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किरण १.]
दीवान रामचन्द्र छावड़ा
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राज्य-सेवा
के कुशल समाचार पूछे । दीवानजीने जयपुराधिपके समाचार सम्राट् औरंगजेबकी मृत्युके पश्गत् उनके लड़कोंमें बतलाये और कहा-'माताजा म तुमस कुछ मदद चा राज्यसिंहासनके लिये युद्ध छिड़ गया। सवाई जयसिंहजीने
बनजारने कहा-'दीवाननी! मैं किस योग्य है जो बहादुरशाहका पक्ष न लेकर शाह आजमका साथ दिया। बापकी मदद कर सकू', फिर भी आप जो फर्मायें और मैं किन्तु युद्धमें बहादुरशाह विजयी हुआ। बहादुरशाहने सं० अपनी सामर्थ्यानुसार जिसे पूरा करने में समर्थ हो सक' वह १७६४ में भामेर पर आक्रमण कर कब्जा कर लिया। सब करनेको तैयार हूँ।' अतः जयसिंहजीको अपना राज्य छोड़ना पड़ा और संयद दीवानजी ने कहा-'हमें भामेरका राज्य वापिस लेना हशैनखांको भामेरका प्रबन्ध सौंपा गया ।
है, इसलिये तुम हमें पचास हजार रुपये, एक हजार बैल, ठीक इसी तरहकी घटना जोधपुर पर भी घटी। जोधपुर और एक हजार प्रादमियोंकी मदद दो। हम राज्य प्राप्त पर बादशाहने खालसा बिठला दिया-अपना कब्जा कर करनेके बाद तुम्हारे रुपये और युद्धसे बचे हुए बैल और लिया । जयपुर-जोधपुरके दोनों राजा बादशाह के साथ प्रादमी सभी वापिस कर देंगे तथा राज्यमें तुम्हारा कर भी दक्षिणकी रेवा (नर्मदा) नदी तक गए और तहांसे बादशाहका माफ कर देगे।' पीछा छोड़कर संवत् १७६५ में जेठवदी के दिन दोनों उदयपुर बनजारेने दीवानजीके निर्देशानुसार तीनों चीजें मदद पहुंचे। यद्यपि उस समय आमेर और उदयपुरमें वैमनस्य स्वरूप प्रदान करदी। फिर दीवानजी पास-पासके जागीरचल रहा था, पर जब भामेरपति स्वयं हो राणाजीके घर दारोंसे मिले और उन्हें भामेर प्राप्त करनेका सब हाल कहा पहुंच गए, तब राणाजीने प्राचीन बैरकी ओर ध्यान न देकर एवं उनसे सहयोग करनेका संकेत भी किया, परिणामस्वरूप जयसिंहजीका उचित सम्मान किया और उन्हें 'सर्वऋतु- उनसे भी तीनसौ के लगभग राजपूत वीरोंकी सहायता विलास' नामक भवनमें ठहराया गया। दीवान रामचन्द्रजी प्राप्त हुई । यह सब पा चुकनेके बाद वे उसकी तैयारीने भी उनके साथ थे।
संलग्न थे और भामेरपर कब्जा करनेके लिये वे किसी खाम एक दिन उदयपुरके दरबारमें किसी सरदारने कुछ ऐसी
उपयुक अवसरको बाट जोह रहे थे। बातें कहीं जो जयपुर और जोधपुरके लिये अपमानजनक
एक समय जब कृष्णारानि अपने तिमिर-वितानसे थीं। उन्हें सुनकर रामचन्द्रजीसे न रहा गया। वे सब बातें
भूमण्डलको व्याप्त कर रही थी । दीवानजीने धूमधामसे भामेर उनके हृदय-पट पर अंकित हो गई और वे उन्हें बाणकी पर चढ़ाई कर दी। बलाक मागा पर मशाल बांधकर जला तरह चुभने लगी। वे विषका-सा घूट चुपचाप पी कर अपने
दी गई और प्रत्येक बैलकी पाठ पर मनुष्याकार पुतले बैठा ढेरेपर पाए, तब उन्होंने भामेरपतिसे प्रार्थनाकी कि-'मुझे
दिये गये, वे देखने में दूरसे मनुष्य ही मालूम होते थे, दो-दो प्रादश दीजिये, मैं भामेर जाऊँगा। महाराज जयसिहजी
बैल एक ही साथ जोड़ दिये गए, जिससे वे सब एक साथ ने जब कारण पूछा, तब उन्होंने दरबारमें उस सरदार द्वारा
कतारमें चल सकें और प्रत्येक दो बैलोंके साथ एक-एक कही हुई दे सब बातें कहीं। तब जयपुराधिप बोले-'अभी भादमी था, जिसके एक हाथमें तेलसे भरी हुई सीदवी और हम विपदग्रस्त हैं अतः हमें चुप होकर सब कुछ सहना ही
रस्सी तथा दूसरे हाथमें चमकती हुई तलवार थी। सौ के पड़ेगा। रामचन्द्रजीने कहा-'मैं जाता हूँ और आमेरके
लगभग सिपाही युद्धका बाजा बजाते हुए भागे-भागे जा रहे उद्धारका यत्न करूंगा।' जयसिंहजीने कहा-'जैसी तुम्हारी
थे और उनके पीछे चारसौ सरास्त्र सैनिक पैदल चल रहे
थे। बैलोंके सींगों पर बंधी हुई दो सहन मशालें भामेरेके मर्जी।'
भूभाग पर अपनी प्रकाश-किरणे बखेर रही थीं। और आमेरका उद्धार-कार्य
सैनिकगण महाराजा जयसिंहको जयके नारे लगाते हुए दीवान रामचन्द्रजी उदयपुरसे रवाना हुए। आमेरके भागे बढ़े जा रहे थे। जब सेना भामेरके किले के कुछ नजपाससे माते हुए रास्तेमें उनकी मोती नामक एक लक्खी दीक धानेको हुई। तब मामेरके किले में जो मुस्लिम सैना बनजारेसे भेंट हो गई । बनजारा दीवनजीसे परिचित था, विद्यमान थी, उसके सैनिक लोगोंने जब दूरसे मशालोंसे उसने दीवानीका खूब पावर सस्कार किया और पामेरपति भालोकित सैन्य-समूह देखा और मशालोंके मध्य में और