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दीवाम-ममरचन्द
[१L जो मे ही प्रभावक, निर्भय और राजनीतिज्ञ थे | अमरचन्द- नायककी एक विशाल मूर्ति चन्द्रप्रभ भगवानकी बड़ी ही जीने धर्मनिहता के साथ २ धर्मवत्सलता और करूणाकी अपूर्व- चित्ताकर्षक और कलापूर्ण है। इस मंदिरमें प्रविष्ट होकर धारा प्रवाहित थी, वे नमरमें स्वयं घूमते और अपने नौकरों- माली गर्भालयमें स्थित वेदीकी सफाई आदिका कार्य नहीं से अपने साधर्मी भाइयोंकी दयनीय एवं निर्धन स्थितिका कर सकता और न पूजनके वर्तन भादि ही मांजकर ठीक पत्य जगवा कर उनके यहाँ लड्डुओंमें मुहरे या रुपया रख कर सकता है। कहा जाता है कि जब तक दीवन अमरचंद कर भिजवा देते थे। और जब ये लड़ फोड़ते तब उसमेंसे जी रहे, मंदिर के अन्दर गर्भालयमें स्वयं बुहारी देने प्रादिका मोहरें वा रुपया निकालते, तब वे उन्हें वापिस ले जाकर कार्य करते थे और उनकी धर्मपत्नी पूजनके बर्तन प्रतिदिन दीवानजी को देने जाते सब दीवानजी उनके स्वाभिमान- साफ किया करती थी। एक बार कोई सज्जन उनसे मिलने में किसी किस्मकी ठेस न पहुँचाते हुए समझा बुझा कर यह के लिये आए, तब दीवानजी घेदीमें बुहारी दे रहे थे। कहते कि वह सब आपका ही है, वह मेरा नहीं है ।इस तरह उनकी इस क्रियाको देखकर उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ कि उनके प्रति प्रेम और पावरमावको प्रकट करते थे। और इतना बड़ा संभ्रात कुलका दीवान भी मंदिरजीमें स्वयं दूसरों के स्वाभिमानको भी संरक्षित रखते थे। इसी तरह बुहारी देनेका कार्य करता है । दीवानजीको कभी उक्त कार्यसे जिन घरोंमें अनाज की कमो मालूम होती थी, तब उनका संकोच अथवा लज्जाका अनुभव नहीं होता था, किन्तु । नामादि मालूम कर अपने नौकरोंके हाथ उनके घर अनाज उसे अपना कर्तव्य समझकर उस कार्यको करते थे। उनके घरवालोंका नाम लेकर भिगवा देते और कहना दीवानजीके जीवन-सम्बन्धमें भाजभी अनेक किंवद. देते कि उन्होंने बाजारसे मेजा है। इस तरह दोवानजी तियाँ प्रसिद्ध है। वे यों ही प्रसिब हो गई हों सो भी नहीं अपने साधर्मी भाइयोंके दुःखको दूर करमेका प्रयत्न करते थे। है किन्तु उनमें कुछ न कुछ रहस्य जकर अन्तर्निहित है,
इसी प्रकार वे समाजमें शिक्षाके प्रचारमें अपना वरद इसीसे वे लोकमें उनका समादरके साथ यत्र-तत्र कही जाती हाथ खोले हुए थे। उनकी मार्थिक सहायतासे कई विद्या- हैं। उनमें से कुछका यहाँ निर्देश किया जाता है। थियोंने उच्च शिक्षा प्राप्तकर अपनी २ रचनाओंमें दीवानजी उनका प्रेम केवल साधर्मी जनोंसे ही नहीं था किन्तु का प्रभार मानते हुए साता ब्याक की है।
अन्य लोगोंके प्रति मी उनका वैसा ही प्रेम पाया जाता है। जीवन-चर्या
कहा जाता है कि एक रंगरेज (मुसलमान), जो कपड़े रंगकर मापकी जीवनचर्या गृहस्थोचित तो थी ही। उनका अपनी आजीविका चलाता था, उसे दीवानजीने पंचनमस्कार रहन-सहन और व्यवहार सादा धर्म भावनाको लिये हुए मंत्र दिया था, उसकी उस मंत्रपर बड़ी भन्दा थी, वह पहले था । उनका विद्वानों के प्रति बड़ा ही भद्र व्यवहार था। वे उसका जाप करके ही अन्य कार्य करता था और यह भी स्वयं प्रातःकाल सामायिकादि क्रियाओंसे निवृत्त होकर और सुनने में प्राता है कि वह उनके शास्त्रको भी जीनेमें बैठकर
निकर राख वस्त्र पहनकर जिनमादरजाम जाते थे। पूजन सुना करता था। एक दिन उसे किसी दूसरे ग्रामको कार्यवश स्वाध्यायादि कर अपने कर्तव्यका पालन करते थे। उन्होंने जाना था। रास्तेमें उसे एक सेठजी मिले उन्हें भी किसी अपने जीवनको सदा कर्तव्यनिष्ठ बनाया, प्रमाद या बालस्य कामवश उसी ग्राम जाना था। चलते-चलते जब जयपुरसे तो उन्हें कभी नहीं गया था। वे सदा जागरुक और कर्तव्य- बहुत दूर निकल गए, तब उन सज्जनको प्यासकी बाधा शीख बने रहे।
सताई और तब उन्हें याद पाया कि मैं बोटा डोरी भून दीवान अमरचन्दजीने भी एक विशाल मंदिर बनवाया है, माया हूँ, उन्हें अपनी भूल पर बड़ा भारी पछतावा हुआ। जो छोटे दीवानजीके मंदिरके नामसे प्रसिद्ध है। इस मंदिरके पर जब चलते-चलते ध्यासने अपना अधिक जोर जनाया, उपर एक विशाल कमरा है जिसमें दो-तीन हजार व्यकि और उधर सूर्यकी प्रखर किरणें भी अपना ताप बखेर रही बैठकर शास्त्र-श्रवणादि कार्य करते थे। इस हाथमें यदि थी, अतः वह तृषाजन्य भाकुलतासे उत्पीदित हो षटपटाने सरस्वति भण्डारको स्थापित किया जाय तो उस स्थानका बगा, शरीर पसीने से तर होगया और चलनेमें असमर्थताका उपयोग भी किया जा सकता है। दीवानजीका यह मंदिर अनुभव करने लगा और तब उसने डा रंगरेजसे कहा कि गुमानपंच माम्बायका कहा जाता है। इस मंदिरमें मूब- भाई अब मुझसे एक पग भी नहीं चला जाता, कंठ सूख