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________________ २२८] अनेकान्त [वर्ष १३ - कई लोगोंका ख्याल है कि 'जब अर्थसे अर्थान्तरके होता है परन्तु इतना विशेष है कि किसी-किसी ज्ञानमें तो बोधको श्रुतज्ञान कहते हैं तो श्रुतज्ञानको अनुमान ज्ञानसे पदार्थका दर्शन कारण होता है और किसी-किसी ज्ञानमें पृथक् नहीं मानना चाहिये' परन्तु उन लोगोंका उक्त ख्याल पदार्थका दर्शन कारण न होकर पदार्थ ज्ञानका दर्शनकारण ग़लत है। क्योंकि मैं ऊपर बतला चुका हूँ कि श्रुतज्ञानमें होता है, जिन ज्ञानों में पदार्थका दर्शन कारण होता है उन अनुमान कारण है अतः अनुमान ज्ञान और श्रुतज्ञान दोनों ज्ञानोंमें पदार्थ स्पष्टताके साथ झलकता है। अतः वे ज्ञान एक कैसे हो सकते हैं? विशद कहलाते हैं और इस प्रकारको विशदताके कारण हो जिस प्रकार श्रुतज्ञानमें कारण अनुमानज्ञान है और वे ज्ञान प्रत्यक्ष ज्ञानकी कोटिमें पहुंच जाते हैं। जैसे-अवधि, अनुमानज्ञानके अनन्तर ही श्रुतज्ञान उत्पन्न होता है उसी मनःपर्यय और केवल ये तीनों स्वापेक्षज्ञान तथा स्पर्शन, रसना, प्रकार अनुमानज्ञानमें कारण तर्कज्ञान होता है और तर्कज्ञान- नापिका, नेत्र और कर्ण इन पांच इन्द्रियोंसे होने वाला के अनन्तर ही अनुमानज्ञानको उत्पत्ति हुना करती है इसी पद र्थज्ञान तथा मानस प्रत्यक्ष ज्ञान । एवं किन ज्ञानोंमें तरह तर्कज्ञानमें कारण प्रत्यभिज्ञान, प्रत्यभिज्ञानमें कारण पदार्थका दर्शन कारण नहीं होता है अर्थात् जो ज्ञान पदार्थस्मृतिज्ञान और स्मृतिज्ञानमें कारण धारमा ज्ञान हुआ करता दर्शनके प्रभाव में ही पदार्थज्ञानपूर्वक या यों कहिये कि पदर्थ है तथा तर्कज्ञानके अनतर ज्ञानकी उत्पत्तिके समान ही प्रत्य- ज्ञानदर्शनके सदभावमें उत्पन्न हुश्रा करते हैं उन ज्ञानों में भिज्ञानके अनन्तर ही तर्कज्ञानकी, स्मृतिज्ञानके अनन्तर ही पदार्थ स्पष्ठताके साथ नहीं झलक पाता है अत: वे ज्ञान प्रत्यभिज्ञानकी और धारणाज्ञानके अनन्तर ही स्मृतिज्ञानको प्रविशद कहलाते हैं और इस प्रकारकी अविशदताके कारण उत्पत्ति हुआ करती है। ही वे ज्ञान परोक्षज्ञानको कोटिमें चले जाते हैं जैस-स्मृति, इस प्रकार श्रुतज्ञानकी तरह उक प्रकारके मतिज्ञानों में प्रत्यभिज्ञान, तर्क व अनुमान ये चारों मतिज्ञान तथा श्रुतज्ञान। भी मतिज्ञानकी कारणता स्पष्ट हो जाती है क्योंकि अनुमान यहाँ पर यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि दर्शन तर्क, प्रत्यभिज्ञान, स्मृति और धारणा ये सभी ज्ञान मति और ज्ञानमें जो कार्यकारण भाव पाया जाता है, वह सहज्ञानक ही प्रकार मान लिये गये हैं 'मतिः स्मृतिः संज्ञा भावी है इसलिए जब तक जिस प्रकारका दर्शनोपयांग विद्यचिन्ताभिानबोध इत्यनन्तरम्' इस अगमवाक्यमें मतिक मान रहता है तब तक उसी प्रकारका ज्ञानोपयोग होता रहता अर्थमें 'अवग्रहहावायधारणाः' इस सूत्र वाक्यनुसार धारणा है और जिम क्षणमें दर्शनोपयोग परिवर्तित हो जाता है उसी का अन्तर्भाव हा जाता है तथा प्रत्यभिज्ञानका ही अपर नाम । क्षणमें ज्ञानोपयोग भी बदल जाता है 'दंसणपुच्वं गाणम्' संज्ञाको, तर्कका ही अपर नाम चिन्ताको और अनुमानका इस आगम वाक्यका यह अर्थ नहीं है कि दर्शनोपयोगके ही अपर नाम अभिनिबोधको माना गया है। अनन्तरकालमें ज्ञानोपयोग होता है क्योंकि यहाँ पर पूर्व यहाँ पर इतना और ध्यान रखना चाहिये कि जब शब्द ज्ञानमें दर्शनकी सिर्फ कारणताका बोध करानेके लिये स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क और अनुमान इन सब प्रकारके ही प्रयुक्र किया गया है जिसका भाव यह है कि दर्शनक मतिज्ञानोंमें तथा श्रुतज्ञानमें पदार्थका दर्शन कारण न होकर बिना किसी ज्ञानकी उत्पत्ति सम्भव नहीं है। यथायोग्य ऊपर बतलाये गये प्रकारानुसार पदार्थज्ञान अथवा यों कहिये कि पदार्थज्ञानका दर्शन ही कारण हुअा करता है इस कथनसे छमस्थजीवों में दर्शनोपयोग और शानोपअतः ये सब ज्ञान- परोक्षज्ञानको कोटिमें पहुंच जाते हैं क्यों योगके क्रमवीपनेकी मान्यताका खण्डन तथा केवलीके कि पदार्थदर्शनके प्रभावमें उत्पन्न होनेके कारण इन सब समान ही उनके (वयस्थोंक) उन दोनों उपयोगोंके यौगपद्य का समर्थन होता है। ज्ञानोंमें विशदताका प्रभाव पाया जाता है जबकि 'विशदं प्रत्यक्षम्' श्रादि वाक्यों द्वारा आगममें विशद ज्ञानको ही इस विषयके मेरे विस्तृत विचार पाठकोंको भारतीय ज्ञानप्रत्यक्षज्ञान बतलाया गया है यहाँ पर ज्ञानकी विशदताका पीठसे प्रकाशित होने वाले ज्ञानोदय पत्रके अप्रेल सन् १९५० तात्पर्य उसकी स्पष्टतासे है और शानमें स्पष्टता तभी आ के अंकों प्रकाशित 'जैन दर्शनमें दर्शनोपयोगका स्थान' शीर्षक सकती है जबकि वह ज्ञान पदार्थदर्शनके सजावमें उत्तम हो। लेखरों तथा जून १७ के अंकमें प्रकाशित 'ज्ञानकं प्रत्यक्ष और तात्पर्य यह है कि यद्यपि प्रत्येक ज्ञानमें दर्शन कारण परोक्ष भेदोंका आधार' शीर्षक लेखमं दखनेको मिल सकते हैं।
SR No.538013
Book TitleAnekant 1955 Book 13 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size24 MB
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