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रत्नराशि
अनी दिनकरकी स्वर्णिम रश्मियों धरती पर उतर भी न पायी थीं कि सामशर्माका प्राङ्गण वेद-मन्त्रों गूंज उठा सोमशर्मा देवविमानोंमे भी स्पर्द्धा करने वाले देवकोटपुरका महापवित है वह पेड़ोंका पारगामी और यिका उद्भट पर मोमिला जैसी कुलीन और परित्रवान पत्नी हे अग्निभूत और वायुभूत जेमे सुन्दर पुत्र है। सांसारिक जीवन सम्पर गति से चल रहा है । न अधिक पाने की चाह है और न कम पानेका असन्तोष
मन्त्रोंके रस प्रवाह में समागत जन गद्गद् हो उठे । शनैःशनै स्वाध्याय समाप्त होने लगा नागरिक आशिष ले ले कर जाने लगे । लोमशर्मा चासनसे उठा और भांजनभवनमें प्रवेश किया। उसने देखा मोमिलाको आकृति पर विपादकी रेखायें गहरी हो गई है। भोजन घालमे परोस रही हूँ, पर मानो वह एक यन्त्र हूँ जो बस चल रहा है ।
सामशर्मा] बोले- 'देवि! मेरे रहते आकृति पर पार कैसा ? जीवन में जहना क्या छाती जा रही है पल-पल में "
( श्री मनु ज्ञानार्थी साहित्यरत्न )
की अवहेलना कर सके। नारीका आत्मिक सौन्दर्य नारी और पुरुषक बीचमें एक माध्यम है जो एक क्षणमे ही पूर्णता पर पहुँच जाता है। यह एक क्षणका मिलाप बहुत उच्च और ष्ठ है । इमीको हम प्रेम कहते हैं ।
नारीकी श्रम्मीयता पर पुरुष पानी पानी हो चला । सोमशर्मा बीले 'देवि चिन्ता की अश्व ज्वालाओ भस्म न करो, अपने आपको नारीका परित्र और महापुरुषकी शान्ति और समृद्दिका व्यापक मार्ग खोल देती हैं। मारी प्रेम बड़े बड़े साम्राज्यको बदला है । घरको स्थिति भी बदल जायगी। देखो, श्राज ही देशान्तर जानेका प्रबन्ध करूंगा।
दिन ढल चला था। सूर्यदेव अस्ताचल की ओर तीव्रगति बढ़ रहे थे। सामशर्मा अपने चिरपरिचित मा विष्णुशर्मा के पास पहुंचे। विष्णुशर्माने मिश्रका अभिवादन करते हुए उचित स्थान दिया। कुछ के बाद मौन भंग करते हुए विष्णुशर्मा बोले मित्र ! मेरे योग्य कोई कार्य हो तो बनाइये ?"
सामशर्मा श्रन्यमनस्क होते हुए यांच- 'विष्णु । देशान्तरमे जानेका विचार कर रहा हूँ । घरकी स्थिति अब अम्मा हो चली है । भयानक जीव-जन्तुनों घिरे हुए बनामें रहना बन्द है, पर
होकर रहना बहा नहीं हैं। भारय परीक्षा के लिए जाना चाहता है कल प्रातःकाल ही । "
मोमिला पतिको कठिनाइयोंसे परिचित हूँ । अभाव में भी उसने मुस्कराना सीखा है । पतिकी मानसिक शक्तिके लिए वह स्वयंको कुछ नही चाहती । जानती है, श्रादमीका जीवन परिवारके लिए ही तो होता है। दुनियाँके पोके बाद आदमी चाहता है उसका कोई अपना हो, जिससे सके उसे शान्ति, सहानुभूति, और अपनत्व यही सब देने का यत्न किया है उसने अपने स्वामीकी पर आज गृहकी स्थिति गम्भीर है। दीर्घकाल से भोजन मामग्रीको व्यवस्था मो यहां चली है। तब अन्तरका विषाद प्रकृति पर उभर ही तो थाया। मोमिला सकुचाती बोली देव ! आप विद्वान है, सरस्वती पुत्र है क्या मेरे संतोष के लिए यही काफी नहीं कि आप मेरे साथी है ? आपसे क्या छुपा है जिसे छुपाने का यत्न करू ! साके लिए जीवनकी डोर सौंप दी है आपके हाथ में। पर, घरकी स्थिति सुधारिये देव !"
विष्णुशर्मा बोले - "मित्र ! मेरे रहते ऐसा निराशाकी श्रावश्यकता नहीं । धन और वैभव ऐसे ही समयके लिए तो होते हैं। यदि ऐसे समय में अपने सबके तनिक भी काम अा सका तो यह मेरे लिए सीमाम्पकी बात होगी तो बी, संकोचकी बात नहीं । जितना धन चाहो ले जाश्रो । व्यापार करके धन और यश प्राप्त करो। "
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सोमशर्माने प्रभात होते ही नगरसे प्रस्थान कर दिया । सूर्यकी किरणें धीरे-धीरे प्रखर होती जा रही थीं । मध्याह्नका समय घ पहुँचा I सोमशर्मा और उसके अनुचर एक
भयानक अटवीमे श्रा
ऐसा कौनसा पुरुष को नारीको निर अहमीयता पहुंचे थे। हिंस-जन्तुओं की भयानक गर्जना पने