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________________ दीवान रामचन्द्र छावड़ा (परमानन्द शास्त्री) कौटुम्बिक-परिचय होनेके लिये भादेश दे दिया। बरातमें बरातियों की संख्या राजपूताना अपनी वीरताके लिये प्रसिद्ध है। राजपूत दखकर रामचन्द्रजाक ससुर साहब घबड़ा गए । परन्तु उस वीरों और वीराङ्गनामोंकी वीरता और स्वदेश रक्षाके लिये समय उनकी सासुने शाहपुराके नरेशको कहलवाया कि धनकी अपनी प्रानपर प्राणोंका उत्सर्ग करने वाली गौरव-गाथासे कमी तो नहीं है परन्तु यदि व्यवस्थामें कमी किसी तरहकी भारत गौरवान्वित है। वे अपनी बातके धनी थे. आनके रह गई तो आपकी बदनामी होगी। अतः भाप इस कार्य में पक्के ये जो किसीसे कह देते थे उसे पूर्ण करना अपना सहयोग प्रदान कीजिये। लेकिन शाहपुरा नरेशकी सहायतासे कर प्य समझते थे। वैसे तो राजपूतानेमें अनेक जैन वीर प्रबन्ध पूरा हो गया। जब बरात विदा होने लगी तब हुए हैं, जिनकी कर्तव्य-निष्ठा, वीरता, त्याग और सहृदयता विमलदासजीने अपने सम्बन्धीसे कहा-"यह अधिक अच्छा स्पृहाकी वस्तु हैं। पर राजस्थानका जयपुर तो जैनवीरोंकी होता कि हम लोगोंने इस विवाहमें जितना अधिक धन व्यय खान रहा है-वहाँ अनेक जैन वीर अपनी वीरता, कला किया है यदि वह धर्म-कार्यमें खर्च किया जाता " प्रस्तु, कौशल्य, ईमानदारी, कर्तव्य परायणता, स्वामिभक्ति और राज्यके संरक्षण तथा संवर्द्धनमें ही सहायक नहीं हुए हैं दीवान रामचन्द्रजी एक वीर सैनानी होते हुए भी परम किन्तु उन्होंने शाही अधिकारसे भामेर और जोधपुरको धार्मिक सद्गृस्थ थे। वे श्रावकोचित षट्कर्मका पालन भलीछुड़ाकर संरक्षित भी किया है। उनका नाम है दीवान राम- भांति करते थे । रामगढ़ आमेरसे जगभग १५ मील दूर था । चन्द्र छाबड़ा। उस समय यातायातकी व्यवस्था आजकल जैसी न थी, इनकी जाति खंडेलवाल, गोत्र छावड़ा और धर्म ऊंट और घोड़ेकी सवारी पर हो इधर-उधर भाना-जाना दिगम्बर जैन था। यह रामगढ़के निवासी थे, इनके पिताका होता था। दीवानजीका भामेरसे रामगढ़ बराबर पानानाम विमलदासजी और दादा वल्लूशाहजी थे, जो जयपुरके जाना रहता था। भामेर और रामगढ़के मध्यमें उन्हें जैनमिर्जा राजा जयसिंहजी के समय हुए हैं जिनका राज्यकाल मन्दिरका अभाव खटकता था, अतः आपने सं० १७४७ में संवत् १६७८ से १७२४ तक पाया जाता है। एक जिन मंदिर साहावाड नामक ग्राममें बनवा दिया। विमलदासजी स्वयं एक वीर योद्धा, राजनीतिमें विचक्षण, वहांके मन्दिरपर उक्त संवत्का एक लेख भी उत्कीर्णित है कर्मठ कार्यकर्ता एवं राजभक्त थे। इन्होंने राजा रामसिंहजी परन्तु वह इतना खराब हो गया है कि ठीक रूपसे पढ़ने में और विशनसिंहजीके समयमें, जिनका राज्यकाल सं० १७२४ नहीं आता। से १७४६ और १७४६ से १७५६ तक बतलाया जाता है। सवाई जयसिंहजीने सैयदोंसे जब विजय प्राप्त कर ली, दीवान जैसे उच्च एवं प्रतिष्ठितपद पर आसीन होकर राज्य- तब मुगल बादशाहकी ओरसे उन्हें उज्जनका सूवा प्रदान कार्यका संचालन किया है। कहा जाता है कि लालसोट किया गया। उस समय दीवान रामचन्द्र जी भी जयपुरानामक स्थानमें युद्ध में गोला लग जानेसे भापकी मृत्यु धिपके साथ उज्जैनमें मौजूद थे। तब दीवानजीने उज्जैनमें हुई थी। भी एक निशि या निषधा बनवाई थी और जब दीवानजी रामचन्द्रजी छावड़ाका विवाह शाहपुरा (मेवाड़) के सेठ का जयसिंहजीके साथ दिल्लीके जयसिंह पुरा नामक स्थानमें सरूपचन्दजीकी कन्यासे हुआ था, स्वरूपचन्द्रजीने जब रहना हुआ, तब आपने वहां भी एक जैन मन्दिर और रहनेके टीका भेजा उसके साथ ही एक राई की थैली भी भेजी और लिये एक मकान बनवाया। राज्यकार्यसे अवकाश मिलनेपर यह कहलाया कि अगर तुम दीवान हो तो थैलीमें जितने आप अपना समय धार्मिक कार्यों में व्यतीत करते थे और राईके दाने मौजूद हों उतने बराती लाना । जब दीवान संवत् १७७० में होने वाले भट्टारक देवेन्द्रकीर्तिके पहाभिषेकविमलदासजीको बह हाल मालूम हुआ तब उन्होंने सवाई में भी आपने अपने पुत्र के साथ भाग लिया था। इन सब जयसिंहजीसे सब हाल कह सुनाया, तब भामेरपतिने अपने कार्योंसे आपके धर्म-प्रेमका कितना ही परिचय प्रास हो सब सरदारों, सामन्तों और रईसोंको इस विवाहमें सम्मिलित जाता है। स्वरूपचन्द्रजीत यह कहनासाथ ही एक
SR No.538013
Book TitleAnekant 1955 Book 13 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size24 MB
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