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अनेकान्त
वर्ष १३ (१२) अथवा
(१८) जो असाध्य स्मर रिपु ज्ञानियोंकी संगति और सम्यग्गुरूपदेशेन, सिद्धचक्रादिर्चियेत् । ध्यानके द्वारा भी नहीं जीता जा सकता है-वह देह और श्रुतंच गुरुपादांश्च कोहि श्रेयस तृप्यात ॥२६॥ प्रात्माके भेदविज्ञानसे उत्पा हुए वैराग्यके द्वारा अवश्य
(१३) श्रुतकी और गुरुके चरणोंकी पूजा करनी चाहिए। माध्य हो सकता है। वे धन्य हैं जो भेदज्ञानरूपी पायत फिर पात्रोंको नवधा-भक्किसे शनि के अनुसार तृप्त करके सब नेत्रोंसे युक्त है और राज्यका परित्याग कर चुके हैं तथा मुझे पाश्रितोंको योग्य काल में साम्य भोजन करावे और करे। धिक्कार है कि मैं कलत्रकी इच्छा लिए गृहस्थ जालोंमें सात्म्यका लक्षण निम्न पदसे प्रकट है
फंसा हूं।' इस प्रकार वह चितवन करे। पानाहारादयो यस्य विशुद्धा प्रकृतेरपि
(१९) एक ओर श्रमश्रीसे युक्त चित्तकर्षक है क्या वह सखित्वायावकल्पते तत्सात्म्यमिति कथ्यते ॥२८॥ मुझको जीत सकता है ? इसके उत्तरसे अज्ञात ही वह मोह(१४) कहा भी है
गजाकी चमू (सेना) इस लोकमें मेरे द्वारा जीतने योग्य हैगुरुणामर्द्धसाहित्य, लघूनां नातितृप्तता।
___ (२०) जिम्मने प्रारमासे शरीरको भित्र जाना था वह भी मात्राप्रमाणनिदिष्टं, सुख ताव तजीयते ॥२६॥ स्त्रीके जालमें फँम कर पुनः देह और प्रामाको एक मानने (११) दोनों लोकोंके अविरुद्ध दम्य वगैरहको प्राप्त
(२१) यदि स्त्रीसे चित्त निवृत्त हो चुका है, तो वित्तकी करना चाहिए । रोग उत्पा न हो इसके लिए और इस
इच्छा क्यों करता है? चूंकि स्त्रीकी इच्छा नहीं रखने ग्याधिसे अच्छे होनेके लिए यत्न करे । 'कि वह रोग वृत्तको
वाला होकर धनका संचय करता है तो वह मृतकके मंडनके भी नष्ट कर देता है । उक्त प्राशय निम्न पदसे प्रकट है
समान है. यह मन्तव्य निम्न पद्यसे प्रकट होता हैलोकद्वयाविरोधीनि द्रव्यादीनि सदा लभेत्।
स्त्रीतश्चित्तनिवृत्तं चेननु वित्तं किमीहसे यतेत व्याध्यनुत्पत्तिच्छेदयोः स हि वृत्तहा ॥३०॥ (१६) संध्याके समय आवश्यकको करके गुरुका स्मरण
मृतमंडनकल्पोहि स्त्रीनिरीहे धनग्रहः-४५ करे, योग्यकालमें गत्रिके समय अल्पशः शयन करे और
(२२) इस प्रकार उसे मुक्रिमागमें उद्योग करना शक्रिके अनुसार अब्रह्मका वर्णन करे! निद्राक पाने पर चाहिये । मनोरथ रूप भी श्रेयरथ श्रेय करने वाले हारे। पुनः चित्तको निर्वेद रूपम ही स्तिवन करे। च कि निर्वेदको क्षण-क्षण में प्रायु गल रही है। शरीरके सौष्टवका दाम हो सम्यग् प्रकारसे भाने पर वह चेतन शीघ्र सच्चे मुम्बको रहा है और वुढापा मन्युरूपी सखीकी खोज में है कि वह प्राप्त करता है-दुःव चक्रवालसे युक्र इस संसार ममुद्र में
कार्य सिद्ध करने वाली है। क्रियाके ममभिहारसे महित भी अन्यको प्रारमबुद्धिम माननेक कारण मेरे द्वाग कषायवश जिनधर्मका सेवन करना श्रेष्ठ है। विपदा हो या सम्पदा पुनः पुनः बद्ध अवस्था प्राप्त की गई-इसस पराधीन जिनदेवका कहा हुआ यह वचन मेरे लिए हिनकारक है। दुःखी बना रहा-अब मैं उम मोहका उच्छेद करने के लिए (२३) प्राप्त करने योग्य प्राप्त कर लिया है तो वह नित्य उत्साहित होता है-जब मोहक्षय हो जाएगा तब श्रामण्य महासागर है। उसे मथ कर समता रूपी पीयूषको राग द्वेष भी शीघ्र नौ दो ग्यारह हो जायेंगे।
पोवू जो कि परम दुर्लभ है-पुर हो या अरण्य, मणि हो (१७) बंधस दह होती है- उसमें इन्द्रियों होनी हैं या रेणु मित्र हो या शत्रु, सुख हो या दुःख, जीवित हो या और इन्द्रियोंस विषयांका ग्रहण होता है-उस राग द्वेष, मरण, मोक्ष हो या संसार इनमें में समाधीको-राग दोष महित विषय ग्रहणके द्वारा बंध होता है। उससे पुनः देह रहित परिणामको-कब धारण करूंगा? माशोन्मुख क्रियाइत्यादिका सम्बन्ध होता है-अतः मैं इस बंध और उसके काण्डसं बाह्यजनोंको विस्मित करते हुए मैं समरस स्वादियोंकारणका ही संहार करता हूँ। उक्र कथन निम्न पदसे की पंक्रिमें प्रारम रटा हो र कब बैलूंगा--जब मैं ध्यान में व्यक है
एक न हो जाऊँगा रुब शरीरको स्थाणु समझ कर वे मृग बंधा होऽत्र करणान्येतेश्च विषयमहः । उपसे खाज खुजाएँगे उन दिनोंकी में बाट जोह रहा हैबंधश्च पुनरेवातस्तदेनं संहराम्यहम् ॥३६|| जिनदत्त वगैरह गृहस्थ भी धन्य है जो कि उपसर्गोके होने