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निरतिवादी समता
(स्वामी सत्यभक्क) समाजमें न सब मनुष्य सब तरह समान बनाये जा मुनाफा खा सकता है, जो अंधा विना नोकरके चल सकता सकते हैं, उनमें इतनी विषमता ही उचित कही जा सकती है उसमें पूंजी लगाकर आमदनी बढ़ा सकता है, बैंकों है जितनी बाज है। पर आज दोनों तरहके अतिवादोंका रुपया जमाकर व्याज खा सकता है। पोषण किया जाता है । अतिसमतावादी यह कहते हैं कि रूमी क्रांतिके प्रारम्भमें इतनी विषमता नहीं थी, क्रांतिमाहब, चीनमें कालेजके एक चपरासीमें तथा प्रिन्सिपलमें कारियोंकी इच्छा भी नहीं थी कि ऐसी विषमता आये । पर फरक ही नहीं होता । इस प्रकारके लोग अन्धाधुन्ध समताके अनुभवने, मानव प्रकृतिने, परिस्थितियोंकी विवशताने गीत गाते हैं। मानों विशेष योग्यता, विशेष अनुप- इस प्रकारके अन्तर पैदा करा दिये । निःसन्देह यह विषमता योगिता, विशेष सेवा या श्रमका कोई विशेष मुल्य न हो। भारतसे बहुत कम है। रूपमें जब यह एक और सोलहक ऐसी प्रतिवादी समता अन्यावहारिक तो होगी ही, पर बीचमें हैं तब भारतमें वह एक और चारसी के बीच में उसकी दुहाई देनेसे जो लोगोंमें मुफ्तखोरी अन्याय है। यहां किसीको परचीस रुपया महीना मिलता है तो कृतघ्नता प्रादि दोष बढ़ रहे हैं। उनका दुष्परिणाम समाज- किसीको दस हजार रुपया महीना । यह तो राजकीय क्षेत्रको और स्वयं उन लोगोंको भोगना पड़ेगा । यह तो अन्धेर का अन्तर है। आर्थिक क्षेत्रमें यह विषमता और भी नगरी होगी।
अधिक है । क्योंकि अनेक श्रीमानोंको लाखोंकी आमदनी अन्धेर नगरी बेबूझ राजा। है। रूसने विषमताको काफी सीमित और न्यायोचित रक्खा टके सेर भाजी टके सेर खाजा।।
है पर विमताकी अनिवार्यता वहां भी है। अतिसमता इस कहावतको चरितार्थ करना होगा।
वहां भी अव्यवहार्य मानी गई है। दूसरी तरफ प्रतिवैषम्य है। एक पादमी मिहनत किये अतिसमतासे हानियां बिना या नाममात्रकी मिहनत या विशेषनासे हजारों लाखों बहुतसे वामपक्षी लोग और बहुतसे सर्वोदयवादी लोग कमा लेता है। दूसरी तरफ बौद्धिक और शारीरिक घोर श्रम जिस प्रकार प्रति समताकीबात करते हैं या दुहाई देते हैं उसे करके भी भरपेट भोजन या उचित सुविधाएं नहीं प्राप्त कर अगर व्यवहारमें लानेकी कोशिश की जाय तो वह अव्यहार्य पाता। इस प्रतिवैषम्पको भी किसी तरह सहन नहीं किया साबित होगी और अन्यायपूर्ण भी होगी इससे देशका घोर जा सकता।
विनाश होगा। ये दोनों तरहके अतिवाद समाजके नाशक हैं। हमें अति
१-एक आदमी अधिक श्रम करता है और दूसरा ममता और अतिविषमता दोनों के दोषोंको समझकर निरतिवादी
कमसे कम श्रम करता है, यदि दोनोंको श्रमके अनुरूप ममताका मार्ग अपनाना चाहिये । इस बातमें मनोवैज्ञानिकता
बदला न दिया माय, अर्थात् दोनोंको बराबर दिया जाय तथा व्यावहारिकताका भी पूरा ध्यान रखना चाहिये ।
तो अधिक श्रम करने वाला अधिक श्रम करना बन्द कर आर्थिक समताके मागमें रूसने सबसे अधिक प्रगति
देगा, उसे श्रममें उत्साह न रहेगा। इस प्रकार देशमें श्रम की है और वहां जीवाद सबसे कम है विषमता भी सब
रहते हुए भी श्रमका अकाल पड जायगा । उत्पादन क्षीण से कम है। फिर भी इतनी बातें तो वहां भी हैं।
हो जायगा। -किसी को २५० रूबल महीना मिलता है और किसी कामकी योग्यता प्राप्त करनेके लिये वर्षों तपस्या किसीको ४००० रूबल महीना मिलता है । मतलब यह करना पड़ता है, और किपीके लिये नाममात्रकी तपस्या कि वहां सोलह गुणे तकका अन्तर शासन क्षेत्रमें है। करनी पड़ती है, प्रिन्सिपल बननेकी योग्यता प्राप्त करनेके श्रमिकोंमें यह अन्तर चौदह गुणा तक है। किसी-किसी लिये प्राधी जिन्दगी निकल जायगी और चपरासी बनने के श्रमिकको साढ़े तीन हजार रूबल मासिक तक मिलता है। लिये मामूली पढ़ना लिखना ही काफी होगा। दोनोंका
२-रेलवे में वहाँ भारतकी तरह तीन श्रेणियां हैं। मूल्य बराबर हो तो प्रिन्सपल और प्रोफेसर तैयार ही न
३-मकान, पशु मादि व्यक्रिगत सम्पत्ति काफी है हों। इसी प्रकार इंजीनियर और मामूली मजदूर, वैज्ञानिक और इसमें भी विषमता है।
और विज्ञान-शाला में झाडू देने वाला आदिके बारे में भी ४-अपना मकान भावेसे देकर मनुष्य पूजी पर होगा।