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दीवान अमरचन्द
(पं. परमानन्द जैन) राजपूताने में जैनममाजमें ऐसे अनेक गौरवशाली महा- खंजाची भी थे, और रामचन्द्र छाबड़ा, जिन्होंने भामेर और पुरुष हुए हैं जिन्होंने देश-जाति और धर्म की सेवा ही नहीं जोधपुरको मुसलमानोंके अधिकारसे संरक्षिन किया था। इमी की है कि उन्होंने नगर या देशको रक्षार्थ अपना सर्वस्व होम तरह और भी अनेक दीवान हुए हैं जिन्होंने अपनी अपनी दिया है। उनमेंसे आज हम अपने पाठकोंको एक ऐसे ही योग्यतानुसार राज्यके संरक्षण और श्री वृद्धि में सहयोग दिया महापुरुषका संक्षिप्त जीवन-परिचय देना चाहते हैं जो केवल है। उनमें अमरचन्दजी दीवानका नाग भी खास तौरसे धर्मनिष्ठ और दयालु ही नहीं था, किन्तु जिसने अपने नगर उल्लेखनीय है। इनका जन्म सम्वत् १८४० में हुआ था। की रक्षार्थ बिना किसी अपराधके दयालुतामे द्रवित होकर इनके पिता शिवजीलालजी थे, जो गज्यके दीवानपद पर खुशीसे अपने अमूल्य जीवनको बलिवेदी पर उत्सगं किया बासीन थे। उनकी जाति खंडेलवाल और गोत्र पाटनी था। है। उनका नाम है अमरचन्द दीवान ।
ये सम्वत् १८४० में राजा प्रतापसिंहके राज्यकाल में दीवान जयपुर राज्यकी सुरक्षा और श्री-वृद्धि में वहांके जानयोंजैसे उच्चपद पर प्रतिष्ठित थे। शिवजीलाल जी बड़े ही का प्रमुख हाथ रहा है, अनेक जैन दीवानांने अपने राज्यकी मिलनसार, पग्लस्वभावी और धर्मान्मा थे। इन्होंने एक रक्षार्थ अनेक प्रयत्न किये और उसे मुसलमानोंके कब्जेंस विशाल जैनमन्दिर मनिहारोंके रास्ते में बनवाया था। वहा सदाया । साथ ही स्टेट पर अंग्रेजों का भी अधिकार नहीं जाना है कि उसकी नींव जयपुर नरेश प्रतापसिंहजीने स्वयं होने दिया । यद्यपि इन कार्योमें उन्हें अपनी और सामर्थ्य अपने हाथोंसे रखी थी। इस मन्दिरमें किसी साम्प्रदायिक के अनुसार अग्नि-परीक्षामें सफलता मिली, उन्होंने जयपुर व्यक्तियोंने जैन मृतिको हटाकर शिवकी मूर्ति रखकर अपना
और जोधपुर राज्यमें होने वाले मत-भेदोंको मिटाया, उनमें अधिकार कर लिया था जिसका नमूना आज भी मौजूद है। प्रेम और अभिनय मैत्रीका संचार किया। इसमें सन्दइ नहीं अाजकल उस मन्दिरको विल्डिंगमें जैनसंस्कृत कालेज चल
कि उन्होंने अपने कर्तब्यका दृढताके साथ पालन किया। रहा है. और राज्य सरकारकी ओरसे कालेज संचालनके और अनेक प्रापदाओंका स्वागत करते हुए भी अन्तमें जीव
लिए दी हुई है । बादमें सरकारसे अनुरोध करने पर सरनको भी अर्पण कर दिया । अन्यथा उक्त राज्यने अपनी स्वतन्त्राताको सदाके लिए खो दिया होता।
कारने उमी मन्दिरकी बगल में एक मन्दिर बनवा दिया था जयपुरके जैन दीवानोंमें रावकृपाराम, जो बादशाह दिल्ली के जो आज भी दीवानजी के नामसे ख्यात है। जयपुरके एक
------ दरवाजे पर भी शिवजीलालजी दीवानका रास्ता । यह वाक्य दीवान रामचन्द्रजी छावडाने अामेरसे यदों को
लिखा हुआ मिलता है। अमरचन्द जो दीवानके पिता शिवभगाया, और जयसिहजी का कब्जा पूर्ववत् कराया। पश्चात्
जीलालजी की मृत्यु सम्वत् १८६७में हुई थी, उस समय जोधपुरस भी मुसलमानों को भगाया। तथा जयपुर जोधपुर
जयपुरमें जगतसिंहजीका राज्य था और पंडित जयचन्दजी राजाओं ने सांभरको यवनोंसे पुनः वापिस लेने पर अापसमें
उस समय तक अनक ग्रंथोंकी टीकाए बना चुके थे। अधिकार सम्बन्धी जो विवाद उपस्थित हो गया था उसमें
साधी वात्सल्य मध्यस्थता कर दोनों राज्यों में बांटकर परस्पर प्रेमका मंचा
दीवान अमरचन्द जी भी अपने पिताके समान सरललन किया। राजा प्रतापसिंहका राज्यकाल सं० १८४० १८५८
स्वभावी और विनयी थे । एक चित्रमें वे अपने पिताजीक तक तो निश्चित ही है, क्योंकि वि० सं० १८५८ में पुस्कर
सामने हाथ जोदे खड़े हुए हैं। अमरचन्द जी शिक्षासम्पन्न जोधपुर नरेश विजयसिंहजी के बड़े पुत्र फतहसिंहजी की
विद्वान थे और राजा जगतसिंहजी के राज्यकालमें दीवानपद कन्यास प्रतापसिंहजी का और प्रतापसिंह की बहिनसे भीम- पर प्रतिष्ठित हुए थे। उस समय भूधारामजी भी दीवान थे. सिह जी का विवाह हुआ था-इसके बाद वर्ष और राज्य तथा स. १८५में राजा जगतसिंहजी राज्यासीन हो गए थे। कर पाये थे कि संवत् १८५६ में उनका स्वर्गवास होगया। देखो, भारतक प्राचीनराज वंश भा० ३ पृ० २५५