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________________ किरण अपभ्रंश भाषाका जंबूसामिचरिउ और सहाकवि वीर [१५१ - विवाह भी हो जाता है। इस तरह श्वीश्वों संधियोंमें युद्धा- करना साधुनोंका कर्तव्य है। और सब साधुगण निश्चल दिका वर्णन किया गया है, जो कान्यकी दृष्टिसे प्रत्युत्तम है। वृत्ति हो वहां स्थिर होकर तपश्चर्या में उग्रत हो गए । रात्रि कविने ग्रन्थमें केवल जम्बूस्वामीका ही जीवन परिचय में वहाँ भयंकर उपसर्ग हुए-भयानक रूपधारी भूतपिशाचोंने नहीं दिया है किन्तु विद्य चर चोरका भी संक्षिप्त जीवन घोर उपसर्ग:किये, वेदनाएं पहुंचाई, उन साधुगोंने दंशमसपरिचय देते हुए उसका जम्बूस्वामीके साथ अपने पांचसौ कादिकी उन असहनीय वेदनाओंको सहते हुए चार प्रकारके साथियों सहित दीक्षा लेने द्वादश भावनाओं को भाने और सन्यास द्वारा निम्पृह रत्तिसे शरीर छोड़े। विद्यु रचर सर्वायथेष्ट मुनिधर्मका प्राचरण करते हुए तपश्चर्या करनेका थसिद्धि गये और अन्य साधुओंने भी अपने अपने परिणामाउल्लेख भी किया है और उसके फलसे उसे सर्वार्थसिद्धिको नुसार गति प्राप्त की। उस समय विद्यु च्चरने अनित्यादि प्राप्त करना बतलाया है । और तपश्चर्याक समयको एक बारह भावनाओंका चिन्तन किया, कविने उनका बहुत हीx खास घटनाका उल्लेख भी क्रिया है जो इस प्रकार है :- संक्षिप्त स्वरूप दिया है और बताया है कि गिरनदीके पूर और सुधर्मस्वामी निर्वाण और जम्बूस्वामीको केवलज्ञान पके हुए फलके समान यह मानव जीवन शीघ्र ही टूटने वाला तथा परिनिर्वाणके अनन्तर ग्यारह अंगधागे विद्य रचर ससंघ है। म जुलिजलके समान जीवन अनित्य है अल्मा अजर विहार करता हुआ ताम्रलिप्ति में पहुँचा और नगरके समीप अमर है, दर्शन-ज्ञान-चारित्र अपनी निधि हैं, उन्हींकी प्रगतिउद्यानमें ठहरा, सूर्यास्त हो चुका था, इतनेमें वहां कंकालधारी का उद्यम करना चाहिए | जिस तरह हरिणको सिंह मार कंचायण भद्रभारी नामक एक पिशाच पाया और उसने देता है उसी तरह जीवन कालके द्वारा कवलित हो जाता है । विद्यु चरसे कहा कि आजसे पांच दिन तक यहां मेरी यात्राका जितना जिसका श्रायुकर्म है वह उतने समयतक भोग भोगता महोसव होगा, उसमें भूत समूह आवेंगे और उपद्रव करेंगे और दुख उठाता रहता है, परन्तु संसारसे तरनेका उपाय अतः श्राप कहीं नगरमें अन्यत्र चले जाय, यहां यह कहना महीं करता, जिनशासन हो शरण है और वही जीवको उससे उचित नहीं है. विधु चरने अन्य साधुओंसे पूछा, साधुओंने पार कर सकता है। अतः हमें जिनशासनकी शरण लेकर कहा कि सूर्यास्तके ममय हम कहीं नहीं जासकते, उपसर्ग महन आत्मकल्याण करना चाहिए। इस तरह उनका विवेचन किया है वह सब लेख वृद्धिके भयस नहीं दिया जा रहा है। उप.इस घटनाका उल्लेख पांडे राजमल्लजीने मथुराम सर्गादिका वर्णन कविके निम्न उल्लेखसे स्पष्ट है:होना सूचित किया है। उन्हें इसका क्या श्राधार मिला था। घत्तायह कुछ ज्ञात नहीं होता, बुध हरिषेणने अपने कथा कोपमें अह सवणसंघ सजउ पवरु एयारसंगधर विज्जुचरु । वीरकविके समान इस घटनाके ताम्रलिप्तिमें घटित होनेका विहरंतु तवेण विराइउ पुरे तामलित्ति संपराइयउ ।।२४ उल्लेख किया है। (देखो० श्लोक ६६ से ७२)। नयराउनियडे रिसिसंघे थक्के, ब्रह्म नेमिदन्तके कहे अनुसार ताम्रलिप्ति नामका अथवणहो टुक्कए सूरे चक्के एक प्राचीन नगर गौडदशमें था। यह नगर बंगदेशके अह आय ताम कंकालधारि, व्यापारका मुख्य केन्द्र बना हुआ था। यह प्रसिद्ध बन्दरगाह कंचायणनामें भद्दमारि । था । यह जैनसंस्कृतिका महत्वपूर्णकेन्द्र रहा है। प्राचार्य आहासय सिविणय दिवस पश्च, हरिषेणने अपने कथाकोषमें इसका कई स्थलों पर उल्लेख महु जत्त हवेसई सप्पवंच। किया है। उससे भी यह जैनसस्कृतिका केन्द्रस्थल आवंतिय भूयावलि रउद्द, - जान पड़ता है विधु वर महामुनिने अपने पांचसौ साथियोंके उक्सग्गकरेसइ तुम्ह खुद्द । साथ इसी नगरके उद्यानमें भूत-पिशाचोंके भयानक दंशमश x अथविद्यु चरो नाम्ना पर्यटकह सन्मुनिः। कादि उपद्रवोंको सहकर उत्तमस्थानकी प्राप्ति की थी। यह एकादशांग विद्यायामधीती विदधत्तपः ॥१२५ नगर कब और कैसे विनष्ट हुआ, इसका इतिवृत्त प्रकाशमें अथान्येद्यः स निःसंगो मुनिपंचशतवृतः। लाना चाहिए । वर्तमानमें मेदिनीपुर जिलेका होतमुलक मथुरायां महोचानप्रदेशेवगमन्मुदा ॥१२॥ नामक स्थान ताम्रलिप्ति कहा जाता है। अम्बस्वामीवित
SR No.538013
Book TitleAnekant 1955 Book 13 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size24 MB
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