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________________ १२] 'प्रमाद सदैव हिंसकः' के वचनानुसार हिंसक अवश्य है— उसे हिंसाका पाप जरूर लगता है। यथामरदु व जीयदु जीवो. अयदाचारस्स शिच्छिदा हिंसा पयदस्स ग्रत्थि बंधो दिसामिते समिस्स ॥ -प्रवचनसारे कुन्दकुन्दः ३, १७ अर्थात् - जीव चाहे मरे, अथवा जीवत रहे, असावधानोसे काम करने वालेको हिंसाका पाप अवश्य लगता है, किन्तु जो मनुष्य यत्नाचारपूर्वक सावधानी से अपनी प्रवृत्ति करता है उससे प्राणिबध हो जाने पर भी हिंसाका पाप नहीं लगता व हिंसक नहीं कहला सकता, क्योिं भावहिंसा बिना कोरी यहियां हिंसा नहीं कहला सकती। पायी जीव तो पहले चंपना ही बात करता है, उसके दूसरोंकी रक्षा करनेकी भावना ही नहीं होती। यह तो दूसरोंका घात होनेसे पहले अपनी कलुषित चितवृत्तिके द्वारा अपना ही घात करता है, दूसरे जीवोंका घात होना म होना उनके भक्तिम्यके आधीन है। अनेकान्त [ वर्ष १३ अलंग न किया जाय तो कोई भी जीव श्रहिंसक नहीं हो सकता और इस तरहसे तो शुद्ध वीतराग-परिणति वाले साधु महात्मा भी हिसक कहे जायेंगे क्योंकि पूर्ण ह पावक योगियों शरीरसे भी सूक्ष्म वायुकाधिक आदि जीवोंका वध होता ही है, जैसा कि यागमकी निम्न प्राचीन मायामे स्पष्ट है : 'हिंसा दो प्रकारकी होती है एक अन्तरंग हिंसा और दूसरी बाहिरंग हिसा । जय आभा ज्ञानांदि रूप भाव प्रयांका घात करने वाली अशुद्धपयोगरूप प्रवृद्धि होती है तब यह अंतरंग हिसा कहलाती है और जब जीवकं बाह्य द्रव्यप्राणोंका घात होता है तब बहिरंग हिंया कहलाती है। इन्हीं दूसरे शब्दों में व्यहिंसा और भावहिंमाके नामसे भी कहते हैं। यदि चटष्टिसे विचार किया जाय तो सचमुच में हिसा क्रूरता और स्वार्थकी पोपक है। मनुष्यका निजी स्वार्थ ही हिंसाका कारण है जब मनुष्य अपने धर्मसे प्युत हो जाता है तभी वह स्वार्थवश दूसरे प्राणियोंको सतानेकी चेप्टा किया करता है; आमविकृतिका नाम हिंया है और उसका फल दुःख एवं अशान्ति है और श्रात्मस्वभावका नाम अहिंसा है तथा सुख और शान्ति उसका फल है । I जब आत्मामें किसी तरहको विकृति नहीं होती चिन्त प्रशान्त एवं प्रसादादि गुणयुक्र रहता है उसमें क्षोभकी मात्रा नज़र नहीं आती, उसी समय श्रात्मा श्रमिक कहा जाता है। इसके होने पर भावहिंसा अनिवार्य नहीं है उसे यो भाव हिंसा सम्बन्धले ही हिंसा कहते हैं, वास्तवमें द्रव्यहिंसा नोभावहिंसा से जुड़ी ही है। 'यदि द्रव्यहिमाको भाषहिंसासे * स्वयमेवात्मनाऽऽत्मानं हिनस्त्यात्मा प्रमादवान् । पूर्व प्रत्यंतराखान्तु पश्चात्स्द्वान वा वधः ॥ - तत्त्वार्थवृत्ती में उष्टत, पृ० २३१ जदि सुद्धस्स व बंधो होदि बाहिर थुजोगेण । त्थिदु अहिंगोणाम होदि वायादिवधद्देदु । - विजयोदवायां- अपराजितः-६८०६ 'हिंसा और श्रहिंमाके इस सूक्ष्म विवेचनसे जैनी अहिंसा के महत्वपूर्व रम्यसे अपरिचित बहुतमे व्ययों हृदयमें यह कल्पना हो जाती है कि जैनी चहियाका यह मूचारूप श्रव्यवहार्य है उसे जीवनमें उतारना नितान्त कठिन ही नहीं किन्तु असम्भव है। अतएव इसका कथन करना व्यर्थ ही है। यह उनकी समक टीक नहीं है क्योंकि जैनशासनमें हिंसा और अहिंसाका जो विवेचन किया गया है वह अद्वितीय है. इसमें योग्यतावाले पुरुष भी यही चासनीक साथ उसका अपनी शकेि अनुसार पालन कर सकते हैं श्रीर अपनेको समिक बना सकते है। साथ ही जैन में जैनधर्म अहिंसाका जितना सूक्ष्मरूप हे वह उतना ही अधिक व्यव हार्य भी हैं। इस तरहका हिंसा और श्रहिसाका स्पष्ट विवेचन दूसरे धर्मो नहीं पाया जाता, इसलिये उसका जैनधर्मकी अहिंग्याके आगे बहुत ही कम महत्व जान पड़ता है। जैनशासन में किसीके द्वारा किसी प्रार्थीके मर जाने या दुःखी किये जाने ही हिंसा नहीं होती। संसारमें सब जगह जीव पाये जाते हैं और वे अपने निमित्तसे मरते भी रहते हैं, परन्तु फिर भी, जैनधर्म इस प्राणिघातको हिमा नहीं कहता, क्योंकि जैनधर्म तो भाधानधर्म है हीलिये जो दूसरोंकी हिया करनेके भाव नहीं रखता प्रत्युत उनके बच्चानेके भाव रखता है उससे दैववशात् सावधानी करते हुए भी यदि किसी जीवके द्रव्य प्राणोंका वध हो जाता है तो उसे हिमाका पाप नहीं लगता । यदि हिंसा और अहिंसाको भावप्रधान न माना जाय तो फिर बंध और मोक्षकी व्यवस्था ही नहीं बन सकती। उसे कि कहा भी है- विष्वरजीवचिते लोके क्व चरन को यमोदयत । भावैकसाधनी बन्धमोक्षौ चेन्नाभविष्यताम् ॥ - सागरधर्मामृतः ४, २३ अर्थात् — जब कि लोक जीवोंसे खचाखच भरा हुआ
SR No.538013
Book TitleAnekant 1955 Book 13 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size24 MB
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