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________________ अहोरात्रिकाचार (क्षुल्लक सिद्धिसागर) मौजमायाव (जयपुर) के शास्त्र भण्डारमें पंडितप्रवर यथायोग्य जिन-भक्तों को संतुष्ट करे और अहंतके वचनके भाशाधरजीके द्वारा विरचित 'अहोरात्रिकाचार' नामका एक व्याख्यान-एवं पठनस अपनेमें बारबार उत्साहको उत्पन्न करे । संस्कृत ग्रन्थ ११ श्लोक प्रमाण अनुष्टुप् वृत्तमें रचित पाया (६) अर्हद् रूपको धारण करने वाले महावतीके प्रति जाता है इस ग्रन्थमें वां रवां और २६वां श्लोक सोम- 'नमोऽस्तु' इम विनय क्रियाको करे। मुल्लक परस्परमें देवाचार्यके यशस्तिलकचम्पूसे लेकर 'उतच' रूपसे उद्धृत इच्छाकार करें । स्वाध्यायको विधिवत, करना चाहिए। किये गये हैं । श्रावकोंके द्वारा दिन और रात्रिमें करने योग्य विपदा पड़े हुए धार्मिकोंका उद्धार करना चाहिए! मोक्ष, सद्विचार और सदाचारका संक्षिप्त विवेचन इस ग्रन्थमें पाया ज्ञान और दयाके सामीभूत होने पर सब गुण मिद्धि कारक जाता है । वह निम्न प्रकार से है होते हैं जमा कि निम्न पद्यस स्पष्ट हैं(१) ब्राह्ममुहूतमें उठकर पंच नमस्कार करके मैं कौन स्वाध्यायं विधिवत्कुर्यादुद्धरेच्च विपद्धतान् । हूँ-मेरा कर्तव्य या धर्म क्या है ? मैंने कौनसा बत ग्रहण पक्वज्ञानादयस्यैवगुणाः सर्वेऽपि सिद्धिदा.॥१५॥ किया है ? मुझे क्या करना है ? इत्यादिक चितवन करे । (1 जिन-गृहमें हास्य, विलास, कुकथा, पापवार्ता, (२) मैं अनादिकालस संसारमें भटक रहा हैं-मैंने पाप, निन्द्रा, थूकना और चार प्रकारका प्रहार त्याज्य हैंबड़ी कठिनाईमे इस श्रावकाय पाई धर्मको प्राप्त कर लिया यह निम्नपदसे पकट हैहै तो मुझे इस धर्ममें उत्साह होना चाहिए? मध्य जिनगृहं हा विलासं-दुःकथां कलिम । (३) तल्पसे उठकर श्रावक पवित्र-मनसे एकाप होकर निन्द्रानिष्ठ्यूतमाहारं चतुर्विधमपि त्यजेत् ।।१६।। अरिहन भगवानकी भावसे अष्टप्रकार पूजा रूप कृतिकर्मको (5) गृहस्थको न्यायपूर्ण व्यवसाय करना चाहिए। करके~समाधि लगाकर शान्तिका यथाशक्ति अनुभव करक पुरुषार्थक द्वारा अल्प फल होने पर या असफल होने पर प्रत्याख्यान ग्रहण करे और जिनदेवको नमरकार कर। भी धैर्य रखना चाहिए । हिंसकवृत्ति धारण नहीं करना (४) ममतामृतसे अपने अन्तरात्माको प्रक्षालन कर वह चाहिए-उसे यह विचारना चाहिए कि में प्रारम्भादिकको जिनक गमान शानमुद्राको धारण करे ! देवसे ऐश्वर्य और छोड़कर कब माधुकरी अनगार वृत्तिको धारण करूंगा। दुर्गति होती है ऐमा विचार करते हुए वह जिनालयको (१) यथालाभ उसको संतुष्ट रहना चाहिए और पाजीजावे ! यथा विभव पजाकी सामग्रीको लेकर आत्मोत्पाहसं विका चलाना चाहिए। उस योग्य नीर, गोरम, धान्य, युक्र चलते हुए वह देशवती संयतके समान भावनाको शाकादिक शुद्ध वनस्पतिको क्रय कर अविरुद्ध वृत्तिको करने वाला होता है। लाधवरूपसे करना चाहिए। (५) जगत्को बोध कराने वाले ज्योनिमय अरिहन्त (20) उद्यानभोजन, जन्तुका योधन, कुसुमांच्चयन, भास्करके दर्शन करके और जिन-मंदिरकी ध्वजाओंका स्मरण जलक्रीड़ा, डोलनादिकका त्याग करना चाहिए । यह अभिकरते हुए वह प्रसन्नचित्त हो-वायके शब्दसे और पूजादिक प्राय निम्न पासे अभिव्यक होता हैअनुष्ठानोंसे उत्साहित होकर 'निस्मही' शब्दका उच्चारण उद्यानभोजनं जंतुयोधनं कुसुमोच्चयम् । करे । मंदिरमें प्रविष्ट होकर प्रानन्दसे परिपूर्ण हो तीन प्रद- जलक्रीड़ा दोलनादिश्च त्यजेदन्यच्च तादृशम् ।।२।। क्षिणा देकर जिनदेवको नमस्कार करके पवित्र जिन-भगवानकी (११) अपवित्रताके अनुसार स्नान करके मध्याह्नक पुण्यस्तुनि पढे । समय द्रव्यको धोकर निद होकर पापनाशक देवाधिदेवकी (६) समवसरण सभामें स्थित ये वही जिन हैं और भक्ति करे । पीठका स्नानकर पीठिक को शुद्धकर चार कुभोंये सभासद हैं। इस प्रकार चितवन करते हुए यह धार्मिक को चारों कोगों में स्थापन करे । श्रीकार लम्बन कर इत्यादिक पुरुषोंको भी प्रसन्न करे। इर्यापथ शुद्धि पूर्वक जिनेश्वरको रूपसे स्नपनको करे । जल चंदनादिकस पूजा करकं नमस्कार पूजनकर, गुणी भाचार्यके सामने प्रत्याच्यानको प्रकाशित करे। और जिनदेवका स्मरण करे ।
SR No.538013
Book TitleAnekant 1955 Book 13 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size24 MB
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