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________________ १५.1 अनेकान्त, वर्षे १३ "भारह-रण-भूमिव स-रहभीम,हरिप्रज्जुण रणउलसिहंडिदीस 'अक्क मियंक सक्ककंपावणु, गुरु३ बासस्थाम कलिंगचार, गयगज्जिर४ ससर महीससार । हा मुय सीयह कारणे रावणु । खंकायापरी वस-रावणीयर, चंदणपहिः चार कलहावरणीय।' दलियदप्प दप्पिय मइमोहणु, सपलास सकंचण अक्खघट्ट,स विहीसणम्कइकुल फल रमह । कवणु अणत्थु पत्तु दोज्जाहणु। इन पद्योंमें विंध्याटवीका वर्णन करते हुए श्लेष प्रयो तुज्झ ण दोसु दइव किउ घावइ. गमे दो अर्थ ध्वनित होते हैं-स-रह-रथ सहित और एक अणउ करंतु महावइ पावइ । भयानक-जीव हरि-कृष्ण और सिंह, अर्जुन और वृक्ष, जिह जिह दंड करंविउ जंपइ, नहुल और नकुल जीव, शिखंडि और मयूर आदि । तिह तिह खेयरू रोसहिं कंपइ । घट्ट कंठसिरजालु पलित्तउ, प्र-थकी इस पांचवीं संधिसे श्रृंगार मूलक वीररसका चंडगंड पासय पसित्तउ। प्रारम्भ होता है । केरलनरेश मृगांककी पुत्री विलासवतीको दट्ठाहरु गुंजजलुलोयणु, रत्नशेखर विद्याधरसे संरक्षित करनेके लिए जंबूकुमार अकेले पुरु दुरतणासउड भयावणु । ही युद्ध करने जाते हैं। युद्ध वर्णनमें कविने वीरके स्थायीभाव पेक्खेवि पहु सरोसु सरणामहि, 'उत्माह' का अच्छा चित्रण किया है । पीछे मगधके शासक वुत्तु वोहरू मंतिहिं तामहि । श्रेणिक या बिम्बसारकी सेना भी सजधजके माथ युद्धस्थल में अहोअहा हृयहूय सासस गिर, पहुँच जाती है, किन्तु जम्बूकुमार अपनी निर्भय प्रकृति और जंपइ चावि उद्दण्ड गम्भिउ किर । असाधारण धैर्य के साथ रत्नशेखरके साथ युद्ध करनेको प्रोत्ते अण्णहो जीहएह कहो वग्गए, जन देनेवाली वीरोक्रियाँ भी कहते हैं तथा अनेक उदात्त भाव खयर वि सरिस णरेस हो अग्गए। नामोंके साथ सैनिकोंकी पत्नियां भी युद्ध में जानेके लिये उन्हें भणइ कुमारू, एहु रइ-लुद्धउ, प्रेरित करती हैं । युद्धका वर्णन कविके शब्दोंमें यों पढ़िए । वसण महएणवि तुम्हहि छुद्धउ । रथसमन्विता भीसा भयानका , विध्याटवीपक्षे रोसंते रिउहि यच्छु वि ण सुरणइ, सरभैरप्टापदैर्भयानका। २ वासुदेवादयः दृश्याः, विंध्याटव्यां कज्जाकज्ज बलाबलु ण मुणइ ।' हरिः सिंहः, अर्जुनो वृक्षविशेषः वकुलः प्रसिद्धः सिखंडी युद्ध में रोषाविष्ट होनेके कारण योद्धा कभी कार्य-अकार्यमयूरः । ३ भारतरण-भूमौ गुरु द्रोणाचार्यः तत्पुत्रः अश्व- का विक नहीं करता, रोषकी तीव गरिमास विवेक जोलुप्त हो त्थामा, कलिंगा कलिंगदेशाधिपतिः राजा एतेषां चारा श्रेष्टाः जाता है। इस तरह युद्ध भयंकर होता है और विद्याधर विंध्याटम्यां गुरुः महान्, श्रावन्यः पिप्पलः बामः पादः विद्याबलसे माया युद्ध करता है, कभी झंझावायु चलती है कलिंगवल्यचारः वृक्षविशेषाः । ४ भारतरणभूमौ गजर्जित- कभी प्रलय जल वरसता है, और रत्नशेखर विद्याधर राजा ससरबाणसमन्विताः महीसाः राजानः तैः साराः भवंति, मृगांकको अपना बन्दी बना लेता है, परन्तु जम्बूकुमार युद्ध विंध्याटव्यां तु गजगजिराः ससरा सरोवरसमन्यिताः महीससा- करत करते हुए मृगांकको बन्धनसे मुक्त कर लेता है, विद्याधरोंको स महिषा सारा यस्यां । ५ रावणसहिता पक्षे रयणवृत्त पराजित कर भगा देता है । इस तरह जम्बूकुमारकी वीरता सहिता ६ लंकानगरी चन्द्रनखा चारेण चेष्टाविशेषण कलह . और पराक्रमको देखकर अानदातिरेकस नारद नाचने लगताहै । कारिणीपक्षे चन्दनवृक्षविशेषः मनोज्ञलघुहस्तिभियुका। इतनेमें विद्याधर गगनगति प्रकट होता है और वह ७ पलासैः राक्षसै. युका सकांचन अक्षयकुमारो रावणपुत्र राजा मृगांकसे कुमारका परिचय कराता है । इस तरह इस तेन युक्रा, पक्षे पलापवृक्ष सकांचन मदनवृक्ष अक्ष विभीतकवृक्षा सन्धिमें वीररसके निर्देशानन्तर ही शृंगार रसका अवतरण ते तका यत्र । ८ लंकानगरी विभीषणेन कपीना बानराणां हो जाता है। अर्थात् राजा मृगांक कुमारको केरल नगरी कुलैः समन्विता, फलानि रसाख्यानि यत्र-नानाभयानकानां दिखाता है, नगरकी नारियाँ कुमारको देखकर विलासवतीके बानराणां संघातैः फलरसाच्या च। जीवनको धन्य मानती है, और कुमारका विलासवतीके साथ
SR No.538013
Book TitleAnekant 1955 Book 13 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size24 MB
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