________________
क्या असंज्ञी जीवोंके मनका सद्भाव मानना आवश्यक है ?
(पं० वंशीधर व्याकरणाचार्य) श्री डा. हीरालाल जैन एम. ए. नागपुरने अम्बिल मालूम होना है। अतः मेरे सामने अाज भी यह प्रश्न खड़ा भारतीय प्राच्य सम्मेलनके १६वें अधिवेशनके समय प्राकृत हुआ है कि मनके अभाव में असंझी जीवोंके श्रुतज्ञानकी
और जैनधर्म विभागमें जो निबन्ध पढा था उसम्म हिन्दी मगति किम तरह बिठलाई जावे ? अनुवाद 'संजी जीवोंकी परंपग' शीर्षकसे अनेकान्त पत्रके श्वे. पागम ग्रंथ विशेष प्रावश्यक भाप्यका वह प्रकरण, वर्ष १३ की संयुक्त किरण ४.५ और ७ में प्रकाशित हुआ है। जिसका रडग्ण माननीय डा. माहबने अपने निबन्धमें
डा. साहबके निबन्धका मारांश यह है कि अमज्ञी लिया है और जिसमें केन्द्रिय आदि समस्त प्रमंशी जीवोंके माने जाने वाले एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, वीन्द्रिय, चतुरिन्द्रय भी तरतम भावसे मनकी सत्ताको स्वीकार किया गया है,
और पंचेन्द्रिय तिथंचोंके जब मति और श्रुत दोनों ज्ञानोंका __ करीब २० वर्ष पहले मेरे भी देखने में पाया था लेकिन उससे मद्भाव जैन श्रागममें स्वीकार किया गया है तो निश्चित ही भी मेरे उक्त प्रश्नका उचित समाधान नहीं होता है। क्योंकि उन सभी जीवोंके मनका सद्भाव सिद्ध होता है कारण कि अमजी जीवोंके मनके प्रभावमें लब्धिरूप श्रुतज्ञानकी सत्तामति और श्रत ये दोनों ही ज्ञान मनकी सहायताके बिना को स्वीकार करने और उनके ईषत्-मनका सद्भाव स्वीकार कि.गे भी जीवके सम्भव नहीं हैं।
करके उपयोगरूप श्रुनजानकी सत्ता स्वीकार करने में असंभी नककी प्रचलिन दि० पागम परंपरा यह है कि तोषप्रद स्थितिका विशेष अन्तर नहीं है। निन जीदोंके मनका सद्भाव पाया जाता है वे जीव मंज्ञी चूंकि डा. माहबने उक्र विषयमें अपने विचार लिपि
और जिन जीवोंके मनका सद्भाव नहीं पाया जाता है वे बद्ध किये हैं अतः इस विषय पर मेरे अब तकके चिंतनका जीव अमंझी कह जाते हैं परन्तु माननीय डा. साहबने जो निष्कर्ष है उसे मैं भी विद्वानोंके समक्ष उपस्थित कर देना मंशी जीवोंके साथ असंज्ञो जीवोंका अन्तर दिग्वलानेके लिये उचित समझता हूँ। अमनम्क शब्दका मनरहित अर्थ न करके 'ईषत् मन वाला' जानकी उत्पत्ति दो प्रकारसे सम्भव है-स्वापेक्ष और अर्थ किया है।
परापेक्ष । अवधि, मनःपर्यय और केवल इन तीनोंकी माननीय डा. साहबने अपने उक्त विचारोंकी पुष्टि उत्पत्ति स्वापेक्ष मानी गई है तथा मति और श्रुत इन दोनों आगमके कतिपय उद्धरणों और युक्रियों द्वारा की है। ज्ञानोंकी उत्पत्ति परापेक्ष मानी गई है। यहाँ पर शब्दसे
इन्द्रियजन्य सभी प्रकारके मतिज्ञानमें मनकी सहायता मुख्यतया स्पर्शन, ग्सना, नासिका, नेत्र और कणं ये पांच अनिवार्य है-यह विचार न तो आज तक मेरे मनमें उठा द्रव्य-इन्द्रियां और द्रव्यमन ग्रहीत होते हैं। और न अब भी मैं इस बातको माननेके लिये तैयार हैं परंतु मनिज्ञानका प्रारम्भिक रूप अवग्रह शान है और अनुममचे जैनागममें अमज्ञी जीवोंके श्रुतज्ञानकी पत्ता मान उस मतिज्ञानका अन्तिम रूप है। मतिज्ञानका अंतिम म्वीकार करनेमे मेरे मनमें यह विचार सतत उत्पन्न होता रूप यह अनुमान ज्ञान श्रुतज्ञानकी उत्पत्तिमें कारण होता है। रहा कि श्रुतज्ञान, जो कि मनके अवलम्बनसे ही उत्पन्न होना अागमके 'मतिपूर्व श्रुतम्' इस वाक्यसे भी उन बातका समर्थन , है, मन रहित असंज्ञी जीवोंके कैसे सम्भव हो सकता है? होता है।
प्रायः वर्तमान समयके सभी दि० विद्वान् अमंजी जीवोंके किमी एक घट शब्दमें गुरु द्वारा घट रूप अर्थका सकेत मनका प्रभाव निश्चित मानते हैं इसलिये उनक (श्रमज्ञी ग्रहण करा दनके अनन्तर शिष्यको सतत घट शब्द श्रवणके जीवोंके) भागममें स्वीकृत श्रुतज्ञ'नकी सत्ता स्वीकार करके अनन्तर जो घटेरूप अर्थका बोध हो जाया करता है वह बोध भी वे विरोधका परिहार इस तरह कर लेते हैं कि श्रमज्ञी उम शिष्यको अनुमान द्वारा उस घट शब्दमें घट रूप अर्थका जीवोंके मनका अभाव होनेके कारण लब्धिरूप ही श्रुतज्ञान संकेत ग्रहण करनेपर ही होता है अतः अनुमानकी श्रुतज्ञानपाया जाता है क्योंकि उपयोगरूप श्रुतज्ञान मनक मदाबके की उत्पत्तिमें कारणता स्पष्ट है और चूंकि अनुमान मनिविना उनके (अमझी जीवोंके) संभव नहीं है।
ज्ञानका ही अंतिम रूप है अत: 'मतिपूर्व श्रुतम्' ऐसा निर्देश दि.विद्वानोंका उक्त निष्कर्ष मुझे संतोषप्रद नहीं आगममें किया गया है।