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किरण]
क्या सुख-दुःख का अनुभव शरीर करता है? पर भी धर्मले विचलित नहीं हुए
इत्याशा धर विरचितमहोरात्रिकाचारः(२५) इस प्रन्धका अन्तिम पद्य
इस तरह यह ग्रन्थ श्रावकाचारकी उपयोगी बातोंको इत्यहोरात्रिकाचारचारिणि व्रतधारिणि । लिए हुए है । कृति संक्षिप्त और सरल है। और प्रकाशमें स्वर्गश्रीनिपते मोक्षशीर्षयेव वरखजम् ॥५०॥ लानेके योग्य है।
नोट-यह ग्रन्थ कोई नया नहीं है किन्तु मागार धर्मामृतके छठे अध्यायका एक प्रकरणमात्र है। इसी तरह स्वयंभूके 'हरिवंशपुराण से नेमिनाथके केवलज्ञानका एक प्रकरण मौजमावादके भंडारमें अवलोकनमें पाया है खोगोंने इन प्रकरणोंको अपनी ज्ञानवृद्धि के लिये अलग-अलग लिखवाये है, वे स्वतन्त्र ग्रन्थ नहीं हैं।
-परमानन्द
क्या सुखदुःखका अनुभव शरीर करता है ?
(तुझक सिद्धिसागर ) कुछ लोगोंका यह कहना है कि सुख-दुःस्व शरीरको लिटा दिया जाय तो भी शय्या निमिससे उसे सुम्ब नहीं होता है-जीवको नहीं होता है-यह मन भी विचित्र होता है.--उपयोग उम ओर जाने पर और इष्ट या अनिष्ट चार्वाकों जैसा है-चूकि व पुद्गलक या भून चतुष्टयक बुद्धिक होने पर ही दुःख या मुखका अनुभव हो सकता हैविकसित मिश्रित रूपको चेतना मानते हैं । चार्वाक मतमें
किसी भी वस्तुको जानने मात्र सुम्ब या दुःख नहीं स चतनका ही सुग्वदुःख होता है उससे कल्पना की जाती होता है किंतु मोहके उदयसे युक्त पाय सहित प्रारमा इए है। मित्रजीवकी सत्ताको वह स्वीकार नहीं करता, किन्तु ये या अनिष्ट बुद्धिके होने पर ही सुम्ब या दुःखका अनुभव विचित्र अध्याग्मिक शरीरको सुखदुःम्ब होना है ऐसा कहते करता है-उसमें साता या ममाताका उदय भी निमित्त हुए-जीवकी सनाको अलग मानते हैं।
है। उक्त सुग्ख भी सुस्वाभास है और अस्थिर हैजब कि पुद्गलमें मूलरूपसं ही चतनाक्रि नहीं तब उसे सुखदु ख कैसे हो सकता है ? मुग्वदुःख नो चनना शकि
जो उपयोग इष्टानिष्ट परिणतिम रहित है वह सर्च से युक्त उपयोगी जीवको हो होता है-जातलमें शराब है
मुम्बका अनुभव करता है जो बन्ध गुणस्थान और मार्गग्याकिन्तु उसके होने पर भी प्रचंतन बोनल उन्मत्त नहीं होती
म्यान, अादिक वर्णनको अनिष्ट और मोक्षक वर्णनको है-उसी प्रकार शरीरमें रोग उत्पन्न होने पर शरीर अचंतन
इष्ट-या शुद्ध प्रात्माकं कचनको ही इस मानने है- सच्चे होनेसे दुःखका अनुभव नहीं कर सकता है जैसे कि कांटोंकी सुग्षका अनुभव नहीं करते है-विन्तु जो जीव शुद्ध और शय्या पर पड़ा हुमा प्रचेतन शरीर दुःखका अनुभव नहीं अशुद्धको जानकर नटम्थ होता है-वही नय-पक्ष कक्ष करता है
अतीत मध्यस्थ-या समत्व युक्न श्रामा जान चेतनाक द्वारा शरीरमें राग होने पर भी एक जीव उमस उपयुक्त वास्तविक मुखका अनुभव करता है या नही होता है। नहीं होता है तब तक किसी कार्य में व्यस्त होने पर दःखका कर्म निमित्त जन्य मुःग्वको जीव ही अनुभव करता है अजीष या वेदनाका अनुभव नहीं करता है-दुःख का अनुभव जीव नहींको तो हो सकता है पर अचेतन शरीरको कभी नहीं हो हममें मन्दह नहीं कि सुबहुम्वका बेदनी कवल जब सकता।
शरीरको नहीं होता किन्तु शरीरस्थित जीवामा उपयुक्र मुर्देको कोमल शय्या पर बिठाने पर भी सुखका अनु- होने पर ही करता है। अनुपयुक्त दशामें उमका अनुभव भव नहीं होता है-ध्यानमें निमग्न शरीरमें अनुपयुक्त नहीं होता। क्योंकि वेटन या अनुभवन जीवका निजस्वभाव विशिष्ट ध्यान और मंहनन वाला शरीरधारी कोमलशय्या पर है पुद्गलका नहीं।