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अपभ्रंश भाषाका जंबूसामिचरिउ और महाकवि वीर
( परमानन्द जैन शास्त्री )
भारतीय साहित्य में जैन-वाङ्मय अपनी खास विशेषता रखता है। जैनियोंका साहित्य भारतको विभि भाषाओं में देखा जाता है । संस्कृत, प्राकृत, अर्धमागधी शौरसेनी, महाराष्ट्री, अपभ्रंश, तामिल, तेलगू, कनाड़ी, हिन्दी, मराठी, गुजराती, राजस्थानी और बंगला आदि विविध भाषाओं में ऐसी कोई प्राचीन भाषा अवशिष्ट नहीं है जिसमें जैनसाहित्यकी सृष्टि न की गई हो। इतना ही नहीं अपितु दर्शन, सिद्धान्त, व्याकरण, काव्य, कोप, वैद्यक, ज्योतिष, छन्द, अलंकार, पुराण, चरित तथा मंत्र तंत्रादि सभी विषयों पर विपुल जैन साहित्य उपलब्ध होता है । यद्यपि राजविप्लवादिकं कारण बहुतमा प्राचीन साहित्य विनष्ट हो गया है फिर भी जो कुछ प्रथमं दीमका
रह गया है उसकी महानता और विशालता स्पष्ट है । जैनियोंकि पुरा चरित एवं कबान्थोंका निर्माण अधिकतर अपभ्रंश भाषामें हुआ है। वहाँ अपभ्रंश भाषा ११वीं शादी एक चरित प्रन्थका उसके कर्तादिके साथ परिचय देना ही इस लेखका प्रमुख विषय है। इस भाषाका अभी तक कोई इतिहास नहीं लिखा गया, जिससे इस विषय में निश्चितरूपसे कुछ नहीं कहा जा सकता । पर यह कहनेसें संकोच भी नहीं होता कि इस भाषाका साहित्य विक्रमकी छडी शब्द १७वीं शताब्दी तक निर्मित होता रहा है। परन्तु जिस समय इस ग्रन्थकी रचना हुई है वह इम भाषाका मध्यान्हकाल था। मुझे इस भाषा अनेक प्रत्योकि देखनेका सुअवसर मिला है। उससे स्पष्ट फलित होता है कि उस कालमें और उसके पश्चाद्वर्ती समय में विविध प्रन्य
रचे गए हैं जिनका साहित्य-संसार में विशिष्ट स्थान है और साहित्यिक जगतमें उनके सम्मानित होनेका स्पष्ट संकेत भी मिलता है। भाषामें मधुरता सौष्ठवता, सरसता, अर्थगौरवठा और पलाहित्यकी कमी नहीं है। यही इसकी लोकप्रियता निर्देशक हैं।
प्रस्तुत ग्रन्थका नाम 'जंबूसामीचरिड' जम्बूस्वामी चारित है। इसमें जैनियोंकि अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीरके बाद होने वाले अन्तिम केवल स्वामीचे जीवनचरित tear चित्रण किया गया है। यह ग्रन्थ उपलब्ध साहित्य में अपभ्रंश भाषाका सबसे प्राचीन चरितग्रन्थ है। अब तक इससे पुरातन कोई चरित ग्रन्थ, जिसका स्वतन्त्ररूपमें
निर्माण हुआ हो, देखनेमें नहीं आया। हां, आचार्य 'बुणभद्र और महाकवि पुष्पदन्तके उत्तरपुरायामें जंबुस्वामी के चरित्रपर संक्षिप्त प्रकाश डाला गया है। श्वेताम्बरीय सम्प्रदाय में भी जंतूस्वामीके जीवनपरिचायक ग्रन्थ लिखे गए हैं। जैन 'प्रथापली' से मालूम होता है कि उन सम्प्रदाय में 'जम्पयचा' मामका एक ग्रन्थ है जो डेक्कन कालेज पूनाके भण्डारमें विद्यमान है । आचार्य हेमचन्द्रने अपने परिशिष्ट पर्य जंबूस्वामीके चरितका संचित चित्रण किया है और १२वीं शताब्दी के विद्वान् जयशेखसूरिने ७२६ पथोंमें अंधूस्वामीके चरित्रका निर्माण किया है, इसके सिवाय पद्मसुन्दर आदि विद्वानोंने भी उसपर प्रकाश डाला है इनमें 'जंबूपयक्षा' का काल अनिश्चित है और वह ग्रन्थ अभी तक भी प्रकाशमें नहीं आया है। इसके सिवाय, शेष सब ग्रन्थ प्रस्तुत - स्वामी चरित अर्वाचीन है-बादकी रचनाएं हैं। उभय सम्प्रदायके इन चरितग्रन्थोंमें वर्णित कथामें परस्पर कुछ मेद जरूर पाया जाता है जिसपर यहां प्रकाश डालना उचित नहीं है।
ग्रन्थका विशेष परिचय
इस ग्रन्थका दूसरा नाम 'श्रगारवीर महाकाव्य' भी है। कविने स्वयं ग्रन्थकी प्रत्येक सन्धि-पुष्पिकाओंमें उतनाम व्यक्त किया है । और साथ ही इस काव्यको 'महाकाव्य' भी सूचित किया है जो उसके अध्ययनसे सहज ही परिक्षित होता है । ग्रन्थमें ११ संधियों अथवा अध्याय हैं जिनमें उक्त चरितका निर्देश किया गया है। इस चरितन्यके चित्रामें कविने महाकाव्यों में विहित रस, छल्कारोंका वह सरस वर्णन करके ग्रन्थको अत्यन्त आकर्षक और पठनीय बना दिया है। कथाके पात्र भी उत्तम हैं जिनके जीवनपरिचयसे ग्रन्थकी उपयोगिताको अभिवृद्धि हुई है। श्रृंगार, वीररम और शान्तरसका यत्र-तत्र विवेचन दिया हुआ है, प्रयोग भी दो प्रकारका पाया जाता है एक चमत्कारिक दूसरा कहीं-कहीं 'गारमूलक वीर रस है। प्रथमें स्वाभाविक प्रथमका उद्धरण निम्न प्रकार है :
ड्य जंबू सामिचरिए सिंगारवीरे महाकवे महाकह देवयत्तस्य 'वीर' विरइए सामि उत्पत्ती कुमार- विजय नाम चडत्यो संधी समतो 1