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श्रीहीराचन्दजी बोहराका नम्र निवेदन और कुछ शंकाएँ
(जुगलकिशोर मुस्तार ) [गत किरणसे आगे]
कानीस्वामी वाक्योंको उद्धत करनेके अनन्तर श्री बोहराजीने मुझसे पूछा है कि "आत्मा एकान्ततः अबद्धस्पृष्ट है" यह वाक्य कानजीस्वामी के कौनसे प्रवचन या साहित्य में मैंने देखा है। परन्तु यह बतलानेको कृपा नहीं की कि मैंने अपने लेखमें किस स्थान पर यह लिखा है कि कानजी स्वामीने उक्त वाक्य कहा है, जिससे मेरे साथ उक्त प्रश्नका सम्बन्ध ठीक घटित होता । मैंने वैसा कुछ भी नहीं लिखा, जो कुछ लिखा है यह लोगोंकी आशंकाका उलेख करते हुए उनकी समझते रूपमें जिला है जैसा कि लेखके निम्न शब्दोंसे प्रकट है—
शुद्धमा तक पहुँचनेका मार्ग पासमें न होनेसे लोग 'इतो भ्रष्टास्ततो भ्रष्टाः' की दशाको प्राप्त होंगे, उन्हें अनाचारका डर नहीं रहेगा, वे समझेंगे कि जब आम एकान्ततः सर्व प्रकारके कर्मबन्धनोंसे रहित शुद्ध-बुद्ध है और उस पर वस्तुतः किसी भी कर्मका कोई असर नहीं होता, तब बन्धन से छूटने तथा मुक्ति प्राप्त करनेका यत्न भी कैसा ?" इत्यादि ।
ये शब्द कानजीस्वामीके किसी वाक्यके उद्धरणको लिये हुए नहीं है, इतना स्पष्ट है और इनमें आध्यात्मिक एकान्नाके शिकार मिध्यादृष्टि लोगों की जिस समझका उल्लेख है वह कानजीस्वामी तथा उनके अनुयायियोंकी प्रवृत्तियोंको देखकर फलित होनेवाली है ऐमा उक्र शब्दपाक्योंकि पूर्व सम्बन्धसे जाना जाता है कि एकमात्र कानजी स्वामीके किमी वाक्यविशेषसे अपनी उत्पत्तिको लिये हुए है। ऐसी स्थिति में उम्र शब्दावली में प्रयुक्र " श्रात्मा एकान्तत: प्रवद्वस्पृष्ट है' इस वाक्यको मेरे द्वारा कानजीस्वामीका कहा हुश्रा बतलाना किसी तरह भी युक्तियुक्त एवं संगत नहीं कहा जा सकता - वह उन शब्दविन्यासको ठीक न सकझनेके कारण किया गया मिथ्या आरोप है।
इसके सिवाय, यदि कोई दूसरा जन कानजीस्वामीके सम्बन्धमें अपनी समझको उक्र वाक्यके रूपमें परितार्थ करे तो वह कोई अद्भुत या अनहोनी बात भी नहीं होगी, जिसके लिये किसीको आश्चर्यचकित होकर यह कहना पड़े कि हमारे देखने-सुननेमें तो वैसी बात आई नहीं क्योंकि
कानजी महाराज जब सम्यग्हण्टिके शुभभावों तथा तज्जन्य पुण्यकमको मोक्षोपाय के रूपमें नहीं मानते - मोक्षमार्गमें उनका निषेध करते हैं तब से आध्यात्मिक एकान्तकी ओर पूरी तौरसे ढले हुए हैं ऐसी कल्पना करने और कू कहने में किसीको क्या संकोच हो सकता है ? शुद्ध या निश्चयनय के एकान्तले आत्मा श्रबद्वस्पृष्ट है ही । परन्तु वह सर्वथा अवद्धस्पृष्ट नहीं है, और यह वही कह सकता है जो दूसरे व्यवहारनयको भी साथ में लेकर हैउसके वक्तव्यको मित्रके पक्रन्यकी दृष्टिसे देखता है शत्रुके चक्रम्यकी रहिसे नहीं, और इसलिये उसका विरोध नहीं करता। जहाँ कोई एक नयके वक्रव्यको ही लेकर दूसरे नयके वक्रव्यका विरोध करने लगता है वहीं वह एकान्तकी धो चला जाता और उसमें ढल जाता है । कानजीस्वामी के ऐसे दूसरे भी अनेकानेक वाक्य हैं जो व्यवहारनयके वक्रयका विरोध करनेमें तुले हुए हैं, उनमें से कुछ वाक्य उनके उसी 'जिनशासन' शीर्षक प्रवचन- लेखसे यहाँ उद्धृत किये जाते हैं, जिसके विषयमें मेरी लेखमाला प्रारम्भ हुई थी:
१. "ग्रामको कर्मके सम्बन्धयुक्त देखना वह वास्तव जैनशासन नहीं परन्तु कर्मके सम्बन्ध रहित शुद्ध देखना यह शामन है।"
२. " श्रात्माको कर्मके सम्बन्ध वाला और विकारी देखना वह जैनशासन नहीं है ।"
"जैनशासन में कथित सामा जब विकारहित और कर्मसम्बन्धरहित है तब फिर इस स्थूल शरीरके आकार वाला तो वह कहांसे हो सकता है ?"
४. "वास्तव भगवानकी बाकी कैसा भरमा बतलाने में निमित्त है ? - अबद्धस्पृष्ट एक शुद्ध आत्माको भगवानकी वादी बतलानी है; और जो ऐसे आमाको समझता है वही जिनवाणीको यथार्थतया समझा । "
५. "बाह्यमें जड शरीरकी क्रियाको आत्मा करता है और उनकी किवासे आमाको धर्म होता है—ऐसा जो देखता है ( मानता है उसे तो जैनशासनकी गंध भी नहीं > तथा कमके कारण आमाको विकार होता है या विकार
है