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________________ १६२ अनेकान्त [ वर्ष १३ अनेकान्तवादको सीमाके बाहर - जो नित्यत्वका सर्वथा एकान्तवाद है उसमें विक्रियाके लिये कोई स्थान नहीं हैसर्वथा नित्य कारणोंसे अनित्य कार्योको उत्पत्ति या अभिव्यक्ति बन ही नहीं सकती और इसलिये उक्त कल्पना भ्रमसूलक है।" यदि सत्सर्वथा कार्यं वनोत्पत्तुमर्हति । परिणाम- प्रक्लृप्तिश्च नित्यत्वैकान्त - बाघिनी ॥ ३६ ॥ ' ( यदि सांख्योंकी ओरसे यह कहा जाय कि हम तो कार्य-कारण- भावको मानते हैं- महदादि कार्य हैं और प्रधान उनका कारण है— इसलिए हमारे यहाँ विक्रियाके बननेमें कोई बाधा नहीं श्राती, तो यह कहना अनालोचित सिद्धान्तके रूपमें विचारित है; क्योंकि कार्यकी सत् और असत् इन दो विकल्पोंके अतिरिक्त तीसरी कोई गति नहीं । ) कार्यको र्याद सर्वथा सत् माना जाय तो वह चैतन्य पुरुषकी तरह उत्पति के योग्य नहीं ठहरता - कूटस्थ होनेसे उसमें उत्पत्तिजैसी कोई बात नहीं बनती, जिस प्रकार कि पुरुषमें नहीं बनती। दूसरे शब्दोंमें यों कहिये कि जो सर्वथा सत् है उसके चैतन्यकी तरह कार्य नहीं बनता, चैतन्य कार्य नहीं है श्रन्यथा चैतन्यरूप जो पुरुष माना गया है उसके भी कार्यका प्रसंग आएगा | अतः जिस प्रकार सर्वथा सत्रूप होनेसे चैतन्य कार्य नहीं है उसी प्रकार महदादिकके भी कार्यश्व नहीं बनता । जब नई कार्योत्पत्ति ही नहीं तब विक्रिया कैसी ? और कार्यको यदि सर्वथा असत् माना जाय तो उससे सिद्धान्तविरोध घटित होता है, क्योंकि कार्य- कार - भावको कल्पना करनेवाले सांख्योंके यहाँ कार्यको सत् रूपमें ही माना है - गगनकुसुमके समान असत् रूपमें नहीं । ) ' (यदि यह कहा जाय कि वस्तु अवस्था अवस्थास्तर होने रूप जो विवर्त है परिणाम है-वही कार्य है तो इससे वस्तु परिणामी ठहरी ) और वस्तु में परिणामकी कल्पना ही नित्यत्वके एकान्तको बाधा पहुँचानेवाली हैसर्वधा नित्यत्वक एकान्तमें कोई प्रकारका परिणाम परिवर्तन अथवा अवस्थान्तर बनता ही नहीं ।' पुण्य-पाप-क्रिया न स्यात्प्रेत्यभावः फलं कुतः । बन्ध-मोक्षौ च तेषां न येषां त्वं नाऽसि नायकः ||४०|| *( ऐसी स्थितिमें हे वीरजिन !) जिनके श्राप ( श्रनेकान्तवादी ) नायक (स्वामी) नहीं हैं उन सर्वथा नित्यत्वैकान्तवादियों के यहाँ ( मनमें ) पुण्य-पापकी क्रिया - मन-वचन-कायकी शुभ या अशुभ प्रवृत्तिरूप श्रथवा उत्पादव्ययरूप कोई क्रिया नहीं बनती, ( क्रियाके अभाव में ) परलोक-गमन भी नहीं बनता, ( सुग्व-दुम्बरूप ) फलप्राप्ति की तो बात ही कहांसे हो सकती है ? -- वह भी नहीं बन सकती और न अन्ध तथा मोक्ष ही बन सकते हैं ।तब सर्वथा नित्यत्रके एकान्तपक्षमें कौन परीक्षावान किस लिए श्रादरवान हो सकता है ? उसमें सादर प्रवृत्तिके लिये किसी भी परीक्षकके वास्ते एक भी आकर्षण अथवा कारण नहीं है ।" क्षणिकैकान्त- पक्षेऽपि प्रेत्यभावाद्यसम्भवः । प्रत्यभिज्ञाद्यभावान्न कार्यारम्भः कुतः फलम् ॥ ४१ ॥ ' ( नित्यत्वैकान्तमें दोष देख कर ) यदि क्षणिक एकान्तका पक्ष लिया जाय - बौद्धोंक सर्वथा धनित्यत्वरूप एकान्तवादका आश्रय लेकर यह कहा जाय कि सर्व पदार्थ क्षणाक्षणामें निरन्वय- विनाशको प्राप्त होते रहते हैं, कोई भी उनमें एक क्षण के लिये स्थिर नहीं है - तो भी प्रेत्यभावादिक असंभव ठहरते हैं- परलोकगमन और बन्ध तथा मोक्षादिक नहीं बन सकते । ( इसके सित्राय प्रत्यभिज्ञान, स्मरण और अनुमानादि जैसे ज्ञान भी नहीं बन सकते ) प्रत्यभिज्ञानादि - जैसे ज्ञानोंका अभाव होनेसे कार्यका आरम्भ नहीं बनता और जब कार्यका आरम्भ ही नहीं तब उसका ( सुखदुःखादिरूप अथवा पुण्य-पापादिरूप ) फल तो कहांसे हो सकता है ? नहीं हो सकता । अतः सर्वथा क्षणिकान्त भी tarantia लिये श्रादरणीय नहीं है । * 'असदकरणादुपादानग्रहणात्सर्वसंभवाभावात् । शक्रस्य (कार्यस्य ) शक्य करणात् कारणभावाच्चसत्कार्यम्" इति हि साख्यानां सिद्धान्तः ।- (अष्टसहस्री पृ० ११)
SR No.538013
Book TitleAnekant 1955 Book 13 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size24 MB
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