदको स्पष्ट प्रगट करता है। इस अन्तरके अतिरिक्त कर उसे बड़ा करती है। धीरे-धीरे जब वह बोलने लायक दोनों में एक मौलिक अन्तर और है और वह यह कि हो जाता है, तो काक उसे अपनी बोखी सिखानेकी कौएकी नजर सदा मैले पदार्थ-विष्ठा, मांस, थूक आदि कोशिश करता है। पर कोयल तो वसन्त ऋतुके सिवाय पर रहेगी । उसे यदि एक मोर अथका ढेर दिखाई दे अन्य मौसममें प्रायः कुछ बोलती नहीं है, अतएव कौश्रा और दूसरी भोर विष्ठामें पदे भमके दाने तो यह जाकर उसके न बोलने पर मुभलाता है और बार-बार चोंचे विष्ठाके दानों पर ही चोंच मारेगा, माके ढेर पर नहीं। मार-मारकर उसे बुलानेका प्रयत्न करते हुए भी सफलता इसी प्रकार धी और नाकका मन एक साथ दिखाई देने नहीं पाता, तो पाचेको गूंगा समझकर अपने दिखमें पर भी वह नाके मन पर पहुँचेगा, घी पर नहीं। बहादुखी होता है। फिर भी वह हताश नहीं होता और कौएकी दृष्टि सदा अपवित्र गन्दी भोर मैली चीओं पर उसे बुलानेका प्रयत्न जारी रखता है। इतने में वसन्तका ही पड़ेगी। पर कोयलका स्वभाव ठीक इसके विल्कुल समय मा जातात, मात्रकी नव मंजरी खाकर उसका विपरीत होता है। वह कभी मैले और गन्दे पदार्थों को कंठ खुल जाता है। कौमा सदाकी भांति उसे अब भी खाना तो दूर रहा, उन पर नजर भी नहीं डालती, न 'कांव-कांव' का पाठ पढ़ाता है। पर वह कोयलका बच्चा कभी गंदे स्थानों पर ही बैठती है। जब भी बैठेगीअपने स्वभावके अनुसार 'कांव-कांव' न बोलकर 'कहू- वृक्षोंकी ऊँची शाखाओं पर ही बैठेगी और उनके नव, कह' बोलता है। कौमा यह सुनकर चकित होता है और कोमल पल्सवों और पुष्पोको ही खायगी। कास्की मनोयह बच्चा तो 'कपूत' निकला, ऐसा विचार कर उसका दृत्ति अस्थिर भोर एष्टि चंचल रहती है, पर कोयलकी परित्याग कर देता है। मनोवृत्ति और दृष्टि स्थिर रहती है। इस प्रकार काक और कौएके द्वारा इतने लम्बे समय तक पाखे-पोषे जानेके कोयनमें खान-पान, बोली, मनोवृत्ति और रष्टि सम्बन्धी कारण कोयनको 'पर-मृत' भी कहते है। तीन मौलिक अन्तर है। काक और कोयलकी समताको देखकर सहज ही शंका-तिर्यग्गतिका जीव तथा प्राकार-प्रकारकी प्रश्न उठता है कि फिर इन दोनोंमें क्या अन्तर है? एकसमता होने पर भी दोनों में उपयुक्त तीन मौलिक किसी संस्कृत कविके हृदयमें भी यह प्रश्न उठा और उस विषमता उत्पन होनेका क्या कारण है। यह समाधान भी मिजा: समाधान-तिर्यंचोंमें उत्पन्न होनेका कारया मावाचार काकः कृष्णः पिकः कृष्याः, को भेदः पिक-काकयो। अर्थात् छल-कपटरूप प्रवृत्ति बतलाई गई है। जो जीव वसन्तकाले सम्प्राप्ते, काकः काकः पिक: पिकः॥ इस भवमें दूसरोंको धोखा देनेके लिए कहते कुछ और है, अर्थात्-काक भी काला है और कोयल भी काली करते कुछ और है, तथा मनमें कुछ और ही रखते हैं, वे है, फिर काक और कोयनमें क्या भेद है। इस प्रश्नके भागामी भवमें तीर्यचोंमें उत्पम्न होते है। इस मागमउत्तरमें कवि कहता-बसम्वतुके माने पर इन दोनों नियमके अनुसार जब हम काक और पिकके पूर्वभवोंके का भेद दिखाई देता है, उस समय कोयनकी बोली तो कृत्यों पर विचार करते है,तो ज्ञात होता है कि उन दोनों बोगोंके मनको मोहित कर लेती है और कौएकी बोली के तिर्यंचोंमें उत्पन्न करानेका कारण मायाचार एकसा रहा Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ३] विश्वकी शान्तिको दूर करनेका उपाय [७६ है, इस लिए दोनों तियचों में उत्पन्न हुए। तिर्यचोंमें भी करते हुए भी दूसरों के दोषों, ऐरों और अवगुणों पर नज़र प्रधानतः दो जातियां है-पशु जाति और पची जाति। न रखकर गुणों और भनाइयों पर नजर रखता था, स्थिर जो केवल उदर-पत्ति के लिये मायाचार करते हैं, मेरा माया- मनोवृत्ति और मचिंचव रष्ठि था, अखाद्य और खोकनिध चार प्रगट महो जाय, इस भयसे सदा शंकित-चित्त रहते पदार्थोंको नहीं खाता था और लोगोंके साथ बातचीतके हैं, मायाचार करके तुरन्त नौ-दो ग्यारह हो जाते हैं, या समय ति. मित और प्रिय बोलता था, वह उस प्रकारके भागनेको फ्रिक में रहते है.वे पक्षी जातिके जीवोंमें उत्पन्न होते संस्कारोंके कारण कोयनकी पर्यायमें उत्पन्न हुभा, जहां हैं। जो उदर-पत्ति अतिरिक्त समाज में बवाबनने, खोक- वह स्वभावत: ही मीठी बोली बोलता है, असमयमें नहीं में प्रतिष्ठा पाने और धन उपार्जन करने सादिके लिए बोलता, उंची जगह बैठता है और उत्तमही खान-पान मायाचार करते हैं, वे पशुजातिके तिर्यचोंमें उत्पन्न होते रखता है। पूर्वभवमें बीज रूपसे बोये गये संस्कार इस हैं। तदनुसार काक और कोयनके जीवॉन अपने पूर्वभवामें भव में अपने-अपने अनुरूप वृषरूपसे अकुरित पुष्पित भोर एकसा मायाचार किया है,मत: इस भवमें एकसा रूप रज फलित हो रहे हैं। कौएमे जो बुरापन और बोली की और प्राकार प्रकार पाया है। परन्तु उन दोनांक जीवोंमें कटुता, तथा कोयल में जो भलापन और बोलीको मिष्टता से जिसका जीव मायाचार करते हुए भी दूसरोके दोषों ऐवों अाज दष्टिगोचर हो रही है, वह इस जन्मके उपार्जित और अवगुणों पर ही सतर्क और चंचल दृष्टि रखता था, संस्कारोंका फल नहीं, किन्तु पूर्वजन्मके उपार्जित अखाद्य वस्तुको खाया करता था,तथागतचीत में हर एकके संस्कारोंकाही फल है। माप समय-समय कांव-कांव(व्यर्थ बकवाद)किया करता था वह तदनुकूल सस्कारोंके कारण काकको पर्याय में उत्पन्न हमें कामवृत्ति छोड़कर दैनिक व्यवहार में पिकके समान हुमा। किन्तु जो जीव काकके जीवके समान मायाचार मधुर और मितभाषी होना चाहिए। विश्वकी अशान्तिको दूर करनेके उपाय (परमानन्द जैन शास्त्री) विश्व-प्रशान्ति के कारण विनाशकारी उन अस्त्र-शस्त्रोंकी चकाचौंधमें वह अपनी माजके इस भौतिक युगमें सर्वत्र अशान्ति ही शांति कर्तव्यनिष्ठा और न्याय अन्यायकी समतुबाको खो दृषि गोचर हो रही है। संसारका प्रत्येक मानव सुख-शांति बैठा है, वह साम्राज्यवादको मूली विप्सामें गन्जीतिक का इच्छुक है, परन्तु वह घबराया हुआा-सा दृष्टिगोचर अनेक दाय-पंचखेवर अपरेको समयत सुखी समृद्ध होता है। उसकी इस प्रशान्तिका कारण इच्छानोंका देखना चाहता है और दूसरेको अविनत-गुलाम निधन मनियन्त्रण, भप्राप्ति,साम्राज्यवादकी लिसा,भोगा एवं दुखी, राष्ट्र और देशों की बात जाने दीजिये | मानवऔर या प्रतिष्ठा मादि है। संसार विनाशकारी उस भीषण मानवबीच परिमाकी अन्ततृष्या और स्वार्थ तस्वरयुद्धकी विभीषिकासे ऊब गया। एटमबम और ग्वजन- ताके कारण गहरी खाई हो गई है, उनमेंसे कब बोग वमसे भी अधिक विनाशकारी अस्त्र शस्त्रोंक निर्माणको तो अपनेको सर्व प्रकारसे सुखी और समुभव देखना चाहते चर्चा उसकी आन्तरिक शान्तिको खोखला कर रही है। एक है और दूसरेको निर्धन एवं दुखी। दूसरेको सम्पत्ति पर राष्ट्र दूसरे राष्ट्रको निगल जाने, उनकी स्वतन्त्रता वाधा कब्जा करना चाmaहै। और उसे संसारसे प्रायः समाप्त डालने अथवा हर जाने के लिये तय्यार है। ९० देश करनेकी भावना भी रखता है इस प्रकारकी दुर्भावनाएं दूसरे देशकी श्री और धन-सम्पत्ति पर अपना अधिकार ही नहीं है किन्तु इस प्रकारकी अनेकों शरणाएं भी बर्षित कर अपना प्रभुत्व चाहता है, इतना ही नहीं किन्तु उन हो रही है जो अशान्धिकी जमकरे और अहिंसाधर्मसे देशवासियोंको पराधीन एवं गुखाम बनाना चाहता है। परान्मुखनेका स्पष्ट संदेश करती है। इसी कारण Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०1 अनेकान्त [वर्ष १३ संसारका प्रत्येक देश विविध उपायोंसे अपनी शक्तिको हमारी ही कमबोरी,कायरता है, पाप है, हिंसा है। संचित करने और एक दूसरेको नीचा दिखाने में लगे हुए इस पापसे छुटकारा अहिंसा विना नहीं हो सकता। है। इस तरह प्रत्येक देशकी खुदगर्ग (स्वार्थ तत्परता) अहिंसा पास्माका गुण है, परन्तु उसकी अभिव्यक्ति ही उन्हें पनपने नहीं दे रही है। और संसारके सभी वीर पुरुष में होती है, कायरमें नहीं; क्योंकि यह प्रारममानव मागत युद्धकी उस भयानक विभीषिकासे मन्त्रम्त घाति है, यहाँ वीरता और आत्म-निर्भयता है वहीं अहिंसा रहे है-भयभीत हैं प्रशान्त और उद्विग्न है: वे है। और वहां कापरता, बुजदिली एवं भयशीखता है वहां शान्तिके इच्छुक होते हुए भी बेचैन है, क्योंकि उनके हिंसा है। काबरताके समान संसारमें अन्य कोई पाप मामने एकमबमसे होने वाले हिरोशिमा विनाशक गरि नहीं है क्योंकि वह पापोंको प्रश्रय अथवा प्राश्रय देती बाम सामने दिख रहे है। मौतिक अस्त्र शस्त्रोंका निर्माण है। कायर मनुष्य मानवीय गुणोंसे भी वंचित रहता है, एवं संग्रह उनकी उस विनाशसे रक्षा करने में नितान्त बस- उसकी चारमा हर समय डरपोक बनी रहती है और वह मर्थ है। किसी एक विषय में स्थिर नहीं हो पाता। उस पर दुःख युरसे कभी शान्ति नहीं मिलती प्रत्युत प्रशान्ति और उद्वेग अपना अधिकार किये रहते हैं उसका स्वभाव मुखमरी एवं निर्धनता (गरीबी) तथा बेकारी बढ़ती है एक प्रकारसे दम्बू हो जाता है वह दूसरोंको कुत्सितवृत्तिके इससे मानव परिचित है और युद्धोत्तर कठिनाइयोंको भोग खिबाफ पा उनके असम्यवहारके प्रतिपक्षमें कोई काम कर बनुभव भी प्राप्त कर चुका है। अतः युद्ध किसी तरह नहीं कर सकता, किन्तु वह हिवता भयखाता और शंकाभी शान्तिका प्रवीक नहीं हो सकता । तो फिर कभशां. शीख बना रहता है कि कहीं वह अमुक बुरे कार्यमें मेरा तिके दूर करनेका क्या उपाय है? नाम न ले दे-मुझे ऐसे दुष्कर कार्य में न फंसा दे, जिससे फिर निकलना बड़ी कठिनतासे हो सके, इस तरह उसकी प्रशान्तिके दूर करनेका उपाय अहिंसा भयावह मामा अत्यन्त निर्बल और दयनीय हो जाती है, विश्वकी इस प्रशान्तिको दूर करनेका एक ही अमोघ वह हेयोपादेषके विज्ञानसे भी शून्य हो जाता है इन्हीं जरा और वह अहिंसा । यही एक ऐसा शस्त्र सबकारणोंसे कायरता दुपयोंकी जमक और मानवकी जिस पर बनेसे प्रत्येक मानव अपनी सुरक्षाकी गारन्टी अत्यन्त शत्र है। परन्तु महिपा वीर पुरुषकी भारमा है कर सकता है और अपनी मान्तरिक प्रशान्तिको दूर अथवा वही पबवान् पुरुष उसका अनुष्ठान कर सकता करने में समर्थ हो सकता है। जब तक मानव मानवताके है जिसकी रष्टि विकार रहित समीचीन होती है उसमें रहस्यसे अपरिचित रहेगा अर्थसंग्रह अथवा परिग्रहकी कायरतादि दुणुय अपना प्रभाव अंकित करने में समर्थ अपार तृण्यारूपी दाहसे अपनेको खाता रहेगा तब तक नही हो पाते क्योंकि उसके पमा, वीरता, निर्भयता और पहहिंसाकी उस महत्तासे केवल अपरिचित ही नहीं भीरतादि गुण प्रकट हो जाते है जिनके कारण उसकी रष्टि रहेगा किन्तु विश्वकी उस अशान्तिसे अपनेको संरचित विकृत नहीं हो पाती, वह कभी शंकाशीन भी नहीं होता करने में सर्वया असमर्थ रहेगा। अहिंसा जीवन-प्रदायनी किन्तु निर्भय और सदा निःशंक बना रहता है। उसमें शकिबह अहिंसाको हो महत्ता है जो हम समष्टिरूपसे दूसरोंके दोषोंको पमा करने अथवा पचानेकी पमता एवं एक स्थानमें बैठ सकते हैं, एक सरेके विचारोंडो सामर्थ्य होती है। वह बास्म प्रशंसा चौर पर विदाम्मेषण सकते हैं, एक दूसरे मुखदुःखमें काम आते है, उनमें की वृत्तिसे रहित होता है, और अपनेको निरन्तर क्रोधादिप्रेमभावकी वृद्धि करने में समर्थ हो सकते है। यदि दोषोंसे संरक्षित रखनेका प्रयत्न करता रहता है, उसकी अहिंसा मारा स्वाभाविक धर्म न होता तो हम कभी निर्मख परिणति ही अहिंसाकी जनक है। सधिमें एक स्थान पर प्रेमसे बैठ भी नहीं सकते, विचार भगवान महावीरने माजसे हाई हजार वर्ष पहले सहिष्णुता होगा तो दुरकी पास है। हम कभी-कभी दूसरे मानव जीवनकी कमजोरिया, अपरिमित इमामोंके वचनोंको सुनकर भाग-बबूला हो जाते हैं प्रशान्त अभीष्ट परिग्रहकी सम्माप्तिस्प माशाचों-और मानवताहोकर अपने सन्तुबनको खोकर असहिष्णु बन जाते हैं.बह शून्य अनुदार विचारों भादिसे समुत्पड इन भयानक Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ३] मौजमाबादके जैन शास्व भण्डारमें उल्लेखनीय ग्रन्थ [८१ परिस्थितियोंका विचार कर जगतकी इस बेदनाको और माध्यामिक है उसकी साधना जीवनका अन्तस्तत्व उनके अपरिमित दुःखोंसे छुटकारा दिलाने के लिए पहिसा- सबिहिव है, जबकि राजनीतिको चाहिंसाका माध्यामिका उपदेश दिया, इतना ही नहीं किन्तु स्वयं उसे जीवन में कयासे कोई खास सम्बन्ध नहीं है फिर भी बहनैतिकतासे उतार कर-पहिसक बन कर और अहिंसाकी पूर्ण दूर नहीं है। प्रतिष्ठा प्राप्त कर बोकमें अहिंसाका वह भादर्श हमारे हिसाकी पूर्ण प्रतिष्ठासे जब जाति विरोधी जीचोंसामने रक्खा है। भगवान महावीरकी इस देनका भारत- का-सिंह बकरी, चूहा बिल्ली बकुल सर्प मादिका-औरकी तत्कालीन संस्कृतियों पर इतना गहरा प्रभाव पड़ा कि विरोध शान्त हो जाता है तब मानव मानवके विरोधका बेहिसा धर्मको अपनाने ही नहीं लगी प्रत्युत उसको अन्त हो जाना कोई पाश्चर्य नहीं है। इसीसे धमके उन्होंने अपने अपने धर्मका भंग भी बनानेका यत्न किया विविध संस्थापकोंने हिंसाको अपनाया है और अपनेहैं। भगवान महावीरने माहिंसाके साथ अपरिग्रहवाद, अपने धर्मग्रन्थों में उसके स्थूल स्वरूपकी चर्चा कर उसकी कर्मवाद और साम्यवादका भी अनुपम पाठ पढ़ाया था। महत्ताको स्वीकार किया है। प्रस्तु, यदि हम विश्व में उनके ये चारों हो सिद्धान्त प्रत्येक मानवके लिए कसोटी शान्तिसे रहना चाहते हैं तो हमारा परम कर्तव्य है कि ई। उन पर चलनेसे जीवमात्रको अपार दुखोंकी हम प्रशान्तिके कारणोंका परित्याग करें-अपनी परतन्त्रता मुक्ति मिल जाती है, और वह सरुवी सुख- इच्छामोंका नियन्त्रण करें, अपरिग्रह और साम्यवादका शान्तिका अनुभव कर सकता है। आश्रय लें, अर्थसंग्रह, साम्राज्यवादको लिप्सा और अपनी ___ महात्मा बुद्धने भी उसीका अनुसरण किया, परन्तु यश प्रतिष्ठादिके मोहका संवरण करते हुए अपने विचारोंवे उसके सूचम रूपको नहीं अपना सके । उनके शासनमें मरे हुए जीवका मांस खाना वर्जित नहीं है। महात्मा को समुदार बनावें, और अहिंसाके रष्टिकोणको पूर्णतया गांधीने महावीरकी महिंसा और सत्यका शक्त्यनुमार पालन करते हुए ऐसा कोई भी व्यवहार न करें जिससे मांशिक रूपमें अनुसरण कर बोकमें अहिंसाकी महत्ताको दूसरों को कष्ट पहुंचे। तभी हम युद्धकी विभीषिकास चमकानेका प्रयत्न किया और बोकमें महात्मा पन बच सकते हैं। उस अशान्तिसे एकमात्र अहिंसा ही भी प्राप्त किया, उन्होंने अपने जीवन में राजनीति में भी हमारा उद्धार कर सकती है। और हमें सुखी तथा समृद्ध अहिंसाका सफल प्रयोग कर दिखाया। महावीरकी महिसा बनाने में समर्थ है। मौजमाबादके जैनशास्त्रभंडारमें उल्लेखनीय ग्रन्थ श्रीकुमारसमण सुचक सिद्धिमागरजीका चतुर्मास मन्दिरमें स्थित शास्त्रमण्डारको अवश्य देखते है और इस वर्ष मौजमाबाद (जयपुर) में हो रहा है। मापने प्राप्त हुए कुछ खास ग्रन्थोंका नोट कर उनका संक्षिप्त मेरी प्रेरणाको पाकर वहांके अन्यभण्डारमें स्थित कुछ परिचय भी कभी-कभी पनोंमें प्रकट कर देते हैं। अप्रकाशित महत्वपूर्ण प्रन्थों की सूची भेजी है जिसे पाठकों प्राज समाज में मुनि, पुस्तक ब्रह्मचारी और अनेक की जानकारीके लिये प्रकाशित की जा रही है। इस सूची त्यागीगण मौजूद है। यदि वे अपनी रुचिको जैनसाहित्यपरसे स्पष्ट है कि राजस्थानके अन्य भण्डारोंमें अपन के समुद्धारको भोर बगाने का प्रयत्न करे जैसा कि श्वेतांबर और संस्कृत भाषाके अनेक महत्वपूर्ण ग्रन्थ पूर्ण-अपूर्ण मुनि कर रहे है तो जैनसाहित्यका उद्धार कार्य सहज ही रूप में विद्यमान है, जो अभी तक भी प्रकाशमें नहीं पा सम्पन्न हो सकता है। प्रात्म-साधनके भावश्यक कार्योंके सके हैं। दुल्नकजी स्वयं विद्वान हैं और उन्हें इतिहास अतिरिक्त शास्त्रभरबारोंमें प्रन्योंके अवलोकन करने उनकी और साहित्य के प्रति अमिचि है, लिखने और टोकादि सूची बनाने और अप्रकाशित महत्वके अन्धोंको प्रकाशमें करनेका भी उत्साह है, अतएव वे जहाँ जाते हैं वहांके जाने की भोर प्रयत्न किया जाय तो समाजका महत्वपूर्ण Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ वर्ष १३ में और भी अधिक प्रयत्नशील होने की चेष्टा करेंगे। पुलकीने मौजमाबादके शास्त्र भण्डारकी जो सूची भेजी है इसके लिए हम उनके आभारी हैं। उस सूची में से जिन अप्रकाशित महत्वपूर्ण अन्य प्रन्थभवडारोंमें अनुपलब्ध ग्रन्थोंके नाम जान पड़े उनका संक्षिप्त विवरण निम्न प्रकार है: ८२] अनेकान्त अधिकांश कार्य बोलेल सकता है और उससे समाज बहुत सी दिक्कतोंसे भी बच सकता है। चतुर्मास में स्वागीगण एक ही स्थान पर चार महीना व्यतीत करते हैं। यदि वे प्रात्मकल्याणके साथ जैनसंस्कृति और उसके साहित्यकी ओर अपनी रुचि व्यक्त करें तो उससे सेकड़ों प्राचीन ग्रन्थोंका पता चल सकता है और दीमक कीटकादिले उनका संरक्षया भी हो सकता है। माथा है मुनि, महाचारी और त्यागीगण साहित्यसेवाके इस पुनीत कार्यमें अपना सक्रिय सहयोग प्रदान करेंगे। खेद है आज समाज निवासी प्रति भारी उपेक्षा रही है उसकी और न अनिका ध्यान है, न स्यागि मोंका और न विद्वानोंका है। ऐसी स्थिति जिनवाणीका में संरक्षण कैसे हो सकता है ? आज हम जिनवाणीकी महचाका सूक्ष्यांकन नहीं कर रहे है और न उसकी सुखाका ही प्रयत्न कर रहे हैं, यह बड़े भारी खेदका विषय है। समाजमें जनवादी माताकी भक्ति केवल हाथ जोड़ने अथवा नमस्कार करने तक सीमित है, जबकि जिनवाणी और जिनदेवमें कुछ भी असर नहीं नहि किं माहुराप्ता हि अ तदेवयो: श्री जैनधर्मके गौरव साथ हमारे उत्थान-पतनको यथार्थ मार्गोपदेशिका है। समाज मन्दिरों में चाँदी खांनेके उपकरण टाइल और संगमर्मरके फर्श लगवाने, नूतन मन्दिर बनवाने, मूर्ति-निर्माण, करमे, वेदी प्रतिष्ठा और रथमहोत्सवादि कार्योंके सम्पादन में लगे हुए है। जब कि दूसरी समाजे अपने शास्त्रोंकी सहाय बालों कपया जगा रही है। एक बाश्मीकि रामा के पाठ संशोधन के लिए साढ़े आठ लाख रुपये लगानेका समाचार भी नवभारत में प्रकाशित हो चुका है। इतना सब होते हुए भी दिगम्बर समाजके नेतागयोंका ध्यान इस तरफ नहीं जा रहा है वे अब भी अर्धसंचय और अपारनुष्याकी पूर्ति हुए है। उनका जनसाहित्यका इतिहास में लगे जैम शब्दकोष, जैन प्रम्थसूची आदि महत्वके कार्योंको सम्पन्न करानेकी शोर ध्यान भी नहीं है। ऐसी स्थिति में जिनवाणीके संरचय उदार और प्रसारका भारी कार्य, जो बहु अर्थ व्ययको लिए हुए है कैसे सम्पन्न हो सकता है ? भाया है समाजके नेतागण, और विज्ञान तथा त्यागीगय अब भी इस दिशा में जागरुक होकर प्रयत्न करेंगे, तो यह कार्य किसी तरह सम्पन हो सकते हैं। सुक्नक सिद्धिसागरजीसे हमारा सानुरोध निवेदन है कि वे जैसाहित्यके समुद्धार १. नागकुमार चरित-यह प्रन्थ संस्कृत भाषाका है और इसके कर्ता मा मिस है जो विकमकी १५० शादी के विद्वान थे। २. बुद्धिरसायन - इस प्रथमे ३०३ दोहे है ? पुरानी हिन्दीमें लिखे गये हैं। इसके कर्ता कवि जिगर है दोहा श्राचरय-सम्बन्धि सुन्दर शिक्षाओंसे है। उसके अलंकृत आदि अन्त दो नीचे दिये जाते हैं- पढम (पढमि) कार बुध, भासइ जिरणवरूदेउ । भास" वेद पुराण सिरु, सिव सुहकारण हे उ || १ || + + + पढत सुरांत जेवियर, लिहवि लिहाइवि देश । ते सुद्द भुजदि विविध परि, जिवर एम भोइ ॥ ३७६ ॥ यह कसं १६ का खिला हुआ है जो नकोसं नामके मुनिराजको समर्पण किया गया है। इससे स्पष्ट है कि यह ग्रन्थ उक्त सवत् से पूर्व बनाया गया है, कब बनाया गया ? यह विचारणीय है । ३. इस गुच्छकमें ६ प्रन्थ हैं- कोफिलापंचमीकथा २ मुकुट सप्तमीकथा ३ दुधारसिकथा ४ आदित्यवारकथा, ५ तीनचडवीसीकथा, ६ पुष्पांजलि कथा ७ निर्दुखसप्तमीकथा, ८ निर्भरपंचमीकथा अनुप्रेक्षा । इन सब ग्रन्थोंके कर्ता ब्रह्म साधारण हैं जो भट्टार क मरेन्द्र कीर्तिके शिष्य थे यह गुक संवत् १२० का खिला हुआ है, जिसकी पत्र संख्या २० है जिससे मालूम होता है कि ये सब कयादि प्रन्य उक संवत् मे के र हुये हैं। ४. यदुचरित --(सुनिकामर ) यह ग्रन्थ अपभ्रंश भाषामें रचा गया है। यह मुनि कनकामरकी दूसरी कृति जान पड़ती है परन्तु वह अपूर्ण है, इसके ४५ से ७० तक कुल २४ पत्र ही उपलब्ध हैं। शेष आदिके पत्र प्रयत्न करने पर शायद उक्त भंडार में उपलब्ध हो जॉय, ऐसी सम्भावना है। ५. अजितपुराण समन्धमें जैनियोंके दूसरे तीर्थं • Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - किरण ३] [ ३ कर अजितनावका जीवन परिचय दिया हुमा है। जिसकी .चौवीस ठाणा-(पाकृत) यह ग्रंथ सिरसेनसूरी पत्र संख्या और संधियोंकी रखोक संख्या १२०. इसमें चौबीस तीर्थंकरों जन्मादिकापन गामारखोक जितनी है। इस ग्रन्थ कर्ता कवि विजयसिंह है, पर दिया हमा है। यह कृति भी एक गुटके में संनिहित है। परन्तु इनका परिचय मुझे अभी ज्ञात नहीं हो सका। १०. अहोरात्रिकाचार-यह प्रन्थ पं० माशापरजी यह ग्रंथ भव्य कामीरायके पुत्र देवपासके बिये विखा कृजिसकी खोक संख्या बनाई गई और गया है। जो एक गुहकमें संग्रहीत है। ५. मागोपदेश श्रावकाचार-यह संकृत भाषाका ११.हसा अनुप्रक्षास प्रमा ११.हंसा अनुप्रेक्षा-इस प्रन्यके कर्ता अजितना। सात संध्यात्मक ग्रन्थ है जिसकी पत्र संख्या १७, १२. नेमिचरित-(अपनश) महाकवि पुष्पदन्त १५वाँ पत्र इसका अनुपलब्ध है, लोक संख्या ३६ कृन यह ग्रन्थ भी एक गुरुङ्गको संकलित है। इसरित जिनमेंसे ३.१ श्लोक मूलप्रम्यक है, शेष पद्य प्रस्थकतकि ग्रन्थको देखकर यह निश्चय करना चाहिये कि यह पुष्पपरिचयको बिबे हुए है इस प्रन्यके कर्ता जिनदेव हैं। दन्तकी स्वतन्त्र कृति है पा महापुराणन्तर्गत ही नेमिनाययह अन्य भट्टारक जिनचन्द के नामांकित किया हुआ है। का चरित । प्रस्थका मंगलपय निम्न प्रकार है: १३. अमृतमार-यह प्रय, संधियोंको जिये नत्वा वीरं त्रिभुवनगुरं देवराजाधिवंद्य, कर्माराति जयति सकलां मूलसंघे दयालु । १४. षद् द्रव्यनिर्णयविवरण ज्ञानः कृत्वा निखिलजगतां तत्त्वमादीषु वेत्ता, १५. गोम्मटसार पंजिका-यह जीवकाम कारबकी एक संस्कृत माकृत मिश्रित पंजिका टीका है धर्माधर्म कथयति इह भारते तीर्थराजः ॥११॥ जिसके कर्ता मुनि गिरिकीर्ति हैं। इस प्रन्यका विशेष ६. अपभ्रंश कथा संग्रह-इसमें तीन कथायें दी परिचयबादको दिया जायगा। हुई हैं जिनमें प्रथम कथा रोहिणी व्रत की है, जिसके कर्ता १६. श्रुतभवनदीपक-यह भहारक देवसेन कृत मुनि देवनंदी है। यह अन्य भामेर भंडारादिके गुण्डकोंमें संस्कृत भाषाका ग्रंथ है। भी है। दूसरी कथा, दुधारसिनरक उतारी नाम की १७. रावण-दोहा-प्राकृत (गुडकमें) है जिसके कर्ता विनयचन्द मुनि हैं। वीसरी कथा सुगन्ध १८. कल्याणविहाण-(अपनश) इस अन्य दशमी नामकी है जिसके कर्ता सुबमाचार्य है। भण्डारमें वे सबप्रय भी विद्यमान है जो दूसरे भंडारों में ७.योगप्रदीप-यह संस्कृत भाषाका प्रन्य है जिसके पाये जाते हैं। कुछ प्रन्योंकी मूब प्रतियाँ भी उपलब्ध कर्ता संभवतः सोमदेव जान पड़ते हैं। इसका विशेष है, यया-सोमदेवाचार्यका यशतिलकचम्पू मूल, विचार ग्रंथ देख कर किया जा सकता है। गोम्मटसारकर्मकाण्ड मूब, (यन्त्र रचना सहित) ___८.अज्ञात न्याय ग्रन्थ-यह न्याय शास्त्रका एक सिद्धान्तसार प्रा० (यन्त्र रचना सहित) छोटा सा ग्रंन्य है जो परीक्षामुखके बादकी रचना है, रानवार्तिकमूल, और अमरकोशकी टीका र रचना सरल और तर्कणा शैलीको लिये हुए है। स्वामिकृत मौजूर है। -परमानन्द जैन मंगल पद्य सबैया इकतीसा वंदू वद्धमान जाको ज्ञान है समन्तभद्र, गुण अकलंक रूप विद्यानन्द धाम है। जाको अनेकान्तरूप वचन अबाध सिद्ध, मिथ्या अन्धकारहारी दीप ज्यों ललाम है ।। भव्यजीव जासके प्रकाश तें विलोके सब, जीवादिक वस्तुके समस्त परिणाम हैं। वर्ता जयवन्त सो अनन्तकाल लोक मांहि, जाको ध्यान मंगल स्वरूप अभिराम हैं। -कविवर भागचन्द Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण संस्कृतिमें नारी (परमानन्द शास्त्री) श्रमण संस्कृतिमें नारीका स्थान ले। उस समय वैदिक संस्कृतिका बोलबाला था । उसके श्रमण संस्कृति में भारतीय नारीका प्रात्म-गौरव लोकमें खिलाफ प्रवृत्ति करना साधारण कार्य नहीं था। इससे स्पष्ट आज भी उद्दीपित है, वह अपने धर्म और कर्तव्यनिष्ठाके है कि उस समय वैदिक संस्कृतिके प्राबल्यके कारण बुद्ध भी लिये जीती है। नारीका भविष्य उज्वल है, वह नरकी जननी स्त्रियोंको अपने संघमें दीक्षित करने में संकोच करते थे। है और मातृत्वके प्रादर्श गौरवको प्राप्त है। वैदिक परम्परामें परन्तु महावीरने उसे कार्यरूपमें परिणतकर भारीका समुद्धार नारीका जीवन कुछ गौरवपूर्ण नहीं रहा और न उसे धर्म ही नहीं किया, प्रत्युत एक आदर्श मार्गको भी जन्म दिया। साधना द्वारा प्रामविकास करनेका कोई साधन प्रथया . पश्चात् अानन्दकी प्रेरणा स्वरूप बुद्धने भी स्त्रियोंको अधिकार ही दिया गया, वह तो केवल भोगोपभोगकी वस्तु दीक्षित करना शुरु कर दिया। ऊपरके उल्लेखसे स्पष्ट है कि एवं पुत्र जननेकी मशीनमात्र रह गई थी। उसका मनोबल श्रमणसंस्कृति में प्रांशिक रूपसे नारीका प्रभुत्व बराबर और श्रात्मबल पराधीनताको बेड़ीमें जकड़ा हुआ होनेके कायम रहा। फिर भी नारीने उम काल में भी अपने आदर्श कारण कुठित हो गया था। वह भबला एवं असहाय जैसे जीवनको महत्ताको मष्ट नहीं होने दिया, किन्तु अपनी शब्दों द्वारा उल्लेखित की जाती थी और पुरुषों द्वारा पद- धानको बराबर कायम रखते हुए उसे और भी समुज्वल पद पर अपमानित की जाती थी। उस समय जनता-“यत्र बनानका यत्न किया । नार्यस्तु पूज्यंते रमते तत्र देवताः" की नीतिको भूल चुकी थी। सीताका आदर्श वेद मंत्रका पाठ अथवा उच्चारण करना भी उन्हें गुनाह एवं जिस तरह पुरुषोंमें सेठ सुदर्शनने ब्रह्मचर्यव्रतके अनुष्ठान अपराध माना जाता था । जाति बन्धम और रीति-रिवाज भी द्वारा उसकी महत्ताको गौरवान्वित किया: ठीक उसी तरह उनके उत्थानमें कोई सहायक नहीं थे, बल्कि वे उन्हें और एक अकेली भारतीय सीनाने अपने सतीत्व-संरक्षणका जो भी पतित करनेमें सहायक हो जाते थे । वैदिक संस्कृतिकी कठोरतम परिचय दिया उमसे उसने केवल स्त्री-जातिके इस मंकीर्ण मनोवृत्तिवाली धाराके प्रवाहका परिणाम उस कलंकको ही नहीं धोया ; प्रत्युत भारतीय नारीके अवनत समयकी श्रमण संस्कृति और उनके धर्मानुयायियों पर भी मस्तकको सदाके लिए उन्नत बना दिया। जब रामचंद्रने पड़ा। फलतः उस धर्मके अनुयायियोंने भी पुराणादिग्रंथों में मीतासे अग्निकुण्डमें प्रवेश करने की कठोर प्राज्ञा द्वारा नारीकी निंदा की, उसे 'विपबेल', 'नरक पद्धति' तथा मोक्ष अपने सतीत्वका परिचय देनेके लिये कहा, तब सीताने समस्त मार्गमें बाधक बतलाया। फिर भी श्रमण-संस्कृतिमें नारीक जन समूहके समक्ष यह प्रतिज्ञा की, कि यदि मैंने मनसे, धर्म-साधनका-धर्मक अनुष्ठान द्वारा प्रात्म-साधनाका कोई वचनसे, कायसे रघुको छोड़कर स्वप्नमें भी किसी अन्य अधिकार नहीं छीना गया, वे उपचार महावतादिके अनुष्ठान पुरुषका चिंतन किया हो तो मेरा यह शरीर अग्निमें भस्म द्वारा 'आर्यिका' जैसे महत्तरपदका पालन करती हुई अपने नारी जीवनको सफल बनाती रही हैं। हो जाय, अन्यथा नहीं, इतना कहकर सीता उस अग्निकुण्डकी भीषण ज्वालामें कूद पड़ी और सती साध्वी होनेके कारण तुलनात्मक अध्ययन वह उसमें खरी निकली। वैदिक संस्कृतिकी तरह बौद्ध परम्परामें भी स्त्रीका कोई धार्मिक स्थान नहीं था। आज से कोई ढाई हजार वर्ष -सर्वप्राणिहिताऽऽचार्य चरणौ च मनस्थिती। पहले जैनियोंके अंतिम तीर्थकर भगवान महावीरके संघमें प्रणम्योदारगंभीरा विनीता जानकी जगौ ॥ लाग्दों स्त्रियोंको दीक्षित देखकर और उसके द्वारा श्राविका, कर्मणा मनसा वाचा, रामं मुक्त्वा परं नरं । चुल्लिका और आर्यिकाके व्रतोंके अनुष्ठान द्वारा होने वाली समुहहामि न स्वप्नेप्यन्यं सस्यमिदं मम ॥ धार्मिक उदारताको देखकर, गौतमबुद्धके शिष्य श्रानन्द सेन पद्य तदनृतं वच्मि तदा मामेष पावकः । रहा गया, उसने बुद्धसे कहा कि आप अपने संघमें स्त्रियोंको भस्मसाभावमप्राप्तामपि प्रापयतु क्षणात् ॥ दीक्षित क्यों नहीं करते, तब बुद्धने कहा कि कौन झगड़ा मोल -पाचरित्र १०५, २४-२६ Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण संस्कृतिमें नारी बोकोपवादका वह कलङ्क जो जबर्दस्ती उसके शिर मदा कर्तव्य परावदा होती थी। वह आजकलकी नारीके समान गया था वह सदाके लिये दूर हो गया और सीताने फिर प्रबल या कायर नहीं होती थी, किन्तु निर्भय, वीरांगना संसारके इन भोग विलासोंको हेय समझकर, रामचन्द्रकी और अपने सतीत्वक संरक्षण में सावधान होती थी जिनके अभ्यर्थना और पुत्रादिकके मोहजालको उसी समय छोड़कर अनेक उद्धरण ग्रन्थों में उपलब्ध होते हैं। यह सभी जानते हैं पृथ्वीमती पार्यिकाके निकट अविकाके व्रत ले लिये और कि नारीमें सेवा करनेकी अपूर्व क्षमता होती है। पतिव्रता अपने केशोंको भी दुखदायी समझकर उनका भी लोच कर केवल पति के सुख-दुख में ही शामिल नहीं रहती है, किन्तु डाला। कठिन तपश्चर्या द्वारा उस स्त्री पर्यायका भी वह विवेक और धैर्यसे कार्य करना भी जानती है। पुराणमें विनाशकर स्वर्गलोकमें प्रतीन्द्र पद पाप्त किया। ऐसे कितने ही उदाहरण मिलते हैं जिनमें स्त्रीने पतिको सेवा ___ भारतीय श्रमण-परम्परामें केवल भगवान महावीरने करते हुए, उसके कार्यमें और राज्यके संरक्षणमें तथा युद्ध में नारीको सबसे पहले अपने संघमें दीक्षितकर प्रात्म-साधनाका सहायता की है अवसर पाने पर शत्रुके दांत खट्टे किये हैं। अधिकार दिया हो, यही नहीं, किन्तु जैनधर्मके अन्य २३ पतिके वियोगमें अपने राज्यकार्यकी संभाल यस्नके साथ की है। तीर्थकरोंने भी अपने-अपने संघमें ऐसाही किया है। जिससे इससे नारीकी कर्तव्यनिष्ठाका भी बोध होता है। नारी जहाँ स्पष्ट ज्ञान होता है कि श्रमणसंस्कृतिने पुरुषोंकी भांतिही कर्तव्य निष्ठ रही है। वहां वह धर्मनिष्ठा भी रही है। धर्मस्त्रियोंके धार्मिक अधिकारोंकी रक्षा की-उनके आदर्शको कर्म और बनानुष्ठानमें नारी कभी पीछे नहीं रही है। अनेक भी कायम रहने दिया, इतना ही नहीं किन्तु उनके नैतिक शिलालेखों में भारतीय जैन-नारियों द्वारा बनवाये जाने वाले जीवनके स्तरको भी ऊँचा उठानेका प्रयत्न किया है। भारतमें अनेक विशाल गगन चुम्बी मंदिरोंके निर्माण और उनकी गान्धी-युगमें गान्धीजीके प्रयत्नसे नारीके अधिकारोंकी रक्षा पूजादिके लिये स्वयं दान दिये और दिलवावाए थे। अनेक हुई है उन्होंने जो मार्ग दिखाया उससे नारी-जीवनमें उल्लाह गुफाओंका भी निर्माण कराया था, जिनके कुछ उदाहरण की एक बहर आगई है, और नारियाँ अपने उत्तरदायित्वको नीचे दिये जाते हैं :भी समझने लगी हैं। फिर भी वैदिक संस्कृतिमें धर्म-सेवन- १-कलिङ्गाधिपति राजा खारवेलकी पट्टरानीने कुमारी पर्वत का अधिकार नहीं मिला। पर एक गुफा बनवाई थी, जिस पर भाज भी निम्न नारियोंके कुछ कार्यो का दिग्दर्शन लेख अङ्कित है और जो रानी गुफाके नामले उल्लेम्बित ___ भारतीय इतिहासको दखनेसे इस बातका पता चलता की जाती है :है कि पूर्वकालीन नारी कितनी विदुषी, धर्मात्मा, और (१) 'अरहंत पसादान (म् ) कालिंगा (न) म् ममणानम् ॥ ___ लेणं कारितं राजिनो ख (1) लाक (म) 'मनसिवचसि कारे जागर स्वप्नमार्ग, (२) हथिस हंस-पपोतम धुना कलिंग-च' (खा) र वे लस मम यदि पतिभावो राघवादन्यसि । () श्राग महीपी या का लेणं ।' तदिह दह शरीरं पावके मामकीनं, xचन्द्रगिरि पर्वतके शिलालेख नं०६१ (१३९) में, जो स्वकृत विकृत नीतं देव माक्षी त्वमेव ॥" 'वीरगल' के नामसे प्रसिद्ध है उसमें गानरेश रक्कसमणिक २-इन्युक्क्त्वाऽभिनवाशोकपल्लवोपमपाणिनः । 'चीर योद्धा' 'बग' ( विद्याधर ) और उसकी पत्नी साविमू जान-स्वमुत्य पायाऽयदस्पृहा ॥६॥ यन्धका परिचय दिया हुआ है, जो अपने पतिके साथ 'वागेइन्द्रनीलघु तिच्छायान-सुकुमारन्मनोहरान् । यूर' के युद्ध में गई थी और वहां शत्रु से खड़ते हुए वीरगतिकेशान-वोच्य ययौ मोहं रामोऽयप्तश्चभूतले ॥७७॥ को प्राप्त हुई थी । लेखके ऊपर जो चित्र उत्कीर्ण हैं उसमें यावदाश्वासनं तस्य प्रारब्धं चंदनादिना । वह घोड़े पर सवार है और हाथमें तलवार लिये हर हाथी पृथ्वीमत्यार्यया तावदीक्षिता जनकात्मना ॥७॥ पर सवार हुए किसी वीर पुरुषका सामना कर रही है। ततो दिव्यानुभावेन सा विघ्न परिवर्जिता । सावयब्वे रूपवती और धर्मनिष्ठ जिनेन्द्र भनिमें तत्पर थी। संवृत्ता श्रमणा साध्वी वस्त्रमात्रपरिग्रहा ॥७॥ लेखमें उसे रेवती, सीता और अरुन्धतीके सरश बतलाया .-पद्मचरित पृ० १०५ गया है। Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६7 भनेकान्त [वर्ष १३ २-चतुर्थ महाराजा शांति वर्मा, जो पृथ्वी रामके समान ही पुण्यात्मा महापुरुषों के उत्पन्न करनेका भी सौभाग्य प्राप्त जैन धर्मके उपासक थे इनकी रानी चांदकन्वे भी जिना हुआ है, जिन्होंने संसारके दुःखी जीवोंके दुःखोंको दूर करनेधर्मकी परम उपासिका थी। शांति वर्माने सन् ८ के लिये भोग-विलास और राज्यादि विभूतियोंको छोड़कर (वि० सं० १०३८) में सोन्दत्तिमें जिममन्दिरका आत्म-साधना द्वारा स्वतन्त्रता प्राप्त करनेका प्रयत्न किया निर्माण कराया था और १५० महत्तर भूमि राजाने है। अनेक स्त्रियोंने प्राधिकाओंके व्रतोंको धारणकर प्रारम और उतनी ही भूमि रानी चांदकव्वेने बाहुबली देवको माधनाकी उस कठोर तपश्चर्याको अपनाया है और आत्माप्रदान की थी, जो व्याकरणाचार्य थे। नुष्ठान करते हुए मन और इन्द्रियोंको वशमें करनेका भी -देखो, सोन्दत्ति शिला ले. नं. १६०। प्रयत्न किया है। साथ ही, धागत उपसर्ग परीषहोंको भी ३-विप्यु वर्धनकी भार्या शान्तलदेवीने सन् १९२३ (वि० समभावसे महन किया है और अन्त समयमें समाधि पूर्वक पं०१२३० में) गन्ध वारण वस्ति बनवाई। यह मार- शरीर छोड़ा। उन धर्म-सेविका नारियोंके कुछ उदाहरण इस सिंह माचिकव्वे की पुत्री थी और जैन-धर्ममें सुद और प्रकार हैं:गान नृत्य विद्यामें अत्यन्त चतुर थी। (१) भगवान महावीरके शामनमें जीवंधर स्वामीकी पाठों -सोदेके राजा की रानीने, कारणवश पतिके धर्म-परिवर्तन __ पत्नियोंने जो विभिन्न देशोंके राजाओंकी राजपुत्रियाँ थीं, कर लेनेके बाद भी पतिकी असाध्य बीमारीके दर होने पतिक दीक्षा लेने पर अार्थिकाके व्रत धारण किये थे। तथा अपने सौभाग्यके अक्षुण्ण बने रहने पर अपने (२) वीरशासनमें जम्बू स्वामी अपनी तात्कालिक परिणाई नासिका भूषण (नथ) को, जो मोतियोंका बना हुमा हुई पाठों स्त्रियोंके हृदयों पर विजय प्राप्तकर प्रातःकाल था, बेचकर एक जैन-मन्दिर बनवाया था और सामने दीक्षित हो गए। तब उनकी उन स्त्रियोंने भी जनएक तालाब भी जो इस समय 'मुत्तिन फेरे के नामसे दोता धारण की। प्रसिद्ध है। ५-प्राइव मल्ल राजाके सेनापति मल्लयकी पुत्री प्रतिमन्वेने, (९) चंदना सतीने, जो वैशाली गणतंत्रके राजा चेटककी पुत्री जो जैनधर्मको विशेष श्रद्धालु और दानशीला थी, उसने थी, आजीवन ब्रह्मचारिणी रहकर, भगवान् महावीरसे चांदी सोनेको हजारों जिन प्रतिमाएं स्थापित की और दीक्षित होकर प्रायिकाके व्रतोंका अनुष्ठान करती हुई लाखों रुपयेका दान किया था। महावीरके तीर्थमें छत्तीस हजार प्रायिकाओंमें गणिनीका -"होयसल नरेश बल्लाल, बल्लाल द्वितीयके मन्त्री पढ़ प्राप्त किया था। चन्द्रमौली वेदानुयायो ब्राह्मण थे। परन्तु उनकी पत्नी (४) मयूर ग्राम मंघकी आर्यिका दमितामतीने कटवप्र गिरि 'प्राचियक्क' जिनधर्म परायणा थी और वीरोचित पर समाधिमरण किया। शान-धर्ममें निष्ठ थी, उसने बेलगोलमें पार्श्वनाथ वस्ति- (१) नविलूरकी अनंतमती-गतिने द्वादश तपोंका यथाविधि का निर्माण कराया था। अनुष्ठान करते हुए अन्तमें कटवा पर्वत पर स्वर्गलोक-देखो, श्रवण बेखगोल लेख नं. ४६४ का सुख प्राप्त किया। जबलपुरमें 'पिसनहारीकी मडिया' के नामसे एक जैन (६) दण्ड नायक गणराजकी धर्म-पत्नी लक्ष्मी मतिने, जो मन्दिर प्रसिद्ध है जिसे एक महिलाने पाटा पीस-पीसकर बड़े सती, साध्वी, धर्मनिष्ठा और दानशीला थी, और भारी परिश्रमसे पैसा जोड़ कर भत्रिवश अपने द्रव्यको सत्कार्यमें लगाया था। आज भी अनेक मंदिर और मूर्तियाँ मूलसंघ देशीगण पुस्तकगच्छके शुभचन्द्राचार्यकी शिप्या तथा धर्मशालाएँ अनेक नारियोंके द्वारा बनवाई गई हैं, थी, उसने शक सं०१०४४ (वि.सं०११७६) में जिनका उल्लेख लेख वृद्धिके भयसे नहीं किया है। सन्यास विधिसे देहोत्सर्ग किया था। इस प्रकारके सैकड़ों उदाहरण शिलालेखों और पुराणनारियोंके धर्माचरण और उनके सन्यास लेनक ग्रंथों में उपलब्ध होते है. जिन सबका संकलन करनेसे एक कुछ उन्लेख पुस्तकका सहज ही निर्माण हो सकता है। अस्तु, यहां लेख नारीको तीर्थकर, चक्रवर्ती, बलभद्र और अन्य अनेक वृद्धिके भयस उन सभीको छोड़ा जाता है। Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ D किरण ३] श्रमण संस्कृतिमें नारी [८७ अन्ध-रचना कितने पूर्व हुई है इसके जाननेका अभी कोई साधन नहीं है। -टिप्पणका प्रारम्भिक नमूना इस प्रकार है:अनेक नारियाँ विदुषी होनेके साथ २ लेखिका और कवियित्री “वल्लहो- वल्लभ इति नामान्तरं कृष्णराज देवस्य। भी हुई हैं उन्होंने अनेक ग्रंथोंकी रचना की है। पर वे सब पज्जतऊ पर्याप्त मलमिति यावत् ।" दुकिय पहाएरचनाएं इस समय सामने नहीं हैं । आज भी अनेक नारियाँ दुःकृतम्य प्रथमं प्रख्यापनं विस्तरणं वा । दुःकृत विदुषी, लेम्विका तथा कवियित्री हैं, जिनकी रचना भावपूर्ण होती है। भारतीय जैनश्रमण परम्परामें ऐसी पुरातन नारियाँ मार्गो वा । लहु मोक्षं देशतः कर्मक्षयं लाध्वेति शीघ्र पर्यायो था। संभवतःकम ही हुई है जिन्होंने निर्भयतासे पुग्यों समान नाग पंचसु पंचसु पंचसु-भरतैरावतविदेहाभिधानासु जातिके हितकी दृष्टिसे किमी धर्मशास्त्र या प्राचार शास्त्रका प्रत्येकं पंच प्रकारतया पंचसु दशसु कर्मभूमिसु । दया निर्माण किया हो, इस प्रकारका कोई प्रामाणिक उल्लेख सहीसु-धर्मो दया सख्यं ईश इव-दया सहितासु वा। हमारे देवनेमें नहीं पाया। धुउ पंचमु-विदेहभूमिसु पंचसु ध्र वो धर्मसूत्रैक एवं ___ हां, जैन मारियों के द्वारा रची हुई दो रचनाएँ मेरे चतुर्थः कालः समयः । दशसु-पंचभरत पंचरावतेषु । देग्वनेमें अवश्य पाई हैं, जिनसे ज्ञात होता है कि वे भी कालावेक्खए-वर्तमान (ना) सर्पिणी कालापेक्षया। प्राकृत, संस्कृत और गुजराती भाषाकी जानकार थीं। इतना पुनः देवसामि-प्रधानामराणां त्वं स्वामी । वत्ताणुही नहीं किन्तु गुजराती भाषामें कविना भी कर लेनी थी। हाणे--कृपि पशुपालन वाणिज्या च वार्ता । खत्तधनुये दो रचनाएँ दो विदुषी अयिकाओं के द्वारा रची गई है। क्षत्रदण्डनीति । परमपत्तु-परमा उत्कृष्टा गणेन्द्रा उनमें से प्रथमकृति तो एक टिप्पण ग्रंथ है जो अभिमान ऋषभ-सेनादयस्तेषां परम पूज्यः" ।। मेरु महाकवि पुष्पदन्तकृत 'जसहर चरिऊ' नामक ग्रन्थका दूसरी कृति समकितराम है, जो हिन्दी गुजराती संस्कृत टिप्पण है, जिसकी पृष्ठ संख्या १६ है और जिसकी। मिश्रित काव्य-रचना है। इम ग्रन्थकी पत्र संस्था है, खंडित प्रति दिल्लीके पंचायतीमंदिरक शास्त्रभण्डारमें और यह ग्रन्थ ऐलक पन्नालाल दि. जैन सरस्वती-भवन मौजूद है। जिसमें दो से ११और स्वाँ पत्र अवशिष्ट है। झालरापाटनके शास्त्रभण्डारमें सुरक्षित है। इस ग्रन्थमें शेष मध्यके ७ पत्र नहीं है। सम्भवतः व उम दुर्घटनाक सम्यक्त्वोपादक पाठ कथाएं दी हुई हैं, और प्रसंगवश अनेक शिकार हुए हों, जिसमें दिल्लीके शास्त्र भण्डारों इस्त- अवान्तर कथा भी यथा स्थान दी गई हैं। दूसरे शब्दों में लिम्बिन अन्धोंके ऋटित पत्रोंको बोरीमें भरवाकर कलकत्ताक यह कहा जा सकता है कि यह ग्रन्थ संस्कृत सम्यक्त्व कौमुदी ममुह में कुछ वर्ष हुए गिरवा दिया गया था। इसी तरह का गुजराती पद्यानुवाद है। इसकी रचयित्री प्रार्यारत्नमती पुरानन खण्डित मूर्तियोंको भी देहलीके जैन समाजने अवज्ञाक है। ग्रन्थमें उन्होंने अपनी जो गुरु परम्परा दी है वह भयसे अंग्रेजोंके गज्यमें बम्बईके समुद्रमें प्रवाहित कर दिया। इस प्रकार है: मूलमंघ कुन्दकृन्दान्वय सरस्वतिगच्छमें भट्टारक पद्मनन्दी, श्रा, जिन पर मुनते हैं कितने ही लेग्व भी अंकित थे। देवेन्द्रकीति, विद्यानन्दी, महिलभूषण, लक्ष्मीचन्द, वीरचन्द्र, खेद है ! समाजके इस प्रकारके अज्ञात प्रयत्नसे ही ज्ञानभूषणा, प्रार्या चन्द्रमती, विमलमती और एनमती । कितनी ही महत्वपूर्ण ऐतिहामिक सामग्री विलुप्त हो गई है। ग्रन्थका आदि मंगल इस प्रकार है:श्राशा है दिल्ली समाज आगे इस प्रकारकी प्रवृत्ति न होने - देगा। इस गुरु परम्परामें भहारक देवेन्द्रकीर्ति सूरतको गहीके यशोधरचरित टिप्पण की वह प्रति मं० १९६६ मंगसिर भट्टारक थे। विद्यानन्दि सं० १५५८ में उस पद पर विगज मान हुए थे । मल्लिभृपण सागवाड़ाया मालवाकी गहीके भट्टाबदी १० बुदवारको लिखी गई है। टिप्पणके अन्तमें निम्न रक थे। लचमीचन्द और वीरचन्द्र भी मालवा या सागवाड़ा पुप्पिका वाक्य लिखा हुआ है-'इति श्री पुष्पदन्तकृत यशोधर के आस-पास भट्टारक पद पर आसीन रहे हैं । ये ज्ञानभुषण काव्यं टिप्पणं अर्जिका श्रीरणमतिकृतं संपूर्णम् ।' टिप्पणके तत्त्वज्ञान तरंगिणीक कर्तासे भिम है। क्योंकि यह भ० बीरइस पुष्पिका वाक्यसे टिप्पणग्रन्थको रचयत्री 'रणमति' चन्द्रके शिष्य थे। और तनज्ञान तरंगिणीक कर्ता भ. आर्यिका है और उसकी रचना सं० १५६६ से पूर्व हुई है। भुवनकीर्तिके शिष्य थे। Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष १३ वीर जिनवर वीर जिनवर नमू ते सार । तीर्थकर थी। इस उल्लेख परसे भी श्रार्या रस्नमती विक्रमकी १६वीं चौबीसवें । मनवांछित फलबहु दान दातार । निरमल शती मध्यकी जान पढ़ती हैं। सारदा स्वामिनी वली तबू । लक्ष्मी चन्द्र, वीरचन्द्र अनेक विदुषी नारियोंने केवल अपना ही उत्थान नहीं किया, मनोहर । ज्ञान भूपण पाय प्रणमिनि। रत्नमति कहि अपने पतिको भी जैनधर्मकी पावन शरणमें ही नहीं लाई चंग, रास करूँ अति रूबडो । श्रीसमकिततणु प्रत्युत उन्हें जैनधर्मका परम आस्तिक बनाया है और अपनी भनिरास ॥१२॥ संतानको भी सुशिक्षित एवं श्रादर्श बनानका प्रयत्न किया भारगमनी है । उदाहरण के लिये अपने पति मगध देशके राजा अंणिक 1 चवीस जिनवर पायनमीप, सारदा तणिय पसायनु। (बिम्बमार) को भारतीय प्रथम गणतन्त्रके अधिनायक मूलमंघ महिमानिलुए, भारती गच्छि सिंणगारनु ॥१॥ लिच्छिवि वंशी राजा चेटककी मुपुत्री चेलनाने बौद्धधर्मस पराङ् मुम्बकर नैनधर्मका श्रद्धालु बनाया है जिसके अभयकुंदकुंदाचारिजि कुलिए, पद्मनन्दी शुभभावनु । कुमार और चारिपेण जसे पुत्र रत्न हुए जिन्होंने सांसारिक देवेन्द्रकीरति गुरु गुण निलुए श्रीविद्यानिंद महंतनु । तनु । सुग्ब और वैभवका परिन्यागकर आत्म-साधनाको कठोर तपश्रीर्माल्लभपण महिमा निलुए, श्रीलक्ष्मीचंद्र गुणवंतनु ॥३ श्चर्याका अवलम्बन किया था । वीरचंद्र विद्या निलुए, श्रीजानभूपण ज्ञानवन्तनु ॥४॥ इस तरह नारीने श्रमणसंस्कृतिमें अपना आदर्श जीवन गम्भीराणव, मेरु सारिपु धीरनु । वितानेका यत्न किया है। उसने पुरुषोंकी भांति प्रान्ममाधन दयाराणी जि श्रिम निवसए, ज्ञानतणु दातारनु ॥॥ और धर्ममाधनमें सदा श्रागे वढनेका प्रयत्न किया है। अन्तिम भाग नारी में जिनन्द्रभक्रिके माथ श्रत-भक्निमें भी तत्परता दग्बी शांती जिनवर शांती जिनवर नमिय ते पाय। जाती है, वे भूनका मयं अभ्यास करती थीं, समय-समय पर ग्रन्थ स्वयं लिम्वती और दूसरोंमे लिग्या-लिम्बाकर अपने राम कहूं सम्यकतणु सारदा तरिणय पसाय मनोहर । मानावग्नी कर्मक क्षयार्थ माधुग्री, विद्वानों और तत्कालीन कुंदकुंदाचारिजि कुलि पद्मनन्दि गुरु जागि। भट्टारकों तथा प्रायिकाओं को प्रदान करती थीं, इस विपया देविदकीरति तेह पट्ट हुव वादी मिरोमणि बन्याणि ।। मैकडों उदाहरण है, उन सबको न देकर यहाँ मिर्फ ५-६ दहा-विद्यानन्द तमु पट्ट हुनि मल्लिनूपण महंत। उद्धरण ही नीचे दिये जाने हैं :लदीचन्द्र तेह पछारिसिणु यति यमगर्माण मंत।। () मंथन १४६७ में काप्ठासंघक श्राचार्य अमरकोनि द्वारा वीरचन्द्र पाटि ज्ञानभूषण नीनि । चन्द्रमती बाई रचित 'पट कर्मोपदेश' नामक ग्रन्थकी प्रति ग्वालियर नमी पाय । रत्नमती यो पिय राम कम.विमलमती तंवर या तोमरवंशी गजा वीरमदेवके राज्यमें अग्रवाल कहिण थकी मार।। इति श्रीममाकितराम समाप्तः। श्रार्या माहू जैतूकी धर्मपत्नी सरन लिखाकर आयिका जनश्री रत्नमती कृतं ॥ भ.जारावजी पठनार्थ (श्रीरस्तु) की शिष्यणी प्रायिका बाई विमलश्रीको समर्पित की थी। आर्या रत्नमीन अपना यह राम अथवा रामा धाया (२) संवत १६८५ में अग्रवालवंशी माहू बच्छराजकी मना विमलमतीकी प्रेरणासे रचा था। श्रागा रानमतीकी गुरुपाणी साध्वी पन्नी 'पाल्हे ने अपने ज्ञानावरसी कर्मफे क्षपार्थ भार्या चन्द्रमती थी। यह ग्रंथ विक्रमकी १६वीं शताब्दीके दच्यांग्रहकी ब्रह्मदनकृत वृत्ति लिखाकर प्रदान की। मध्यकालकी रचना जान पड़ती है। क्योंकि रत्नमतीकी उत्र गुरु परम्परामें निहित विमलमती वह विमलश्री जान पड़ती (३) संवत १५६५ में खण्डेलवालवंशी साहू छीतरमलकी है. जिनकी शिष्या विनयश्री भ. जमीचन्द्रजी के द्वारा पन्नी राजादीने अपने ज्ञानावरणी कर्मके क्षयार्थ 'धर्मदीक्षिन थी, जिन्होंने पं. श्राशाधरजी कृत महा-अभिषेक परीक्षा' नामक ग्रन्थ लिखकर मुनि देवनन्दिको प्रदान पाठको ब्रह्म श्रु नमागर कृत टीका उन भट्टारक लक्ष्मीचन्दके किया । शिष्य ब्रह्म ज्ञानमागरको सं० १५५२ में लिखकर प्रदान की (४) संवत् १५३३ में धनश्रीने पद्मानन्द्याचार्यको 'जम्बूद्वीप Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ किरण ३] आत्महितकी बातें प्रज्ञप्ति' प्राकृत लिखाकर पं० मेधावीको प्रदानकी थी। उपसंहार (१) संवत् १५६० में माणिक बाई हमडने, जो व्रत धारिणी अशा है पाठक इस लेग्वकी संक्षिप्त सामग्री परम धी, गोम्मटमारपंजिका लिखाकर लघुविशालकीर्तिको नारीकी महत्ताका अवलोकन करेंगे, उसे उचित मामान भेंट स्वरूप प्रदान की थी। साथ उसकी निर्बलताको दूर करनेका यन्न करेंगे और (६) मंवन् १६६८ में हूंबड नातीय बाई दीगेने लियाकर श्रमणसंस्कृतिमें नारीकी महाका मल्यांकन करकं नारी-जानिभ० सालचन्द्रको प्रदान किया था । को ऊँचा उठाने के अपने कर्तव्यका पालन करेंगे। आत्महितकी बातें (९० सिद्धिसागर) जब लोग निश्च न होने के लिए यशोलिप्पा और यह प्रश्न उन मनीषियोंके मानम में ज्यों का त्यों पा प्राछलका परित्याग करके मन-वचन कायकी चंचलताका कर उनको कितनी बार नहीं जगा जाता?-फिर भी निराध करनेके लिए उद्यम करते है तो सातों तरवों पर झोटे लेनेकी श्रादतसे बाज नहीं पाते है, जो जागनेका विश्वाम करने वाले भारमाको या सरचे विश्वास ज्ञान पाप समझते हैं !! और आचरणको प्रारमहितका वास्तविक रूप निश्चत तप अग्निके बिना कोई भी कर्मों की राख नहीं बना करते हैं। सम्भव है चलने में पैर फिसल जाय किम् गय किन्तु सकता । इच्छाके निराध होने पर ही नपकी पाग प्रज्वलित । पैरको जमा कर रग्बनेका अभ्यास तो वे करते ₹-वे होती है। यह वह भाग है जो सुम्ब को चरम सीमा तक क्रोधकी ज्वालासे जलने हुप गर्नमें न गिर जावें इमके चार लिए यथा उद्यम भी करते हैं। यदि कभी-कभी क्रोधकी जो वस्तु पराई है और है वह विद्यमान तो उसे लपटोसे वे झुलस जाते हैं उसे हेय नो अवश्य ममम लेते छोड़ने में सारी झमट छूट जाती है । हैं। उनका दुर्भाग्य है जो अनंतानुबन्धी क्रोधको भागमें जलने है। मानके पहाड़मे उतर कर वे सम्पूर्ण विद्या और मरते समय जब शरीर ही अजंग हो जाता है तो चारित्रके सच्चे नेनाते हैं। कपरकी झपटमै कभी वे फिर शेष घर भादिक अपने कैमें हो सकते हैं अपने प्राते हो तो चपेट भी अवश्य सहन करते ही हैं। आगामी ज्ञान चतनामय कतृ स्वसे भिन्न अन्यका कर्ता होनेका तृष्णाको छोड़ने पर दुर्गतिका अन्त तो होता ही है किन्तु माइम वे अन्तःकरणमे तन्मय होकर अनन्तानुबन्धी रूपमे मततामयाब नहीं कर सकते जो सम्यग्दर्शनकी नीव पर बढ़े हैं। सरयका सूर्य जिसके अन्तःकरणसे उदित होकर मुख- जीवांका महारा प्राप पाप ही अपने रहना है। गिरि पर चमक रहा है- क्या मजाल जो दुराग्रहियाक गुरुकुलके गुरुकुल में रहते हुए स्नातक होना परम ब्रह्मचर्य बकवाद उमके सामने अधिक टिक सके। वम म्याद्वादकी । स्त्रीके किसी भी अवस्थामें दृष्टिगत हो जाने पर किरणांस चमकता हुआ अनेकान्त सूर्य उन नीवांके विकृत न होना ब्रह्मचर्य है। उत्तम दश लक्षया वाल माहान्धकारको दूर करने में समर्थ है जो निकट भव्य है- धर्मको निर्व्यसनी निष्पाप व्यक्ति पाल और रग्नत्रयम उल्लूको मूर्य मार्ग नहीं बता सकता। त्रिगुप्ति गुप्त रह जावे तो मामा हो अपने हितका संयम जीवोंको कौनसा सुम्ब ? नहीं देता अब मी सरचा रूप है। Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा-तत्त्व (परमानन्द जैन शास्त्री) संसारक समस्त धर्मोका मूल अहिसा है, यदि इन जब हम किमी जीयको दुखी करने-मताने पीढ़ा देनेका धर्मोमेंसे अहिंसाको सर्वथा पृथक् कर दिया जाय तो वे धर्म विचार करते हैं उसी समय हमारे भावोंमें और बचन-कायनिष्प्राण एवं अनुपादेय हो जाते हैं। इसी कारण अहिसा- की प्रवृत्ति एक प्रकारको विकृति या जाती है, जिससे हृदयतत्त्वको भारतके विविध धर्म संस्थापकोंने अपनाया ही नहीं, में अशान्ति और शरीरमें बेचैनी उत्पन्न होती रहती है और किन्तु उसे अपने-अपने धर्मका प्रायः मुख्य अङ्ग भी बनाया जो प्रात्मिक शान्तिकं विनाशका कारण है, इसी प्रकारक है। अहिंमा जीवनप्रदायिनी शनि है, इसके बिना मंसारमं प्रयत्नावशको अथवा तज्जन्य संकल्प विशेषको मरम्भ कहते सुख शान्तिका अनुभव नहीं हो सकता । जिस तरह मम्य- है। पश्चात अपनी कुन्मित चित्तवृत्तिके अनुकूल उम ग्निर्धारित राज्यनीतिक बिना गज्यका संचालन सुचारु रीति- प्राणिको दुम्बी करनेके अनेक साधन जुटाये जाते हैं। मायाचागे से नहीं हो सकता उसी तरह अहिसाका अनुसरण किये से दृयरोंको उमक विरुद्ध भडकाया जाता है, विश्वासघात बिना शान्तिका साम्राज्य भी स्थापित नहीं हो सकता किया जाता है-कपटसं उसके हितेषी मित्रों में फूट डाली अहिंसाके पालनसे ही जीवात्मा पराधीनताक बन्धनोंस छूठकर जाती है उन्हें उसका शव बनानेकी चेष्टा की जाती है, वास्तविक स्वाधीनताको प्राप्त कर सकता है। अहिसाकी इस तरह से दूसरोंको पीड़ा पहुँचाने रूप व्यापारके माधनोंको भावना अाज भारतका प्राण है, परन्तु इसका पूर्ण रूपसे मंचित करने तथा उनका अभ्यास बढानेको ममारम्भ कहा पालन करना और उसे अपने जीवनमें उतारना कुछ कटिन जाता है। फिर उस माधनसामग्रीक सम्पन्न हो जाने पर अवश्य प्रतीत होता है। अहिंसासे अात्मनिर्भयता वीरता, उपक मारने या दुग्वी करनेका जो कार्य प्रारम्भ कर दिया दया और शौर्यादि गुणोंकी वृद्धि होती है, उसमे ही प्राणि- जाता है उस क्रियाको प्रारम्भ कहते हैं।। ऊपरकी उक समाजमें परस्पर प्रेम बदना है और स्मारमें मुख-शान्तिको दोनों क्रियाएं नो भावहिंमाकी पहली और दूसरी श्रेणी है समृद्धि होती है। अहियाके इस गम्भीर रहस्यको समझनेके ही, किन्तु तीसरी प्रारम्भक्रिया द्वन्य-भाव रूप दोनों प्रकारलिये उसके विरोधी धर्म हिसाका स्वरूप जानना अन्यन्त की हिंमा गर्भित है अतः ये तीनों ही क्रियाएँ हिंसाकी आवश्यक है। जननी है । इन क्रियाकं माथमें मन वचन तथा कायकी जैनदृष्टि से हिंसा अहिसाका स्वरूप x'संरंभो मंकप्पो'-भ. श्राराधनायां, शिवार्यः ८१२। हिसा शब्द हननार्थक हिसि धातुस निष्पन्न होता है। प्राण्णव्यपरोपणादिषु प्रमादवतः प्रयत्नावशः संरंभः । इस कारण उसका अर्थ-प्रमाद वा कपायक निमित्तस किमी -सर्वा सिद्वौ, पूज्यपादः, ६,८। भी मचेतन प्राणीको मताना या उपक ध्यभाव रूप प्राणी- प्रागणव्यपराणादी प्रमाढवतः प्रयत्नः संरंभः का वियोग करना होता है । अथवा किसी जीवको बुर -विजयोदयां, अपराजितः गा. ८१ भावस शारीरिक तथा मानसिक कष्ट देना, गाली प्रदानादि- +परिदावकदा हवे समारम्भो ॥ रूप अपशब्दोंके द्वारा उसके दिलको दुखाना, हस्त, कोडा, -भग. आराधनाया, शिवार्यः ८१२ लाठी प्रादिसे प्रहार करना इत्यादि कारण-कलापास उसे प्राण साधनसमभ्यामीकरणं समारम्भः । सर्वार्थसिद्वौ, पूज्यपादः, ६,८। रहित करने या प्राणपीडित करनेके लिये जो व्यापार किया माध्याया हिमादिक्रियायाः साधनानासमाहारः समारंभः। जाता है उसे 'हिंसा' कहते हैं। -विजयोदयायां, अपराजितः, गा० ८.७। प्रमत्त योगायाणव्यपरोणं हिंमा। प्रारम्भो उदवो, -तत्त्वा मूत्रे, उमास्वातिः -भ. अराधनायां शिवायः, ८१२ । यल्बलु कषाययोगात् प्राणानां द्वन्यभावरूपाणां । प्रक्रमः श्रारम्भः। सर्वार्थसिद्धी, पूज्यपादः ६,८। व्यपरोपणस्य करणं मुनिश्चिता भवति मा हिमा संचितहिसाधु पकारणस्य प्रायः प्रक्रमः श्रारंभः । -पुरुषार्थसिद्धयुपाये, अमृतचन्द्रः विजयोदयायाः अपराजितः, गा." Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण] प्रवृत्ति संम्मिश्रणसे हिलाके नव प्रकार हो जाते हैं और कृत-स्वयं करना, कारित दूसरोंसे कराना, अनुमोदन - किमी को करना हुआ देखकर प्रसन्नता व्यक्त करना, इनसे गुणा करने पर हिंसा २० भेद होते हैं। चूँकि ये सब कार्य क्रोध, मान, माया, अथवा लोभके वश होते है । इसलिये हिंसा सब मिलाकर स्थलरूपसे १०८ भेट हो जाते हैं। इन्हीके द्वारा अपनेको तथा दूसरे जीवोंको दुखी या प्राणरहित करनेका उपक्रम किया जाता है । इसीलिये इन क्रियायको हिंसाकी जननी कहते हैं हिंसा और अहिंसाका जो स्वरूप जैन ग्रन्थोंमें बतलाया गया है, उसे नीचे प्रकट किया जाता है | - सा हिंसा व्यपरोप्यन्ते त्रयस्थावराङ्गनाम । प्रमत्तयोगतः प्रारणा द्रव्य भावस्वभावका ॥ - अनगारधर्मामृनं. श्राशाधरः ४, २२ प्रथांत-क्रोध-मान माया और लोभ श्राधीन होकर अथवा श्रयन्नानारपूर्वक मन-वचन-काय की प्रवृत्ति त्रमजीवोंपशुपक्षी मनुष्यादिप्राणिया स्वाचर जीवों के. पृथ्वी, जन्म हवा और वनस्पति श्रादिमें रहने वाले सूक्ष्म जीवोंक - द्रव्य और भावप्राणांका घात करना हिंसा कहलाता है। हिंसा नही करना सो श्रहिंसा है अर्थात प्रमाद व पाय निमित्तमे किसीभी संचनन प्राणीको न मनाना, मन वचन कायसे उसके प्राणों बात करनेमें प्रवृत्ति नहीं करना न कराना और न करते हुएको अच्छा समझना 'अहिंसा' हे । श्रथवा- " -- अहिंसात् रागादयामगुवा अहिमगमेति भामिदं समये । सितहिमेत जिहि रिरिहा || -नस्वार्थवृत्ती, पूज्यपादन उद्धृतः । अर्थात् आत्मामें राग- पादि विकारोंकी उत्पांत नहीं होने देना 'असा' है और उन विकारोंकी अमा उत्पत्ति होना 'हा' है। दूसरे शब्दोंमें इसे इस रूप में कहा जा सकता है कि आत्मा जब राग-द्वेष-काम-क्रोध-मान- माया और लोभादि विकारोंकी उत्पत्ति होती है तर ज्ञानादि रूप ग्रामस्वभावका धान हो जाता है इसीका नाम भाव हिमा है और इसी भावमा भ्रम परिणामको विकृति जो अपने अथवा दमक इल्यास बान हो जाता है उसे द्रव्यहिमा कहते हैं। हिंसा दो प्रकार की जाती है— कपाय और प्रमादसे । [ ६१ जब किसी जीवको क्रोध, मान, माया और लोभादिके कारण या किसी स्वार्थवश जानबूझ कर मनाया जाता है या मनाने श्रथवा प्राणरहित करनेके लिए कुछ व्यापार किया जाता है उसे कपायसे हिया कहते हैं और जब मनुष्यकी आहस्यमय असावधान एवं अयत्नाचार प्रवृत्तिसे किसी प्राणीका वधादिक हो जाता है राय यह प्राइसे हिंसा कही जाती है । इसमे इतनी बात और स्पष्ट हो जाती है कि यदि कोई मनुष्य बिना किसी कषायक अपनी प्रवृत्ति बन्नाचारपूर्वक माचधानीमे करता है उस समय यदि देवयोगसे अचानक कोई जीव आकर मर जाय तो भी वह मनुष्य हिंसक नहीं कहा जा मकताः क्योंकि उस मनुष्यकी प्रवृत्ति कवावयुक नहीं है चीर न हिंसा करनेकी उसकी भावना ही है यद्यपि इयहिया जरूर होती है परन्तु तो भी वह हिसक नहीं कहा जा सकता और न जैनधर्म इस प्राणिधानको हिंसा कहता है। हिंसात्मक परतही हिंसा है, केवल इन्पहिया हिंसा नहीं कहलानी, द्रव्यहिसाकी तो भावहिसाकं सम्बन्धसे ही हिंसा कहा जाता है। गस्तवमे हिंसा तब होती है जब हमारी परियाति प्रमादमय होती है अथवा हमारे भाव किसी जीवको दुःख देने या मनाने होते हैं। जैसे कोई समर्थ ढाक्टर किसी रोगीको नीरोग करनेकी औपरेशन करता है और उसमें देव योग रोगा की मृत्यु हो जाती है तो वह डाक्टर हिंसक नहीं कहला सकता और न हिमांक अपराधका भागी ही हो सकता हे । किन्तु यदि डाक्टर लोभादिक वश जान बूझकर मारनेके इरादे से ऐसी क्रिया करता है जिससे रोगी की मृत्यु हो जाती है तो जरूर वह हिसक कहलाता है और दण्डका भागी भी होता है। इसी वानको नाम स्पष्ट रूपसे यो घोषण करता है :--- उच्चालम्मिपादे इरियासमिदम्म सिमामट्टा | श्रवादेज्ज कुलिङ्गा मरेज्ज तं जोगमासेज्ज ॥ हि तम्म नमित्त बंधो मुटुमावि देखिदों समये । वृत्ती ज्यान उन अर्थात जो मनुष्य भालकर मावधानामे मार्ग पर चल रहा है उसके पैर उठाकर रखनेपर यदि कोई जन्तु अकस्मात परके नीचे श्रा जाय और दब कर मर जाय तो उस मनुष्यको उस जीवके मारने का थोडा सा भी पाप नहीं लगता है । जो मनुष्य प्रमादी है--धयन्नाचार पूर्वक प्रवृत्ति करना है उसके द्वारा किसी प्राणीकी हिंसा भी नहीं हुई है तो भी Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२] 'प्रमाद सदैव हिंसकः' के वचनानुसार हिंसक अवश्य है— उसे हिंसाका पाप जरूर लगता है। यथामरदु व जीयदु जीवो. अयदाचारस्स शिच्छिदा हिंसा पयदस्स ग्रत्थि बंधो दिसामिते समिस्स ॥ -प्रवचनसारे कुन्दकुन्दः ३, १७ अर्थात् - जीव चाहे मरे, अथवा जीवत रहे, असावधानोसे काम करने वालेको हिंसाका पाप अवश्य लगता है, किन्तु जो मनुष्य यत्नाचारपूर्वक सावधानी से अपनी प्रवृत्ति करता है उससे प्राणिबध हो जाने पर भी हिंसाका पाप नहीं लगता व हिंसक नहीं कहला सकता, क्योिं भावहिंसा बिना कोरी यहियां हिंसा नहीं कहला सकती। पायी जीव तो पहले चंपना ही बात करता है, उसके दूसरोंकी रक्षा करनेकी भावना ही नहीं होती। यह तो दूसरोंका घात होनेसे पहले अपनी कलुषित चितवृत्तिके द्वारा अपना ही घात करता है, दूसरे जीवोंका घात होना म होना उनके भक्तिम्यके आधीन है। अनेकान्त [ वर्ष १३ अलंग न किया जाय तो कोई भी जीव श्रहिंसक नहीं हो सकता और इस तरहसे तो शुद्ध वीतराग-परिणति वाले साधु महात्मा भी हिसक कहे जायेंगे क्योंकि पूर्ण ह पावक योगियों शरीरसे भी सूक्ष्म वायुकाधिक आदि जीवोंका वध होता ही है, जैसा कि यागमकी निम्न प्राचीन मायामे स्पष्ट है : 'हिंसा दो प्रकारकी होती है एक अन्तरंग हिंसा और दूसरी बाहिरंग हिसा । जय आभा ज्ञानांदि रूप भाव प्रयांका घात करने वाली अशुद्धपयोगरूप प्रवृद्धि होती है तब यह अंतरंग हिसा कहलाती है और जब जीवकं बाह्य द्रव्यप्राणोंका घात होता है तब बहिरंग हिंया कहलाती है। इन्हीं दूसरे शब्दों में व्यहिंसा और भावहिंमाके नामसे भी कहते हैं। यदि चटष्टिसे विचार किया जाय तो सचमुच में हिसा क्रूरता और स्वार्थकी पोपक है। मनुष्यका निजी स्वार्थ ही हिंसाका कारण है जब मनुष्य अपने धर्मसे प्युत हो जाता है तभी वह स्वार्थवश दूसरे प्राणियोंको सतानेकी चेप्टा किया करता है; आमविकृतिका नाम हिंया है और उसका फल दुःख एवं अशान्ति है और श्रात्मस्वभावका नाम अहिंसा है तथा सुख और शान्ति उसका फल है । I जब आत्मामें किसी तरहको विकृति नहीं होती चिन्त प्रशान्त एवं प्रसादादि गुणयुक्र रहता है उसमें क्षोभकी मात्रा नज़र नहीं आती, उसी समय श्रात्मा श्रमिक कहा जाता है। इसके होने पर भावहिंसा अनिवार्य नहीं है उसे यो भाव हिंसा सम्बन्धले ही हिंसा कहते हैं, वास्तवमें द्रव्यहिंसा नोभावहिंसा से जुड़ी ही है। 'यदि द्रव्यहिमाको भाषहिंसासे * स्वयमेवात्मनाऽऽत्मानं हिनस्त्यात्मा प्रमादवान् । पूर्व प्रत्यंतराखान्तु पश्चात्स्द्वान वा वधः ॥ - तत्त्वार्थवृत्ती में उष्टत, पृ० २३१ जदि सुद्धस्स व बंधो होदि बाहिर थुजोगेण । त्थिदु अहिंगोणाम होदि वायादिवधद्देदु । - विजयोदवायां- अपराजितः-६८०६ 'हिंसा और श्रहिंमाके इस सूक्ष्म विवेचनसे जैनी अहिंसा के महत्वपूर्व रम्यसे अपरिचित बहुतमे व्ययों हृदयमें यह कल्पना हो जाती है कि जैनी चहियाका यह मूचारूप श्रव्यवहार्य है उसे जीवनमें उतारना नितान्त कठिन ही नहीं किन्तु असम्भव है। अतएव इसका कथन करना व्यर्थ ही है। यह उनकी समक टीक नहीं है क्योंकि जैनशासनमें हिंसा और अहिंसाका जो विवेचन किया गया है वह अद्वितीय है. इसमें योग्यतावाले पुरुष भी यही चासनीक साथ उसका अपनी शकेि अनुसार पालन कर सकते हैं श्रीर अपनेको समिक बना सकते है। साथ ही जैन में जैनधर्म अहिंसाका जितना सूक्ष्मरूप हे वह उतना ही अधिक व्यव हार्य भी हैं। इस तरहका हिंसा और श्रहिसाका स्पष्ट विवेचन दूसरे धर्मो नहीं पाया जाता, इसलिये उसका जैनधर्मकी अहिंग्याके आगे बहुत ही कम महत्व जान पड़ता है। जैनशासन में किसीके द्वारा किसी प्रार्थीके मर जाने या दुःखी किये जाने ही हिंसा नहीं होती। संसारमें सब जगह जीव पाये जाते हैं और वे अपने निमित्तसे मरते भी रहते हैं, परन्तु फिर भी, जैनधर्म इस प्राणिघातको हिमा नहीं कहता, क्योंकि जैनधर्म तो भाधानधर्म है हीलिये जो दूसरोंकी हिया करनेके भाव नहीं रखता प्रत्युत उनके बच्चानेके भाव रखता है उससे दैववशात् सावधानी करते हुए भी यदि किसी जीवके द्रव्य प्राणोंका वध हो जाता है तो उसे हिमाका पाप नहीं लगता । यदि हिंसा और अहिंसाको भावप्रधान न माना जाय तो फिर बंध और मोक्षकी व्यवस्था ही नहीं बन सकती। उसे कि कहा भी है- विष्वरजीवचिते लोके क्व चरन को यमोदयत । भावैकसाधनी बन्धमोक्षौ चेन्नाभविष्यताम् ॥ - सागरधर्मामृतः ४, २३ अर्थात् — जब कि लोक जीवोंसे खचाखच भरा हुआ Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ३ अहिंसातत्त्व [६३ है तब यदि बन्ध और मोक्ष भावोंके ऊपर ही निर्भन न होने में सम्यग्दृष्टिको सप्तभय-रहित बतलाया गया है। साथ तो कौन पुरुष मोक्ष प्राप्त कर सकता ? अतः जब जैनी ही, प्राचार्य अमृतचन्द्रने तो उसके विषय में यहाँ तक लिखा अहिसा भावोंके ऊपर ही निर्भर हैं तब कोई भी वुद्धिमान है कि यदि त्रैलोक्यको चलायमान कर देनेवाला वज्रपात जैनी अहिमाको अव्यवहार्य नहीं कह सकता। श्रादिका घोर भय भी उपस्थित होजाय तो भी सम्यग्दृष्टि अहिंसा और कायरतामें भेद पुरुष निःशंक एवं निर्भय रहता है--वह डरना नहीं है। अब में पाठकोंका ध्यान इस विषयकी ओर आकर्षित भार न अपन ज्ञानस्वभावसे न्युन हाता है, यह सम्यग्दृष्टिकरना चाहता हूँ कि जिन्होंने अहिंमा तत्त्वको नहीं समझकर का हा साहम ह । इमसे स्पष्ट है यात्म निभयी-धीर-वीर जैनी अहिंसापर कायरताका लांछन लगाया है उनका कहना पुरुष ही मच्च हिसक हो सकते हैं, कायर नहीं। वे तो नितान्त भ्रममूलक है। ऐसे घोर भयादिक पाने पर भयसे पहले ही अपने प्राणोंका - अहिंसा और कायरतामें बड़ा अन्तर है। अहिंसाका परित्याग कर देते है। फिर भला ऐसे दुर्बल मनुप्यम अहिंसा सबसे पहला गुण अात्मनिर्भयता है। अहिंसा कायरताको जैसे गम्भीर तत्वका पालन कैसे हो सकता है ? अतः जैनी स्थान नहीं । कायरना पाप है, भय और मंकोचका परिणाम अहिंसापर कायरताका इल्जाम लगाकर उस अव्यवहार्य चल संचालन मा नहीं कहना निरी अज्ञानता है। वीरता नो ग्रान्माका गुग है। दुर्बल शरीरस भी शस्त्रसंचा जैन शासन में न्यूनाधिक योग्तावाले मनुष्य अहिंसाका लन हो सकता है। हिमक वृतिय या मांसभक्षणस नो करता अच्छी तरहसे पालन कर सकते हैं, इसीलिये जैनधर्ममें पानी है, वीरता नहीं, परन्तु हिमास प्र म, नम्रता, शान्ति, अहिंसार देशहिमा और मर्वअहिंसा अथवा अहिंसा-अणुव्रत सहिष्णुता और शौयादि गुण प्रकट होने है। और हिमा-महावत आदि भेद किये गये है। जो मनुष्य दुर्बल आत्मायाम अहिमाका पालन नहीं हो सकता पूर्ण अहिंमांक पालन करनेमें असमर्थ है, वह देश अहिंसाका उनमें सहिपाना नहीं होती । अहिंसाकी परीक्षा अन्याचारांक पालन करता है, इसीसे उसे गृहस्थ, अगुवनी, दशवती या अत्याचारोंका प्रकार करनेकी मामय ग्यते हुए भी उन्हें दशयनी नामसे पुकारते हैं। क्योंकि अभी उसका सांसारिक हमन-पने महल में है. किन्तु प्रतीकारकी मामय अभाव दहभोगांमे ममन्च नहीं छटा है-उसकी प्रान्मक्रिका पूर्ण में अत्याचार्गक श्रन्याचाराका चुपचाप अथवा कुछ भी विरोध 'विकास नहीं हुआ है-यह तो अम, मषि, कृषि, शिल्प, किये बिना मह लेना कायरता है-पाप है--हिमा है। कायर वाणिज्य, विद्यारूप पट कोम शक्त्यानुसार प्रवृनि करता मनुष्यका अान्मा पतिन होता है, उसका अन्त.करण भय हुआ एक दश हुश्रा एक दश अहिंसाका पालन करता है। गृहम्यअवस्थामें और संकोच अथवा शंकासे दबा रहता है। उसे भागन चार प्रकारकी हिंमा संभव है। मंकल्पी, प्रारम्भी, उद्योगी भयकी चिन्ता सदा घ्याकुल बनाये रहती है-मरने जीने . और विरोधी । इनमेंसे गृहस्थ सिर्फ एक संकल्पी.हिंसा-मात्रऔर धनादि सम्पत्तिके विनाश होने की चिन्तास वह मदा। का त्यागी होना है और वह भी ग्रम जीवोंकी। जैन पीटित एवं सचिन्त रहता है। इसीलिये वह आत्मबल और.. भाचार्योने हिमांक इन चार भेटीको दो भागम समाविष्ट किया है और बताया है कि गृहस्थ-अवस्थामे दो प्रकारकी मनोबलकी दुर्बलनाक कारण-विपनि पाने पर अपनी रक्षा · हिंसा हो सकती है, पारम्भजा ओर, अनारम्भजा । श्रारम्भजा भी नहीं कर सकता है। परन्तु एक सम्यग्दृष्टि अहिंसक -हिमा कटने, पीसने श्रादि गृहकार्यो अनुष्ठान और आजीपुरुष विपनियोंक पानेपर कायर पुरूपकी नरह घबराना नहीं विकाके उपार्जनाधिस सम्बन्ध रखती है, परन्तु दृमरी हिमा. थौर न रोना चिम्लाता ही है किन्तु उनका स्वागत करना है . गृही कर्तव्यका यथेष्ट पालन करते हुए मन-वचन-कायसे और महर्प उनको महनक लिये टयार रहता है नया अपनी : होने वाले जीवोंके घातकी भार मंकन करती है। श्रर्थान् दो सामथ्यक अनुसार उनका धीरतासे मुकाबिला करना है इंद्रियावि सजीवांका संकल्पपूर्वक जान बूझकर मनाना उस अपने मरने जीन और धनादि सम्पत्तिक समूल विनाश ... होनेका कोई डर ही नहीं रहता, उमका श्रामबल और सम्मबिट्टी जीवा णिस्संका होति णिच्भया तण । मनोबल कायर मनुष्यकी भांति कमजोर नहीं होगा क्योंकि सत्तभविपमुक्का जम्हा तम्हा दुणिम्मका ।। उसका आमा निर्भय है--सप्तभयोम रहिन है। जन मद्धांत समयमारे. कुन्दकुन्न २२८ Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष १३ - - - - या जानसे मारना ही इसका विषय है, इसीलिये इसे पूर्णशक्रियोंका विकास होजाता है, तब पात्मा पूर्ण अहिंसक संकल्पी-हिमा कहते हैं । गृहस्थ अवस्थामें रहकर प्रारम्भजा कहलाने लगता है। अस्तु, भारतीय धर्मों में अहिंसाधर्म ही हिंसाका त्याग करना अशक्य है। इसीलिये जैन ग्रन्थों में इस सर्वश्रेष्ठ है। इसकी पूर्ण प्रतिष्ठा प्राप्त करनेवाला पुरुष परमहिंसाके न्यागका आमतौरपर विधान नहीं किया है । परन्तु ब्रह्म परमात्मा कहलाता है । इसीलिये प्राचार्य समन्तभद्रने यत्नाचारपूर्वक प्रवृत्ति करनेकी ओर संकेत अवश्य किया है जो अहिंसाको परब्रह्म कहा है। अतः हमारा कर्तव्य है कि हम कि आवश्यक है। क्योंकि गृहस्थीमें ऐसी कोई क्रिया नहीं जैन शासनके अहिंसातत्वको अच्छी तरहसे समझे और उस होती जिसमें हिमा न होनी हो। अतः गृहस्थ सर्वथा हिमाका पर अमल करें। साथ ही, उसके प्रचार में अपनी पर्वन्यागी नहीं हो सकता। इसके मिवाय, धर्म-देश-जाति और शक्तियों को लगादें, जिससे जनता अहिंसाके रहस्यको समझे अपनी नया अपने प्रान्मीय जनोंकी रक्षा करने में जो विरोधी और धार्मिक अन्धविश्वामम होनेवाली घोर हिमाका-राक्षसी हिमा होती है उसका भी वह त्यागी नहीं हो सकता। कृत्यका-परित्यागकर अहिमाकी शरणमें पाकर निर्भयतास जिम मनुष्यका मांसारिक पदार्थोसे मोह घट गया है अपनी आत्मशक्रियोंका विकाम करनेमें समर्थ हो सकें। और जिसकी आत्मशक्रि भी बहुत कुछ विकास प्राप्त कर गृहवामसंवनरतो मन्दकषायाप्रवनितारम्भः । चुकी है वह मनुष्य उभय प्रकार परिग्रहका न्याग कर जैनी प्रारम्भजां महिमां शक्नोति न रक्षतु नियमान् ॥ दीक्षा धारण करता है और नब वह पूर्ण अहिंसाके पालन श्रावकाचार, अमिनगतिः, ६, ६, ७ करने में समर्थ होता है। और इस तरहसे ज्यों-ज्यों श्रात्म ६. अहिंसा भूतानां जगति विदितं ब्रह्म परमं, शक्रिका प्राबल्य एवं उसका विकास होता जाना है न्यों-त्यों न सा तत्रारम्भोम्न्यगुरपि च यत्राश्रमविधौ ॥ अहिसाकी पूर्णना भी होती जाती है। और जब अात्माकी तनस्तपिढयथं परमकरुणो ग्रन्थमुभयं, हिसा द्वधा प्रोक्ताऽऽरंभानारंभजत्वतोद। भावानेवाल्यातीन च विकृतवेषोपधिरतः ॥११६ गृहवासतो निवृत्तो द्वेधाऽपि त्रायने तॉच ।। म्वयंभुस्तोत्रे, ममन्तभद्रः। सकता। समाधितन्त्र और इष्टोपदेश वीरसेवामन्दिरसे प्रकाशित जिस 'समाघितन्त्र' ग्रन्थके लिये जनता असेंसे लालायित थी वह ग्रन्थ इष्टोपदेशके साथ इसी सितम्बर महीनेमें प्रकाशित हो चुका है। प्राचार्य पूज्यपादकी ये दोनों ही आध्यात्मिक कृतियाँ अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं। दोनों ग्रन्थ संस्कृत टीकाओं और पं० परमानन्दजी शास्त्रीके हिन्दी अनुवाद तथा मुख्तार जुगलकिशोरजीकी खोजपूर्ण प्रस्तावनाके साथ प्रकाशित हो चुका है। अध्यात्म प्रेमियों और स्वाध्याम प्रेमियों के लिये यह ग्रन्थ पठनीय है। ३५० पेजकी सजिन्द प्रतिका मन्य ३) रुपया है। जैनग्रन्थ प्रशस्ति संग्रह यह ग्रन्थ १७१ अप्रकाशित ग्रन्थोंकी प्रशस्तियोंको लिए हुये है। ये प्रशस्तियाँ हस्तलिखित ग्रन्थों परसे नोट कर संशोधनके साथ प्रकाशित की गई हैं। पं० परमानन्दजी शास्त्रीकी ११३ पृष्ठकी खोजपूर्ण प्रस्तावनासे अलंकृत है, जिसमें १०४ विद्वानों, प्राचार्यों और भट्टारकों नथा उनकी प्रकाशित रचनाओंका परिचय दिया गया है जो रिसर्चस्कालरों और इति-संशोधकोंके लिये बहुत उपयोगी है। मूल्य ५) रुपया है। मैनेजर वीरसेवा-मन्दिर, १ दरियागज, दिल्ली । Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूज्य वर्णीजीके प्रति श्रद्धांजलि (विनम्र जैन) "भारतके आध्यात्मिक योगिन ! स्वीकारी जगतीका प्रणाम ।।" हे पूज्यवर्य, हे गुण निधान, हो गई धन्य यह वसुन्धरा । नुमने अपने मज्ज्ञान-मूर्यने, अज्ञान निमिरको, अहो. हटा॥ शिक्षासे ही मानव बढतं. शिक्षा ही जीवन-दायक है। तुमने सदैव यह सिम्बलाया, शिक्षा विवेक उन्नायक है। बम एक अमिट यह चाह पाक तुम बन सदासे हो अकाम ! भारत याध्यामिक योगिन. याकारी जगतीका प्रणाम ॥१॥ तू परम मधुर भाषण कर्ता, अंतर बाहर द्वयसे निर्मल । तेरी वाणी शुचि गंगाजल, गुजिन सुरभित जिससे नभ-थत्व ॥ है क्षमा-दविके चिर मुहाग, तुमको वरकर वह हुई अमर । तेरे पवित्र हृदयाम्बरमें, बहता रहता करुणा सागर ।। अधरोंपर शिशु मुस्कानधार, कर्तव्य निरत तुम अनविराम भारतके आध्यात्मिक योगन, स्वीकारो जगीतका प्रणाम ॥श 'मेरे जिनवरका नाम गम, हे संत ! तुम्हें मादर प्रणाम ।' युगकवि की इस श्रद्धांजलिस, श्रद्धाका सार्थक हुअा नाम ।। निदा मनुनि दोनोंमे ही ना, अपनको चिर निलिप रखा । बस वही कर्मरि क्षय करनं तुमने तपको वर लिया मग्या ।। निज तपश्चरणसे हे मुनीश, पाागे वह कंवल्यधाम । भारत प्राध्यामिक योगिन, म्बीकागे जगतीका प्रणाम ॥३॥ हो अगम ज्ञान जाना तुम, विद्या-वारधि ! युग नमस्कार । वह पुण्य : दिवम जब गया मध्य.तुमम ऋपि भावे स्वयं मिले। वह ग्रमचयं दीपित मुग्व-रवि, कर रहा अहियाका प्रसार ॥ व भूमिदानके अन्येपक. जिमसं लिप्या उर-तार हिले ॥ मानवका हित साधन करने, पावन पगसे चिरकाल चले। तुम श्राध्यात्मिक दु.खक त्राता, कर रहे मलिन अंतर पवित्र । हे द्रव्यदानक उन्नं रक, लग्वि तंज हृदय-पापाण गले ॥ वे भौनिक क्लेशोंक नाशक, कर रहे शुद्ध माना-चरित्र । मुम्ब मौन मात्र हो हे ऋषिवर ! रचनामानव विधि-लिपि ललाम तुम दोनों दो युग पुरुपमान्य, ज्यानित करने भाग्न मुनाम। भारतक आध्यात्मिक यागिन, स्वीकारी जगतीका प्रणाम ॥॥ भारतके प्राध्यामिक योगिन,म्वीकारो जगीका प्रणाम ॥२॥ एकामी जन्म दिवमपर कवि, भावोंका अर्घ चढाता है। छंदोंकी छोटीमी माला, पहिनाने हाथ बढ़ाना है । तुम मौन शांत सम्मित बैटे, क्या श्रद्धा-सुमन न थे मुम्बकर ? यद्यपि वाणी मुखरित न हुई. मम्बांधा दिव्याभा ने पर ॥६॥ आचरण करो मन्तोंके गुण, गुण-गानमात्र है मार्ग वाम । भारतके प्राध्यामिक योगिन्, स्वीकारो जगतीका प्रणाम ॥६॥ १ राष्ट्रकवि श्री मैथिलीशरणजी गुप्त ३४ अगस्त सन १३ Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थानमें दासी प्रथा राजस्थान स्वतन्त्र भारतका एक प्रान्न है। उसमें दामी हुई जान पड़ती है। जब अंग्रेजी शासनमें 'सती' जैसी प्रथाका होना राजस्थानके लिये कलंक की वस्तु है । जब भारत प्रथाका अस्तित्व नहीं रहा तब राजस्थानकी यह दासी प्रथा अपनी सदियोंकी गुलामीसे उन्मुक्त हो चुका है तब उसमें कैस पनपती रही, यह कुछ ममयझमें नहीं पाता। राजस्थानदासी प्रथा जैसी जघन्य प्रथाका अस्तित्व उसके लिये अभि के रजवाड़ोंमें राजा, महाराजा, सामन्त और राज्य मन्त्री शाप रूप है। पादिके लड़के लड़कियोंकी शादीमें दहेजकी अन्य वस्तुओं के __यद्यपि प्राचीन भारतमें दाम्मी-दास प्रथाका श्राम ग्विाज साथ सीमित दासियोंके देनेका रिवाज है जिनकी संख्या था। जब किसी लड़के या लड़कीकी शादी होती थी तब कभी कभी सैकड़ों तक पहुँच जाती है जिन्हें आजन्म लड़की दहेजके रूपमें हाथी घोड़ा, रथ श्रादि अन्य वस्तुओं के साथ की ससुराल में रहना पड़ता है । और एक गुलामकी तरह कुछ दासी-दास भी दिये जाते थे। इनके सिवाय, क्रीतदास, मालिक मालकिनकी सेवा करते हुए उनकी झिड़कियाँ गाली ग्रहदाम (दासीपुत्र) पैत्रिकदास दण्डदाम, भुदास आदि गलौज तथा मारपीटकी भीषण वेदना उठाना पड़ती है और सात प्रकारके दास होते थे। चाणिक्वक अर्थशास्त्र में इस अमानवीय अत्याचारोंको चुपचाप महना पड़ता है। इस प्रथाका समुल्लेख पाया जाता है । जैन-ग्रन्थ गत परिग्रह परि- तरह उन अपनाका तमाम जीवन 'रावलें (निवास) की माणयतमें दासी-दास रखनेक परिमाण करनेका उल्लेख चहार दीवारीम सिमकता हुआ व्यतीत होता है। जिसमें किया जाता है । गुलाम रखनकी यह प्रथा जन-समाजमें से उनकी भावनाए' और इच्छाएं उत्पन्न होती और निराशाकी तो सर्वथा चली गई है, भारतमें भी प्रायः नहीं जान पड़ती, अमंत गादमें विलीन हो जाती हैं । मालिक मालकिनकी सेवा किन्तु राजस्थानमें दामी प्रथाका बने रहना शोभा नहीं देना। उनका जीवन है। उनके अमानवीय अत्याचार एवं अनाचारोंमे वहां मानवता विहीन अबला नारीका सिसकना एक अभि- पीड़ित राजस्थानकी लाखों अबलाएँ अपना जीवन राजशाप है । आजके 'हिन्दुम्नान' नामक दैनिक पत्रमें इस प्रथा स्थानक रनिवामोंमें पशुसे भी बदतर स्थितिमें रहकर श्रांमू का अवलोकन कर हृदयमं एक टीस उत्पन्न हुई कि भारत बहाती हुई व्यतीत करती हैं । हमें खेद हैं कि म्वनन्त्र जैसे स्वतन्त्र देशमं मी निद्य प्रथाका होना चाम्नबमें भारतकी सरकारका ध्यान इस प्रथाके बन्द करनेकी ओर उसके लिये भारी कलंक है। नहीं गया । श्राशा हे भारत सरकार शीघ्रही राजस्थानके इस राजस्थानमें यह प्रथा सामन्तशाहीके समयसे प्रचलित कलंकको धोनेका यन्न करेगी। -परमानन्द जैन साहित्य-परिचय और समालोचन इप्टोपदेश (टीकात्रय और पद्यानुवादस युक्र) ग्रंथ-कर्ता तरह दिया गया है। यह संम्करण अंग्रेजी जानने वालोंके देवनन्दी, प्रकाशक रायचन्द्र जैन शास्त्रमाला, वम्बई । पत्र लिये विशेष उपयोगी है। मंच्या ८८ मूल्य ॥) रुण्या। प्राची-एक माप्ताहिक पत्र है जिसके दो अङ्क मेरे सामने प्रस्तुत ग्रन्थ प्राचार्य देवनन्दी (पूज्यपाद ) की सुन्दर हैं। पत्रका वार्षिक मूल्य १०) रुपया है और एक प्रतिका मृन्य श्राध्यात्मिक कृति है। इसमें पं० श्राशाधरजी की संस्कृति चार पाना । यह हिन्दीका अच्छा पत्र है जिसमें सुन्दर लेखटीका भी साथमें दी हुई है, और पं० धन्यकुमारजी का हिंदी सामग्रीका चयन रहता है । पत्रका प्रकाशन 'प्राची अनुवाद दिया हुआ है। बरिस्टर चम्पतरायजीकी अंग्रेजी प्रकाशन' ११ स्क्वायर कलकत्ता' से होता है । यदि सहयोगी टीका, ब्रह्मचारी शीतलप्रमादजीका दोहानुवाद, रावजी भाई इसी प्रकारकी उपयोगी पाठ्य सामग्री देता रहे तो पत्रका देशाईका गुजराती पद्यानुवाद और बाबू जयभगवानजी एडवो- भविष्य उज्ज्वल और क्षेत्र विस्तृत हो जायगा, श्राशा है केटका अंग्रेजी पद्यानुवाद दिया हुश्रा है। जिससे पुस्तक और प्राचीके संपादक महानुभाव अत्युपयोगी लेख सामग्रीसे भी उपयोगी हो गई है । इप्टोपदेशको संस्कृतटीकाको बिना किसी पत्रको बराबर विभूषित करते रहेंगे। मंशोधनके छापा गया । उद्धत पद्योंको रनिंग रूपमें पहलेकी -परमानन्द जैन Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीतरागाय नमः रायचन्द्रजैनशास्त्रमाला श्रीमद्देवनंदि-अपरनाम-पूज्यपादस्वामिविरचित इष्टोपदेश [टीकात्रय एवं पद्यानुवाद चतुष्टय युक्त।] १-पण्डिनप्रवर श्रीआगाधरजीकृत मंस्कृतीका। हिन्दी टीकाकार और सम्पाटक२-जैनदर्शनाचार्य श्रीधन्यकुमारजी जैन, एम० ए० (हिन्दी. संस्कृत ) साहित्यरत्न 4- स्व० बरिस्टर श्रीचम्पतरायजी विद्यावारिधिकृत अंग्रेजीटीका The Discourse Divine. तथा १-म्ब० जैनधर्मभृपण व शीतलप्रसाद कृत हिन्दी पद्यानुवाद, २-अज्ञातकविकृत मराटी पद्यानुवाद, ३---शाह रावजीभाई देसाईकृत गुजराती पद्यानुवाद, ४-श्रीजयभगवानजी जैन, वी. ए. एन्ट एन्ट. बी. एडवोकेट, पानीपतकन विस्तृत अंग्रेजी पधानुगद Happy sermons. प्रकाशक-- परमश्रुतप्रभावक मंडल, श्रीरायचन्द्रजैनशास्त्रमाला । चौकसी चेम्बर, स्वाराकुआ, जाहरी बाजार, बम्बई नं० २. Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इटोपदेशकी विषय-सूची . १० १६ मंगलाचरण-टीकाकार और मूल ग्रन्थकर्ताका १मोही कर्मोंको बाँधता है, और निर्मोही दृट जाता 'स्वयंस्वभावाप्ति' का समाधान - २ है, इसलिए हरतरहसे निर्ममताका प्रयत्न करे-- ३३ अनादिकोंकी सार्थकता ३] में एक ममता रहित शुद्ध हूँ, संयोगसे उत्पन्न आत्म-परिणामीके लिये स्वर्गकी सहज में ही प्राप्ति ५ पदार्थ देहादिक मुझसे सर्वथा भिन्न हैंस्वर्ग-सुखोंका वर्णन - ६ देहादिकके सम्बन्धसे प्राणी दुःख-समूह पाते हैं, "सांमारिक स्वर्गानि-सुम्ब भ्रान्त है" इसका कथन ७ इससे इन्हें कैसे दूर करना चाहिए ? यदि ये वासनामात्र हैं, तो उनका वैमा अनुभव ज्ञानी सदा निःशंक हे, क्योंकि उसमें रोग, मरण, क्यों नहीं होता? इसका उत्तर-मोहसे ढका बाल, युवापना नहीं, ये पुद्गल में हैं हा ज्ञान वस्तु-स्वरूपको ठीक-ठीक नहीं प्रद्रलोको बार बार भोगे और छो, इससे ज्ञानीका जानता है उच्छिष्ट-झूठेमे प्रेम नहीं है। मोहनीयकर्मके जालमें फंसा प्राणी शरीर, धन, दारा, कर्म कर्म का भला चाहता है, जीव जीवका, सब को आत्माके समान मानता है अपना अपना प्रभाव बढ़ाते हैजीव-गति वर्णन,अपने शत्रुओके प्रति परका उपकार छोटकर अपने उपकारमें तत्पर होओ. भी द्वेषभाव मत करो अपनी भलाईमें लगो। गग देष भावसे आत्माका अहित होता है गुरुके उपदेशसे अपने और परके भेदको जो मसारमें सुख है तो फिर इमका त्याग क्या किया जानता है, वह मोक्षसम्बन्धी मुखका अनुभव करता है। जाय ? इसका समाधान स्वयं ही स्वयंका गुरु है मासारिक सुख तथा धम, आदि, मत्य और अन्तम अभव्य हजारों उपदेशोंमे ज्ञान प्राप्त नहीं कर दुःखदायी है सकता है। मंच योगी अपने भ्यानसं चलायमान 'धनसे आत्माका उपकार होता है, अत: यह नहीं होते हैं, चाहे कुछ भी हो जाव उपयोगी है, इसका समाधान वात्मावलोकनके अभ्यासका वर्णन घनमे पुण्य करूँगा, इसलिये कमाना चाहिए स्वात्ममंवित्ति बढनेपर आत्मपरिणतइसका समाधान योगी निर्जन और एकान्तवास चाहता है, अन्य भोगोपभोग कितने भी अधिक भोगे जायेंगे कभी तृप्ति न होगी ___ सब बातें जल्दी भुला देता हैं २१ शरारके सम्बन्धमे पवित्र पदार्थ भी अपवित्र हो ध्यानमें लगे योगीकी दशाका वर्णन जाते है-शरीरकी मलिनताका वर्णन- २२ आत्मस्वरूपमें तत्पर रहनेवालेको परमानन्द की प्राप्ति जो आत्माका हित करता है, वह शरीरका अपकारी परद्रव्यों के अनुराग करनेसे होनेवाले दोधोका वर्णन है और जो शरीरका हिन करता है, वह तत्त्वसंग्रहका वर्णन जीवका अपकारक ( बुरा करनेवाला) है २३ तत्वका सार-वर्णनध्यानके द्वारा उत्तम फल और जघन्य फल शास्त्रक अध्ययनका साक्षात् और परम्परास होने इच्छानुमार मिलते है वाले फलका वर्णनआत्मस्वरूप वर्णन , उपसंहार और टीकाकारका निवेदन-- मनको एकाग्र कर इन्द्रियोंके विपयोको नष्ट कर परिशिष्ट नं.१ मराठी पद्यानुवादआत्मा ज्ञानी परमानदमयी होकर अपने-आपने , न. २ गुजराती , रमता है २७ नं.३ अंग्रेजी अनुवादअजगति अज्ञानको ज्ञानभक्ति ज्ञानको देती है, जो The Discourse Divine, जिसके पास होता है, उसे वह देता है २८ ,,४ अंग्रेजी विस्तृत पद्यानुवाद आत्मामे आत्माके चितवनरूर ध्यानसे, परीप Happy Serimony हादिका अनुभव न होनेमे, कर्म निर्जरा होती है-२९ ,, नं. ५ मूल श्लोकोकी वर्णानुक्रमणिका ८४ जहाँ आत्मा हीन्याता और ध्येय हो जाता है वहाँ , न.६ उद्धृत श्लोकों गाथाओ और दोहोंकी अन्य सम्बन्ध कैसा ? ३२ वर्णानुक्रमणिका १८ न्यू भारत प्रिटिंग प्रेस, गिग्गांव बम्बई ४ Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीरायचन्द्रजैनशास्त्रमाला । परिचय और निवेदन--स्वर्गवासी तत्वज्ञानी गता- शा. मा० का नहीं है। जो द्रव्य आता है, वह ग्रन्थोद्धारवधानी कविवर, महात्मा गान्धीजीके गुरुतुल्य श्रीराय- कार्य में लगाया जाता है। हमारा यह उद्देश्य तभी सफल चन्द्रजीके स्मारकमें यह प्रथमाला उनके स्थापित किये हो मकना है, जब पाठक अधिकसे अधिक द्रव्य भेजे, हुए, परमश्रुत प्रभावकमंडलके तत्वावधानमें ५५ वर्षसे अथवा शास्त्रमालाके ग्रंथ खरीदकर जैनमाहित्योद्धारके निकल रहो है, इसमे श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्य, श्रीउमा- काममें हमारी मदद करें, क्योकि तत्वज्ञान के प्रसारमे म्यामो, श्रीसिद्धसेनदिवाकर, श्रीपूज्यपादस्वामी, श्रीअमृत- बढ़कर दूसरा कोई प्रभावनाका पुण्य-कार्य नहीं है। चन्द्रसूरि, श्रीशुभचन्द्राचार्य,श्र नेमिचन्द्र सिद्वान्तनक्रवती, आगामी प्रकाशन-श्रीकुन्दकुन्दस्वामीके सभी प्रय, थीयोगीन्दुदेव श्रीविमलदाम, श्रीहेमचन्द्रमूरि, थोमल्लिषेण स्वाभिकार्तिकेयानुप्रेक्षा मूलगाथायें भ. शुभचन्द्रकृत सूरि आदि आचायाँके अतिशय उपयोगी ग्रंथ सुसम्पादित संस्कृतटीका और पं० कैलाशचन्द्रजी शास्त्रीकृत नई हिन्दी कराके मूल, संस्कृ टीकाएँ और मरल हिन्दीटीका सहित टीका, समाधिशतक और आममीमांसा आदि कई निकाले गए हैं। सर्वसाधारणमें सुलभ मूल्यमें ग्रन्थोंका मुसम्पादन हो रहा है और कई छप रहे हैं, जो नत्त्वज्ञानपूर्ण ग्रन्थोंका प्रचार करना इसका मुख्य समयानुमार निकलेंगे। शास्त्रमाला के सभी ग्रंथ सुन्दर उद्देश्य है । ग्रंथ छपाकर कमाई करने का उद्देश्य इस मजवून जिन्दोंसे मडित हैं, बहुत शुद्ध और सस्ते हैं। प्रकाशित ग्रन्थोंकी सूची १ पुरुषार्थसिद्धयुपाय-अमृतच-द्रसूनिकृत मूल इलोक कायें, श्रीमल्लिपणसूरिकृत संस्कृतटीका, डॉ. पं. और पं० नाथूगम जीप्रीतहिन्दीटीका । इस ग्रन्यमें जगदीशचन्द्रजी शास्त्री एम० ए०, पी० एच०डी. श्रावक-धर्मका विस्तृत वर्णन है। चाथी आवृत्ति कृत हिन्दीटीका सहित, न्यायका महत्वपूर्ण ग्रन्थ । सशोधित होके छपा है। अबकी बार ग्रयकाका मू० ६) पो०१) परिचय, विषय-सूची और २ अनुक्रमणिकायें लगा १४ सभाप्यतत्वाधिगमसूत्र-मोक्षशास्त्रदी हैं । २) पो. /-) श्र उमास्त्रातिकृत मूलसूत्र संस्कृतटीका, प० म्यूब२पंचास्तिकाय-अप्राप्य है । छ पेगा चन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्रीकृत हिन्दी टीका। इसमें ३ सानार्णव-श्रीशुभचन्द्राचार्यकृत मून्ट और स्व. ५० तमाम जैन तत्वों का वर्णन है, सागरको गागरमें पन्नालालजी बाकलीवाल कृत हिन्दीटीका, योगका आचार्यश्रीने भर दिया है। पृष्ठ ५०० मू०३) पो०१) महत्वपूर्ण ग्रंथ । मृ. ६) पो. १) १५ पुष्पमाला मोक्षमाला और भावनाबोधसप्तभंगीतरंगिणी--अप्राग्य । श्राद्राजचन्द्रकृत, अप्राप्य है। ५ हद्दव्यसंग्रह-अप्राप्य १६ उपदेशछाया और आत्मसिद्धि-अप्राप्य है। ६ गोम्मटसार कर्मकांड-श्रीनमिचन्द्र सिद्वान्तचक्रवर्ती १७ योगसार-अपाय है। कृत मूल गाथाय और० ब. प. मनोहरलालजीकृत १८ योगीन्द्र-हिज परमात्मप्रकाश-अंग्रेजी अप्राप्य । हिन्दीटीका । सिद्धान्त-ग्रन्थ । मू. ३)पा. 1) १९ श्रीमदराजचन्द्र-श्रामदाजचन्द्रजीके पत्रों और ७ गोम्मटसार जीवकांड-अप्राप्य है, जल्दी छपेगा। रचनाओका अपूर्व सग्रह, अध्यात्मका अपूर्व और ८ लाब्धसार-हिन्दीटीका महित, अप्राप्य । विशाल ग्रंथ है। म. गाधीजीकी महत्वपूर्ण प्रस्तावना ९ प्रवचनसार-अप्राप्य है, पुनः छपगा। है। पृष्टमख्या ९.० स्वदेशी कागजपर कलापूर्ण १० परमात्मप्रकाश और योगसार-अप्राप्य है। मुन्दर छपाई हुई है । मूल्य मिर्फ १०) पो०२) ११ समयसार-- श्राकुन्दकुन्दस्वामोकृत, अप्राप्य है। २० न्यायावतार-श्रीमिद्धमनदिवाकरकृत। ५) पो. ॥) पुनः सपादन मशोधन हो रहा है, जल्दी ठपेगा। १ प्रशमरतिप्रकरण-श्राउमाम्बातिकृत ६) पो.11%) १२ द्रव्यानुयोगतकेणा-अप्राप्य है। २२ टोपदेश-जेनोपनिषद-आचार्य पूज्यपादरवामी१३ स्याद्वादमंजरा-श्रीहेमचन्द्राचार्यकृत मूल कारि- कृ11 मू० २१) पो01-) अंग्रजीटीका ।।) पो.-) सूचना-शास्त्रमालाके सभी ग्रंथ दिगम्बर जैन पुस्तकालय, कापड़िया भवन, गान्धी चौक मृग्नसे भी मिलेंगे। मैनेजर-परमश्रुतप्रभावक मंडल, (रायचन्द्र जैनशास्त्रमाला) ठि० चौकसी चेम्बर, खाराकुवा, जौहरी बाजार, बम्बई नं० २. Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालाके नवीन तीन ग्रन्थ-रत्न । आचार्यसिद्धसेनदिवाकरकृत सम्राट विक्रमादित्यकी सभाके ९ रत्नों से क्षपणक नामक रस्न १ न्यायावतार-थीसिद्धर्षिगणिकी संस्कृतटीकाका हिन्दी भाषानुवाद । अनुवादकत्ता-पं.विजयमूर्ति शास्त्राचार्य (जैनदर्शन) एम्. ए. (दर्शन, संस्कृत)। यह न्यायका सुप्रसिद्ध ग्रंथ है । इसमें ३२ कारिकाओं (श्लोको) मे न्याय-शास्त्र के मुख्य मुख्य सिद्धान्तोंका सरल भाषामें विस्तृत विवेचन है। इसमे न्यायावतारका अर्थ, प्रमाणका लक्षण, प्रमाणके लक्षण कहनेका प्रयोजन, प्रमाणके प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष भेद, अनुमानका लक्षण, प्रत्यक्षका अभ्रान्तत्व, सकल ज्ञानोंके भ्रान्तत्वकी असिद्धि, शाब्द-प्रमाणका, लक्षण-कथन, परार्थानुमान और परार्थप्रत्यक्षका सामान्य लक्षण, प्रत्यक्षका परार्थत्यरूपसे निरूपण, परार्थप्रत्यक्षका स्वरूप, परार्थानुमानका लक्षण, पक्षका लक्षण, पक्षका प्रयोग स्वीकार न करनेपर दोष, असिद्ध, विरुद्ध और अनेकान्तिक हेत्वाभासोका लक्षण, साधर्म्यदृष्टान्ताभासांके लक्षण और उसके भेदोका प्रनिपादन, वैधयदृष्टान्ताभासका लक्षण, दूषण और दूषणाभासका लक्षण, पारमार्थिक प्रत्यक्षका निरूपण, प्रमाणके फलका प्रतिपादन, प्रमाण और नयके विषयका निरूपण, स्याद्वादश्रुतनिदेश, प्रमाणका लक्षण, ग्रन्थोपसहार आदि सैकड़ो विषयोंका वर्णन है। अन्नमें श्ल.कोंकी वर्णानुक्रमणिका, टीकामे उद्धृत श्लोकों और गाथाओकी वर्णानुक्रमणिका, न्यायावतार सूत्रोंकी शब्द-सूची है। पृष्ठसख्या १४४, सुन्दर मजबूत जिल्द बॅधी है। मूल्य ५) पोष्टेज ॥) २ प्रशमरतिप्रकरण-मोक्षशास्त्र-तत्त्वार्थसत्रके कर्ता श्रीउमास्वामि (ति)कृत | श्रीहरिभद्रसूरिकृत संस्कृनटीका और साहित्याचार्य पं. राजकुमारजी शास्त्री एम० ए०, प्रोफेसर जैन कॉलेज बदौत (मेरठ) कृत सरल हिन्दी-टीका । यह बहुत प्राचीन ग्रंथ है। श्रीउमास्वामी आचार्य ने जैम मोक्षशास्त्रके सूत्रोंमे मंक्षेपमें सारे जैन तत्वीका वर्णन किया है, वैसे ही ३१३ कारिकाओमे वैराग्य-अध्यात्मका मुन्दर सरल स्पष्ट विवेचन इस प्रथमें किया है, इसमें १ पीठबन्ध, २ कषाय, ३ रागादि, ४ आठ कर्म, ५ पंचन्द्रिय-विषय, ६ आठ मदस्थान, ७ आचार, ८ भावना, ९ दशविधि धनं, १० धर्म-कथा, ११ जोवादि नवतत्व, १२ उपयोग, १३ भाव, १४ घद्रव्य, १५ चारित्र, १६ शीलके अंग, १७ ध्यान, १८ क्षकगी, १९ समुद्धात, २० योग निरोध, २१ मोक्षगमन-विधान, २२ अन्तफल एमे २२ अधिकारोमें सैकड़ों विषयों का हृदयग्रही वणन है। आचार्षने जैनागमका सार इसमें भर दिया है। ग्रथके अन्तमें श्रावक के व्रतो का वर्णन है। मबस अन्तम अवचूरि अर्थात् मूल ग्रन्यपर टिप्पणी, कारिकाओंकी अनुक्रमणिका, सस्कृतटीकाम उद्धृत पद्योंकी वर्णानुक्रमणिका है। पृष्ठसख्या २४० मूल्य सिर्फ ६) पोष्टेज |) ३ इष्टोपदेश-आचार्यपूज्यपाद-देवनन्दिकृत मूलश्लोक, ५. प्रवर आशाधर कृत संस्कृतटीका, जैनदर्शनाचार्य प. धन्यकुमारजी शास्त्री एम. ए. साहित्यग्लन मरल हिन्दी अनुवाद, स्व० बैरिष्टर चम्पतरायजी विद्यावारिधिकृत अंग्रेजीटीका, स्व. व्र. शीतलप्रसादजीकृत हिन्दी दोहानुवाद, अज्ञातकविकृत मराठी पद्यानुवाद, रामजीभाई देसाईकृत गुजराती पद्यानुवाद, जयभगवानजी बी. ए. एल एल. बी. एडवोकेटकृत विस्तृत अंग्रेजी पद्यानबादरे अलंकृत । इस ग्रन्थको जैनोपनिषद ही कहना चाहिए । ससारसे दुःखित प्रणियोके लिए तो इमका उपदेश परमोपव है । इस ग्रन्थमे जिन बातोंका वर्णन है, उनका प्रचार और प्रसार होनेमे जगती-तलका बडा कल्याण होगा। छः परिशिष्टों सहित । पृष्टसख्या ९६. इतने सुन्दर ग्रन्थका मूल्य सिर्फ 1) पो०/-) लाभकी बात--२०) के ग्रन्थ मेंगानेपर ३) का प्रय सभाध्यतत्त्वाधिगमसूत्र-मोक्षशास्त्र-तत्त्वार्थमूत्र भेट मिलेगा, पर ग्रन्थोंका मूल्य पोष्टेज रजिष्ट्री खर्च निम्न पतेसे पहले आ जाना चाहिए । सूचना-बी० पी० से अन्य नहीं भेजे जायेंगे | जिन भाइयोंको अथ चाहिये, वे ग्रन्थों का मूल्य, पोष्टेज और रजिस्ट्री के छह आने मनिआर्डरसे पेशगी भेजनेकी कृपा करे। एसा करनेसे बडे हुए भारी पोष्ट जखर्चमे आट दस आनेको बचत होगी। रेलपासलसे मैंगानेवाले भाई चौथाई दाम पेशगी भेजे । इकट्ठी मँगानेवाले, प्रभावनामें वितरण करनेवाले भाई पत्र-व्यवहार कर, हम उन्हें यथोचित् कमीशन देगे । दाम भेजनेका वर्तमानका पता-- Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीरसेवामन्दिरके सुरुचिपूर्ण प्रकाशन (१) पुरातन-जैनवाक्य-सूची-प्राकृतिके प्राचीन ६. मूल-ग्रन्थोंकी पचानुक्रमणी, जिसके साथ 5 टीकाविग्रन्थों में उडत दूसरे पोंकी भी अनुक्रमणी लगी हुई है। सब मिलाकर २५३५३ पथ-वाक्योंकी सूची। संयोजक और सम्पादक मुख्तार श्रीजुगलकिशोरजी की गवेषणापूर्ण महस्वकी ७० पृष्ठको प्रस्तावनासे अलंकृत, कालीदास भागर एम. ए., बी. लिट् के प्राक्थन (Foreword) और डा. ए. एन. उपाध्याय एम. ए.पी. लिट् की भूमिका (Introduction) से भूषित है, शोध-खोजके विद्वानों के लिये अतीव उपयोगी, बड़ा साइज, माजल्द ( जिसकी प्रस्तावनादिका मूल्य अलगसे पांच रुपये है) (२ प्राप्त-परीक्षा-श्रीविद्यानन्दाचार्यकी स्वोपज्ञ सटीक अपूर्वकृति प्राप्तोंकी परीक्षा द्वारा ईश्वर-विषयके सुन्दर मरस और सजीव विवेचनको लिए हुए, न्यायाचार्य पं० दरबारोलालजी के हिन्दी अनुवाद तथा प्रस्तावनादिसे युक्त, सजिल्द । ... (३) न्यायदीपिका-न्याय-विद्याकी सुन्दर पोथी, न्यायाचार्य पं. दरबारीलालजीके संस्कृतटिप्पण, हिन्दी अनुवाद, विस्तृन प्रस्तावना और अनेक उपयोगी परिशिष्टोंसे अलंकृत, सजिल्द। .. (१) स्वयम्भूम्तात्र-समन्तभद्रभारतीका अपूर्व ग्रन्थ, मुख्तार श्रीजुगलकिशोरजीके विशिष्ट हिन्दी अनुवाद पन्दपरि चय, ममन्तभद्र-परिचय और भक्तियोग, ज्ञानयोग तथा कर्मयोगका विश्लेषण करती हुई महत्वकी गवेषणापूर्ण १०६ पृष्ठकी प्रस्तावनासे सुशोभित । ... (५) स्तुतिविद्या-स्वामी समन्तभद्रकी अनोग्वी कृति, पापोंके जीतनेकी कला, सटीक, सानुवाद और श्रीजुगलकिशोर मुख्तारकी महत्वकी प्रस्तावनादिसे अलंकृत सुन्दर जिल्द-साहित । (६) अध्यात्मकमलमार्तण्ड-पंचाध्यायीकार कवि राजमल्लकी सुन्दर श्राध्यात्मिक रचना, हिन्दीअनुवाद-सहित __और मुख्तार श्रीजुगलकिशारकी खोजपूर्ण ७८ पृष्ठको विस्तृत प्रस्तावनामे भूषित । ... ) (७) युक्त्यनुशासन-तत्त्वज्ञानसे परिपूर्ण समन्तभद्रकी असाधारण कृति, जिम्मका अभी तक हिम्दी अनुवाद नहीं हुअा था । मुख्तारश्रीके विशिष्ट हिन्दी अनुवाद और प्रस्तावनादिले अलंकृत, सजिल्द । ... ) (८) श्रीपुरपाश्वनाथस्तोत्र-प्राचार्य विद्यानन्दरचित, महत्वकी स्तुति, हिन्दी अनुवादादि सहित । " ॥) (E) शासनचनुस्त्रिशिका-(तीर्थपरिचय)-मुनि मदनकीर्तिकी १३ वीं शताब्दीकी सुन्दर रचना, हिन्दी अनुवादादि-सहित । (१०। मत्साधु-स्मरण-मंगलपाठ-श्रीवीर बर्द्धमान और उनके बाद के २१ महान् प्राचार्यों के १३७ पुण्य-स्मरणोंका महत्वपूर्ण संग्रह, मुख्तारधीके हिन्दी अनुवादादि-महित । (११) विवाह-ममुहेश्य मुख्तार मीका लिम्वा हुश्रा विवाहका मप्रमाण मार्मिक और तास्थिक विवेचन " ) :१२) अनकान्त-रस-लहरी-अनेकान्त जैसं गुढ़ गम्भीर विषयको प्रवती सरलतासे समझने-समझानेकी कुजी, मुख्तार श्रीजुगलकिशोर-लिस्तित । (१३) अनित्यभावना--पा० पद्मनन्दी की महत्वकी रचना, मुख्तारश्रीके हिन्दी पद्यानुवाद और भावार्थ सहित ) (१४) तत्त्वार्थसूत्र--(प्रभाचन्द्रीय) मुख्तारधीके हिन्दी अनुवाद नथा व्याख्यासं युक्त। (१५) प्रवणबेल्गोल और दक्षिणके अन्य जैनतीर्थ क्षेत्र-ला. राजकृष्ण जैनको सुन्दर सचित्र रचना भारतीय पुरातत्व विभागके डिप्टी डायरेक्टर जनरल डाल्टो एन. रामचन्द्रनको महत्व पूर्ण प्रस्तावनासे अलंकृत ) नोट-ये सब अन्य एकसाथ लेनेवालोंको ३८॥) की जगह ३०) में मिलेंगे। ज्यवस्थापक 'बीरसेवामन्दिर-ग्रन्थमाला' वीरसेवामन्दिर, १दरियागंज, देहबी ... Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Regd. No. D. 211 है अनेकान्तके संरक्षक और सहायक संरक्षक १०१) बा- शान्तिनाथजी कलकत्ता म. १५००) वा० नन्दलालजी सरावगी, कलकत्ता १०१) बा निर्मलकुमारजी कलकत्ता २५१) बा० छोटेलालजी जैन सरावगी , १०१) बा० मोतीलाल मक्खनलालजी, कलकत्ता २५१) बा. सोहनलालजी जैन लमेचू , १०१) बा० बद्रीप्रसादजी सरावगी, २५१) ला० गुलजारीमल ऋषभदासजी , १०१) बा० काशीनाथजी, ५१) बा० ऋषभचन्द (B.R.C. जैन , १०१) बा० गोपीचन्द रूपचन्दजी ५१) बा० दीनानाथजी सरावगो १.१) बा.धनंजयकुमारजी २५१) बा० रतनलालजी झांझरी १०१) बाजीतमल जी जैन २५१) बा० बल्देवदासजी जैन सरावगी , १०१) बा० चिरंजीलालजी सरावगी २५१) सेठ गजराजजी गंगवाल १.१) बा० रतनलाल चांदमलजी जैन, रॉची २५१) मेठ मुआलालजी जैन १०१) ला० महावीरप्रसादजी ठेकेदार, देहली २५१) बा०मिश्रीलाल धर्मचन्दजी १०१) ला० रतनलालजी मादीपुरिया, देहली २५१) मेठ मांगीलालजी १०१) श्री फतहपुर जैन समाज, फलका । २५१) सेठ शान्तिप्रसादजी जैन १०१) गुप्तसहायक, सदर बाजार, मेरठ २५१) बा० विशनदयाल रामजीबनजी, पुरलिया १०१) श्री शीलमालादेवी धर्मपत्नी दालश्रीचन्द्रजी, एटा * २५१) ला० कपूरचन्द धूपचन्दजी जैन, कानपुर १०१) ला० मक्खनलाल मोतीलालजी ठेकदार, दहली २५१) बा० जिनेन्द्रकिशोरजी जैन जौहरी, देहली १०१) बा० फूलचन्द रतनलालजी जैन, कलकत्ता २५१) ला० राजकृष्ण प्रेमचन्दजी जैन, देहली १०१) बा० सुरेन्द्रनाथ नरेन्द्रनाथजी जैन, कलकत्ता २५१) बा० मनोहरलाल नन्हेंमलजी, देहली १०१) बाल वंशीधर जुगलकिशारजी जैन, कलकत्ता २५१) ला०त्रिलोकचन्दजी, महारनपुर १०१) बा. बद्रीदास आत्मारामजी मरावगा, पटना २५१) संठ छदामीलालजी जैन, फीरोजाबाद १०१) ला० उदयराम जिनेश्वरदासजी सहारनपुर २५१) ला० रघुवीरसिंहजी, जैनावाच कम्पनी, देहली १०१) बा० महावीरप्रमादजी एवोकेट, हिसार २५१) रायबहादुर सेठ हरखचन्दजी जैन, रांची १०१) ला० बलवन्तसिंहजी, हांसी जि हिसार * २५१) सेठ वधीचन्दजी गंगवाल, जयपुर १८१) सेठ जाखारामबैजनाथ सरावगी, कलकता १०१) बाबू जिनेन्द्रकुमार जैन, सहारनपुर सहायक १०१) घैद्यराज कन्हैयालालजा चॉद औषधालय,कानपुर १०१) बा० राजेन्द्रकुमारजी जैन, न्यू दहली १०१) रतनलालजी जैन कालका देहली १०१) ला०परसादीलाल भगवानदासजी पाटनी, देहली १०१) ला० प्रकाराचन्द व शीलचन्दजी जौहरी, देहलो १०१) बा० सालचन्दजी बी० सेठी, उज्जैन १०१) ला• रतनलाल जी कालका वाले, देहली १०१) बा० घनश्यामदास बनारसीदासजी, कलकत्ता भधिष्ठाता 'वीर-सेवामन्दिर १०१) मा० लालचन्दजी जैन सरावगी __ सरसावा, जि. सहारनपुर प्रकाशक-परमानन्दजी चैन शास्त्री, दरियागंज देहली। मुद्रक-प-चाची प्रिटिंग हाऊस २१, दरियागंज, देसी Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेक का न्त सम्पादक मण्डल श्री जुगलकिशोर मुख्तार 'युगवीर' बा० छोटेलाल जैन to जयभगवान जैन एडवोकेट पं० परमानन्द शास्त्री * : **** ************ *** 21 अनेकान्त वर्ष १३ किरण २ अगस्त १६५४ कायपनी १ समन्तभद्वभारती – देवागम - [ युगवीर ● मद्राम और मयिलापुरका जैन- पुरातन्त्र- [ छोटेलाल म ३ श्री नेमिनाथाष्टक (स्तोत्र ) -- ४ हिसक और अहिसक ( कविता ) - [ मुनालाल 'मणि' ५ सत्यवचन माहात्म्य ( कविता ) -- [ मुनालाल 'मणि' ६ निमीहिया या नशियाँ -- [पं० हीरालाल सिद्धान्तशास्त्री ७ नार्थ और नार्थकर पं० हीरालाल सिद्धान्तशास्त्री [ राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डारोंमें उपलब्ध महत्वपूर्ण - साहित्य [ कस्तूरचन्दजी एम० ए० सिंह श्वान समीक्षा -- [पं० हीरालाल सिद्धान्तशास्त्रा १. प्रन्थोंकी ग्वोज लिये ६.०) रुपये छह पुरस्कार - [ जुगलकिशोर मुख्तार ११ वीरसेामन्दिरको प्राप्त सहायता १२ सकाम धर्मसाधन - [ जुगलकिशोर मुख्तार १३ सवि ! पर्वराज पर्यापण आर्य ( कविता ) -- [ मनु 'ज्ञानार्थी १४ सम्पादकीय १५ वरसेवामन्दरको स्वीकृत सहायता १६ साहित्य परिचय और समालोचन - [ परमानन्द जन ३३ ३५ ४१ ** ४२ ४३ ४८ ४ ६ ५१ ५५ ५६ ५७ ६१ ६२ ६३ ६४ Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तम शास्त्रदानका सुन्दर योग आप्त परीक्षाकी लूट !! प्राग्नपरीक्षा वीं शताब्दीर विद्वान श्री विद्यानन्दाचार्यकी म्यापज्ञ टीकाम युक्र अपूर्व कृति है आप्नोंकी परीक्षाद्वारा ईश्यर-विषयक मुन्दर मरम एव सजाय विवंचनको लिये हुए है, न्यानाचार्य पं. दरबारीलालक हिन्दी अनुवाद नथा प्रम्तावनादिम युक्र है और पहली बार 'बाग्सवामन्दिरम प्रकाशित हुई है जिसका लागत मूल्य ८) रुपया है। हम चाहने है कि इस नवज्ञानपूर्ण महन्ध अन्यका घर-घर प्रचार हो. कोई भी लायबंग इसमें बाली न रह और यह अजैन विद्वानोंको भी म्याय नौग्य पटनं लिये दिया जाय | क्योंकि यह उनकी श्रन्द्राको बदलकर अपने अनुकल करनेमें बहन कुछ समय है। अनः प्रचारको दृष्टिम हाल में यह योजना की गई है कि जो धनमत्रिपरायण परोपकारी मज्जन दो प्रतियांका मृल्य १६) भेजेंगे उन्हें उननं ही मूल्यम नान प्रतिया दी जायेगी, जिनमें एक प्रनि वे अपने लिय रग्ब और शेप हो प्रतियां किया मन्दिर, लायनं ग या अर्जन विद्वानको अपना भाग्य भंट कर देव और इस तरह मन्माहित्यक प्रचार एवं शाम्ग्रहानमं अपना सहयोग प्रदान करे। जो महानुभाउ शास्त्रदानको इच्छाग्न २० प्रनि एक साथ म्वर्गदेंगे उन्हें वे प्रनिया १६.) की जगह 100 रु. में ही दी जायेगी । आशा हैं मन्याहत्या प्रचारंग अपना सहयोग दनक लियं उद्यमशील एवं शाम्बठानक इच्छा मजन शीघ्र ही अपना ग्राभंजकर इस योजनाम लाभ उठाएंगे और इस तरह “चारसंवामान्दरक दमा महत्वपूर्ण प्रन्यांको अविलम्ब प्रकाशित करने लिय प्रान्माहित करंगे। मैंनेजर बीग्मंबामन्दिर ग्रन्थमाला ग्यागंज. दहली अनेकान्तके ग्राहकोंको भारी लाम अनेकान्नक पाठकांक लाभार्थ हालम या योजना की गई है कि इस पत्रक जो भी ग्राहक, चाहे वे नय हों या पुगन, पत्रका वार्षिक चन्दा ३) मा निम्न पते पर मनाआईरस पंगगी भजंग १०) मा मन्यक नीच लिम्ब ६ उपयोगी ग्रन्या को या उनमंस चाहं जिनकी वीरमवामन्दिरम अध मूल्यम प्राम कर सकेंगे और इम नरह 'अनेकान्न' मामिक उन्हे ) म मूल्यम ही वर्ष भर नक. पढने को मिल मकंगा। यह रियायन मिनम्बरक अन्त तक म्हंगी अतः ग्राहकांकाणीघ्र हा इस योजना लाभ उठाना चाहिये। ग्रन्यांका परिचय इस प्रकार है१. रत्नकरण्डश्रावकाचारमटीक --पः मदारमुख जीकी प्रसिद्ध हिन्दीटीकाम युक्त, वडा साइज, मोटा टाइप, पृ. ५२५. जिल्ट मृत्य २. स्तुनिविद्या--म्बामा ममन्तभद्रकी अनावी कृति, पापाको जाननकी कला, मटीक, हिन्दी टीकासे युक्त और मन्नार श्रीजुगलकिशारजा महत्वकी नावनाम अलंकृत, पृ०२०. मजिन्द ) ३. अध्यात्मकमलमातोएड--पचा यायीक पर्ना कांवगजमल्लकी मुन्दर आध्यात्मिक रचना. हिन्दी अनुवाद महिन और मुन्नार श्रा जुगलकिशोर को बोजपूर्ण - पृष्ठ की प्रश्नायनामे भूपित, पृष्ट , ४. श्रवणबेल्गोल और दक्षिणके अन्य जैनतीर्थ-जननीर्थीका सुन्दर परिचय अनेक चित्रों महिन पृष्ट १० ५. श्रीपुरपाश्नाथम्तोत्र-आचार्य विद्यानन्दकी नत्वज्ञानपूर्ण मुन्दर रचना, हिन्दी अनुवादादि महिन. पृष्ठ १२५ - ६. अनेकान्त रम-लहरी-अनेकान्त जेम गदगम्भीर विषयको अतीव मरलतामे समझनेममझाने की कुञ्जी मैनेजर 'अनेकान्न' वीरसेवामन्दिर, १ दरियागंज देहली। Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ अहम बस्ततत्त्व-सले I । विश्वतत्व-प्रकाशक वाषिक मूल्य १) एक किरण का मूल्य ।।) H ERE MAनीतिविरोषवसीलोकव्यवहारवर्तकःसम्प। परमागमस्यबीज भुवनेकगुरुर्जयत्यनेकान्तः॥ वर्ष १३ किरण २ वीरसेवामन्दिर, १ दरियागंज, दहली भाद्रपद वीर नि० संवत २४८०, वि. संवत २०११ अगस्त १६५४ ममन्तभद्र-भारती देवागम स त्वमेवाऽमि निदोषो युक्ति-शास्त्राऽविरोधिवाक । अविरोधो यदिष्टं ते प्रसिद्धन न वाध्यते॥६॥ हे वार जिन । ) वह निर्दोष-अज्ञान तथा रागादि दोषोंसे रहित बीनगग और सर्वज्ञ-श्राप ही हैं। क्योंकि श्राप युनि-शाम्बाऽविगंधिवाक् है-श्रापका वचन ( किमी भी तन्त्र-विषयम) युक्रि और शास्त्र विरोधको लिये हए नहीं है। और यह अविगंध इस तरह लक्षिन होता है कि आपका जो इष्ट है-माक्षादिनन्वरूप अभिमननेकान्तशामन है-वह प्रसिद्धस-प्रमाणसं अथवा पर प्रसिद्ध एकान्तस-बाधित नहीं है जब किन्दयगंका (कपिल-मुगनादिकका) जो सर्वथा नित्यदादअनिन्यवादादिरूपाकान्त अभिमत (इप्ट) है वह प्रत्यतप्रमागाम ही नहीं किन्न पर प्रसिद्ध अनेकान्नम भी बाधिन है और इसलिए उन सर्वथा एकान्नमतोंके नायकर्मिी कोई भी युनि-शाम्त्राविरोधियाक न होनस निषि एवं सर्वज नहीं है।' त्वन्मताऽमृत-बाह्यानां सर्वधेशान्त-वदिनाम । प्राप्ताऽभिमान-दग्धानां स्वेष्टं दृष्टेन बाध्यते ।७।। 'जो लोग आपक मनरूपी अमृतसे-अनकान्तात्मक-धम्तु-तत्वक प्रतिपादक श्रागम (शासन) से, जो कि दु.म्बनिवृत्तिलन परमानन्दमय मुनि-मुम्वका निमिन हनिम अमृतरूप है-बाहा है-उसे न मान कर उससे ह प रग्बने है- 'मर्वथा पकांनवादी है-स्वरूप-पररूप नथा विधि-निषेधरूप ममा प्रकाराम एक ही धर्म नियन्वादिको मानने एवं प्रनिपादन करनवाल है--और प्राप्ताऽभिमानसं दग्ध है- यम्तुन याप्त-मर्मत न होते हुए भी हम प्राप्त है। इस अहंकारसे भुने हुए अथवा जले हुए ममान है, उनका जो अपना इष्ट है-पर्वथा एकान्तात्मक अभिमत है-वह प्रत्यक्ष प्रमाणसं बाधित ह-प्रत्यसमें कोई भी वस्तु सर्वथा निन्य या अमिन्यरूप, मर्वथा एक या अनकरूप, सर्वथा भाव या अभावरूप इत्यादि नज़र नहीं श्राना-अधवा यो कहिये कि प्रत्यक्ष-मिन्द्व अनकान्नामक वस्तुनख्वक माथ मातान विरोधको लिय हुए हानक कारण श्रमान्य है। Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४] अनेकान्त [वर्प १३ कुशलाऽकुशलं कर्म परलोकश्च न क्वचित् । एकान्त-ग्रह-रक्तेषु नाथ स्व-पर-वैरिषु ॥८॥ 'जो लोग एकांतके ग्रहण-स्वीकरणमें पासक है, अथवा 'एकांतरूप ग्रहके वशीभूत हुए उसीके रंगमें रंगे हैं-सर्वथा एकान्त पक्षके पक्षपाती एवं भक्त बने हुए हैं और अनेकान्तको नहीं मानते, वस्तु में अनेक गुण-धर्मों (अन्तों) के होते हुए भी उसे एक ही गुण धर्म (अन्त) रूप अंगीकार करते हैं--(और इसीसे) जो स्व-परके बैरी हैं-दूसरोंके मिन्द्वान्नोंका विरोध कर उन्हींके शत्रु नहीं, किन्तु अपने एक सिद्धान्तस अपने दूसरे सिद्धान्तोंका विरोध कर और इस तरह अपने किसी भी सिद्धान्तको प्रतिष्ठित करने में समर्थ न होकर अपने भी शत्रु बने हुए है-उनमेंसे प्रायः किसीके भी यहां अथवा विमोके भी मतमें, हे वीर भगवान् ! न तो कोई शुभ कर्म बनता है, न अशुभ कर्म, न परलोक (अन्य जन्म बनता है और (चकारसे) यह लोक (जन्म) भी नहीं बनता, शुभ-अशुभ कर्मोंका फल भी नहीं बनता और न बन्ध तथा मोक्ष ही बनते हैं-किमी भी तत्त्व अथवा पदार्थको सम्यक् व्यवस्था नहीं बैठता । और इस तरह उनका मन प्रत्यक्षसे ही बाधित नहीं, बल्कि अपने इष्टसे अपने इष्टका भी वाधक है।' भाषकान्ते पदार्थानामभावानामपलवाद । सर्वात्मकमनावन्तमस्वरूपमतावकम् ॥६॥ (हे वीर भगवन् !) यदि पदार्थोके भाव (अस्तित्त्व) का एकान्त माना जाय, यह कहा जाय कि मय पदार्थ सर्वथा सत् रूप ही हैं, असत् (नास्तित्व) रूप कभी कोई पदार्थ नहीं है तो इससे प्रभाव पदार्थोंका-प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव, अन्योन्याभाव और अत्यन्ताभावरूप वस्तु-धर्मोंका-लोप ठहरता है, और इन वस्तु-धर्मोंका लोप करनेस धम्नुतत्व (सर्वथा) अनादि, अनन्त, सर्वात्मक और अस्वरूप हो जाता है, जो कि श्रापको इष्ट नहीं है-प्रत्यक्षादिक विरन्द होनसे श्रापका मत नहीं है। (किस अभावका लोप करनेसे क्या हो जाता अथवा क्या दोष आता है, उसका स्पष्टीकरण निम्न प्रकार है:-) कार्य-द्रव्यमनादि स्यात्प्रागमावस्य निन्हवे । प्रध्वंसस्य च धर्मस्य प्रच्यवेऽनन्ततां व्रजेत् ॥१०॥ 'प्रागभावका यदि लोप किया जाय-कार्यरूप व्यका अपने उत्पादसे पहले उस कार्यरूपमें श्रभाव था इस बातको न माना जाय तो वह कार्यरूप द्रव्य-घटादिक अथवा शब्दतिक-अनादि ठहरता है और अनादि वह है नहीं, एक ममय उत्पस हुआ यह बात प्रत्यक्ष है। यदि प्रध्वंस धर्मका लोप किया जाय -कार्यद्रव्यमें अपने उम कार्यरूपसे विनाशकी शक्रि है और इसलिए वह वादको किसी समय प्रध्वंमाभावरूप भी होता है, इस बातको यदि न माना जाय-तो वह कार्यरूप द्रव्य-घटादिक अथवा शब्दादिक--अनन्तना-अविनाशताको प्राप्त होता है-और अविनाशी वह है नहीं, यह प्रत्यक्ष सिद्ध होता है, प्रत्यक्षमें घटादिक तथा शब्दादिक कार्योका विनाश होते देखा जाता है। अतः प्रागभाव और प्रध्वंसाभावका लोप करके कार्यद्रव्यको उत्पत्ति और विनाश-विहीन सदासे एक ही रूपमें स्थिर (सर्वथा नित्य) मानना प्रत्यक्ष-विरोधके दोषस दूषित है और इसलिए प्रागभाव तथा प्रध्वंसाभावका लोप किसी तरह भी समुचित नहीं कहा जा सकता । इन प्रभावोंको मानना ही होगा। सर्वात्मकं तदेकं स्यादन्याऽपोह-व्यतिक्रमे । अन्यत्र समवाये न व्यपदिश्येत सर्वथा ॥११॥ 'यदि अन्याऽपोहका-अन्योन्याभावरूप पदार्थका-व्यतिक्रम, किया जाय-वस्तुके एक रूपका दूसरे रूपमें अथवा एक वस्तुका दूसरी वस्तुमें प्रभाव है इस बातको न माना जाय-तो वह प्रवादियोंका विवक्षित अपना-अपना इष्ट एक तत्त्व (अनिष्टात्माओंका भी उसमें सद्भाव होनेसे) अभेदरूप सर्वात्मक ठहरता है-और इसलिए उसकी अलगसे कोई व्यवस्था नहीं बन सकती। और यदि अत्यन्ताभावकासमलाप किया जाय-एक द्रव्यका दूसरे द्रव्यमें पर्वथा अभाव है इसको न माना जाय तो एक बन्यका तूसरेमें समवाय-सम्बन्ध (तादात्म्य) स्वीकृत होता है और ऐसा होने पर यह चेतन है, यह अचेतन है इत्यादि रूपसे उस एक तत्त्वका सर्वथा भेदरूपसे कोई व्यपदेश कथन) नहीं बन सकता।' -युगवीर Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मद्रास और मयिलापुरका जैन - पुरातत्त्व ( छोटेलाल जैन ) अभी जब मूडबिद्रीको सिद्धान्तत्रमतिमें सुरक्षित श्रागम ग्रन्थ ( धवलादि ) की एक मात्र प्रतियोंके फोटो प्राप्त करने के उद्देश्यसे दक्षिणकी यात्रा करनी पड़ी थी. वहां का कार्य समाप्त कर मैं सितवासल' सिद्धक्षेत्रके फोटो लेता हुआ मद्रास गया था। वहां 'दक्षिण के जैनशिलालेखों का संग्रह ' नामका एक ग्रन्थ, जो कई वर्षोंसे वीरशासनसंघ के लिए तैयार कराया जा रहा था, उसको शीघ्र पूर्ण करानेके लिये मुझे यहां प्रायः एक माम ठहर जाना पडा। इस दीर्घ समयका उपयोग मैंने मद्रास और उसके निकटवर्ती स्थानोंके जैन पुरातरका अनुसन्धान करनेमें किया। उसीके फलस्वरूप जो किंचित इतिहास मद्रासका में प्राप्त कर सका उसे आज पाठकोंक समक्ष प्रस्तुत करता हूँ । मद्रास नगरका इतिहास मात्र तीन शताब्दी जीवनकालत्रे क्रमिक विकास ( वृद्धि ) का है। वर्तमानका विस्तीर्ण यह नगर, जो सन् १६३६ में स्थापित हुआ था, अंग्रेजोंक श्रागमनकं मैकडों वर्ष पूर्व विभिन्न छितरे हुए ग्रामोंके रूपमें था, 'मद्राम' शब्द की उत्पत्ति इन्हीं ग्रामोंसें एक ग्रामके नामसे हुई है जो 'मामपटम्' कहलाता था, और जो 'चीनपटम्' ( वर्तमानका फोर्ट सेंट जार्ज दुर्ग ) के निकट उत्तरकी र तथा सैनथामी' (मयिलापुर) के उत्तर तीन मील पर था । यह नगर बंगोपसागर के तट पर अवस्थित है और उपकूलक साथ साथ मील लम्बा तथा तीन मील चौड़ा है, जिसका क्षेत्रफल प्रायः ३० वर्ग मील है। इसको संस्थिति समुद्रतल (Ser-level ) के बराबर है और इसका सर्वोच्च प्रदेश समुद्रतटसे कुल २२ फीट ऊँचा है। किन्तु इसके चारों श्रोरके प्रदेशोंका अतीत गौरव और ऐतिहासिक गुरू तथा इसके कुछ भागों (जैसे ट्रिप्लिकेन, मथिलापुर और तिरुभोट्टियूर) और पल्लवरम् जैसे उपनगरोंने भूनकालमें जो महत्व प्राप्त किया था वह वास्तव में श्रन्यन्त चित्ताकर्षक है। मद्रासके निकटके अंचलोंमें नेक प्रागैतिहासिक अवशेष, प्रस्तरयुगकी समाधियाँ, प्रस्तरनिर्मित शवाधार (क) और पत्थरकी चक्रियों और अन्य पुरातत्वकी सामग्री प्राप्त हुई है, जो इतिहास और मानव-विज्ञानके अनुसन्धाताओंके लिए बहुत ही उपयोगी है। स्व प्रापर्ट (स०प्र० २ ) साहबने इनकी व्युत्पत्ति, को (कु) = पर्वत शब्दके वर्धित रूप 'कुरु' से की है। अस्तु, कुरुव या कुम्बका अर्थ होता है पर्वतवासी । मूलतः ये यादववंशी थे जिन्होंने कौरव पाण्डव (महाभारत ) युद्ध में भाग लिया था । तत्पश्चात् इनके वंशधर विभिन्न क्षेत्रों में तितर-बितर हो गए थे। अति प्राचीन कालमे ये जैनधर्मानुयायी थे। किसी समय कर्नाट देशसे इन ऐतिहासिक कालका विचार करने पर हम देखते हैं कि लोगोंने द्राविड देशमें 'टोएडमण्डलम्' तक विस्तार किया इसके निकटके कई अंचल और आस-पासके अनेक ग्राम एक समय संस्कृति और धर्मोके केन्द्र रह चुके हैं । कुरुम्ब-जाति कर्नल मेकेन्जीने हस्तलिखित ग्रन्थों और लेखोंका बहुत बड़ा संग्रह किया था, जो अब मद्रासके राजकीय पुस्तकालय में सुरक्षित है। इनका परिचय और विवरण टेलर साहबने सन् १८६२ में 'कंटेलोगरिशाने श्राफ ओरियन्टल मान्युस्कृप्ट्स इन दि गर्वन्मेंट लायब्ररी' नामक वृहद् ग्रन्थमें प्रकाशित किया था । इनमें दक्षिण भारतके इतिहासकी प्रचुर सामग्री हे । कुरुम्बजानिके सम्बन्धमें भी अनेक विवरण इसमें उपलब्ध हैं, उन्होंके श्राधारसे हम यहां कुछ लिख रहे हैं : कुरुम्ब-जातिके लोग भारतके अति प्राचीन अधिवासी हैं और वे अपनी द्रविड जातीय वल्लवोंसे भी पूर्व यहां ब हुए थे । किन्तु परवर्ती कालमें ये दोनों मातियाँ परम्पर मिश्रित हो गई थीं । भारतीय इतिहासमें कुरुम्बोंने उल्लेखनीय कार्य किये हैं । श्रति प्रसिद्ध 'टोम्डमण्डलम् ' प्रदेशका नाम, जिसकी राजधानी एक समय कांचीपुरम् थी, 'कुरुम्ब-भूमि' या 'कुरुम्बनाडु' था । सर वाल्टर ईलियट (सहायक ग्रन्थ १,५ ) के अभिमनसे तो 'द्राविड देशके बहुभागका नाम कुरुम्ब भूमि था और जिसका विस्तार कोरोमण्डलसे मलाबार उपकूल तक इस सम्पूर्ण प्रायोद्वीपक किनारे तक था । इस प्रदेशके पूर्व भागका नाम 'टोण्डमण्डलम्' तो तब पड़ा था जबकि धोलोंन इसे विजित किया था। इनके अभिमनसे चोलवंशके नपति करिकालने कुरुम्बोंको जीना था। इस प्रान्तका चौवीस जिलों ( कोहम् ) में विभाजनका श्रेय कुरुम्बों को है ।” Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ %3D ३६] अनेकान्त [वर्ष १३ था ये फैले थे) उस समय ये स्वतन्त्र थे। जब इनमें परस्पर मुग्व-शान्तिसे जीवन यापन करते हुए राज्य कर रहे थे तब मतभेद और द्वन्द होने लगे तब इन्होंने यह उचित समझा चोख और पाण्ड्य राजा इनपर बार-बार आक्रमण करने कि किसी प्रधानका निर्वाचन कर लिया जाय, जो उनमें बगे किन्तु वे कुरुम्बोंको परास्त करने में श्रममर्थ रहे; क्योंकि ऐक्य स्थापित कर सके । अतः अपनेमें से एक बुद्धिमान नेता- कुरुम्ब गण वीर थे और रहाणमें प्राण विसर्जन करने की को उन्होंने कुरुम्ब-भूमिका राजा मनोनीत किया, जो कमण्ड पर्वाह नहीं करते थे। अपनी स्वतन्त्रताको वे अपने प्राणोंसे कुरुम्ब-प्रभु या पुलल राजा कहलाने लगा। अधिक मूल्यवान समझते थे। कई बार तो ऐसा हुआ है कि कुरुम्ब-भूमि (जो टोएडमण्डलम्कं नामसे प्रसिद्ध है) आक्रमणकारी राजा पकड़े जाकर पुरलदुर्गक सामने पद्: प्रदेशमें वह क्षेत्र सम्मिलित है, जो नेल्लोरमें प्रवाहित नदी खलामोंसे काराबद्ध कर दिये गये। पेवार और दक्षिण भारकटकी नदी पेचारके मध्यकी भूमिका इन वीर कुरुम्बोंक इतिहासका अभी तक आवश्यक है। उस कुरुम्ब प्रभुने अपने राज्यको चौवीस कोट्टम् या अनुसंधान नहीं हुआ है और इनके सम्बन्धमें अनेक विवरण जिलों में विभाजित किया, जिनमें प्रत्येकके मध्य एक-एक दुर्ग तामिल संगम माहिन्य और विशेषकर शवमतके तामिल था और जो एक-एक राज्यपालक अधिकारमें था । इन ग्रंथों में उपलब्ध होते हैं। यद्यपि ये शैवग्रन्थ अपने मतकी कोहम् ( जिलों ) में 1 नादु या नाल्लुके ('Taluks) अतिशयोकियोंस श्रोत-प्रोत हैं तो भी इनमें ऐसी अनेक बनाए गए। एक-एक जिलेमें एकसं पांच तक नाडु थे। बात मिलती हैं जिनसे इतिहासको किसी अंश तक पूर्ति नाडुओंके भी नागरिक विभाग किये गए, जिनकी कुल संख्या होती हैं। अब हम पाठकोंको उम साहित्यक उपलब्ध एक हजार नौ सौ था। कुरुम्ब प्रभुने 'पुरलूर' (पुलल या विवरणोंस प्राप्त संक्षिप्त तथ्यक अनुपार कुरुम्बोंकी आगेकी पुन्हलरदुर्ग) को अपनी राजधानी बनाई । मदरामपटम् वात बताते हैं :ग्राम (माधुनिक मद्राम) और अनेक अन्य प्राम इसी कोट्टम् । चाल और पात्य राजाओंक बार-बारके आक्रमण अमफन या जिलेमें थे। होने रहनेस द्वेषाग्नि और ईर्षा उत्तरोत्तर बढ़ती गई और उपरोक्त कोहम् या जिलोंमेंस कुछके नाम ये हैं :- शवमनक धर्मान्ध प्राचार्योन जैन कुरुम्बाके विरुद्ध पुरलूर (राजकीय दुर्ग,) कालदर, प्रायूर, पुलियूर, चम्बूर, द्वेषाग्निमें ग्राहृति प्रदान करना प्रारम्भ कर दिया। उनके उतरीकाहु, कलियम् , वेनगुन, हकथूकोर्ट, पडुबर, पट्टि- कथनसे अन्तमें 'प्राडोन्दई' नामक चोलनृपति, जो कुलोपुलम् , सालकुपम् , सालपाकम्, मेयूर, कालूर, अलपार, तुग चोलराजाका औरसपुत्र था, उसने कुरुम्बराजधानी मरकानम् इत्यादि। _ 'पुरलूर' पर एक बहुत बड़ी सेना लेकर आक्रमण किया । उस समय देश-विदेशक वाणज्य पर विशेष ध्यान दोनों ओरसे घमासान युद्ध हुआ और अनेक वीर आहतदिया गया और विशेषकर पोतायन (जहाजों) द्वारा व्यवसाय निहत हुए, किन्तु प्राडोम्बई राजाकी तीन चाथाई सेनाके की अभिवृद्धि बहुत की गई, जिससे कुरुम्ब अति ममृद्धि- खेत पाजानस उसके पाँव उखड़ गए और उसने अवशिष्ट शाली हो गए। सेनाक साथ भागकर निकटकं स्थानमें पाश्रय लिया (यह पुरलूर राजनगरीमें एक दि. जैन मुनिके पधारने और स्थान अब भी 'चोलनपे' के नामसं पुकारा जाता है)। उनके द्वारा धर्मप्रचार करनेकी स्मृतिमें एक जैन वसति शोकाभिभूत होकर उसने दूसरे दिन प्रात:काल तंजोर लौट (मंदिर) उन कुरुम्बप्रभुने वहाँ बनवाई थी । सन् १८६० जानेका विचार किया। किन्तु रात्रिके एक स्वप्नमें शिवजीने के लगभग टेलर साहबन (ग्रन्थ ३) पुरलूरमें जाकर प्रगट होकर उन्हें आश्वासन दिया कि कुरुम्बापर तुम्हारी इस प्राचीन वसति और कई मन्दिरोंक भग्नावशेष देखे थे। पूर्ण विजय होगी। इस स्वप्नस प्रोस्माहित हो वह पुनः उन्होंने लिखा है कि समय-समय पर अब भी जनमूनियाँ रणक्षेत्रपर लौटा और कुरुम्बाको परास्त कर कुरुम्ब नृपतिको धानके खेतोंसे उपलब्ध होती रहती हैं किन्तु जैनोंके विपक्षी तलवारके घाट उतार दिया और पुरलदुर्गके बहुमूल्य धातुके हिन्न या तो उन्हें नष्ट कर देते हैं या उन्हें जमीन में पुनः कपाटोको उखाड़कर तंजोर भेजकर वहांक शैवमन्दिरके गाड़ देते हैं। गर्भगृहमें उन्हें लगवा दिया गया। इसके बाद क्रमसे अन्य जब कुरुम्ब लोग उत्तरोत्तर समृद्धि प्राप्त करते तथा अवशिष्ट तेईस दुर्गोको भी जीतकर और उनके शासकोंका Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ % 3D किरण १] मद्ररास और मविलापुरका जैन पुरातत्त्व वध कर मारी कुरुम्बभूमि पर अधिकार कर उसका नाम वह प्राचीन समझी जाती थी। दूसरा मन्दिर वैष्णव था, जो 'टोन्डमण्डलम् रख दिया। प्राचीन नहीं था और तीसरा शैव मन्दिर था उसे 'पाडोम्बाई' इस कथानकका बहुभाग 'तिरुमलैवयल्पटिकम्' नामक बोलनृप द्वारा निर्मित कहा जाता था। पुज्हलूर मैं भी गत शव ग्रन्थसे लिया गया है। टेलर साहब अभिमतसे मई मासमें गया था। वहाँ अब भी एक प्राचीन विशाल (सं. प्र.३, पृ. ४५२) इस कथाका सारांश यह है कि हिंदुओंने दिगम्बर जैन मन्दिर है जिसमें मूलमायक प्रथम तीर्थकर कोलीरुन नदीके दक्षिणकी प्रारके देशमें तो उपनिबंश अति आदिनाथकी एक बहुत बड़ी पद्मासन प्रस्तर-मूर्ति है जो प्राचीनकालमें स्थापित कर लिया था और उपर्युक युद्धके बड़ी मनोश है। मंदिरके चारों ओरका क्षेत्र बड़ा ही चितासमयसे मद्रासक चतुर्दिकवी दशमें उन्होंने पदार्पण किया। कर्षक और प्राकृतिक सौन्दर्यको प्रदर्शित करता है। दिगम्बर राजनैतिकके साथ-माथ धर्मान्धता भी इस आक्रमणका कारण जैनोंमें यह रिवाज है, खासकर दक्षिणमें, कि प्रत्येक थी। क्योंकि जैनधर्मके प्राधान्यका चूर्ण करना था। शवमतका मन्दिरको किसी जैन दिगम्बर ब्राह्मण पुजारीक प्राधीन कर प्रभुन्च हो जाना ही इस युद्धका मुख्य परिणाम हुआ। दिया जाता है जो वहां दैनिक पूजा, आरती किया करता है यद्यपि लिङ्गायन मतमें अनेक कुरुम्बोंको परिणत कर दिया तथा उसकी देखभाल करता रहता है और मन्दिरका चढाबा गया, तो भी कुरुम्बास जैनधर्म विहीन न हो सका। तथा उसके प्राधीन सम्पत्तिसे प्रायका किंचित् भाग उसे ___चोल राजाओंका अब तक जितना इतिहास प्रगट हो पारिश्रमिकके रूपमें प्राप्त होता रहता है। ऐसे मन्दिरोंक चुका है उसमें 'प्राडोन्डई' नामक किसी भी नृपतिका नाम प्राम-पास जहां श्रावक नहीं रहे वहांक मन्दिरोंके पुजारी नहीं मिलता है। हां, कलोत्ता चोल राजाका इतिहास प्राप्त स्वर सर्वेसर्वा बनकर उसकी सम्पत्तिको हड़प रहे हैं-ऐल है. उनका समय है सन १.७० ११२० । इसी प्रकार कई क्षेत्र मैंने देखे हैं। जिन मन्दिरोंकी बड़ी-बड़ी जमीदारी करिकाल चोलराजाका भी थोडा इतिहास अवश्य प्राप्त है. थी उन्हें ये हड़प चुके हैं और दक्षिणका दिगंबर जैन समाज उनका समय पचम शताब्दीस पूर्वका है किन्तु यह युद्ध ध्यान नहीं दे रहा है. यह दुःस्व की बात है । इमो पुज्हलर उनक समय नहीं हुआ था। मैं तो इस युद्धको १२ वीं (पुरल) दिगम्बर मन्दिरके पुजारीने भी ऐसा ही किया है। शताब्दीक बादका मानता है। इसका अनुसंधान मैं कर उस प्राचीन दिगम्बर मन्दिरकी मुलनायक ऋषभदेवकी रहा हूँ। मूर्निपर चा लगा दिये गए हैं। हमारे श्वेताम्बर भाई पुरल (पुरुलूर) में और इसक निकटवर्ती क्षेत्रमें अब दिगम्बर मन्दिरोंमें पूजा-पाठ करें यह बहुत ही सराहनीय है क्या-क्या बचा हुआ है इसका अनुसंधान करनेके लिये सन् और हम उनका स्वागत करते हैं। किन्तु यह कदापि उचित १८८७ के लगभग आपट साहब भी (स.प्र२) वहाँ स्वय गये नहीं कहा जा सकता है कि वे किसी भी दिगम्बरमूनि पर थे। उन्होंने लिखा है (पृ. २४८)-यह प्राचीन नगर मद्रास प्राभूषण और पशु लगावें। यह बच और आभूषण मगरसं उत्तर-पश्चिम आठ मील पर है और 'रेडहिल्स' नामक लगानेकी पृथा स्वयं श्वेताम्बरोंमें भी प्राचीन नहीं है। यह वृहत् जलाशय (जहां से मद्रासको अब पेयजल दिया जाता श्रृंगारकी प्रथा तो पड़ौसी हिन्दुओंकी नकल है। बौद्धोंपर है) के पूर्वकी ओर अवस्थित है । इस नत्र (Red Hills) इनका प्रभाव नहीं पड़ा, इसीलिये उनकी मूर्तियों में विकार क पल्लो नामक स्थान में पुज्हलूर (पुरल) का प्राचीन दुर्ग था नहीं पाया । समस्त परिग्रहत्यागी, निग्रन्थ. वीतराग, उस स्थानका अब भी लोग दिखात है और वहां उसकी बनवामी महात्माको यदि आभूषणसे शृंगारित कर दिया प्राचीरके कई भग्नावशेष विद्यमान है । मद्रासपर चढाई जाय तो किमीको भी अच्छा नहीं लगेगा और उमक मच्चे करनेके ममय हैदरअली यहीं ठहरा था । पुरलको 'वाण जीवनको भी वह कलंकित करेगा। क्या महात्मा गांधीजी पुलल' भी कहते है और उसके निकट 'माधवरम्' नामका की मूर्तिको आज कोई प्राभूषणोंसे सजानेका माहस करेंगे? एक छोटा गोंव भी है। दक्षिण-पूर्वकी ओर एक मीलपर फिर तीर्थकर तो निग्रंथ थे। अपर जिम्म पुहलूर (पुरल) वर्तमान पुललग्राम है जिसमें प्रापर्ट साहबने तीन मन्दिर जिलेका वर्णन किया गया है उसी पुज्हलर जिलेके अन्तर्गत दग्वे थे, "एक आदि तीर्थकरकी जैनवसति--जो उस समय मद्रास अवस्थित था। यद्यपि जीर्णावस्थामें थी. तो भी वहां पूजा होती थी और कुछ वर्ष हुए श्रीसीताराम प्रायर इन्जीनियरके नं०३० . Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - सुखीसरीनिवास ३८] अनेकान्त [अंक ७ लायड्म स्ट्रीट रायपेट्टा (मद्रास) की जमीनसे ५ जैन मूर्तियाँ सप्तमशताब्दीके प्रसिद्ध शैव सन्यासी 'तिरुज्ञानसम्बन्ध' भवन के लिए भीव खोदते समय प्राप्त हुई थीं। श्री सीताराम का यह भी का क्षेत्र था । तिरुज्ञानसम्बन्धने जैनों पर बहुत ने इनमेंसे ४ मूर्तियों तो किसी गाँवमें भेज दी थी और उत्पीडन किया था। एक मूर्ति अब भी उसी भवनके बाहरी आँगनमें पड़ी हुई है वीं 10 वीं शताब्दियों में मयिलापुरका अपने निकट जिसका फोटो मैने अभी ता. ४ मईको लिया था। यह के नगर सैनथामीसे धनिष्ट सम्बन्ध था। ऐसी जनश्रुति है पद्मासन मूर्ति महावीर स्वामी की है, और प्रायः ३८ इंच कि ११०० वर्ष पूर्व सेन्ट थामसने मयिलापुर और उसके ऊँची है (चित्र)। निकटस्थ स्थानोंमें कृश्चियन धर्मका प्रचार किया था। मणिराजा सर असमलाई चेष्टिवर रोड, मद्रास, निवासी लापुरके सैनथामी गिरजाघरमें उनकी का है। उन्हींके नामसे रायबहादुर एस. टी. श्रीनिवास गोपालाचारियरके पास दश- उस अंचलका नाम मैनथामी पड़ा था। यह दुःखकी बात है बारह जैन मूर्तियाँ हैं । इसी प्रकार न जाने मद्रासके कितने कि गिरजाघरकी नींवमें प्राचीन मन्दिरोंके पत्थरोंका उपयोग ही अन्य स्थानोंमें जैन मूर्तियों पड़ी होंगी, जिनका हमें किया गया है। पता ही नहीं है। और कितनी ही भूगर्भ में होंगी। सन् १४० में प्रसिद्ध भूगोलज्ञ टालेमीने दक्षिणभारतके अब हम पाठकोंको मद्रासके ही एक विशिष्ट अंचलके पूर्व उपकूल पर स्थित जिस महत्वपूर्ण स्थानका सम्बन्ध में कुछ बताना चाहते है-वर्तमान पौर-सीमान्तर्गत मलियारफाके नामसे वर्णन किया है वह और मयिलापुर 'मयिलापुर' नगरके दक्षिण भागमें अवस्थित है। इसकी दोनों अभिल हैं । मलियारफा, टामिल शब्द मयिलापुरका प्राचीनता कमसे कम २० शताब्दी (द्विसहस्र) काल की है। अनुवाद है। और उस समयके उच्च श्रेणीके 'ग्रीक-रोमन' भूगोलज्ञ और १६वीं शताब्दीमें 'दुआरेट वारवोसा, नामक प्रसिद्ध बणिकों ने इस नगरकी महानताका उल्लेख किया है। समुद्र यात्रीने क्रप्टानोंके इस पूज्य स्थानको उजड़ा हुआ 'मयिल' या 'मयिल' का अर्थ है मयूरनगर। तामिल देखा था। सन् १९९२में पुर्तगाल वासियोंने यहां उपनिवेश भाषामें मोरको मयिल कहते हैं। सन् १९५० में ईस्ट इंडिया बनाया और कुछ ही समय बाद सेन्ट थामसकी करके चारों कंपनी (अंग्रेजों) द्वारा फॉर्ट सेंट जार्ज दुर्गक निर्माणसे मद्रास- ओर एक दुर्गका निर्माण किया और उसका नाम रक्वा का उत्पादन सम्भव हुआ, और मयिलापुर उस नूतन नगरके 'मैन थामी दी मेलियापुर' । अन्तर्गत होकर उसमें मिल गया। प्राचीन कालमें मयिलापुर (अपर नाम वामनाथपुर) ई०पू० प्रथमशताब्दीके उत्तरार्ध के पवित्र तिरुकुरल' जैनोंका एक महान केन्द्र था, वहां २२वें तीर्थंकर श्रीनेमिके अमर सप्टा (रचयिता) खोक प्रसिद्ध तामिल सन्त 'तिरु- नाथका प्राचीन मन्दिर था, यह मन्दिर उमी जगह पर था वल्लुवर' मयिलापुरके निवासी थे। ये जैनधर्मानुयायी थे जहां अब सैनथामी गिर्जाघर अवस्थित है । एक विवरणके (देखो. ए. चक्रवर्तीकी तिरुकुरल)। परम्परागत प्रवादसे ज्ञात अनुसार यह मन्दिर बढ़ते हुए समुद्रके उदरमें समा गया था होता है कि प्राचीनकालमें समुद्रतटके किनारे Foreshore और अन्य कई लोगोंके मतानुसार पुर्तगाल-वासियोंने धर्मउस अंश पर जहां भाटाके समय जल नहीं रहता है), द्वेषके कारण इसका विध्वंसकर इसकी सारी सम्पत्तिका अपमग्रिलापुरमें एक बड़ा मन्दिर था, जिसे समुद्र के बढ़ पानेके हरण कर लिया था। कारण त्या करना पड़ा था। इस घटनाका समर्थन जैन और कहते हैं कि वीं शताब्दीके शेष भागमें समुद्र बढकर कृश्चियन दोनों ही जन-श्रुतियोंसे होता है। मन्दिरके निकट आ गया था और भय हुआ कि मन्दिर दूब मयिलापुर कांचीके पल्लवराज्यका पोताश्रय (बन्दर) जायगा, इससे वहां की मूल नायक प्रतिमा ( नेमिनाथकी) था। पल्लव नरेश नन्दिवर्मन तृतीयको मल्लयिवेन्दन अर्थात् वहांसे हटाकर दक्षिण भारकट जिलान्तर्गत चित्तामूरके मस्तयि था मामलपुरम् के नृपति और मयिलकलन् अर्थात् जैन मन्दिरमें विराजमान कर दी गई, जहां पर अब भी मयिलापुरके रक्षक और अभिभावकके बिरुद दिए गए थे। इस प्रतिमाकी पूजा होती है। उपयुक नेमिनाथ मंदिर तथा टोडमण्डलम्के पुलियूरका यह एक भाग था। यह नगर अन्य जैन मन्दिरोंके मयिलापुरमें अस्तित्व साहित्यिक और जैनों और शैवोंके धार्मिक कार्य-कलापका केन्द्र था । और पुरातात्विक प्रमाण भी उपलब्ध हैं। Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनकान्त जैन मन्दिर का शिम्बर- तिम्परुक्त्रिम (जिनकांची ) वीर शासन सघ कलकत्ता से प्राप्त जैन मन्दिरका गोपुर-निरुपमद्रिकुनम (जिनकाची ) मन थामी अनाथालय (मग्रिलापुर ) की भूमि से प्राप्त तीर्थकर मृत्ति Lum Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त महावीर, ३० लायड स्ट्रीट. रायपेटा ( मद्राम ) वीर शासन संघ कलकत्ता मे प्राप्त Lan 12 मथिलापुर में नारियल के कुञ्ज से प्राप्त सुपार्श्वनाथ १० वी शनी १२ वीं शताब्दी का शिला लेख, मैन थामी स्कुल मथिलापुर (मद्रास ) १ ली पंक्ति- "उटपड नेमिनाथ स्वामिक [ कु ] २ री पंनिक्कुडुत्ताम इव पलनदीपरा Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण । मद्रास पार ममिलापुरका जैन पुरातत्त्व सेन्ट थामी स्कूलके मुख्य द्वार पर ले जाने वाली अंतिम कुल पत्रसंख्या २३ है। प्रत्येक पत्र ४३३ इंच है। सोपानक दक्षिणकी भोरस एक खंडित शिला-लेख कुछ और प्रत्येक पत्रमें ७ पंक्रियां हैं। इस संग्रह प्रथके ६वें समय पूर्व प्राप्त हुया था। यह प्रस्तर खण्ड ३६x२ इंच- पत्र पर एक 'नेमि नाथाप्टक' संस्कृत स्तोत्र है उसमें का है। और इस पर तामिलभाषामें निम्न लेख अङ्कित (देखो, परिशिष्ट पृ.४१) इन मयिलापुरके नेमि-नाथका है ..( देखो चित्र ) और उस मन्दिरका सुन्दर वर्णन किया गया है। (प्रथम पक्ति)........"उटपड नेमिनाथ स्वामिक (कु) इस स्तोत्रमें मन्दिरकी स्थिति भीममागरके मध्य लिखी है (द्वितीय पंक्ति ........... कडुत्तोम इवै पलन्दी परा इससे यह विदित होता है कि समुद्रके उस भाग (बंगोप अनुवादक......"(इन सबके) सहित हम नेमिनाथ स्वामी सागर) का नाम भीमसागर था । किन्तु यह अभी निश्चित को प्रदान करते हैं। यह हस्ताक्षर हैं) पलन्दीपराके। रूपसे नहीं कहा जा सकता। क्योंकि इसकी पुष्टिके लिये दिखो ग्रं० ४ और १) अन्य प्रमाणों के अनुसन्धानको आवश्यकता है। या यह भी इससे स्पष्ट विदित होता है कि मयिलापुरमें नेमिनाथ हो सकता है कि वह मन्दिर भीमसागर नामके किसी विशाल स्वामीका मन्दिर था और शिलालेखकी प्राप्ति स्थानसे यह जलाशयके मध्यमें स्थित रहा हो, जैसाकि पावापुर (विहार) निश्चितरूपसे मालूम होता है कि ठीक इसी स्थानके श्राम- में भगवान महावीरका जजमन्दिर (निर्वाणक्षेत्र) है। और पास कहीं गचीन जैन मन्दिर था। इसकी पुष्टि करने वाले कारकलके निकट वरंगलका जैनमन्दिर । इम्पीरियल गजेटियर अनेक साहित्यिक प्रमाण भी उपलब्ध हैं।। के जिल्द xvi में एक नक्शा है जिसमें कपलेश्वर स्वामी १३ वीं शताब्दी एक जैनकवि अविरोथि अहवरकी मन्दिरके पास भीमनपेट है। वहाँ एक बड़ा तलाब भी है। तामिलके १०३ पद्योंकी नेमिनाथकी स्तुति 'थिरुनु अन्दथि' क्या भीममागर यहाँ था? इस प्रश्न पर भी विचार करना है। में उनके मयिलापुर स्थित मन्दिरका प्रथम पयमें ही उल्लेख इस समय पश्चिम 'टिम्बिवनम्' ताल्लुकमें 'चित्तामूर' किया है। इस कविने 'नेमिनाथाप्टक' नामके एक संस्कृत ग्राममें नेमिनाथका एक मन्दिर है। जनश्रुति है कि नेमिस्तोत्रकी भी रचना की है। नाथ सामीकी वह मूर्ति मयिलापुरसे लाकर यहाँ विराजमान 2वीं शताब्दीके एक दूसरे ग्रन्थकार गुणवीर पंडिनने की गई थी, क्योंकि समुद्रक बढ़ानेसे मन्दिर जलमग्न हो 'सिन्नुल' नामक अपने तामिल व्याकरणको मयिलापुरके चला था। नेमिनाथको समर्पित करते हुए उसका नाम 'नेमिनाथम्' रखा दक्षिण भारकाट जिलंका (दिगम्बर ) जैनौका मुख्य था। 'उधीसिथेवर' नामके एक जैन मुनिने अपने ग्रन्थ स्थान 'चित्तामर' (मितामूर) है। वहां एक भव्य जन 'थिरकवंबहम्', में मयिलापुरका उल्लेख किया है। मन्दिर,है, और तामिल जैन प्रान्तके भट्टारकजीका मठ भी इस मयिलापुरक नेमिनाथको 'मयिलयिनाथ' अर्थात् है। मन्दिरके उत्तरभागमें नेमिनाथस्वामीकी वह मनोज्ञमथिलापुरके नाथ भी कहते हैं। तामिलभापाके अतिप्राचीन मूर्ति विराजमान है। यह मूर्ति मयिलापुर से वहां लाई गई और सुप्रसिद्ध व्याकरण 'नन्नुल' पर एक टीका है जो दक्षिण थी । इस घटनाको पुष्टि (4० ३,६) से भी होती है। भारतमें आज भी प्रति सम्मानाई है। उसके रचयिता मयि ग्रन्थ नं. ३, से मालूम होता है कि एक बार लापुरके नेमिनाथ स्वामीके बड़े भक्र थे। उन्होंने भनिवश किसी माधुको स्वप्न हुआ कि वह नगर (मयित्नापुर) शीघ्र अपना नाम ही 'मयिलयिनाथ' रख लिया था। समुद्रसे आच्छा हो जायगा । प्रस्तु, यहाँकी मूर्तियोंको हटाअंग्रेजी जैनगजटके भूतपूर्व सम्पादक मद्रास निवासी सा कर समुद्रसे कुछ दूर मयिलमनगरमें ले आये और वहाँ श्री सी. एस. मल्लिनाथके पास तामिल लिपिमें लिखा अनेक मन्दिरोंका निर्माण हुआ। कुछ कालबाद दूसरी वार हुमा एक प्राचीन ताडपत्रोंका गुटका (संग्रहमन्थ) है जिसकी सावधान वाणी हुई कि तीन दिनके भीतर मयिलमनार ® नोट-प्रेसको असावधानीसे यह शिलालेख उल्टा ___ जल-मग्न हो जायेगा, इसलिए जैनों द्वारा वे मूर्तियों और छप गया है। भी दूर स्थानान्तरित कर दी गई। मालूम होता है कि इसी x संस्कृत स्थविर शब्दके प्राकृतस्प थविर और के होते हैं समय नेमिनाथकी वह मूर्ति चित्तामूरमें पधराई गई थी। जिसका अपभ्रंश थेवर है। स्थविर वृद्ध साधुको कहने हैं। प्रथम प्राचीन नगर मयिलापुरके डूब जाने के बाद यह द्वितीय Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०] अनेकान्त मयिलमनगर उसीके निकट बसाया गया था ऐसा मालूम सैनथामी हाई रोडका था। ३८ वर्ष हुए उस स्थानसे धातुकी होता है और वर्तमान मयिलापुर वही दूसरा नगर है। एक जैन मूर्ति उन्हें प्राप्त हुई थी, किन्तु कुछ ही समय बाद मधु प्रामनी स्ट्रीट और अप्पुमुडाली स्ट्रीट (मविलापुर) वह चोरी चली गई। के सन्धिस्थलमें नारियल वृत्तोंके एक कुंजमें पादडी एस. इन उपयुक्र प्रमाणोंमें यह भली भांनि सिद्ध हो जाता हास्टेनको सन् १९३१ में भूगर्भसे दो दिगम्बर जैन है कि मयिलापुरमें कई जैन मन्दिर थे। मूर्तियाँ प्राप्त हुई थीं। वे दोनों मूर्तियाँ अब श्री एस. धनपालकं गृह नं. १८ चित्राकुलम् इष्टवर स्ट्रीट (मयिला मद्रासके निकट कांजीवरम् एक अति प्राचीन नगर पुर) में हैं (चित्र) इनमें एक मूर्ति ४१ इंच ऊंची है जिसके पैर है। पल्लव-नरेशोंकी यह राजधानी थी। चतुर्थ शताब्दीसे मंडित हैं। वह सातवें तीर्थकर सुपारर्वनाथ की है । दूसरी अष्टम शताब्दी तक दक्षिण भारतके इस प्रदेशमें पल्लवोंका ४३ इंच ऊँची छठे तीर्थकर पद्मप्रभ की है। दोनों ही 10वीं प्रचुर प्राबल्य था । कांजीवरम् 'मन्दिरोंका नगर' के नामसे प्रमिन्द्र था और इसमे जैनोंका सम्बन्ध अति प्राचीन कालसे ग्यारहवीं शताब्दी काल की है। इससे भी यह अनुमान होता है कि दशवीं शताब्दीमें उस स्थान पर कोई जैन मन्दिर रहा है। इस नगरके तीन प्रधान विभाग थे- लघुकांजीवरम् (विष्णुकांची), वृहत्कांजीवरम् (शिवकांची) और था। (स-ग्रन्थ २) पिल्लयि पलयम् ( जिनकांची)जो वस्त्रवपनका विशाल इस प्रकार हमें मयिलापुरमें १५वीं शताब्दीके पूर्व केन्द्र है। कांचीके निकट पश्चिमकी ओर निरूपट्टिकुलम् दो जैनमन्दिरोंके अस्तित्वका पता चलता है। इनके अतिरिक ____गाँव है जो एक समयके प्रसिद्ध जैन केन्द्रका स्मारक है। एक तीमरे मन्दिरका भी पता लगा है वह वर्तमानके यहाँ दो भव्य जैन मन्दिर है-एक महावीर स्वामीका. दूसरा सैन्टथामी भारफनेज (अनाथालय) की भूमि पर था । वहाँ से ऋषभदेवका । प्राचीन समयमें कांजीवरम् जैन और हिन्दुओं कुछ वर्ष हुए एक मस्तक-विहीन निगम्बरजैन मूर्ति प्राप्त की उच्च शिक्षाओंका केन्द्र था। इसके सम्बन्धमें हम पूर्ण हुई थी जो १८x१३॥ इंच है वह मूर्ति सन् १९२१ से विवरण दृसरे लेखमें लिखेंगे। अभी तक विशप (पादड़ी) भवन (मयिलापुर) में है। चित्र । (म-ग्रन्थ ४, ५) इसी प्रकार पल्लव कालमें मामल्लपुरम् (महाबल्लि एक ममय पुर्तगाल-गवर्नर (शामक) का पुराना पुरम् ) संस्कृति और धर्म जागृतिका केन्द्र था। महाबल्लिप्रासाद जहाँ था वहांकी सैनथामी अनाथालय की पुरमका एक प्राचान जनश्रुतिस यह निश्चयतः जात हाता ह अब भोजनशाला है। उसके ठीक पीछे की भूमिसे कि यहांके अधिवासी कुरुम्ब जातिके लोग जैनधर्मानुयायी गत शताब्दीमें एक लेख युक्र श्वेत पाषाणकी जैनमूर्ति प्राप्त य। थे। इस प्राचीन नगरके जैन ऐतिह्य पर भी मैं अनुसन्धान हुई थी। जब यह जायदाद फ्रेनसिस्कन मिशनरीज ऑफ कर रहा हू। मैरीके अधिकारमें श्राई तब उन्होंने बह मूर्ति एक गड्ढे में इसी प्रकार मद्रासके निकटके कई अन्य स्थानोंके दर्शन डाल दी थी। सन् १९२१ में फादर हास्टेनने इस मूर्तिके भी मैं कर पाया हूं जैसे-अकलंक वमति, पारपाक,म् असंअनुसन्धानके लिये उस स्थलको दो दो सप्ताह तक खनन कर गलम् और यहांके जैन मन्दिर और मृतिर्यो फोटो भी मैंने वाया जिसमें एक सौ रुपये व्यय हुए और धनाभावके कारण लिये है। समय समय पर इनके सम्बन्धमें भी सचित्र लेख उस खुदाईको बन्द करना पड़ा। प्रकट किये जायेंगे। सैनथामीचके निकट जहाँहरोंका स्कूल है वह नोट-मेरे लेखोंमें जो चित्र प्रगट किए जाते हैं वे सब मकान पहले श्री धनकोटिराज इंजीनियर विक्टोरिया वर्क्स, म्बाक 'वीरशासनसंघ कलाकत्ताके सौजन्यसे प्राप्त होते हैं। Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण २] परिशिष्ट 3. Bibliograpy : सहायक ग्रन्थ 1. Annual Report of the Archaeological Survey of India for 1900-7 p. 221, n. 4 (Sir Walter Elliot) 2. On the Original Inhabitants of Bharatavarsha or India. by Gustav Oppert, Madras. 1889 pp. 215, 217, 236, 244,245,246 to 248, 257,258,260. Catalogue Raisonne of Oriental Manuscripts in the Govt. Library, By Rev.W.Taylor. Vol. III,Madras 1862. pp. 372 to 374,363,421,430, to 433. 4. Voices from the Dust by Rev. B. A. Figredo, Mylapore, 1953. 5. Antiquities of San Thome and Mylapore by Hosten pp. 170, 175. Imperial Gazetteer of India Vol. XVI, pp. 235, 364, 308, 369. 7. Tirukkhral by A. Chakravarti, Madras, 1953. * List of Antiquarian Remains in Malra, Presidency, Vol. I, PP. 177, 190 9. Cathay And the Way Thither, Being a Collection of Medieval Notices of China. franslated and edited by Henry Yule. New edition, revised by Henri Cordier, Vol.III, London, 1914 pp.251, n.2. 10. A History of the City of Madras hy C. S. Srinivasachari, Madras, 1939. 11. Vestiges of Old Madras 1640–1800 by H. D. Love, London, 1913. 12. Studies in South Indian Jainism. परिशिष्ट श्रीनेमिनाथाष्टकम् श्रीमदाकृतिभासुरं जिनपुंगवं त्रिदिवागतम् , वामनाधिपुरे गत मयिलापुरे पुनरागतम् । हेम-निर्मित-मन्दिरे गगनस्थितं हितकारणम् , नेमिनाथमहं चिरं प्रणमामि नीलमहत्विषम् ॥१॥ कामदेव-सुपूजितं करुणालयं कमलासनम् , भूमिनाथ-ममर्चितं महनीयपादसोरुहम् । भीमसागर-पद्ममध्य-समागतं मयिलापुरे, नेमिनाथमहं चिरं प्रणमामि नीलमहविषम् ॥२॥ पापनाशकरं परं परमेष्ठिनं परमेश्वरम् , कोप-मोह-विवर्जितं गरुरुग्मणि विबुधाचितम् ।। दीप-धूप-सुगन्धिपुष्प-जलापतैमेयिलापुरे, नेमिनाथमहं चिरं प्रणमामि नीलमहत्विषम् ॥३॥ नागराज-नरामराधिप-संगताशिवतार्चनैः, सागरे परिपूजिते सकलार्चनैः शममीश्वरम् । रागरोषमशोकिनं वरशासनं मयिलापुरे, नेमिनाथमहं चिर प्रणमामि नीलमहत्विषम् ॥४॥ वोतरागभयादिकं विबुधार्यतत्वनिरीक्षणम् , जातबोध-सुखादिकं जगदेकनाथमलंकृतम् ।। भूतभव्यजनाम्बुजदयभास्करं मयिलापुरे, नेमिनाथमहं चिरं प्रणमामि नीलमहविषम् ॥५॥ वीर-बीरजनं विभु विमलेषणं कमलास्पदम् , धीर-धीरमुनिस्तुतं त्रिनगदद्भुतं पुरुषोत्तमम् । सार-सारपदस्थितं त्रिजगद्भुतं मयिलापुरे, नेमिनाथमहं चिरं प्रणमामि नीलमहविषम् ॥६॥ Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ४२] अनेकान्त [वर्ष १३. चामरासन-भानुमण्डल-पिण्डिवृष-सरस्वती, भीमदुन्दुभि-पुष्पवृष्टि-सुमण्डितातपवारणैः । धाम येन कृतालय करिशोभितं मयिलापुरे, नेमिनाथमहं चिरं प्रणमामि नील महत्विषम् ॥७॥ नेमिनाथमनामयं कमनीयमच्युतमक्षयम् , घातिकम-चतुष्टय-जयकारणं शिवदायिनम् ।। वादिराज-विराजितं वरशासनं मयिलापुरे, नेमिनाथमहं चिरं प्रणमामि नीलमहत्विषम् ।।८।। सानन्द-वन्दित-पुरन्दरवृन्दमौलि-मन्दारफुन्ल-नवैशेखरधूमरांघ्रिम् । आनन्दकन्दमतिसुन्दरमिन्दुकान्तम् , श्रीनेमिनाथ-जिननाथमहं नमामि ॥६॥ हिंसक और अहिंसक (पं० मुबालाल जैन 'मणि') (पट्पद्) विषय-कषायासक्त जीव ही परवध ठाने । करे वैर विद्रोह जगत को बैरी जाने ॥ रहै प्रमादो, दीन, व्यसन में लीन, भयातुर । करे पाप समरम्म समारंभ प्रारंभ कर कर ॥ हो मूर्खासे मूर्षित सदा जो नहिं निज-हित शुध करे। सो पर जीवन पर दया कर मर्माण कैसे यह दुःख हरे! विषय कषाय-विरक स्वयं पर दुस्ख परिहारी। निष्प्रमाद, निरवच, अहिंसा • पंथ प्रचारी॥ सब प्रवृत्ति में समिति रूप ही दृष्टी राखे । गुप्ति रूप वा रहे सदा समतामृत चाखे । निज प्रात्म शौर्यसे धर्म वा संघ शौर्य दिशि दिश भरे । मणि वही अहिंसा धर्म-ध्वज विश्व शिखर पर फरहरे ।। इन्द्रिय-सुखमें मग्न जीव निज सुख नहि जाने । निज जाने दिन प्रात्म अहिंसा कैसे ठाने । भास्म या विन अन्य जीव की करुणा कैसी। करुणा दिखती बाह्य जानिये बगुला जैसी ॥ हा विषय-विरत निज जानकर जिसने अपना हित किया। उस दयामूर्ति परश्रेष्टने पर हित भी कर यश लिया । सत्यवचन- माहात्म्य ( २) जल, शशि, मुक्काहार, लेप चन्दन मलयागिर । सत्य वचन के अतिशयकर नहिं अग्नि जलावे । चन्द्रकांति मणि भी त्यों शीतल नहीं तापहर ॥ उदधि न सके डुबाय नदी पड़ती न बहाये ॥ ज्यों प्रिय मोठे सत्य वचन जगजन-हितकारी। वन्दीग्रहमें पड़े ब्यक्ति को सत्य छुड़ावे । वदन प्रीति, प्रतीति, शांतिकर, पातपहारी॥ चिर विछ प्रियवन्दुजनों को सत्य मिलावे ॥ 'मणि' सत्यवचन समधर्म नहिं संयम, जप तप बत नहीं। 'मणि' सत्यवचनसे वृद्धि हो देशविदेश प्रसिद्धि हो। है सस्थाकर्षक शक्ति जहूँ सब गुण खिच भावे वहीं॥ हो विश्वहितकर दिव्यध्वनि अन्तिम शिवसुख सिद्ध हो। (पं. मुशाबा जैन 'मणि') Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निसीहिया या नशियां (पं० होरालालजी सिद्धान्तशास्त्री) जैन समाजको छोडकर अन्य किमी समाजमें 'निसीहिया' क्या वस्तु है और इसका प्रचार कबसे और क्यों प्रारम्भ या 'नशियां' नाम सुननेमें नहीं पाया और न जैन साहित्य- हा. का छोड़कर अन्य भारतीय साहित्यम हा यह नाम दम्बनका संन्यास. सल्लेखना या ममाधिमरण-पूर्वक मरने वाले मिलता है । इमसे विदित होता है कि यह जैन समाजकी जिका साधुके शरीरका अन्तिम संस्कार जिम स्थान पर किया जाता ही एक म्वास चीज़ है। था उस स्थानको निसीहिया कहा जाता था। जैसा कि आगे जैन शास्त्रोंके पालोडनमें ज्ञात होता है कि 'नशियां' मप्रमाण बतलाया जायगा-दिगम्बर-परम्पराके अति प्राचीन का मूलमें प्राकृत रूप 'णिसीहिया' या 'णिसीधिया' रहा है। ग्रन्थ भगवतीयाराधनामें निमोहियाका यही अर्थ किया गया इसका संस्कृत रूप कुछ प्राचार्योने निषीधिका और कुछने है। पीछे-पीछे यह 'निमीहिया' शब्द अनेक अर्थोमें प्रयुक्त निपिन्तिका दिया है। कहा-कहा पर निषाधिका मार निषा होने लगा. इसे भी आगे प्रगट किया जायगा। पभी देखने में श्राना है, पर वह बहुत प्राचीन नहीं मालूम देता। संस्कृत और कनडीके अनेक शिलालेम्बोंमें निमिधि, जैन शास्त्रों और शिलालेखोंकी छानबीन करने पर हमें निमिति, निपिधि, निपिदि, निम्मिन्ही. निमिधिग और निष्टिग इसका सबसे पुराना उल्लेग्व ग्वारवेलके शिलालेख मिलता रूप भी देखनेको मिलते हैं। प्राकृत 'णिमीहिया' का ही है, जो कि उदयगिरि पर अवस्थित है और जिसे कलिगअपभ्रंश होकर 'निमीहिया' बना और उसका परिवर्तित रूप देशाधिपति महाराज खारवेलने पाजसे लगभग २२०० वर्ष निम्पियास नमिया होकर श्राज नशियां व्यवहारमें बारहा है। पहले उन्कीणं कराया था। इस शिलालेखकी १४वीं पंत्रिमें मालवा, राजस्थान, उत्तर तथा दक्षिण भारतक अनेक """कुमारीपवते अरहते पम्बीणमंसतेहि काय-निमी. म्थानों पर निसिही या नमियां अाज भी पाई जाती हैं। यह दियाय.." और १५वीं पंक्रिमें..."अरहनिसोदियानगरस बाहिर किमी एक भागमें होती है। वहां किसी माधु, ममीपे पाभारे......' पाठ पाया है । यद्यपि खारवेलक यति या भट्टारक श्रादिका समाधिस्थान होता है, जहां पर शिलालेखका यह अंश अभी तक पूरी तौरसे पढ़ा नहीं जा कहीं चौकोर चबूतरा बना होता है, कहीं उम चबूतरे के चारों मका हे और अनेक स्थल अभी भी सन्दिग्ध हैं, तथापि कोनों पर चार खम्भे बड़े कर ऊपरको गुम्बजदार छसरी बनी उन दोनों पंक्रियाम 'निमीनिया' पाठ स्पष्ट रूपसे पढा जाता पाई जाती है और कहीं-कहीं छह-पाल या आठपालदार चबू- है जो कि निमीहियाका ही रूपान्तर है। नरे पर छह या पाठ म्वम्भे वडे कर उस पर गोल गुम्बज निसीहिया' शब्दके अनेक उल्लेख विभिन्न अर्थोमें दि. बनी हुई देखी जाती है। इस समाधि स्थान पर कहीं चरण- श्व० श्रागामें पाये जाते हैं । श्वे० प्राचारांग सूत्र (.., चिन्ह, कहीं चरण-पादुका और कहीं मांथिया बना हुश्रा २) निमीहिया' की संस्कृन छाया 'निशीथिका' कर उसका दृष्टिगोचर होता है। कहीं कहीं इन उपयुक बातोंमेंसे किमी अर्थ स्वाध्यायभूमि और भगवतीसूत्र (१४-१०) में अल्पएकके साथ पीछेक लोगोंने जिन-मन्दिर भी बनवा दिए हैं कालकं लिए गृहीत स्थान किया गया है । समवायांगसूत्रमें और अपने सभीतके लिए बगीचा, कुआ, बावडी एवं धर्म- 'निमीहिया' की संस्कृत छाया 'नषेधिकी' कर उसका अर्थ शाला आदि भी बना लिए हैं। दक्षिण प्रान्तकी अनेक म्वा यायभूमि, प्रनिक्रमणसूत्रमें पाप क्रियाका त्याग, स्थानांगनिसिदियों पर शिलालेख भी पाये जाने हैं। जिनमें ममाधि- सूत्रमें व्यापागन्तरक निषेधरूप समाचारी प्राचार, वमुदेवमरण करने वाले महा पुरुषोंके जीवनका बहुत कुछ परिचय हिण्डिमें मुकि, मोक्ष, स्मशानभूमि, तीर्थकर या सामान्य लिखा मिलता है। उत्तर प्रान्तकं देवगढ़ क्षेत्र पर भी ऐसी केवलीका निर्वाण-म्थान, स्तूप और समाधि अर्थ किया गया शिलालेख-युक्त निपीधिकाएँ आज भी विद्यमान हैं। इतना है। श्रावश्यकचूर्णिमें शरीर, वमतिका-माधुओंके रहनका होने पर भी आश्चर्यकी बात है कि हम लोग अभी तक स्थान और स्थरिडल अर्थात निर्जीव भूमि अर्थ किया इतना भी नहीं जान सके हैं कि यह निसीहिया या नशियाँ गया है। Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४] अनेकान्त .. .._ [वर्षे १३ गौतम गणधर-अथित माने जाने वाले दिगम्बर प्रति. स्थित साधु तथा पंडितमरण जहाँ पर हुआ है, ऐसे क्षेत्र: क्रमणसूत्रमें निमोहियाओंकी बन्दना करते हुए- ये सब निषीधिकापदक वाच्य हैं। 'जाओ अण्णाम्रो कामोवि णिमीहियामो जीवलोयम्मि' निषाधिकापदके इतने अर्थ करनेके अनन्तर प्राचार्य यह पाठ आया है-अर्थात् इस जीव-लोकमें जितनी भी प्रभाचन्द्र लिम्वते हैं :निषीधिकाएं हैं, उन्हें नमस्कार हो। अन्ये तु 'णिसीधियाए इत्यस्यार्थमित्त्थं व्याख्यानयन्तिउक्त प्रतिक्रमण सूत्रके संस्कृत टीकाकार भा० प्रभाचन्द्रने णित्ति णियमेहिं जत्तो सित्तिय सिद्धि तहा अहिग्गामी। जो कि प्रमेयकमलमानण्ड, न्यायकुमुदचन्द्र आदि अनेक धित्तिय धिदिबद्धको एत्तिय जि णसासणे मत्तो।। दार्शनिक ग्रन्थोंके रचयिता और समाधिशतक, रत्नकरण्डक आदि अनेक ग्रन्थोंक टीकाकार हैं-निषीधिकाक अनेक अर्थात् कुछ लोग 'निसीधिया' पदकी निरुक्ति करक उसका इस प्रकार अर्थ करते हैं:-नि-जो वतादिक नियमसे अर्थोका उल्लेख करते हुए अपने कथनकी पुष्टि में कुछ प्राचीन युक्त हो, मि-जो सिद्धिको प्राप्त हो या सिन्डूि पानेको गाथाएँ उद्धृत की हैं जो इस प्रकार हैं: अभिमुख हो, धि-जो एति अर्थात् धैर्यसे बद्ध कम हो, जिण सिद्धवि-णिलया किदगाकिदगा य रिद्धिजुदसाहू। और या अर्थात् जिनशासनको धारण करने वाला हो, रण खजदा मुणिपबरा पाणुप्पत्तीय पाणिजुदखत्त ।। उसका भकहा। इन गुणोंस या पुरुष 'निमीधिया' पदका सिद्धाय सिद्धभूमी सिद्धाण समासिया यही देसा। वाच्य है। सम्मत्तादिच उक्कं उपरणं जेसु तेहिं सिदखे ॥२॥ साधुओंके देवमिक-रात्रिकप्रतिक्रमणमें 'निषिद्धिकादंडक' चत्तं तेहि य देहं तावदं जेसु ता णि सीहीओ। नामसं एक पाठ है। उसमें णिमोहिया या निपिन्डिका का जेस विसद्धा जोगा जोगधरा जेसु संठिया सम्मं ॥३॥ वंदनाकी गई है । 'निसीहिया' किमका नाम है और उसका जोगपरिमुक्कदेहा पंडिनमरावदा णिसीहीओ। मूलमें क्या रूप रहा है इस पर उपसे बहुत कुछ प्रकाश पडता तिविहे पंडितमरणे चिट्ठति महामुणी समाहीए ॥४॥ है। पाठकोंकी जानकारीक लिए उसका कुछ आवश्यक अंश एदात्री अण्णाओ णिसाहियाओं सया वंद। यहाँ दिया जाता है: अर्थान-कृत्रिम और प्रकृत्रिम जिनविम्ब. सिद्धप्रतिबिम्ब, णमो जिणाणं ३ णमो णिमीहियाए ३। णमोजिनालय, मिखालय, ऋद्धिसम्पन्नमाधु, तत्सवित क्षेत्र त्थु दे अरहंत, सिद्ध बुद्ध, णीरय, णिम्मल,.. ... अवधि, मनः पर्यय और कवलज्ञानक धारक मुनिप्रबर, इन गुणरयण, सीलसायर, अणंत, अप्पमेय,महदिमहावीरज्ञानीक उत्पन्न होनेक प्रदेश, उक्र ज्ञानियांस प्राश्रित क्षत्र, वड्ढमाण, बुद्धिरिसिणो चदि णमोत्थु दे णमात्थु दे सिद्ध, भगवान निर्वाणक्षत्र, सिद्धास समाश्रित सिद्धालय, गगमोन्थु दे। (क्रियाकलाप पृष्ठ ५५) सम्यक्वादि चार आराधनाओंसे युक्र तपस्वी, उक आराधकांस xxx हिणिसीहियाओं अट्ठावयपव्वए सम्मेदे प्राधित क्षेत्र, पाराधक या क्षपकक द्वारा छोड़े गये शरीरक उज्जंत चंपाए पावाए मज्झिमाए हथिवालियसहाए आश्रयवर्ती प्रदश, यागस्थित तपस्वी, तदाधित क्षेत्र, योगि- जाओ अण्णाओ काओ विणिसीहियाओजीवलोम्मि, यों द्वारा उन्मुक्र शरीरक आश्रित प्रदेश और भक प्रत्याख्यान इमिपब्भारतलग्गयाणं सिद्धाणं बुद्धाणं कम्मचकमुकाण इंगिनी और प्रायोपगमन इन तीन प्रकारके पंडितमरणमें णीरयाणं णिम्मलाणं गुरु-आइरिय-उक्जमायारणं ४भानाम भोजन का है उस क्रम-क्रमसं त्याग करक पर्वात-थर-कुलयराणं चाउबएणो य समयमंघो य और अन्तम उपवास करके जो शरीरका त्याग किया जाता मरण करने वाला साधु दसरेके द्वारा की जाने वाली वयानह उसे भा प्रन्यारव्यान मरण कहते हैं । भक्रप्रत्याख्यान स्यको स्वीकार नहीं करता, केवल अपनी सेवा-रहल अपने करने वाला साधु अपने शरीरकी सेवा-टहल या वैयावृत्त्य हाथसे करता है। परन्तु प्रायोपगमन मरण करने वाला इसे स्वयं भी अपने हाथसे करता है और यदि दूसरा वैयावृत्त्य ग्रहण करनेके अनन्तर न स्वयं अपनी वैयावृत्त्य करता है कर तो उसे भी स्वीकार कर लेता है। इंगिनीमरणमें शेष और न दूसरेसे कराता है, किन्तु प्रतिमाके समान मरण विधि-विधान तो भाप्रत्याख्यानके समान हो है पर इंगिनो- होने तक संस्तर पर तदवस्थ रहता है। Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण २] निसीहिया या नशियां [४५ - भरहेरावएसु दसम पंचसु महाविदेहेसु ।' (क्रियाकलाप है, उसे निसीहिया या निषिद्धिका कहा गया है। यहाँ पर पृष्ठ ५६)। टीकाकारने 'नैवेधिक्यां शवप्रतिष्ठापनभूम्याम्' ऐसा स्पष्ट अर्थात् जिनोंको नमस्कार हो, नमस्कार हो, नमस्कार अर्थ किया है। जिसकी पुष्टि भागेकी गाथा नं० ५५४२ से हो । निषीधिकाको नमस्कार हो. नमस्कार हो, नमस्कार हो। भी होती है। परहंत, सिद्ध, बुद्ध आदि अनेक विशेषण-विशिष्ट महति- भगवती श्राराधनामें जो कि दिगम्बर-सम्प्रदायका प्रति महाबीर-वर्धमान बुद्धि ऋषिको नमस्कार हो, नमस्कार हो, प्राचीन प्रन्थ है वसतिकासे निषीधिकाको सर्वथा भिक अर्थमें नमस्कार हो। लिया है। साधारणतः जिस स्थान पर साधुजन - वर्षाकालमें अप्टापद, मम्मेदाचल, उर्जयन्त, चंपापुरी, पावापुरी, रहते हैं, अथवा विहार करते हुए जहां रात्रिको बस जाते हैं, मध्यमापुरी और हस्तिपालितसभामें तथा जीवलोकमें जितनी उसे वमतिका कहा है। वसतिका का विस्तृत विवेचन करते भी निषाधिकाएं है, तथा इषप्राग्भारनामक अष्टम पृथ्वी- हुए लिखा है:नलक अग्र भागपर स्थित मिद्ध, बुद्ध, कर्मचक्रसे विमुक्त, "जिस स्थानपर स्वाध्याय और ध्यानमें कोई बाधा न हो, नाराग, निमल, मिद्धोकी तथा गुरु, प्राचार्य, उपाध्याय, स्त्री, नपुंसक, नाई, धोबी, चाण्डाल आदि नीच जनोंका प्रवर्तक, स्थविर, कुलकर (गणधर) और चार प्रकारके श्रमण- सम्पर्क न हो, शीत और उष्णकी बाधा न हो, एक दम बंद संघकी जो पांच महाविदहोंमें और दश भरत और दश या खुला स्थान न हो, अंधेरा न हो, भूमि विषम-नोचीऐरावत क्षेत्रांम जो भी निषिद्विकाएँ है, उन्हें नमस्कार हो३। ऊँची न हो, विकलत्रय जीवोंकी बहुलता न हो, पंचेन्द्रिय इस उद्धरणसं एक बात बहुत अच्छी तरह स्पष्ट हो पशु-पक्षियों और हिंसक जीवोंका संचार न हो, तथा जो जाती है कि निर्धाधिका उस स्थानका नाम जोमदा एकान्त, शान्त, निरुपद्रव और निाक्षेप स्थान हो, ऐसे मुनि कोका क्षय करके निर्वाण प्राप्त करते हैं और जहां उद्यान-गृह, शून्य-गृह, गिरि-कन्दरा उद्यान-गृह, शून्य-गृह, गा और भूमि-गुहा पर प्राचार्य उपाध्याय प्रवर्तक, स्थविर कुलकर और ऋषि, श्राद आदि स्थानमें साधुओंको निवास करना चाहिए । ये वसतियति, मुनि, अनगाररूप चार प्रकारक श्रमण समाधिमरण कार करते हैं, वे सब निपाधिकाएँ कहलाती है। (दग्यो-भग० अाराधना गा० २२८-२३०,६३३-६४१) बृहन्कल्पमूनियुक्रिमें निपाधिकाको उपाश्रय या ___ परन्तु वसतिकासे निपीधिका बिलकुल भिन्न होती है. वतिकका पर्यायवाची माना है। यथा इसका वर्णन भगवती आराधनामें बहुत ही स्पष्ट शब्दोंमें अवमग पडिमगसेजायालय, वमधी गिसीहियाठाणे। किया गया है और बतलाया गया है कि जिस स्थान पर ममाधिमरगा करने वाले क्षपकके शरीरका विसर्जन या अंतिम एगट्ट बंजगगाई उवमग वगडा य निक्खवो ॥२६॥ संस्कार किया जाता है, उसे निषाधिका कहते हैं। अर्थात-उपाश्रय, प्रतिश्रय, शय्या, श्रालय, वमति, यथा--निपीधिका-आराधकगरीर - स्थापनाम्थानम् । निषीधिका और स्थान ये सब एकार्थवाचक नाम हैं। (गा० १९६७ की मृलाराधना टीका) इम गाथाक टीकाकारने निषाधिका का अर्थ इस प्रकार साधुओंको श्रादेश दिया गया है कि वर्षाकाल प्रारंभहानकिया है : के पूर्व चतुर्माम-स्थापनके साथ ही निषीधिका-योग्य भूमिका ___"निषेधः गमनादिव्यापारपरिहारः, स प्रयोजन अन्यषण और प्रतिलम्बन करलेवे । यदि कदाचिन वपाकालमें मस्याः, तमहतीति वा नैषेधिकी।" किसी माधुका मरण हो जाय और निषीधिका योग्य भूमि अर्थात्-गमनागमनादि कायिक व्यापारोंका परिहार कर पहलेसे देव न रग्बी हो, तो वर्षाकालमें उसे हुदनेके कारण साधुजन जहां निवास करें, उसे निषीधिका कहते हैं। हरितकाय और त्रम जीवोंको विराधना सम्भव है, क्योंकि इससे आगे कल्पसूत्रनियुक्रिकी गाथा नं०५५४६ में उनसे उस समय सारी भूमि अाच्छादित हो जाती है। अतः भी 'निमीहिया' का वर्णन पाया है पर यहाँ पर उसका वर्षावास के साथ ही निषीधिकाका अन्वेषण और प्रतिलेखन अर्थ उपाश्रय न करके समाधिमरण करने वाले हाक साधुके कर लेना चाहिए। शरीरको जहां छोड़ा जाता है या दाह-संस्कार किया जाता भगवती अाराधनाकी वे सब गाथाएँ इस प्रकार हैं: Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६.] विजया निरूप्यते एवं कालगदस्स दु सरीरमंतो बहिज्ज वाहिं था। विजावरुचकरा à सयं विचिंति जलाए ॥१६६६॥ समणाएं ठिदिकापो वासावासे तहेब बंधे। पडिलिहिदव्वा णियमा णिसीडिया सव्त्रसाधूहिं १६५७॥ एता सालोगा णादिविकिद्वा ण चावि आसण्णा । fafter विद्वत्ता रिसीहिया दूरमागाढा ॥१६६८॥ अभिसुधा अमुसिरामघसा उज्जोबा बहुसमा वयसिद्धिा रिजंतुगा अहरिदा आविला व तहा अणावाधा ॥१६६६ ।। जा अवर-दक्खिणाए व दक्खिराए व अध व अवराए। बसबीदो वणिजदि सिसीधिया सा पसथत्ति ॥ १६७०॥ अब ममधिसे भरे हुए साधु शरीरको कहां परित्याग करे, इसका पग करते है-इस प्रकार समाधिके साथ काल गत हुए माधुके शरीरको वैयावृत्य करने वाले माधु नगरसे बाहिर स्वयं ही यतनांक माथ प्रतिष्ठापन करें। माधुयोंको चाहिए कि वर्षावास तथा वर्षाऋतुकं प्रारम्भमें निपीधिकाका नियमसे प्रतिलेखन कर यहाँ भ्रमणका स्थितिरूप है। यह निपाधिका कैसी भूमि हो, इसका वर्णन करते हुए कहा गया है- वह एकान्त स्थानमें हो, प्रकाश युक्त हो, यसका न बहुत दूर हो, न बहुत पास हो, विस्तीर्ण हो विध्वस्त या खण्डित न हो, दूर तक जिनकी भूमि दृढ़ या ठोस हो, दीमक-चींटी रहित हो, छिद्र न हो, घिसी हुई या नीची-ऊँची न हो, सम-स्थल हो, उद्योतवती हो, स्निग्ध या चिकनी फिसलने वाली भूमि न हो निर्जन्तुक हो, हरितकायसे रहित हो, बिलोंसे रहित हो, गीली या दल-दल क न हो, और मनुष्य विचारिकी बाधा रहित हो। वह निषधिका कम्पनिकाले नैऋत्य, दक्षिण या पश्चिम दिशामें हो तो प्रशस्त मानी गई है। इससे आगे भगवती आराधनाकारने विभिन्न दिशाओं में होने वाली निषीधिकाओंके शुभाशुभ फलका वर्णन इम प्रकार किया है: यदि वसतिकासे निपीधिका नेय दिशामें हो, तो माधुमंघमें शान्ति और समाधि रहती है, दक्षिण दिशामें हो तो संघको आहार सुलभतासे मिलता है, पश्चिम दिशामें हो, तो संघका विहार सुखसे होता है और उसे शान-सयंमके उपकरणोंका लाभ होता है । यदि निधिका आग्नेय कोणमें हो, तो संघ स्पर्धा अर्थात् तू तू मैं-मैं होती है, वायव्य दिशामें हो तो अनेकान्त [ वर्ष १३ संघमें कलह उत्पन्न होता है, उत्तर दिशामें हो तो ज्याधि उत्पन्न होती है, पूर्व दिशामें हो यो परस्परमें खींचातानी होती है और संघ में भेद पड़ जाता है। ईशान दिशामें हो तो किसी अन्य साधुका मरण होता है। (भग० श्रारा० गा० १२०१ - १२०३ ) इस विवेचनसेवा श्रीर निपीधिकाका भेद विलकुल स्पष्ट हो जाता है। ऊपर उद्भुत गाथा नं० १९७० में यह माफ शब्दोंमें कहा गया है कि उसतिका से दक्षिण, नैऋत्य और पश्चिम दिशामें निधिका प्रशस्त मानी गई है। यदि निपीधिका वमतिकाका ही पर्यायवाची नाम होता, सो ऐसा वर्णन क्यों किया जाता। प्राकृत 'मिडिया' का अपभ्रंश ही 'निमीडिया' हुआ और वह कालान्तरमा होकर आजकल नशियोंके रूपमें व्यवहृत होने लगा | करने इसके अतिरिक्त आज कल लोग जिन मन्दिरमें प्रवेश हुए 'यों जय जय जय, frent front नस्पती, नमोऽस्तु नमोऽस्तु नमोस्तु' बोलते हैं। यहां बोले जाने वाले 'निस्प' पदसे क्या अभिप्र ेत था और आज हम लोगोंने उसे किस अर्थ में ले रखा है, यह भी एक विचारणीय बात है कुछ लोग इसका यह अर्थ करते हैं कि 'यदि कोई देवा। दिक भगवान के दर्शन-पूजनादि कर रहा हो, तो वह दूर था एक ओर हो जाय ।" पर दर्शनके लिए मन्दिर में प्रवेश करते हुए तीन वार निस्पही बोलकर 'नमोस्तु' बोलनेका यह अभिप्राय नहीं रहा है, किन्तु जैसा कि 'निपिद्धिका दंडकका उद्धरण देने हुए ऊपर बतलाया जा चुका है, वह अर्थ यहां श्रभित है । ऊपर अनेक अर्थो में यह बताया जा चुका है किनिसीहि या यानिधिका का अर्थ जिन जिन-बिम्ब, सिद्ध और सिद्ध-बिम्ब भी होता है। तदनुसार दर्शन करने वाला तीन बार 'निस्पही' - जो कि 'शिसिहीए का अपभ्रंश रूप हे को बोलकर उसे तीन वार नमस्कार करता है । यथार्थमें हमें मन्दिर में प्रवेश करते समय 'मोहिसोहिया या इसका संस्कृत रूप 'निपीधिकायै नमोऽस्तु अथवा 'वि.सीहियाए मधु पाठ बोलना चाहिए। वहां यह शंका की जा सकती है कि फिर यह अर्थ कैसे प्रचलित हुआ कि यदि कोई दवादिक दर्शन-पूजन कर रहा हो तो वह दूर हो जाय! मेरी समझ में इसका कारण 'निःसही या निस्सही जैसे अशुद्धपदके मूल रूपको ठीक तोरसे न समझ सकने के कारण 'निर उपसर्ग पूर्वक सृ' गमनार्थक - Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण २] निसीहिया या नशियां धातुका प्राज्ञाके मध्यम पुरुष एक बचनका बिगड़ा रूप मान क्षित स्थानमें प्रवेश करके सम्यग्दर्शनादिमें स्थिर होमेका कर लोगोंने वैसी कल्पना कर डाली है । अथवा दूसरा नाम निमर्माहिया' और पाप क्रियाओंसे मनके निवर्तनका कारण यह भी हो सकता है कि माधुको किसी नवीन नाम 'पासिया' है। प्राचारसारके कर्ता प्रा. वीरनन्दिने स्थानमें प्रवेश करने या वहांसे जानेके ममय निमीहिया और उक्त दोनों समाचारोंका इस प्रकार वर्णन किया है :प्रासिया करनेका विधान है। उपकी नकल करके लोगोंने जीवानां व्यन्तरादीनां बाधाय यन्त्रिपंधनम् । मन्दिर प्रवेशक समय बोले जाने वाले 'निसीहिया' पदका अस्माभिः स्थीयते युष्मद्दिष्टेयवेति निषिद्धिकां ।।११।। भी वही अर्थ लगा लिया है। प्रवासावसरे कन्दरावासा देनिषिद्धका । साधुनोंक १० प्रकारके - समाचारोंमें निसीहिया और तम्मानिर्गने कार्या स्यादाशीवैरहारिणी ॥१२॥ श्रासिया नामक दो समाचार हैं और उनका वर्णन मूलाचाग्में (आचारसार द्वि. १०) इस प्रकार किया गया है: अर्थात्-व्यन्तरादिक जीवोंको बाधा दूर करने के लिए कंदर-पुलिण-गुहादिसु पवेसकाले णिसिद्धियं कुजा। जो निषेधात्मक बचन कहे जाते हैं कि भो क्षेत्रपाल यक्ष, तेहिंतो रिणग्गमणे तहामिया होदि कायवा ॥१३४।। हम लोग तुम्हारी श्राज्ञासे यहां निवास करते हैं, तुम लोग -समा० अधि०) रुष्ट मत होना, इत्यादि व्यवहारको निषिद्धिका समाचार अर्थात्-गिरि-कंदरा, नदी श्रादिक पुलिन-मध्यवर्ती कहते है और वहां से जाते समय उन्हें वैर दूर करने वाला जलरहित स्थान और गुफा आदिमें प्रवेश करते हुए निषि- आशीर्वाद देना यह श्राशिका समाचार है। द्विका समाचारको करे और वहांस निकलते या जाने समयमा मालूम होता है कि लोगोंने साधुओंके लिए श्राशिका समाचारको करे । इन दोनों समाचारोंका अर्थ विधान किये गये समाचारोंका अनुसरण किया और टीकाकार श्रा. वसुनन्दिने इस प्रकार किया है:- "व्यन्तरादीनां बाधायै यनिषेधनम्" पदका अथ मन्दिरटोका-पविसंतय प्रविति च प्रवेशकाले सिही प्रवेशक समय लगा लिया कि यदि कोई व्यन्तरादिक दव निषधिका तत्रस्थानमभ्युपगम्य स्थानकरणं, सम्यग्दर्श- दर्शनादिक कर रहा हो तो वह दूर हो जाय और हमें बाधा नादिषु स्थिरभावो वा, णिग्गमण-निर्गमनकाले आमि- न दे। पर वास्तवमें 'निम्पही' पद बोलने का अर्थ 'निषीया देव-गृहस्थादीन परिपृच्छय यानं, पापक्रियादिभ्यो धिका अर्थात जिनदवका स्मरण कराने वाले स्थान या उनक मनोनिवर्ननं वा ।" प्रतिबिब लिए नमस्कार अभिमेन रहा है। अर्थात्-पाधु जिम स्थानमें प्रवेश करें, उस स्थानके उपमंहार स्वामीसे आज्ञा लेकर प्रवेश करें। यदि उस स्थानका स्वामी मूलमें 'निसीहिया पद मृत माधु-शरारक परिप्ठापनकोई मनुष्य है तो उससे पूछे और यदि मनुष्य नहीं है तो स्थानके लिए प्रयुक्त किया जाता था। पीछे उस स्थानपर उस स्थानके अधिष्ठाना देवताको सम्बोधन कर उससे पूछे जो स्वस्तिक या चबूतरा-छनरी आदि बनाये जाने लगे, इसीका नाम निसीहिक समाचार है। इसी प्रकार उम्म उनके लिए भी उसका प्रयोग किया जाने लगा। मध्य युगमें स्थानसे जाते समय भी उसके मालिक मनुष्य या क्षेत्रपालको साधु ओंके समाधिमरण करनेके लिए जो खाम स्थान बनाये पूछकर और उसका स्थान उसे संभलवा करके जावें। यह जात थे उन्हें भी नियिधि या निमीहिया कहा जाता था । उनका मासिकासमाचार है अथवा करके इन दोनों पदोंका कालान्तरमें वहां जो उम माधुकी चरण-पादुका या मूर्ति टीकाकारने एक दूसरा भी अर्थ किया है। वह यह कि विव प्रादि बनाई जाने लगी उसके लिए भी 'निपीहिया' शब्द साधुनोंका अपने गुरुत्रोंके साथ तथा अन्य माधुओंक प्रयुक्त होने लगा। आजकल उमीका अपभ्रंश या विकृत साथ जो पारस्परिक शिष्टाचारका व्यवहार होता है, उसे रूप निशि, निमिधि और नशियां प्रादिक रूपमे दृष्टिगोचर समाचार कहते हैं। होता है। नहार Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थ और तीर्थंकर साधारणत: नदी-समुद्रादिके पार उतारनेवाले धाट प्राप्तिसे होता है। जब तक आत्माको अपने आपका चादि स्थानको तीर्थ कहा जाता है। प्राचार्योने तीर्थके दो यथार्थ ज्ञान नहीं होता, तब तक वह धन, स्त्री, पुत्र, परिमेद किए हैं:-द्रव्यतीर्थ और भावतीर्थ । महर्षि कुन्दकुन्दने जन, भवन, उद्यानादि पर पदार्थोंको सुख देने वाला समझ द्रव्यतीर्थका स्वरूप इस प्रकार कहा है: कर रात-दिन उनके संग्रह अर्जन और रक्षणकी तृष्णामें दाहोपसमण तहाछेदो मलपंकपक्हणं चेव। पड़ा रहता है। किन्तु जब उसे यह बोध हो जाता है कितिहिं कारणेहिं जुत्तो तम्हा तं दव्वदो तित्थं ॥६२।। "धन, समाज, गज, बाज, राज तो काज न पावे, अर्थात् जिसके द्वारा शारीरिक दाहका उपशमन हो, ज्ञान प्रापको रूप भये थिर मचल रहावे।" प्यास शान्त हो और शारीरिक या वस्त्रादिका मैन वा कीचड़ बह जाय, इन तीन कारणोंसे युक्त स्थानको द्रव्यतीर्थ तभी वह पर पदार्थोंके अर्जन और रक्षणकी तृष्णाको कहते हैं। (मूलाचार षडावश्यकाधिकार) छोडकर आत्मस्वरूपकी प्राप्तिका प्रयन्न करता है और पर पदार्थोक पानेकी तृष्णाको आत्मस्वरूपके जाननेकी इच्छामें ___ इस ब्याख्याके अनुसार गंगादि नदियोंके उन घाट आदि खास स्थानोंको तीर्थ कहा जाता है, जिनके कि द्वारा परिणत कर निरन्तर प्रारमज्ञान प्राप्त करने, उसे बढ़ाने उक्र तीनों प्रयोजन सिद्ध होते हैं। पर यह द्रव्यतीर्थ केवल और संरक्षण करनेमें तत्पर रहने लगता है। यही कारण शरीरके दाहको ही शान्त कर सकता है, मानसिक सन्तापको है कि मम्यग्ज्ञानको नृष्णाका छेद करने वाला माना गया है। नहीं शरीर पर लगे हुए मैल या कीचड़को धो सकता है, जल शारीरिक मल और पंकको बहा देता है, पर वह श्रात्मा पर लगे हुए अनादिकालीन मैलको नहीं धो सकताः प्रान्मांक द्रव्य भावरूप मल और पंकको बहानेमें श्रम - शारीरिक तृष्णा अर्थात् प्यासको बुझा सकता है, पर प्रान्मा मर्थ है। किन्तु शुद्ध आचरण प्रारमाके शानावरणादि रूप की तृष्णा परिग्रह-संचयकी लालसाको नहीं बुझा मकता। पाठ प्रकारके द्रव्य-कर्म-पंकको और रागद्वेषरूप भाव-कर्मश्रात्माके मानसिक दाह, तृष्णा और कर्म-मलको तो सम्य- मलको बहा देता है और प्रान्माको शुद्ध कर देता है, इस ग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्ररूप रत्नत्रय-तीथं ही लिए हमारे महर्षियोंने सम्यक्चारित्रको कर्म-मल और दूर कर सकता है। अतएव आचार्यों ने उस भावतीर्थ पाप-पंकका बहानेवाला कहा है। कहा है। इस प्रकार सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रप्रा. कुन्दकुन्दने भावतीर्थका स्वरूप इस प्रकार कहा है :- रूप रत्नत्रय धर्म ही भावतीर्थ है और इसके द्वारा ही भव्यदसण-णाण-चरित्ते णिज्जुत्ता जिणवरा दु सव्वेवि। जीव संसार-सागरसे पार उतरते हैं। तिहिं कारणेहिं जुत्ता तम्हा ते भावदो तित्थं ॥३॥ इस रत्नत्रयरूप भावतीर्थका जो प्रवर्तन करते हैं, पहले प्रारमाके अनादिकालीन अज्ञान और मोह-जनित दाह- अपने राग, द्वेष, मोह पर विजय पाकर अपने दाह और की शान्ति सम्यग्दर्शनको प्राप्ति से ही होती है। जब तक तृष्णाको दूर कर ज्ञानावरणादि कर्म-मलको बहाकर स्वयं जीवको अपने स्वरूपका यथार्थ दर्शन नहीं होता, तब तक शुद्ध हो मंसार-सागरसे पार उतरते हैं और साथमें अन्य उसके हृदयमें अहंकार-ममकार-जनित मानसिक दाह बना जीवोंको भी रत्नत्रयरूप धर्म-तीर्थका उपदेश देकर उन्हें पार रहता है और तभी तक इप्ट-वियोग और अनिष्ट-संयोगों के उतारते है-जगत्के दुःम्वोंसे छुदा देते हैं-वे तीर्थकर कारण वह वेचेनीका अनुभव करता रहता है। किन्तु जिस कहलाते हैं। लोग इन्हें तीर्थकर, तीर्थकर्ता, तीर्थकारक, तीर्थसमय उसके हृदय में यह विवेक प्रकट हो जाता है कि पर कृत , तीर्थनायक, तीर्थप्रणेता, तीर्थप्रवर्तक, तीर्थकर्ता, तीर्थपदार्थ कोई मेरे नहीं है और न कोई अन्य पदार्थ मुझे मुम्ब- विधायक, तीर्थवेधा, तीर्थसृष्टा और तीर्थेश-श्रादि नामोंसे दुख दे सकते हैं। किन्तु मेरे ही भले बुरे-कम मुझे सुख-दुख पुकारते हैं। देते हैं, तभी उसके हृदयका दाह शान्त हो जाता है। इस संस्गरमें सदज्ञानका प्रकाश करनेवाले और धर्मरूप लिए प्राचार्योने सम्यग्दर्शनको दाहका उपशमन करने वाला तीर्थका प्रवर्तन करनेवाले तीर्थकरोंको हमारा नमस्कार है। पर पदार्थोके संग्रह करनेकी तृष्णाका छेद सम्यग्ज्ञानको -हीरालाल Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थानके जैनशास्त्रभंडारोंमें उपलब्ध महत्त्वपूर्ण साहित्य (अनेकान्त वर्ष १२ किरण से आग (ले० कस्तूरचन्द काशलीवाल एम. ए.) (६) अष्टमहम्री-प्राचार्य विद्यानन्दका यह मह- द्वितीया वाक्पती पूर्णो फाल्गुर्गार्जुन पाभिक ॥६॥ वपूर्ण प्रन्य जैन दार्शनिक सस्कृत माहिन्यमें ही नहीं फान्गुण सुदी २ गुरौ प्रदत्ता बर्द्धमानाय, किन्तु भारतीय दर्शनसाहित्यमें भी एक उल्लेखनीय भावि भट्टारकोत्थ यः। रचना ग्राचार्य विद्यानन्द अपने समय एक प्रसिद्ध श्रेयस... .......... .."ध्ययनशालित ll दार्शनिक विद्वान थे। इनकी अनेक दार्शनिक रचनाएँ उप- उत्तरपुराण टिप्पण-श्री गुणभद्गाचार्य कृत नब्ध है जिनके अध्ययनस उनकी विशाल प्रज्ञा और चम- उत्तरपुगण संस्कृत पुराणमाहिन्यमें उल्लेग्वनीय रचना है। कारिणी प्रतिभा का पद पद पर दर्शन होता है। श्रप्ट .हस्री उत्तरपुराणको महाकाव्यका भी नाम दिया जा सकता है। को तो विद्वानोंन करमहसी बतलाया है। इनकी दार्शनिक क्योंकि महाकाव्यमें मिलने वाले लक्षण इस पुगणमें भी महनास व भली भांति परिचित है जिन्होंने उम्मका श्राकण्ठ पाए जाते हैं। उन पुराण महापुराणका उत्तर भाग है। पान किया है । भट्टाकलकदेव कृत अष्टशका यह महाभाष्य इसका पूर्वभाग जो आदिपुगणक नामसं प्रसिद्ध है जिनसेनाहै। जिसका दूसरा नाम प्राप्तमीमांसालंकृति है । इसकी चार्य कृत है । गुणभद्राचार्य जिनसनाचार्यके शिष्य थे। ये पवन १४६० की लिखी हुई एक प्राचीन प्रति जयपुर विक्रमकी हवीं शताब्दी विद्वान थे। तरह पंशियोंक श्री दि. जैन बडा मन्दिरके शास्त्र भण्डारम जैन समाजमें श्रादिपुगण और उनरपुराण इतने अधिक सुरक्षित है। प्रति मुन्दर शुद्ध तथा माधारण अवस्थामें लोकप्रिय बने हुए हैं कि ऐसा कोई ही जैन होगा जिसने है। इस ग्रन्थकी प्रतिलिपि प्राचार्य शुभचन्द्रकी प्रतिशिप्या इसका स्वाध्याय अथवा श्रवण नहीं किया हो। जैनांक आर्या मलयश्रीने करवायी थी । इमक लिपिकार गजराज थे, प्रत्येक भण्डारमें इसकी हस्तलिम्वित प्रतियों 10-1५ की जिन्होंने विक्रम संवत १४१० फाल्गुन वदी २ के दिन मंग्ल्याम मिलती हैं। इसकी कितनी ही हिन्दी टीका हो इसकी प्रतिलिपि पूर्ण की थी । इम प्रतिको शुभचन्द्रन अपन चुकी है जिनमें पं.दीलतरामजी कृत उत्तर पुराणकी टीका पीळे होने वाले भट्टारक बढ़मानको प्रदान की थी । ग्रन्थ- उल्लेखनीय है. इयो उत्तरपुराणका एक संस्कृत टिप्पण श्रमी की लेखक प्रशम्नि निम्न प्रकार है: बढे मन्दिरक शास्त्र भण्डारमें उपलब्ध हुअा है। (स्वस्ति) श्रीमूलामलमघमंडामणिः श्रीकुन्दकुन्दान्वय, टिप्पण सरल मंस्कृतमें है। मूल ग्रन्थके क्लिष्ट संस्कृत गोर्गच्छ च बलात्कारकगण श्रीनन्दिसंघापणीः। शब्दोंकी सरल संस्कृत में हो समझाया गया है। रिपगा उनम स्याद्वादतर वादिदंतिदवणो (मनो) द्यत्पाणि-पचाननी, है। टिप्पणकार कौन श्रीर कब हुए हैं यह टिप्पण परमे कर यावत्सोऽस्तु सुमेधसामिह मुदे श्रीपदमनन्दीगणी। ज्ञात नहीं होता । टिप्पणकारने अपना ग्रन्धके श्रादि और श्रीपद्मनन्यधिप-पट्ट पयोजहम अन्तमें कहीं भी काई परिचय नहीं दिया है। पूनामे प्रकाश्वेतातपत्रितयशस्फुरदात्मवशः (श्यः) । शित 'जिनरलकोश' में प्राचार्य प्रभाचन्द्र कृत एक टिप्पणका राजाधिराजकृतपादपयोजसेव. उल्लेख अवश्य किया गया है। यह टिप्पण भी इन्हीं प्रभास्यान्नः श्रिये कुवलये शुभचन्द्रदेवः ॥गा चन्द्रका है अथवा नहीं है इस विषयमें जब तक दोनों प्रतिआर्याशीदार्यवय र्या दीक्षिता पद्मनंदिभिः। योंका मिलान न हो तब तक निश्चित रूपसे कुछ नहीं कहा रत्नश्रीरिति विख्याता तन्नामैवास्ति दीक्षिता ॥३॥ जा सकता । इसके अतिरिक्र श्रद्धेय पं० नाथूराम जी प्रेमाने शुभचन्द्रायवय र्या श्रीमद्भिः शीलशालिनी । अपने 'जैनमाहित्य और इतिहाम' में श्रीचन्द्र और प्रभाचन्द्र मलयश्रीरितिख्याता शांतिका गर्वगालिनी ॥४॥ वाले लेखमें प्रभाचन्द्रकी रचनाओं में गुणभद्राचार्यकृत उत्तरतयैषा लेखिता यस्य ज्ञानावरणशान्तये । पुराणक टिप्पणका कोई उल्लंग्व नहीं किया। इस लिए लिखिता गजराजेन जीयादष्टसहस्रिका ॥५॥ प्रभाचन्द्रने ही वह टिप्पण लिम्बा हो ऐसी कोई निश्चित व्योमग्रहाब्धि चन्द्राब्धे,(संवत१४६०)विक्रमाकं महीपते बात नहीं कही जा सकती। Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [ वर्ष १३ टिप्पणके पूरे पत्र ११५ हैं। टिप्पणकारने प्रारम्भमें गूढ़ अर्थको सममानेका काफी प्रयत्न किया है। संस्कृत भाषाअपने कोई निजी मंगलाचरणसे टिप्पण प्रारम्भ नहीं किया है के अतिरिक्र उसने बीच २ में हिन्दीके पद्योंका भी प्रयोग किन्तु मूलग्रन्थक पदमें ही टिप्पण प्रारम्भ कर दिया है। किया है और उदाहरण देकर विषयको समझानेका प्रयत्न टिप्पणका प्रारम्भिक भाग इस प्रकार है:-- किया है। टीकाका प्रारम्भ निम्न प्रकार है:विनेयानां भव्यानां । अवाग्भागे-दक्षिणभागे। मोक्षमार्गस्य भेत्तारं भत्तारं कर्मभूभृतां । प्रणयिनः संतः । वृणुतेस्म भजतिस्म । शक्ति सिद्धि । ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां वंदे तद्गुणलब्धये। त्रयोपेतः प्रभूत्साह मंत्र शक्तयस्तित्रः। । अस्यार्थ :--विशिष्ट इष्ट देवता नमस्कार पूर्व तत्वार्थप्रभूशक्ति भवेदाद्या मंत्रशक्तिद्वितीयका । शास्त्रं करोमि । मोक्षमार्गस्य नेतारं को विशशः य. परमेश्वरः तृतीयोत्साह शक्तिश्चेत्याहु शक्तित्रयं बुधाः ।। अहंतदवः मोक्षमार्ग-अनन्तचतुष्टय सौख्यः शाश्वतासौख्य: टिप्पणका अन्तिम भाग अव्यय विनाशरहितः ईग्विधं मोक्षमार्गस्य निश्चय व्यवहारस्य इत्यार्षे भगवद्गुणभद्राचार्यप्रणीते त्रिषष्टि महा- निरवशेषनिराकृतमलकलंकस्य शरीस्यात्मनो स्वाभाविकतान पुराणसंग्रहे श्रीवर्द्धमानतीर्थकरपुराणं परिममाप्तं ज्ञानादिगुणमन्यावाधसुखमत्यंतिकमवस्थान्तरं मोक्षः तस्य मार्ग उपायः तस्य नेत्तारं उपदेशक ... ... ... . । पदमप्ततितम पर्व ।।६।। यह प्रति संवत् १५६६ कार्तिक सुदी मोमवारक दिन दखिये: ___मंगलाचरणक पश्चात ग्रन्यके प्रथम सूत्रकी भी टीका की लिखी हुई है । इसकी प्रतिलिपि खण्डेलवाल वंशात्पन्न तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनंपापल्या गांववाले संगही नेमा द्वारा करवायी गयी थी। तत्त्वशब्दो भावमामान्यत्राची । भो भगवन ! लिपिकार श्री हुल्लू के पुत्र पं० रतन थे। सम्यग्दर्शनं किम् उक्तं च? (८) तत्त्वार्थसूत्र टोका : मूढत्रयं मदाश्चाष्टौ तथाऽनायतनानि पट । तस्वार्थसूत्रका जैनोंमें सबसे अधिक प्रचार है। जैन अष्टौ शंकादयो दोपा हग्दोषाः पंचविंशति ।। समाजमें इसका उतना ही आदरणीय स्थान है जितना ईमाई पंचविशति मलरहितं तत्त्वर्थानां भावना रुचि. सम्यग्दसमाजमें बाइबिल का, हिन्दू समाजमें गीताका नथा मुसलिम र्शनं भवति । समाजमें कुरान का है। यह उमास्वानिकी अमृग भंट है। टीकाक बीच • में टीकाकारने संस्कृत एवं कहीं २ मर्व प्रिय होने कारण इस पर अनेक टीकार्य उपलब्ध हैं. हिन्दीक पद्योंका उद्धग्गा दिया है इमस विषय और भी जिनरत्नकोश' में इनकी संख्या ३६ बतलायी गई है लेकिन स्पष्ट होगया है तथा यह एक नवीन शैली है जिसे टीकावास्तवमें इससे भी अधिक इस पर टीकायें मिलती है ! कारने अपनायी है। अभी तक संस्कृत टीकाओं में हिन्दी तत्त्वार्थसूत्रकी टीका हिन्दी, संस्कृत, गुजराती, तामिल, पद्योंके उदरण दम्बने में नहीं पाये। टीकाकारक समयमें तेलगू कन्नड आदि सभी भाषाओं में उपलब्ध होती है। हिन्दीकी व्यापकता एवं लोकप्रियताको भी यह द्योतक है। इसी तत्त्वार्थ सूत्र पर एक टीका अभी मुझे बड़े मन्दिर टीका में आये हुए कुछ उद्धरणोंको देग्वियेः(जयपुर) के शास्त्र भण्डरमें उपलब्ध हुई है जिम्मका परिचय जो जेहा नर सेवियउ सो ते ही फलपत्ति । पाठकोंकी सेवामें उपस्थित किया जा रहा है: जलहिं पमाणे पुण्डइ विहिणालइ निप्पजन्ति । तस्वार्थसूत्रकी यह टीका १७८ पत्रोंमें समाप्त होती है। भवाब्धौ भव्यसार्थस्य निर्वाणद्वीपायन. । टीकाकार कौन है तथा उन्होंने इसे कब समाप्त किया था। चारित्रयान पात्रस्य कर्णधारो हि दर्शनः ।। आदि तथ्योंके लिये यह प्रति मौन है। यह प्रति संवत हस्त चिंतामरिण यस्य गृहे यस्य सुरद्र मः। १९५६ श्रामोज सुदी ११ मंगलवारकी है। साह श्री स्वीयसी कामधेनु धनं यस्य तस्य का प्रार्थना परा॥ अग्रवालने इसकी प्रतिलिपि करवायी थी एवं रणथम्भोर xx क्रमशः दुर्गमें पूर्णमल कायस्थ माथुरने इसको प्रतिलिपि की थी। (श्री दि. जैन अ. क्षेत्र श्री महावीर जी टीका अत्यधिक सरल है एवं टीकाकार ने तत्वार्थसत्रके के अनुसन्धान विभागकी ओर से) मात Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंह- श्वान - समीक्षा पं० हीरालाल सिद्धान्त शास्त्री ) प्राणिशास्त्र के अनुमार सिंह और श्वान दोनों ही हिंसक एवं मांसाहारी प्राणी हैं। दोनों ही शिकारी जानवर माने जाते हैं और दोनोंके खाने पीनेका प्रकार भी एक सा ही है। फिर भी जबसे लोगोंने कुत्तोंको पालना प्रारम्भ कर दिया, तबसे वह कृतन ( वफादार) और उपयोगी जानवर माने जाना लगा है। पर सिह को लोगोंने लाख प्रयत्न करने पर भी - पिंजड़ों में और घरों वर्षो तक बंद रखनेके बाद भी - आज तक पालतू, बफादार और उपयोगी नहीं बना पाया है । मसके भीतर इंटरके बलपर चाहे जैसा नाच नचाने पर भी न उसका स्वभाव बदला जा सका है औन खाना-पीना ही । जवकि लोगोंने कुत्तोंको रोटी खाना सिखाकर उसे बहुत कुछ श्रन्न -भोजी भी बना दिया है और उससे मेल-जोल बढ़ाकर उसे अपना दास, अंगरक्षक और घरका पहरेदार तक बना लिया है । युद्धके समय इससे संदेश वाहक (दूत) का भी काम लिया गया है और इसके द्वारा अनेक महत्वपूर्ण रहस्योंका उद्घाटन भी हुआ है । कुत्तेकी क बड़ी विशेषता उसकी धारण शक्ति की है, जिसके द्वारा वह चोर साहूकार और भले-बुरे आदमा तकका पहिचान लेता है। संघ सूंघ कर वह जमीनक भीतर गड़ी हुई वस्तुओं का भी पता लगा लेता है । इसके अतिरिक्त कुत्तेकी नींद बहुत हल्की होती है, जरा मी आहट से यह जाग जाता है और रात भर घरचारकी रक्षा करता रहता हूं । इस प्रकार कुत्ता हिंसक प्राणियों में मनुष्यका सबसे अधिक लाभ दायक ( फायदेमन्द), उपकारी और वफादार प्राणी साबित हुआ है, और सदा इसके विपरीत ही रहा है । कुत्तेके इतना कृतज्ञ, उपयोगी और उपकारक सिद्ध होने पर भी यदि कोई मनुष्य अपने हितैषी या उपकारकको कुत्तेकी उपमा देकर कह बैठे- 'अजी, आपनो कुत्ते के समान हैं' तो देखिए, इसका उसपर क्या असर होता है ? लेने के देने पड़ जायेंगे, आज तकके किये - करायेपर पानी फिर जायगा और वह आपकी जानका ग्राहक बन जायगा !!! पर इसके विपरीत स्वभाव वाले और मनुष्य कभी काम न आने वाले सिंहको उपमा देकर किसीसे कहिये – 'अजी, आपतो सिंहके समान हैं तो देखिए इसका उसपर क्या असर होता है ? वह आपके इस वाक्यको सुनते ही हर्षसे फूलकर कुप्पा हो जायगा, मूछों पर ताव देने लगेगा और गर्वका अनुभव करेगा तथा मन में विचार करेगा, वाक़ई मैंने ऐसे-ऐसे कार्य किये हैं कि मैं इस उपमाके ही योग्य हूँ ! यहां मैं पाठकों से पूछना चाहता हूँ-क्या कारण है कि कुत्तेके इतने उपयोगी और फायदेमन्द होने पर भी लोग उसकी उपमा तकको पसंद नहीं करते, प्रत्युत मरने-मारने को तैयार हो जाते हैं और जिससे मनुष्यका कोई लाभ नहीं, उसकी उपमा दिये जानेपर इतने अधिक हर्ष और गर्व का अनुभव करते हैं " मालूम पड़ता है कि कुत्तं में भले ही सैकड़ों गुण हों, पर कुछ एक ऐसे महान् अवगुण अवश्य हैं, जिससे उसके मारे 'गुण पासंग पर चढ़ जाते हैं और जिनके कारण लोग उसकी उपमाको पसंद नहीं करते। इसके विपरीत सिंहमें लाख अवगुण भले ही हों, पर कुछ- एक महान गुण उसमें ऐसे अवश्य हैं, जिसके कि कारण लोग उसकी उपमा दिये जाने पर हर्ष और गर्वका अनुभव करते हैं। सिंह और श्वान, इन दोनोंक स्वभावका सूक्ष्म अध्ययन करने पर हमें उन दोनों के इस महान् अन्तरका पता चलन है और तब यह ज्ञात होता है कि वास्तव में इन दोनों में महान् अन्तर है और उसके ही कारण लोग एककी उपमाको पसन्द और दूसरेकी उपमाको नापसन्द करते है | 1 सिंह और श्वानमें सबसे बड़ा अन्तर आत्मविश्वास का है। सिंह में आत्मविश्वास इतना प्रवल होता है कि जिसके कारण वह अकेले ही सैकड़ों हाथियोंके साथ मुकाबिला करनेकी क्षमता रखता परन्तु कुत्ते में आत्मविश्वासकी कभी होती है । वह अपने मालिक के भरोसे पर ही सामने वाले पर आक्रमण करता है। जब तक उसे अपने मालिक की ओर प्रोत्तेजन मिलता रहेगा, वह श्रागे बहना रहेगा | आक्रमण करते हुए भी वह बार-बार मालिककी ओर झांकना रहेगा और ज्योंही मालिकका प्रोते Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२] अनेकान्त वर्ष १३ जन मिलना बन्द होगा कि वह तुरन्त दुम दवा कर सदा रोटीके टुकड़ों के लिये दूसरोंक पीछे पूछ हिलाता वापिस लौट आयगा । पर सिंह किसी दूसरेके भरोसे हुआ फिरा करता है और टुकड़ोंका गुलाम बना रहता शत्रु पर आक्रमण नहीं करना। आक्रमण करते हुए है। जब तक आप उसे टुकड़े डालते रहेंगे, आपकी वह कभी किसीकी महायताके लिए पीछे नहीं झांकना गुलामी करेगा और जब आपने टुकड़े डालना बन्द और शत्रसे हार कर तथा दुम दबा कर वापिस लौटना किये ओर आपके शत्रुने टुकड़े डालना प्रारम्भ किये तो वह जानता ही नहीं। वह 'कार्य वा माधयामि, देहं तभीसे वह उसको गुलामी शुरू कर देगा। वह 'गंगा वा पातयामि' का महामन्त्र जन्मसे ही पढ़ा हुआ होता गय गङ्गादाम और जमुना गये जमुनादास' की है। अपने इम अदम्य आत्मविश्वासक बल पर ही लोकोक्तिको चरितार्थ करता है। पर सिंह कभी भी वह बड़े से बड़े जानवरों पर भी विजय पाता है और रोटीका गलाम नहीं है। वह पेट भरने के लिये न जंगलका राजा बनता है। दूमरोंके पीछे पूछ हिलाता फिरता है और न कुत्तेक सिंह और खानमें दमरा बडा अन्तर विवेकका समान दुमरोंकी जठी हड़ियाँ ही चाटा करता है। है। कुत्ते में विवेककी कमी स्पष्ट है। यदि कहीं किसी सिंह प्रति दिन अपनी रोटी अपने पुरुषार्थसे स्वयं अपरिचित गली से श्राप निकले, काई कुत्ता आपको उत्पन्न करता है। मिहके विषयमं यह प्रसिद्धि है कि काटने दौड़े और आप अपनी रक्षाके लिए उसे लाटी वह कभी भा दुमकिं मारे हा शिकारका हाथ नहीं मारें तो वह लाठीको पकड़ कर चबानकी कोशिश लगाता । स्वतंत्र सिहकी तो जाने दीजिय, पर कटघरों करेगा । उस बेवकूफको यह विवेक नहीं है कि यह में बन्द मिहकि मामने भी जब उनका भोजन लाठी मुझे मारने वाली नहीं है। मारने वाला तो यह लाया जाता है तब वे भोजन-दाताकी और न तो सामने खड़ा हुआ पुरुप है, फिर मैं इम लकडीको क्या दीनना-पूर्ण नेत्रों से ही देखते है, न कुत्ते के समान चबाऊँ । दूमरा अविवेकका उदाहरण लीजिये-कुत्ते- पूछ हिलाते हैं और न जमीन पर पड़ कर अपना को याद कहीं हड़ीका टुकड़ा पड़ा हुआ मिल जाय नो उदर दिग्वाते हुए गिड़गिड़ाते ही हैं। प्रत्युत इमक यह उसे उठा कर चबायेगा और हडोकी तीखी नोको एक बार गम्भीर गर्जना कर मानी वे अपना विरोध से निकले हुए अपने ही मुखक मृनका स्वाद लेकर प्रकट करते हुए यह दिखात है कि अरे मानव ? क्या फुला नहीं समायेगा। वह समझता है कि यह खून तू मझे अब भी टुकड़ोंक गुलाम बनाने का व्यर्थ इम हडी मेंसे निकल रहा है। पर सिंहका स्वभाव ठीक प्रयाम कर अपने का दातार होने का अहंकार करता इससे विपरीत होता है। वह कभी हड्डी नहीं है ? कहने का अर्थ यह कि पराधीन और कठघरे में चबाता और न आक्रमण करने वालेको लाठी, बन्द सिंह भी रोटी का गुलाम नहीं है, पर स्वतन्त्र बन्दूक या भाला आदिको पकड़ कर ही उसे । और आजाद रहने वाला भी कुत्ता सदा टुकड़ोका चबाने की कोशिश करता है, क्योंकि उसे यह विवेक गुलाम ह । कुत्तका गुलाम हैं। कुत्तेको अपने पुरुपाथका मान नहा, पर है कि ये लाठी, बन्दूक आदि जड़ पदार्थ मेरा स्वतः सिंह अपने पुरुपार्थसे खूब पारांचत है और उसके कुछ बिगाड़ नहीं कर सकते; ये लाठी आदि मुझेमारने द्वारा ही अपना रोटी स्वयं उपार्जित करता है। वाले नहीं, बल्कि इनका उपयोग करने वाला यह मनुष्य इस उपयुक्त अन्तरके अतिरिक्त सिह और श्वान ही मुझे मारने वाला है। अपने इस विवेकके कारण .. कारण में एक और महान अन्तर है और वह यह कि कुत्ता वह लाठी आदिको पकड़ने या पकड़ कर उन्हें चबाने - 'जाति देख घुर्राऊ स्वभावी है। अपने जाति वालोंको की चेष्टा नहीं करता: प्रत्युत उनके चलाने वाले पर देखकर यह भौंकता, गुर्राता और काटनेका दौड़ता है। आक्रमण कर उसका काम तमाम कर देता है। इससे आधक नीचताकी और पराकाष्ठा क्या हो ___ सिंह और श्वानमें एक और बड़ा अन्तर गुरुपार्थ- सकती है ? पर सिह कभी भी दूसरे सिंहको देख का है । कुत्ते में पुरुषार्थकी कमी होती है, अतएव वह कर गुर्राता या काटनेको नहीं दौड़ता है, बल्कि जैसे Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण २ ] एक राजा दूसरे राजासे ममम्मान और गौरवके साथ मिलता है, ठीक उसी प्रकार दो सिंह परस्पर मिलते हैं। सिंहमें अपने सजातीय बन्धुओंके साथ वात्मन्य भाव भरा रहता है, जब कि कुत्ता ठीक इसके विपरीत हे । उसमें स्वजाति वात्सल्यका नामोनिशान भी नहां होता । स्वजाति वात्सल्यका गुण सर्वगुणों में सिरमौर है और उसके होनेसे सिंह वास्तवम सिंह संज्ञाको सार्थक करता है और उसके न होनेसे कुना 'कुत्ता' ही बना रहता है। सिंह- श्वान - समीक्षा इस प्रकार हम देखते हैं कि सिंहम श्रात्मांत्रश्वास विवेक पुरुषार्थशीलता और स्वजातिवत्सलता ये चार अनुपम जाज्वल्यमान गुण रत्न पाये जाते हैं, जिनके प्रकाश उसके अन्य सहस्रों अवगुगा नगग्य या निराभूत हो जाते है। इसके विपरीत कुत्तमें आत्मविश्वासकी कमी, विवेकका अभाव, टुकड़ोंका गुलामीपना और स्वजाति-विद्वेष ये चार महा अवगुण पाये जानेसे उसके अनेकों गुण तिरोभूत हो जाते हैं। सिंह में चार गुणों के कारण ओज, तेज और शौर्यका अक्षय भण्डार पाया जाता है और ये ही उसकी सबसे बड़ी विशेषताएं है, जिनके कारण सिंहका उपमा दिये जाने पर गनुध्य हर्ष और गर्वका अनुभव करते है | कुत्ते में हजारों गुण भले ही हों, पर उसमें उक्त चार महान गुणोंकी कमी और उनके अभाव से प्रगट होने वाले चार महान अवगुणांक पाये जाने म कोई भी कुत्तेकी उपमाको पसन्द नहीं करना । इस प्रकार यह फलितार्थ निकलता है कि मिह और श्वान मे आकाश-पाताल जैसा महान अन्तर है [ ५३ करता है, उनके उत्कर्षको देखकर कुढ़ता है और अवसर आने पर उन्हें गिराने और अपमानित करने से नहीं चूकता। ठीक यही अन्तर सम्यष्टि और मिध्यादृष्टिमें है । सम्यक्त्वी निहके समान है और मिध्यात्वां कुत्ते के समान । सम्यक्त्वी में सिंहके उपयुक्त चारों गुण पाये जाते हैं । आत्मविश्वाससे यह सदा निःशक और निर्भय रहता है | विवेक प्रगट होनेसे वह अमृष्टि या यथाथदर्शी बन जाता है । पुरुषार्थके बलमे वह आत्मनिर्भर रहता है और साजातीय वात्सल्यसे तो वह लबालब भरा ही रहता है। सम्यक्त्वी स्वभावतः अपने सजातीय या साधर्मीजनोंमे 'गो वत्म' सम प्रेम करता है । पर मिध्यात्वी सदा मजातियोंसे जला ही इन गुणोंक प्रकाश में यदि सम्यक्त्वोके चारित्रमोहके उदयसे अविरति-जनित अनेकों अवगुण पाये जाते है, तो भी वे उक्त चारों अनुपम गुग्ण-रत्नोंके प्रकाश में नगण्य से हो जाते हैं । इसके विपरीत मिध्यात्वमें दया क्षमा, विनय नम्रना आदि अनेक गुणोंके पाये जाने पर भी आत्मविश्वासकी कमी से वह सदा शंक बना रहता है, विवेकके अभाव मे उस पर अज्ञानका पर्दा पड़ा रहता है और इसलिए वह निस्तेज एवं हतप्रभ होकर किंकर्त्तव्यमृढ़ बना रहता है, पुरु पार्थकी कमी के कारण वह सदा टुकड़ोंका गुलाम और दूसरोंका दाम बना रहता है तथा स्वजाति-विद्वेषक कारण वह घर-घर में दुतकारा जाता है । मिवृत्ति स्वीकार करना चाहिए । हमें श्वानवृत्ति छोड़कर अपने दैनिक व्यवहार में शंका-समाधान शंका- जबकि सिंह और श्वान दोनों मांसाहार और शिकारी जनवर है, तब फिर इन दोनों में उपयुक्त आकाश-पाताल जैसे महान अन्तर उत्पन्न होनेका क्या कारा है ? समाधान- इसके दो कारण है :- एक अन्तरंग और दूसरा वहिरंग अन्तरंग कारण तो मिह और श्वान नामक पंचेन्द्रिय जातिनामकर्मका उदय है और बहिरंग कार बाहिरी संगति मनुष्यांका सम्पर्क एवं तदनुकूल अन्य वातावरण है। न्नरंग कारगा कर्मोदयके समान होने पर भी जिन्हें मनुष्यके द्वारा पाने जाने आदि बाह्य कारणोंका योग नहीं मिलना, वे जंगली कुत्तं श्राज भी भारी श्रृंखवार और भयानक देखे जाते है जिन्हे लोग 'शुना कुत्ता' कहते हैं । 'शुना शब्द 'श्वान का ही अपभ्रंश रूप है जो आज भी अपने इम मूल नामक द्वारा स्वकीय असली रूप - खूंख्वारता का परिचय दे रहा है। मनुष्योंने इस पालपुचकारके उसे उसकी स्वाभाविक शक्ति से भाग करा Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त | वर १३ दिया और रोटीके टुकड़े म्बिला २ कर उसे 'दोगला'. कुछ और कहना, तथा काम कुछ और ही करना, यह बना दिया है। मायाचार कहलाता है। यह मायाचार कोई प्रतिष्ठा शंका-बहिरंग कारगण और उनका असर नो प्राप्त करनेके लिए करता है, कोई धन कमानेके समझ में आया, पर यह सिंह या श्वान नामक नाम- और कोई व्यभिचार आदि अन्य मतलब हल करनेके कर्मके उदयरूप अन्तरंगकारण क्या वस्तु है? लिए । धनको ग्यारहवां प्राण कहा गया है जो माया___ समाधान-जो कारण बाहिर में दृष्टिगोचर न चार करके दूसरेके धनको हड़प करते हैं, वे मांस-भक्षी हो सके, पर अन्तरंगम-भीतर आत्माके ऊपर अपना या छोटे-मोटे जीवोंको जिन्दा हड़प जाने वाले सूक्ष्म असर डाले, उसे अन्तरंग कारण कहते हैं। जानवरोमं पैदा होते हैं। सिंह और श्वान दोनों ही जीव अपनी भली-बुरी नाना प्रकारकी हरकतोंसे अपने मांस-भक्षी हैं, पर इनका पूर्वभवमें मायाचार धन-विषयक आत्मा पर जो संस्कार डाल लेता है, उसे जैन शास्त्री- रहा, ऐमा जानना चाहिए। जो जीव मामने जाहिरमेंकी परिभाषामें 'कर्म' कहते हैं और वही कर्म संचित तोधानयोंकी खुशामद करते हैं और अवसर पातेही पीछे संग्कारोंका फल देने के लिए अन्तरंग कारण है। से उसके धनको चुरा लेते हैं, या लिए हुए, और अमा शंका वे ऐसे कौनस संस्कार हैं, जिनके कारण नत रखे धनको हड़प कर जाते हैं, या हड़प करनेकी जीव सिह और श्वान नामक कर्मको उपार्जन करता है भावना रखते हुए भी कभी-कभी अमानत रखनेवालेऔर उनके उदयसे सिंह और कुत्तेकी पर्यायको धारण को व्याज या सहायता अदिके रूप में कुछ तांबके टुकड़े करता है। देते रहते हैं, वे तो कुत्तोंके संस्कार अपनी आत्मापर समाधान पशुओंमें उत्पन्न होनेका प्रधान कारण डालते हैं। किन्तु जो दूसरके धनका चुराने या हड़प 'मायाचार' है। सिंह और श्वान दोनों ही पशु हैं, करनका करने के लिए न सामने खुशामद ही करते हैं और न अतः यह स्वतः सिद्ध है कि दोनोंने पूवभवमें भरपूर पोछे धन ही चुराते हैं, किन्तु दिनभर तो स्वाभिमानमायाचार किया है । मनमें कुछ और रखना. वचनस का वाना पहने अपने घरोंमे पड़े रहते हैं और रातको शस्त्रांसे लैस होकर दूसरों पर डाका डालते हैं, वे * दोगलाका अर्थ है, दो प्रकारका गला। पशु जीय शेर, चीते, सिंह आदि जानवरों में उत्पन्न होनेका स्वभावतः दो जातिके होते हैं-शाकाहारी और कम उपार्जन करते हैं । जो मायाचार करते हुए अपने मांसाहारी । कुत्ता म्वभावतः मांसाहारी है. पर मनुष्योंके सजातीयोंका उत्कर्ष नहीं देख सकते उन्हें नीचा मंसर्गसे अन्नभोजी भी हो गया। अन्नभोजी फल तथा दिखाने मारने और काटनको दौड़ते हैं वे कुत्तेका कर्म घासाहारी जीवांकी गणना शाकाहारियांम ही की मंचय करते हैं किन्तु जो उक्त प्रकारकामायाचार करते जाती है। कुत्ता मांसाहारियों के साथ माम भी ग्वा हार भी अपने मजातीयोंका सन्मान करते हैं। उन्हें लेता है और मनुष्योंके माथ अन्न भी ग्वा लेता है, काटने नहीं दौड़ते, पेट के लिए दूसरोंको खुशामद नहीं इस प्रकार परस्पर विरोधी दो भक्ष्य पदार्थों को अपने करते, दूसरोंके इशारोंपर नहीं नाचते भले बुरेका गलेक नीचे उतारने के कारण वह 'दोगला कहलाता म्वयं विवेक रखते हैं और आत्मनिर्भर रहते हैं. वे कहलाता है। सिंह नामक नामकर्मको उपार्जन करते हैं। समाजसे निवेदन 'अनेकान्त' जेन समाजका एक साहित्यिक और ऐतिहासिक सचित्र मामिक पत्र है । उसमें अनेक खोजपूर्ण पठनीय लेख निकलते रहते हैं। पाठकोंको चाहिये कि वे ऐसे उपयोगी मासिक पत्रके ग्राहक बनकर, तथा संरक्षक या सहायक बनकर उसको ममर्थ बनाएं । हमें दो सौ इक्यावन तथा एक मौ एक रुपया देकर संरक्षक व सहायक श्रेणी में नाम लिखाने वाले के वलदो सौ सजनोंकी पावश्यकता है। आशा है समाजके दानी महानुभाव एक सौ एक रुपया प्रदानकर सहायकश्रेणीमें अपना नाम अवश्य लिखाकर साहित्य-सेवामें हमारा हाथ बटायंगे। -मैनेजर 'अनेकान्त' Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रन्थोंकी खोजके लिये ६००) रु. के छह पुरस्कार जो कोई भी मज्जन निम्नलिखित जनग्रंथों में से, सू के अतिरिक्त, जो अनेक प्रन्यसूचियों पर से बनी है, जिनका उल्लेख तो मिलता है परन्तु वे अभी तक उपलब्ध जैन ग्रन्थावली' में भी पाया जाता है, जिसमें वह सूरतके नहीं हो रहे हैं, किमी भी ग्रन्थको, किसी भी जैन-अजैन उन संठ भगवानदास कल्याण दामजीकी प्राइवेट रिपोर्टर्स शास्त्रभण्डार अथवा लायब्ररीसे ग्बोज लगा कर सर्व प्रथम लिया गया है जो कि पिटर्मन साहबकी नौकरी में थे। सूचना नीचे लिखे पते पर देनेकी कृपा करेंगे और फिर बाद- नियममार' को पनप्रभ-मलधारि देव-कृत-टीकामें 'तथा को ग्रन्थकी शुद्ध कापी भी देवनागरी लिपिमें भेजेंगे या चौक तत्त्वानुशासन इस वाक्य के साथ नीचे लिखा पत्र खुद कापीका प्रबन्ध न कर सकें तो मृल ग्रन्थ ही कापी उद्धृत किया गया है, जो गमसनक उक तस्वानुशासनमें अथवा फोटॉक लिये वीरसंबामन्दिरको भिजवाएँगे तो उन्हें, नहीं है, न ग्रन्थमन्दभकी दृष्टिस उसका हो सकता है तथा ग्रंथका ठीक निश्चय हो जाने पर, पुरस्कारकी वह रकम भेंट विषय-वर्णनकी दृष्टिम बडा ही महत्वपूर्ण है, और इसलिये की जायगी जो प्रत्येक ग्रन्थ लिये १००) रु. की निर्धारित सम्भवतः स्वामीजीक तत्त्वानुशासनका ही जान पड़ता है :की गई है। ग्रन्थ सब संस्कृत-भाषाक हैं। उत्सज्य कायकर्माणि भावं च भवकारणम । ___उक्त सूचनाके माथमें ग्रन्थक मंगलाचरण नथा प्रशस्ति स्वात्मावस्थानमव्यप्रं कायोत्मर्गः स उच्यते । (अन्तभाग) की और एक मन्धिकी भी (यदि संधियों हो नो) ३) मन्मति मृत्रकी दो टीका-सिद्धसनाचार्यका सन्मतिनकल पानी चाहिये । यदि मृचना तार-द्वारा दी जाय तो सूत्र नामका एक प्राकृत ग्रन्थ है, जिस पर दो वाम संस्कृत उ नकल उसके बाद ही डाक रजिस्टरीम भेज देनी चाहिये। टीकाप अभी तक अनपलब्ध हैं-एक दिगम्बराचार्य मन्मति मी स्थितिम तार मिलनका ममय ही सूचना-प्रातिका समय या समनिदेवकी रचना है और दूसरी श्वेताम्बराचार्य मल्लमममा जायगा। सूचना का अन्तिम अवांध फाल्गुन शुक्ल वादी की । दिगम्बराचार्यका टीकाका उल्लेख वादिराजसूरिक पूर्णिमा मंचन २०११ नक है। पार्श्वनाथचरितमें और श्वतारबगचार्यकी टीकाका उल्लंग्य हरिभद्रकी अनेकान्तजयपताका नया यशोविजयके अष्टकिमी अथकी श्लोकसंख्या यदि २०० में ऊपर हो तो महमी-टिप्पणमं निम्न प्रकार पाया जाता है - कुल कापीकी उजरन पुरस्कारको रकमस अलग दी जाएगी 'नमः सन्मतये तम्मै भवकूप-निपातिनाम । और नह दस रुपए हज़ारके हिमायम होगी। मृन अन्य प्रतिक मन्मनिर्विवृता येन सुविधाम प्रवेशिनी ।। हिन्दी लिपिमं दग्बनको आजानस कापी भेजनकी जिम्मेदारी (पार्श्वनाथचरित) समाप्त हो जायगी । तब कापीका प्रबन्ध वीरसंवामंदिर-द्वारा 'उक्त च व दिमुन्येन श्रीमल्लबादिना मम्भतौ ।' हो जायगा। (अनेकान्त जय०) खोजके ग्रन्थोंका परिचय 'इहाथै कोटिशा भंगा निर्दिष्टा मल्लवादिना। (१) जीव-सिद्धि-यह ग्रंथ स्वामी ममन्तभद्रका ग्चा मूल-मम्मति-टीकायामिदं दिमात्रदर्शनम ।। हुआ है और उनक युक्त्यनुशासनकी जोडका प्रन्थ है । श्री (अष्टमहत्री-टि०) जिनसेनाचार्य ने हरिवंशपुराणके निम्न पद्यमें इसे भी भगवान (४) तत्त्वार्थसूत्र-टीका (नस्वार्थालंकार ) शिवकाटिमहावीरके वचनों जैमा महन्धशाली बतलाया है आचार्यकृत-श्रवणबेल्गं लक शिलालेख नं० १०५ (२५५) जीवमिद्धि-विधायीह कृतयुक्त्यनुशासनम । के निम्न पद्यम इस टीकाका पना चलता है और इसमें वचः समन्तभद्रस्य वोरम्येव विज़म्भते ।। प्रयुक्त हुधा 'एतत् ' शब्त इस वानको मृचिन करता है कि (२) तत्त्वानुशासन-यह ग्रन्थ भी स्वामि-समन्तभद्र- यह पद्य उन टीका परसे ही उद्धृत किया गया है. जिम कृत है और रामसेनकृत उस तत्वानुशासनसे भिन्न है जो समन्तभद्रके शिष्य शिवकोटिकी कृति बनलाया गया हैनागसेनके नामसे माणिकचन्दग्रन्थमालामें छपा है। इसका तस्यैव शिष्यः शिवकोटिसूरिस्तपोलनालम्बनदेहयष्टिः । उल्लेख 'दिगम्बर जैनग्रन्थ-कर्ता और उनके प्रन्थ' नामकी संसार-वाराकर-पोतमेतत् तत्त्वार्थसूत्रं तदलंचकार ।। नि Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६] अनेकान्त [ वर्ष १३ (५) त्रिला कदर्थन - यह ग्रंथ स्वामी पात्रकंपरी- हम देश और समाजकी बहुत बड़ी सेवा कर रहे हैं। ऐसी कारचा हुआ है| श्रवणबेलगोलकं मन्निषेणप्रशस्ति नामक कोई नहीं होता पुरस्कार तो शिलालेख नं० ४४ (६७), सिद्धिविनिश्चय टीका और न्याय दर-मकार एवं सम्मान व्यक्र करनेका एक चिन्ह मात्र हे I विनिश्चय-विवरण में इसका उल्लेख है। वादिराजसृग्निं न्याय- ये तो जिस ग्रंथकी भी खोज लगाएंगे उसके 'उद्धारक' समके जाएंगे। --- त्रिलक्षण कदर्थने वा शास्त्रे विस्तरेण श्रीपात्र - कमरि-स्वामिना निपादनाविन्यमभिनिवेशेन आवश्यक निवेदन - इन प्रत्योंके उपलब्ध होनेपर साहित्य, इति श्रीर नवज्ञान विषयक नेत्रपर aer प्रकाश पड़ेगा और अनेक लकी हुई गुधियान इनकी खोज होनी बहुत ही आवश्यक है | अतः सभी विद्वानोंको यामकर जनकलिये शीघ्र ही पूरा प्रयत्न करना चाहिये. सारे शास्त्र भण्डारों की अच्छी होनी चाहिये। उन्हें पुरस्कारको रकमको देखकर यह देखना चाहिये कि इन ग्रन्थोंकी खोज द्वारा -- आचार्य श्री नमिसागरजीकी प्रदेशा आदिको पाकर वीरमेवामन्दिरको उसके साहित्यिक तथा ऐतिहासिक कामोंके लिए जिन सज्जनोंसे जो महायता प्राप्त हुई है उसकी सूची निम्न प्रकार है: १००१ सर्शक मंडली २५१ ) अखिल भा० द० जैन केन्द्रीय महा समिनि ५००) नाला रतनलाल सुकमाल चन्दजी. मेरठ ५००) डा० उत्तमचन्दजी, अम्बाला छावनी (३००) लाला मोतीलाल जी, ३४ दरियागंज देहखी २०१० मंसूरपुर वीर सेवामन्दिरको सहायता (१०१) ला०] हरिश्चन्द्र जी, देहली सहादरा १०)सीता जी मंसूरपुर पाि 30) १०१) जा० रामवसाद जी पंसारी, देहली १०१) ला• ज्योतिप्रसाद श्रीपालजी टाइप वाले देहली १०.) ० भी गोर जो मजन पुरस्कारके अधिकारी होकर भी पुरस्कार लेना नहीं चाहेंगे उनके पुरस्कारको रकम साहित्यिक शोधयोजक विभाग में जमा की जायगी और वह उनकी श्रोरसे किसी दूसरे ग्रंथकी खोज काममें लगाई जायगी। साथ ही उनका नाम उस ग्रन्थ उद्धारक' रूपमें प्रकाशित किया जायगा। जुगलकिशोर मुख्तार धष्ठाता 'वीरसेवामन्दिर १. दरियागंज, दिल्ली नोट- दुसरे पत्र सम्पादकले निवेदन है कि वे भी इस विज्ञप्तिको अपने-अपने पत्र में प्रकाशित करने की कृपा करें। -- २१) जाला जयन्तीप्रमादजी देहली २२) यत्रो मो २५) ० धूमसेन महावीरप्रसादजी कटरा सत्यनारायमा देहली ', २५) श्रीमती राजकली देवी अम्बहटा (सहारनपुर ) २५) ना० दाताराम जी, ७ दरियागंज देहली, २० केदारनाथ चन्द्रमान जी २१) श्री विजयरत्न जी . शिडी देहली फर्मा० १०) अज्ञात मार्फत ना० ज्योतिप्रसादजी टाइप बाल ५) श्रीमती तारादेव २) निवेदक राजकृष्ण जैन व्यवस्थापक वीरसेवा मन्दिर Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सकाम धर्मसाधन लौकिक-फलकी इच्छाओं को लेकर जो धर्ममाधन किया जाय । अन्यथा. क्रिया-बाह्य धर्माचरणके समान होने जाता है उस मकाम धर्मपाधन' कहते हैं और जो धर्म पर भी एकको बन्ध फल दूसरेको मोक्षफल अथवा एकको चैमी इच्छाओंको माथमें न लेकर, मात्र आम्मीय कर्तव्य पुण्यफल और इमरेको पापफल क्यों मिलता है। देखिये, समझकर किया जाता है उसका नाम 'निष्काम धर्ममाधन' कर्मफलकी इस विचित्रताके विषयमें श्रीशुभचन्द्राचार्य शानाहै। निष्काम धर्मसाधन ही वास्तवमें धर्ममाधन है और वही वमें क्या लिखते हैंवास्तविक-फनको फलता है । सकाम धर्मसाधन धर्मको विकृत यत्र बालश्चात्यम्मिन्पथि तत्रैव पण्डितः । करता है. मदोष बनाना है और उसमे यथेष्ट धर्म-फलकी बालः स्वमपि बध्नाति मुच्यते तत्त्वविध्र वम् ॥७२॥ प्राप्ति नहीं हो सकती । प्रत्युत इसके, अधर्मको और कभी अर्थात् -जिस मार्ग पर अज्ञानी चलता है उसी पर कभी घोर पाप-फल की भी प्राप्ति होती है। जो लोग धर्मके ज्ञानी चलता है। दोनोंका धर्माचरण समान होने पर भी वास्तविक स्वरूप और उसकी शक्रिस परिचित नहीं, जिनके अज्ञानी अपने अविवेकके कारण कर्म बाँधता है और ज्ञानी अन्दर धर्य नहीं, श्रद्धा नहीं, जो निर्बल हैं - कमजोर हैं, अपने विवेक द्वारा कर्म-बन्धनसे छूट जाता है। ज्ञानार्णवके उतावले हैं और जिन्हें धर्मके फल पर पूरा विश्वास नहीं, निम्न श्लोकमें भी इसी बातको पुष्ट किया गया हैसे लोग ही फल-प्राप्तिमें अपनी इच्छाकी टाँगें अन्हा कर वेष्टयत्यात्मनात्मानमज्ञानी कर्मबन्धनैः । धर्म को अपना कार्य करने नहीं देने- उस पंगु और विज्ञानी मोचयत्येव प्रबुद्धः ममयान्तरे ॥७१७|| बेकार बना देते हैं, और फिर यह कहते हम नहीं लजाने कि इससे विवेक पूर्वक आचरणका कितना बड़ा माहात्म्य धर्म-साधनसं कुछ भी फलकी प्राप्ति नहीं हुई। ऐसे लोगोंके है उसे बतलानेकी अधिक जरूरत नहीं रहती। समाधानार्थ-उन्हें उनकी भूलका परिज्ञान करानेके लिए ही यह लेख लिखा जाता है, और इसमें प्राचार्य-वाक्योंके द्वारा श्रीकुन्दकुन्दाचार्यने, अपने प्रवचनसारके चारित्राधिकारमें, इसी विवेकका-सम्यग्ज्ञानका-माहात्म्य वर्णन करते ही विषयको म्पष्ट किया जाता है। श्रीगुणभद्राचार्य अपने 'अात्मानुशासन' ग्रन्थमें लिग्वतं हुए बहुत स्पष्ट शब्दों में लिखा है जअण्णाणी कम्म खवेदि भवसयसहस्सकोडीहिं। मंकल्प्यं कल्पवृक्षस्य चिन्त्यं चिन्तामणे पि । तणाणा तिहिं गुत्तो खवेदि उस्सासमेत्तेण ३॥ अमंकल्प्यममंचिन्यं फलं धर्मादवाप्यते ॥२२॥ अर्थात-अज्ञानी-अविवेको मनुष्य जिस अथवा जितमे अर्थात-फलप्रानमें कल्पवृक्ष मकल्पकी ओर चिन्ता. ज्ञानावरणादिरूप कर्मसमूहको शत-सहस्त्र कोटि भवांमेंमणि चिन्ताकी अपेक्षा रखता है- कल्पवृक्ष बिना संकल्प करोडों जन्म लेकर-सय करता है उस अथवा उत्तने कर्मकिये और चिन्तामणि विना चिन्ता किये फल नहीं देनाः समूहको ज्ञानी-विवेकी मनुष्य मन-वचन-कायको क्रियाका परम्नु धर्म वैमी कोई अपेक्षा नहीं रखता - वह बिना संकल्प निरोध कर अथवा उसे स्वाधीनकर स्वरूपमें लीन हमा किरा और बिना चिन्ता किए ही फल प्रदान करना है। उच्छ वाममात्रमें-लीलामात्रमें-नाश कर डालता है। जब धर्म स्वयं ही फल देता है और फल देनेमें कल्प- इससे अधिक विवेकका माहात्म्य और क्या हो सकता वृक्ष तथा चिन्तामणिको शनिको भी मात (पराम्न) करना है? यह विवेक ही चारित्रको 'सम्यचारित्र' बनाता है है, तब फल-प्राप्तिके लिए इच्छाएं करके-निदान बांधकर- और संसार-परिभ्रमण एवं उसके दुःश्व कप्टोंसे मुक्ति दिलाता अपने प्रान्माको व्यर्थ ही संक्लेशिन और पाकुलित करनेकी है। विवेकके बिना चारित्र मिथ्याचारित्र है. कोरा कायक्लेश हे क्या जरूरत है ? ऐमा करनेसे तो उल्टा फल-प्राप्तिके मार्गमें और वह संसार-परिभ्रमण तथा दुःख-परम्पराका ही कारण कांटे बोए जाते हैं। क्योंकि इच्छा फल-प्राप्तिका साधन न है। इसीसे विवेकपूर्वक अथवा सम्यग्ज्ञानके अनन्तर चारित्रका होकर उसमें बाधक है। . अाराधन बतलाया गया है; जैमा कि श्रीअमृतचन्द्राचार्य के इसमें सन्देह नहीं कि धर्म-साधनसे सब सुख प्राप्त निम्न वाक्यसे प्रगट हैहोते हैं। परन्तु नभी तो जब धर्मसाधनमें विवेकसे काम लिया न हि सम्यग्व्यपदेश चारित्रमज्ञानपूर्वक लमते । Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वष १३ झानानन्तरमुक्त चारित्राराधनं तस्मात् ।। ३८ | नहीं होता ? स्वच्छ, शुभ तथा शुद्ध भाव किसे कहते हैं ? और -पुरुषार्थसिद्ध युपाय अस्वच्छ, अशुद्ध तथा अशुभ भाव किसका नाम है ? सांसाअर्थात्-अज्ञानपूर्वक-विवेकको साथमें न लेकर रिक विषय-सौख्यकी तृष्या अथवा तीव्र कषायके वशीभूत हो दसरोंकी देखा-देखी प्रथवा कहने-सनने मात्रसे-जो चरित्र- कर जो पुण्य-कर्म करना चाहता है वह वास्तव में पुण्यकर्मका का अनुष्ठान किया जाता है वह 'सम्यक् चारित्र' नाम नहीं सम्पादन कर सकता है या कि नहीं? और ऐसी इक्छा धर्मपाता-उसे 'सम्यक् चारित्र' नहीं कहते । इसीसे (भागममें) की साधक है या बाधक ? वह खूब समझता है कि सकाम सम्यग्ज्ञानके अनम्तर-विवेक हो जाने पर-चारित्रके मारा- धर्मसाधन मोह-शोभादिसे घिरा रहनेके कारण धर्मकी कोटिसे धनका-अनुष्ठानका-निर्देश किया गया है-रत्नत्रय निकल जाता है। धर्म वस्तुका स्वभाव होता है और इसलिये धर्मकी पाराधनामें, जो मुक्रिका मार्ग है, चारित्रकी धारा कोई भी विभाव परिणति धर्मका स्थान नहीं ले सकती। धनाका इसी क्रमसे विधान किया गया है। इसीसे वह अपनी धार्मिक क्रियाओंमें तद्र.पभावकी योजनाश्रीकुन्दकुन्दाचार्यने, प्रवचनसारमें, 'चारित्तं स्खलुधम्मो' द्वारा प्राणका संचार करके उन्हें सार्थक और सफल बनाता इत्यादि वाक्यके द्वारा जिस चारित्रको-स्वरूपाचरणको-वस्तु- है। ऐसे ही विवेकी जनोंके द्वारा अनुष्ठित धर्मको सब-सुखभाव होनेकेकारण धर्म बतलाया है वह भी यही विवेकपूर्वक का कारण बतलाया है । विवेककी पुट बिना अथवा उसके सम्यक् चारित्र है, जिसका दूसरा नाम साम्यभाव है और जो सहयोगक अभावमें मात्र कुछ क्रियाओं के अनुष्ठानका नाम ही मोह-क्षोभ प्रथया मिथ्यात्व राग-द्वेष तथा काम-क्रोधादिरूप धर्म नहीं है। ऐसी क्रियाएँ तो जड़ मशीनें भी कर सकती विभावपरिणतिसे रहित पारमाका निज परिणाम होता है । हैं। और कुछ करती हुई देखी भी जाती है-फोनोग्रानके वास्तवमें यह विवेक ही उस भावका जनक होता है जो कितने ही रिकार्ड खूब भक्ति-रसके भरे हुए गाने तथा भजन धर्माचरणका प्राण कहा गया है। बिना भावके तो क्रियाएं गाते हैं और शास्त्र पढ़ते हुए भी देखने में आते हैं । और फलदायक होती ही नहीं है । कहा भी है भी जड़मशीनोंसे आप जो चाहें धर्म की बाह्य क्रियाएँ करा ___“यस्मात् क्रियाः प्रतिफलन्ति न भावशून्या:" सकते हैं । इन सब क्रियाओंको करके जडमशीनें जिस प्रकार तदनुरूप भावके बिना पूजनादिककी, तप-दान-जपादिककी और धर्मात्मा नहीं बन सकती और न धर्मके फलको ही पा यहां तक कि दीक्षाग्रहणादिककी सब क्रियाएँ भा ऐसी ही निरर्थक सकती हैं, उसी प्रकार अविवेकपूर्वक अथवा सम्यग्ज्ञानक हैं जैसेकि बकरीके गलेके स्तन (थन), अर्थात् जिस प्रकार बकरी बिना धर्मकी कुछ क्रियाएँ कर लेने मात्रसे ही कोई धर्मात्मा के गले में खटकते हुए स्तन देखनेमें स्तनाकार होते हैं, परंतु वे नहीं बन जाता और न धर्मके फलको ही पा सकता है। ऐसे स्तनोंका कुछ भी काम नहीं देते-उनसे दूध नहीं निक- अविवेकी मनुष्यों और जड़ मशीनोंमें कोई विशेष अन्तर बता-उसी प्रकार बिना तदनुकूल भावके पूजा-तप-दान- नहीं होता-उनकी क्रियानोंको सम्यक्चारित्र न कह कर अपादिककी उन सब क्रियाएँ भी देखनेकी ही क्रियाएँ होती यांत्रिक चारित्र' कहना चाहिये। हां, जड़मशीनोंकी अपेक्षा हैं, पूजादिकका वास्तविक फल उनसे कुछ भी प्राप्त नहीं ऐसे मनुष्योंमें मिथ्याज्ञान तथा मोहकी विशेषता होनेके कारण हो सकता है! वे उसके द्वारा पाप-बन्ध करके अपना अहित जरूर कर लेते ज्ञानी विवेकी मनुष्य ही यह ठीक जानता है कि पुण्य हैं-जब कि जड़मशीनें पैसा नहीं कर सकतीं। इसी यांत्रिक किन भावोंसे बंधता है, किनसे पाप और किनसे दोनोंका बन्ध चारित्रके भुलावेमें पड़कर हम अक्सर भूले रहते हैं और यह समझते रहते हैं कि इनने धर्मका अनुष्ठान कर लिया ! इसी ®चारित्तं खलु धम्मो धम्मो जो समोत्ति णिदिहो। तरह करोबों जन्म निकल जाते हैं और करोड़ों वर्षकी बालमोहक्खोहविहीणो परिणामो अप्पणो हु समो ॥७॥ तपस्यासे भी उन कोका नाश नहीं हो पाता, जिन्हें एक x देखो, कल्याणमन्दिरस्तोत्रका 'आकरिणतोऽपि' मा ज्ञानी पुरुष त्रियोगके संसाधन-पूर्वक क्षणमात्रमें नाश कर माद पद्य। डालता है। प्रस्तु। भावहीनस्य पूजादि-तपोदान-जपादिकम् । इस विषयमें स्वामी कार्तिकेयने, अपने अनुप्रेक्षा ग्रन्थमें, व्यर्थ दीक्षादिकं च स्यादजाकण्ठे स्तनानिव॥" कितना ही प्रकाश डाला है। उनके निम्न वाक्य खास तौरसे Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भान देने योग्य है :- हाता ह। सि व होति स ध्याय किरण २) सकाम धर्मसाधन [8 होता है। इसलिए उसके द्वारा वीतराग भगवान्की पूजाकम्म पुगणं पावं हेऊ तेसि च होंति सच्छिदरा। भकि-उपासना तथा स्तुतिपाठ. जप-ध्यान, सामायिक, स्वामंदकसाया सच्छा तिव्वकसाया असच्छा हु॥ ध्याय, नप, दान और प्रत-उपवासादिरूपसे जो भी धार्मिक जीवो विहवइ पावं अइतिव्वकसायपरिणदो णिच्च। क्रियाएँ बनती हैं वे सब उसके प्रारमकल्याणके लिए नहीं जीबो हवेइ पुगणं उवसमभावेण संजुत्तो॥ होतों-उन्हें एक प्रकारकी सांसारिक दुकानदारी ही समझना जोअहिलसेदि पुराणं सकसाभो विसयसोक्खतण्हाए। चाहिए । ऐसे लोग धार्मिक क्रियाएं. करके भी पाप उपार्जन दूरे तस्म विसोही विसोहिमूलाणि पुण्णाणि || करते हैं और सुखके स्थानमें उल्टा दुखको निमन्त्रण देते हैं। पुण्णासएण पुरण जदो गिरीहस्स पुण्णसंपत्ती। ऐसे लोगोंकी इस परिणतिको श्री शुभचन्दाचार्याने, ज्ञानार्णइय जागिऊण जइणो पुणे वि म आयरं कुणह॥ वग्रन्थके २५वें प्रकरणमें, निदान-जनित प्रात्त ध्यान लिखा पुण्णं बंधदि जीवो मंदकसाएहिं परिणदो संतो। है और उसे घोर दुःखोंका कारण बतलाया है । यथातम्हा मंदकसाया हेऊ पुण्णस्स ण हि बंछा।। पुण्यानुष्ठानजातैरभिलषति पदं यजिनेन्द्रामराणां, -गाथा नं० १०, ११०,४१० से ४१२ यद्वा तैरेव वांछयहितकुलकुजच्छेदमत्यन्तकोपात् । इन गाथाओं में बतलाया है कि-'पुण्य कर्मका हेतु पूजा सत्कार-लाभ-प्रभृतिकमथवा याचते यद्विकल्पः सच्छ, (शुभ परिणाम है और पाप कर्मका हेतु अस्वच्छ म्यादात्त तन्निदानप्रभवमिहनृणां दुःखदाबोप्रधामं ॥ 'अशुभ या अशुद्ध) परिणाम । मंदकषायरूप परिणामों को अर्थात् -अनेक प्रकारके पुण्यानधनोंको-धर्म कृत्योंको म्वच्छ परिणाम और तीबकवायरूप परिणामोंको अस्वच्छ करके जो मनुष्य तीर्थकरपद तथा दूसरे देवोंके किसी पदकी परिणाम कहते हैं। जो जीव अनितीन कषायसे परिणत होता इच्छा करता है अथवा कुपित हुआ उन्हीं पुण्याचरणोंके है, वह पापी होता है और जो उपशमभावसे-कषायकी द्वारा शत्रुकुल-रूपी वृक्षोंके उच्छेदकी वांछा करता है, और मंदतासे-युक रहता है वह पुण्यात्मा कहलाता है । जो या अनेक विकल्पोंके साथ उन धर्म-कृत्योंको करके अपनी जीव कषायभावसे युक्त हुआ विषयमौख्यकी तृष्णासे-इंद्रिय- लौकिक पूजाप्रतिष्ठा तथा लाभादिककी याचना करता है, विषयको अधिकाधिक रूपमें प्राप्त करनेकी तीव्र इच्छासं उसकी यह सब सकाम प्रवृत्ति 'निदानज' नामका, मार्तध्यान पुण्य करना चाहता है-पुण्य क्रियाभोंके करनेमें प्रवृत्त होता है। ऐसा पार्तध्यान मनुष्योंके लिए दुःख-दावानलका अनहै-उससे विशुद्धि बहुत दूर रहती हैं और पुण्य-कर्म स्थान होता है -उससे महानुःखोंकी परम्परा चलती है। विशुद्धिमूलक-चित्तकी शुद्धि पर धाधार रखने वाले होते हैं। वास्तवमें प्रार्तध्यानका जन्म ही संक्लेश परिणामोंसे अतः उनके द्वारा पुण्यका सम्पादन नहीं हो सकता-वे होता है, जो पाप बन्धके कारण हैं। ज्ञानावके उक्त प्रकरअपनी उन धर्म नामसे अभिहित होनेवाली क्रियाओंको यान्तर्गत निम्न श्लोकमें भी पाभ्यानको कृष्ण-नील-कापोत करके पुण्य पैदा नहीं कर सकते । चूकि पुण्यफलकी इच्छा ऐसी तीन अशुभ लेश्याभोंके बल पर हो प्रकट होने वाला रखकर धर्मक्रियाओंके करनेसे-पकाम धर्मसाधनसे-पुण्य- लिखा है और साथ ही यह सूचित किया है कि यह मार्चकी सम्प्राप्ति नहीं होती, बल्कि नकाम-रूपसं धर्मासाधन यापी ध्यान पाप,रूपी दावानलको प्रज्वलित करनेके लिए इन्धनक वान पनि करने वाले के ही पुण्यकी संप्राप्ति होती है, ऐसा जानकर पुण्य- समान हैमें भी प्रासक्रि नहीं रखना चाहिए । वास्तव में जो जीव मंद कृष्ण नीलाद्यसल्लेश्याबलेन प्रविज़म्भते। कषायसे परिणित होता है वही पुण्य बांधता है, इस लिये इद दुरितदावाचिः प्रसूतेरिन्धनोपमम् ॥१०॥ मन्दकषाय हो पुण्यका हेतु है, विषयवांछा पुरयका हेतु नहीं इससे स्पष्ट है कि लौकिक फलोंकी इच्छा रखकर धर्म विषयवांछा अथवा विषयासक्ति तीनकषायका लक्षण है साधन करना धर्माचरणको दूषित और निष्फल ही नहीं और उसका करने वाला पुण्यसे हाथ धो बैठता है। बनाता, बल्कि उल्टा पापबन्धका कारण भी होता है, और इन वाक्योंसे स्पष्ट है कि जो मनुष्य धर्म-साधनके इसलिए हमें इस विषयमें बहुतही सावधानी रखनेकी जरूरत द्वारा अपने विषय-कषायोंकी पुष्टि एवं पूर्ति चाहता है उसकी है। हमारा सम्यक्त्व भी इससे मलिन और खण्डित होता कषाय मन्द नहीं होती और न वह धर्मके मार्ग पर स्थिर ही है। सम्यक्रवके पाठ अंगोंमें निःकाषित नामका भी.. Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६.] भनेकान्त वर्ष १३ अंग है, जिसका वर्णन करते हुए श्रीअमितगति प्राचार्य छान किया जाता है तो वह अनुष्ठान धर्मकी कोटिसे निकल उपासकाचारके तीसरे परिच्छेदमें साफ लिम्वते हैं जाता है-ऐसे सकाम धर्मसाधनको वास्तव में धर्मसाधन ही विधीयमानाः शम-शील-संयमाः नहीं कहते । धर्मसाधन तो स्वरूपसिद्धि अथवा आत्मविकास भियं ममेमे वितरन्तु चिन्तिताम् । के लिये प्रात्मीय कर्तव्य समझ कर किया जाता है, और, सांसारिकानेकसुखप्रवद्धिनी इसलिये वह निष्काम धर्मसाधन ही हो सकता है। निष्कांतितो नेति करोति कांक्षाम् ||७४।। इस प्रकार सकाम धर्मसाधनके निषेधमें पागमका स्पष्ट अर्थात-नि:कांक्षित अंगका धारक सम्यग्दृष्टि इसीय प्राचार्योकी खली प्राश होने की प्रकारकी बांछा नहीं करता है कि मैंने जो शम, शील और खेद है कि हम आज-कल अधिकांशमें सकाम धर्मसाधनको संयमका अनुष्ठान किया है वह सब धर्माचरण मुझे उस ओर ही प्रवृत्त हो रहे हैं। हमारी पूजा-भकि-उपासना,स्तुतिमनोवांच्छित लक्ष्मीको प्रदान करे जो नाना प्रकारके सांसा वन्दना-प्रार्थना, जप, तप, दान और संयमादिकका सारा लक्ष रिक सुखोंमें वृद्धि करनेके लिए समर्थ होती है-ऐसी बांछा लौकिक फलोंकी प्राप्तिकी तरफ हो लगा रहता है-कोई करनेसे उसका सम्यक्त्व दूषित होता है। उस करके धन-धान्यकी वृद्धि चाहता है तो कोई पुत्रकी इसी निःकांक्षित सम्यग्दृष्टिका स्वरूप श्रीकुन्दकुन्दा संप्राप्ति । कोई रोग दूर करनेकी इच्छा रखता है. तो कोई चार्यने 'समयसार' में इस प्रकार दिया है शरीरमें बल लाने की। कोई मुकदमेमें विजयलाभक लिये जो ण करेदि दु ख कम्मफले तह य सव्वधम्मसु । उसका अनुष्ठान करता है, तो कोई अपने शत्रको परास्त सोणिक्कंखो चेदा सम्मादिही मुणेयन्वो ।। २४८॥ करनेके लिये। कोई उसके द्वारा किसी ऋद्ध-सिद्धिकी अर्थात्-जो धर्मकर्म करके उसके फलकी-इन्द्रिय- साधनामें ब्यग्र है, तो कोई दूसरे लौकिक कार्योको सफल विषयसुखादिकी इच्छा नहीं रखता है-यह नहीं चाहता है बनानेकी धुनमें मस्त । कोई इस लोकके सुम्बको चाहता है. कि मेरे अमुक कर्मका मुझे अमुक लौकिक फल मिले- तो कोई परलोकमें स्वर्गादिकोंके सुग्वोंकी अभिलाषा रम्वता और न उस फल साधनकी दृष्टिस नाना प्रकारक पुण्यरूप है। और कोई-कोई तो तृष्णाक वशीभूत होकर यहां तक धोको ही इष्ट करता है-अपनाता है और इस तरह अपना विवेक खो बैठता है कि श्रीवीतराग भगवानको भी निष्कामरूपस धर्मसाधन करता है, उस नि.कांक्षित सम्यग रश्वत (घूम ) देने लगता है--उनसे कहने लगता है कि दृष्टि समझना चाहिये। हे भगवान , आपकी कृपास यदि मेरा अमुक कार्य सिद्ध हा यहां पर में इतना औरभी बतला देना चाहता हूं कि जायेगा तो में आपकी पूजा करूंगा, सिद्धचक्रका पाठ श्रीतत्त्वार्थसूत्रमें क्षमादि दश धर्मोक साथमें उत्तम' विशेषण थापूगा, छत्र-चवरादि भेट करूंगा, स्थ-यात्रा निकलवाऊँगा, लगाया गया है-उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दवादिरूपस दश गज-रथ चलवाऊँगा अथवा मन्दिर बनवा दूंगा!! ये सब धोका निर्देश किया है। यह विशेषण क्यों लगाया गया धर्मकी विडम्बनाएँ है ! इस प्रकारकी विडम्बनानास अपनेहै? इस स्पष्ट करते हुए श्रीपूज्यपाद आचार्य अपनी मर्वार्थ को धर्मका कोई लाभ नहीं होता और न प्रारम-विकास ही सिद्धि' टीका लिखते हैं मध सकता है। जो मनुष्य धर्मकी रक्षा करता है-उसके विषयमें विशेष सावधानी रखता है-उस विडम्बित या "दृष्टप्रयोजनपरिवर्जनार्थमुत्तमविशेषणम् ।' कलंकित नहीं होने देता, वही धर्मके वास्तविक फल को पाता अर्थात् -लौकिक प्रयोजनोंको टालनेके लिए 'उत्तम' है। 'धर्मो रक्षति रक्षितः' की नीतिके अनुसार रक्षा किया विशेषणका प्रयोग किया गया है। हा धर्म ही उसकी रक्षा करता है और उसके पूर्ण विकास इससे यह विशेषणपद यहां 'सम्यक् शब्दका प्रतिनिधि को सिद्ध करता है। जान पड़ता है और उसकी उक्र व्याख्यासे स्पष्ट है कि किसी ऐसी हालनमें सकाम धर्मसाधनको हटाने और धर्मकी लौकिक प्रयोजनको लेकर कोई दुनियावी राज साधनक विडम्बनाओं को मिटानेके लिये समाजमें पूर्ण आन्दोलन होने लिये-यदि क्षमा-मादेव-पार्जव-सत्य-शौच, संयम-तप-त्याग- की जरूरत है। तभी समाज विकसित तथा धर्मके मार्ग पर आकिंचन्य ब्रह्मचर्य इन दश धर्मो में से किसीभी धर्मका अनु- अग्रसर हो मांगा, तभी उसकी धार्मिक पोल मिटेगी और Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण २] सखि ! पर्वराज पर्युषण आये तभी वह अपने पूर्व गौरव-गरिमाको पात कर सकेगा। इस भूलोक सुधारका सातिशय प्रयत्न कराना चाहिये। यह इस लिये समाजके सदाचारनिष्ठ एवं धर्मपरायण विद्वानों को आगे ममय उनका खाम कर्तव्य है और बड़ा ही पुण्य-कार्य है। पाना चाहिये और ऐस दूषित धर्माचरणोंकी युक्रि-पुरस्पर ऐसे प्रान्दोलन-द्वारा सन्मार्ग दिन्बलानेके लिये अनेकान्तका खरी-खरी आलोचना करके समाजको सजग तथा सावधान द्वार खुला हश्रा है। वे इसका यथेष्ट उपयोग कर सकते हैं करते हुए उसे उसकी भूलोंका परिज्ञान कराना चाहिये तथा और उन्हें करना चाहिये। -जुगलकिशार मुप्तार FEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEES सखि! पर्वराज पयूषण आये। [ लेखक-मनु 'शानार्थी ] में कनसे पथ देख रही थी; भादोंकी रङ्गीन धरा पर; भवके वन्धन ढीले करने, पर्वराज प्रियतम पर्युषण । युगकी सोई साध जगाने आये। सखि ! पर्वगज..... .. गुरुतम क्षमा मार्दव आर्जव __ सत्य शौच सयम आकिंचन त्याग तपस्या ब्रह्मचर्यमय, रत्न-दशकके ज्योति-पुंजसे, गगन-अवनिका छोर मिलाने आये। सखि ! पर्वराज ..... अब देखू तो अन्तस्तल में; परको छोड़ निहारू घर में: म्वच्छ साफ है; पड़े नहीं हैं __ काम क्रोध मायाके छींटे ? पर; मैंने निज अन्तर-घट रीते पाये। सखि ! पर्वराज...... से करूं अतिथिका स्वागत, स्वच्छ नहीं मेरा मानस-गृह ? अर्घ चढ़ानेके पहले ही; लौट न जायें मेरे प्रभुवर ? ___ जगकी अन्तर-ज्योति जगाने आये। सखि ! पर्वराज'..... ccccceECCCCCCCEEReetecEEEEEEEEEEEEEEE+ Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय १. दो नये पुरस्कारोंकी योजनाका नतीजा गत वर्ष जुलाई मालकी किरय नं० २ में मैंने ४२५) के दो नये पुरस्कारोंकी योजना की थी, जिसमें से १२५ का एक पुरस्कार 'मवंशके संभाव्यरूप' नामक निबन्ध पर था और दूसरा ३००) १० का पुरस्कार समन्तभड़के 'विधे वार्थ वा इत्यादि वाक्यकी ऐसी विशद व्याख्याके लिये था जिससे सारा 'तब नय-विलास' सामने श्राजाय । निबन्धोंके लिए दिसम्बर तकी अवधि नियत की गई थी और बाइको उसमें फर्वरी तक दो महीनेकी और भी वृद्धि कर दी गई थी। साथ ही कुछ खाम विद्वानोंको मौखिक तथा पत्रों द्वारा निबन्ध लिखनेकी प्रेरणा भी की गई थी। परन्तु यह सव कुछ होते हुए भी खेदके साथ लिखना पड़ता है कि किसी भी विद्वान या विदुषी स्त्रीने निबन्ध लिखकर भेजने की कृपा नहीं की । पुरस्कारकी रकम कुछ कम नहीं थी और न यही कहा जा सकता है कि इन निबन्धोंके विषय उपयोगी नहीं थे फिर भी विद्वानोंकी उनके विषयमें यह उपेक्षा बहुत ही अखरती है और इसलिए साहित्यिक विषयके पुरस्कारोंकी योजनाको भागे सरकानेके लिए कोई उम्माह नहीं मिल रहा है। अतः अब आगे कुछ ग्रन्थोंके अनुसन्धान के लिए' पुरस्कारोंकी योजना की गई है। जिसकी विज्ञप्ति इसी किरयामें अन्य प्रकाशित है। २. डा० भायाणीने भूल स्वीकार की a अनेकान्तकी गत किरणमें 'डा० भायाणी एम० ए० की भारी भूल' इस शीर्षक के साथ एक नोट प्रकाशित किया गया था, जिसमें उनके द्वारा सम्पादित स्वयम्भू देवके 'पउमचरिउ' की अंग्रेजी प्रस्तावनाके एक वाक्य Marudexi saw series of fourteen dreams) पर आपत्ति करते हुए यह स्पष्ट करके बतलाया गया था कि मूल अन्य में मरुदेवीके चौदह स्वप्नोंका नहीं किन्तु सोलह स्वप्नोंको देखनेका उल्लेख है। साथ ही इस मूलको सुधारने की प्रस्था भी की गई थी । इस पर डा० साहबने उदारता-पूर्वक अपनी भूल स्वीकार की है और लिखा है कि ग्रन्थके तीसरे खण्ड में गलतीका संशोधन कर दिया जायगा, यह प्रसन्नताकी बात है। इस विषय में उनके २६ जुलाईके पत्र के शब्द निम्न प्रकार हैं "आपकी टीका पढ़ी। fourteen dreams जो लिखा गया है वह मेरी स्पष्ट गलती है और इसलिए मैं विद्वानों तथा पाठकोंका प्रमाप्रार्थी है। इससे आपको और अन्यको जो दुःख हुआ हो, उससे मुझे बहुत खेद है। 'पउमचरिउ ' के तीसरे खगडमें उसकी शुद्धि जरूर कर लूंगा ।" ३ – उत्तम ज्ञानदान के आयोजनका फल दो-ढाई वर्ष से ऊपरका अर्का हुआ जब एक उदार हृदय धर्मबन्धुने, जिनका नाम अभी तक अज्ञान है और जिन्होंने अपना नाम प्रकट करना नहीं चाहा, सेठ मंगल जी छोटेलाल जी कोटावालोंकी मार्फत मेरे पास एक हजार रुपये भेजे थे और यह इच्छा व्यक्त की थी कि इन रुपयोंसे ज्ञानदानका श्रायोजन किया जाय अर्थात् जैन-अजैन विद्वानों, विदुषी स्त्रियों और उच्च शिक्षाप्राप्त विद्यार्थियों एवं साधारण विद्यार्थियों को भी जैन धर्म-विषयक पुस्तकें वितरण की जाएँ । साथ ही खास-खास यूनिवर्सिटियों, विद्यालयों कालिजों और लायन रियोंको भी वे दी जाए। और सब आयोजनको. कुछ सामान्य सूचनाओं साथ मेरी इच्छा पर छोड़ा था। तदनुसार ही मैंने उस समय दातारजी की पुनः अनुमति गाकर एक विज्ञप्ति जैनसन्देश और जेनमिमें प्रकाशित की थी, जिसमें श्राप्तपरीक्षा, स्वयम्भूस्तोत्र, स्तुतिविद्या, युक्यनुशासन और अध्यात्मकमलमातंग आदि घाट प्रन्थोंकी सामान्य परिचयके साथ सूची देते हुए. जैन- जैनेत्तर विद्वान, विदुषी स्त्रियों, विद्यार्थियों, यूनिवर्सिटियों, कालियों विद्यालयों और विशाल लायब्ररियोंको प्ररणा की थी कि वे अपने लिए जिनग्रन्थों को भी मैगाना आवश्यक समर्थ उन्हें शीघ्र मँगाले । तदनुसार विद्वानों आदिके बहुत से पत्र उम 1 समय प्राप्त हुए थे, जिनमें से अधिकांशको आठों प्रयोक पूरे सेट और बहुतोंको उनके पत्रानुसार अधूरे सेट भी भेजे गये किसमोंने अधिक प्रन्थोंकी इच्छा व्यक्र की परन्तु उन्हें जितने तथा जो ग्रन्थ अपनी निर्धारित नीतिके अनुसार भेजने उचित समझे गये वे ही भेजे गये, शेषके लिए इन्कार करना पढ़ा। जैसे कुछ लोगोंने अपनी साधारण धरू पुस्तकालय के लिये सभी ग्रंथ चाहे जो उन्हें नहीं भेजे जा सके; फिर भी जिन लोगों की मांगें भाई उनमें प्रायः सभीको कोई न कोई मन्थ भेजे जरूर गये हैं। इसके सिवाय देश-विदेश अनेक विद्वानों, यूनिवर्सिटियों, कालिजों तथा लायन रियोंको अपना Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फिरण २] पीरसेवा मन्दिरको स्वीकृत सहायता पोस्टेज लगाकर भी ग्रन्थ मेजे गये हैं। और कुछको साक्षात् अभी तक भी भाती रहती हैं जिन्हें पूरा करनेके लिये प्रसभेंट भी किए गये हैं। इस तरह उन दानको रकमसे १३००) मर्थना म्या करनी पड़ती है। यदि कोई दूसरे दानी महानु से उपरके मूल्य वाले अन्ध वितरित हुए है, जिन्हें प्राप्त कर भाव शास्त्रदान जैसे पुण्य-कार्यों लिए दशलक्षण जैसे अनेक विद्वानों ने अपना मानन्द तथा आभार व्यक्त पावन पर्वमें कुछ दव्य निकाले तो उनकी ओरसे यह उत्तम शानदानके पायोजनका सिलसिला जारी रखा जा सकता वितरणका यह कार्य अर्सा हुआ समाप्त हो चुका है, है। प्राशा है उदार हृदय महानुभाव इस ओर भी ध्यान फिर भी कुछ लोगों की मांगे पासपरीशादि जैसे प्रन्थोंके लिये देनेकी कृपा करेंगे। किया है। का यह कार्य असा परीक्षादि जैसे " वीरसेवामन्दिरको स्वीकृत सहायता आचार्य श्रीनमिमागरजीजी की प्रेरणा आदिको १०१) ला रंगीलाल श्रीपालजी जैन, दरियागंज, देहली पाकर वीरसेवामन्दिरको उसके साहित्यक तथा ऐति- १.१) श्रीमती कान्ता देवी, न्यू इण्डिया मोटर्स कम्पनी हासिक कामों के लिये जिन सज्जनोंने जो सहायता १.१) श्रीमती स्यालकोट वाली बहिन ला-अमरनाथजी, स्वीकृत की है उसकी सूची निम्न प्रकार है। इसमें से ५१) लाला दीवानचन्दजी सुपुत्र लाला दीपचन्दजी जो सहायता अब तक प्राप्त हो चुकी है उसकी सूची भउमर वाले इसी किरण में अन्यत्र दी गई है : ५१) ला. जयन्तीप्रसादजी १५००) ला मोतीलालजी, ६४ दरियागंज, देहली २५) ला धूमसेन महावीरप्रसादजी कटरा सत्यनारायण १५००) डा. उत्तमचन्दजी, अम्बाला छावनी २५) ला० रामकरणदासजी, बहादुरगंजमण्डी १००१) अखिल भा०दि. जैन केन्द्रीय महासमिति २५) ला. रघुवीरसिंहजी फर्म ला० केदारनाथ चन्द्रधर्मपुरा देहली। भानजी, बहादुरगंजमंडी १००१) राय सा. ला. उल्फतरायजी,७/३३ दरियागंज २५) श्रीमतीराजकलीदेवी अम्बहटा (सहारनपुर) १०.१) ला० प्यारेलालजी जैन सर्राफ, सब्जी मण्डी, २५) ला० दातारामरायजी ७ दरियागंज देहली २००१) ला० जुगमन्दरदास शीतलप्रसादजी मेरठ सदर २१) ला. विजयरत्नजी १०.१) पं. राजेन्द्र कुमारजी। ११) ला० पन्नालालजी, २१ दरियागंज देहली ६०१) ला० आनन्दस्वरूपजी सुनपत वाले, देहली ११) ला• माल्तीप्रसादजी मंसूरपुर ५०१) ला० विमलप्रसादजी मा० ला. हरिश्चन्द्रजी, १०) अज्ञान् मा०ला. ज्यातीप्रसादजी टाइप वाले ५००) ला सुकमालचन्द्रजी मेरठसिटी ५) श्रीमती तारादेवी २०१) ला• मनाहरलाल नन्हेंमलजी जैन, दरियागंज,' ५) ला० शिखरचन्दजी मब्जी मण्डी २०१) बा.खजानसिंह विमलप्रसादजी मंसूरपुर ११५८४) २०१) ला० नेमिचन्दर्जी मंगलार पीर सेवामन्दिरको सहायता १७५) ला० नानकचन्दजी सोनीपत वाले, सैंट्रल गत वीरशासन जयन्ती और वीरसेवामन्दिरके १०१) धर्म पत्नो ला० सुमेरचन्दजी खजांची नूतन-भवनके शिलान्यासके अवसर पर श्रीमान् राय१०१) ला० शिखरचन्दजी ३ दरियागंज, देहली बहादुर ला०दयाचन्द्र जीदरियागंज देहली ने वीर१०१) ला० रामप्रसादजी किराना मर्चेन्ट, देहली सेवामन्दिरको उसके साहित्यिक कार्योंके लिए ५००) १०१) ला• हरिश्चन्द्रजी देहली-शाहदरा रुपयेको सहायताका वचन दिया है, जिसके लिए वे १०१) ला होशयारसिंह शीतलप्रसादजी मंसूरपुर धन्यवादके पात्र हैं। १०१) ला• ज्योतिप्रसादजी टाइप वाले, मस्जिद खजूर मैनेजर-वीरसेवामंदिर Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य परिचय और समालोचन १. श्रीमहावीर स्तोत्रम् -'चन्द्रदूत काव्य और गैट अप चित्राकर्षक है। सस्तासाहित्यमण्डलने और विद्वत्प्रबोध शास्त्र एवं नग्सुन्दरगणिकी अब- इस पुस्तकका प्र इम पुस्तकको प्रकाशित कर असम्प्रदायक उदारताका चूरिसे अलंकृन) प्रकाशक, श्राजिनदत्तसूरि-ज्ञान जो परिचय दिया है वह सराहनीय है। आशा है भंडार, मूरत । पृष्ठ सख्या ६४ । मूल्य भेंट। भ वष्यमें अन्य भी शिक्षाप्रद जैन कथानकोंको मंडल प्रस्तुत ग्रन्थमें खरतर गच्छीय अभयदेवमरिके द्वारा प्रकाशमें लाया जायगा। शिष्य जिनवल्लभसूरि द्वारा रचित 'महावीर स्तोत्र'३० ३गृहस्थ धर्म-- लेखक स्व० ०शीतलप्रसाद जी। पद्यों में दिया हुआ है, और उम पर नरसुन्दरगणीकी प्रकाशक, मूलचन्द किसनदास जी कपड़िया, सूरत । अवचूरि भी साथमें दी हुई है। पृष्ठ मंख्या २७२, मूल्य सजिल्द प्रतिका ३) रुपया। महावीर स्तोत्र अच्छा भावपूर्ण स्तवन है। यह प्रस्तुत ग्रन्थका नाम उसके विपयमे स्पष्ट है। स्तवन विक्रमकी १२ वीं शताब्दी (सं० ११२५-११६७) इसमें गर्म से लेकर मरण पर्यन्त तक सभी आवश्यक की रचना है। अवचरिको रचना कब हुई, यह कुछ क्रियाओंका स्वरूप और उनके करनेको विधिका परिज्ञान नहीं हो सका । उक्त स्तात्रके कर्ता जिनवल्लभ चय दिया हुआ है। यह ग्रन्थ ३१ अ-यायांमें विभक्त सरिजी प्राकृत मंस्कृत भाषाके अच्छे विद्वान थे। है गृहस्थ तुलनात्मक अध्ययनको लिए हुये एक उन्होंने अनेक स्तोत्र-ग्रन्थोंकी रचना की है। विचारपूर्ण पुस्तक लिखे जानेको आवश्यकता है। दूमरी रचना चन्द्रदूतकाव्य है जिसके कर्ता फिर भी वह पुस्तक उसकी आंशिक पूर्ति तो करती ही साधु सुन्दरके शिष्य विमलकीर्ति हैं । और 'विद्वत्प्रबोध है । छपाई सफाई साधारण है। शास्त्रक कर्ता वल्लभगणी हैं।। ४. चारुदत्त चरित्र-लेखक पं० परमेष्ठीदास इस ग्रन्थकी प्रस्तावनाके लेग्वक मुनि मंगलसागर जैन न्यायतीर्थ । प्रकाशक, मूलचन्द किसनदास कापहैं। ग्रन्थकी छपाई सफाई अच्छो है । ग्रन्थका प्रका का डिया मूरत । पृष्ठ संख्या १५६, मूल्य १॥)। शन बालाघाट वालोंकी ओरसे हुश्रा है, और वह प्रस्तुत पुस्तकमें चम्पा नगरीके सेठ चारुदत्तका प्रकाशन स्थानसे भेंट स्वरूप प्राप्त हो सकता है। जीवन-परिचय दिया हुआ है। लेखकने उक्त चरित्र २. बाहुबली और नेमिनाथ-बाबू माईद- सिंघई भारामलके पदामय चारुदत्त चरित्र, जो संवन् याल जैन मम्पादक, यशपाल जैन। प्रकाशक, मार्तण्ड १८१३ का रचा हुआ है, से लेकर लिखा है। जहाँ उपाध्याय, मन्त्री सस्तासाहित्य मण्डल, नई दिल्ली। कोई बात विरुद्ध या अमंगत जान पड़ी, उसके मम्बपृष्ठ संख्या ३२ मूल्य छः आना। न्ध फुट नोट में म्बुलाशा करनेका यत्न भी किया गया उक्त पुस्तक समाज-विकास माला का १६ वां है। चरित नायक किस तरह वेश्या बन्धनमें पड़ कर भाग है। इममें बाहुबली और नेमिनाथकं नप और अपनी करोड़ोंकी सम्पत्ति दे डालता है, और अपने त्यागकी कथा शिक्षाप्रद कहानीके रूपमें अंकित की परिवार के साथ स्वयं भी अनन्त कष्टोंका मामना करता गई है। पुस्तककी भाषा मरले है और उक्त महपुरुषों हुआ दुःखी होता है और विषयासक्तिके उस भयंकर के जीवन परिचयको माररूपमें रखनेका प्रयत्न किया परिणामका पात्र बनता है। परन्तु अन्तमें विवेकके गया है। माथमें कुछ चित्रोंकी भी योजना की गई है जागृत होने पर किए हुए उन पापोंका प्रायश्चित करने जिमसे पुस्तककी उपयोगिता बढ़ गई है। पुस्तकमें दो तथा आत्म-शाधनके लिए मुनिव्रत धारण किया, और एक वटकने योग्य भूलें रह गई हैं जैसे पोदनपुरको अपने व्रतोंको पूर्ण दृढ़ताके साथ पालन कर महद्धिक अयोध्याके पास बतलाना । जलयुद्धकी घटनामें विजय- देव हुआ। पुस्तकके भाषा साहित्यको और प्रांजल के कारणको स्पष्ट न करना और नेमिनाथके साधु बनानेकी आवश्यकता है, अस्तु पुस्तककी छपाई तथा होने पर उन्हें साधुके मामलो कपड़े पहने हुए बतलाना सफाई माधारण है, प्रेस सम्बन्धी कुछ अशुद्धियाँ जब कि वे जिनकल्पी दिगम्बर साधु थे। यह सब खटकने योग्य हैं। फिर भी प्रकाशक धन्यवादाह हैं। होते हुए भी पुस्तक उपयोगी है, छपाई सफाई सुन्दर परमानन्द जैन Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीरसेवामन्दिरके सुरुचिपूर्ण प्रकाशन (१) पुरातन-जैनवाक्य-मृची-प्राकृतके प्राचीन ६४ मूल-ग्रन्यांकी पद्यानुक्रमणी, जिसके साथ ४८ टीकादिग्रन्या में उद्धृत दुसरे पद्योंकी भी अनुक्रमणी लगी हुई है । सब मिलाकर २१३५३ पद्य-वाक्योंकी सूची। संयोजक और सम्पादक मुख्तार श्रीजुगलकिशारजी की गवेषणापूर्ण महत्वकी १७० पृष्ठकी प्रस्तावनासे अलंकृत, डा. कालीदास नागर एम. ए., डी. लिट् के प्राक्कथन (Foresord) और डा. ए. एन. उपाध्याय एम. ए. डी.लिट की भूमिका (Introduction) से भृषित है, शोध-बीजके विद्वानों के लिये अतीव उपयोगी, बड़ा साइज, जिल्द ( जिसकी प्रस्तावनादिका मूल्य अलगमं पांच रुपये है) १२) (२) आप्त-परीक्षा-श्रीविद्यानन्दाचार्यकी स्वोपज्ञ सटीक अपूर्वकृति प्राप्तांकी परीक्षा द्वारा ईश्वर-विषयके सुदर मरस और मजीव विवेचनका लिए हुए, न्यायाचार्य पं० दरबारीलालजी के हिन्दी अनुवाद तथा प्रस्तावनादिसं युक्त, मजिल्द । ... (३) न्यायदीपिका-न्याय-विद्याकी मुन्दर पोथी, न्यायाचार्य पं० दरबारीलालजीक संस्कृतटिप्पण, हिन्दी अनुवाद, विस्तृत प्रस्तावना और अनेक उपयोगी परिशिष्टास अलंकृत, मजिल्द । ... (४) स्वयम्भूम्नात्र-ममन्तभद्गभारतीका अपूर्व ग्रन्थ, मुख्तार श्रीजुगलकिशोरजीके विशिष्ट हिन्दी अनुवाद छन्दपरि चय, समन्तभद्र-परिचय और भक्तियोग, ज्ञानयांग तथा कर्मयोगका विश्लपण करती हुई महत्वकी गवेपणापूर्गा १०६ पृष्ठकी प्रस्तावनासं सुशोभित । .. (५) स्तुतिविद्या-स्वामी समन्तभद्रकी अनोम्बो कृति, पापांके जाननेकी कला, मटीक, मानुवाद और श्रीजुगलकिशोर मुन्नारकी महत्वकी प्रस्तावनादिम अलंकृत सुन्दर जिल्द-सहित । (६) अध्यात्मकमलमार्तण्ड-पंचाध्यायीकार कवि राजमल्लकी सुन्दर आध्यात्मिक रचना, हिन्दीअनुवाद-हिन और मुख्तार श्रीजुगलकिशारकी ग्वाजपूर्ण ७८ पृष्ठको विस्तृत प्रस्तावनासे भूषित । " ॥) (५) युक्त्यनुशासन-तत्त्वज्ञानसं परिपूर्ण समन्तभद्की असाधारण कृति, जिसका अभी तक हिम्दी अनुवाद नहीं हुअा था । मुख्तार श्रीके विशिष्ट हिन्दी अनुवाद और प्रस्तावनादिले अलंकृत, मजिल्द। .. ) (८) श्रीपुरपार्श्वनाथस्तात्र-श्राचार्य विद्यानन्दरचित, महत्वकी स्तुति, हिन्दी अनुवादादि महिन। ... m) (ह) शासनचतुस्त्रिशिका-(तीर्थपरिचय)-मुनि मदनकीतिकी १३ वीं शताब्दीकी सुन्दर रचना, हिन्दी अनुवादादि-हित । ... (१०) मत्साधम्मरण-मंगलपाठ-श्रीवीर वर्द्धमान और उनके बाद के २१ महान् प्राचार्यों के १३. पुण्य-स्मरणांका महत्वपूर्ण संग्रह, मुग्न्तारधीक हिन्दी अनुवादादि-सहित । (११) विवाह-ममुद्देश्य -मुख्नारश्रीका लिखा हुआ विवाहका मप्रमाण मार्मिक और तात्विक विवंचन ... ) (१२) अनेकान्त-रस-लहरी-अनेकान्त जैसे गूढ गम्भीर विषयको अवती सरलताम समझने-समझानेकी जी, मुख्तार श्रीजुगलकिशोर लिग्विन । (१३) अनित्यभावना--प्रा. पद्मनन्दी की महत्वकी रचना, मुन्नारश्रीके हिन्दी पद्यानुवाद और भावार्थ सहित ) (१४) तत्त्वार्थसूत्र-(प्रभाचन्द्रीय)-मुख्तारश्रीकं हिन्दी अनुवाद तथा व्याख्यान युक्त। " ) (१५) श्रवणबेल्गोल और दक्षिणक अन्य जैनतीर्थ क्षेत्र-ला. राजकृष्ण जैनकी सुन्दर मचित्र रचना भारतीय पुरातत्व विभागके डिप्टी डायरक्टर जनरल डाटोन. रामचन्द्रनकी महत्व पूर्ण प्रस्तावना अलंकृत १) नाट-ये मब अन्य एकसाथ लेनेवालाको ३८॥) की जगह ३०) में मिलेंगे। व्यवस्थापक 'वीरसेवामन्दिर-ग्रन्थमाला' वीरसेवामन्दिर, १दरियागंज, दहनी Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Regd. No.D.211 है अनेकान्तके संरक्षक और सहायक संरक्षक १०१) बा० मोतीलाल मक्खनलालजी, कलकत्ता न १५००)बा० नन्दलालजी सरावगी, कलकत्ता १०१) बा. बद्रीप्रसादजी सरावगी, २५१) बा० छोटेलालजी जैन सरावगी , १०१) बा० काशीनाथजी, ... , * २५१) बा. सोहनलालजी जैन लमेचू , १०१) बा० गोपीचन्द रूपचन्दजी २५१) ला गुलजारीमल ऋषभदासजी १.१) बा० धनंजयकुमारजी २५१) बा० ऋषभचन्द (B.R.C. जैन १०१) बा. जीतमल जो जैन २५१) बा० दीनानाथजी सरावगी १०१) बा० चिरंजीलालजी सरावगी २५१) बा० रतनलालजी झांझरी १०१) बा० रतनलाल चांदमलजी जैन, राँची २५१) बाबल्देवदासजी जैन सरावगी १०१)ला. महावीरप्रसादजी ठेकेदार, देहली २५१) सेठ गजराजजी गंगवाल १०१) ला० रतनलालजी मादीपुरिया, देहली २५१) सेठ सुआलालजी जैन १०१) श्री फतहपुर जैन समाज, कलकत्ता २५१) बा०मिश्रीलाल धर्मचन्दजी १०) गुप्तसहायक, सदर बाजार, मेरठ २५१) सेठ मांगीलालजी १०१) श्री शीलमालादेवी धर्मपत्नी डा०श्रीचन्द्रजी, एटा २५१) सेठ शान्तिप्रसादजी जैन १०१) ला०मक्खनलाल मोतीलालजी ठेकेदार, देहली २५१) बा० विशनदयाल रामजीवनजी, पुरलिया १०१) बा० फूलचन्द रतनलालजी जैन, कलकत्ता २५१) ला०कपूरचन्द धूपचन्दजी जैन, कानपुर १०१) बा० सुरेन्द्रनाथ नरेन्द्रनाथजी जैन, कलकत्ता २५१) बा०जिनेन्द्रकिशोरजी जैन जौहरी, देहनी १०१) बा० वंशीधर जुगलकिशोरजी जैन, कलकत्ता २५१) ला० राजकृष्ण प्रेमचन्दजी जैन, देहली १०१) बा. बद्रीदास पात्मारामजी सरावगी, पटना २५१) बा० मनोहरलाल नन्हेंमलजी, देहली १०१) ला० उदयराम जिनेश्वरदासजी सहारनपुर २५१) ला०त्रिलोकचन्दजी, सहारनपुर १०१) बा० महावीरप्रसादजी एडवोकेट, हिसार * २५१) सेठ छदामीलालजी जैन, फीरोजाबाद .. १०१) ला० बलवन्तसिंहजी, हांसी जि०हिसार *२५१) ला० रघुवीरसिंहजी, जैनावाच कम्पनी, देहली। २५१) रायबहादुर सेठ हरखचन्दजी जैन, रांची " १८१) सेठ जोखीरामबैजनाथ सरावगी, कलकत्ता २५१) सेठ वधीचन्दजी गंगवाल, जयपुर १०१) बाबू जिनेन्द्रकुमार जैन, सहारनपुर सहायक १०१) वैद्यराज कन्हैयालालजो चाँद औषधालय,कानपुर *१०१) वा. राजेन्द्रकुमारजी जैन, न्यू देहली। १०१) रतनलालजी जैन कामका देहली १०१) ला० परसादीलाल भगवानदासजी पाटनी, देहली १०१) ला. प्रकाशचन्द व शीलचन्दजी जोहरी, देहलो १०१) बा० लालचन्दजी बो० सेठी, उज्जैन १०१) बा० घनश्यामदास बनारसीदासजी, कलकत्ता अधिष्ठाता 'वीर-सेवामन्दिर १०१) बा० लालचन्दजी जैन सरावगी , सरसावा, जि. सहारनपुर प्रकाशक-परमानन्दजी चैन यात्री हरियागंजाबी। मुक-अप-बाशी मिटिंग हाउस २. रियागंज रेली Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अने सम्पादक मण्डल श्री जुगलकिशोर मुख्तार 'युगवीर' बा० छोटेलाल जैन चा० जयभगवान जैन एडवोकेट पं० परमानन्द शास्त्री कान्त जुलाई १६५४ वीरमेवामन्दिर के नूतन भवनका शिलान्यास वीर सेवामन्दिर प्राचार्य जुगलकिशोर जी मुख्तार 'युगवीर' सरसावा (सहारनपुर ) के नूतन भवनका शिलान्यास भारत के सुप्रसिद्ध उद्योगपति, दानबीर साहू शान्तिप्रसादजी जैन कलकत्ता अनेकान्त वर्ष १३ किरण १ के कर-कमलों द्वारा आज २५१०वीं वीर- शासन जयन्ती के शुभ अवसर पर सम्पन्न हुआ । २१, दरियागंज, दिल्ली १६ जुलाई १६५४ श्रावण कृष्णा प्रतिपदा वि० सं० २०११ EST HOME you Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय - सूची , समन्तभद्रभारती - देवागम [पं० हीरालाल सिद्धान्त शास्त्री - [युगवीर . दिल्ली और उसके पाँच नाम२ डा० भायाणी एम. ए. की भारी भूल [पं. परमानन्द शास्त्री ८ रन राशि (कहानी)[जुगलकिशोर श्रीमनुज्ञानार्थी साहित्य रत्न ३ ममयसारकी १५वीं गाथा और श्री कानजी स्वामी . राजधानीमें वीरशासनजयन्ती और वीरसेवा[श्री जुगलकिशोर मुख्तार मन्दिर-नूतनभवनके शिलान्यासका महोत्सव ४ नाथ अब तेरा शरण गहूं (कविता: [परमानन्द जैन २७ [मनुज्ञानार्थी साहित्यरत्न ११. सम्पादकीय५ पुरातन जैन साधुओंका आदर्श " स्वागत गान (कविता)-ताराचन्द प्रेम ३१ [पं. हीरालाल शास्त्री .. १२ वीर सेवामन्दिरकी सेवाएं-व्यवस्थापक टा० . ३ । मूलाचारसे कर्तृत्व पर नया प्रकाश १३ हिसाबका संशोधन-[टाइटिल पेज अनेकान्तके ग्राहकोंको भारी लाम अनेकान्तके पाठकोंके लाभार्थ हाल में यह योजना की गई हैं कि इस पत्रके जो भी ग्राहक, चाहे वे नये हों या पुराने, पत्रका वार्षिक चन्दा ६) रु. निम्न पते पर मनोआर्डरसे पेशगी भेजेंगे वे १०) ० मूल्यके नीचे लिखे ६ उपयोगी ग्रन्थों को या उनमेंसे चाहे जिनको, वीरसेवामन्दिरसे अर्ध मूल्यमें प्राप्त कर सकेंगे और इस तरह 'अनेकान्त' मासिक उन्हें १) रु० मल्यमें ही वर्ष भर तक पढ़ने को मिल सकेगा। यह रियायत सितम्बरके अन्त तक रहेगी अतः प्राहकोंको शीघ्र ही इस योजनासे लाभ उठाना चाहिये। ग्रन्थोंका परिचय इस प्रकार है:१. रत्नकरण्डश्रावकाचारसटीक -पं० सदामुख जीकी प्रसिद्ध हिन्दीटीकासे युक्त, बड़ा साइज, मोटा टाइप, पृ० ४२४, सजिल्द, मूल्य २. स्तुतिविद्या-स्वामो ममन्तभद्रकी अनोखी कृति, पापोंको जीतनेकी कला, सटीक, हिन्दी टीकासे युक्त और मुख्तार श्री जुगलकिशोरजी महत्वकी प्रस्तावनासे अलंकृत, पृ० २०२सजिल्द ॥) ३. अध्यात्मकमलमार्ताण्ड-पंचाध्यायीके कर्ता कविराजमल्लकी सुन्दर आध्यात्मिक रचना, हिन्दी अनुवाद सहित और मुख्तार श्री जुगलकिशोर की खोजपूर्ण ७८ पृष्ठ की प्रस्तावनासे भूषित, पृष्ठ २००, ४. श्रवणबेन्गोल और दक्षिणके अन्य जैनतीर्थ-जैन तीर्थोका सुन्दर परिचय अनेक चित्रों सहित पृष्ठ १२० ... ५. श्रीपुरपाश्वनाथस्तोत्र-आचार्य विद्यानन्द की तत्वज्ञानपूर्ण सुन्दर रचना, हिन्दी अनुवादादि। ___ सहित, पृष्ठ १२५ ... ६. अनेकान्त रस-लहरी-अनेकान्त जैसे गूढगम्भीर विषयको अतीव सरलतासे समझने समझाने की कुञ्जी मैनेजर 'अनेकान्त' वीरसेवामन्दिर, १ दरियागंज देहली। Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहम Mithi क्वि विश्वतत्व-प्रकाशक वार्षिक मूल्य ) BHBEHENDSHRIMECHHRSHSEBERIES एक किरण का मूल्य ॥) ammamumansmi नीतिविरोधध्वंसी लोकव्यवहारवर्तक सम्यक् । परमागमस्यबीज भुवनेकगुरुर्जयत्यनेकान्त वर्ष १३ । किरण१ वीरसेवान्दिर, १ दरियागंज, देहली श्रावण वीर नि० संवत २४८०, वि. संवत २०११ जुलाई समन्तभद्र-भारती देवागम देवागम-नभोपान-चामरादि-विभूतयः। मायाविषपि दृश्यन्ते नातस्त्वमसि नो महान ॥१॥ बीजिन!) देवोंके आगमनके कारण - स्वर्गादिकके देव मापके जन्मादिक कल्याणकोंके अवसर पर आपके पास पाते हैं इसलिए-, आकाशमें गमनके कारण-गगनमें विना किमी विमानादिका महायताके प्रापका सहज स्वभावरी विवरण होता है इस हेतु-और चामरादि विभूतियों के कारगा-वर, छुच, सिंहापन, देवदुन्दुभि पुष्पवृष्टि अशोक वृक्ष, भामण्डल और दिव्यध्वनि से अष्ट प्रातिहार्योंका तथा समवमरण की इमरी विभूतियोंका श्रापके अथवा आपके निमित्त प्रादुर्भाव होता है इसकी वमहसे-आप हमारेमुझ जैसे परीक्षा - प्रधानियोंके-गुरु-पूज्य अथवा श्रामपुरुष नहीं है-भले ही मामाजके दूसरे बोग या अन्य लौकिक जन इन देवागमनादि अतिशयोंके कारया भापको गुरु, पूज्य अथवा भास मानते हों। क्योंकि ये अतिशय मायावियों में -मम्करि-पूर गादि इन्द्रजालियों में-मी देखे जाते हैं। इनके कारण ही यदि पाप गुरु, प्रया प्राप्त होतो मायावो इन्द्रजालिये मी गुरु, पूज्य तथा प्राप्त करते हैं; जब कि वे वैसे नहीं है। अत: उक्त कारण-कलाप व्यभिचार-दोषसे दूषित होने के कारण बनेकान्तिक हेतु है. इसमे आपकी गुरुता एवं विशिष्टनाको पृथक रूपसे अक्षित नहीं किया जा सकता और न दूसरों पर इसे स्थापित ही किया जा सकता है। (बदि यह कहा जाय कि उन मायावियोंमें ये अतिशय सरचे नहीं होते-बनावटी होते है और आपके साथ इनका सम्बन्ध है तो इसका नियामक और निर्णायक कौन! प्रागमको यदि नियामक और निर्यावक Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष १३ बतलाया जाय तो भागम उन मायावियांका भी है- अपने बचनरूप भागमके द्वारा उन अविशर्योको मायाचारजन्य होने पर भी सत्य ही प्रतिपादित करते हैं। और यदि अपने हो मागम (जैनागम) को इस विषय में प्रमाण माना जाय तो रक हेतु भागमाश्रित ठहरता है, और एक मात्र उसके द्वारा दूसरोके यथार्थ वस्तु स्थितिका प्रस्थय एवं विश्वास नहीं कराया जा सकता। अत: उक्त कारण-कलापरूप हेतु भापकी महानता एवं भासताको व्यक्त करने में असमर्थ है और इसीसे मेरे जैसोंके लिए एक प्रकारसे उपेषणीय है। अध्यात्मं बहिरप्येष विग्रहादि-महोदयः । दिव्यः सत्यो दिवौकस्स्वप्यस्ति रागदिमत्सु सः ॥२॥ 'यह जो आपके शरीरादिका अन्तर्बाह्य महान् उदय है-अन्तरंग में शरीर दुधा-तृषा-जरा-रोग-अपमृत्यु प्रादिके प्रभावको और बाझमे प्रभापूर्ण अनुपम मौन्दर्षके साथ गौर वर्ण रुधिरके संचार सहित नि:स्वेदता, सुरमिता एवं निर्मलताका खिए हुए है-जो साथ ही दिव्य है-अमानुषिक तथा सत्य है-मायादिरूप मिथ्या न होकर वास्तविक भोर मायावियोम नहीं पाया जाता-(उपीके कारण यदि आपको महान्, पूज्य एवं भाक्ष पुरुष माना जाय, तो यह हेतु भी व्यभिचार दोषस दूषित है; क्याक) वह (विग्रहादि महादय) रागादिसे युक्त-राग द्वेष-कामकाध-मान • माया-जोमादि कषायोंपे अभिभूत स्वर्गक देवों में भी पाया जाता है: ( वही यदि महानता एवं भालताका इंतु हा तो स्वर्गाके रागी, द्वेषी, कामी तथा क्रोधादि कषाय दोषांसे दूषित दव भी महान् पूज्य एवं प्राप्त ठहरे; परन्तु वे वैसे नहीं है, अतः इस अन्तर्बाह्य विग्रहादि महोदय' विशेषणके मायावियों में न पाये जाने पर भी रागादिमान देवामें उसका सस्व होनेके कारण वह व्यावृत्ति-हेतुक नहीं रहता और इसलिए उससे भी भाप जैसे प्राप्त पुरुषोका कोई पृथक् बोध नहीं हो सकता) (यदि कहा जाय कि धातिया कोका प्रभाव होने पर जिस प्रकारका विग्रमादि महोदय आपके प्रकट होता हे उस प्रकारका विमहादि महोदय रागादियुक्त देवा में नहीं होता तो इसका क्या प्रमाण ? दोनांका विग्रहादि महोदय अपने प्रस्थत नहीं है, जिससे तुलना की जा सके । यदि अपने ही भागमको इस विषय में प्रमाण माना जाय तो यह हेतु भी भागमाश्रित ठहरता है और एक मात्र इसीसे दूसरोंको यथार्थ वस्तुस्थितिका प्रत्यय एवं विश्वास नहीं कराया जा सकता । अता यह विग्रहादि महोदय हेतु भी प्रापकी महानता व्यक्त करने में असमर्थ होनेसे मेरे जसा के लिए उपेक्षणीय है। तीर्थकृत्समयानां च परस्पर-विरोधतः । सर्वेषामामता नास्ति, कश्चिदेव भवेद् रुः ॥३॥ (यदि यह कहा जाय कि पाप तीर्थकर है-संसारस पार उतरनेके उपायस्वरूप भागम तीर्थक प्रवर्तक हैं-और इसलिए प्राप्त-सर्वश होने महान् हैं, तो यह कहना भी समुचित प्रतीत नहीं होता; क्योंकि तीर्थकर तो दूसरे सुगतादिक भी कहलाते है और वे भी संसारसं पार उतरने अथवा निवृति प्राप्त करनेके उपायस्वरूप प्रागमतीर्थके प्रवर्तक माने जाते है, तब वे सब भी प्राप्त-सर्वज्ञ ठहरते हैं, मत. तीर्थकरन्थहेतु भी व्यभिचार-दोषसे दूषित है। और यदि सभी तीर्थंकरीको प्राप्त अथवा सर्वज्ञ माना जाय तो यह बात मी नहीं बनती; क्योकि) तीर्थकरोंके भागों में परम्पर विरोध पाया जाता है जो कि सभीके प्राप्त होने पर न होना चाहिए। अतः इस विरोधदोषके कारण सभी तीर्थकरोंके प्राप्तता-निर्दोष सर्वज्ञता-टित नहीं होता।' (इसे ठीक मानकर यदि यह पूछा जाय कि क्या उन परस्परविरुद्ध प्रागमके प्ररूपक सभी तीर्थंकरोंमें कोई एक भी प्राप्त नहीं है और यदि है तो वह कौन है। इसका उत्तर इतना ही है कि) उनमें कोई तीर्थकर प्राप्त जरूर हो सकता है और वह वही पुरुष हो सकता है जो चित ही हो-चैतन्यके पूर्ण विकासको लिए हुए हो अर्थात् जिसमें दोषों तथा प्रावरणोंकी पूर्णतः हानि हो चुकी हो।' Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १] समन्तभद्र - भारती दोषाऽऽवरणयोर्हानिनिःशेषाऽस्त्यतिशायनात । चियथा स्वहेतुभ्यो बहिरन्तर्मलक्षयः ॥४॥ (यदि यह कहा जाय कि ऐसा कोई भी पुरुष नहीं है जिमम भज्ञान-रागादिक दोषों तथा उनके कारणभूत कर्म प्रावरणोंकी पूरतः हानि सम्भव हो तो यह भी ठीक नहीं है। क्यों कि) दोषों तथा दोषोंके कारणोंकी कहींकहीं सातिशय हानि देखने में आती है-अनेक पुरुषोमे अज्ञान तथा राग-द्वेष काम क्रोधादिक दोषोंकी एवं उनके कारणोंकी उत्तरोत्तर बहुत कमी पाई जाती है और इसलिए किसी पुरुष-विशेषमें विरोधी कारणोंको पाकर उनका पर्णतः अभाव होना उसी प्रकार सम्भव है जिस प्रकार कि (सुवर्णादिकमे) मल-विरोधी कारणोंको पाकर बाह्य और अन्तरंग मलका पूर्णतः क्षय हो जाता है-अर्थात् जिस प्रकार कि-कालिमादि मनसे बद्ध हया सुवर्ण अग्निप्रयोगादिरूप योग्य साधनोंको पाकर उस सारे बाहिरी तथा भीतरी मनसे विहीन हुभा अपने शुद्ध सुवर्णरूपमें परिणत हो जाता है उसी प्रकार वन्य तथा भावरूप कर्ममबसे बद्ध हुमा भव्य जीव सम्यग्दर्शनादि योग्य साधनों के बलपर उस कर्ममनको पूर्णरूपसे दूर करके अपने शुद्धात्मरूपमें परिणत हो जाता है। अतः किसी पुरुष विशेषमें दोषों तथा उनके कारणोंकी पूर्णत: हानि होना असम्भव नहीं है। जिस पुरुष में दोषों तथा प्रावरणोंकी यह निःशेष हानि होती है वही पुरुष प्राप्त अथवा निदोष सर्वज्ञ एवं लोकगुरु होता है। सूक्ष्मान्तरित-द्गाः प्रत्यक्षाः कम्यचिद्यथा। अनुमेयत्वतोऽग्न्यादिरिति मर्वज्ञ-संस्थितिः ॥१॥ यदि यह कहा जाय कि दोषों तथा सावरणोंकी पूर्णत: हानि होने पर भी कोई मनुष्य प्रतीत-अनागतकान सम्बन्धी सब पदार्थोंको अतिदरवर्ती सारे वर्तमान पदार्थों को और सम्पूर्ण सूचम पदार्योको साक्षात रूपसे नहीं जान मकमा सो वह ठीक नहीं है क्योंकि' मूक्ष्मपदार्थ-स्वभाष विप्रकर्षि परमाणु मादिक-अन्तरित पदार्थ-कानसे अन्तरको लिये हए काल विप्रकषि राम रावणादिक और दूरवर्ती पदार्थ-क्षेत्रसे अन्तरको लिये हुए क्षेत्रविप्रकर्षि मेरु हिमवानादिक-अनुमेय ( अनुमानका अथवा प्रमाणका विषय ) होनेसे किमी न किमीके प्रत्यक्ष जरूर हैं। जैसे अग्नि आदिक पदार्थ जो अनुमान या प्रमाणका विषय हैं वे किसीके प्रत्यक्ष जरूर हैं। जिसके सूक्ष्म, अन्तरित और दरवर्ती पदार्थ प्रत्यक्ष हैं वह मर्वज्ञ है। इस प्रकार सर्वज्ञकी सम्यक स्थिति, व्यवस्था अथवा सिद्धि भले प्रकार सुघटित है। -युगवीर १ प्रमाणका विषय 'मेय' कहलाता है। अनुमंयका अर्थ 'मनुगतं मेयं मानं येषां से अनुमेया. प्रमेया इत्यर्थः' इस वसनाचार्यके वाक्यानुसार 'प्रमेय' भी होता है और इस तरह भनुमेयस्व हेतुमें प्रमेयस्व हेतु भी गर्मित। मिथ्यात्वको महत्ता चित्तकी चचलताका कारण अंतरङ्ग कपाय है। वैसे चित्त तो चंतन्य आत्माके चेतना गुणका परिणमन है, किन्तु कषायदेवीकी इसके ऊपर इतनी अनुकम्पा है कि जागृत अास्थाकी तो कथा दर रहे, स्वप्नावस्था में भी उसे प्रेमका प्याला पिलाकर बेहोश बनाये रहती है और यह प्याला भी ऐसा है कि मद्यसे भी अधिक उन्मत्त करता है। मादक द्रव्यका पान करने वाला तो उतना उन्मत्त नहीं होता, बाह्य शरीरकी चेष्टाए ही उसकी अन्यथा दिखती हैं, घर जाना हो तो म्खलद्गमन करता हुआ घरके सम्मुख ही जाता है परन्तु यहाँ तो उसके विपरीत प्रात्मतचसे बाह्य शरीरमें ही स्वतन्त्रका अध्यवसाय करके अहर्निश उसीके पोषणमें पूर्ण शक्तियों का उपयोग करके भी यह मोही जीव भानन्दका पात्र नहीं होता । बलिहारी हम मिथ्यादर्शनकी। (वर्णी वाणी से) Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २] अनेकान्त [ वर्ष १३ बतलाया जाय तो आागम उन मायावियांका भी है वे अपने ववनरूप श्रागमके द्वारा उन श्रतिशयको मायाचारजन्य होने पर भी सत्य हो प्रतिपादित करते हैं। और यदि अपने हो भागम (जैनागम) को इस विषय में प्रमाण माना जाय तो उक्त हेतु भागमाथि उगा है, और एक साथ उसके द्वारा दूसरोंके यथार्थ वस्तु स्थितिका प्रत्यय एवं विश्वास नहीं कराया जा सकता । अतः उक्त कारण-कलापरूप हेतु आपकी महानता एवं प्राप्तताको व्यक्त करने में असमर्थ है और इसीसे मेरे जैसोंके लिए एक प्रकारसे उपेक्षणीय है। अध्यात्मं बहिरप्येष विग्रहादि-महोदयः । दिव्यः सत्यो दिवौकस्स्वप्यस्ति रामदिमत्सुमः ॥ २ ॥ 'यह जो आपके शरीरादिका अन्तर्बाह्य महान् उदय है-रंग शरोरारा रोग अपमृत्यु आदिके अभावको और पूर्व अनुपम सौन्दर्य के साथ गौर वयं रुधिरके संचार सहित निम्बेदना सुरमिता निखिए हुए है- जी साथ ही दिव्य सत्यादिरूप] मिथ्या न होकर वास्तविक और मायावियोंम नहीं पाया जाता, ( उसीके कारया यदि आपको महान् पूज्य एवं प्राप्त पुरुष माना जाय तो यह हेतु व्यभिचार दोष दूषित है; श्यक) यह (विदा महादव) रागादिसे युक्तराम द्वेष-कामकांधमानाबाद पायों अनिभूत स्वर्ग देवोंमें भी पाया जाना है यही यदि महानता ताका हेतु हा ता स्वर्गेक रागी, द्वेषी, कामी तथा क्रोधादि कषाय दोषों से दूषित देव भी महान् पूज्य एवं प्राप्त ठहरें; परन्तु वे वैसे नहीं हैं, अतः इस 'अन्तर्बाह्य विप्रहादि महोदय' विशेषणके मायावियो न पाये जाने पर भी रागादिमान् देवामें उसका सर होनेके कारण वह व्यहेतुक नहीं रहता और इसलिए उससे भी आप जैसे बा : कोथबोध नहीं हो सकता ) - ( यदि कहा जाय कि बातिया कर्मोंका अभाव होने पर जिस प्रकारका विग्रहादि महोदय आपके प्रकट होता ई उस प्रकारका विग्रहादि महोदय रामादियुक देवांमें नहीं इया तो इसका क्या माय दोनांका विमादि महादय अपने प्रत्यक्ष नहीं है, जिससे तुलना की जा सके । यदि अपने ही आगमको इस विषय में प्रमाण माना जाय तो यह हेतु भी आगमश्रित ठहरता है और एक मात्र इसीसे दूसरोंको यथार्थ वस्तु-स्थितिकास्थय पुत्र विश्वास नहीं कराया जा सकता । अतः यह विग्रहादि महोदय हेतु भी आपकी महानता व्यक्त करने में असमर्थ होनेमें मेरे जैसो के लिए उपेक्षणीय है । तीर्थंकृत्समयानां च परस्पर विरोधत: । सर्वेषामाप्ता नास्ति, कश्चिदेव भवेद्गुरुः ||३|| ॥३॥ ( यदि यह कहा जाय कि श्राप तीर्थंकर है-संसारसे पार उतरने के उपायस्वरूप भागम तीर्थके प्रवर्तक हैं--और इसलिए प्राप्त सर्वज्ञ होने में महान् दें, तो यह कहना भी समुचित प्रतीत नहीं होता; क्योंकि तीर्थकर तो दूसरे सुगनादिक भी कहलाते है और वे भी संसारसे पार उतरने अथवा निवृति प्राप्त करने के उपास्वरूप आगमतीर्थंके प्रवर्तक माने जाते हैं, तब वे सब भी प्राप्त-सर्वज्ञ ठहरते हैं, अत. तीर्थंकरस्वहेतु भी व्यभिचार-दोषसे दूषित है। और यदि सभी तीर्थंकरोको प्राप्त अथवा सर्वज्ञ माना जाय तो यह बात भी नहीं बनती; क्योंकि) तीर्थंकरोंके आगमों में परम्पर विरोध पाया जाता है जो कि सभीके आप होने पर न होना चाहिए। अत इस विरोधदीपके कारण सभी तीर्थकरों के आपदा-निर्दोष सर्वशता घटित नहीं होता।' ( इसे ठीक मानकर यदि यह पूछा जाय कि क्या उन परस्पर विरुद्ध आगमक कोई एक भी प्राप्त नहीं है और यदि है तो वह कोन है? इसका उत्तर इतना ही है कि जरूर हो सकता है और वह यही पुरुष हो सकता है जो चित् दी हो चैतन्यके पूर्व अर्थात् जिसमें दोषों तथा आवश्यक पूर्णतः हानि हो चुकी हो।" प्ररूपक सभी तीर्थकरों में उनमें कोई तीर्थंकर आम विकासको लिए हुए ह Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १] समन्तभद्र - भारती [ ३ - दोषाऽऽतरणयोर्हानिनिःशेषाऽस्त्यतिशायनात । क्वचिधया स्वहेतुभ्यो बहिरन्तर्मलक्ष्यः ॥४॥ (यदि यह कहा जाय कि ऐसा कोई भी पुरुष नहीं है जिसम अज्ञान-रागादिक दोषों तथा उनके कारणभूत कर्म यावरणोंकी पूर्णतः हानि सम्भव हो तो यह भी ठीक नहीं है; क्यों कि) दोषों तथा दोषोंके कारणोंकी कहींकहीं सातिशय हानि देखने में आती है-अनेक पुरुषांम अज्ञान तथा राग-द्वेष-काम-क्रोधादिक दोषोंकी एवं उनके कारणोंकी उत्तरोत्तर बहत कमी पाई जाती है और इसलिए किसी पुरुष-विशेपमें विरोधी कारणोंको पाकर उनका पूर्णत: अभाव होना उसी प्रकार सम्भव है जिस प्रकार कि (सुवर्णादिकम) मल-विरोधी कारणोंको पाकर बाह्य और अन्तरंग मलका पूर्णतः क्षय हो जाता है-अर्थात् जिस प्रकार कि-कालिमादि मजसे बद्ध हा सुवर्ण अग्निप्रयोगादिरूप योग्य साधनोंको पाकर उस सारे बाहिरी तथा भीतरी मलसे विहीन हुमा अपने शुद्ध सुवर्णरूप में परिणत हो जाता है उसी प्रकार द्रव्य तथा भावरूप कर्ममनसे बद्ध हुमा भव्य जीव सम्यग्दर्शनादि योग्य साधनोंके बलपर उस कर्ममलको पूर्णरूपसे दूर करके अपने शुद्धात्मरूप परिणत हो जाता है। अतः किसी पुरुष विशेषमें दोषों तथा उनके कारणांकी पूर्णत: हानि होना असम्भव नहीं है। जिस पुरुष में दोषों तथा भावरणोंकी यह निःशेष हानि होती है वही पुरुष प्राप्त अथवा निदोष सर्वज्ञ एवं लोकगुरु होता है।' सूक्ष्मान्तरित-दार्थाः प्रत्यक्षाः कस्यचिद्यथा । अनुमेयत्वतोऽग्न्यादिगिति मर्वज्ञ-संस्थितिः ॥५॥ 'यदि यह कहा जाय कि दोषों तथा प्रावरणोंकी पूर्णत: हानि होने पर भी कोई मनुष्य अतीत-अनागतकाल सम्बन्धी सब पढाणको अनिदरवी सारे वर्तमान पदार्थोंको और मम्पूर्ण सूक्ष्म पढ़ायौँको सामान रूपसे नहीं जान सकमा , मो वह ठीक नही है; क्योंकि' मूक्ष्मपदार्थ-स्वभाव विषकर्षि परमाणु प्रादिक-,अन्तरित पदार्थ कालसे अन्नरको लिये हए कालविकपि राम रावणादिक, और दूरवर्ती पदार्थ-क्षेत्रमे अन्तरको लिये हर क्षेत्रविप्रकर्षि मेरु हिमवानादिक-अनुमेय (अनुमानका अथवा प्रमाणका विषय ) होनेसे किसी न किमीके प्रत्यक्ष जरूर हैं। जैसे अग्नि आदिक पदार्थ जो अनुमान या प्रमाणका विषय हैं वे किसीके प्रत्यक्ष जरूर हैं। जिसके सूक्ष्म, अन्तरित और दरवर्ती पदार्थ प्रत्यक्ष हैं वह मज्ञ है। इस प्रकार सर्वज्ञकी सम्यक स्थिति, व्यवस्था अथवा सिद्धि भले प्रकार सुघटित है। -युगवीर , प्रमाणका विषय 'मेय' कहलाता है। अनुमेय का अर्थ 'अनुगतं मयं मानं येषां ते अनुमेया. प्रमेया इत्यर्थः हम वसुनंद्याचार्यके वाक्यानुसार 'प्रमेय' भी होता है और इस तरह अनुमेयस्व हेतुमें प्रमेयस्व हेतु भी गर्भित है। मिथ्यात्वको महत्ता चित्तकी चचलताका कारण अंतरङ्ग कषाय है। वैसे चित्त तो चतन्य आत्माके चेतना गुणका परिणमन है, किन्तु कषायदेवीकी इसके ऊपर इतनी अनुकम्पा है कि जागृत अवस्थाकी तो कथा दर रहे, स्वप्नावस्थामें भी उसे प्रमका प्याला पिलाकर बेहोश बनाये रहती है और यह प्याला भी ऐसा है कि मद्यसे भी अधिक उन्मत्त करता है। मादक द्रव्यका पान करने वाला तो उतना उन्मत्त नहीं होता, बाह्य शरीरकी चेष्टाए ही उसकी अन्यथा दिखती हैं, घर जाना हो तो म्खलद्गमन करता हुआ घरके सम्मुख ही जाता है परन्तु यहाँ तो उसके विपरीत आत्मतत्वसे बाह्य शरीरमें ही स्वतश्वका अध्यवमाय कर के अहर्निश उसीके पोषणमें पूर्ण शक्तियों का उपयोग करके भी यह मोही जीव भानन्दका पात्र नहीं होता । बलिहारी इम मिथ्यादर्शनकी। (वर्णी वाणीसे) Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डा० भायाणो एम० ए० की भारी भूल बा.हरिवल्लभ चुनीलाल भायाणी एम.ए., पी. क्रमशः इस प्रकार हैं-1 मद करता हुआ हाथी, २ कमलएच. डी. ने कविराज स्वयम्भूदवके 'पउमचरिउ' नामक वनको उग्वाड़ता हुआ वृषभ, ३ विशालनेत्र सिंह, ४ नवप्रमुख अपनश अन्धका सम्पादन किया है, जिसके दो भाग कमलाद लक्ष्मी, ५ उत्कट गन्धवाली पुष्पमाला, ६ मनोसिंघी जनग्रन्थमालामें प्रकाशित हो चुके हैं । प्रथम भाग हर पूर्ण चन्द्र, किरणोंस प्रदीप्त सूर्य - परिभ्रमण करता (विद्याधर काण्ड) के साथ आपकी १२० पृष्ठकी अंग्रेजी हुआ मीन-युगल, जल-पूरित मंगल-कलश, :. कमलाप्रस्तावना लगी हुई है जो अच्छे परिश्रमसे लिखी गई तथा च्छादित पन मरोबर, गर्जना करता हुश्रा समुद्र, १२ महत्वकी जान पड़ती है और उस पर बम्बई यूनिवर्सिटीस दिव्यसिंहासन, १३ घण्टालियोंस मुग्वरित विमान, १४ सब आपको डाक्टरेट (पी.एच. डी.)की उपाधि भी प्राप्त प्रोरस धवल नाग-भवन, १५ दैदीप्यमान रत्न समूह, १६ हुई है। यह प्रस्तावना अभी पूरी तौरस अपने दखन तथा धधकती हुई अग्नि। परिचयमें नहीं श्राई । हालमें कलकत्ताक श्रीमान् बाबु छोटे- इनन स्पष्ट उल्लंग्वा होते हुए भी डा. भायाणी जैस लालजी जैनने प्रस्तावनाका कुछ अंश अवलोकन कर उपके डिग्रीप्राप्त विद्वानने अपने पाठकोंकी वस्तु-स्थितिक विरुद्ध एक वाक्यकी और अपना ध्यान आकर्षित किया, जो इस चौदह स्वप्न देखने की अन्यथा बान क्यों बतलाई, यह कुछ प्रकार है: समझमें नहीं आता ! मालूम नहीं इसमें उनका क्या रहस्य "Marudevi sowa sesies of fourteen dreams है? क्या इसके द्वारा वे यह प्रकट करना चाहते है कि इस __यह वाक्य प्रन्धकी प्रथम सन्धिक के परिचयस सम्बन्ध विषयमें प्रन्थकार श्वेताम्बर मान्यता का अनुबाया था ? रखता है। इसमें बतलाया गया है कि 'मरुदेवीने चौदह यदि ऐसा है तो यह ग्रन्थकारक प्रति ही नहीं बल्कि अपन स्वप्न देखे' । चौदह स्वप्नोंकी मान्यता श्वेताम्बर सम्प्रदाय अपंजी पाठकोंक प्रति भी भारी अन्य य है जिन्हें सल्पस का है जबकि दिगम्बर सम्प्रदाय सोलह स्वप्नोंका देखा जाना वचित रग्वकर गुमराह करने की चेष्टा की गई है। खेद है मानता है और ग्रन्थकार स्वयम्भूदेव दिगम्बराम्नायक डा. साहबके गुरु आचार्य जिनविजयजीने भी, जोकि मिधी विद्वान हैं। अतः बाबू छोटेलालजीको उक्र परिचयवाक्य जैन ग्रन्थमालाक प्रधान सम्पादक हैं और जिनकी खास खटका और उन्होंने यह जाननेकी इच्छा व्यक्त की कि 'क्या प्रेरणा को पाकर ही यह प्रस्तावनात्मक निबन्ध लिखा गया मूल ग्रन्थमें ऋषभदेवकी माता मरुदेवीके चौदह स्वप्नोंक हैं, इस बहुत माटो गलती पर कोई ध्यान नहीं दिया। इसीसे देखनेका ही उल्लेख है। तदनुसार मूलग्रन्थको देखा गया वह उनके अंग्रेजी प्राकथन [Foreword] प्रकट नहीं उसके वें कडवक की आठ पंक्तियोंमें मरुदेवीको जिय को गई। और न शुद्धिपत्रमें ही उसे अन्य अशुद्धियोंक स्वप्नावलीका उल्लेख है उसमें साफ तौर पर, प्रति पंक्रि माथ दर्शाया गया है। ऐसी स्थितिमें इस संस्कारोंके वश दो स्वप्नोंके हिसाबसे, मोलह स्वप्नोंक नाम दिये हैं। कढ- होने वाली भारी भूल समझी जाय या जानबूझ कर की गई वककी वे पंक्तियां इस प्रकार हैं: गलती माना जाय? मैं तो यही कहूंगा कि यह डा. साहब दीसह मयगलु मय-गिलनांदु, दीसह वसहुक्खय-कमल-संडु। की संस्कारोंके वश होने वाली भारी भूल है। ऐसी भूल दीसह पंचमुहु पईहरच्छि, दीसह णव-कमलारूढ-लच्छि॥ कभी कभी भारी अनर्थ कर जाती है। अतः भविष्यमें उन्हें दीसह गंधुक्कड-कुसुम-दामु, दीसह छण-यंदु मणोहिरामु। ऐसी भूलोंके प्रति बहुत सावधानी वर्तनी चाहिये और दीसह दियर कर-पज्जलन्तु, दीसइ झम-जुयलु परिब्भमंतु ॥ जितना भी शीघ्र होसके इस भूलका प्रतिकार कर देना दीसह जल मंगल-कलसु वएणु, दीसह कमलायरु कमल-छण्णु चाहिये। साथ ही प्रन्थमालाक संचालकजी को ग्रन्थकी दीसह जलणिहि गज्जिय-जलोहु, दीसह सिंहासणु दिण्ण-सोहु अप्रकाशित प्रतियों में इसके सुधार की अविलम्ब योजना दीसइ विमाणु घण्टालि-मुहलु दीसइ णागालउ सम्वु धवलु। करनी चाहिये । आशा है। ग्रन्थ-सम्पादक उक्र डा. साहब दोसइ मणि णियह परिप्फुरन्तु, दीसह धूमबउ धग धगन्तु। और सबालक प्रा. जिनविजयजी इस ओर शीघ्र ध्यान इनमें जिन सोलह स्वप्नोंको दग्बनेका उल्लेख है वे दन की कृपा करेंगे। -जुगलकिशोर Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसारकी १५वों गाथा और श्रीकानजो स्वामो (गत किरण = से भागे) क्या शम भाव जैनधर्म नहीं? श्वरा विद्.' इस वाक्यक द्वारा सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, श्री कानजी स्वामीने अपने प्रवचन लेबमें प्राचार्य और सम्यकचारित्रको वह समीचीन धर्म बतला कर निय कुन्दकुन्द के भावप्राभृतको गाथाको उद्धन करके यह बत धमके ईश्वर तोकादिकने निर्दिष्ट किया है उस धर्मका नानेकी चेष्टा की है कि जिनशासन में पूजादिक तया व्याख्या करते हुए सम्यस्त्रके वर्णनमे 'वैयावृष्य' वतांक अनुष्ठानको 'धर्म' नहीं कहा है, किन्तु 'पुण्य' कहा को शिकावनां में अन्तभून धर्मका एक अंग बताया है, है, धर्म दूसर। चाज है और वह मोह-शोभस रहित भास्मा जिसमें दान तथा संमियोकी अन्य सबवा और देवका परिणाम है: पूजा ये तीनों शामिल है; जैसा कि उक प्रम्बक निम्न पूयादिसु वयसहियं पुरणं हि जिएहिं मासणे भणियं। वाक्यास प्रकट है:माहवाबोहविहीणा परिणामो अप्पणा धम्मो ॥५३॥ दान वैयावृत्त्य धर्माय तपोधनाय गुणनिधय । इस गाथामे पूजा-दान-प्रतादिक धर्मरूप हानका अनपेक्षितोपचारोपक्रियमगृहाय विभवेन ॥११॥ कोई निषेध नहीं, 'पुवर्ण पदके द्वारा उन्हें पुण्य प्रसाधक व्यापत्तिव्यपनोदः पदयोः संवाहनं च गुणरागात् । धर्मके रूप में उल्लेखित किया गया है। धर्म दो प्रकारका वैयावृत्त्यं यावानुपग्रहोऽन्याऽपि संयमिनाम ॥११॥ होता है-एक वह जोशुभ भावोके द्वारा पुण्यका प्रमाधक देवाधिदेवचरणे परिचरणं सर्वदु.खनिहरणम . है और दूसरा वह को शुद्ध भावोंके द्वारा अच्छे या बुरे कामदहि कामदाहिनि परिचिनुयादाहतो नित्यम॥११३॥ किसी भी प्रकारके कमालवका कारण नहीं होता। प्रस्तुत गाथामें दोनों प्रकारके धर्मोंका उब्लेम्व है। यदि श्री कुन्द साथ ही यह भी बतलाया है कि धर्म निःश्रेयस तथा कुन्दाचार्यकी दृष्टि में पूजा दान व्रतादिक धर्म कार्य न होते प्रभ्युदय दानां प्रकार के फलोंको फलना है. जिसमे अभ्युतो वे स्यणमारकी निम्न गाथामें दान तथा पूजाको श्राप दय पुण्य प्रसाधक अथवा पुण्यरूप धर्मका फल होता है कोंका मुख्य धर्म और ध्यान तथा अध्ययनको मुनियोका और वह पूजा धन तथा पाशाक ऐश्वयंको पन परिजन मुख्य धर्म न बनात भोर काम भागोकी समृद्धि एवं अतिशयको लिए रहता है दाणं पूजामुक्खं सावयधम्मो ण सावगी तेण विणा जैसा कि तस्वरूप-निर्देशक निम्न पथम जाना जाता है:माणमयणं मुक्खं जइधम्मो तं विणा गोवि ॥ ११ ॥ पूजा पूजार्थाश्वर्यैबल-परिजन-काम-भोगभूयिष्ठै.। और न चारित्रप्राभृतको निम्नगाथामें हिसादिवनोंक अतिशयितभुवनमदतमभ्युदय फलनि सद्धर्मः ॥२४॥ अनुष्ठानरूप संयमाचरणको श्रावक धर्म तथा मुनिधर्मका स्वामी समन्तभद्र इन मवाश्याम स्पष्ट कि नाम ही देते पूजा तथा दानादिक धर्मके अंग है वे मात्र अभ्युदय एवं सावयधम्मं संजमचरणं उदेसियं सयलं। अथवा पुण्य फलको फलने की बजाय धर्मको कोटिये नहीं सुद्धं संजमचरणं जहधम्म णिकलं वोच्छे॥२०॥ निकल जाते । धर्म म्युदयरूप पुण्य फलको मा फलता उन्होंने ती चारित्रमाभृतके अम्तमें सम्यक्त्व-साहित है, इसीसे लोकमें भी पुण्यकार्यको धर्मकार्य और धर्मको इन दोनों धर्मोंका फल भपुनर्भव (मुक्त-सिन) होना पुण्य कहा जाता है। जिस पुण्यके विषय में 'पुष्पप्रमादालिखा है। तब वे दान-पूजा-प्रतादिकको धर्मकी कोटिसे किनि भवति' (पुण्यके प्रसाद क्या कुछ नहीं दावा मनग कैसे रख सकते हैं? यह सहज ही समझा जा जैसी लोकोक्तियाँ प्रसिद्ध है, वह यो ही धर्मको कोरिस सकता है। मिकासकर उपेषा किये जाने की वस्तु नहीं है। तान नोकस्वामी समम्तमने अपने समीचीन धर्मशास्त्र (रस्म के अधिपति धर्म-शीर्थकरके पदकी प्राप्ति भी उस सर्वात करावकाचार) में सदृदृष्टि-झान-वृत्तानि धर्म धर्मे- विशायि पुययका ही फल है-पुण्य भिम विपी दूपर Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त । वर्ष १३ धर्मका नहीं; जैसा कि तत्वार्थश्लोकवातिकके निम्न वाक्य किया है. प्रत्युत इसके उन्होंने अनेक प्रकारसे उनका से प्रकट है: विधान किया है। ऐसे चोटीके महान् प्राचार्यों को भी _ "मर्वातिशायि तत्पुण्यं त्रैलोक्याधिपतित्वकृत्" "लौकिकान" तथा "अभ्यमती' बतलाना दु:साहम की ऐसी हालनमें कानजी स्वामीका पूजा-दान तथा व्रता. ही नहीं, किन्तु पृष्टता की भी रद हो जाती है। प्रेमी दिकको धर्मकी कोटिसे निकाल कर यह कहना कि उनका अविचारित एवं बेतुकी वचनावली शिष्टजनोंको बहुत ही करना धर्म नहीं और इसके लिये जैनमत तथा जिनेन्द्र प्रखरतो तथा असह्य जान पड़ती है। भगवानकी दुहाई देते हुए यह प्रतिपादन करना कि जिन कुन्दकुन्दाचार्यका कानजी स्वामी सबसे अधिक 'जैनमन में जिनेश्वर भगवान्ने व्रत-पूजादिकके शुभ भावोंको दम भरते हैं और उन्हें अपना भागध्य गुरुदेव बतलाते हैं धर्म नहीं कहा है-मात्माके वीतरागभावको ही धर्म वे भी जब पूजा दान-व्रतादिकका धर्मके रूपमें स्पष्ट विधान कहा है।।' कितना असगत तथा वस्तुस्थितिके करते हैं तब अपने उक वाग्वाणोंको चलाते हुए उन्हे कुछ विरुद्ध है. उमे विज्ञ पाठक स्वयं समझ सकते हैं। प्रागा पीछा सोचना चाहिए था । क्या उन्हें यह समझ में तो यहां सिर्फ इतना ही कहूँगा कि यह सब कथन जिन- नहीं पड़ा कि इससे दूसरे महान् प्राचार्य ही नहीं, किन्न शासनके एकांगी प्रवलोकन अथवा उसके स्वरूप विषयक उनके पाराध्य गुरुदेव भी निशाना बने जा रहे हैं? अधूरे एवं विकृत ज्ञानका परिणाम है। जब भी कुन्दकुन्द यहां पर मैं इतना और भी बतजा देना चाहता हूँ कि तथा स्वामी समन्तभद्र जैसे महान् एवं पुरातन याचार्य, श्री कुन्दकुन्दाचार्यने शुद्धोपयोगी तथा शुभोपयोगी दोनों जो कि जैनधर्मके आधारस्तम्भ माने जाते है, पूजा-दान प्रकारक श्रमणों (मुनियों) को जैनधर्म-सम्मतमाना है। जिनबनाना मेसे एक अनास्रवी और दूसरा सास्रवी हाता है, वहन्तादिमे जिनेश्वरदेवका वह कौनसा वाक्य हो सकता है जो धर्म भक्ति और प्रवचनाभियुक्तोंमें वत्सलताको मुनियोंकी रूपमें इन क्रियाओंका सर्वथा उस्थापन करता हो कोई शुभचर्या बतलाया है; शुन्द्वोपयोगी श्रमणों के प्रति वन्दन. भी नहीं हो सकता। शायद इसीसे वह प्रमाण में उपस्थित नमस्करण, अभ्युस्थान और अनुगमन द्वारा भादर-सत्कार नहीं किया जा सका । इतने पर भी जो विद्वान् प्राचार्य की प्रवृत्तिको, जो मन शुद्धामवृत्ति के संत्राणको निमित्त. पूजा-दान · वनादिकको 'धर्म' प्रतिपादन करते हैं उन्हें भूत होती है, सरागचारित्रकी दशामें मुनियोंकी चर्याम "लौकिक जन" तथा "अन्यमतो" तक कहनेका दुःसाहस सम्यग्दर्शन-ज्ञानके उपदेश, शिष्य के ग्रहण-पोषण और किया गया है, यह बड़ा ही चिन्ताका विषय है। इस जिनेन्द्र पूजाके उपदेशको भी विहित बतलाया है। साथ विषयमें कानजी महाराजके शब्द इस प्रकार हैं: ही यह भी बतलाया है कि जो मुनि काय विराधनासे "कोई कोई लौकिकजन तथा अन्यमती कहते है कि पूजा रहित हुमा नित्य ही चातुर्वर्ण्य श्रमण संघका उपकार दिक तथा व्रत-क्रिया पहित हो वह जैनधर्म है; परन्तु ऐसा करता है वह रागकी प्रधानताको लिए हुए श्रमण होता है, परन्तु वयावृस्यम उद्यमी हुमा मुनि यदि काय-खेदको नहीं है। देखो, जो जीव पजादिके शुभरागको धर्म मानते है, उन्हें "लौकिक जन" और "मन्यमती" धारण करता है तो वह श्रमण नहीं रहता, किन्तु कहा है"। गृहस्थ (श्रावक) बन जाता है। क्योंकि उस रूपमे वैयावृत्य करना श्रावकोंका धर्म है। जैसा कि प्रवचनकार इन शब्दोंकी जपेट में, जाने-अनजाने, श्रीकुन्द-कुन्द र की निम्न गाथानोंसे प्रकट है:समन्तभद्र उमास्वाति, सिद्धसेन. पूज्यपाद. प्रकलंक और विद्यानन्दादि सभी महान् प्राचार्य मा जाते हैं, क्योंकि समणा सुद्धवजुत्ता सुहोवजुत्ता य होति समयम्हि। तेसु वि सुद्धवजुत्ता प्रणासवा सासवा सेसा ।।-४५|| उनमें से किसी ने भी शुभभावोंका जैनधर्म में निषेध नहीं _ अरहंतादिसु भत्ती वच्छलदा पवयणाभिजुत्तेसु । -------- -- -- - - -- -- -- -. .-.. - सापक श्रीकानजी स्वामीकी सोनगढीय संस्थासे प्रकाशित विजदि जदि सामरणे सा सुहजुत्ता भवे चरिया ४६|| समयसार (गुटका) में भी धर्मका अर्थ 'पुण्य किया है। वंदण-णमसणेहि अब्भुट्ठाणाणुगमणपडिवत्ती। (देखो गाथा २१.१.१५७) समणेमु समावण ओण णिदिदा रायचरियम्हि ||-४॥ Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १] 'पृथक दसरण - शास्त्रदेस सिस्सग्गहणं च पोसणं तेमिं । चरिया हि सरागाणं निशिदपूजोबदेसो य ॥ ४८ ॥ अवकुदि जो विणिकचं चादुव्वरणस्स समरणसं चस्म कार्यावराधरहि सो वि सरागप्पधारणो सो ॥ ४६ ॥ अदि कुर्यादि कायम्वदं वत्थमुज्जदो मम। हर्बाद, हर्बाद पगारी धम्मो सो साववाण से ॥५०॥ श्री कुन्दकुन्दाचार्य के इन वचनोंसे स्पष्ट है कि जैनधर्म या जिनशासनले शुभ भ वोको अलग नहीं किया जा सकता और नगुनियों तथा भावको मरागपारियको ही उससे किया जा सकता है। ये सब उसके अंग हैं, अगों होन अगी अधूरा या लंडूरा होता है. तब कानजी स्वामीका उक कथन निशामन के दृष्टिकोण कितना हित एवं विरुद्ध बताने की जरूरत नहीं रहती । खेद हूं उन्होंने पूजा-दान-चतादिकके शुभ भावोको धर्म मानने तथा प्रतिपादन करने वालोंको " खौकिकजन" तथा "अन्यमती" तो कह डाला ! परन्तु यह बतलाने की कृपा नहीं की कि उनके रस कहनेका क्या श्रीगर है किसने कहां पर पैसा मानने तथा प्रतिपादन करने वालोंको 'किक जन" आदिके रूपमें उ किया है? जहां तक मुझे मालूम है ऐसा कहीं भी उच नहीं है ने अपने नामें जीकिक जन' का जो लक्षण दिया है वह इस प्रकार है गांधी बट्टदि जदि पहिगेहि कम्मेहिं । सो लोगिगोत्ति भणिदो संजम-तव-संजुदो चावि । ३-६६ 1 : समयसार की १५वीं गाथा और श्री कानजी स्वामी इसमें आचार्य जयसेनकी टीकानुम र, यह बतलाया गया है कि बत्रादि परिग्रहका त्यागकर नि बन गया और दीक्षा लेकर प्रवजित हो गया है ऐसा मुनि यदि ऐहिक कार्यों में प्रवृत्त होता है अर्थात् भेदाभेदरूप रत्नत्रय भावके नाशक ख्याति पूजा-लाभके निमित्तभूत ज्योतिष-मंत्रवाद और वैद्यकादि जैसे जीवनोपायके लौकिक कर्म करता है, तो वह तप-संयमसे युक्त हुआ भी 'लौकिक' (दुनियादार) कहा गया है । इसके अन्तर्गत प्राचार्य तथा विद्वान् कदापि नहीं जो पूजा-रान-मतादिके शुभ मायाको'' बतलात हैं। तब कानजी महाराजने उन्हें 'लौकिक जन' ही नहीं, किन्तु 'अभ्यमती' तक बतलाकर जा उनके प्रति गुरुवर अपराध किया है उसका प्रायश्चिस उन्हें स्वयं [७ करना चाहिए। ऐसे वचनानयके दोष निर वचन कभी कभी मागको बहुत बड़ी हानि पहुँचाने के कारण बन जाते हैं। शुद्धभाव यदि सभ्य है तो शुभभाव उसकी प्राप्तिका मार्ग हे साधन है । साधनके बिना साध्यकी प्राप्ति नहीं होती, फिर साधनकी अवहेलना कैसी ? सामरूप मार्गहीन सीका तीर्थ है धर्म है, और उस मार्ग का निर्माण व्यवहारनय करता है। शुभभावांके अभाव में अथवा उस मार्गके कटजाने पर कोई शुद्धस्वको प्राप्त नहीं होता। शुद्धात्मा के गीत गाये जायें और शुद्धात्मा तक पहुँचनेका मार्ग अपने पास हो नहीं, तब उन गीतले क्या नतीजा ? शुभभावरूप मार्गका उत्थापन सचमुच मे जैनशामनका उत्थापन है और जैन सार्थकेोपकी और दम बढ़ाना है ही कैसी भी भूल ग़लती अजानकारी या नासमझीका परिणाम क्यों न हो? शुभ अटकने से डरने की भी बात नहीं है | यदि कोई शुभ में अटका रहेगा तो शुद्धस्वके निकट तो रहेगा-अन्यथा शुभके किनारा करने पर तो इधर-उधर अशुभ राग तथा द्वेषादिकमं भटकना पड़ेगा और फलस्वरूप अनेक दुर्गतियों में जाना होगा। इमीमें श्री पूज्यपादाचार्य ने इष्टोपदेशले ठीक कहा है: वरं त्रवैः पदं देवं नाऽत्रतैर्चत नारकम् । छायाऽऽतपस्थयोर्भेदः प्रतिपालयनाहान || श अर्थात्यवादि शुभ कर्मोंके अनु ठानद्वारा देवपद (स्वर्ग) का प्राप्त करना अच्छा है, न कि हिमादि अवतरूप पापकर्मीको करके नरकपदको प्राप्त करना। दोनों बहुत बड़ा अन्तर उन दा पथिकोंके समान है जिनमें से एक छायामे स्थित डाकर सुखपूर्वक अपने माथीकी प्रतीक्षा कर रहा है और दूसरा वह जां तेज धूप में खड़ा हुआ अपने साथीका बाट देख रहा है और श्रातपजनित कष्ट उठा रहा हूँ। साथीका अभिप्राय यहाँ उस मुद्रय-क्षेत्र का भावकी सामीज की प्राप्ति सहायक अथवा निमित्तभूत होती है। कुन्दकुन्दाचार्यने भी इस बातको माडी 'वर वय-नवहिं सग्गी' इत्यादि गाथा नं किया है। फिर तुमसे कम डरनेकी की सी बात है जिसकी चिन्ता कानजी महाराजको मताती है, Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ = ] अनेकान्न वाकर उस हालत में जब कि वे निर्यातवाद के सिद्धान्तको मान रहे हैं और यह प्रतिपादन कर रहे हैं कि जिस द्रव्यकी जो पर्याय जिम कम जिस समय होने को है वह उस क्रमसे उसी समय होगी उसमें किमी भी निमितमे काई परियमेन नामकना ऐसी स्थिति शुभभावाकां अधर्म बतलाकर उनको मिटाने अथवा छुडानेका उपदेश देना भी व्यर्थका प्रयास जान पड़ता है। ऐसा करके वे शुभ पाटिकी प्रवृत्तिका मार्ग माफ कर रहे है; क्योंकि शुद्ध भाव स्थावथामें मदा स्थिर नहीं रहता कुछ क्षण उसके समाप्त होने ही दुसरा भाव आएगा, वह भाव यदि धर्मको मान्यता के निकल जानेसे शुभ नहीं होगा तो बाकी कुशुभ ही प्रवृत होना पड़ेगा । अब यहाँ एक प्रश्न और पैदा होता है वह यह कि जब कानजी महाराज पूजादिके शुभ रगको धर्म नहीं मानव मन्दिर मूर्तियां तथा मानस्तम्भादिक निर्माण में और उनकी पूजा-प्रतिष्ठाके विधानमें यांग क्यों देते है ? क्या उनका यह योगदान उन कार्योंकी अधर्म एवं श्रहिनकर मानते हुए किसी मजबूरीके वशवर्ती है ? या तमाशा देखनfrerrant किसी भावनाका साथमें लिए हुए हैं ? श्रथवा लोक-संग्रहको भावनाएं लोगोको अपनी ओर किशन कर उनमें अपने किसी मन-विशेष के प्रचार करने की दृष्टि प्रोविन है ? यह सब एक समस्या है, जिसका उनके द्वारा शीघ्र ही हल होनेकी बढो जरूरत है; जिससे उनका कथनी और करणीमें जो स्पष्ट अन्तर पाया जाता है उसका सामंजस्य किसी तरह बिठलाया जा सके । उपसंहार और चेतावनी कानजी महाराजके प्रवचन बराबर एकाकी चोर रहे है और इससे अनेक विद्वानोका आपके विषय में अब यह खयाल हो चला है कि आप वास्तव कुन्दकुन्दाचार्यका नहीं मानते और न स्वामी समन्तभद्र जैम दूसरे महान जैन श्राचायको ही वस्तुतः मान्य करते हैं; क्योंकि उनमे से कोई भी प्राचार्य निश्वय तथा व्यव हार दोनों में किसी एक ही नयके एकान्त पक्षपाना नहीं हुए नयाँको परम्पर माक्षेप, अविनाभाव हुए एक दूसरेक मित्र-रूप में मानते तथा प्रतिपादन करने आये हैं जब कि कानजी महाराजका नोनि कुछ दूरी ही जान पड़ती है। अपने प्रवचन सम्बन्धको वर्ष १३ निश्चय अथवा द्रव्यार्थिकनयके इतने एकान्त पचपानी बन जाते हैं कि दूसरे नयs assist विरोध तक कर बैठते है-इसे शत्रके वगम्यरूपमें चित्रित करते हुए 'धर्म' तक कहनेके लिए उतारू हो जाते हैं। यह विशेष ही उनको सर्वथा एकाच कराता है और उन्हें श्री कुन्दकुन्द तथा स्वामी समन्तभद्र जम महान् आचार्यों के उपासकोंकी कोटिले निकाल कर अलग करना है अथवा उनके वैसा होने में सन्देह उत्पन्न करता ई और इसीलिए उसका अपनी कार्य-सिए कुन्दकुन्दादिकी दुहाई देना प्रायः वैसा ही समझा जाने लगा है जैसा कि कांग्रेस सरकार गांधीजीक विषय में कर रहा है—वह जगह-जगह गांधीजीकी दुहाई देकर और उनका नाम ले लेकर अपना काम तो निकालती है परन्तु गांधीजी सिद्धान्तोकी वस्तुतः मान कर देती हुई नज़र नहीं आती । 1 कानजी स्वामी और उनके अनुयायियोको प्रत्यक देख कर कुछ लोगां यह भी शंका होने लगी कि कहीं जैन समाजमे यह चौथा सम्प्रदाय ता कायम होने नहीं जा रहा है, जो दिगम्बर श्वेताम्बर और स्थानकवासा ऊपरी को कर तीनों मूल ही कुठाराघात करेगा और उन्हं आध्यात्मकताके एकान्त गर्तमें धकेल कर एकान्त मिथ्यादृष्टि बनानेम यत्नशील होगा; श्रावक तथा मुनिधर्मके रूपमें सच्चारित्र एवं शुभ भावोंका उत्थापन कर लोगोंको कवल 'आमार्थी' बनाने की चेष्टा तग्न रहेगा उसके द्वारा शुद्धामाके गीन तो गाये जायेंगे परन्तु शुद्धात्मा तक पहुँचने का मार्ग पापमे न होने बांग "इती भ्रष्टाम्नतो भ्रष्टाः" की दशाको प्राप्त होंगे; उन्हें अनाचारका डर नहीं रहेगा, बे केंगे कि जब श्रात्मा एकान्ननः अबद्धस्पृष्ट है- सर्व प्रकार के कर्म बन्धनोसे रहिन शुद्ध बुद्ध ह और उस पर वस्तुतः किसी भी कर्मका कोई असर नहीं होता, तब बन्धन छूटने तथा मुफि प्राप्त करनेका यत्न भी कैमा ? और पापकर्म जब आमाका कुछ भी बिगाड़ नहीं कर सकते तब उनमें प्रवृस हानेका भय भी कैमा ? पाप और पुण्य दानों समान दोनों ही सब पुराव जैसे कष्ट साध्य कार्यमें कौन प्रवृत्त होना चाहेगा ? इस तरह यह चोथा सम्प्रदाय किसी समय पिछले तीनों सम्पदाका हिन- शत्रु बन कर भारी संघर्ष उत्पन्न करेगा और Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरना१] जेन समाजका वह दानि पहुंचाएगा जो अब तक तीनों सम्यकद्वारा नहीं पहुंच सकी है, क्योंकि गोनांमें प्रायः कुछ कारी बनानेही संघर्ष - भीतरी साकीना जिन शामनका मूल रूप ही परिवर्तित हो जायग अनेकान्तके रूपनें न रह कर आध्यात्मिक नारया करनेके लिये वाध्य होगा । एकान्तका रूप समयमारकी १५वीं गाथा और श्रीकानजी स्वामी - यदि यह आशंका ठीक हुई भारी चिता का विषय है और इसलिए कामती यामीको अपनी पोजीशन और भी स्पष्ट कर की जरूरत है। जहां तक मैं समझता हूँ कानजी महाराजका ऐसा कोई अभिप्राय नही होगा ओठको जैन मायके जन्मका कारण हो । परन्तु उनकी प्रवचन-मालोका जी मध चल रहा हूँ और उनके अनुयायिांकी जो मिशनरी प्रवृतियां आरम्भ हो गई हैं उनमें भी आशका का होना श्रम्वाभाविक नहीं डं और न भविष्य म सम्प्रदायकी सृष्टिको हो चन्दा साविक कहा जा सकता है। अतः कानजी महाराजकी इच्छा यदि मुनीसा का नही हैं, तो उन्हें अपने प्रवचनोंके विषय में बहुत ही सतर्क एवं सावधान होने की जरूरत है—उन्हें केवल वचनां द्वारा अपनी पोजीशनको स्पष्ट करनकी ही जरूरत नहीं है बल्कि KH í ε व्यवहारादिक द्वारा ऐसा सुन प्रयत्न करने की भी जरूरत जिसमे उनके निमिनको पाकर पैसा चतुर्थ सम्प्रदाय भविष्य में वा न होने पाये, साथ ही बो-हृदय में जा उत्पन्न हुई दूर हो आप और जिन विज्ञानका विचार उनक विषय में कुछ दूसरा हो गई वह भी बदल जाय । ( मनु 'ज्ञानार्थी' कथा कहूँ । कम मैं पथष्ट पन्थि युग युगमे तुम स्वार्थक चेतन पैसे आग जला कर आग, आगमे कैसे शान्त म विप-फल बाय, नाथ असून फल कैसे आज ल ? अपना नीड भुला कर कैसे किसमे राह लहू ? क्या जानू जग कितना निष्ठुर कॅमे व्यथा महू ? मोहमद मुझे बचालो तुममे वही चहूँ !" श्राशा है अपने एक प्रवचनक कुछ अंशांपर सद्माबनाको लकर लिखे गये ६ श्राज्ञानात्मक लेख पर कानजी महाराज मविशेषरूपय ध्यान की कृपा करेंगे और उनका मरफन उनके स्पष्टीकरणात्मक वक्तव्य एवं नीमेशन ि गांधर हामः । वीरवान्दिर, दिली श्राप शुक्ला३ ५०२०१ जुगलकिशोर प्रस्तुत प्रवचन श्रीर भी बहुत मी बातें आपत्तिक याम्य हैं जिन्हें इस समय छादा गया -नमृनक तौर पर कुछ बाताका हो यहां दिग्दर्शन कराया गया हैअम्रत होने पर फिर किसी समय उनपर विचार प्रस्तुन किया जा सकेगा। मुख्तार - नाथ अब नेग शरण गहूँ । माहित्यरत्न ) अनि गभीर है मोह - जलधि में कैसे इसे न तृष्णा तृपा महाराजन कैसे पा हम यह संसार मान-तरणा से कैसे पार क. १ में पंछी मन्याला फँसे नीट गई? जगके जन सब ने अपना क भटक भटक कर जन्म जन्ममेतरा गई? नाथ! अब तेरा शरण गई Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरातन जैन साधुनोंका आदर्श (श्री.पं.हीरालाल जन सिद्धान्त शास्त्री) संसारके संतोंमें भारतीय संतोंका सदाम उच्च स्थान मुख्य सभी विषयोंका यथास्थान वर्णन किया गया है और रहा है और भारतीय संतोंमें भी जैन माधु-सन्तोका इसका प्रत्येक अधिकार अपनी एक खास विशेषता को आदर्श सर्वोच्च रहा है। जिन्होंने जैन शाम्त्रीका थोडामा लिए हुए है, तथापि अनगारभावनाधिकार और समयभी अध्ययन किया है और जो सच्चे जैन साधुके साराधिकार तो मूलाचारके मयम अधिक महत्वपूर्ण अधिसम्पर्क में रहे हैं, वे यह बात भली भांति जानते है कि कार है। अन गार-भावनाधिकारको प्रन्यकारने स्वयं सर्व जैन साधुका श्राचार विचार कितमा पवित्र और महान् शास्त्रों का सारभूत अनगार-मूत्र कहा है । इसमे लिगहाना है। जैन साधुमें ही अहिंसामय परम धर्मका पूर्ण शुद्धि व्रत-शुद्धि, वसति शुन्द्रि, विहार-शुद्धि, शिक्षा-शुद्धि, दर्शन होता है। ये साधु अपने आचार-विचारमे किसी ज्ञान शुद्धि, उज्झन-शुद्धि, वाक्य शुद्धि, तपः - शुद्धि भीर प्राणीको कष्ट नहीं पहुंचाते, प्रत्युत प्राणिमात्रके उद्धारको ध्यान-शुद्धि, इन दश प्रकार की शुद्धियो का वर्णन किया प्रतिक्षण भावना करते रहते है। यही कारण है कि ऐसे गया है इस प्रकरणको पढ़ते हुए पाठकके हृदय पर यह सार्वजनीन - महितकर -माधुको जनाने अपने भाव अङ्किन हुए विना नहीं रहना कि जैन साधुनोंका अनादि मूल मंत्र स्थान दिया है और उन्ह "णमां लोए धरातल संसारी प्राणियोक धरातजस कितना ऊँचा है, सवसाहूणं" कह कर भक्ति पूर्वक नमस्कार किया है। उनका श्राचार विचार वती श्रावकोंस भी कितना ऊँचा होता है और उनका हृदय कितना शुद्ध और पवित्र होता श्रा० कुन्दकुन्दने ऐसे मार्व साधुश्री का मी स्वरूप है। इस अधिकारमे वगिन उक्त दश प्रकारको शुट्टियाका दिया है वह इस प्रकार है : पाठकोकी कुछ परिचय कराया जाता है, जो कि श्रादश णिव्याण-साधप जोग, सदा जुज्जति साधवो। साधु जीवनके लिए मर्वोपरि अपेक्षित है। समा सवेमु भूदेमु, तम्हा ते मध्यमाधवो ॥ १. लिंग-शुद्धि-निर्विकार, निम्रन्थ-रूप शरीरकी शुद्धको लिग शुद्धि कहते हैं। साधु किसी भी प्रकारका (मूलाचार ५१२) बाह्य परिग्रह नहीं रखते, शरीरका सस्कार नहीं करते, जो सदा काल निर्वाण-साधक रत्नत्रयकी माधना यहाँ तक कि स्नान और दातुनमे भी उपेक्षित रहते है। में तल्लीन रहते है और मर्व प्राणियों पर सम भाव रखते केशोंका अपने हाथोंमे लांच करके वे शरीरमे अपने निर्ममहै.-प्राणिमात्रके हित चिन्तक हैं-उन्हें सार्व साधु स्वभावको प्रकट करते है, घर-बार छोड़कर और कुटुम्बकहते हैं। से दूर रह कर वे संमार और परिवारसे अपने नि:संगस्वश्रा० कुन्दकुन्दने अपने मलाचारमे साधुश्रांके भावका परिचय देते हैं। पांचों इन्द्रियोंके भोगोपभोगांसे प्राचार-विचारका बड़ा ही मर्मम्पर्शी वर्णन किया है राम भाव छोपकर वे अपनी वीतरागताका प्रमाण उपजिससे पता चलता है कि माधुश्रीका पूर्वकालमें कितना स्थिन करते हैं। वे इस मनुष्य जीवनको चपला उच्च प्रादर्श था और वे चारित्ररूप गिरिको शिखर पर (बिजली) के समान चंचल, भोगांको रोगांका घर और प्रारूढ़ होकर किस प्रकार प्रारम-साधना करते थे। ग्रन्ध- असार जानकर संसार, देश और भांगोंसे विरक होकर कारने साधुनोंकी प्रत्येक क्रियाका वर्णन वर्तमान कालका जिनोपदिष्ट वीतरागधर्मको धारण करते हैं। वे जन्मक्रियापद देकर किया है, जिससे ज्ञात होता है, कि ग्रन्ध- मरणके दुःखोसे उद्विग्न एवं संसार-वाससे भयभीत होकर बणित बातें केवल आदर्श ही श्रादर्श नहीं है, अपितु वे जिनोक तत्वोंका दृढ़ श्रद्धान करते हैं, कषायोंका परिहार उनके जीवन में रमी हुई सत्य घटनाए हैं और उस समय करते हैं और उत्साह पूर्वक शुद्ध प्रारमस्वरूपकी प्राप्तिके ग्रन्थ में वर्णित आवर्शके अनुरूप मूर्तिमान् साधुगण इस लिए सतत अग्रेसर रहते है । इस प्रकार यथाजातरूप भारतवर्ष में सर्वत्र विहार करते हुए दृष्टि-गोचर होते थे। (नग्न) मुद्राको धारण कर वीतरागताकी अाराधना करना यद्यपि मूलाचारमें साधुओंके आगर-विषयक मुख्य- ही साधुम्रोको लिग शुद्धि है। (गा० ७.१२) Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १] पुरातन जेन साधुओंका आदर्श - २ व्रतशुद्धि-हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और हैं। जहाँ सिह विचरण करते हैं, ऐसे पर्वतोंके उपरितन, परिग्रह, इन पाँचों पापोंका मन, वचन काय और कृत, अधस्तन, मध्यवर्ती भागमें, या कन्दरामोंमें वे नर-सिंह कारित, अनुमोदनामे यावज्जीवन के लिए त्याग कर पांच साधु जिनवचनामृतका पान करते हुए प्रावास करते है। महावतोंका धारण करना, उन्हें प्राणान्तक परीपह और वे साधुजन धर्ममें अनुरक्त हो, घोर अन्धकारसे ज्याप्त, उपमर्गके प्राने पर भी मल्लिन नहीं होने देना व्रतशुद्धि श्वापद सेवित, गहन वनामे रात्रि व्यतीत करते हैं, तथा कहलाती है जैन साधु कर जंगली जानवरोंके द्वारा स्वाध्याय और ध्यान में लवलीन होकर रात भर सूत्राय ग्वाये जाने पर भी मनमे उनके प्रति दुर्भाव नहीं लाते, और प्रात्म चिन्तन करते हुए निद्राके वशंगत नहीं होते प्रत्युत्त यह चिन्तवन करते है कि यह बेचारा उपद्रव है। वे वीर मुनिजन, वीरासन, पद्मामन. उत्कुटामन करने वाला मेरे उदयमे पाने वाले दुषमों के निमित्तसे आदि विविध योगासनोंका पाश्रय लेकर प्रात्मस्वरूपका पापका संचय कर रहा है, अहो, मैं कितना पापी हूँ। चिन्तवन करते हुए गिरि-गुफाओंमें रह कर रात्रिको व्यतीत इस प्रकार स्वकर्म-विपाकका विचार कर उस पर क्षमाभाव करते है। उपधि-भारसे विमुक्त, काय ममत्वसे रहित, धारण हरते हैं। प्राण जानेका अवसर प्राने पर भी धीर वीर मुनियोको यही वातशुद्धि है और एमी वर्मातलेशमात्र झूठ नहीं बोलते, विना दी हुई मिट्टो तकसे भी कामे रह कर ही साधुजन मारम-सिद्धिकी साधना करते हाय नहीं धोते, अखंड ब्रह्मचर्य धारण करते हैं और मेरा है। (गा. १६.३) ब्रह्मचर्य स्वप्न में भी खंडित न हो जाय, एतदर्थ गरिष्ठ ४ विहारशुद्धि-दय के अवतार माधुजन प्राणिमानभाजन, और घृतादि रसोको परिहार कर एक वार नीरस की रक्षा करते हुए इस भूतल पर विहार करते हैं वे रूखा मूखा श्राहार करते हैं। अति भयंकर शीत-उष्णकी ज्ञान के प्रकाश जीव और अजीवके विभागको भलीबाधा होने पर भी मदा नग्न रहते हैं, वालाग्र मात्र भी भौति जान करके मदा सावधान होकर मयं यावद्य योगका वस्त्रादिको धारण नहीं करते । वे मदा अपरिग्रहवे. परिहार करते है, पापम्मे दूर रहते हैं, किसी भी त्रम मुतिमान स्वरूप होकर निज शरीर में भी रंचमात्र ममन्व जीवको बाधा नहीं पहुंचाते, पृथिवी, जल, अग्नि, वायु नहीं रखने और व-स्वभाव सदा सन्तुष्ट रहते हैं इम और वनस्पतिकी न स्वयं विराधना करते है, न अन्य तरह सर्व प्रकारसं महावनाका निदोष पालन करना कराते है और न करते हुएको अनुमांदना करते हैं। वे वतशुद्धि है । ( गा० १३-10) सर्व प्रकारके अस्त्र-शस्त्रादिकम रहिन होते हैं, सर्व ३ वनिगुद्धि-वति नाम निवासका है। विहार प्राणियों पर समभाव रखते हैं और धारमार्थका चिन्तवन करते हुए साधुको जहाँ सूर्य अस्त होता हा दृष्टिगोचर करते हुए मिहके ममान निर्भय होकर विचरते हैं। होता है, वहीं किसी एकान्त, शुद्ध प्रामक स्थान पर जहाँ कपायाका उपशमन या उपण करने वाले वे साधुजन सदा पशु, स्त्री, नमकादिकी बाधन हो, ठहर जाते हैं। उन्नत मन, उपक्षाशील, काम-भागांम विरक वैराग्य भाव और सूर्योदयके पश्चात् विहार कर जाते हैं। ग्राममे नानाम परिपूर्ण और स्नत्रय धर्मके पागधनमें उद्यत एक रात्रि और नगर पाँच रात्रि तक रहते हैं। वे सदा रहकर इस भव-वृक्षक मूलका उच्छेदन करते रहते हैं। एकान्त, शान्त स्थानमें निवास करते हैं और प्रामक मार्ग वे सदा अपनी विचक्षण बुद्धिर्म कपायांका दमन और पर ही विहार करते है। साधुजनोंक निवास-योग्य वमनि- इन्द्रियांका निग्रह करते हुए अगर्भवतिका अन्वेषण काओंका विवेचन करते हुए मुजाचार-कार कहते है कि करते रहते हैं जिससे कि पुनः संसारमं जन्म न ग्रहगा पर्वतांकी कन्दराएं. श्मशान भूमियाँ और शुन्यागार ही करना पड़े। हम प्रकार विचरनको शुद्धिको विहारशद्धि श्रेष्ठ वसतिकार है और इनमें ही वीर पुरुष निवास करते करते हैं। (गा० ३-४३) है। जो स्थान जंगली जानवरोंकी गर्जनासे गुंजायमान ५भिक्षाशुद्धि-भिक्षा अर्थात् भोजनकी शुद्धिको है, जहाँ व्याघ्र, चीता भालू आदिके शब्द सुनाई दे रहे मिक्षाशुद्धि कहते हैं। साधुजन मन, वचन, काय और कृन, हैं ऐसी गिरि-गुफाओंमें धीर वीर माधु जन निवास करते कारित, अनुमोदनास शुद्ध, शंकादि दश दाबसे रहित, Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२] अनेकान्त । वर्ष १३ नख-राम आदि चौदह मलासे वर्जित और दूसरेक द्वारा उत्पन्न होने पर भी, आंखांकी पीड़ा, शिरको वेदना, उदरभक्तिपूर्वक दिये हुए माहारको पर-घर में ही पाणिपात्रमें का शूल और वात-पितादिक विकार जनित रोगोंके उत्पन्न रखकर भोजन करते हैं। वे अपने उद्देश्यले बनाये गये होने पर भी स्वयं औषधि सेवन नहीं करते और मनमें अपने लिए खरीदे गये, अज्ञात, कित, प्रतिषिद्ध और विकार तक नहीं उत्पन्न होने देते हैं। वे शारीरिक मान आगम-विरुद्ध प्राहारको ग्रहण नहीं करते। वे मौनपूर्वक मिक मभी प्राधि-व्याधियाँको परम प्रौपधिरूप जिनवाणीविहार करते हुए. धनी या निर्धनका ख्याल न करके जहाँ का सदा अभ्यास करते रहते हैं। वे जन्म, जरा, मरणरूप पर निर्दोष भोजन उपलब्ध हो जाता है, वहीं उसे ग्रहण रोगाके निवारण करने के लिये जिनवचनकी ही परम कर लेते हैं। वे शीतल या उष्ण, सरस या नीरस, लोने. अमृत मानते हैं व सर्व प्रकारके प्रात्त और रौद्ध्यान या अलोने, रूखे या चिकने श्रादिका कुछ भी विचार न का परित्याग करके धर्म और शुक्ल ध्यानका चिन्तवन करके श्रावकके द्वारा भक्तिपूर्वक दिये गये भोजनको सम- करते हैं. सर्व विकार भावों का परित्याग करके शुद्ध भावों भावके साथ ग्रहण करते हैं। जिस प्रकार गाड़ोको ठीक की प्राप्ति और पालन करने में प्रयत्नशील रहते हैं । शरीरको प्रकारसे चलने के लिए पहिया में घोंघनका लगाना जरूरी सर्व प्रशुचियाका घर समझकर उससे उदासीन रहते हैं, होता है उसी प्रकार शरीर धर्मसाधनके योग्य बना रहे, उसमें भूल करके भी राग-भाव नहीं धारण करते हैं। एतदर्थ वे निदाप श्राहारको ग्रहण करते हैं । आहारके इस प्रकार सांसारिक पदार्थोंका परित्याग करके वीतरागतामिलने पर वे संतुष्ट नहीं होते और न उसके अलाभ म्वरूप शुद्धि को धारण करना उज्झनशुद्धि कहलाती है। असंतुष्ट होते हैं। न मुंहसे आहारकी याचना करते हैं (गा. ७०-८६) और न पाहार देने वाले की प्रशंमा ही करते हैं । व वाक्यशद्धि-चनकी शद्धिको वाक्यशुद्धि करते अमासुक, विवर्ण, जंतु-संसृष्ट, चालत, क्वचित, विरस हैं। माधु जन धर्म-विरोधी, दूसरों को पीदाकारी एवं अनर्थ और वास भोजनको नहीं ग्रहण करते हैं। इस प्रकार जनक वचन भूल करके भी नहीं बोलते हैं। सर्वप्रथम तो भोजनकी शुद्धि का साधुजन भले प्रकारमे पालन करते साधु मौनको ही धारण करते हैं। यदि धर्मापदशादिके निमित्तसे बोजना भी पड़े तो हित मित, प्रिय वचन ही ६ज्ञानशुद्धि-द्रग्य, क्षेत्र, काल, भावकी शुद्धि- बोलते हैं, अप्रिय और कटु सत्यको भी नहीं बोलते हैं। पूर्वक ज्ञानकी प्राप्ति के लिए नाना प्रकार के तपांकी पाराधना म्त्रीकथा. अर्थ कथा, भोजनकथा राजकथा, चार कथा, देशकरते हैं, एकान्तम निवास करते है, गुरुको सुश्रषा करते कथा. युद्धकथा मल्लकथा प्रादि विकथानाको कभी नहीं हैं, माथियोंके साथ तत्वांका अनुमनन और चिन्तन करते कहते । वे इनका मन, वचन, कायम परित्याग करते हैं। है, सर्व प्रकारके गर्वसे दूर रहते हैं, जिनोक्त तत्वांके श्रवण, कन्दर्प कौत्कुच्य, मौखर्य-मय प्रलाप, हास्य, दर्प, गर्व ग्रहण और धारणमें तत्पर रहते हैं, अपनी साधनाके द्वारा और कलह उत्पादक वचन भूलकर भी नहीं कहते है। अष्टांग महानिमित्तांके, ग्यारह अंग और चौदह पूर्वोके जब भी कहेंगे, तो भागमोक, धर्म-सयुक्त हित, मित ही पारगामी होते हैं, पदानुमारी, बीजबुद्धि, मंभिन्नश्रीतत्व कहगे । इस प्रकार साधुजन वाक्यशुद्धिको निरन्तर भावना प्रादि ऋद्धियोंके धारक होकर परमपदका मार्गण करते रखते हुए उसका समुचित पालन करते हैं। (गा० ८७ १५) रहते हैं। ऐसे साधुजनोंके ज्ञानशुद्धि कही गई है। तपःशुद्धि-तपःसम्बन्धी शुद्धिको तपःशुद्धि कहते (गा० ६२ ६१) है। वे साधुगण लौकिक-मान प्रतिष्ठा आदिसे रहित होकर ७ उज्झनशुद्धि-उज्झन नाम त्याग या परिहारका निश्छलभावसे अपने कमाँकी निर्जराके लिए तपश्चरण है। साधुजन सर्वप्रथम स्त्री, पुत्रादि, कुटुम्बी जनोंके स्नेह का करते हैं. स्वाध्याय संयम और ध्यानमें सदा सावधान त्याग करते हैं, पुनः थन, परिग्रहादिकी ममताका त्याग रहते हैं। जब हेमन्त ऋतु प्राकाशसं हिम वर्षा हो रही करते हैं, शरीरसं माहका त्याग करते हैं, उसके संस्कारका हो, उस समय वे खुले मैदानों में खड़े होकर शीतपरीषह त्याग करते हैं, स्नान, दातुन, तेल मर्दन, अंजन, मंजन सहन करते हैं। जब ग्रीष्मऋतु में प्रचण्ड सूर्य अग्निवर्षा मादिका त्याग करते हैं। वे शरीरमें प्राण-हारिणी पीढाके करता है तब वे पर्वतोंकी शिखरांपर ध्यान लगाकर उपण Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १] पुरातन जैन साधुओं का आदर्श [१३ - परीपह सहन करते हैं। जब वर्षाऋतु में पानी मसलाधार सर्वाधिक प्रभाव डालती है, वह यह है कि साधुका जीवन बरसता है, तब वे वृक्षोंके तले खड़े होकर ध्यान लगाते कितना पवित्र और उच्च प्रादर्शयुक्त होता है कि वह हैं। इस प्रकार वे परम तपस्वी साधु तीनों नमी में घोर अपने आहार-विहारसे किसीको पीदा नहीं पहुँचाना परीषह और उपसर्गों को सहन करते हुए घोर तपश्चरगा चाहता, दुनियादारीसे सम्पर्क रखकर चिनकी शुद्धिको करते हैं। प्रबल शीतकाल में उनका मारा शरीर फट जाता बिगाड़ना नहीं चाहता और परिग्रह-भारका परित्यागकर है, अति उप्णकाल में सारा शरीर सूर्यको प्रबर किरणोंये निराकुल रहना चाहता है । वह साधु-चंपकी मर्यादा रम्बनेके मुजस जाता है, वर्षाऋतुम जब डांस-मच्छरोंके उपद्रव लिए सदा सावधान रहता है। ग्राम और नगरोंके कोलासारा शरीर विकल हा उठता है, तब वे धीर वीर परम हलपूर्ण वातावरणसे अति दूर होकर नर्जन वन वर्मातकानों शमभावसे उस वेदनाको सहन करते हुए सदा कर्म-क्षपणमें और गिरि-कन्दरामा में रहना स्वीकार करता है। यसतिउद्यत रहते हैं। कोई उन्हें दुर्वचन कहे, मारे, नानाप्रकारको शुद्धिका प्रकरण पढ़ते हुए पहसा ममाधितंत्रका यह श्लोक याद अा जाता है :यातनाएं दं, शस्त्र प्रहार कर, तो भी वे तमाके सागर ___ जनेभ्यो वाक् ततः स्पन्दो मनमश्चित्तविभ्रमाः। प्रहार करने वालों पर जरा भी कुपित नहीं होते। सदा भवान्न तम्मात्मंसगं जनैोगी नतस्त्यजेत ॥७२॥ पांचा इन्द्रियांका दमन करते और कपायोंका निग्रह करने अर्थात्-मनुष्योंक सम्पर्कस वचनका प्रवृत्ति हाती है, हुए अपनी आवश्यक क्रियाओंका पालन करते रहते हैं। वचनकी प्रवृत्तिसं मनमें व्यग्रता उत्पन्न होनी है मनकी इस प्रकार परम विशुद्धि पूर्वक तपश्चरण करना तपःशुद्धि व्यप्रनाम नाना प्रकारक विकल्प उत्पन्न होते हैं और है । (गा० ६६ १०६) विकल्पोंमे कर्मास्रव होता है, इसलिए परम शान्तिके १० ध्यानशुद्धि-मनकी चंचलताको शंकना, उसे इच्छक मायोको चाहिए कि वे लौकिकजनोंके साथ विषय कपायों में प्रवृत्त नहीं होने दना ध्यानशुद्धि कहलानी संपर्गका परित्याग करें । है। जैसं मदोन्मत्त हाथ। अंकुशसे वश में हो जाता है. कहनेका प्राशय यह है कि जहां भी लौकिक जनों का उसी प्रकार साधुजन अपने मनरूपी मत्त हस्तीको ज्ञानरूप सम्पर्क होता है, वहाँ कुछ न कुछ वार्तालाप अवश्य होना अंकुशस वश में रखते हैं। अथवा विपयां में दौड़ते हुए है, उससे चित्त में चंचलता पैदा होती है और उपमे नाना चरल इन्द्रियरूप अश्वोंको व योगिजन गुप्तरूप लगामक प्रकारक संकल्प-विकल्प उत्पन होने है। अतः श्रान्मम्बद्वारा उन्हें अपने प्राचीन रखते हैं। राग, द्वेष, मोहको रूप मापन करने वाले माधुग्रीको निर्जन एकान्न, शान्त दुरकर, भात और रौद्रभावोंका परित्याग कर सदा धर्म- वमनिकााम ही निवास करना चाहिए, नगरीके कोलाहलध्यान में रत होकर शुक्ल ध्यानको प्राप्त करनका प्रयत्न पूर्ण वातावरण में नहीं। करते रहते है। जिस प्रकार प्रबल भौंधी और तूफान भाने इम अधिकारको पढ़ने हुए वीतराग माधुश्रीका पर भी सुमेरु अचल रहता है, उसी प्रकार वे साधजन मृर्तमान रूप पाठकके सम्मुम्ब श्र। उपस्थित होता है। प्रवल उपसर्गादिक पाने पर भी अपने ध्यानसे पवित्रता और विशुद्धिनाके भागार उन अनगार-माधाको मात्र चन-विचल नहीं होते। यही उनकी ध्यानशुद्धि नमस्कार है। ।(गा०१०-११) समयसाराधिकारइस प्रकार इन शुद्धियांका वर्णनकर मलाचार-कार मूलाचारका समयमाराधिकार तो सचमुच ममय कहते हैं कि उक्त शुद्धियाँको धारण करने वाले पानीको अर्थात् जैन शासनका मार ही है। 'समयसार' इम पदका भ्रमण, संयत, ऋषि, मुनि, अनगार, वीतराग, भदन्त अर्थ करते हुए टीकाकार प्रा. वसुनन्दि लिम्वत है: और दाम्त आदि नामसि पुकारा जाता है, और एसे ही 'समयमार द्वादशा पूर्वाग्गां सारं परमतत्त्वं फराषिराज अपनी रस्नत्रयकी विशुद्धि के द्वारा सर्व कर्मोंका मूलगुणोनरगुग्णानां च दर्शनशानचारित्राणां शुद्धितय करके परम सिद्धिको प्राप्त करते हैं। विधानस्य च भिक्षाशुद्धश्च मारभूतं ।' इस अधिकारका विहगावलोकन करने पर एक बात अर्थात्-'यह समयमार अधिकार बारह अंग और जो पाठकके हृदय पर अंकित होती है और उस पर अपना चौदह पूर्वोका सार है, परम तत्व , तथा मूलगुण, उत्तर Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १४] अनेकान्त [ वर्प १३ गुण, सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रकी शुद्धि के विधानका और प्रेममे सूत्ररूपमें उपदेश देते हए और साधुजनाको भिक्षाशुद्धिका सारभूत है।' संबोधन करते हुए कहा है:इस प्रकार इस अधिकारका महत्व उसके नामसे ही भिक्खं चर वस रणणे थोवं जेमेहि मा वह जंप । स्पष्ट है । अधिकारका प्रारम्भ करते हुए ग्रन्थकार कहत दुकावं सह जिग्ण णिहां मेति भावेहि सुटरी वेरगं ।।। हैं कि जो श्रमण द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और संहननकी अपेक्षा जैसा प्रयत्न या परिश्रम करता है, तदनुसारही वह हे माधुओ, हे श्रमणो, तुम लोग कहां भटके जा रहे अल्पकाल में सिद्धिको प्राप्त करता है। इसका अभिप्राय हो और अपने कर्तव्यको भूल रहे हो? ग्रामों और नगरोंमें यह है कि साधुको अपने द्रव्य क्षेत्र, काल, भाव और केवल भिसाके लिए पानेका तुम्हें श्रादेश है, वहाँ बसनेका काय-बल के अनुसार अपना कर्तव्य पालन करना चाहिए। नहीं; अतः भिक्षाके समय ग्राम या नगरमें जाओ और साधु श्रास्ममिद्धिको किस प्रकार शीघ्र प्राप्त कर लेता है. श्राहार करके तुरन्त वनको वापिस लौट आयो। गाथाके प्रश्नका उत्तर देते हुए मलाचारकार कहते हैं कि जो धीर- इस प्रथम चरण द्वारा साधुओं को उनके बड़े भारी कर्तव्यका वीर है अर्थात् परीषह और उपसगाको दृढ़तापूर्वक महन भान कराया गया है और नगर-निवाससे उत्पन्न होने वाले करता है, वैराग्य में तत्पर ई-अर्थात् संसार, देह और अनेक दोषोंसे साधु-जनांको बचाने का प्रयास किया गया है। भोगास विरक चित्त है, वह साधु थोड़ा भी पढ़कर-अष्ट गाथा द्वितीय चरण द्वारा एक विधानात्मक और एक निपेप्रवचन-माताका और अपने कर्तव्यका परिज्ञान कर लेता है, धात्मक ऐसे दो उपदेश एक साथ दिए गए हैं। वे कहते हैं बह सिद्धिको पा लेता है, परन्तु जो वैराग्यसे रहित है- कि हे मिश्रो ! थोड़ा जीमो और अधिक मत बोलो। कितना जिमका चित्त संसार, देह और मांगामें आसक्त है, वह सुन्दर और मार्मिक उपदेश है। मनुष्य जब अधिक खाता मई शास्त्रांको पढ़ करके भी सिद्धि को प्राप्त नहीं होता है। है तब अधिक बोलता भी है। एक ओर जहाँ अधिक इम उत्तरंक द्वारा ग्रन्धकार प्रा. कुन्दकुन्दने साधुश्रांको खानेसे प्रालस्य और निद्रा मनुष्यको पीदित करती है. उनका कर्तव्य बतलाते हुए एक बहुत ही महत्वको बात वहीं दूसरी ओर अधिक बोलने वाले मनुष्यके द्वारा कही कि माधको राग्यसे भरा हमाहाना ही चाहिए। सत्यका संरक्षण नहीं हो पाता । इसलिए प्राचार्य उपदेश यदि वह वैराग्यसे भरपूर नहीं है और उसका चित्त सांसा देते हैं कि कम खामो और कम बोलो। ध्यान और रिक प्रपंची और विषय वासनामामें उलझा हुआ है तो वह अध्ययनकी सिद्धि तथा चित्त की विशुद्धि के लिए इन दोनों कभी भी सिद्धिको नहीं पा सकता। (गा० २.३) बातोंका होना अत्यन्त आवश्यक है। गाथाके तीसरे चरण अनगारभावनाधिकारके अध्ययनसे जहां यह विदित द्वारा प्राचार्य उपदेश देते हैं कि हे साधुभो, दुःखको सहन होता है कि मुलाचार-कारके समय में साधुगण नगरांमदर करो और निद्राको जीतो। श्रास्मस्वरूपकी प्राप्तिके लिए निर्जन, एकान्त, शान्त वन-प्रदेशों में रहकर मौन-पूर्वक निद्राको जीतना और दुःखोंको सहन करना अत्यन्त श्रास्मसाधनामें तत्पर रहते थे, वहाँ इस अधिकार के अध्य- आवश्यक है। निद्रा मनुष्य को अचेतन कर देती है और यनसे यह भी ज्ञात होता है कि माधुजनों में कुछ शिथिला- उसके हिताहित-विवेकको शून्य बना देती है। इसके विपचारका प्रवेश होने लगा था और वे गांचरी-कालक रीत जो निद्रा पर विजय प्राप्त करता है, उसकी बुद्धि अतिरिक्त अन्य समय में भी नगरों में रहने लगे थे. थाहारकी तीक्ष्ण होती है तथा ग्रहण और धारणा शक्ति बढ़ती है। मात्राका उल्लंघन करने लगे थे, व्यर्थ अधिक बोलने लगे इसी प्रकार शान्तिके साथ दुःख सहन करनेसे तपोबल थे, परीपह और उपसगाँ के दुःख सहन करने में कायरपनका बढ़ता है और उससे संचित कर्मोको निर्जरा द्वारा श्रात्मअनुभव करने लगे थे। उन्ह रात्रि में निद्रापर विजय पाना स्वरूपकी सिद्धि होती है, अतएव मुमुक्षु श्रमणको कठिन प्रतीत होने लगा था तथा वैराग्य और मैत्रीभावकी दुःखोंका सहन करना और निद्रा पर विजय पाना अत्यन्त कमी होने लगी थी। ऐसा प्रतीत होता है कि साधुजनोंके आवश्यक है। चतुर्थ चरणके द्वारा प्राचार्य उपदेश देते हैं इस प्रकारके व्यवहार और प्राचारको देख कर प्रा० कुन्द- कि प्राणिमात्र पर मैत्रीभाव रखो और अच्छी तरह कुन्दका हृदय पान्दोजित हो उठा है और उन्होंने अत्यन्त वैराग्य की भावना भावो।(गा.) Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १ ] पुरातन जैन माधुओंका आदर्श [१५ इससे धागे मूलाचार कार कहते हैं कि यदि तुम अभ्यंग, संस्कारादिको छोड़कर उससे रागभावके दूर संसार-सागरसे पार होना चाहते हो, तो सर्व नोक-म्यवहार करनेको व्युत्सृष्टशरीरता कहते हैं। जीवोंकी रक्षार्थ को छोड़ो; प्रारंभ, परिग्रह और कषायोंका परित्याग करो; कोमल प्रतिलेखनको रखना चौथा श्रमण-चिन्ह है । एकस्व की भाधना भाया और एकाग्र चित्त होकर (गा. १७) आत्म ध्यानको करो। संसार-सागरको पार करनकालय प्रतिजेवन कैसा हो. इसका विवेचन करते हुए कहा चारित्र नौका है. ज्ञान खेवटिया है चोर ध्यान पवन है। गय है कि जो रज-ल को ग्रहण न करे, प्रस्वेद-पसीनाइन तीनोंके समापोगस हा भव्य जीव भव-सागरके पार को ग्रहण न करे. जिसमें मृदुता हो, सुकुमानता ही अरि उतरते हैं। (गा. ५-७) लघुना हो, ऐसे पांच गुणांस युक्त मयूरपिच्छका प्रतिलेखन ___ इसी बातको प्राचार्य प्रकारान्तरम कहते हैं कि ज्ञान साधुओंके ग्रहण करने योग्य है । मयूर पच्छ इतने कोमल मार्ग-दर्शक है, तप शोधक और संयम रक्षक है । इन होते हैं कि उन्हें शरोरके सबसे अधिक सुकुमार तीनांके ममायोगसे ही मोक्ष प्राप्त होता है। यथा- अङ्ग - पांचोंक ऊपर भी प्रमानन कर देने पर उनमें णाणं पयामओ तो सोधओ संजमा य गुत्तियरो। कोई पीड़ा नहीं होती। अतः इसके द्वारा भूमिके तिरह पि संजोगे होदि हु जिणमासणे गावखो ।।। प्रमाजन करने पर आंखांसे नहीं दिखाई देने वाले सूक्ष्म ___ सम्यग्दर्शनका माहात्म्य प्रकट करते हए मुलाचार-कार जीव तक की भी विराधना नहीं होती। धूलि और कहते हैं कि सम्यक्त्वस तत्त्वाक ज्ञानकी उपलब्धि होती पमानाकं न लगानेसे उसमें सम्पूच्छन जीवों की उत्पत्ति नहीं होता। बाकांक तिलखनमें व्रमजीव उत्पन्न हो जाते है, तत्त्वज्ञानमे सर्व पदार्थों का यथार्थ बोध प्राप्त होता है और यथार्थ बोधस मनुष्य श्रेय-अधेयका-अपने कल्याण है, अन्य वस्तुओंके प्रतिलेखन कर्कश होते हैं, जिससे कि जीवघातकी शंका बनी रहती है, अतएव उपयुक्त पंचगुण और भकल्याणको जानता है । भ्रय-प्रश्रयका ज्ञाता दुःशीन या प्रकर्तव्य को छोड़ कर शीलवान बनता है और विशिष्ट मयूर-पिच्छाका प्रतिलेखन ही साधुओंको महण करने के योग्य है । (गा० १६-२३) फिर उससे अभ्युदय और निःश्रयमको प्राप्त करता है। इसलिए पर्व प्रथम सम्यक्त्वको प्राप्त करना चाहिए। अधःकर्म-भोजीके दोप (गा० १२ १३) जीबाकी विराधनासे उत्पन्न होने वाले याहारको अध:आगे कहा गया है कि अच्छी तरह पठित और कर्म दृषित माना जाता है। जो माधु निरन्तर मौन रखता सुगुणित भी सर्व श्र तज्ञान चारित्रमे भ्रष्ट श्रमणको हो, प्रातापनादि योग और वीरासन आदिको करता सुगतिमें नहीं ले जा सकता है यदि कोई द.पक हाथमें हो. वनमें रहना हो, परन्तु यदि वह अधःकर्म - दूषित लेकर कूप में गिरता है तो उसके हाथ में दीपक लेनेसं क्या भोजन ग्रहण करता है तो उसके उपयुक्त सर्व योग निरलाभ है ? इसी प्रकार यदि कोई मर्व शास्त्रीको पद र्थक कहे गये हैं। (गा. ३१.३२) जो माधु गुरुके समीप करके भी कुमार्ग पर चलता है तो उसके शास्त्र शिक्षासे सायं-प्रातः पालोचना और प्रतिक्रमण करके भी अधः कर्म-परिणत पाहारको ग्रहगा करता है, उस संसारका क्या लाभ है (गा० १४.१५) बढ़ाने वाला कहा गया है। अधःकर्म-परिणत माधु सदा श्रमण-लिंग कर्म-बन्ध करने वाला माना गया है। (गा० १६.४३) साधुका लिग या बेष कैसा होता है, इस प्रश्नका इसलिए प्रति दिन निरवद्य-निर्दोष अर श्राहारका ग्रहण उत्तर देते हुए कहा गया है कि प्रचेजकता, केशलुचिता, करना उत्तम है, परन्तु वेला, तेला प्रादि अनेक उपयामों व्युत्सृष्ट-शरीरता और प्रतिलेखन रखना, यह चार प्रकारका को करते हुए अधःकर्म-परिणत आहारको ग्रहण करना लिंगकल्प होता है। किसी भी प्रकारका वस्त्रादि परिग्रह अच्छा नहीं है (गा. ४७) अतः धर्न-साधनके योग्य भकिनहीं रखना अचेलकता है। शिर और दादीके बालोंका पूर्वक दिया गया, सर्व मल-दोषांसे रहित विशुद्ध-प्रामुक अपने हायसे उखाड़ना केश-लुचिता है। शरीरके स्नान, माहार ही साधुको ग्रहण करना चाहिए । (गा० १२५२) Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - १६] अनेकान्त [किरण १ जुगुप्साका त्याग आवश्यक है भूमि, शून्यागार (सूना-खाली पड़ा हया मकान) और व्यवहारकी शुद्धि और परमार्थकी सिद्धि के लिए लौकिक वा मला वृक्षका मूलभाग तथा जहां पर वैराग्य उत्पन्न हो वैराग्यऔर लोकोत्तर जुगुप्सा या अशुचिताका परिहार भी माधु को वृद्धि और रक्षा हो, ऐसे विराग-बहुल स्थानको धीर को करना चाहिए। यदि माधु व्यावहारिक शुद्धि नहीं वो जितन रखता, तो वह लोक-निन्दाको प्राप्त होता है और यदि बाह्य द्रव्यं का भी प्रभाव पारमा पर पड़ता है इस परमार्थ शुद्धि नहीं रखता, तो व्रत-भंगको प्राप्त होता यातका वर्णन करते हुए मूलाचार कार कहते हैं:-- है। इसलिए जिस प्रकार संयमकी विराधना न हो और वडढदि वोही संसग्गेण तह पुणो विरणस्मेदि । लोकनिन्दा भी न हो उस प्रकारसं माधुको दोनों प्रकार की संमग्गविसेसण दु उत्पलगंधी जहा अंभो ॥१३॥ जुगुप्सानाका परित्याग करना श्रावश्यक है । (गा० ५५) अर्थात् - उत्तम जनोंके संसर्गसे बोधि-रत्नत्रयकी निमित्त कारणांकी उपयोगिता-, प्राप्ति और वृद्धि होती है और दुर्जनांके संपर्गये ही वुद्धका कुछ लोग उपादानको ही प्रधान मानकर निमित्त विनाश हो जाता है। जैसे कमलकी सुगंधके संसर्गमे कारणांकी अवहेलना या उपेक्षा करने लगे हैं उनके लिए जल सुगंधित एवं शीतल हो जाता है और अग्नि, सूर्यादिके मूलाचार-कारका यह कथन खास तौरसे ध्यान देनेके सम्बन्धसे वह उष्ण और विरस हो जाता है। योग्य हैं: ___ यदि उपादान कारण ही बलवान होना और निमित्त जत्थ कमायुप्पत्तिरभत्तिदियदार इन्थिजणबहुलं । कारग कुछ भी न करते हाते तो क्या इस प्रकारसं कुक्षेत्र दुकावमुवमग्गवहलं भिक्खू खत्तं विवज्जे ऊ॥५॥ निवासक परित्यागका उपदेश दिया जाता और क्यों अर्थात-जिस क्षेत्र में कषायोंकी उत्पत्ति हो, श्रादरका सक्षेत्र में निवासका विधान किया जाता ? अभाव हो, मुर्खताकी अधिकता हो, इन्द्रियांके विषयोंकी ___वस्तुत: उपादानके कमजोर होने पर प्रत्येक बाहा वस्तु बहुलता हो, स्त्रियोंका प्राचुर्य हो, क्लेश अधिक हो और सकषाय भात्मापर अपना प्रभाव डालती है और वह उपसर्ग बहुत ही एमे स्थानका माधु परित्याग करे। उससे प्रभावित भी होता है। जब कोई मभ्यासी धीरे-धीरे इस उल्लेखमें कुक्षेत्र पर निवास करनेका स्पष्ट निषेध बुरे बाह्य कारणोंको दुर कर उत्तम बाह्य निमित्ताको किया गया है। यदि द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव अपना जटाता है और उनके श्राधार या निमित्तसे अपने पापको प्रभाव न डालते होते, तो इस प्रकार स्पष्ट रूपसं खुल संस्कारित करता है, तभी वह उत्तम उपादान शक्तिको शब्दाम कुक्षेत्र में निवासका निपंध कैसे किया माता ? इसस सम्पन्न कर पाता है और ऐसी अवस्था में ही उसके योग्य ज्ञात होता है कि क्षेत्रादिक अपना-अपना असर जरूर निमित्त स्वयं हाजिर रहते है। डालते हैं। एकलविहारी साधु पाप-श्रमण हैइससे भागे और भी ग्रन्थकार कहते हैं: साधुको सदा संघमें रहनेकी जिनाज्ञा है। केवल उसी णिदिविहरण खेनं णिवढी वा जत्थ दुट्टो होज्ज। साधुको अकले विहार करने की आज्ञा दी गई है, जिसने पव्यज्जाच ग लब्भइ मंजमघादा य तं वज्जे ॥६॥ कि चिरकाल तक साधु-संघमें रहकर तप और श्रुतका अर्थात्-जो देश राजासे रहित हो, अथवा जहाँका भली-भांति अभ्यास किया है, जो परीषद और उपसगोंक राजा दुष्ट हो. भिक्षा भी न मिल दीक्षा ग्रहण करने में सहन करनेकी अलौकिक शक्ति रखता -देश और रुचि भी न हो और संयमका घात हो, ऐसे देशका साधु कालका ज्ञाता है, उस्कृष्ट संहननका धारक, परम धर्यअवश्य परित्याग करे । शानी चिरकालका दीक्षित और पागम बलका धारक है। मूलाचार-कार इस प्रकार कुक्षेत्र के निवासका निषेध (समा० १४६) यदि उक्त गुणोंके प्राप्त हुए विना कोई करनेके अनन्तर सुक्षेत्रके निवारका विधान करते हुए साधु प्राचार्य कुलको-संघको छोड़कर अकेले विहार करता करते हैं गिरिकंदरं मसाणं सुराणागारं च रुवमुलं वा। है तो वह 'पापक्षमण' कहा गया है समय०६८) मुलाठाणं विरागबहुल धीरा भिक्खू णिसेवेऊ ॥५६॥ । चार कार अपने समयमें ऐसे ही किसा स्वच्छन्द-विहारी अर्थात-गिरिकन्दरा (पर्वतोंकी गुफाए) स्मशान साधुका वर्णन करते हुए दिखते हैं - Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १ ] पुरातन जैन साधुओंका आदर्श [ ७ अायरियत्तणतरिओ पुव्वं सिम्पत्तणं अकाऊणं। और न होगा । इसलिए साधुको सदा स्वाध्यायमें हिंडई दु'ढायरिओ गिरंकुमो मत्तहत्थि व्व ॥ निरत रहना चाहिए । अर्थात-कोई दंढाचार्य किसी माधु संगमें रहकर अनन्त मंसारके कारणऔर शिष्यपनेका अभ्यास न करके शीघ्रतापे स्वयं प्राचार्य तास्वयं प्राचार्य जीवको अनादि कालमे आज तक संसार में परिभ्रमण बनने की भावनामे प्रेरित होकर मदोन्मत्त हम्नीके ममान कराने वाले रागद्वप हैं और इनकी उत्पत्ति जिहा और निरंकुश घूमता-फिरता है। उपस्थ (म्पशन) इन्द्रियके निमित्तसे होती है। इन दोनों ___प्रा. कुन्दकन्द ऐसे स्वच्छन्द विहारी एकाकी माधुके इन्द्रियोंके वश होकर ही यह जीव अनन्त दुःखोंको भोगना दोष बतलाते हुए मूलाचारके समाचाराधिकारमें कहते हैं- चला भारहा है, इसलिए इन्हें जीतनेका भरपूर प्रयत्न मच्छंद गदागदी-मयण णिमयग्गादाणभिक्खयोमरगणे। करना चाहिए। (१६-१८) मूलाचार कार कहते है कि सच्छंदपाँच य मा मे सत्त विएगागी ।।१५०|| चित्र-गत भी स्त्रीरूपके दर्शनसे मनुष्यके हृदय में सोम साधु-चर्याका ध्यान न रखकर स्वतंत्रनासं गमनागमन उत्पन हो जाना है, इसलिए उसे अपने ब्रह्मचर्य की रक्षाके शयन-मापन, श्रादान-निक्षेपण करने वाला और स्वच्छन्द लिए माता, बहिन, बेटी, मूका, गूगी और वृद्धा होकर आहार विहार करने वाला एमा मेरा शत्र भी मत स्त्रियां तकके संपर्क सदा दूर रहना चाहिए, क्योंकि हो! फिर माधुको तो बात ही क्या है ? अर्थात् माधुको पुरुष घी से भरे हुए घड़ेके सदृश होता और स्त्री कभी एकाकी नहीं रहना चाहिए। जलती हुई अग्निक समान हाबी है। इन दोनांक मूलाचार-कार एकाविहारी साधुके दोष बत- संसर्गमात्रमं मनुष्योंका हृदय द्रवित हो उठता है। अनेक लाते हुए कहते हैं कि साधुके अकेले विहार करनेसे योगी स्त्रो-सम्पर्कस भ्रष्ट हो चुके हैं, इसलिए कुरूपा गुरुको निन्दा होती है, श्रतका विच्छेद हो जाता है, सरूपा सभी प्रकार की स्त्रियांसे सदा दूर रहना तोर्थकी मलिनता होता है, जढ़ता-मूर्खना की वृद्धि चाहिए (88-१००)। होती है, बिहजता और कुशीलता प्राप्त होती है। अब्रह्मक कारण( सामा० १५१) इसलिए माधु को मदा संघ में ही रहना यद्यपि मनुष्य तीन चारित्र-मोहोदय के उदयसे ही चाहिए। अब्रह्ममें (स्त्री-पुरुषसम्बन्धो विपय - संवनमें ) प्रवृत्त म्वाध्यायमे लाभ होता है, तथापि उसके कारणभून दम्यों पर भी मूलाचारस्वाध्याय करने के लाभ बतलाने हुए प्रा० कुन्दकुन्द कारने प्रकाश डाला है । उन्होंने अग्रह्मक दश द्रष्य कारण कहते हैं कि म्वाध्याय करने से मनुष्य ज्ञान-विज्ञान सम्पन्न बतलाये हैं, जो इस प्रकार हैं:-१ विपुल-माहार-अधिक होता है, कषाय और गारवये उन्मुक होता है और मात्रामें श्राहार ग्रहण करना, २ काय-शोधन-म्नान, सध्यान में तल्लीन रहता है जिससे कि वह अल्पकालमें नैल मर्दनादि राग वधक राग-कारणोंपे शरीरका संवारना. ही संमारसे पार हो जाता है। स्वाध्याय करते समय शृंगार करना, ३ मुर्गान्धत मान्ना धारण करना, इत्रादि मनुष्यकी इन्द्रियां अपने विषयों में प्रवृत्त नहीं होती, अन लगाना, ५ गीन-वादित्रादि सुनना, ५ शयन-शोधनइन्द्रियों पर सहज ही विजय प्राप्त होता है। मन, वचन कोमल शय्या रम्बना शयनागार का काम बर्धक चित्रांस कायकी चंचलता हकनेसे वह तीन गुप्तियांका भी धारक सजाना, ६ स्त्री-संपर्ग-राग बहुल स्त्रियों के साथ संपर्क बन जाता है और स्वाध्याय में तन्मय हुए साधुका चित्त रखना. ७ अर्थ-ग्रहगाहण्या-पैसा रखना, रत्न सुवर्णादि भी सहज में एकाग्र हो जाता है। स्वाध्याय की महिमाका के प्राभूषण और उत्तम बम्बादि रखना. - पूर्व-पतिगान करते हुए मूलाचार-कार कहते हैं ____ स्मरण-पूर्वकाल में भागे हुए भोगोंका स्मरण करना, है बारविधम्हि य तब सम्भंतर बाहिरे कुमलदि। इन्द्रिय-विषयनि-पांचों इन्द्रियोंक विषयों में रति या शावि अस्थि णविय हादि सज्झायममं तवाकम्म॥७॥ प्रीति रखना, और १० प्रणीत रस-सेवन-गरिष्ठ और अर्थात्-जिनेन्द्र-उपदिष्ट बाह्य-आभ्यन्तर बारह पान्टिक रसोंका सेवन करना। मूलाचार-कारने इन दशों प्रकारके तपामें स्वाध्यायके समान परम तप न अन्य है ही द्रव्य कारणों को ब्रह्मचर्यका घातक एवं संसारके महा Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष १३ दुःखोंका प्रधान कारण कहा है। इनमें से साधुओंके साधा- पूर्ण-श्रमणरणतः नं. २, ३, ४, ५, ६, ७, के कारणोंका तो त्याग जो अन्तरंग १४ प्रकारके और बहिरंग १० प्रकारक होता ही है, क्योंकि वे बाह्य पदार्थोसे सम्बन्ध रखते हैं परिग्रह रहित हो सर्व प्रकारके प्रारंभोंका त्यागी हो, नं० और है के कारण मनमे सम्बन्ध रखते हैं, तथा पाँच समिति और त्रिगुप्तिसे युक्त हो, भिक्षावृत्तिसे नं. १ और १० के कारण भोजनसे सम्बन्ध रखते हैं। शुद्धचर्या करने वाला हो, व्रत, गुण और शोलसे संयुक्त यदि साधु नीरस और अल्प-भांजी है, तब तो उसके हो, शुद्ध भावोंका धारक हो हिवमित-प्रिय-भाषी हो, महजमें ही ब्रह्मचर्यका साधन संभव है। पर यदि वह एकाग्र होकर ध्यान और अध्ययन में रत हो और अत्यन्त सरस, गरिष्ठ और विपुल भांजी है, तब उसके ब्रह्मचर्यका सावधान होकर जीव रक्षा तत्पर हो, वह सर्व गुण सम्पन्न पालन होना संभव नहीं। यदि साधुने नं. १ भोर १० के पूर्ण श्रमण कहा गया है। (१०८ से ११५) इन दोनों प्रब्रह्मके द्रव्य-कारणोंका सर्वथा त्याग कर दिया है, तो शेष पाठ मध्यवर्ती कारणांका उसके महजमें ही ऐमा सर्वगुण-सम्पन्न और सर्व-दोष रहित श्रमण ही त्याग संभव है। अतः साधुको नीरस और अल्पभाजी सिद्धि को प्राप्त करता है । यही समयसार है और इसका होना ही चाहिए। (१०५-१०७) प्रतिपादन करना ही समयसाराधिकारका प्रयोजन है। मूलाचारके कर्तृत्व पर नया प्रकाश मूलाचार मा. कुन्दकुन्द रचित है, यह बात अनेकांन दायातं कुन्दकुन्दाह्वयचरमलसञ्चारणैस्सुप्रणीतम् । के विगत दो अंकों द्वारा स्पष्ट कर दी गई है। फिर भी तद्व्याख्यां वासुनन्दीमबुर्धावलिखनावाचमानायासभक्त्या, विद्वान् लोग इस विषयको स्पष्ट उल्लेखों द्वारा पुष्ट (?) संशोध्याध्ये तुमहमिकतयति कृति (?). ........॥२०॥ करनेके प्रमाणांके लिए उद्योग-शील रह रहे हैं। हमने इस इस पथके चतुर्थ चरणका श्राधा भाग त्रुटित है' विषयमें विशेष जानकारीके लिए कुछ पुराने शास्त्रभंडारों एवं दो एक स्थल संदिग्ध हैं, तथापि इसमें इतना तो के व्यवस्थापकोंको छान-बीनके लिए प्रेरया की। जिसके स्पष्ट ही लिखा है कि-'यह मूलाचार नामक शास्त्र फलस्वरूप मूडबिद्री स्थित श्री०६० बोकनाथजी शास्त्री प्रादि जिनेन्द्र वृषभनाथके द्वारा उपदिष्ट है और वह सरस्वती-भंडारके व्यवस्थापक श्री पं० एस. चन्द्रराजेन्द्र परम्परा-प्रवाहसे श्राकर श्रा० कुन्दकुन्दको प्राप्त हुआ। शास्त्रीने वहांके जैनमठके मूलाचारकी ताइपत्रीय प्रतिका उसे दिव्य चारणऋद्भि धारकोंमें अन्तिम आ. एक उल्लेख हमारे पास भेजा है. जिससे यह भली प्रकार कुन्दकुन्दने रचा। उसकी व्याख्या श्रा. वसुनन्दिने की, स्पष्ट हो जाता है कि मूलाचार प्रा. कुन्दकुन्द-रचित उसमें जो प्रमादजन्य मूलें हुई हो. उन्हें शास्त्र-वेत्ता संशोधन करके अध्ययन करें । ॥ २० ॥ मुजाचारके तारपत्रीय ग्रन्थ नं. ५६ के अन्त में इस पच प्रमाणके उपलब्ध होनेसे यह और भी रद वसुनन्दी टोका समाप्त होनेके अनन्तर यह निम्नलिखित हो जाता है कि मूलाचार श्रा. कुन्दकुन्दके द्वारा ही पद्य पाया जाता है: रचा गया है। मूलाचाराख्यशास्त्रं वृषभजिनवरीपज्ञमहरप्रवाहा -हीरालाल शास्त्री Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिल्ली और उसके पाँच नाम (पं० परमानन्द जैन शास्त्री) भारतीय इतिहासमें दिल्लीका महत्वपूर्ण स्थान रहा पाल नामके एक तोमर सरदार द्वारा दिल्लीके संस्थापित . है और वर्तमानमें भी उसकी महत्ता कम नहीं है, क्योंकि होनेका समुल्लेख करते हैं। दिल्लीको भारतवर्षकी राजधानी होने का अनेक बार गौरव देहली म्यूजियममें सं० १३८४ का एक शिलालेख प्राप्त हुआ है और वर्तमान में भी वह स्वतन्त्र भारतकी उसके निम्न वाक्यमें तोमर या तम्बरशियों द्वारा दिल्लीक राजधानी है। दिल्लीने अनेक बार उस्थान और पतनकी निर्माण किये जानेका स्पष्ट उल्लेख अंकित है:पराकाष्ठांक वे नंगे-चिन्न दख है-दिल्ली उजाड़ने और 'देशोस्ति हरियानाख्या प्रथिव्यां स्वर्गनिमः। पुनः बसाने तथा कस्लेभामके वे भीषणतम दृश्य देखे और ढिल्लिकाख्या पुरो तत्र तोमरैररित निर्मिता ॥' सुने है जिनका चिन्तन और स्मरण भी प्राज अत्यन्त लाम- उक्त पद्य-गत तोमर यातम्बर शब्द एक प्रसिद्ध त्रिय हर्पक है । जब हम इसकी समृद्धि और अमद्धिका विचार जातिका सूचक है। जो तामरवंशके नामसं लोकमें प्रसिद्ध करते हैं तब हमें संसारको परिवर्तन-शीलताका स्वयं अनु- है। इस वंशके गजा अनंगपाल (प्रथम) ने दिल्लीको बयाभव होने लगता है। या और द्वितीय अनंगपालने इसका समुद्धार किया। दिल्लीको कब और किसने बसाया यह एक प्रश्न है, द्वितीय अनंगपालको दिल्लीका बसानेवाला या संस्थापक जिम पर ऐतिहासिक विद्वान अभी तक एकमत नहीं है। मानने पर अनेक आपत्तियाँ पाती हैं। और नहीं तो दिल्लीकी महत्ता की उसके विविध नामांकी मूचिका है। कमसेकम मसरातो मसउदीके इस कथमका तो गलत ठहजनसाहित्यमें दिल्लीके विविध नामांका उपयोग किया राना ही पड़ेगा कि सालारमसऊदने सन् २०१७ से मन गया है। खासकर हिल्लो', जोइणिपुर' (योगिनीपुर) १०३. के मध्य में दिल्ली पर चढ़ाई की थी, उस समय दिल्ली और जहानाबाद नामोंका उल्लेख जैनसाहित्यमें वहांका राजा महीपाल था जिसके पास उस समय भारी अन्य-गत प्रशस्तियों, मूर्तिलखों और शि वालेखों में पाया सैन्य और बहुतसे हाथी भी थे और जिसका पुत्र गोपाल जाता है जिनका परिचय दिल्लीक नामर-कालीन कुछ लड़ाई में मारा गया था। ऐतिहासिक कथनके बाद किया जायगा। जनरल कनिंघमके समान ही पं० लक्ष्मीधर वाजपेयी अबुलफजल सं० ४२६ में और फरिस्ता सन् ६२० भी नामरवंशक अनंगपाल प्रथमको दिल्लीका मूल संस्थामें दिल्लीका बसाया जाना मानना है ।। परन्तु प्रायः सभी पक लिखते हैं जिसका राज्याभिषेक मन् ७३६ में हुधा ऐतिहासिक विद्वान् दिल्लीको सामरवंश द्वारा बसाए जानेका माना जाता है। उसने सबसे प्रथम दिल्ली में राज्य किया उल्लेख करते हुए पाए जाते हैं। कनिंघम साहब सन् ७३६ और उसके बाद उसके वंशज कन्नोज चले गए, वहाँसे उन्हें में अनंगपाल (प्रथम) द्वारा दिल्जीके बसाए जानेका उल्लेख चन्द्रदेव राठौरन भगा दिया था। इसके बाद दूसरा करते हैं। प्रसिद्ध पुरातत्वत्ता वोर्गीय मामाजी भी अनंगपाल दिल्ली में पाया और वहां उसने अपनी राजद्वितीय अनंगपालको उसका बसाने वाला मानते हैं। धानी बनाई X । पुनः नूतन शहर बसाया और उसकी, और पण्डित जयचन्द्र विद्यालंकार सन् २०१० में अनंग- मुरक्षाके लिए कोट भी बनवाया था। कुनबमीनारके प्रास- .--. - - --- . -~ पास प्राचीन इमारताक जो पुरातन अवशेष एवं चिन्ह देखे देखो, टाड राजस्थान पृ० २२७, प्रोमाजी द्वारा जाते हैं वे सब अनंगपाल द्वितीयकी राजधानीक माने जातं सम्पादित। २ देखो, भाकिंवोलाजिकल सर्वे आफ इण्डिया By इतिहास प्रवेश प्रथम भाग पृ० २२० जनरल कनिंघम पृष्ट १४६ । ५ टाहराजस्थान हिन्दी सं० पृ. २३. १देखो, टार राजस्थान हिन्दी पृ. २१.। x देखो, दिल्ली अथवा इन्द्रप्रस्थ पृ.६ Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [किरण १ - - - - - - - - हैं। इसके राज्य-समयका एक शिलालेख भी मिला है महमूदके पुत्र मसूदसे भी तोमरवंशी राजाओंको जिसमें लिखा है कि-'संवत् ११.६ दिल्ली अनंगपाल अनेक युद्ध करने पड़े। तथा ममूल के प्रान्ताधिपति अहमदवही ।' साथ ही कुतुबमीनारके पास अनंगपालके मन्दिरके नियाल्लिगीनने सन् २०२४ में बनारसको लूटा था और एक स्तम्भ पर उसका नाम भी उत्कीर्ण किया हुआ वहांकी जनताको भारी परेशान किया था। मिरसेका मिला है। घेरा स्वयं मसूदने डाला था और उसने सन् १०३८ इस उपलबसे प्रकट है कि अनंगपाल द्वितीयने दिल्ली- (वि० सं० १०६५ ) के लगभग हाँसीके उस महान् का पुनरुद्धार किया था और उसे सुन्दर महलों, मकानाता, सुदृढ़ दुर्गको भी अधिकृत कर लिया था ४ । उसने तथा धन-धान्यादिसे ममृद्ध भी बनाया था । सम्भवत: अपने पुत्र मजदूदको भारतका प्रान्ताधिपति बनाया था। इसी कारण उपके सम्बन्ध में दिल्लीके बमाये जानेकी उसके बाद मजदृदने थानेश्वर पर भी बजा कर लिया कल्पनाका उद्गम हुअा जान पड़ता है। और हाँसी पर घेरा डाल कर वह दिल्ली पर कब्जा द्वितीय अनंगपालके राज्याभिषेकका समय जनरल करने के लिये प्राकमण करना ही चाहता था कि मसूदके कनिघम साहबने सन् २०११ (वि० सं० 1100) दिया उत्तराधिकारी मजदूदसे किसी कारणवश अनबन हो गई, है और राज्यकाल २६ वर्ष छह महीना, अठारह अतः उसे सेना सहित लाहौर वापिस लौटना पड़ा। जहाँ दिन बतलाया है । अतएव इसका राज्य समय पर मन १०४२ (वि.सं. १०१६ ) में उसकी मृत्यु सन् १०१ ( वि० सं० १९०८) मे सन् १०८५ हो गई । (वि सं०11३८) के करीब पाया जाता है। यदि इसके तोमरवंशी गजा महीपालने मुमलमानांस हॉमी और राज्यका उक्त समय सुनिश्चित है तब उसके पश्चात् दिल्ली थानेश्वरक किल्ले पुनः वापिस ले लिये। इतना ही नहीं, पर अन्य किसने शासन किया, यह कुछ ज्ञात नहीं होता। किन्नु उसने काँगड़े पर भी कब्जा कर लिया २ । वह लाहार पर तोमर वंशका शासन उस समय तक दिल्लीमें रहा है। पर भी करना करना चाहता था. पर उपमें सफलता भारतीय इतिहासका अवलोकन करनेसे तो यह मिलती न देख कर वह दिल्ली वापिस लौट आया। ज्ञात होता है कि सन् १०१० से सन् १०४२ या इस तोमरवंशी राजाओंको केवन यवनामे ही युद्ध नहीं करना समयके १०-२० वर्ष पूर्वोत्तरवर्ती समयमें भारतीय राजाश्रांकी संगठन-शक्कि शिथिल हो चली थी और पडे और हानि उठानी पड़ी। यह सब घटनाचक्र. विदेशी यवन लोग भारतकी समृद्धिको विनष्ट कर उस .. . बंगाल एलियाटिक सोसाइटी पत्रिका भाग ४२ पृ. पर छा जाना चाहते थे । ग़जनीके सुलतान महमूदने सन् ५०४ स ११। १०१० से पूर्व भारत पर अनेक आक्रमण किये थे और सन १.११ में उसने थानेश्वर पर भी भाक्रमण करने का x कैम्ब्रिज हिस्टरी श्राफ इंडिया, भाग ३ पृ. ३० इगदा किया था। थानेश्वर उस समय सम्भवतः दिल्ली स नी कैम्ब्रिज हिस्टरी आफ इंडिया भाग ३.-पृ० ३० राज्यका ही एक भाग था। वहाँ के शासकने इधर उधर २ देखो, डा० दशरथ शर्मा एम. ए. का 'दिल्लीका दौड़ धूप कर सहायता प्राप्त करनेका भारी प्रयत्न किया, तामर राज्य' नामका लेख। परन्तु उसके पूर्व ही उस पर महमूदने अाक्रमण कर दिया ३ जैसा कि सन् १७३ (वि० सं० १.१.) की और उसे बुरी तरह लूट खसोट कर अपने खजानकी उत्कीर्ण की हुई हर्षनाथ मन्दिर-प्रशस्तिके निम्न श्रीवृद्धि की । उसके बाद वह इतना बलशाली बन गया पद्यसे प्रकट है :कि कन्नौज के सम्राट को भी उसकी अधीनता स्वीकार कर- . . . . . 'तोमरनायक सलवणं सैन्याधिपत्योद्धतं, नेके लिये बाध्य होना पड़ा। युद्धे येन नरेश्वराः प्रतिदिशं निर्णाशिता जिष्णुना। देखो, राड-रामस्थान पृ. २२७ अोझाजी द्वारा कारावश्मनि भूर्यरश्च विस्तास्ताद्धि यावद्गृहे, सम्पादित तथा राजपूतानेका इतिहास प्रथम जिल्द तन्मुक्त्यर्थमुपानतो रघुकुले भूचक्रवर्ती स्वयं ॥ पृष्ठ २३४ इसमें सन् १७३ भाषाढसुदि १५ को सांभरके राजा Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १ दिल्ली और उसके पाँच नाम इस बातका द्योतक है कि उस समय भारतीय राजाओंको दिल्लीको राजाधली में सं. २ में चौहानवंशका अपने राज्यकी सुरक्षाके लिये यवनादि विदशियांसं दिल्ली पर अधिकार करना लिखा है। अनेक युद्ध आदि करके भी रक्षा करनी पढ़ती थी। इनक स्वर्गीय महामना भोमाजीने सं० १२०७ के खगभग परस्परमें भी अनेक हुए. जो उनकी संगठित चौहानांका दिखली पर काम करना लिखा है। पर शक्तिकी शिथिलत के सूचक है। वह राजावली और उस समयकी स्थितिको देखते हुए टीक विग्रहराज ( वीसलदेव चतुर्थ) ने दिल्जीको विजित नहीं जंचता। हो सकता है कि वह सं० १२०७ और सं. कर उसे अपने राज्यका एक सूबा बनाया था। दिल्लीको १२१६ के मध्य में किमी ममय हुमा हो। प्रस्तु, प्रसिद्ध फीराजशाहकी लाट पर अशोककी धर्मप्राज्ञामाकं अब सोचना यह है कि मन् १०८से (वि० सं०११३८) नीचे शिवालिक स्तम्भ पर उत्कीर्ण किय हुए सन् १९६३ सन् १९६२ (वि.सं. १२१६)के मध्यवर्ती समयमें देहलीपर (वि. सं. १२२.) के वैशाख शुक्ला ११ के शिक्षा किस-किमने शासन किया है। ऐतिहासिक विद्वानोंने इस वाक्यमे यह बतलाया गया है कि-चौहान वंशा राजा सम्बन्ध में कोई निश्चित इतिवृत्त का विवरण दिया हो ऐसा वीमनदव (चतुथ) में तीर्थयात्राक प्रसंगको कर मुझ अद्यावधि ज्ञात नहीं हुअा। हो सकता है कि वह मेरे विन्ध्याचलम हिमालय तक प्रदेशांको जीतकर कर देखनम नह देखने में नहीं पाया हो । परम्नु दिल्लीको राजावलीसे तो वसूल किया और प्रार्यावर्त में म्लेच्छोको निकालकर इतना स्पष्ट जाना जाता है कि दिल्ली पर सं० १२११ के. पुनः प्रार्यभूमि बनाया * । सं० १२२६ में उत्कीर्ण हुए श्राम-पास तक तोमरवंशका शासन रहा है परन्तु उसमें राजाओंके जा नाम दिए हुए हैं उन सबका अभी तक दूसरे दिल्ली लेनेसं श्रान्त ( थक हुए ) और श्राशिका ( हांसी प्रमाणामे पूरा समर्थन नहीं हुश्रा है। इसी कारण के लाभसं लाभान्वित हुए विग्रहराजन अपने यशको प्रताडी मध्यवर्ती समयकी कडीका सम्बन्ध जोड़मके लिए मानन्द और बलभीमें विश्रान्ति दो-वहां उस स्थिर किया -। सम्वतका मा कल्पना का गह । जि सम्बतकी भी कल्पना की गई। जिमका निरसन ओझाजीने , इन दोनाम से प्रथम शिलावाक्यम इतना तो सुनिश्चित है किया है। प्रस्तु, उन तामर शासकोंक नाम इस प्रकार कि वि० सं० १२२० से पूर्व विग्रहराजने दहली पर करजा हैं- रावलु तेजपाल, २ रावलु मदनपाल. ३ अनंगकर लिया था। पाल ) सवलु कृतपाल, ४ रावन लखनपाल, और पृथ्वीपालु। विग्रहराजक पिता मिहराजके तामरशी राजा मल इन नामांमें कुछ परिवर्तन भी हश्रा है। प्रस्तुन वणको पराजित करने और मारनंका उल्लंम्ब किया मदनपालका नाम ही अनंगपाल (तृतीय) जान पड़ता गया है। है। इसी तरह कृनपाल का नाम गवलु कुबरपाल ज्ञात -एपिग्राफिया इंडिका जि.२ पृ. १२२ होता है। इन राजाभांक असली नाम क्या थे और उन्होंने केशाविन्ध्यावाहिमाद्रं वियविजयम्तीर्थयात्रा प्रमंगा- कितने समय तक दिलीम राज्य किया है यह सब बाने दुग्रीवेपु हान्नृपतिषु विनमत्म्कन्धरपु प्रपनः । अभी विचारणीय है। मावते यथार्थ पुनरपि कृतवाम्लेच्छविच्छेदनाभि यहाँ पर इतना जान लेना और भी आवश्यक प्रतीत देव शाकंभरीन्द्रा जति विजयते वीसलः वाणिपाल:॥ होता है कि अनंगपाल नामक एक तोमवंशी राजाका मते सम्प्रति चाहुवाणतिलकः शाकंभरीभूपतिः । समुल्लेख सं. 11 में रचनाने वाले कविवर श्रीधरश्रीमान् विग्रहराज एप विजयी मन्तान जानाम्मनः॥ के पावपुराणमें हुअा है जो उस समय देहली में ही अम्माभिः करदं ज्यधायि हिमाद्वन्ध्यान्तरालं भुवः । रचा गया है। उसमें अनंगपाल नामक राजाकाही स्पष्ट शेषं स्पष्टीकरणायमाम्तुभवतामुद्योगशून्यं मनः॥ उल्लेख नहीं है किन्तु उमक राज्य, राजधानी और -इण्डियन एण्टीक्वेरी जिल्द 1 पृष्ठ २१८ +दखा अनेकान्त वर्ष ८ किरण ३ पृष्टपर प्रकाx देखो अनकान्त वर्ष ११ पृष्ठ ३६२ । शित दिल्ली और दिलीकी रामावली नामका मेरा लेख । Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त 1 वर्षे १३ कवि श्रोचरने अपने अपन भाषाके पार्श्वनाथ चरित्र में हरियाना देशको असंख्य ग्रामांसे युक्त, जन-धन से परिपूर्ण बतलाया है। उमी दरियामा देशको राजधानी दिल्लीबाई गई है जो यमुना नदी के किनारे पर बसी हुई थी, उसका प्रशासक अनंगपाल नामका एक राजा था, नहल माहू नामक एक दिगम्बर श्रावक उसका प्रधान मन्त्री था और उसकी प्रेरणा से कविवर श्रीधरने उक्त चरित ग्रन्थकी रचना की थी । हमसे स्पष्ट है कि 'दिल्ली' शब्दका प्रयोग सं० १९८६ से पूर्व किया जाने लगा इसमे पूर्वके साहित्य में उक शब्दा प्रयोग मेरे देखने नहीं चाया हटके साहित्य में इस में शब्दका प्रयोग अवश्य देखने में आता है। उदाहरण के लिये सवत् १२८४ के देहली म्यूजियम में स्थित शिला'डिल्लिकाया पुरी व सोमरस निमिता वाक्यमे उपलब्ध होता है | १४वीं शताब्दी के रामा मादित्य और गुवाद भी दिल्ली और '' जैसे शब्दों का प्रयोग देखनेको मिलता है । ०२] ऐश्वर्या भी संक्षिप्त परिचय इस प्रकार दिया हुआ है:"असंख्य गांववाले हरियाना देशमें दिल्ली नामक एक नगर था, वह सुरद चाकार वाले उच्च गोपुरी, आनन्द दायक मन्दिरों और सुन्दर उपवनोंसे था उसमें घोड़े हाथों और सैनिक थे, वह अनेक नाटकों और प्रेक्षागृहांसे सम्पन्न था, वहाँ उत्तम तलवारों शत्रु कपालोंको भग्न करने वाला अनंगपाल नामका एक राजा था । उसने वीर हम्मीर के दलको बढ़ाया था और बन्दो जनोंको वस्त्र प्रदान किये थे ।” , इससे स्पष्ट है की दिली पर तोमरवंशक राजाओंाँका ही शासन रहा है । तृतीय पाके बाद सोमवंशके अन्य किन किन शासकों कब तक दिल्ली पर शासन किया है यह अन्वेषी है। दूसरे से यह जानने में आता है कि मदनपालका सं १२२३ में खर्गवास हुआ हैं, जो दिल्लीका शासक था । दिल्ली पर अधिकार होने पर भी शासक तोमर ही रहे जान पड़ते है। उसके बाद कुछ वर्ष चौहान राजाभोने भी राज्य किया है इस तरह दिल्लोका तोमरवंश-सम्बन्धी इतिहास अभी बहुत कुछ अन्धकारमें है । दिल्लीका सबसे प्राचीन नाम 'इन्द्रप्रस्थ' है। कहा जाता है कि दिल्लीका यह नाम उस समयका है जब पाडवांका राज्य दिल्ली में था। दिल्ली में पाण्डवोंके राज्य होनेका उल्लेख महाभारतमे पाया जाता है उस समय उसका नाम इन्द्रप्रस्थ' या 'इन्द्रपुरंरी' था। पर उसके वाद दिल्लीके अन्य नामोंका प्रचार कब और किसने किया यह अभी तक की ही है। प्राचीन उल्लेखोंसे पता चलता है कि दिल्ली 'हरियाना' नामके देश में भी और चात्र भी दिलोके ग्रामपासके प्रदेशका हरियाना नामसे उल्लेख किया जाता विक्रमी १वीं शताब्दी (सं० ११८) के विद्वान् हरिया देखगाम गामिययय. अप्रिय काम परचक्क विणु सिरिसंघदगु जो सुरवइणा परिगयिं । रि हिराबविलुप दिल्ली X उम * कहा जाता है कि राजा समुद्रगुप्तने जो लोहेकी एक विशाल गवई पो बादकी उसकी स्थिरता अपने राज्यकी स्थिरताकी बात किसी ब्राह्मण विद्वान्से ज्ञात कर राजा अनंगपालने उसकी परीक्षाके लिये उसे उखड़वाया और देखा तो मालूम हुआ कि नाटके किनार पर खून लगा हुआ है अतः राजाने उस विद्वान्की बात को सच मानकर उसको पुनः गढ़वाया, परन्तु अबकी बार वह कीली उतनी नीचे तक नहीं जा सकी जितनी कि पहले चलो गई थी । अतएव उम कीलीक ढाली रह जानेसे इसका नाम ढोली' या दिल्ली पड़ा है। इस लोकोक्तिमें क्या कुछ रहस्य है और वह सत्यकं कितने नजदीक है, यह अवश्य विचारणीय है फरिश्ता कहता है कि 'वहां की मिट्टी नरम है उसमें * देखो, ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह में प्रकाशित सत् श्र०११ और १३ में मसूरियो 'ढिलिय और ढोलिय' शब्दों का प्रयोग हुआ मिलता है। की पिन शाखाको 'गुरु के सपथका प्रयोग है। इन X X अविर डिडरिज कपातु पराहु पसिद्ध अगवालु से स्पष्ट है कि दिल्ली शब्दका प्रयोग भी जैन साहित्यमे free हम्मीर वो दिवं पविच चीर अधिक मिलता है, परन्तु वह [सं० [१८] से पूर्वका पार्श्व नहीं मिलता है। 1 Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ] दिल्ली और उसके पॉच नाम - कठिनाईमे मेव (कील ) सगा सकती है। इसीसे योगिनीपुरमें लिखी हुई उपलब्ध है जिनके दो उल्लेख इसका नाम 'ढीली' रखा गया है। इस प्रकार है--सम्बत् १८४ में 'तन्दुजवतालीसूत्र' दिल्लीका तीसरा नाम 'जाइणिपुर' या 'योगिनीपुर' योगिनीपुरमें लिखा गया है। दूसरा “निरयावलीसूत्र' है। इन दोनों नामोंका उल्लेख अपभ्रश और संस्कृत सम्बत् १६४४ में योगिनीपुरमें लिखा गया है। इन मव जैनमाहित्य तथा अन्य-जेवक प्रशस्तियों में प्रचुरतासे उल्लेखोंसे स्पष्ट है कि योगनीपुरका नामोल्लेख जैनमाहिमिलता है। 'जोइणिपुर' शब्द अपभ्रंश साहित्यमे ही त्यमें बाहुल्यताम पाया जाता है। योगिनीपुरका उल्लेख पाया जाता है और संस्कृतमें 'योगिनीपुर' उल्लिखित केवल ग्रन्य-प्रनियोंकी प्रतिलिपियां में ही नहीं किया गया मिलता है। योगिनीपुरका उल्लेख भनेक स्थलो पर है किन्तु दिग्नामें अनेक ग्रन्थकार भी हुए हैं जिन्होंने पाया जाता है जिनमें संवत् १३२६ का उल्लेख सबसे उक्त नामांका उल्लेख किया है। प्राचीन जान पड़ता है। वह इस प्रकार है:- शाइणिपुरका सबसे पुरातन उल्लेख हमें सम्बत १३. ___ 'संवन १३०९ चैत्रसुदि दशम्या बुधवासरे यह ६५ में महाकवि पुष्पदन्तके यशोधरचरित्रमें कोलका योगिनीपुरे ममम्त राजावलीममालंकृ-तभीगयामदीनराज्ये प्रमंग, राजा यशोधरका विवाह भौर भवांतर नामके प्रकरअत्रस्थित अग्रोतक परम श्रावक जिन चरणकमल .. णोंकों कराहके पुत्र गन्धर्व द्वारा बीमतमाह की प्रेरणाम यह लेखक प्रशस्ति आचार्य कुन्दकुन्दक पंचाम्तिकाय नामक शामिल किया गया था। भट्टारक यशःकीर्तिके पाण्डवप्रन्थ की है। पुराण और हरिवंशपुराणमें जोहणिपुरका उल्लेख हुमा है सं. १३६५ के एक शिलालम्ब में, जो गयामदीन जिनकी रचना सम्बत् १४६७ और १५०० में हुई है। तुग़लकके समय हिजरी सन् ०५ में फारमीमे लिखा इसके बाद कवि रहधक प्रन्यांम' भी 'जोहणिपुरका उक्लेश्व गया है दमोहक पाम वटियागढ़ में मिला था,उसमें लिखा है पाया जाता है। कि-'कलियुगमे वसुधाधिप शकेन्द्र मुसलमान बादशाह) चौथा नाम दिल्ली है। कहा जाता है कि दिलु' है जो योगिनीपुर (दिल्ली) में रह कर ममात पृथ्वीका नामके राजाके कारण इस नगरका नाम दिल्ली हुमा है। भोग करता है और जिमने मागरपर्यन्न राजाओको वश मे पर दिलु गजा कौन था और वह कब हुश्रा है, उमने किया है उस शूर वीर सुल्तान महमदका कल्याण हो ।' दिल्लीका नामकरण कब किया यह भी विचारणीय है। इनके अतिरिक निम्न संवतीकी लेखक-प्रशस्तियाँ भी जहाँ तक मेरा खयान ढिल्लोसे ही दिल्लीकी कल्पना 'योगिनीपुर' में लिखी गई हैं। सम्बत् १३६१३६६ हुई जान पड़ती है। १४१६,७४३६, १४४६, ३४६१,1४६३, 1५८% और ५६७ दिल्लीका पाँचवा नाम जहानाबाद भी देखने में प्राता मादि । श्वेताम्बरीय पंथांकी लेखक-पुष्पिकार्य भी है, जिसका नामकरण शाहजहांके नाम पर हुश्रा कहा ॐ असितकलियुगे राजा शकेन्द्रो वसुधाधिपः।। जाता है विक्रमको १० वी १८ वीं शताब्दीके प्रन्या और ग्रन्य-प्रन्तियों में भी 'जहानाबाद' नामये दिल्लीका योगिनीपुरमाथाय यो भुक्ते मकला महीम् ॥ उल्लेख किया गया है। मर्वसागरपर्यन्तं वशीचक्रे नराधिपान ।। महमूद सुरवाणो नाम्ना शूरोऽभिनन्दतु ॥ आशा है अन्वेषक विद्वान दिल्ली के पांच नामोंके विषय -देखो, नागरी प्रचारिणी पत्रिका वर्ष १४ शकमें में श्रीर भी प्रकाश डालनेका यान करेंगे। मध्य प्रदेशका इतिहास नामका लेख। * देखो, दिल्ली दिग्दर्शन पृ. ११ Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नराशि अनी दिनकरकी स्वर्णिम रश्मियों धरती पर उतर भी न पायी थीं कि सामशर्माका प्राङ्गण वेद-मन्त्रों गूंज उठा सोमशर्मा देवविमानोंमे भी स्पर्द्धा करने वाले देवकोटपुरका महापवित है वह पेड़ोंका पारगामी और यिका उद्भट पर मोमिला जैसी कुलीन और परित्रवान पत्नी हे अग्निभूत और वायुभूत जेमे सुन्दर पुत्र है। सांसारिक जीवन सम्पर गति से चल रहा है । न अधिक पाने की चाह है और न कम पानेका असन्तोष मन्त्रोंके रस प्रवाह में समागत जन गद्गद् हो उठे । शनैःशनै स्वाध्याय समाप्त होने लगा नागरिक आशिष ले ले कर जाने लगे । लोमशर्मा चासनसे उठा और भांजनभवनमें प्रवेश किया। उसने देखा मोमिलाको आकृति पर विपादकी रेखायें गहरी हो गई है। भोजन घालमे परोस रही हूँ, पर मानो वह एक यन्त्र हूँ जो बस चल रहा है । सामशर्मा] बोले- 'देवि! मेरे रहते आकृति पर पार कैसा ? जीवन में जहना क्या छाती जा रही है पल-पल में " ( श्री मनु ज्ञानार्थी साहित्यरत्न ) की अवहेलना कर सके। नारीका आत्मिक सौन्दर्य नारी और पुरुषक बीचमें एक माध्यम है जो एक क्षणमे ही पूर्णता पर पहुँच जाता है। यह एक क्षणका मिलाप बहुत उच्च और ष्ठ है । इमीको हम प्रेम कहते हैं । नारीकी श्रम्मीयता पर पुरुष पानी पानी हो चला । सोमशर्मा बीले 'देवि चिन्ता की अश्व ज्वालाओ भस्म न करो, अपने आपको नारीका परित्र और महापुरुषकी शान्ति और समृद्दिका व्यापक मार्ग खोल देती हैं। मारी प्रेम बड़े बड़े साम्राज्यको बदला है । घरको स्थिति भी बदल जायगी। देखो, श्राज ही देशान्तर जानेका प्रबन्ध करूंगा। दिन ढल चला था। सूर्यदेव अस्ताचल की ओर तीव्रगति बढ़ रहे थे। सामशर्मा अपने चिरपरिचित मा विष्णुशर्मा के पास पहुंचे। विष्णुशर्माने मिश्रका अभिवादन करते हुए उचित स्थान दिया। कुछ के बाद मौन भंग करते हुए विष्णुशर्मा बोले मित्र ! मेरे योग्य कोई कार्य हो तो बनाइये ?" सामशर्मा श्रन्यमनस्क होते हुए यांच- 'विष्णु । देशान्तरमे जानेका विचार कर रहा हूँ । घरकी स्थिति अब अम्मा हो चली है । भयानक जीव-जन्तुनों घिरे हुए बनामें रहना बन्द है, पर होकर रहना बहा नहीं हैं। भारय परीक्षा के लिए जाना चाहता है कल प्रातःकाल ही । " मोमिला पतिको कठिनाइयोंसे परिचित हूँ । अभाव में भी उसने मुस्कराना सीखा है । पतिकी मानसिक शक्तिके लिए वह स्वयंको कुछ नही चाहती । जानती है, श्रादमीका जीवन परिवारके लिए ही तो होता है। दुनियाँके पोके बाद आदमी चाहता है उसका कोई अपना हो, जिससे सके उसे शान्ति, सहानुभूति, और अपनत्व यही सब देने का यत्न किया है उसने अपने स्वामीकी पर आज गृहकी स्थिति गम्भीर है। दीर्घकाल से भोजन मामग्रीको व्यवस्था मो यहां चली है। तब अन्तरका विषाद प्रकृति पर उभर ही तो थाया। मोमिला सकुचाती बोली देव ! आप विद्वान है, सरस्वती पुत्र है क्या मेरे संतोष के लिए यही काफी नहीं कि आप मेरे साथी है ? आपसे क्या छुपा है जिसे छुपाने का यत्न करू ! साके लिए जीवनकी डोर सौंप दी है आपके हाथ में। पर, घरकी स्थिति सुधारिये देव !" विष्णुशर्मा बोले - "मित्र ! मेरे रहते ऐसा निराशाकी श्रावश्यकता नहीं । धन और वैभव ऐसे ही समयके लिए तो होते हैं। यदि ऐसे समय में अपने सबके तनिक भी काम अा सका तो यह मेरे लिए सीमाम्पकी बात होगी तो बी, संकोचकी बात नहीं । जितना धन चाहो ले जाश्रो । व्यापार करके धन और यश प्राप्त करो। " 1 सोमशर्माने प्रभात होते ही नगरसे प्रस्थान कर दिया । सूर्यकी किरणें धीरे-धीरे प्रखर होती जा रही थीं । मध्याह्नका समय घ पहुँचा I सोमशर्मा और उसके अनुचर एक भयानक अटवीमे श्रा ऐसा कौनसा पुरुष को नारीको निर अहमीयता पहुंचे थे। हिंस-जन्तुओं की भयानक गर्जना पने Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ११ रत्नराशि [२५ टकरा कर अशेष कानन-प्रान्तको प्रतिध्वनित कर रही लिए तुम असूि बहा रहे हो; और अन्तरका जो लुट रहा थी मृग शावक घबरायेसे चौकड़ी भरते हए किसी ज्ञात है उसकी ओर देखने भी नहीं ? राही! चेतो, पापत्तिने दिशाको ओर बड़े जा रहे थे। अभी एक म्थल पर तुम्हे दृष्टि दी है, देखने के लिए, शक्ति दी है, सोचमेके मामान उतारा ही था कि कुछ लोग उनकी ओर प्राते लिए । काम-क्रोध, मान और मोहके डाकू आरमाको भनाहुए दिखाई दिय । देखते ही देखते सारा वातावरण परि- दिसे लूट रहे हैं, संसारकी भटवीमें । विषादकी जगह वत्तित होने लगा। ये थे भीमाकार जङ्गली ठाकु, जिन्होंने विवेककी ज्वाला जलाओ, अपनी प्रास्मामें । बाह्य में सोमशर्मा और उनके अनुयायी वर्गको चारों ओरम घेर शांति कब तक खोजोगे। शांति बाह्यकी नहीं अन्तरकी लिया। डाकुओंके सरदारने गरजते हुए कहा-"देखते वस्तु । क्या हो, जो कुछ हो रख दो, इसी ममय । नहीं तो तुम्हरी श्रमणकी वाणीने दुग्वी मानवके हृदय पर सीधा जिन्दगी संकट में है।" असर किया। वह देखते ही देखते मुनिके चरणों पर इस प्रापचिक समय व्यक्तिका मानसिक सन्तुलन स्थायी प्रकार लोटने लगा, मानों युग-युगोंकी अनन्त पीडासे कराह उठा की । अनादिसे बन्द हुए भाग्माके कपाट नहीं रह पाता, सोमशमनि समस्त धन एक-एक करके खुलने नगे और शनैःशनै: मोह टूक-टूक होकर गिरने सरदारके सामने रख दिया। जिस मार्गसे वे आये थे लगा। हवाम बाते करने चल दिये, उसी मार्गमे । - सोमशर्मा बोले-'मुनिराज ! अब संसार नहीं दनियाँकी हर चीज परिस्थितिके अनुसार बदलती ह चाहिए ममे । अब जम्म' मरणकी परम्परा नहीं जो कोमल हाथ कभी प्रेमका सन्देश देते हैं वही समय सही जाती। पाकर हलाहलका संकेत भी करते हैं। जी इठलाती मुनिराजन घबराये हुए संसारी पर वरद-हस्त रम्ब दिया कभी संगीत-स्वर मुखरित करतो हैं; वही कभी दिया। मानां संमारको यातनाश्रीकी श्रीरमं उमं अभयदान अपनी और तो ही दिखाई देती हैं। आज प्रकृति सूनी- ही मिल गया हो। उधर सूर्यदेव अस्ताचलकी भार बढ़ सूनी हो चला है और प्रकृतिको गांदमें पड़ा हुआ सोमशर्मा जा रहे थे और इधर सामशर्मा जैनेश्वरी दीक्षा लकर श्रापत्तिके भारसे धराशायी हो चला है। सुखको जालमान अपनी मात्माका परिकार कर रहा था। मुम्ब-दुखका इंस लिया है उसे । । विकल्प हटने लगा। बाह्य बाधाओसे प्रारमाका क्या ___ व्यक्तिकी लालसाय मृगतृष्णाकी भाँति कितनी अर्थ, बिगहा है, प्रश्न ता है अन्तरके परिष्कारका ? यही मबकर हीन है? वह दौड़ता है श्राशानाके पीछ, पर कुछ पाना रहा है वह, पास्माके उत्कर्षक लिये। नहीं । वह थक जाता है और बैठ जाता है विनामक प्रशान्तारमा मुनिराज सामशर्मा वर्षों तक देशान्तर लिए । फिर दौड़ता है, फिर धक जाता है। इमी भांति में विहार करते रहे। पारमा संमारकी विषमनायोस बहुत ज्वार उठत्ता रहना है, घाशाांका । यही जीवन है मानव ऊँची उठ गई थी। एक दिन जब वसन्तको मीठी-मीठी का, यही मृत्यु है मानव की। हवायें फूलोका पराग चुराकर चुपके चुपके दौदी जा रही दखी आत्मा एकान्तको अधिक प्रेम करती हैं । संसार- धीं, वे विहार करते हुए देवकोटपुरमें आ पहुँचे । मुनिराज का क्रन्दन उन्हें उबा देता है। उसे एकान्त प्रिय हो चना का प्रागमन सुनकर विशाल जनसमुदाय दर्शनोंक लिए था। किन्तु सिर उठा कर देखा तो विषादमें श्राशाकी एक उमड पदा। विष्णुशर्मा भी श्रमगाका ग्राम्मिक सौन्दर्य ज्योति दिखाई दी। सामने ही महामुनि भद्रवाटु खड़े- दग्बने लगा। वास्तव में आरिमकमौन्दर्य व ज्योति जो खड़े उसे आश्वासन दे रहे थे। सोमशा श्रद्धासे रद्गद् प्रारमा फरनम फुटकर बाहरी शरीरको प्रकाशमान का हो उठा। देता है । वह भी मुनिके प्रभावसे न बच सका। किन्तु मुनि कह रहे थे 'राहो ! मैं सब देख रहा था अपनी जब उसने देखा कि मुनिराज कोई और नहीं, उपका चिर भाँखोंसे । धनकी दासताने मानवको लूटनेकी प्रेरणा दी है नयी सोमशर्मा है, जिसे वह दीर्घकालसे दढरहा था, और उसीने तुम्हें प्रासुमोका उपहार भी दिया है। बाझके श्रद्धा क्षत-विक्षत होने लगी! Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [ वर्ष १३ लालसा व्यक्तिको नहीं वैभवको देखती है। उसके स्यालोका रुदन स्मशानको और भा बीभत्स बनाने लगा। पंख इसने कठोर होते हैं कि प्रायमानसे देवताको हवायें सू सू करके बह रही थी और उनके वेग भी गिरना पड़े तो उन्हें भी धकेलते हैं। लालमाने ही चितानाकी लपटें धाय धाय करके और उग्र होती जा रही मानवके रोषको जगाया । रोषने उसके प्रकारका थीं। मुनिराज अनन्तमें-शून्यमें हाथ फैलाते हुए बोलेबलवान किया सभी विवेक नए होता है, बुद्धि साथ नहीं 'धरती और श्रास्मानक देवता ! श्रात्माकी करुण देती और मानव गिर जाता है विनाशके पंकम, महाके पुकार सुनां । आज एक विरागीका धर्म संकट में है, जिसके लिए। पाम न दुनियाकी ममता है और न उसका परिग्रह । उसके विष्णुशर्माके हृदयमें रोष भर उठा था। वह तीखी पास है केवल व्रत, उपवास और तप, विश्वास, ज्ञान मुस्कान आकृति पर बाते हुए बोला-'सांमशर्मा! अच्छा और चारित्र । इनमेंसे जसका भी फज चाही ले ला. पर स्वांग बनाया है ऋण-मुक्तिका? अपने इस नग्न रूपका मुझे लालसााका खिलाना हानस । मुझे लालसाओका खिलौना होनेसे बचाओ ! संसारमे छल दूसरोके साथ करना । जात्रा मेरी धनराशि । ऋण- लोटनसे मुझे बचाया !! मंमारकी लालमाय मुझे पथमुक्केि बाद ही जा सकोगे यहाँ से। भ्रष्ट करनेका प्रयन्न कर रही है। देखा, मैं बहुत देकर भक्ति-गद्गद् जन-ममुदाय स्तब्ध होकर रह गया। 'कुछ लेना चाहता हूँ। मच्चे रत्न देकर मैं कच्चे मोती सहस्रोकी प्राकृतिपर गेप उभरने लगा, विष्णुशर्माक लेना चाहता है. जो अज्ञानी मारके लिए सर्वम्य हैं, कृश्य पर । बोले-'मनिराज क्या विष्णुशर्माका कहना 'प्राण है। ठीक है ? या श्रमणके उपहासका चक्र है यह देव " रात्रिको निम्तब्धतामें मुनिका करुण क्रन्दन निगमुनिराज गम्भार होते हुए बोले-'उमका कहना दिगन्नामें व्याप्त होने लगा विश्व देवता विरल हो उठे, ठीक है । गृहस्थ मोमशान उससं ऋण लिया था, पर कुछ क्षणों में ही मुनिराजकी पथरायी हुई अग्बिोन देवा, प्राज वह विरागी है । न उसके पास धन है और न धन- ग्राकाश प्रभामय होना जा रहा है। विचित्र वर्णोको रन्नका मोह । पिताके बाद गृहका उत्तरदायित्व मन्तान पर प्टिम मा मातृम होने लगा मानो राजपथ पर जाते होता है । हानि-लाभ, श्रादान-प्रदान मेरे पुत्रके हाथमे ई हुए किसी सम्राट पर कुलवधु पुष्प-वृष्टि कर रही हो। और उसीका कार्य है संसारकी उलझनें सुलझाना। रत्नराशिके बीच में मुनिराज इतने दीप्तिमय होते जा रहे विष्णुशर्मा! ऋण मुक्ति पुनक हाथ में है और उमीसं . जैम नक्षत्रांक बीच में चन्द्रमा । चन्द्रदेव मुनिराजक • तुम्ह सब मिजंगा। श्रागे उदास होकर पीले पड़ गये । टिमटिमाते हुए तार विष्णुशमा बाल-"श्री मुनि ! में तुम्हार पुत्रका शीघ्र ही आकाशके समुद्रमे अपने आपको टुयाने लगे। नहीं जानता । मैं जानता हूँ केवल तुम्ई, जिसे मैन विपुल चकोरी हताश होकर किमी वृक्षकी शाखा पर बेठ कर धनराशि दी थी। तुम कहते हो कि तुम्हार पास धन रह गई और कोकिलका मधुर स्वर श्मशानको नीरवता नहीं, पर धर्म तो है उसीको बच कर चुका दो मरी चीरता हुया प्रभातियाँ गाने लगा। मनिराज गम्भीर थे । धनराशि | गृहस्थ और विरागीका भेद करनको मुझे कोई उनकी प्राकृति पर तेज-पुञ्ज विखर रहा था। आवश्यकता नहीं, मुझे चाहिए हे मरा धन, जा तुम्ह प्रभात होते ही विष्णु रार्मा और उनके माथी स्मशान दिया था, विश्वास करके। मेश्रा पहुंचे । पर मनिराजको देखते ही उनकी प्राकृति उपस्थित जन हतप्रभ हो चलं । वे प्रश्नभरी दृष्टिस पर आश्चर्य मूत्तिमान् होने लगा। इस समय विष्णुमुनिराजकी ओर देखन लगे। शर्माकी स्थिति एक स्वप्नदृष्टा जैसी थी। मुनिराज बोले- "विष्णुशर्मा ! मुझे एक रात्रिका उसी समय वनदेवताने प्रकट होते हुए कहाअवकाश दो । प्रभात होते ही तुम्हें मिल जायगो तुम्हारी विष्णुशर्मा ! मुनिराजके संकटको देख कर मैंने यह रत्नधनराशि राशि चारों ओर बिखेर दी है। जो! जितना ले जा सको मध्य-रात्रिका समय है । मुनिराज सोमशर्मा नगरके ले जाओ यहाँ से । विरागीको विकल बना कर तुमन भयानक स्मशानमें ध्यानस्थ हो गये । चारों ओरसे अच्छा नहीं किया। Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १] रत्नराशि विम्युशर्माकी टि मुनिराजको प्राकृति पर अचल वर्षीय भटका हुमा पालक माताके चरणाम लोटने हो रही थी। मुनिराजमाल-विष्णु ! क्या सोचते हो? लगा हो। नृष्णा कमा शान्त नहीं होती। वह अग्निकी ज्वालाओंकी प्रारमा न जाने कबसे मारिमक पिपामामें भटक रहा भांनि वैभवका धन पाकर और भो भदकतो है। यही । मोहकी मृगतृष्णामें जजका प्राभास पाते ही सोचना नो वह कुमाना है जो अशान्ति द्वेष, घृणा और अहंकार है-सुग्यो है, तृप है। पर समीपतामें बढ़ती है निराशा, का सन्तानको जन्म देती है। पवित्रामा बनका अतृप्ति और अशान्ति । "फिर मांहकी व्यर्थताके बाद प्रयाम करां जिमके मामने संमारकी विभूतियाँ व्यर्थ प्रामा हननी म्वच्छ हो जाती है, जैसे दर्पण । उमं वह हो जाता है। मादीकी भांति मोहका ताना-बाना पूर द्वार दिमाई देने लगता है, जिसमें सीमा तोदकर मारमा कर उमीमें अपने आपको न उलझायो। माह-ग्राहक अनीम होकर प्रवेश करती है। यागीने ज्ञानको कुनओस कठोर दान संमार-ममुद्र की गहराई में प्रारमाको ग्वीच प्रान्मा कपाट खोल दिये थे । विष्णुशर्मा अपने आपमें ले जाते है. तब मामाका उद्धार युगोंके लिए कठिन अमामताका आभाम पाकर गद्गद हा उठा पर। बन जाता है। चमकते हुए पापाण जिन्हं पानक लिए संसार विष्णु शर्माक प्रज्ञानकी दीवार धीरे-धीरे टूटने लगी। पागल है जहां तहां विवर पडे है ! भाज वे इतने अर्थहीन वह मुनिराजके परणाम इस प्रकार लोटने लगा जैसे हो चले जसं प्यास बुझने के बाद पानी। राजधानी में वीरशासन -जयन्ती और वीरमेवामन्दिर-नूतन-भवनके शिलान्यासका महोत्सव भारतकी गजधानी दिल्ली (१ दरियागंज) में श्रावण कम्पनी, चौ. धनगजजी, ला. पक्षालालजी अग्रवाल, श्री कृष्ण प्रतिपदा मं० २०११ ना. १६ जुलाई 'मन १६ ४ रघुवर दयाल जी, पं० अजिनकुमारजी, ५० दरबारीलालशुक्रवारको प्रातःकान बजे बजे नक सुप्रसिद्ध उद्योगपनि जी, पं० यावृलाल जी, पं. मन्नूलालजी, लाला जुगलदानवार माह शान्तिप्रसादी जन कलकत्नाकी अध्यननामें किशोर जी कागजी, बा. मनोहरलालजी, बा. महताब वीर शापन-जरती जैसे पावन पर्व और वाग्वामन्दिर सिंहजी कील, श्री यशपाल जी, बा. बलवीरसिंहजी, बा. नृनन भवना शिलान्यायका महोन्मत्र व उत्साह और महंशचन्द्र जी एटा, श्री अन्नयकुमारजी श्रादिक नाम उल्लेग्यसमारोह माथ मनाया गया। नीय हैं। इनके अतिरिक्र मंकडों महिलाएं उपस्थित थी, इस समय श्री 10% मुनि श्रानन्दमागरजी महाराज, जिनमें जयवन्नी देवी, मूरजमुम्बी देवी, मुन्दरबाई, मन्वश्री आणिका वीरमतीजी, मिद्धमनीजी, मुमनिमनाजी, मली देवी, कृष्णादवी प्रादिकं नाम प्रमुम्ब है। वाममती जी, दुल्लिका गुगणमनी जी ज्ञानमतीजी ग्वाम नौर- माह माहब पधारने पर बण्ड बाजेक माथ उपस्थित सं पहाडी धीरज धीर धर्मपुगसं पधारे। अन्य उपस्थिन जनताले उनका स्वागत किया। उन्हें पर्व प्रथम पूजा-मण्डपमज्जनोंमें टी. एन. रामचन्द्रन ज्वाइण्ट डायरेक्टर जनरल में ले जाया गया, जहाँ पर प्राचार्य जुगलकिशोरजी, पं. पुरानच, डा. मोती चन्द्रजी अध्यक्ष-नेशनल म्यूज़ियम, हीरालाल जी, पं. मुमेमचन्द्रजी, पं० परमानन्दजी और पं० दिल्ली, ला. तनमुम्बगयजी, ग. मा. उल्फनरायजी, राज- मिठुनलाल जी द्वारा पूजन-हवनका कार्य सम्पम किया जा वैद्य महावीरप्रसादजी, ला. रघुवीरसिंहजी जनावाच- रहा था। माहीन पृजन-इवनमें भाग लिया और - Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८1 अनेकान्त किरण १ पश्चात वे सभा-भवनमें पधारे। सर्व प्रथम आचार्य जुगल- गाथामें मिला । जिम तीर्थ-प्रवर्तन जैसे महान् पर्वको लोग किशोर जी ने मंगलाचरण किया। इसके पश्चात श्रीमती भूले हुये थे उसका उम गाथामें स्पष्ट उल्लेग्व है। इस मखमली देवीने साहूजी को तिलक किया और उनके पति गाथा में बताया गया है कि वर्ष के प्रथम माम, प्रथम पक्ष ग. ब. दयाचन्द्रजी जैनने माहूजी को, और रा० मा. और प्रथम दिन श्रावण कृष्ण प्रतिपदाको अभिर्भाजन नक्षत्रमें उल्फतगयजी ने श्री मुख्तार सा० को हार पहराये । प्रसिद्ध सूर्योदय के समय वीर जिनक धर्म-तीर्थकी उत्पत्ति हुई थी। संगीतज्ञ ताराचन्द्रजी प्रेमीने सुमधुर स्वरमें स्वागत गान युगका प्रारम्भ भी इसी तिथिस होता है। पांचों कल्याणक गाया (जो अन्यत्र प्रकाशित है ) तदनन्तर श्री पं० राजेन्द्र ता नीर्थकरांक व्यक्रिगत उत्कर्षक द्योतक हैं, किन्नु संसारके कुमारजी ने अपने भाषण में माहूजी का परिचय देते हुए बन- प्राणियों के कल्याणका सम्बन्ध भगवानकी वाणीसे है, जिसका लाया कि माह मा० ने केवल जैनसमाज और भारतीय अवतार इस पुण्य निधिको हुआ है। इस लिए तीर्थप्रवर्नन व्यापारियों में ही प्रमुग्यता प्राप्त की, बल्कि उन्हें अन्तर्राष्ट्रीय होने के नाते श्राजक दिन का बड़ा महत्व है। सबसे पहले उद्योग पतियों में भी प्रतिष्ठा प्राप्त है। जन समाज की तो प्रायः वह पर्व वीरसेवा मन्दिग्में मनाया गया, तदनन्तर बराबर पभी संस्थाओं पर आपका वरद हाथ रहा है। ऐसे उदार, कार्य- विद्वन्मान्य होता हुआ अब मारे भारत में मनाया जाता है। कुशल, दानवीर व्यक्रि-द्वारा नवीन-भवनका शिलान्यास होना अपना भाषण जारी रखते हुए आपने यह भी बतलाया कि नि.सन्देह गौरव की वस्नु है । साथ ही आपने यह भी बत- अनकांत और अहिया य दो वीरशासनक प्रधान आधारलाया कि जैन संस्कृति पर जब कोई संकट या अन्य कोई म्तम्भ हैं। संसार की अशान्तिक दो मूल कारण हैं-विचारऐतिहासिक उलझन पाई, तब उप श्री मुख्तार मा० ने बड़े संघर्ष और प्राचार-संघर्ष । विचार-संघर्ष को अनेकान्त और ही अच्छे ढंगसे सुलझानेका यत्न किया है। वारसवा- प्राचार-संघर्षको ओहमा मिटाती है। इन दोनों सिद्वान् मंदिर द्वारा की गई मांस्कृतिक सेवाएं बड़ी ही महत्व पूर्ण के समुचित प्रचारसं विश्व में मची शान्ति स्थापित हो सकती है। अन्तमें पं० जी ने अपनी भावना प्रकट करते हुए कहा है। विश्व-शान्तिक लिए इन दोनों प्रचार की अत्यन्त कि श्री मुग्ख्तार मा० के द्वारा लगाया हुया यह पौधा माह अावश्यकता है-विश्वमें ग्राज इनकी मांग भी है। यह जी जैम उदारमना पुरुषों द्वारा मींचा जाकर भागडारकर हमारी त्रुटि और कमजोरी है जो हम उसका प्रचार नहीं रिमर्च इंस्टिट्य ट जैसी संस्थाका रूप धारण करे तो यह कर रहे हैं। अति उत्तम होगा। इसके पश्चात् बा. छोटेलाल जी कलकत्ता, अध्यक्षपं० हीरालाल जी शास्त्रीने बोर.शासन की महत्ता पर वीरसेवा मन्दिरने अपने भाषणमें बतलाया कि पूज्य मुख्तार अच्छा प्रकाश डाला। पं० धर्मदेवजी जैतलीने वेदांत, बौद्धादि. मा. जैसे महान माहिन्य-पम्वी और मन्यासी जैसे पवित्र मतोंका उल्लेख करते हुए कहा-घेदान्ती लोग चित्रपटक जीवन व्यतीत करनेवाले महानुभाव-द्वारा मस्थापित मन्दिरपट को तो मानते हैं, पर उसके चित्रोंको सत नहीं मानते। के शिल्यान्यामके लिए जिम धर्मनिष्ठ एवं गुणविशिष्ट बौद्ध लोग चित्रों को तो मानते हैं, पर पटका अस्तित्व नहीं महानुभावकी आवश्यकता थी उसकी पूर्ति हम माहूजी में मानते । पर अनेकान्तमय जैनधर्म दोनों को सत्य मानता देख रहे हैं । आपके दादा साहु सलेम्वचन्द्र जी बड़े धर्मात्मा है। उसके मत से पट भी मत् है और चित्र भी मत है। और उदार थे। श्रापको यह धर्मनिष्ठा और उदारता पैतृक इस प्रकार जैनधर्मका स्यावाद सिद्धान्त परस्पर-विरोधी सम्पत्तिके रूपमें प्राप्त है । पापक चरित्रकी उच्चता एक तत्त्वांका समन्वय कर गंगा-जमुनाके संगमका पवित्ररूप धारण विशेष बात है। जिपकी आज धनिकवर्गमें बहुत ही कमी करन के कारण जगत्पूज्य और अनुपम है । संसारके समस्त देबी जाती है। देश-विदेशों में घूमने पर भी आपका आहारधर्मोमें जैन धर्म सबसे प्राचीन है । इसकी बराबरी काई विहार हम लोगोंके लिए प्रादर्श रहा है। सभी तरहक दुसरा धर्म नहीं कर सकता। लोगोंस सम्पर्क रखते हुए भी आप सिगरेट तक नहीं पीते । प्राच्य विद्या महार्णव प्राचार्य जुगलकिशोरजी मुख्तारने धनाड्य युवक होते हुए भी आपका शील प्रशंसनीय है। अपने भाषणों में कहा कि बीर शापनक अवतारका सबसे पर्वके दिनों में आप सम्पूर्ण परिवार के साथ बलगछियाके पुराना उसलेग्व मुझे धवला टोकामें उद्धन एक प्राचीन जिन मन्दिरमें बड़ी भकिस भगवत्पूजन किया करते है। Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त- बाई ओर से आर्यिकाएं, मुनि श्रानन्दसागरजी, साहू शान्तिप्रसादजी, पं० जुगलकिशोरजी मुख्तार, श्री छोटेलालजी भाषण दे रहे हैं। साहू शान्तिप्रसाद जी हवन कुंड में सामग्री चढ़ा रहे हैं। Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनकान्त - N MANORING/R-5 G PAM MPA RMA माह शान्तिप्रमादजी भाषण दे रहे हैं। t । RAM m माह शान्तिप्रमादजी चौग्वटका मुहने कर रहे हैं। Rated . .. Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १ राजधानी में वीरशासन-जयन्ती [२९ अापक यहां गमन गाहस्थिक कार्य जनविधिस जैन विद्वानों इस समारोहका आयोजन तो उनकी अपेक्षा हमें करना द्वारा सम्पन्न किये जाते हैं । अागे अापने बनाया कि मैंने चाहिये था । इसके सिवा बा० छोटे लालजीके विषयमें आपके इन गुणों को देख कर ही बोरमेयामन्दिरक शिलान्याम बहुमान्यना- व्यंजक अपने गम्भीर हृदयोद्गारोंको व्यक्त के लिए अापसे निवेदन किया था, न कि आर्थिक सहायता करते हुए आग्विरमें यह भी प्रकट किया कि आज कल बा. उद्देश्य से । जब-जब मैंने अापके समक्ष किमी संस्था या छोटलालजी अपना सब कारोबार छोडकर निरन्तर साहित्य क्रिकी महायता करनेका प्रस्ताव रग्बा. अापनं उस हमेशा गधनामें लग रहे है। और उनके भाई बा. नन्दलालजी पृग किया है। आपने यह भी बतलाया कि माह मा० के भी कारोबार छोर चुके हैं, यह कोई साधारण बात नहीं है, आन-द्वारा न केवल जैन किन्तु जैनेतर संस्थाएं भी पल्लविन माह मा० ने लाला राजकृष्णजीकी प्रशंसा करते हुए कहा हो रही है। श्राप लाग्यों रुपये दान कर चुके है और आपका कि आपने धवलादि ग्रन्थोंको जीर्णोद्धारके लिये दिल्ली 'दानकोप भी लाग्योका है जिसमें कवल मेरे नाम पर ट्रष्ट. मंगानेका जो प्रायोजन किया है वह प्रशंसनीय है। अब श्राप के दम लाग्य रुपये है। इन मय यातीका अनुभव मुझे विगन हमें लाला राजकृष्ण जो का जगह पण्डित राजकृष्णजोके रूप २० वर्षोक निकट सम्पयंसे हुआ है। आप कोट्याधीश और में दिखाई दे रहे हैं। उदार होते हुए भी यायन्न मग्ल और निम्र है। आप अपने भाषणके अन्नमें मा० माह ने वीरसेवामन्दिरके भाग्नवी व्यापारियोंका सबसे बटी प्रतिनिधि संस्था (फेड महान कार्योका उल्लम्ब करते हा उमके नवीन भवन-निर्माण रंगन ग्राफ इगिनयन चम्बर्म और कोमर्म एगद इगडस्ट्रीज) के लिये ११०००) २० प्रदान करनेकी घोषणा की । इस पर के सभापति रह चा है। तदनन्तर श्री मुन्नार मा० ने म्बर्गचत 'महावीरमश बाब छोटलालजीन बड़े होकर कहा कि आपका सहयोग नामकी कविता पटी, जिमन सबको यानंद-विभोर कर दिया। हमने श्रापर गुणोंस प्राकृप्ट होकर शिलान्यास लिये चाहा अन्नमें माह माहवन अपना भाषण प्रारम्भ करते हुए था-यापम आर्थिक सहायताकी याचना नहीं की थी। किंतु बताया कि में श्री मुग्छतागपाहबको अपने बाल्यकालसे जानना जय श्राप स्वयं उदारता पूर्वक दही रहे हैं तो हम आपसे है। गगमोकार मन्त्रक पश्चात प्रथम मैन आपके द्वारा कम क्या लं? अनाव हम तो थापसे पहली मंजिलक रचित 'मेरी भावना' को योग्खा था। मुख्तार मा० की जैन निर्माणका पूरा म्बर्च लगे। इस पर माह मा० ने अपनी माहित्य और इतिहास सम्बन्धी सेवाणे महान हैं, जैन समाज महर्ष स्वीकृति प्रदान की और उपस्थित जनताने हर्ष वनिक अापकी अमन्य सेवाओं लिए सदा ऋणी रहगा । याज माथ श्रापक हम दानकी सराहना की। समारोहका जिक्र करने हा अापने कहा कि मैं नो कलकत्ता अन्तमें लाला राजकृष्णजीने पवको धन्यवाद दिया। कुछ वर्षो मे ही रह रहा हूँ पर अमल में मेग घर नी नजीबा- नपश्चान माह मा० ने मंगलगान और जयध्यनिके मध्य बाद है, जो कि दिल्ली बहुन समीप है। कलकत्ता बहुत अपने कर कमलोग शिलान्याम तथा चौग्वट-स्थापना की विधि दर है और बाब छोटेलाल जी यहां रहने वाले हैं इसलिए सम्पन्न की । सम्पादकीय १. नव वर्षारम्भ श्रापाठी पूर्णिमाको होना है। इसी में आषादी पूर्णिमाक दिन __इस किरणम अनेकान्नका १३वा वर्ष प्रारम्भ होता है, भारनमें जगह-जगह अगले वर्षका भविष्य जाननेके लिये जिसका अादि श्रावमा और अन्त श्रापाढका महीना होगा। ज्योनिष श्रीर निमिनशास्त्रोंके अनुसार पवन-परीक्षा की भारतवर्षमें बहुत काल व्यतीत हुआ जब वषका प्रारम्भ जानी थी। जो श्राज भी प्रचलित है । पावनी पाषादीके श्रावण कृष्ण प्रनिपटास माना जाना था, जो वर्षा ऋतुका रूपमें किसानोंका फसली माल भी उसी पुरानी प्रथाका पहला दिन है वर्षाऋतु प्रारम्भ होनेके कारण ही माल द्योतक है, जिसे किसी समय पुनराम्जीवित किया गया है। (sear) का नाम 'वर्ष' पड़ा जान पडना है, जिसका अन्त श्रावण कृष्ण प्रतिपदास वर्ष प्रारम्भ सूचक कितने ही Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ XXXXXXXXXXXXXXXXXX * स्वागत-गान * [ जो दानवीर साहू शान्तिप्रसाद जी जैन के स्वागतमें वीरसेवामन्दिर के नूतनभवन के शिलान्यास के अवसर पर गाया गया ] ( श्री ताराचन्दजी प्रेमी ) हृदय देखिये जैनजातिके युवक हृदय यहाँ आये हैं, जिनके स्वागत-हित पग-पथपें हम सबने पलक विछाये हैं ! श्री वैभव के वरदान, सरस्वतीके साधक, तेरा स्वागत, श्री जाति के गौरव महान् सन्मान आज तेरा स्वागत !! तुमने वैभवकी शय्या पर जातिका मान बढ़ाया है, तुमने चन्दाके रथ पर भी धरती से ध्यान लगाया है ! दुखियों पर दिलमें दया तेरे, कर्तव्यों पर अनुराग रहा, इस हृदय - कुसुममें सरसवृत्ति का पावन पुण्य पराग रहा !! मन फूला नहीं समाता है, साहू ! तुम सा हीरा पाकर, हृत् - कलियां स्वयं खिली जातीं, गुञ्जित हृद है स्वयमेव मुखर । धन दान दिया, मन दान दिया और भावका वरदान दिया, साहू ! तुमने जातिके हित जाने कितना बलिदान किया !! जीवनकी परिभाषा क्या है, इस जीवनमें तुम जान गए, जीवन धनका उपयोग सही इस जीवन में पहचान गये ! • युवक को साहू, तुम शिक्षा के अवतार हुए, किसीको देख स्वयं साह, दिलमें बेज़ार हुए !! बेजार ये सरस हृदय, ये सहानुभूति, ये अपनापन, ये कोमलता, निज गुणसे फहरा दी तुमने अब जैनधर्मकी कीर्ति-पता ! हे भारत गौरव महान्, हम करते हैं तेरा वन्दन, हे सरलवृत्ति, हे मूर्तिमान्, करते हैं तेरा अभिनन्दन !! *X;*— Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीरसेवामन्दिरकी सेवाएँ वीरसेवामन्दिरने, वैसाख सुदी तीज ( अक्षय तृतीया) सिद्धसेन नहीं. तीन या तीनसे अधिक हैं। माथ ही उपलब्ध सं. १९९३ ता.२४ अप्रेल मन् १९३० को सरमावा जि. द्वानिशिकाओंके कर्ता भी एक ही सिद्धसेन नहीं है। सहारनपुग्में मुख्तार श्री जुगलकिशोरजी के द्वारा संस्थापित ८. इतिहासकी दूसरी सैकड़ों बातोंका उद्घाटन और होकर अथवा जन्म पाकर, प्राज नक जो सेवाएं की हैं, उन समयादि विषयक अनेक उलझी हुई गुन्थियोंका सुलझाया का मंक्षिप्त मार इस प्रकार है: जाना। १.वीर-शासन-जयन्ती जैस पावनपर्वका उद्वार और १. लोकोपयोगी महन्नके नव साहित्यका सृजन और प्रचार । प्रकाशन, जिसमें 15 प्रन्योंकी खोजपूर्ण खास प्रस्तावनाएं, ____२. स्वामी समन्नभद्रक एक अश्रुतपूर्व अपूर्व परिचयपद्यकी नई खोज । २० ग्रन्थोंका हिन्दी अनुवाद और कोई ३०० लेखोंका लिखा जाना भी शामिल है। ३. लुप्त-प्राय जैन माहिन्यकी खोजमें संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रश और हिन्दीक लगभग २०० ग्रन्थोंका अनुसंधान ...अनेकान्त मासिक-द्वारा जननामें विवेकको जागृत तथा परिचय प्रदान । दूसरे भी कितने ही ग्रन्थों तथा ग्रन्थ करके उसके प्राचार-विचारको ऊँचा उठानेका मत्प्रयन्न । कागेका परिचय-लेग्वन । ११. धवल जयधवल और महाधवल (महाबन्ध ) ४. श्रीपात्रकारी और विद्यानन्दको एक समझनेकी जसे प्राचीन मिद्धान्त-अन्योंकी ताडपत्रीय प्रतियोंका-जो भारी भूलका सप्रमाण निरमन । मूडबिद्रीके मन्दिरमें मान नालोंके भीतर बन्द रहती थीं५. गोम्मटमारकी त्रुटिपूर्ति, रत्नकरण्डका कर्तृत्व और फाटा लिया जाना त्र फोटो लिया जाना और जीर्णोद्धारक लिये उनके दिल्ली एणत्तीकी प्राचीनता-विषयक विवादोंका प्रबन बुलानेका आयोजन क क सबके लिए दर्शनादिका मार्ग सुलभ युक्कियों-द्वारा शान्तीकरण। करना। ६. क्लीक तोमरवंशी नृनीव अनंगपालकी खोज, जिससे १२. जैन लक्षणावली (लक्षणामक जैम पारिभाषिक इतिहासकी कितनी ही भूल-भ्रान्तियाँ दूर हो जाती है। शब्दकोष ), जैनग्रन्थोंकी बृहन्सूची और ममन्तभद्र-भारती ..गहर अनुसन्धान-द्वारा यह प्रमाणित किया जाना कोशादिक निर्माणका समारम्भ । साथ ही 'पुरातन-जन वाक्यकि सन्मतिसूत्रक कर्ता सिद्धसेन श्राचार्य दिगम्बर थे. नथा सूची' आदि २१ ग्रन्योंका प्रकाशन । मन्मतिसूत्र, न्यायाबनार और द्वात्रिंशिकाओंक का एक ही -व्यवस्थापक वीरसेवामंदिर हिसाबका संशोधन अनेकान्नकी गत १२वीं किरणमें अनेकान्तका द्विवा- इधर किरण की छपाई और पोस्टेज ग्यमें जो पिक हिसाव छपा है, जिपक छपनम खेद है कि कुछ गलतियां अन्दाजी रकमें १७५) और १.) की दर्ज हुई थीं वे क्रमश: हो गई हैं। बडी ग़लती सूदकी रकमका १३२-) की जगह १६.) नथा ६॥) के रूपमें स्थिर हुई हैं, इसमे १२वें ३२%) छप जाना है जिसस जमा जोड़ और बाकीकी रकमों वर्ष सम्बन्धी वचक जोडमें १८७)। की कमी होती है। में मौ सौ रुपये की कमी हो गई है। व रकम ३२%), अतः ग्वर्चक जोड़की रकम ४६१६m-)को ५१६ )के १७८८), १०३४८), १४४६॥), ३६२७३)॥ है, रूप में परिवर्तित करना होगा। और इस तरह घाटे की इनमें से प्रत्येको १००) की रकम बढा कर सुधार कर लेना रकम १८-)॥की जगह ८७11) बनानी होगी। चाहिए । खर्चकी तरफ जोड़में एक रकम ८९० ) अाशा है पाठकजन अपनी-अपनी प्रति में यह सब संशोधन की जगह 480 ) के रूप में छप गई है उसे भी, करने की कृपा करेंगे। रिकस्थान पर एक का अंक बनाकर, सुधार लेना चाहिए । अधिष्ठाता वीर-सेवामन्दिर' Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Regd. No D. 21 अनेकान्तके संरक्षक और सहायक संरक्षक १०१) बा० मोतीलाल मक्खनलालजी, कलकत्ता १५००) वा० नन्दलालजी सरावगी, कलकत्ता १०१) बा० बद्रीप्रसादजी सरावगी, २५१) बा० छोटेलालजी जैन सरावगी , १०१) बा० काशीनाथजी, ... में २५१) बा. सोहनलालजी जैन लमेचू , १०१) बा० गोपीचन्द रूपचन्दजी २५१) ला० गुलजारीमल ऋपभदासजी , १०१) बा० धनंजयकुमारजी ५१) बा० ऋषभचन्द (B.R.C'. जैन , १०१) बाजीतमलजी जैन २५१) बा० दीनानाथजी सरावगी , १०१) बा० चिरंजीलालजी सरावगी। २५१) बा० रतनलालजी झांझरी १.१) बा० रतनलाल चांदमलजी जैन, रोची २५१) बा० बल्देवदासजी जैन सरावगी , १०१) ला० महावीरप्रसादजी ठेकेदार, देहली ) सेठ गजराजजी गंगवाल ५१०१) ला० रतनलालजी मादीपुरिया, देहली २५१) मेठ मुआलालजी जैन १०१) श्री फतेहपुर जैन समाज, कलकत्ता २५१) बा० मिश्रीलाल धर्मचन्दजी , १०१) गुपमहायक, मदर बाजार, मेरठ २५१) सेठ मांगीलालजी १०१) श्री शीलमालादेवी धर्मपत्नी डा०श्रीचन्द्रजी, २५१) सेठ शान्तिप्रसादजी जैन *१०१) ला० मक्खनलाल मोतीलालजी ठेकेदार, देहल २५१) बा० विशनदयाल रामजीवनजी, पुरलिया १०१) बा० फूलचन्द रतनलालजी जैन, कलकत्त २५१) ला० कपूरचन्द धूपचन्दजी जैन, कानपुर १०१) बा० सुरेन्द्रनाथ नरेन्द्रनाथजी जैन, कलकत्ता २५१) बा० जिनेन्द्रकिशोरजी जैन जौहरी, देहली। १०१) बा० वंशीधर जुगलकिशोरजी जैन, कलकत्ता २५१) ला० राजकृष्ण प्रेमचन्दजी जैन, देहली १०१) बाट बद्रीदास आत्मारामजी सरावगी, पटना १२५१) बा० मनोहरलाल नन्हेंमलजी, देहली १०१) ला० उदयराम जिनेश्वरदासजी सहारनपुर २५१) ला० त्रिलोकचन्दजी, सहारनपुर १०१) बा० महावीरप्रसादजी एडवोकेट, हिसार २५१) सेठ छदामीलालजी जैन, फीरोजाबाद २५१) ला० रघुवीरसिंहजी, जैनावाच कम्पनी, देहलीx १०१) ला० बलवन्तसिंहजी, हांसी जि० हिसार २५१) रायबहादुर सेठ हरखचन्दजी जैन. रांची १८१) सेठ जोग्वीराम बैजनाथ सरावगी, कलकत्ता २५१) सेठ वधीचन्दजी गंगवाल, जयपुर १०१) बाबू जिनेन्द्रकुमार जैन, सहारनपुर सहायक १०१) दाराज कन्हैयालालजी चाँद औषधालय,कान १०१) रतनलालजी जैन कालका वाले देहली # १०१) ला० परसादीलाल भगवानदासजी पाटनी, देहली। १०१) ला० प्रकाशचन्द शीलचन्द जी जौहरी, देहल *१०१) बा० लालचन्दजी बो० सेठी, उज्जैन १०१) बा० घनश्यामदास बनारसीदासजी, कलकत्ता अधिष्ठाता 'वीर-सेवामन्दिर १०१) बा० लालचन्दजी जैन सरावगी , सरसावा, जि. सहारनपुर प्रकाशक-परमानन्दजी जैन शास्त्री, दरियागंज देहली। मुद्रक-प-बाणी प्रिटिंग हाउस २३, ररियागंज, दे Page #386 -------------------------------------------------------------------------- _