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________________ किरण ११ रत्नराशि [२५ टकरा कर अशेष कानन-प्रान्तको प्रतिध्वनित कर रही लिए तुम असूि बहा रहे हो; और अन्तरका जो लुट रहा थी मृग शावक घबरायेसे चौकड़ी भरते हए किसी ज्ञात है उसकी ओर देखने भी नहीं ? राही! चेतो, पापत्तिने दिशाको ओर बड़े जा रहे थे। अभी एक म्थल पर तुम्हे दृष्टि दी है, देखने के लिए, शक्ति दी है, सोचमेके मामान उतारा ही था कि कुछ लोग उनकी ओर प्राते लिए । काम-क्रोध, मान और मोहके डाकू आरमाको भनाहुए दिखाई दिय । देखते ही देखते सारा वातावरण परि- दिसे लूट रहे हैं, संसारकी भटवीमें । विषादकी जगह वत्तित होने लगा। ये थे भीमाकार जङ्गली ठाकु, जिन्होंने विवेककी ज्वाला जलाओ, अपनी प्रास्मामें । बाह्य में सोमशर्मा और उनके अनुयायी वर्गको चारों ओरम घेर शांति कब तक खोजोगे। शांति बाह्यकी नहीं अन्तरकी लिया। डाकुओंके सरदारने गरजते हुए कहा-"देखते वस्तु । क्या हो, जो कुछ हो रख दो, इसी ममय । नहीं तो तुम्हरी श्रमणकी वाणीने दुग्वी मानवके हृदय पर सीधा जिन्दगी संकट में है।" असर किया। वह देखते ही देखते मुनिके चरणों पर इस प्रापचिक समय व्यक्तिका मानसिक सन्तुलन स्थायी प्रकार लोटने लगा, मानों युग-युगोंकी अनन्त पीडासे कराह उठा की । अनादिसे बन्द हुए भाग्माके कपाट नहीं रह पाता, सोमशमनि समस्त धन एक-एक करके खुलने नगे और शनैःशनै: मोह टूक-टूक होकर गिरने सरदारके सामने रख दिया। जिस मार्गसे वे आये थे लगा। हवाम बाते करने चल दिये, उसी मार्गमे । - सोमशर्मा बोले-'मुनिराज ! अब संसार नहीं दनियाँकी हर चीज परिस्थितिके अनुसार बदलती ह चाहिए ममे । अब जम्म' मरणकी परम्परा नहीं जो कोमल हाथ कभी प्रेमका सन्देश देते हैं वही समय सही जाती। पाकर हलाहलका संकेत भी करते हैं। जी इठलाती मुनिराजन घबराये हुए संसारी पर वरद-हस्त रम्ब दिया कभी संगीत-स्वर मुखरित करतो हैं; वही कभी दिया। मानां संमारको यातनाश्रीकी श्रीरमं उमं अभयदान अपनी और तो ही दिखाई देती हैं। आज प्रकृति सूनी- ही मिल गया हो। उधर सूर्यदेव अस्ताचलकी भार बढ़ सूनी हो चला है और प्रकृतिको गांदमें पड़ा हुआ सोमशर्मा जा रहे थे और इधर सामशर्मा जैनेश्वरी दीक्षा लकर श्रापत्तिके भारसे धराशायी हो चला है। सुखको जालमान अपनी मात्माका परिकार कर रहा था। मुम्ब-दुखका इंस लिया है उसे । । विकल्प हटने लगा। बाह्य बाधाओसे प्रारमाका क्या ___ व्यक्तिकी लालसाय मृगतृष्णाकी भाँति कितनी अर्थ, बिगहा है, प्रश्न ता है अन्तरके परिष्कारका ? यही मबकर हीन है? वह दौड़ता है श्राशानाके पीछ, पर कुछ पाना रहा है वह, पास्माके उत्कर्षक लिये। नहीं । वह थक जाता है और बैठ जाता है विनामक प्रशान्तारमा मुनिराज सामशर्मा वर्षों तक देशान्तर लिए । फिर दौड़ता है, फिर धक जाता है। इमी भांति में विहार करते रहे। पारमा संमारकी विषमनायोस बहुत ज्वार उठत्ता रहना है, घाशाांका । यही जीवन है मानव ऊँची उठ गई थी। एक दिन जब वसन्तको मीठी-मीठी का, यही मृत्यु है मानव की। हवायें फूलोका पराग चुराकर चुपके चुपके दौदी जा रही दखी आत्मा एकान्तको अधिक प्रेम करती हैं । संसार- धीं, वे विहार करते हुए देवकोटपुरमें आ पहुँचे । मुनिराज का क्रन्दन उन्हें उबा देता है। उसे एकान्त प्रिय हो चना का प्रागमन सुनकर विशाल जनसमुदाय दर्शनोंक लिए था। किन्तु सिर उठा कर देखा तो विषादमें श्राशाकी एक उमड पदा। विष्णुशर्मा भी श्रमगाका ग्राम्मिक सौन्दर्य ज्योति दिखाई दी। सामने ही महामुनि भद्रवाटु खड़े- दग्बने लगा। वास्तव में आरिमकमौन्दर्य व ज्योति जो खड़े उसे आश्वासन दे रहे थे। सोमशा श्रद्धासे रद्गद् प्रारमा फरनम फुटकर बाहरी शरीरको प्रकाशमान का हो उठा। देता है । वह भी मुनिके प्रभावसे न बच सका। किन्तु मुनि कह रहे थे 'राहो ! मैं सब देख रहा था अपनी जब उसने देखा कि मुनिराज कोई और नहीं, उपका चिर भाँखोंसे । धनकी दासताने मानवको लूटनेकी प्रेरणा दी है नयी सोमशर्मा है, जिसे वह दीर्घकालसे दढरहा था, और उसीने तुम्हें प्रासुमोका उपहार भी दिया है। बाझके श्रद्धा क्षत-विक्षत होने लगी!
SR No.538013
Book TitleAnekant 1955 Book 13 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size24 MB
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