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________________ श्रमण संस्कृतिमें नारी (परमानन्द शास्त्री) श्रमण संस्कृतिमें नारीका स्थान ले। उस समय वैदिक संस्कृतिका बोलबाला था । उसके श्रमण संस्कृति में भारतीय नारीका प्रात्म-गौरव लोकमें खिलाफ प्रवृत्ति करना साधारण कार्य नहीं था। इससे स्पष्ट आज भी उद्दीपित है, वह अपने धर्म और कर्तव्यनिष्ठाके है कि उस समय वैदिक संस्कृतिके प्राबल्यके कारण बुद्ध भी लिये जीती है। नारीका भविष्य उज्वल है, वह नरकी जननी स्त्रियोंको अपने संघमें दीक्षित करने में संकोच करते थे। है और मातृत्वके प्रादर्श गौरवको प्राप्त है। वैदिक परम्परामें परन्तु महावीरने उसे कार्यरूपमें परिणतकर भारीका समुद्धार नारीका जीवन कुछ गौरवपूर्ण नहीं रहा और न उसे धर्म ही नहीं किया, प्रत्युत एक आदर्श मार्गको भी जन्म दिया। साधना द्वारा प्रामविकास करनेका कोई साधन प्रथया . पश्चात् अानन्दकी प्रेरणा स्वरूप बुद्धने भी स्त्रियोंको अधिकार ही दिया गया, वह तो केवल भोगोपभोगकी वस्तु दीक्षित करना शुरु कर दिया। ऊपरके उल्लेखसे स्पष्ट है कि एवं पुत्र जननेकी मशीनमात्र रह गई थी। उसका मनोबल श्रमणसंस्कृति में प्रांशिक रूपसे नारीका प्रभुत्व बराबर और श्रात्मबल पराधीनताको बेड़ीमें जकड़ा हुआ होनेके कायम रहा। फिर भी नारीने उम काल में भी अपने आदर्श कारण कुठित हो गया था। वह भबला एवं असहाय जैसे जीवनको महत्ताको मष्ट नहीं होने दिया, किन्तु अपनी शब्दों द्वारा उल्लेखित की जाती थी और पुरुषों द्वारा पद- धानको बराबर कायम रखते हुए उसे और भी समुज्वल पद पर अपमानित की जाती थी। उस समय जनता-“यत्र बनानका यत्न किया । नार्यस्तु पूज्यंते रमते तत्र देवताः" की नीतिको भूल चुकी थी। सीताका आदर्श वेद मंत्रका पाठ अथवा उच्चारण करना भी उन्हें गुनाह एवं जिस तरह पुरुषोंमें सेठ सुदर्शनने ब्रह्मचर्यव्रतके अनुष्ठान अपराध माना जाता था । जाति बन्धम और रीति-रिवाज भी द्वारा उसकी महत्ताको गौरवान्वित किया: ठीक उसी तरह उनके उत्थानमें कोई सहायक नहीं थे, बल्कि वे उन्हें और एक अकेली भारतीय सीनाने अपने सतीत्व-संरक्षणका जो भी पतित करनेमें सहायक हो जाते थे । वैदिक संस्कृतिकी कठोरतम परिचय दिया उमसे उसने केवल स्त्री-जातिके इस मंकीर्ण मनोवृत्तिवाली धाराके प्रवाहका परिणाम उस कलंकको ही नहीं धोया ; प्रत्युत भारतीय नारीके अवनत समयकी श्रमण संस्कृति और उनके धर्मानुयायियों पर भी मस्तकको सदाके लिए उन्नत बना दिया। जब रामचंद्रने पड़ा। फलतः उस धर्मके अनुयायियोंने भी पुराणादिग्रंथों में मीतासे अग्निकुण्डमें प्रवेश करने की कठोर प्राज्ञा द्वारा नारीकी निंदा की, उसे 'विपबेल', 'नरक पद्धति' तथा मोक्ष अपने सतीत्वका परिचय देनेके लिये कहा, तब सीताने समस्त मार्गमें बाधक बतलाया। फिर भी श्रमण-संस्कृतिमें नारीक जन समूहके समक्ष यह प्रतिज्ञा की, कि यदि मैंने मनसे, धर्म-साधनका-धर्मक अनुष्ठान द्वारा प्रात्म-साधनाका कोई वचनसे, कायसे रघुको छोड़कर स्वप्नमें भी किसी अन्य अधिकार नहीं छीना गया, वे उपचार महावतादिके अनुष्ठान पुरुषका चिंतन किया हो तो मेरा यह शरीर अग्निमें भस्म द्वारा 'आर्यिका' जैसे महत्तरपदका पालन करती हुई अपने नारी जीवनको सफल बनाती रही हैं। हो जाय, अन्यथा नहीं, इतना कहकर सीता उस अग्निकुण्डकी भीषण ज्वालामें कूद पड़ी और सती साध्वी होनेके कारण तुलनात्मक अध्ययन वह उसमें खरी निकली। वैदिक संस्कृतिकी तरह बौद्ध परम्परामें भी स्त्रीका कोई धार्मिक स्थान नहीं था। आज से कोई ढाई हजार वर्ष -सर्वप्राणिहिताऽऽचार्य चरणौ च मनस्थिती। पहले जैनियोंके अंतिम तीर्थकर भगवान महावीरके संघमें प्रणम्योदारगंभीरा विनीता जानकी जगौ ॥ लाग्दों स्त्रियोंको दीक्षित देखकर और उसके द्वारा श्राविका, कर्मणा मनसा वाचा, रामं मुक्त्वा परं नरं । चुल्लिका और आर्यिकाके व्रतोंके अनुष्ठान द्वारा होने वाली समुहहामि न स्वप्नेप्यन्यं सस्यमिदं मम ॥ धार्मिक उदारताको देखकर, गौतमबुद्धके शिष्य श्रानन्द सेन पद्य तदनृतं वच्मि तदा मामेष पावकः । रहा गया, उसने बुद्धसे कहा कि आप अपने संघमें स्त्रियोंको भस्मसाभावमप्राप्तामपि प्रापयतु क्षणात् ॥ दीक्षित क्यों नहीं करते, तब बुद्धने कहा कि कौन झगड़ा मोल -पाचरित्र १०५, २४-२६
SR No.538013
Book TitleAnekant 1955 Book 13 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size24 MB
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