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१६४] अनेकान्त
[ वर्ष १३ भावसं आत्माको धर्म होता है-यह बात भी जैनशासनमें पयडी वि य चेयह उपज्जइ विणस्सइ ।।३१२॥ नहीं है।"
एवं बंधो उ दुण्हं वि अण्णोएणपञ्चया हवे। ६. "श्रात्मा शुद्ध विज्ञानघन है, वह बाह्यमें शरीर अप्पणी पयडीए य संसारो ने ण जायए ॥ १३॥' आदिको क्रिया नहीं करता, शरीरकी क्रियासं उसे धर्म नहीं
पान्तु कानजी महाराज अपने उन वाक्यों द्वारा कर्मका होता; कर्म उसे विकार नहीं कराता और न शुभ अशुभ
प्रान्मा पर कोई असर ही नहीं मानते, अामाको विकार विकारी भावोंसे उसे धर्म होता है। अपने शुद्ध विज्ञानधन और सम्बन्धमे रहित प्रतिपादन करते हैं और यह भी प्रतिस्वभावके श्राश्रयसे ही उसे वीतरागभावरूप धर्म होता है।"
पादन करते हैं कि भगवानको वाणी अबन्द्वस्पृष्ट एक इस प्रकारके स्पष्ट वाक्योंकी मौजूदगी में यदि कोई यह शुद्धान्माको यतलाती है ( फलतः कर्मबन्धनसे युक्र अशुद्ध समझने लगे कि 'कानजीस्वामी आत्माको 'एकान्ततः भी कोई आत्मा है इसका वह निर्देश ही नहीं करनी)। अबद्धस्पृष्ट बतलाते हैं तो इसमें उसकी समझको क्या दोष माथ ही उनका यह भी विधान है कि प्रामा शुद्ध विज्ञानदिया जा सकता है? और कैसे उस समझका उल्लेख घन है. वह शरीरादिकी ( मन-वचन-कायकी) कोई क्रिया करनेवाले मेरे उन शब्दोंको श्रापत्तिके योग्य ठहराया जा नहीं करता-अर्थात् उनक परिणमनमें कोई निमित्त नहीं मकता है? जिनमें आत्माके 'एकान्ततः अबढस्पृष्ट' का होता और न मन-वचन-कायको कियासे उसे किसी प्रकार स्पष्टीकरण करते हुए डैश (-) के अनन्तर यह भी लिखा धम्की प्राप्ति ही होती है। यह सब जैन आगमों अथवा है कि वह "सर्व प्रकारके कर्मबन्धनोंसे रहित शुद्धबुद्ध है महर्षियोंकी देशनाके विरुद्ध आत्माको एकान्ततः अबद्धस्पृष्ट
और उस पर वस्तुतः किसी भी कमका काई श्रपर नहीं प्रतिपादन करना नहीं तो और क्या है, श्रामा यदि सदा होता।" कानजीस्वामी अपने उपयुक वाक्योमें थारमारे शद्ध विज्ञानघन है तो फिर संसार-पर्याय कैसे बनेगी। साथ कर्मसम्बन्धका और कर्मके सम्बन्धस आन्माके विकारी मार-पर्यायके अभाव में जीवोंके संमारी तथा मुक ये दो हाने अथवा उस पर कोई असर पड़नेका सात निषेध कर मेद नहीं बन सकेंगे. मंमारी जीवोंके अभावमें मोक्षमार्गका रहे हैं और इस तरह पात्मामें प्रात्माकी विभावपरिणामन- उपदेश किस अतः वह भी न बन सकेगा और इस तरह रूप वैभाविको शक्रिका ही प्रभाव नहीं बतला रहे बल्कि सारे धर्मतीर्थक लोपका ही प्रसंग उपस्थित होगा। और जिनशासनके उस सार कथनका भी उत्थापन कर रहे और प्रारमा यदि सदा शुद्ध विज्ञानघनक रूपमें नहीं हैं तो फिर उस मिथ्या ठहरा रहे हैं जो जीवात्माके विभाव-परिणमनको
विज्ञापनमा किसी समय या अन्तलमयकी 'प्रदर्शित करनेके लिए गुणस्थानों जीवसमासों और माग- पान ठहरेगा उसके पूर्व उस अशुद्ध तथा अज्ञानी मानना
णामों आदिकी प्ररूपणाम श्रोत-प्रान है और जिससे होगा. वैसा मानने पर उसकी अशुद्धि तथा अज्ञानताकी हज़ारों जनप्रन्थ भरे हुए हैं। श्रीकुन्दकुन्दाचार्य 'समयमार' अवस्थानों और उनके कारणोंको बतलाना होगा। साथ ही, तकमें पारमाके साथ कर्मके बन्धनकी चर्चा करते है और उन उपायों-मार्गोका भी निर्देश करना होगा जिनसे एक जगह लिखते हैं कि 'जिस प्रकार जीवके परिणामका अशुद्धि प्रादि दूर होकर उसे शुद्ध विज्ञानघनत्वकी प्राप्ति निमित्त पाकर पुद्गल कर्मरूप परिणमते हैं उसी प्रकार हो सकेगी तभी आत्मद्रव्यको यथार्थरूपमें जाना जा सकेगा। पुद्गलकोका निमित्त पाकर जीव भी परिणमन करता है, प्रान्माका सरचा तथा पूग बोध करानेके लिये जिनशासनमें
और एक दूसरे स्थान पर ऐसा भाव व्यक्र करते हैं यदि इन सब बातोंका वर्णन है तो फिर एकमात्र शुद्ध कि 'प्रकृतिके अर्थ चतनाग्मा उपजता विनशता है, प्रकृति भी प्रात्माको 'जिनशासन' नाम देना नहीं बन सकेगा और चेतनके अर्थ उपजती विनशती है, इस तरह एक दूसरेके न यह कहना ही बन संकंगा कि पूजादान-प्रतादिके शुभ कारण दोनोंका बन्ध होता है। और इन दोनोंके संयोगसे भावों तथा व्रत-समिनि-गुप्ति श्रादि रूप सरागचरित्रको ही संसार उत्पन्न होता है ।' यथा
जिनशासनमें कोई स्थान नहीं- मोक्षोपायक रूपमें धर्मका "जीवपरिणामहेदु कम्मत्तं पुग्गला परिणमंते। कोई अंग ही नहीं है। ऐसी हालत में कानजी महाराज पर पुग्गलकम्मणिमित्तं तहेव जोवो वि परिणम ॥" घटित होने वाले आरोपोंके परिमार्जनका जो प्रयत्न श्रीवोहरा"चेया उ पयडी अट्ट उप्पज्जइ विणस्सड।
जीने किया है वह समुचित प्रतीत नहीं होता। (क्रमश:)